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संत कबीर की सगुण भक्ति का स्वरूप- गोवर्धननाथ शुक्ल

नागरी प्रचारिणी पत्रिका

संत कबीर की सगुण भक्ति का स्वरूप- गोवर्धननाथ शुक्ल

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    कबीर के संपूर्ण वाङ्मय का रहस्य सत्यं शिवं सुंदरं की साधना एवं उपासना है। उनकी यह उपासना प्रमुख रूप से मानसी और गौण रूप से वाङ्मयी थी। जिस प्रकार अपने समय के प्रचलित सभी काव्यरूपों को अपना कर वे अपनी एक निराली काव्यशैली के स्रष्टा बन गए उसी प्रकार अपने समय की प्रचलित सभी धर्म-साधनाओं को आत्मसात् करके वे एक नितांत निराले धर्म साधक भी सिद्ध हुए। कबीर को मध्ययुगीन सर्वतोमुखी भगवदास्था के साहित्य का आदि कबि और निर्विवाद रूप से निर्गुण भावना का प्रथम प्रवर्तक माना जाता है। यह ठीक भी है कि कबीर ने एक सुधारक के रूप में स्पष्ट और कठोर रूप में मूर्तिपूजा और अवतारवाद का खंडन किया है। परंतु मध्ययुगीन हिंदी भक्तिसाहित्य में कबीर संत और चिंतक के रूप में अधिक चर्चित है। क्योंकि निर्गुण निराकारवादी साधक एक चिंतक के रूप में ही चर्चित होते हैं उन्हें प्रायः भक्त नहीं कहा जाता। इधर हिंदी साहित्य में आधुनिक शब्दप्रयोग की परंपरा के आधार पर इन दो शब्दों में भेद कर लिया गया है। सगुणोपासकों को भक्त कहा जाता है और निर्गुण निराकारवादियों को संत। मराठी भक्ति वाङ्मय में ऐसा कोई भेद नहीं है। उसका मुख्य भी रहे हैं और सभी विट्ठलोपासक भक्त निर्गुण निराकारवादी भी रहे हैं।

    महाराष्ट्र संत ज्ञानेश्वर महाराज ने कहा है-

    सगुण निर्गुण जयाची हीं अंगे।

    तोची साह्मां संगे क्रीड़ा करी।।

    सगुण-निर्गुण जिस एक परमात्मा के अंग हैं वही मेरे साथ लीला करता है। इतना ही नहीं ज्ञानेश्वर महाराज के मत में निर्गुण की अपेक्षा सगुण अधिक मधुर और व्यवहार साध्य है। श्रीएकनाथ महाराज ने कहा हैं-

    तेथ सगुण आंणि निर्गुण। उभय रूपें मी ब्रह्म पूर्ण।

    निर्गुणषासून सगुण न्यून। ह्मणे तो केवल मूर्ख जाण।।

    सगुण निर्गुण दोन्ही समान। ल्यून पूर्ण असेना।

    श्री एकनाथ महारांज ने सगुण निर्गुण का एकत्व सिद्ध करते हुए जमे हुए और पिघले हुए घी से उपमा दी है। उसमें भी जमा हुआ घी विशेष आनंददायक होता है-

    विथरलें तें तूप होये। थिजले त्या परीस गोड आहे।

    निर्गुण परीस सगुणी पाहे। अति लव लाहे आनंदु ।।

    ज्ञानेश्वर महाराज सगुण को अधिक सुविधापूर्ण भजनीय सिद्ध करते हैं-

    तुझें भजन मजंप्रिय गा दातारा।

    साधक कबीर सुधारक भी जबरदस्त थे। सच्चे सुधारक का स्वयं क्रियावान् होना अनिवार्यतः आवश्यक है। सदाचार कबीरसाधना का एक बड़ा साधक तत्व है। बिना सदाचार के अध्यात्म साधना-साध्य नहीं अथवा जलताड़नवत् एक व्यर्थ क्रिया है। अतः सदाचरण संत का प्रथम सोपान हैं। जगत का प्रथम् सोपान है। जगत का प्रथम आदर्श है। संत का व्यवहार सुष्ठु, स्पष्ट और लोकमंगलमय होना चाहिए। उसका आचरण मानव मात्र के लिये आदर्श होना चाहिए। इसी लिये संतों के वरणीय आचरण की एक लंबी सर्वमान्य सूची भारतीय संत वाङ्मय में प्रतिष्ठित चली रही हैं। कबीर के जीवन में वह सूची लगभग पूर्णतः लागू प्रतीत होती है, इसी लिये वे संत हैं। तात्पर्य यह है कि संत सदाचरण और लोक-मंगल-साधना के कारण संत हैं। निर्गुण प्रेमसाधना के कारण उन्हें कोई संत नहीं कहता। संतो का प्रथम लक्षण उनके चित्त की आर्द्रता अथवा कोमलता ही बताई गई है-

