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मीरां के जोगी या जोगिया का मर्म- शंभुसिंह मनोहर

नागरी प्रचारिणी पत्रिका

मीरां के जोगी या जोगिया का मर्म- शंभुसिंह मनोहर

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    मीरां के कुछ पदों में जोगी या जोगिया का उल्लेख हुआ है। उदाहरणार्थ-

    1. जोगी मत जा, मत जा, पांइ परुँ मैं तेरी चेरी हो।

    प्रेम भगति के पैंडो म्हारो, हमको गैल बताजा।।

    2. जोगिया जी आज्यो जी इण देस।

    नैणज देखूँ नाथ नै, धाइ करुँ आदेस।।

    3. जोगिया से प्रीत कियां दुख होय।

    प्रीत कियां सुख नाहिं मोरि सजनी, जोगी मिंत होय।।

    इन संबोधनों के आधार पर कुछ विद्वानों ने मीरां का संबंध नाथ संप्रदाय से तथा कुछ ने किसी जोगी विशेष से जोड़ने का प्रयास किया है।

    इस संबंध में, उनमें से कुछ विद्वानों एवं विदुषियों के विचार अवलोकनीय हैं।

    डा. हीरालाल माहेश्वरी लिखते हैं- ‘उपर्युक्त (उनके द्वारा ‘जोगी’ या ‘जोगिया’ शब्द के प्रयोग के दिए गए 22 उद्धरणों) पदों से स्पष्ट है कि मीराँ की प्रेमसाधना में किसी किसी जोगी का सहयोग अवश्य रहा था और संभवतः यह जोगी तथा वह गुरु ज्ञानी एक ही है, जिसकी सूरत को देखकर मीरां क्षुब्ध हो गई थी (मिलता जाज्यो रे गुरु ज्ञानी)।

    डा. सावित्री सिन्हा का मत है- ‘मीरां के आराध्य का दूसरा निर्गुण पंथी रूप पूर्णतया लौकिक है। जिस योगी के प्रेम में वह व्याकुल है, वह एक साधारण योगी है, जो उसके मन में प्रेम की अग्नि लगाकर चला गया है।’

    डा. श्रीकृष्णलाल के मतानुसार- ‘मीरां के गिरधर नागर का जो योगी स्वरूप है उस पर स्पष्टतः नाथ संप्रदाय के योगियों का प्रभाव दिखाई पड़ता है।’

    सुश्री पद्मावती शबनम लिखती हैं- ‘मीरां ने अपने आराध्य को बारबार जोगी नाम से संबोधित किया है। मीरां के जोगी की वेशभूषा भी नाथ परंपरानुसार ही है। पादाभिव्यक्तियों के आधार पर यह सुस्पष्ट हो उठता है कि मीरां के ये आराध्य नाथ-परंपरानुसार वेशभूषा से विभूषित, नाथ-परंपरानुकूल जोगी-कर्म में रत हैं।’

    ‘जोगी, मत जा, मत जा’ पद के आधार पर प्रो. मुरलीधर श्रीवास्तव कहते है कि इस प्रसिद्ध गीत में भी स्पष्ट ही जोगी के प्रति प्रेम निवेदित किया है। वह गुरु से अनुरोध कभी नहीं हो सकता। यह तो प्रेमिका का प्रेमी से अनुरोध है।

    और भी अनेक विद्वान है, जिन्होंने प्रायः इसी स्वर में अपना स्वर मिलाया है, जिसके फलस्वरूप जोगी से संबद्ध ये धारणाएँ हिंदी जगत् में अतर्क्य सत्य के रूप में प्रतिष्ठित हो गई हैं। परंतु तथ्य यह है कि ये सभी भ्रांत, असंगत और निर्मूल हैं। खेद की बात यह है कि विद्वानों ने इस शब्द पर उतनी गंभीरता से विचार एवं मनन नहीं किया जितना अपेक्षित था जिसके फलस्वरूप मीरांविषयक अनेक गंभीर भ्रांतियों को अनायास पोषण मिल गया।

    जहाँ तक नाथ संप्रदाय के प्रभाव की बात हैं, यह अपने आप में एक अलग प्रश्न है, जो इस लेख का प्रतिपाद्य नहीं है। मीरां पर नाथ संप्रदाय का प्रभाव था या नहीं एवं यदि था तो किस रूप में एवं किस सीमा तक इसका प्रस्तुत पंक्तियों के लेखक ने मीरां पर अपनी प्रकाशनाधीन पुस्तक में सविस्तार विवेचन किया है। यहाँ केवल इतना ही निवेदन करना है कि मीरां द्वारा प्रयुक्त ‘जोगी’ या ‘जोगिया’ का नाथ संप्रदाय से कोई संबंध नहीं है।

    तथापि, प्रासंगिक रूप से अपने मत की पुष्टि में इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि केवल एक संबोधन के आधार पर ही मीरां पर नाथ संप्रदाय का प्रभाव सिद्ध नहीं किया जा सकता। भक्तों तथा प्रेमियों में अपने आराध्य या प्रियतम के अनेक नामों से गुणस्तवन एवं अनेक संबोधनों से प्रण्यनिवेदन की एक परंपरा रही है। उदाहरणार्थ राजस्थान के प्रसिद्ध भक्त कवि पीरदान लालस ने ईश्वर को अन्य नामों के साथ ‘अला’ (अल्लाह) कह कर भी बारंबार स्मरण किया है। यथा-

