मीरां के जोगी या जोगिया का मर्म- शंभुसिंह मनोहर
मीरां के जोगी या जोगिया का मर्म- शंभुसिंह मनोहर
नागरी प्रचारिणी पत्रिका
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मीरां के कुछ पदों में जोगी या जोगिया का उल्लेख हुआ है। उदाहरणार्थ-
1. जोगी मत जा, मत जा, पांइ परुँ मैं तेरी चेरी हो।
प्रेम भगति के पैंडो म्हारो, हमको गैल बताजा।।
2. जोगिया जी आज्यो जी इण देस।
नैणज देखूँ नाथ नै, धाइ करुँ आदेस।।
3. जोगिया से प्रीत कियां दुख होय।
प्रीत कियां सुख नाहिं मोरि सजनी, जोगी मिंत न होय।।
इन संबोधनों के आधार पर कुछ विद्वानों ने मीरां का संबंध नाथ संप्रदाय से तथा कुछ ने किसी जोगी विशेष से जोड़ने का प्रयास किया है।
इस संबंध में, उनमें से कुछ विद्वानों एवं विदुषियों के विचार अवलोकनीय हैं।
डा. हीरालाल माहेश्वरी लिखते हैं- ‘उपर्युक्त (उनके द्वारा ‘जोगी’ या ‘जोगिया’ शब्द के प्रयोग के दिए गए 22 उद्धरणों) पदों से स्पष्ट है कि मीराँ की प्रेमसाधना में किसी न किसी जोगी का सहयोग अवश्य रहा था और संभवतः यह जोगी तथा वह गुरु ज्ञानी एक ही है, जिसकी सूरत को देखकर मीरां क्षुब्ध हो गई थी (मिलता जाज्यो रे गुरु ज्ञानी)।
डा. सावित्री सिन्हा का मत है- ‘मीरां के आराध्य का दूसरा निर्गुण पंथी रूप पूर्णतया लौकिक है। जिस योगी के प्रेम में वह व्याकुल है, वह एक साधारण योगी है, जो उसके मन में प्रेम की अग्नि लगाकर चला गया है।’
डा. श्रीकृष्णलाल के मतानुसार- ‘मीरां के गिरधर नागर का जो योगी स्वरूप है उस पर स्पष्टतः नाथ संप्रदाय के योगियों का प्रभाव दिखाई पड़ता है।’
सुश्री पद्मावती शबनम लिखती हैं- ‘मीरां ने अपने आराध्य को बारबार जोगी नाम से संबोधित किया है। मीरां के जोगी की वेशभूषा भी नाथ परंपरानुसार ही है। पादाभिव्यक्तियों के आधार पर यह सुस्पष्ट हो उठता है कि मीरां के ये आराध्य नाथ-परंपरानुसार वेशभूषा से विभूषित, नाथ-परंपरानुकूल जोगी-कर्म में रत हैं।’
‘जोगी, मत जा, मत जा’ पद के आधार पर प्रो. मुरलीधर श्रीवास्तव कहते है कि इस प्रसिद्ध गीत में भी स्पष्ट ही जोगी के प्रति प्रेम निवेदित किया है। वह गुरु से अनुरोध कभी नहीं हो सकता। यह तो प्रेमिका का प्रेमी से अनुरोध है।
और भी अनेक विद्वान है, जिन्होंने प्रायः इसी स्वर में अपना स्वर मिलाया है, जिसके फलस्वरूप जोगी से संबद्ध ये धारणाएँ हिंदी जगत् में अतर्क्य सत्य के रूप में प्रतिष्ठित हो गई हैं। परंतु तथ्य यह है कि ये सभी भ्रांत, असंगत और निर्मूल हैं। खेद की बात यह है कि विद्वानों ने इस शब्द पर उतनी गंभीरता से विचार एवं मनन नहीं किया जितना अपेक्षित था जिसके फलस्वरूप मीरांविषयक अनेक गंभीर भ्रांतियों को अनायास पोषण मिल गया।