    संत हृदय नवनीत समाना।

    अथवा---

    परहित द्रवै सो संत पुनीता।

    अतः संत का लक्षण विश्वकरुणा अथवा भूतदया से अभिभूत होना है, कि निर्गुण तत्व का साधक होना। कबीर कट्टर सुधारवादी अथवा दूसरे शब्दों में लोककल्याण के साधक होने के कारण संत है। निर्गुणवादी होने के कारण संत नहीं। कोमलचित्त कबीर ने अपने युग पर असीम करुणा बरसाई है। भूले भटकों को राह दिखाई। करुणा के क्षणों में वे कहते पाए जाते हैं- ‘संतो इन दोऊ राह पाई’। राम रहीम के धार्मिक कलह में भटके लोगों पर कबीर करुणान्वित थे। इसलिये वे संत कहलाए परंतु संत और सुधारक से भी बढ़कर वे उपासक थे। उनकी उपासना विवेक परिमार्जित थी परंपराभुक्त अथवा यांत्रिक थी। संत नीर-क्षीर-विवेकी तो होता ही है- ‘संत हंस गुन गहहिं परिहरि वारि विकार’। अतः अपनी उपासना पद्धतियों में ‘विकाररूप वारि अंश’ को त्याग कर ‘गुनपय’ का संग्रह करके अपनी एक विशिष्ट भजन पद्धति के वे स्रष्टा बने थे, अतः आचरण से संत और प्रेम-लक्षण-भक्ति के कारण वह भक्त थे। वस्तुतः निर्गुण की उपासना बनती ही नहीं, उसका तो चिंतन ही संभव है। निर्गुण या चिंतक अपनी आराधना की अंतिम स्थिति में आगे चलकर द्रष्टा बन जाता है। द्रष्टा धीरे-धीरे निखिल दृश्य को अफने में लय कर लेता है। इस स्थिति में अविद्या हट जाती है। साधक ब्राह्मी स्थिति में स्थित होकर भेदात्मक ज्ञान की आत्यंतिक निवृत्ति पर पहुँच कर ब्रह्मानंद की अनुभूति करता है। तुलसी कहते हैं-

    सकल दृस्य निज उदर मेलि सोवै निद्रा तजि जोगी।

    सोई हरिपद अनुभवै परम सुख अतिसय द्वैत वियोगी।।

    अतिशय द्वैत का वियोग अर्थात् (भेदात्मक ज्ञान की आयंत्तिक निवृत्ति) योग द्वारा ही साध्य है। योग मार्ग और भक्ति मार्ग में अलौकिक अंतर है। योग मार्ग का लक्ष्य अभेद है जब कि भक्ति मार्ग का लक्ष्य ही भेद बनाए रखना है। लक्ष्य के अतिरिक्त योग मार्ग और भक्ति मार्ग की साधन पद्धतियों में भी भेद हैं। योग मार्ग का प्रारंभ विराग, वितृष्णा उपरति एवं त्याग से होता। भक्ति मार्ग रागात्मक और समष्टि भाव के साथ चलता है।

    कबीर ने योगमार्ग पर यत्र तत्र अटूट श्रद्धा व्यक्त की है और योग की अनंत अनुभूतियों को अटपटी अभिव्यक्ति दी है। उसके पास इस अभिव्यक्ति के लिये शास्त्रीय शब्दावलियों का अभाव रहा होगा, ऐसी बात नहीं लगती। अटपटापन उनके निजी वातावरण के कारण था। अतः साधनपुष्ट अनुभूति अत्यंत सबल होने के कारण उसे अपने चतुर्दिक वातावरण से ही सबल एवं आश्रय मिलता रहा। इसी कारण कबीर की योगपरक शतशः अनुभूतियाँ निम्न-माध्यम जीवन के व्यावसायिक तथा नैत्यिक वातावरण के परिचित रूपकों से भावभूत बोझिल एवं अटपटी हो गई है। उसकी अपेक्षा उनकी भक्तिपरक अनुभूतियाँ अधिक सुस्पष्ट, सरल एवं सुस्वादु है।

    देखना यह है कि कबीर का रुझान किस ओर है। आत्मसाधना के लिये उन्होंने वेदांत के सिद्धांतों पर आस्था प्रकट की और आत्मानुशासन के लिये उन्होंने हठयोग को वरणीय माना है। वेदांत और योग में उन्होंने मिथ्याचार अथवा दंभाचार की कहीं गुंजाइश नहीं पाई, परंतु वेदांत और योग की अटपटी उक्तियों से वे पहुँचे हुए हठयोगी किंवा गुरु गोरखनाथ की भाँति बहुत ऊँचे सिद्ध महात्मा सिद्ध नहीं होते। सिद्ध महात्माओं के सत्संग के कारण वे हठयोग की महत्ता और उसके रहस्यों से परिचित अवश्य हो गए थे और हठयोग की लोकोत्तर सिद्धि और शक्ति के चमत्कार भी उन्होंने देखे होंगे। वे काफी मात्रा में योगाभ्यासी भी रहे होंगे। परंतु मन उनका भक्ति भावनाओं में ही रमता था और इसी लिये बार-बार वे भक्ति भावना के राजमार्ग पर लौट आते थे। सगुण निर्गुण को तत्वतः एक ही स्वीकार करते हुए उपयोगिता की दृष्टि से भेद मानते हैं। वे कहते हैं-

    सर्गुण की सेवा करौ, निर्गुण कौ करु ध्यान।

    निर्गुण सर्गुण के परै, तहै हमारा ध्यान।।

    (साखी 10, कर्ता नि.)