    निमो रामचंद्र राघव रुधनाथुं,

    भाई लखमण अनै सत्रघण भरथुं।

    निमो ब्रिजरा बाल स्रग लोक वासी,

    आया नंद रे आंगणे अविनासी।

    अला नंद रे आंगणे मांहि नाचै,

    अला राम रा सहज साचि राचै।।

    अला बाप चरिताल हाथे बँधावै,

    अला हेत सां जसोदा हुलरावै।

    अला वन मां जाइ मुरली बजावै,

    राजा नाम नां एथि राधा रमावै।।

    अला मथुरा मां जाइ कंस मारे,

    अला आपरा भगत ओथीं उधारे।

    उपर्युक्त उद्धरण में प्रत्येक ‘अला’ (अल्लाह) संबोधन के आधार पर क्या भक्तवर पीरदान जी को इस्लाम का अनुयायी मान लें? या फिर यह मान लें कि अल्लाह ने ही वृंदावन में मुरली बजाई थी और मथुरा में कंस को मारा था? यदि यहाँ ‘अल्लाह’ के आवरण में कृष्ण का सगुण स्वरूप देखा जा सकता है तो प्रेमयोगिनी मीरां के ‘जोगिया’ में उसके अनन्य प्रियतम सांवरिया का स्वरूप क्यों नहीं?

    सर्वाधिक चिंत्य तो उन विद्वानों और विदुषियों की वह धारणा है जिसके अनुसार वे इस भक्त कवयित्री के पावन प्रेम में लौकिक वासना की गंध देखते हैं। इससे उनकी विकृत रुचि एवं असंस्कृत वृत्ति का ही ज्ञापन हुआ है, अन्यथा इस शब्द में गर्भित हमारी महान् सांस्कृतिक परंपरा एवं इसके प्रयोग से उद्दिष्ट निगूढ़ प्रेम की व्यंजना के मर्म को समझे बिना वे मेवाड़ की उस महीयसी राजवधऊ के चरित्र पर ऐसा कुत्सित एवं अशोभनीय लांछन लगाने का दुस्साहस करते।

    इस संबंध में गुजराती विद्वानों ने, जिन्हें गुजरात एवं राजस्थान की प्राचीन भाषागत एकता के कारण राजस्थान की सांस्कृतिक परंपराओं एवं आधर्शों का अंतरंग ज्ञान है, कहीं अधिक सूझ से एवं अधिकार पूर्वक लिखा है। उदाहरणार्थ प्रसिद्ध गुजराती विद्वान् डा. मंजुलाल मजुमदार लिखते हैं-

    ‘जोगिया’ तूं कद रे मिलोगे आई?

    तेरे ही कारण जोग लिया है, घर घर अलख जगाई

    पद मां ‘जोगिया’ अवश्य मीरांना प्रेमी छे, बीजा एक पद मां ‘जोगी’ ने पोता नो प्रेमपात्र कह्यो छे-

    जगिया से प्रीत-कियां दुख होयः

    प्रीति किया सुख नांहि, मोरी सजनी, जोगी मित होय।

    वे आगे लिखते हैं-

    मीरांना ‘जोगिया’ (योगी) कृष्ण छे, कृष्ण ने योगी रूपमां साभरवामां औचित्य छे, के एवो प्रेमी, थोडा एवा कालना संयोग पंछी, ते प्रेमिका नो त्याग करीने जतो रहयो होय- तेने ‘योगी’ कही ने तेना मिलन (‘योग’) नु स्मरण करवुं साभिप्राय कथन छे-

    ‘जोगी’ मत जा, मत जा, मत जा-

    पांई परु मैं तेरी हौं-

    प्रेम भगति को पेंडों ही न्यारो, हमकूँ गेल बताजा।

    प्रसिद्ध गीतमां ‘जोती’ प्रत्ये प्रेमनुं प्रत्यक्ष कथन थयेलुं छे, ‘जोगी’ ना रूप मां मीरा कृष्णनुं स्मरण कर्यु छे।

    वस्तुतः इन पदों में प्रयुक्त ‘जोगी’ या ‘जोगिया’ शब्दों के द्वारा मीरां ने अपने आराध्य कृष्ण का ही स्मरण किया है। यदि हम इन संबोधनों के साथ व्यवहृत ‘प्रेम भगति’, ‘प्रीत कियां’ आदि शब्दावली पर भी ध्यान दे तो उससे यह निर्विवाद रूप से सिद्ध हो जाता है कि नाथ संप्रदाय के संदर्भ में इनकी कोई संगति नहीं है। दूसरे, मीरां ने अपने एक अन्य पद में केवल ‘भगवा’ वेश धारण कर ‘सन्यासी’ बनने या ‘जोगी’ होने की स्पष्ट शब्दों में भर्त्सना की है-