जहाँ तक नाथ संप्रदाय के प्रभाव की बात हैं, यह अपने आप में एक अलग प्रश्न है, जो इस लेख का प्रतिपाद्य नहीं है। मीरां पर नाथ संप्रदाय का प्रभाव था या नहीं एवं यदि था तो किस रूप में एवं किस सीमा तक इसका प्रस्तुत पंक्तियों के लेखक ने मीरां पर अपनी प्रकाशनाधीन पुस्तक में सविस्तार विवेचन किया है। यहाँ केवल इतना ही निवेदन करना है कि मीरां द्वारा प्रयुक्त ‘जोगी’ या ‘जोगिया’ का नाथ संप्रदाय से कोई संबंध नहीं है।
तथापि, प्रासंगिक रूप से अपने मत की पुष्टि में इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि केवल एक संबोधन के आधार पर ही मीरां पर नाथ संप्रदाय का प्रभाव सिद्ध नहीं किया जा सकता। भक्तों तथा प्रेमियों में अपने आराध्य या प्रियतम के अनेक नामों से गुणस्तवन एवं अनेक संबोधनों से प्रण्यनिवेदन की एक परंपरा रही है। उदाहरणार्थ राजस्थान के प्रसिद्ध भक्त कवि पीरदान लालस ने ईश्वर को अन्य नामों के साथ ‘अला’ (अल्लाह) कह कर भी बारंबार स्मरण किया है। यथा-
निमो रामचंद्र राघव रुधनाथुं,
भाई लखमण अनै सत्रघण भरथुं।
निमो ब्रिजरा बाल स्रग लोक वासी,
आया नंद रे आंगणे अविनासी।
अला नंद रे आंगणे मांहि नाचै,
अला राम रा सहज ए साचि राचै।।
अला बाप चरिताल हाथे बँधावै,
अला हेत सां जसोदा हुलरावै।
अला वन मां जाइ मुरली बजावै,
राजा नाम नां एथि राधा रमावै।।
अला मथुरा मां जाइ कंस मारे,
अला आपरा भगत ओथीं उधारे।
उपर्युक्त उद्धरण में प्रत्येक ‘अला’ (अल्लाह) संबोधन के आधार पर क्या भक्तवर पीरदान जी को इस्लाम का अनुयायी मान लें? या फिर यह मान लें कि अल्लाह ने ही वृंदावन में मुरली बजाई थी और मथुरा में कंस को मारा था? यदि यहाँ ‘अल्लाह’ के आवरण में कृष्ण का सगुण स्वरूप देखा जा सकता है तो प्रेमयोगिनी मीरां के ‘जोगिया’ में उसके अनन्य प्रियतम सांवरिया का स्वरूप क्यों नहीं?
सर्वाधिक चिंत्य तो उन विद्वानों और विदुषियों की वह धारणा है जिसके अनुसार वे इस भक्त कवयित्री के पावन प्रेम में लौकिक वासना की गंध देखते हैं। इससे उनकी विकृत रुचि एवं असंस्कृत वृत्ति का ही ज्ञापन हुआ है, अन्यथा इस शब्द में गर्भित हमारी महान् सांस्कृतिक परंपरा एवं इसके प्रयोग से उद्दिष्ट निगूढ़ प्रेम की व्यंजना के मर्म को समझे बिना वे मेवाड़ की उस महीयसी राजवधऊ के चरित्र पर ऐसा कुत्सित एवं अशोभनीय लांछन लगाने का दुस्साहस न करते।
इस संबंध में गुजराती विद्वानों ने, जिन्हें गुजरात एवं राजस्थान की प्राचीन भाषागत एकता के कारण राजस्थान की सांस्कृतिक परंपराओं एवं आधर्शों का अंतरंग ज्ञान है, कहीं अधिक सूझ से एवं अधिकार पूर्वक लिखा है। उदाहरणार्थ प्रसिद्ध गुजराती विद्वान् डा. मंजुलाल मजुमदार लिखते हैं-
‘जोगिया’ तूं कद रे मिलोगे आई?