    इस प्रकार सगुण की भक्ति और निर्गुण का चिंतन (ध्यान) कबीर ने स्वयं स्वीकार किया है। उन्हें अपने नित्य व्यक्तिगत जीवन के लिये यही मार्ग आचरणीय और समीचीन सा लगता था।

    यह मानी हुई बात है कि वे विवाहित गृहस्थ थे। जुलाहे का व्यवसाय उनका पैतृक व्यवसाय था। भिक्षाटन उनकी शांत और अक्खड़ प्रकृति के विरुद्ध पड़ता था। वे किसी सांप्रदायिक योगी के चेले भी नहीं थे। योगाभ्यास बिना किसी योगी की दीर्घकालीन सेवा के होता भी नहीं। गृह त्याग करके किसी योगी के सतत् संपर्क ओर शिष्यत्व में रहना उनकी जीवनी में कहीं मिलता नहीं। अतः उनका हठयोग और वेदांत संबंधी संपूर्ण ज्ञान बहुत कुछ सत्संगजनित ही था। अभ्यासजनित कम। हाँ अनुभूति अवश्य तीव्र थी। अतः सोअहम् के सरोवर में उनका ‘हंसा’ कल्पनालोक में ही केलि करता था परंतु भावलोक में भक्ति ही विराजती थी। जीव की मुक्तावस्था का बोध उन्हें कल्पना में ही रहा होगा। परंतु नित्य जीवन की साधना में वे एक भावुक भक्त थे। शून्यवाद या अजपा जाप या हठयोग को वे भक्ति के सामने नष्टप्रायः अथवा मरा हुआ समझते हैं।

    शून्य मरै, अजपा मरै, अनहदहू मरि जाय।

    राम सनेही ना मरै, कह कबीर समुझाय।।

    स्पष्ट है कि प्रस्तुत साखी में शून्य, अजपा, अनहद आदि से बौद्धमत, वेदांत, हठयोग आदि सिद्धांतों अथवा साधनाओं की व्यर्थता की ओर संकेत है और राम-प्रेम या रामभक्ति की महिमा को वे खुल्लमखुल्ला स्वीकार करते हैं। शून्यवादी सिद्धांत की चर्चा मूल माध्यमिक कारिका में आई हैं। शून्यवाद सब कुछ असत् मानता है। शून्य शब्द का अर्थ सर्वत्र सकल सत्ता का विरोध या अभाव ही है। बौद्ध माध्यमिक आचार्यों के मौलिक ग्रंथों में इस शब्द का अर्थ नास्ति या अभाव के अर्थ में होकर अनिवर्तनीयता के अर्थ में है। अनिवर्तनीयता ब्रह्म के संबंध में अद्वैत वेदांत में भी आई है, इसी लिये अद्वैतवादियों को अपने सिद्धांत के प्रतिपादन के लिये मायिक व्यवहार को अंगीकार करना पड़ा है। बौद्धों के यहाँ आगे चलकर शून्य का प्रयोग एक विशेष सिद्धांत का सूचक बन गया। यह शून्य परमार्थ का सूचक होने से निरपेक्षता का बोध देने लगा। निरपेक्षता तथा अभाव में मौलिक अंतर है। शून्य परोक्ष तत्व को ही कहा गया है अतः माध्यमिक आचार्यों ने ‘शून्या-द्वैतवाद’ का समर्थन किया। यह नानात्मक प्रपंच शून्य का ही विवर्त है। परमतत्व की सत्ता से कोई मुकर नहीं सकता। उसकी सत्ता सर्वतोभावेन माननीय है, परंतु वह इतना अज्ञेय और अकथनीय है कि उसके विषय में किसी प्रकार का शाब्दिक वर्णन नहीं हो सकता। अतः केवल द्वैती और शून्याद्वैती इस बिंदु पर एक हो गए हैं। इसी कारण शायद शंकर को प्रच्छन्न बौद्ध कहा गया।

    कबीर का शून्य निस्संदेह ब्रह्मबोधक शंकर शून्य है-----

    सुन्न सरोवर मीन मन, नीर तीर सब देव।

    सुधा सिंधु सुख विल ही, विरला जानै भेव।।

    वे प्रपंच की निंदा और माया के हेयत्व के लिये शांकर तर्को को ही अपनाते हैं। वैधी भक्ति के भक्त्याचार्यों की भाँति माया की गर्हणा के लिये कबीर शांकर सिद्धांत से पोषण प्राप्त करते हैं। पर वे मूलतः अद्वैत साधक नहीं, अन्यथा ‘शून्यमरै, अजपा मरै,’ कहते। ‘राम सनेह’ हो उन्हें राजमार्ग लगा था और भक्ति तत्व उन्हें अविनाशी तत्व प्रतीत हुआ था। इसी कारण वे निर्बिकल्प स्वर से ‘राम सनेही ना मरै’ की उद्घोषणा करते हैं। इसी प्रकार ‘अजपा मरै’ कह कर वे हठ योगियों के सिद्धांत का निराकरण करते हैं। अजपा को योगियों की गायत्री माना गया है-

    अजपा योगिनां गायत्री।

    व्यक्तिगत साधना के लिये कबीर को योग अथवा हठ योग भी स्वीकार्य नहीं। कबीर ने अनेक थोथे मतवादी और सिद्धांतों को अस्वीकार करते हुए कहा है-

    अगम अगोचर धाम धनी को सबै हियाँ ते जाना।

    दिखै पंथ मिलै नहिं पछी ढूँढ़त और ठिकाना।।

    कोऊ ठहरावै शून्यक कीन्हा जोति एक परमाना।

    कोऊ कह रूपरेख नहिं वाके, धरत कौन को ध्याना।।

    यही वह रूपरेख रहित निर्गुण है तो लोग ध्यान किसका करते हैं। अतः कबीर इस दृश्य जगत के कर्ता को ध्यान के लिये अनिवार्यताः स्वीकार करते हैं-