    कहा भयो है भगवा पहरयां, घर तज भये सन्यासी।

    जोगी होय जुगति नहिं जाणी, उलटि जनम फरि आसी।।

    अतः नाथ संप्रदाय से ‘जोगी’ या ‘जोगिया’ का संबंध जोड़ते हुए मीरां को उससे प्रभावित मानना सर्वथा निर्मूल है।

    अब रही किसी लौकिक जोगी से मीरां की अनुरक्ति की बात, तो वह मीरां की केवल एक पंक्ति के आगे ही खंडित हो जाती है-

    मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो कोई

    कृष्ण योगेश्वर भी हैं। यदि ‘योग’ शब्द की डा. मंजुलाल मजमुदार की व्याख्या हम भी मानें (योग=संयोग, मिलन) तो राजस्थानी साहित्य में कृष्ण के लिये बहुशः प्रयुक्त ‘जोगेस’, ‘जोगाणंद’ आदि संबोधनों को अमान्य समझने का कोई कारण नहीं है। राजस्थानी भक्तिकाव्यों में कृष्ण के लिये ‘जोगेस’ ‘जोगाणंद’ आदि संबोधन इस बात के असंदिग्ध प्रमाण है कि कृष्ण के अनेत नामों या उपाधियों के साथ इनके प्रयोग की भी एक सामान्य परिपाटी रही है। उदाहरणार्थ महात्मा ईसरदास (संवत् 1595-1675) भगवान् को विविध रूपों में स्मरण करते हुए उनके इस योगी रूप का भी स्तवन करते हैं-

    (1) नमो नर- मारण जोग निवास

    नमो दुख हूँत उगारण दास

    नमो गज तारण मारण ग्राह।

    नमो व्रज काज सुधारण वाह।।

    (2) जरा जमजीत अजीत जोगेस।

    आदेश आदेस आदेस आदेस।।1

    (3) गोविंद! भगत निवारण ग्रंभ,

    परंभ अमीय भयं पद प्रंभ,

    सदा उनमद्द जोगाणंद सिद्ध,

    वयं तन बाल जोवन व्रद्ध।।

    गीता में तो स्पष्ट उल्लेख है ही—

    सत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्द्धरः।

    तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम।।

    अतः मीरा ने यदि अपने स्वामी गिरधरलाल के लिये ‘जोगी’ या ‘जोगिया’ शब्द का प्रयोग कर लिया तो इसमें क्या अनर्थ हो गया? वस्तुतः सगुण, सलोने कृष्ण ही मीरां के एकमात्र आराध्य एवं अनन्य प्रियतम थे, जिन्हें वह प्रीतिवश नामभेद से ही ‘जोगी’ या ‘जोगिया’ कह कर पुकारती है।

    परंतु, प्रश्न है कि इस ‘जोगिया’ संबोधन में क्या कोई और भी गहरा रहस्या है? हाँ, बात कुछ ऐसी ही है। मेरे विनम्र मत से ‘जोगिया’ शब्द के मूल में दांपत्यप्रेम की एक महान् परंपरा छिपी पड़ी है। हमारे प्राचीन साहित्य में अपने प्रेमी के लिये ‘जोगन बन जाने’ या प्रेमिका के लिये ‘जोगी होकर निकल पड़ने’ संबंधी अनेकशः उल्लेख मिलते हैं। उदाहरणार्थ-

    1. मैं धणी!थारी मेल्ही आस।

    जोगणी होइ सेवुं बन वास।।

    2. जमला मैं जोगण भई प्रेरे भ्रग की खाल।

    बन बन सारो ढूंढियो, करत जमाल जमाल।।

    3. सांवरे की खात जोगन हूँगी, घर घर दूंगी फेरी।

    4. जेठा घड़ी जाय, जमारो किम जावसी।

    बिलखतड़ी बीहाय, जोगण करगो जेठवा।।

    विरहवर्णन के प्रसंग में ये उल्लेख प्रायः काव्यरूढ़ि की संज्ञा पा गए है। क्या ये सब अकारण हैं? उक्त रूढ़ि के मूल स्रोत एवं प्राचीन साहित्य में ‘जोगियां’ शब्द के विशिष्टार्थ में प्रयोग को देखते हुए मेरी यह विनम्र स्थापना है कि यह शब्द काव्यरूढ़ि में प्रेमी या प्रियतम का ही वाचक होकर आया है। दूसरे शब्दों में जोगियां, योगी का ही प्रेममूलक संस्करण है, रागात्मक रूपांतर है जो भावार्थ में प्रेमी या प्रियतम का वाचक है।

    राजस्थानी की प्रियतमवाची विशाल शब्दपरंपरा

    राजस्थानी में प्रेमी या प्रियतमवाची शब्दों की एक इतनी समृद्ध परंपरा रही है कि शायद ही किसी अन्य प्रांतीय भाषा में देखने को मिले। ‘जोगिया’ शब्द के इस विशिष्टार्थ को समझने के लिये तथा उसके मर्म को पूर्णतः हृदयंगम करने के लिये हमें राजस्थानी की इस महान् शब्दपरंपरा से परिचित होना आवश्यक है।