तेरे ही कारण जोग लिया है, घर घर अलख जगाई
आ पद मां ‘जोगिया’ अवश्य मीरांना प्रेमी छे, बीजा एक पद मां ‘जोगी’ ने पोता नो प्रेमपात्र कह्यो छे-
जगिया से प्रीत-कियां दुख होयः
प्रीति किया सुख नांहि, मोरी सजनी, जोगी मित न होय।
वे आगे लिखते हैं-
मीरांना ‘जोगिया’ (योगी) कृष्ण ज छे, कृष्ण ने योगी रूपमां साभरवामां औचित्य छे, के एवो प्रेमी, थोडा एवा कालना संयोग पंछी, ते प्रेमिका नो त्याग करीने जतो रहयो होय- तेने ‘योगी’ कही ने तेना मिलन (‘योग’) नु स्मरण करवुं ए साभिप्राय कथन छे-
‘जोगी’ मत जा, मत जा, मत जा-
पांई परु मैं तेरी हौं-
प्रेम भगति को पेंडों ही न्यारो, हमकूँ गेल बताजा।
आ प्रसिद्ध गीतमां ‘जोती’ प्रत्ये प्रेमनुं प्रत्यक्ष कथन थयेलुं छे, ‘जोगी’ ना रूप मां मीरा ए कृष्णनुं ज स्मरण कर्यु छे।
वस्तुतः इन पदों में प्रयुक्त ‘जोगी’ या ‘जोगिया’ शब्दों के द्वारा मीरां ने अपने आराध्य कृष्ण का ही स्मरण किया है। यदि हम इन संबोधनों के साथ व्यवहृत ‘प्रेम भगति’, ‘प्रीत कियां’ आदि शब्दावली पर भी ध्यान दे तो उससे यह निर्विवाद रूप से सिद्ध हो जाता है कि नाथ संप्रदाय के संदर्भ में इनकी कोई संगति नहीं है। दूसरे, मीरां ने अपने एक अन्य पद में केवल ‘भगवा’ वेश धारण कर ‘सन्यासी’ बनने या ‘जोगी’ होने की स्पष्ट शब्दों में भर्त्सना की है-
कहा भयो है भगवा पहरयां, घर तज भये सन्यासी।
जोगी होय जुगति नहिं जाणी, उलटि जनम फरि आसी।।
अतः नाथ संप्रदाय से ‘जोगी’ या ‘जोगिया’ का संबंध जोड़ते हुए मीरां को उससे प्रभावित मानना सर्वथा निर्मूल है।
अब रही किसी लौकिक जोगी से मीरां की अनुरक्ति की बात, तो वह मीरां की केवल एक पंक्ति के आगे ही खंडित हो जाती है-
मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई
कृष्ण योगेश्वर भी हैं। यदि ‘योग’ शब्द की डा. मंजुलाल मजमुदार की व्याख्या हम न भी मानें (योग=संयोग, मिलन) तो राजस्थानी साहित्य में कृष्ण के लिये बहुशः प्रयुक्त ‘जोगेस’, ‘जोगाणंद’ आदि संबोधनों को अमान्य समझने का कोई कारण नहीं है। राजस्थानी भक्तिकाव्यों में कृष्ण के लिये ‘जोगेस’ ‘जोगाणंद’ आदि संबोधन इस बात के असंदिग्ध प्रमाण है कि कृष्ण के अनेत नामों या उपाधियों के साथ इनके प्रयोग की भी एक सामान्य परिपाटी रही है। उदाहरणार्थ महात्मा ईसरदास (संवत् 1595-1675) भगवान् को विविध रूपों में स्मरण करते हुए उनके इस योगी रूप का भी स्तवन करते हैं-
(1) नमो नर- मारण जोग निवास
नमो दुख हूँत उगारण दास
नमो गज तारण मारण ग्राह।
नमो व्रज काज सुधारण वाह।।
(2) जरा जमजीत अजीत जोगेस।
आदेश आदेस आदेस आदेस।।1
(3) गोविंद! भगत निवारण ग्रंभ,
परंभ अमीय भयं पद प्रंभ,
सदा उनमद्द जोगाणंद सिद्ध,
वयं तन बाल न जोवन व्रद्ध।।
गीता में तो स्पष्ट उल्लेख है ही—
सत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्द्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम।।