    रोम-रोम में पगटकर्ता काहे भरम भुलाना।

    यहीं से कबीर की समस्त साकार भावना स्पष्ट हो जाती है। कबीर के वचनों का प्रथम संग्रह बीजक को माना जाता है। बीजक में ही उनके सगुण-साकारवादी कथन यत्र-तत्र मिल जाते हैं। सगुण निर्गुण की मिलीजुली समन्वित उपासना पद्धति को कबीर ने महाराष्ट्र के संतों से लाय है। कबीर ने अपनी आराध्य संतपरंपरा में संत नामदेव को सर्वाधिक श्रद्धा और आदर दिया है। नामदेव महाराष्ट्र के संत थे जो महाराष्ट्र से पंजाब चले गए थे। पंढरपुर में विट्ठल मंदिर के प्रथम सोपान पर प्रणाम करते हुए उन्होंने अपना देह त्याग किया था, जो आज भी वहाँ ‘नाम देवाचौं पायरी’ कहलाता है। नामदेव की भक्तिसाधना ही कबीर की आदर्श भक्तिसाधना थी। इसी कारण कबीर ने भी नामदेव के इष्टदेव ‘विट्ठला’ को अपने पदों में भावभीने शब्दों में याद किया है। अन्यथा कबीर का विट्ठल से क्या संबंध! वे कहते हैं-

    मन के मोहन वीठुला यह मन लागौ तोहिरे।

    चरन कमल मन भाजिया, और भावै मोहिरे।।

    आगे एक स्थान पर वे कहते हैं-

    गोकल नाइक बीठुला मेरा मन लागौ तौहिरे।

    बहुतक दिन बींछुरैं भयें, तेरी ओसेरि आवै मोहिरे।।

    प्रस्तुत पंक्तियों में विट्ठल को उसी प्रकार स्मरण किया गया है जैसे कोई प्रोषित पतिका अपने प्रियतम को याद करती है विरहतत्व प्रेम लक्षण भक्ति का बीज तत्व है। कबीर के बीजक पदों के बीठुलां, गोकुल आदि शब्दों के अर्थ भक्ति-परंपरा स्वीकृत अर्थों के अतिरिक्त अन्य कोई अर्थ देने वाले नहीं हो सकते। इन पदों में आगे चलकर अद्वैत सिद्धांत और योग की भी शब्दावली आई है। वह दक्षिण की संत-परंपरा की परिपाटी पर ही है। दक्षिणी संतपरंपरा का उद्घोष है-

    अद्वैतेचि चालो अक्षयी भक्ति योग।

    कबीरपूर्व महाराष्ट्र संत ज्ञानेश्वर एवं कबीर-समसामयिक संत नामदेव, एकनाथ तथा परवर्ती संत तुकाराम की शब्दावलियाँ समझ लेने पर कबीर की कथन-शैली और भक्ति परंपरा पर पर्याप्त प्रकाश पड़ जाता है।

    संत नामदेव के वाङ्मय में बाबा, सद्गुरु, प्रह्मानंद, बिठुला, नरहरि, रामा, गोविंदा, माधवा आदि शब्दों का प्रयोग मिलता है और युगपत् सिद्धांत तथा योग की भी चर्चा मिलती है और उसी के बाद वे एकदम सगुण तथा साकार पर जाते हैं और लगभग यही पद्धति कबीर की है। अतः पहले नामदेव की उक्तियों को लीजिए-

    बाबा अहंकार निश घन दाट। बाबा संबोधन कबीर की भी शैली हैं। कबीर कहते हैं-

    1. लावौ बाबा आग जलावौ घरारे।

    का करनि मन धंधै परारे।।

    नहिं छाड़ौ बाबा राम नाम,

    मोहि और पढ़न सूँ कौन काम।

    इसी प्रकार राम, राया, ज्ञानराया मराठी संतों की शैली है। कबीर इसी शैली में कहते हैं-

    गोविंदे तू निरंजन, तू निरंजन, तू निरंजन रामा।

    महाराष्ट्र संतों ने विट्ठल को पिता, रुक्मिणी को माता माता है-

    बापु रखुमा देवी वरू विट्ठल गोविंदु

    अमृत पान गे माये।– अभंग संग्रह

    फिर महाराष्ट्र संत सद्गुरु पर निष्ठा, सगुण निर्गुण के समन्वपूर्वक नाम-माहात्म्य पर बल देते हैं। वे एक ओर गान की और ध्यान की चर्चा करते हैं, दूसरी ओर पांडुरंग की मोहिनी मूर्ति पर मुग्ध होते है। एक ओर विट्ठल को पिता और रुक्मिणी को माँ स्वीकारते हैं दूसरी ओर कांताभाव में विह्वल भी होते हैं। एक ओर जप, ध्यान, तिलक, कंठी, बुक्के की चर्चा करते हैं तो दूसरी ओर मन से, मन की ही गंगा-यमुना में स्नान की सलाह देते हैं। कहना व्यर्थ है कि सगुण निर्गुण, निराकार, साकार का इतना उदार समन्वय और भक्ति भावना का इतना विशाल मुक्त क्षेत्र विरासत में कबीर को दक्षिण के महाराष्ट्र संतों से ही मिला था। उन पर महाराष्ट्र संतों का प्रभाव दिखाना यद्यपि यहां पर अभिप्रेत नहीं है परंतु यह एक स्वतंत्र शोध का विषय अवश्य है। आज तक कबीर की भक्ति पद्धति पर गड्डलिका न्याय से ही विचार हुआ है। उनको कोरा निर्गुण निराकार वादी संत ठहरा कर उनकी भक्तिभावना के प्रति पूर्ण न्याय नहीं किया गया। उनकी व्यक्तिगत भाव-भीनी प्रेमोपासना सगुणोपासकों जैसी आद्रं, सांद्र है और वह भी कांताभाव-संमित है। उसमें भी विरह की टीस बीज भाव में विद्यमान है। उनको इस क्षेत्र में मीरां के समकक्ष लाकर बैठाया जा सकता है।