    राजस्थानी की यह प्रियतमवाची शब्दावली उसके शताधिक प्रेमाख्यानों एवं सहस्राधिक लोकगीतों में बिखरी पड़ी है। इन्हें देखने से पता चलता है कि कुछ शब्द तो व्यक्तिवाचक संज्ञाओं से प्रेमी या प्रियतम के अर्थ में प्रयोगरूढ़ हो गए हैं तथा कुछ पद, उपाधि या किसी गुणविशेष के आधार पर कालांतर में सामान्य प्रेमी या प्रियतम का वाचकत्व करने लगे हैं। जहां तक व्यक्तिवाचक नामों या संज्ञाओं का प्रश्न है, उनके साथ कोई कोई प्रेमकथा जुड़ी हुई हैं। दूसरे शब्दों में, वे किसी किसी प्रेमाख्यान के नायक-नायिका रहे हैं। आगे चल कर ये व्यक्तिवाचक अभिधान अपनी निजी व्यंजनाएं छोड़ बैठे तथा अर्थविस्तार की प्रक्रिया के फलस्वरूप सामान्य प्रेमी या प्रियतम का ही वाचकत्व करने लगे। राजस्थानी लोकगीतों में बहुशः प्रचलित ढोला, मारु (पुंलिंग में प्रयुक्त होने पर प्रियतम के अर्थ में रूढ़) ‘जल्ला’ या जलाल, पना, पना-मारु आदि ऐसे ही शब्द हैं जिनके साथ कोई कोई प्रेमाख्यान जुड़ा हुआ है एवं उन प्रेमाख्यानों के नायक होने के कारण अब ये शब्द, मात्र व्यक्तिवाचक संज्ञाएँ रह कर, प्रेमी या प्रियतम के ही पर्याय हो गए हैं। कुछ उदाहरण देखिए—

    ढोला-

    1. थांने तो प्यारी, पिया, परदेसां री चाकरी जी,

    ढोला, ह्मांनै तो प्यारा लागो, प्यारा लागो आप।

    2. एक थंभियो ढोला महल चिणाव।

    च्यारूं दिसा में राखो गोखड़ा जी ह्मांरा राज।

    मारूजी या पना-मारू----

    1. थे तो चाल्या जी, पना-मारू चाकरी।

    धण रो के रै हवाल, गोरी नै खिनाय ज्यावो बाप कै।

    2. एक वर करला थारा मारूजी, पाछा जी मांड़।

    ‘जला’ या जलाल-

    जला मारू, ह्मे तो थारा डेरा निरखण आई हो।

    ह्मारी जोड़ी रा जलाल, ह्मे तो थारा डेरा निरखरा आई हो जलाल।।

    इसी प्रकार कार्य, पद, उपावि, स्थिति या गुणविशेष के आधार पर जो शब्द प्रेमी या प्रियतम का वाचकत्व करते हैं उनमें ओलगियो, उलिगाणो, लसकरियों, उमराश, भंवर जी, कंवर जी, सायबो, आलीजो, केसिरियो, मनभरियो, रसियो, मदछकियो, रंगरसियो, राजिंद, साजनिया, बालम, राजीड़ा, गुमानी, माणीगर आदि उल्लेखनीय हैं। स्थानाभाव से यहाँ प्रत्येक का उदाहरण देना संभव नहीं होगा अतः केवल कुछ के ही दिए जा रहे हैं जिससे विद्वान् पाठक यह अनुमान कर लेंगे कि किस प्रकार के शब्द अपने सामान्य वाच्यार्थ को छोड़ कर प्रेमी या प्रियतम के अर्थ में रूढ़ हो गए है-

    1. ह्यारा ओलगिया घर आज्यो जी (मीरां)।

    2. चालइ उलिगाणा, धन जाण देहि (बीसलदेव रासो)।

    3. थे कित रैन गुमाई लसकरिया। (किरती-लोकगीत)।

    4. जी उमराव थारी सूरत प्यारी लागै ह्मारा राज। (उमराव-लोक.)

    5. सुणो भंवर, ह्मांने सपनो सो आयो जी राज। (सुपनो)

    6. ह्मारै माथै नैं मैंमद ल्यावो रंगरसिया। (लोकगीत)

    7. तालो तो ढक कर मन भरियो कूंची ले गयो।

    8. भंवर थांनै गोरी सैं मिल्यां द्या जी।

    9. ह्मे करांगा साजनिया सैं गोठडी।

    10. सुख-सेज सायब पूत जारो, करो राजीड़ा मनरली।

    11. चुड़लै री भोज थारो आलीजो लगावै। (जच्चा),

    12. थारी तो घाली गोरी रा सायबा (कांकरडी),

    उपर्युक्त कुछ उद्धरणों से यह स्पष्ट हो जायगा कि इनमें प्रयुक्त प्रेमी या प्रियतमवाचक शब्दों को अपने प्रचलित अभिधार्थ में ग्रहण कर अपने विशिष्टार्थ में ही ग्रहण किया जाता है अन्यथा किसी भी हिंदू प्रेमी को ‘जलाल’ या किसी भी सामान्य प्रेमी को ‘कंवरजी’ या ‘भंवरजी’ कहने का क्या अभिप्राय है? जब हम इन शब्दों के अर्थनिर्णय में इनके वाच्यार्थ पर आग्रह नहीं करते तो फिर ‘जोगिया’ शब्द को लेकर ही यह अनपेक्षित वितंडावाद क्यों?