अतः मीरा ने यदि अपने स्वामी गिरधरलाल के लिये ‘जोगी’ या ‘जोगिया’ शब्द का प्रयोग कर लिया तो इसमें क्या अनर्थ हो गया? वस्तुतः सगुण, सलोने कृष्ण ही मीरां के एकमात्र आराध्य एवं अनन्य प्रियतम थे, जिन्हें वह प्रीतिवश नामभेद से ही ‘जोगी’ या ‘जोगिया’ कह कर पुकारती है।
परंतु, प्रश्न है कि इस ‘जोगिया’ संबोधन में क्या कोई और भी गहरा रहस्या है? हाँ, बात कुछ ऐसी ही है। मेरे विनम्र मत से ‘जोगिया’ शब्द के मूल में दांपत्यप्रेम की एक महान् परंपरा छिपी पड़ी है। हमारे प्राचीन साहित्य में अपने प्रेमी के लिये ‘जोगन बन जाने’ या प्रेमिका के लिये ‘जोगी होकर निकल पड़ने’ संबंधी अनेकशः उल्लेख मिलते हैं। उदाहरणार्थ-
1. मैं धणी!थारी मेल्ही आस।
जोगणी होइ सेवुं बन वास।।
2. जमला मैं जोगण भई प्रेरे भ्रग की खाल।
बन बन सारो ढूंढियो, करत जमाल जमाल।।
3. सांवरे की खात जोगन हूँगी, घर घर दूंगी फेरी।
4. जेठा घड़ी न जाय, जमारो किम जावसी।
बिलखतड़ी बीहाय, जोगण करगो जेठवा।।
विरहवर्णन के प्रसंग में ये उल्लेख प्रायः काव्यरूढ़ि की संज्ञा पा गए है। क्या ये सब अकारण हैं? उक्त रूढ़ि के मूल स्रोत एवं प्राचीन साहित्य में ‘जोगियां’ शब्द के विशिष्टार्थ में प्रयोग को देखते हुए मेरी यह विनम्र स्थापना है कि यह शब्द काव्यरूढ़ि में प्रेमी या प्रियतम का ही वाचक होकर आया है। दूसरे शब्दों में जोगियां, योगी का ही प्रेममूलक संस्करण है, रागात्मक रूपांतर है जो भावार्थ में प्रेमी या प्रियतम का वाचक है।
राजस्थानी की प्रियतमवाची विशाल शब्दपरंपरा
राजस्थानी में प्रेमी या प्रियतमवाची शब्दों की एक इतनी समृद्ध परंपरा रही है कि शायद ही किसी अन्य प्रांतीय भाषा में देखने को मिले। ‘जोगिया’ शब्द के इस विशिष्टार्थ को समझने के लिये तथा उसके मर्म को पूर्णतः हृदयंगम करने के लिये हमें राजस्थानी की इस महान् शब्दपरंपरा से परिचित होना आवश्यक है।
राजस्थानी की यह प्रियतमवाची शब्दावली उसके शताधिक प्रेमाख्यानों एवं सहस्राधिक लोकगीतों में बिखरी पड़ी है। इन्हें देखने से पता चलता है कि कुछ शब्द तो व्यक्तिवाचक संज्ञाओं से प्रेमी या प्रियतम के अर्थ में प्रयोगरूढ़ हो गए हैं तथा कुछ पद, उपाधि या किसी गुणविशेष के आधार पर कालांतर में सामान्य प्रेमी या प्रियतम का वाचकत्व करने लगे हैं। जहां तक व्यक्तिवाचक नामों या संज्ञाओं का प्रश्न है, उनके साथ कोई न कोई प्रेमकथा जुड़ी हुई हैं। दूसरे शब्दों में, वे किसी न किसी प्रेमाख्यान के नायक-नायिका रहे हैं। आगे चल कर ये व्यक्तिवाचक अभिधान अपनी निजी व्यंजनाएं छोड़ बैठे तथा अर्थविस्तार की प्रक्रिया के फलस्वरूप सामान्य प्रेमी या प्रियतम का ही वाचकत्व करने लगे। राजस्थानी लोकगीतों में बहुशः प्रचलित ढोला, मारु (पुंलिंग में प्रयुक्त होने पर प्रियतम के अर्थ में रूढ़) ‘जल्ला’ या जलाल, पना, पना-मारु आदि ऐसे ही शब्द हैं जिनके साथ कोई न कोई प्रेमाख्यान जुड़ा हुआ है एवं उन प्रेमाख्यानों के नायक होने के कारण अब ये शब्द, मात्र व्यक्तिवाचक संज्ञाएँ न रह कर, प्रेमी या प्रियतम के ही पर्याय हो गए हैं। कुछ उदाहरण देखिए—