    इनकी भक्ति भावना का स्वरूप स्पष्टतः समझने के लिये उन पर थोड़ा सा महाराष्ट्र संतों का प्रभाव दिखाना यहां समीचीन होगा। महाराष्ट्र संतों ने विट्ठल, गोविंद, हरि, माधव, नरहरि, श्रीरंग आदि भगवान के सगुण नामों पर अनेक अभंग लिखे हैं। अबंग भगवत् कीर्तन के पदों को ही कहते हैं। कबीर ने अपने पदों का बीजक नाम अभंग शब्द से ही प्रेरित होकर दिया है। रहस्यमय अविनाशी तत्व ही बीज या बीजक होता है। यही अभंग शब्द का तात्पर्य है। महाराष्ट्र में जो अभंग साहित्य का स्थान है वही कबीर पंथ में बीजक का है।

    कबीर के बीजकों में विट्ठल, नरहरि, गोविंद, माधव आदि नामों की चर्चा इस प्रकार है-

    1. मन के मोहन बीठुला, यहु मन लागौ तोहि रे।

    2. इहि पर नरहरि भेटिये, तूं छाड़ि कपट अभिमान रे।

    नरहरि सहजै जिन जाना।

    3. रसना रसहि विचारिये, सारंग श्रीरंग धार रे।

    श्रीरंग दक्षिण का और विशेषकर महाराष्ट्र संतों का भगवानुवाची विशिष्ट शब्द है।

    4. अच्यंत च्यंत माधौ सो सब माहिं समाना।

    5. हरि जननि मैं बालक तेरा।

    6. गोव्यंदा गुण गाइऐ रे, ताथे भाई पाइऐ परम निधान।

    7. माधौ मैं ऐसा अपराधी, तेरी भगति हेत नहीं साधी।

    कबीर का ‘अवधू’ शब्द भी महाराष्ट्रीय संत संप्रदाय का प्रसाद है। अवधूत श्रीदत्तात्रेय की जितनी मान्यता महाराष्ट्र में है उतनी उत्तर भारत में नहीं। श्रीदत्तात्रेय की चर्चा श्रीमद्भागवत के एकादश स्कंध में आई हैं। उनकी आजगरी वृत्ति बड़े बड़े महात्माओं और संतों की स्पृहणीय और वरणीय थी। श्रीदत्तात्रेय प्रथम अवधूताचार्य हैं। अवधूत गीता में उनके सिद्धांतों की चर्चा है। दत्तपंथ महाराष्ट्र के प्रमुख पांच पंथो में है। कबीर ने अपनी अनेक उलटबांसियाँ ‘अवधू’ के नाम से कही हैं। इड़ा, पिंगला, सुषुम्णा की चर्चा वाले अधिकांश पद अवधू के नाम से है। त्रिकूटी समाधि कथा, झोली बटुवा, अनहद की चर्चा वाले पद जोगी या जोगिया को संबंधित करके कहे गए हैं। समन्वयवादी कबीर ने दत्तात्रेय के अवधूतों के पंथ को और गोरखनाथ आदि के नाथ पंथ को मिला दिया है। महाराष्ट्र में ये दोनों पंथ कबीर से पूर्व ही मिली जुली स्थिति में गए थे। दत्त पंथ में प्रारंभ में परमहंसचर्या की प्रधानता थी। केवल कौपीन ही एक मात्र परिग्रह था। परंतु बाद में नाथ पंथ के मिलने से विभूति, कुंडल, मुद्रा, कनफटे कुंडल, त्रिपुंडी, किंकरी, त्रिशूल, पादुका, मृगचर्म, बुक्का, काला गंडा आदि (जोगिया की विशिष्ट वेषभूषा) उन्हें भी ग्राह्य हो गई। गुरु भावना दोनों ही पंथों में सर्वोपरि थी। कबीर में सद्गुरु निष्ठा का स्वर जो सब से ऊंचा सुनाई देता है, उसका बहुत कुछ कारण इन दोनों पंथों में अतिशय मान्य गुरु भावना है।

    कबीर की निषेधात्मक शैली--

    नां तू नारी, तू पुरुष।

    नाद नाही, बाद नाहीं, काल नहीं काया।

    आदि दत्त संप्रदाय की अवधूत गीता की निषेधात्मक शैली के अनुकरण पर है। अवधूत गीता में सब कुछ नकारात्मक है। इसी प्रकार कबीर की आरती शैली पर है। देखा गया है कि उत्तर भारत की आरती शैली में निर्गुण चर्चा नहीं होती। महाराष्ट्र में भगवान् की आरती में निर्गुण चर्चा भी होती है। वहां संतों की भी आरती होती है। कबीर की आरती में भी वही झलक देखने को मिल जाती है। द्विपदी, अष्टपदी तथा अन्य काव्य शैलियों की विविधताओं की प्रेरणा कबीर को महाराष्ट्र संतों से मिली। आगे चलकर इस परंपरा पर हिंदी कवि नहीं सके। इसका रहस्य यही है कि उनपर महाराष्ट्र संतों का प्रभाव नहीं दीख पड़ता। वे महाराष्ट्र संतों के संपर्क में आए ही नहीं।