    वस्तुतः राजस्थानी की इस नाना शब्दमयी प्रेममूलक संबोधन परंपरा के परिचय के अभाव में हमारे विद्वज्जनों ने राजस्थानी कवियों द्वारा प्रीतिसंदर्भ में प्रयुक्त इन ‘जोगी’ या ‘जोगिया’ शब्दों का केवल वाच्यार्थ ग्रहण कर अनर्थ कर डाला है। वे इनके प्रयोग से भ्रमित हो गए हैं। इस विशिष्ट संदर्भ से परिचित हो लेने के अनंतर अब हम ‘जोगिया’ शब्द के मूल उत्स, एवं इसके पीछे निहित सांस्कृतिक आदर्श तथा इसके इसी अर्थ (प्रियतम या प्रेमी वाचक) में प्रयोग की सुदीर्घ काव्यपरंपरा पर सोदाहरण विचार करेंगे ताकि इस विषय में तनिक भी भ्रांति या संशय का अवकाश रहे।

    ‘जोगिया’ शब्द का मूल उत्स

    इस काव्यरूढ़ि एवं विशिष्टार्थवाची शब्दप्रयोग का उत्स मेरे विचार से शिव-पार्वती-संबंध में है जिसने दांपत्य प्रेम के उत्कृष्टतम आदर्श के रूप में अखिल भारतीय वाङ्गमय, विशेषतः राजस्थानी काव्यपरंपरा को अतिशय प्रभावित किया है। काव्य ही क्यों, राजस्थान के सांस्कृतिक जीवन में भी शिव-पार्वती के अखंड, अगाध एवं जन्म-जन्मान्तर-व्यापी अटूट संबंध, दाम्पत्य प्रेम का स्पृहणीय आदर्श बन कर प्रतिष्ठित हो गया है। राजस्थान का महान् सांस्कृतिक पर्व ‘गणगौर’ इसका ज्वलंत प्रतीक है। इस संबंध में राजस्थान के वयोवृद्ध तथा यशस्वी विद्वान् पं. झाबरमलजी शर्मा का यह कथन द्रष्टव्य है-

    ‘वस्तुतः सनातन सभ्यता में जो कल्याणमय दांपत्य प्रेम है, उसकी मंदाकिनी का स्रोत शंकर-पार्वती से ही प्रारंभ होता है। दांपत्य प्रेम के उच्चादर्श की शिक्षा देने के लिये ही सांबशिव की पूजा का विधान विशेष रूप से किया गया है। भारत-वर्ष के अन्त प्रांतों के संबंध में तो मैं नहीं कह सकता किंतु राजस्थान में सोलहों आने उक्त विधान की कार्य में परिणति ईश्वर-गौरी (गण-गौर) के महोत्सव के रूप में देखी जाती है।’

    जब पूर्व भव में दक्षकन्या सती अपने गर्वोन्मत्त पिता द्वारा अपने पति (सदाशिव) का अपमान सहन कर सकी तो उसने ‘तज्जन्म धिग् यन्महता-मवद्यकृतं’- उस जन्म को धिक्कार है जिससे अपने आराध्य का अपमान होता है, कहते हुए अपने इस शरीर को ही इस भाव से त्याग दिया कि यह दक्ष से उत्पन्न हुआ है। उसी सती ने अगले जन्म में हिमाचलकन्या पार्वती के रूप में जन्म लिया एवं अपने पूर्व जन्म के आराध्य शिव को प्राप्त करने के हेतु उसने कठोर तपश्चर्या की। महाकवि कालिदास की अमरकृति ‘कुमारसंभव’ में इस प्रसंग का बड़ा ही मार्मिक चित्रण हुआ है। इधर योगेश्वर शिव समाधि में लीन हो गए। अनेक दिवस, पक्ष, मास और वर्ष बीतते चले गए परंतु भघवान् चंद्रशेखर की समाधि नहीं खुली। इंद्रादि देवों से प्रेरित हो जब मदन ने शिव की समाधि भंग करने का दुस्साहस किया तो वह क्षणांतर में उनके कोपानल में भस्म हो गया। इधर जब पार्वती ने देखा कि पूर्व तपोसाधना से इष्ट फल की प्राप्ति नहीं हो रही है तो वह कोमलांगी अपने सुकुमार अंगमार्दव की ओर किंचिन्मात्र भी ध्यान दे और भी कठोर तपश्चर्या में निरत हो गई-

    यदा फलं पूर्वतपः समाधिना तावता लभ्यममंस्तकांक्षितम्।

    तदानपेक्ष्य स्वशरीर मार्दवं तपो महत्सा चरितुं प्रचक्रमे।।

    पुत्री को इतनी कठोर तपस्या करते देख माता के बारंबार निषेध किए जाने के कारण ही उसका नाम ‘उमा’ हुआ। कालिदास कहते हैं-

    उमेति मात्रा तपसो निषिद्धा पश्चादुमारूयां सुमुखी जगाम।

    तपस्या से ही तपस्वी के हृदय को जीता जा सकता है। हिंदू शास्त्रों में सदाशिव की जो सनातन मूर्ति बताई गई है, उसमें शिव ध्यानमग्न समाधि लगाए हुए आत्मचिंतन कर रहे हैं।