ढोला-
1. थांने तो प्यारी, पिया, परदेसां री चाकरी जी,
ढोला, ह्मांनै तो प्यारा लागो, प्यारा लागो आप।
2. एक थंभियो ढोला महल चिणाव।
च्यारूं दिसा में राखो गोखड़ा जी ह्मांरा राज।
मारूजी या पना-मारू----
1. थे तो चाल्या जी, पना-मारू चाकरी।
धण रो के रै हवाल, गोरी नै खिनाय ज्यावो बाप कै।
2. एक वर करला थारा मारूजी, पाछा जी मांड़।
‘जला’ या जलाल-
जला मारू, ह्मे तो थारा डेरा निरखण आई हो।
ह्मारी जोड़ी रा जलाल, ह्मे तो थारा डेरा निरखरा आई हो जलाल।।
इसी प्रकार कार्य, पद, उपावि, स्थिति या गुणविशेष के आधार पर जो शब्द प्रेमी या प्रियतम का वाचकत्व करते हैं उनमें ओलगियो, उलिगाणो, लसकरियों, उमराश, भंवर जी, कंवर जी, सायबो, आलीजो, केसिरियो, मनभरियो, रसियो, मदछकियो, रंगरसियो, राजिंद, साजनिया, बालम, राजीड़ा, गुमानी, माणीगर आदि उल्लेखनीय हैं। स्थानाभाव से यहाँ प्रत्येक का उदाहरण देना संभव नहीं होगा अतः केवल कुछ के ही दिए जा रहे हैं जिससे विद्वान् पाठक यह अनुमान कर लेंगे कि किस प्रकार के शब्द अपने सामान्य वाच्यार्थ को छोड़ कर प्रेमी या प्रियतम के अर्थ में रूढ़ हो गए है-
1. ह्यारा ओलगिया घर आज्यो जी (मीरां)।
2. चालइ उलिगाणा, धन जाण न देहि (बीसलदेव रासो)।
3. थे कित रैन गुमाई लसकरिया। (किरती-लोकगीत)।
4. जी उमराव थारी सूरत प्यारी लागै ह्मारा राज। (उमराव-लोक.)
5. सुणो ओ भंवर, ह्मांने सपनो सो आयो जी राज। (सुपनो)
6. ह्मारै माथै नैं मैंमद ल्यावो रंगरसिया। (लोकगीत)
7. तालो तो ढक कर मन भरियो कूंची ले गयो।
8. भंवर थांनै गोरी सैं मिल्यां द्या जी।
9. ह्मे करांगा साजनिया सैं गोठडी।
10. सुख-सेज सायब पूत जारो, करो न राजीड़ा मनरली।
11. चुड़लै री भोज थारो आलीजो लगावै। (जच्चा),
12. थारी तो घाली गोरी रा सायबा (कांकरडी),
उपर्युक्त कुछ उद्धरणों से यह स्पष्ट हो जायगा कि इनमें प्रयुक्त प्रेमी या प्रियतमवाचक शब्दों को अपने प्रचलित अभिधार्थ में ग्रहण न कर अपने विशिष्टार्थ में ही ग्रहण किया जाता है अन्यथा किसी भी हिंदू प्रेमी को ‘जलाल’ या किसी भी सामान्य प्रेमी को ‘कंवरजी’ या ‘भंवरजी’ कहने का क्या अभिप्राय है? जब हम इन शब्दों के अर्थनिर्णय में इनके वाच्यार्थ पर आग्रह नहीं करते तो फिर ‘जोगिया’ शब्द को लेकर ही यह अनपेक्षित वितंडावाद क्यों?
वस्तुतः राजस्थानी की इस नाना शब्दमयी प्रेममूलक संबोधन परंपरा के परिचय के अभाव में हमारे विद्वज्जनों ने राजस्थानी कवियों द्वारा प्रीतिसंदर्भ में प्रयुक्त इन ‘जोगी’ या ‘जोगिया’ शब्दों का केवल वाच्यार्थ ग्रहण कर अनर्थ कर डाला है। वे इनके प्रयोग से भ्रमित हो गए हैं। इस विशिष्ट संदर्भ से परिचित हो लेने के अनंतर अब हम ‘जोगिया’ शब्द के मूल उत्स, एवं इसके पीछे निहित सांस्कृतिक आदर्श तथा इसके इसी अर्थ (प्रियतम या प्रेमी वाचक) में प्रयोग की सुदीर्घ काव्यपरंपरा पर सोदाहरण विचार करेंगे ताकि इस विषय में तनिक भी भ्रांति या संशय का अवकाश न रहे।