    कबीर पर महाराष्ट्र संतों का प्रभाव संक्षेप में दिखाने का यही प्रयोजन है कि महाराष्ट्र संत नामदेव का कार्यक्षेत्र पंजाब था और उनकी उपासना पद्धति महाराष्ट्री थी। उनकी समन्वित भाषा, निर्गुण सगुण का समन्वित दृष्टिकोण, दत्त तथा गोरख पथी प्रभाव, अभंग कीर्तन पद्धति, सद्गुरु निष्ठा आदि सब कुछ वे अपने साथ लाए थे। नामदेव का समय विक्रमीय पंद्रहवीं शताब्दी है। लगभग यही समय कबीर का भी है। महाराष्ट्र के संत-चरित्र-लेखकों में कबीर की पंढरपुर यात्रा और नामदेव से भेंट की चर्चा भी की है।

    इस दृष्टि से विचार करने पर कबीर साहित्य के अनुशीलन में कई नई दृष्टियां प्राप्त होती है। महाराष्ट्र के संत-चरित्र-लेखकों का अधार जन्मसाखी श्रीनामदेवजी के लेखक कोई पूरणदासजी थे जिन्होंने 1898 में गुरुमुखी में उक्त ग्रंथ की रचना की।

    कबीर विशेष कर महाराष्ट्र संतों के संपर्क में नामदेव के निकट आए थे, यह निर्विवाद है। उन्होंने वारकरी संतों की पंढरपुर की भक्ति यात्रा (वाणी) की थी। यह अनेक प्रमाणों से सिद्ध हो जाता है।

    ऐसी स्थिति में कबीर भक्ति क्षेत्र में निश्चय ही सगुण साकारोपासक सिद्ध होते हैं। अन्यथा कोई निर्गुण संत निरुद्देश्य उस समय उतनी कष्टसाध्य पंढरपुर की यात्रा कभी करता। नहीं, उसे वहाँ जाने की आवश्यकता थी। अब देखना है कि कबीर की निजी भक्ति का स्वरूप कैसा है। कबीर को रामनाम की दीक्षा मिली थी अतः अनेक पद जिनमें रामनाम की चर्चा है प्रायः भक्तिपरक ही हैं। उन्होंने अपने राम को दशरथि राम से बिलग करके उस पूर्ण ब्रह्म माना है। तुलसी की भाँति पूर्ण ब्रह्म को ‘दशरथ-अजिर-बिहारी’ स्वीकार कर सके। ‘पुरुष प्रसिद्ध प्रकास निधि प्रगट परावर नाथ’ को दशरथ-सुत-रूप दिखाना, राम रहीम की एकता स्थापित करनेवाले कबीर के लिये कठिन था। शायद ‘तिहुँलोक’ से उनकी मथुरा न्यारी थी जो उनके राम में रहीम मिला। इसी कारण ‘रहीम’ में वे दशरथ-अजिर-बिहारी नहीं पा सके। क्योंकि उन्हें हिंदुओं के साथ-साथ मुसलमानों का भी धार्मिक नेतृत्व करना था। अतः अपने राम का वे इस प्रकार निरूपण करते हैं-

    राम के नाम इंसान बागा, ताका मरम जाने कोई।

    भूख त्रिखा गुण वाकै नाहीं, घट घट अंतरि सोई।।

    बेद विवर्जित, भेद विवर्जित, विवर्जित पापारुं पुण्ये।

    ज्ञान विवर्जित, ध्यान विवर्जित, विवर्जित अस्थूल सुंन्य।

    भेष विवर्जित, भीख विवर्जित, विवर्जित डयूमक रूपं।।

    कहैं कबीर तिहुँलोक विवर्जित ऐसा तत्त अनूपं।।

    इस प्रकार घट घट वासी का वेद विवर्जित, भेद विवर्जित तथा ग्यान-ध्यान-विवर्जित नकारात्मक शैली में निरूपण तो सरल था, क्योंकि वह तो सबको स्वीकार्य था। अतः उसका यह रूप सार्वभौम भक्ति के लिये सुलभ मानकर कबीर उसका खुलेआम प्रतिपादन करते हैं। पर दशरथसुत का वे सार्वभौम रूप अपने समसामयिक को नहीं समझा पाते अतः उसे स्वीकार नहीं करते। यों वे उनकी दुष्टदलन शक्ति से प्रसन्न हैं। दुष्टदलनवाले अवतारों पर उनकी आस्था है। अतः नरसिंह (नरसिंघ) के करुणा और क्रूरता भरे अवतार की वे प्रशंसा करते हैं।

    तत्वस्वरूप रामरहस्य को शाक्तों से बचाने की उसी प्रकार सलाह देते हैं, जिस प्रकार शंकर ने पार्वती से कहा था- ‘गोपीनीयं, गोपनीयं, गोपनीयं प्रयत्नतः।’