    इस संदर्भ में यदि हम अपने प्राचीन प्रेमाख्यानों में वर्णित अपने प्रियतम की प्राप्ति हेतु ‘जोगन बन जाने’ संबंधी उल्लेखों पर विचार करें तो यह समझने में कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए कि इस महत् भावना का मूल शिवपार्वती के पवित्र प्रेमसंबंध में ही है, जिसकी परंपरा अत्यंत प्राचीन है एवं जो दांपत्य प्रेम का सर्वोपरि आदर्श है। अर्द्धनारीश्वर के रूप में शिवपार्वती के जिस अभिन्न और अनन्य स्वरूप की उद्भावना की गई है, वह निश्चय ही भारतीय दांपत्य प्रेम की उत्कृष्टतम परिकल्पना है जिसके माध्यम से नारी पुरुष के उदात्ततम प्रणयसंबंध की अभिव्यक्ति हुई है। अतः हमारे प्राचीन काव्यों में प्रेम अथवा विरह वर्णन के प्रसंग में भगवती पार्वती द्वारा घ्यात शिव के उस योगी अथवा समाधिस्थ रूप का ही स्तवन है जिसके साथ जन्म-जन्मांतर-व्यापी गंभरी दांपत्य प्रेम का भाव जुड़ा हुआ है तथा जो भावार्थ में अपने प्रेमी अथवा प्रियतम का ही वाचक है क्योंकि योगेश्वर शिव पार्वती के अनन्य आराध्य एवं प्रियतम भी हैं। अतः सांबशिव के उस योगी रूप के साथ अभिन्नतः संश्लिष्ट उनका प्रेमी या प्रियतम रूप ही ‘जोगी’ या ‘जोगिया’ शब्द का मूल है, जिसके इस विशिष्टार्थ में प्रयोग की एक स्पष्ट एवं सुदीर्घ परंपरा हमारे काव्यों में निरवच्छिन्न रूप से चली आई हैं। उदाहरणतः महाकवि विद्यापति रचित ‘महेशबानीय’ में, जो मिथिला भर में शुभ अवसरों पर गाई जाती है, शिव को ‘जोगिया’ कह कर ही पुकारा गया है तथा उसमें शिव के योगी रूप के साथ उनका पार्वतीवल्लभ रूप भी अभिन्नतः अंतर्भावित है। एक उदाहरण देखिए-

    जोगिआ एक हम देख लगे माई,

    अद्भुत रूप मोहि कहलोने जाई।

    सिर बहु गंग तिलक सोभे चंदा,

    जाहि जोगिआ लए रहलि भवानी

    सएह जोगिआ माई आवि तुलानी।।

    तथा इसी महेशबानी का यह अंश और देखिए-

    हम सों रूसल महेसे,

    गौरि विकल मन करथि उदेसे।

    पुछिअ पंथुक जन तोही,

    पथ देखल कहु बूढ़ बटोही।

    अंग में विभूति अनूपे,

    कते कहब हुनि जोगिक सरूपे।

    विद्यापति भन ताहि,

    गौरि हर लए मेलि बनाही।।

    जयदेव और विद्यापति की गेय-काव्य-परंपराओं ने मध्ययुगीन गुजराती और राजस्थानी काव्यों को अतिशय प्रभावित किया है। प्राचीन राजस्थानी और गुजराती, दोनों भाषाएँ 15 वीं शताब्दी तक एक थीं। उसके बाद ही इन दोनों ने अपने विकास की अलग अलग राहें पकड़ी।

    अतः राजस्थानी तथा गुजराती में भी, समान भाषा एवं सांस्कृतिक परंपराओं के कारण, हमें ‘जोगी’ या ‘जोगिया’ शब्द के उक्त अर्थ में प्रयोग के, अनेक उदाहरण मिल जाते हैं। जिनसे हमारे प्रस्तावित अर्थ की विर्विवाद रूप से पुष्टि होती है।

    उदाहरणतः जोधपुर के महाराज मानसिंहजी डिंगल और पिंगल के उत्कृष्ट कवि हो गए हैं। उन्होंने अतीव भावपूर्ण स्फुट श्रृंगारिक पद भी लिखे हैं जो ‘रसीले राज (महाराजा का उपनाम) रा गीत’ शीर्षक से प्रकाशित हुए है। उक्त संग्रह के कुछ उद्धरण देखिए-

    1. रसीले राज जोगिया की मिहर सों सुख की लहर ले

    जोग की कला में आए राधा नंद कुंवार।

    2. रसीलेराज रीझत जोगिया जान जानी।

    3. मोर मुगट कट काछनी काछें

    पीत पिछौरा उवैसो छिब को निधान।

    रसीलेराज जोगिया की मिहर तें

    गोकुल त्रियन के वस किए हैं प्रान।।

    यदि विद्वज्जनों को इतने पर भी संतोष हो तो वे आधुनिक गुजराती के सर्वश्रेष्ठ कवि और नाटककार नान्हालाल दलपतराम लिखित ‘जया-जयंत’ नाटक के निम्नोक्त उद्धरणों का अवलोकन करें जिनसे यह स्पष्ट पता चल जायगा कि ‘जोग’ या ‘जोगी’ शब्द केवल अपने सामान्य पारिभाषिक अर्थ में ही गृहीत होकर प्रेम अथवा श्रृंगार के प्रसंग में भी उतनी ही मार्मिकता से प्रयुक्त हुआ है। ‘जया-जयंत’ नाटक के ये उद्धरण अत्यंत महत्वपूर्ण एवं मूल्यवान हैं क्योंकि इनमें ‘जोग’ और ‘जोगी’ शब्दों में अंतर्भुक्त प्रेम और श्रृंगार की वे ही परंपरागत किंतु विलुप्तप्राय व्यंजनाएं अपनी असंदिग्ध चारुता से विराजमान है। अपने मत की पूर्ण रूपेण पुष्टि के लिये इस नाटक से प्रचुर उद्धरण अनुचित होंगे।

    नाटक के एक पात्र काशीराज के शेवती नामक एक स्त्री पात्र से यह पूछे जाने पर-

    ‘बाले! किसके सद्भाग्य की

    तू है कल्याणकारिणी?’

    शेवती उत्तर देती है—

    1. ‘दूरी-दूरी है छपरी जोगी की मेरे,

    पास है फूलों की बाड़ी रे,

    साधेंगे जोग स्नेहगंगा के तट पै,

    बीनेंगे फूल भर डाली।’

    इसी भाँति अन्य उद्धरण देखिए-

    2. ‘परंतु कहाँ? और है कौन

    इस कुमारी का रसजोगी?’

    3. ‘इस मुकुट को पहनोगी?

    रस योगींद्र दुष्यंतराज ने

    पहनाया था सौंदर्य देवी शकुंतला को।’

    4. मैं तो जोगन बनीं हूँ मेरे बालम की

    प्रेम आलम की,

    मैं तो जोगन बनी हूँ मेरे बालम की,

    वन वन के महल, पीतम! तेरे बिन सूने हैं,

    तीरथ के घाट, पीतम! जोगी से जूने हैं

    रसिका इस रस के उपासक की।

    उपर्युक्त उद्धरणों में आए ‘रसजोगी,’ ‘रसयोगींद्र’ आदि शब्दों के उपरांत भी क्या इनके प्रियतमवाची होने में कोई संदेह रह जाता है? यह योग की साधना जो ‘स्नेह गंगा के तट पर’ हो रही है, क्या अपना मर्म स्वयं नहीं कह देती? दुष्यंत और शकुंतला के प्रसंग में प्रयुक्त यह ‘रस-योगींद्र’ शब्द क्या प्रीति के अतिरिक्त किसी अन्य भाव की व्यंजना कर सकता है? अधिक क्या कहें, इस ‘जोगिया’ शब्द में गर्भित प्रेम का यह मर्म समझ कर हमने उस प्रेमयोगिनी के प्रति कितना भारी अन्याय किया है?

    हमारे साहित्यिक या अलंकृत काव्यों में ही नहीं,वरन् राजस्थानी लोकगीतों में भी ईसर-गौरी (शिव-पार्वती) के रूप में सामान्य प्रेमी-प्रेमिका का रूप किस प्रकार अंतर्भावित हो गया है, यह देखने योग्य है। उदाहरणतः गणगौर के एक लोकगीत की ये पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं-

    महमद ल्याजो जी, ओजी म्हारा ईसर जी उमराव,

    जटाधारी, झुटण ल्याजो जी।

    रखड़ी मँहगी ए, म्हारी नखराली गणगोर

    गुमानण राणी, झुटणा मँहगा ए।।

    इस गीत में ‘ईसर-गोरी’ के रूप में स्पष्ट ही किसी प्रेम-प्रेमिका का रूप झलक रहा है। ‘नखरालौ गणगौर’ यहाँ नामभेद से प्रीतिलुब्धा नायिका का ही पर्याय है। इसी भाँति ‘जटाधारी,’ जो योगेश्वर शिव के लिये आया है, ध्वन्यार्थ में स्पष्टतः प्रियतम के भाव की ही व्यंजना करता है।

    ऐसी स्थिति में ‘जोगी’ या ‘जोगिया’ का अर्थ प्रियतम, प्रेमी या प्रेमाराध्य मानना क्या संगत नहीं है? इस संबध में ध्यान देने की बात यह है कि शिव-पार्वती ने केवल स्वयं ही आदर्श दांपत्य प्रेम के प्रतीक हैं, वरन् प्रेमाख्यानों में वर्णित नायक-नायिका या प्रेमी-प्रेमिका के अनन्य उपकारक भी। यही कारण है कि किसी प्रेमी के मूर्छित हो जाने पर, अथवा उसनके मिलनमार्ग में कोई बाधा पड़ने पर स्वयं शिवपार्वती वहाँ उपस्थित हो जाते हैं। क्या यह अकारण है? क्या और कोई देवता नहीं है जो इन प्रमियों का हितसाधन कर सके? हर बार संकट पड़ने पर, और वह भी प्रेमियों पर ही, केवल शिवपार्वती ही क्यों आते हैं? बीसलदेवरासो में विरहिणी राजमती को प्रियतम बीसलदेव के आगमन का संदेश देने के लिये सहसा यह योगी बीच में कहाँ से टपकता है—

    सांभरि गमन करे छइ राई,

    गढ अजमेरां राजीयो।

    जोगी एक भेटयो तिणि ठाई।।

    वही जोगी विरहदग्धा राजमती को यह संदेश देकर उसके मन की तपन क्यों बुझाता है-

    जोगी कहइ ‘सूणि मोरी माई।

    दिन तिसरइ आवइ धरि राय’।।

    ‘पद्मावत’ में मूर्च्छा के अनंतर पद्मावती को पा नायक रत्नसेन के मरणोद्यत होने पर योगी-योगिन (शिवपार्वती) ही आविर्भूत होकर उसे मरने से क्यों रोकते हैं?