    कबीर कहते हैं-

    राम राम राम रमि रहिये, साषित सेती भूल कहिये।

    का सुन हां कौं सुमृत सुनाये, का साषित पैं हरि गुन गायें।।

    राम के प्रति कबीर के अनेक भाव है। यदि उन्हें स्थूल रूप में विभक्त किया जाय तो उन्हें दो भागों में सुविधा से बाँटा जा सकता है- प्रथम सामाजिक और दूसरा व्यक्तिगत। उनकी सामाजिक रामभक्ति-भावना में चरम दैन्यविह्वल निवेदन, निश्छल प्रणति के दर्शन होते हैं और संपूर्ण मर्यादा के साथ। इस भक्ति में वे कहीं विनम्र दायभाव लिए हुए हैं तो कहीं उनके प्रति पितृभाव। वारकरी संतों ने विट्ठल को अपना बाप और रखुमा (रुक्मिणी) को अपनी माँ माना है ‘तू माझी माउली’ की प्रायः सभी महाराष्ट्र संतों ने आवृत्ति की है। कबीर भी ‘हरि जननि मैं बालक तोरा’ उसी गलदश्रु भाव से कहते हैं, जिस प्रकार महाराष्ट्र संत चरम दास्यभावापन्न प्रणति से। यहाँ तक कि वे अपने को भगवान का कुत्ता स्वीकार करते हैं-

    कबीरा कूता राम का, मुतिया मेरा नाऊँ।

    गले राम की जेबड़ी, जित खैंचे तित जाऊँ।।

    तौ तौ करैं तो बांदुड़ौं, दुरि दुरि करै तो जाऊँ।

    ज्यूँ हरि राखै त्यूँ रहौं, जौ देवै सो खाऊँ।।

    कबीर में कुत्ते जैसी खामी, निर्भरता और आश्रयभावना कूट कूट कर भरी हुई है। भगवान पर अपने को सर्वतोभावेन निर्भर कर देना भक्त का एकमात्र कर्तव्य है। इसी में उसका चरम विश्वास प्रकट होता है। अन्यथा तो दिखावा मात्र है। मानव समाज के लिये भक्ति के इस सर्वमान्य तत्वों का उपदेश देते हुए कबीर ने विशअवास और आस्था पर बल दिया है। ‘मोर कहाइ करइ नर आसा, कहहु तो कहा मोर बिस्वासा’ के अनुसार भक्त कहलाने वाला धिक्कार का पात्र बनता है। कैसी भी भख्ति हो बिना सेवक सेव्य भाव के निष्पन्न नहीं होती।

    भक्ति के लिये अत्यधिक द्वैत अनिवार्य है और उसमें भी आराध्य के प्रति निरवधिक अनंत अनवद्य कल्याण गुणत्वज्ञान पूर्वक स्वामीयत्व भाव सहित अपने प्रभु को सांसारिक समस्त वस्तुओं से अनेक गुणाधिक मानते हुए सहस्रों अंतरायों के होते हुए भी अप्रतिबद्ध निरंतर प्रेम प्रवाह बना रहे तभी भख्ति है। कबीर की प्रेम और पतिव्रता वाली साखियों में निरवधिक प्रेमाभक्ति के सब लक्षण मिलते हैं। ऐसी भक्ति के लिये आलंबन की नितांत आवश्यकता है भले ही वह प्रस्तर अथवा धातु की निर्मित मूर्ति हो परंतु भक्त के हृदय में उसकी मानसमूर्ति तो अवश्य होनी चाहिए। उसके अप्रतिम सौंदर्य, अजित शक्ति और अनिवार्य क्षमता की अनुभूति उसे अवश्य हो।

    कबीर की दूसरे प्रकार की निजी भक्तिभावना मानव हृदय की चिर अभिलाषमयी रतिमूला प्रेमलक्षणा कांतासक्ति है। अप्रतिम सौंदर्य, अजितशक्ति और अनिवार्य क्षमता के दर्शन कबीर ने अपने दूल्हे राम में किए थे। अतः उनके लिये वे अपना अक्खड़ भाव और पुरुषभाव भूल कर दुलहिन बने और उनके साथ भाँवर डालने के लिये प्रेमविह्वल हुए। राम ही उनके वे अनुपम मोती थे जो उनकी नजर में आए थे। पार्थिव जगत् में भले ही उन्होंने राम के दर्शन किए हों पर भावलोक में उनका उनके साथ मिलन अवश्य होता था। कल्पना सदैव यथार्थ के पंख पर ही सैर करती है। अतः कबीर की कल्पना के प्रियतम कहीं कहीं यथार्थ का बाना अवश्य पहने हुए थे और उस प्रीतम के कोटि सूर्य-संकाश दिव्य सौंदर्य को कल्पना के नेत्र से ही नहीं चर्म चक्षुओं से भी देखते होंगे। हाँ उस अपार्थिव सौंदर्य का पार्थइव शब्दों में वर्णन नहीं करते रहे होंगे। क्योंकि पार्थिव सदैव मरणधर्मा है। भक्त कबीर में सौंदर्य का व्यवहारपक्ष है। सौंदर्य के रूप-पक्ष या आकारभावना का अभाव है। अतः वे सगुणवादियों के अवतारधारी प्रियतम को प्रकाशमय तो स्वीकार करते हैं पर नखशिखात्मक रूपवान व्यक्तित्व नहीं दे पाते हैं। क्योंकि कबीर में लीला भावना का अभाव है, अतः वे अपने आराध्य की साकारता को मन में स्वीकार करते हुए भी कहते नहीं। परंतु साकार विष्णु-मूर्ति की भावना उनके हृदय में है।