    ये प्रश्न मात्र काव्यरूढ़ि कह कर टालने के नहीं है। इसी भाँति राजस्थानी के अनूठे प्रेमकाव्य ‘ढोला मारू’ में नायिका मारवणी के पी ने साँप द्वारा डस ले जाने पर जब ढोला अपनी मृत प्रिया के साथ जल मरने को उद्यत हो जाता है तो वहाँ भी वे ही जोगी-जोगिन फिर प्रकट होकर उन दोनों प्रेमियों को प्राणदान देते हैं-

    इक जोगी आणंद मइं आव्यउ तिण हिज बाट।

    तथा-

    साथइ सुंदरि जोगिणी, मारवणी सूँ प्यार।

    यही नहीं वह जोगन अपने जोगिया से मारवणी को जिलाने की पैरवी भी करती हैं-

    जोगिण जोगी सूं कहइ, सांभलि नाथ समथ्थ।

    का जीवाड़उ मारूवी, हूँ पिणइणहिज सथ्य।।

    उपर्युक्त विवेचन से मेरे निवेदन करने का अभिप्राय यह है कि ‘जोगी’ या ‘जोगिया’ शब्दों के मूल में वस्तुतः शिव-पार्वती के तपोसंभूत दांपत्यप्रेम की भावना ही अंतर्हित है एवं इन शब्दों को नाथसंप्रदाय या किसी व्यक्तिविशेष से जोड़ना हमारी उन प्राचीन सांस्कृतिक एवं काव्यपरंपराओं को उपेक्षित करना है, जो इस शब्द द्वारा प्रतीकात्मक रूप से व्यंजित हैं। अतः निष्कर्षतः, विशिष्ट अर्थ में ‘जोगी’ या ‘जोगिया’ प्रियता का ही वाचक है, एवं मीरां के संदर्भ में वह और कोई नहीं, उसका अनन्य प्रियतम गिरधरलाल ही है।

    भारतीय चिंतना ने एकांतिक वासनाजन्य प्रेम को कोई महत्व नहीं दिया है। तपस्या की अग्नि में जलकर जो प्रणय तप्त कांचन सा निखर उठता है, वही तपोपूत दांपत्य प्रेम भारतीय जीवन का आदर्श रहा है। ‘जया जयंत’ नाटक के नायक जयंत के शब्दों में उस उदात्त प्रेम का स्वरूप देखिए-

    जया! पशु से भी पामर है मनुष्य?

    मयूर ने जीता, और मयूरी ने जीता,

    उस काम को नहीं जीते मानव?

    प्रेम के स्थान में नहीं होती काम भावना

    प्रेम में नहीं होती देह की वांछना।

    तथा-

    जया- ‘परंतु काम भी जगज्जेता है’

    जयंत्- ‘तथापि एक दुर्ग है अजित

    इस जगज्जेता से भी जया!

    काम ने नहीं जीता प्रेम का गढ़’

    एवं-

    ‘स्नेह के साथ वैराग्य को बसाना

    तो तू अक्षय व्रतिनी रहेगी निर्भय।

    शिव-पार्वती इसी उत्कृष्ट दांपत्यप्रेम के प्रतीक हैं, तपोपूत प्रेम की पावन समष्टि हैं! कितनी महनीय है प्रह दांपत्यप्रेम की परिकल्पना।

    इस संबंध में डा. रामगोपाल शर्मा ‘दिनेश’ का यह कथन भी द्रष्टव्य है- पवित्र और आदर्श के रूप में स्वीकृत है। शिव के जीवन में योग और भोग का जो समन्वय है वह पुरुषों के लिये सदैव अनुकरणीय रहा है। योग और संयम विहीन भोग भारतीय सामाजिक जीवन में कभी संमानित नहीं हुआ। शिव के समान ही पार्वती का तप एवं सतीत्व भारतीय नारी का आदि काल से चरम आदर्श रहा है। जिसे अपने जीवन में प्राप्त कर लेने के लिये वह सदैव आकुल और आतुर रही है।

    मीरां के पदों में प्रयुक्त ‘जोगिया’ उस प्रेमोन्मादिनी का अपने आराध्य को संबोधित तथा उसके युग-युगीन विरह की वेदना से निःसृत एक ऐसा ही स्नेहगर्भित शब्द है, प्रियतम कृष्ण के वियोग में व्याकुल जन्म-जन्मांतरों की विरहिणी आत्मा की ही करुण पुकार है!

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