    जाके नाभि परम सु उदित ब्रह्म, चरन गंगा तंरगरे।

    कहै कबीर हरि भगति बांछूं जगत गुरु गोव्यंदरे।।

    सगुण साकार भक्तों के स्वर में स्वर मिलाकर वे एक स्थान पर कहते हैं-

    भजि नारदादि सुकापि बंदित चरन पंकज भामिनी।

    भजि भजसि भूषण पिया मनोहर, देव देव सिरोमनि।।

    देवाधिदेव शिरोमणि जिस मनोहर पिया की वे चर्चा करते हैं, उससे उनका निजी भाव कांताभाव है। उनके दास्य भाव और मातृ-पितृ-भाव का ऊपर संकेत दिया जा चुका है। यहाँ संक्षेप में उनके मधुर भाव की चर्चा की जाती है। कांताभाव या मधुरा भक्ति के यावन्मात्र उपासक सगुण साकारोपासक हैं। मुस्लिम सूफी संतों को साकार भावना से बचने के लिये और अपने इस अभाव की पूर्ति के लिये ऐतिहासिक व्यक्तियों का पल्ला पकड़ना पड़ा। ये लोग प्रेमी नायक नायिकाओं के पार्थिव प्रेम को खींच कर दिव्य धरातल पर ले जाने के प्रयत्न में लगे रहे। हिंदी साहित्य में अकेले कबीर ही ऐसे भक्त हैं जो कांताभाव में डूबकर भी अपने प्रिय के नखशिख अथवा उसके रूपसौंदर्य की चर्चा नहीं करते। प्रिय को साकार मानना व्यवहारिक दृष्टि से नितांत असंभव है। कबीर में प्रेम की संपूर्ण अनुभूतियाँ हैं। पूर्व राग से लेकर उत्सुकता भरी पिय मिलन की एकांत कोठरी तक सारे सोपानों की उन्होंने क्रमशः चर्चा की है- किसी अनुभूतिशीला पति परायण प्रणयासक्ता नारी की भाँति। यौवनमत्ता दुलहिन रामदेव पाहुने (पाहुणे, मराठी में दूल्हा तथा जमाई के लिये प्रयुक्त होता है) के साथ भांवर डालती है। प्रिया को बिना कुछ करे धरे सुख सुहाग मिल जाता है। बहुत दिनों में बिछूड़े प्रिया प्रीतम मिलते हैं। प्रिया जबर्दस्ती उलझती है। प्रियतम को अपने प्रेम में उलझा कर रखती है। मन मंदिर में अहोरात्र वास देती है। एकांत कोठरी में पलंग बिछाया जाता है। पर्दा डाला जाता है और प्रियतम को (हाव-भाव-कटाक्षों से) रिझा लिया जाता है।

    संयोग के संपूर्ण चित्र तो कबीर में हैं ही, वियोग की अनुभूतियाँ भी कम नहीं। प्रोषितपतिका की भाँति संदेश भेजे जाते हैं और आने की प्रतीक्षा की जाती है। प्रेम पाती लिखी जाती है। प्रतीक्षा करते आंखों में झाँई पड़ जाती हैं। प्रिय का नाम रटते-रटते जीभड़िया में छाले पड़ते हैं। विरहिणी अपने प्रियतम को एक पलक नहीं भूलती। प्रेम पत्र का मसौदा इतना ही है-

    यह तत वह तत एक है एक प्रान दुई गात।

    अपने जिय से जानिये मेरे जिय की बात।।

    (110 साखी)

    अतीत के मानजन्य कलह को याद करके विरहिणी को कर्तव्यबोध होता है। पश्चाताप भी होता है-

    पीया चाहै प्रेम रस, राखा चाहै मान।

    एक म्यान में दो खड़ग, देखा सुना कान।।

    कबीर को प्रेम करना, प्रेम रखना, प्रेम निभाना सभी कुछ आता था-

    नेह निभाए ही बनै, सीचै बनै आन।

    तन दे मन दे सीस दे, नेह दीजे जान।।

    विरहिणी या तो मृत्यु चाहती है या दर्शन-

    ‘कै विरहिणी को मीच दै कै आपा दिखलाय’ क्योंकि आठों पहर का जलना विरहिणी को अब सहना नहीं। विरहिणी कुछ नहीं चाहती विरह के कमंडलुवाले ये दो वैरागी नेत्र दर्शनभिक्षा चाहते हैं।

    विरह कमंडलु कर लिये वैरागी दो नैन।

    मांगे दरस मधूकरी, छके रहैं दिन रैन।।

    सगुणोपासक कांताभाव-

    भावित भक्तों की भाँति कबीर की तुष्टि प्रियतम के दर्शन मात्र से ही हो जाती है। कांताभाव भावित भक्त कबीर का पुरुष भाव अष्टछापी भक्तों की भाँति विलुप्त हो जाता है और वे अपने को किसी समर्थ विभु प्रभु की विरहिणी बहुरिया के रूप में ही पाते हैं। प्रेम के आवेश में वे पतिप्राणा भार्या का संपूर्ण भावलोक आत्मसात् कर लेते हैं। प्रिय के आने पर यदि प्रकाश नहीं होगा तो वह तन के दीवले में प्राणों की बत्ती को अपने रक्त के तेल (स्नेह) से ही सींचेगी।

    उस प्रकाश में प्रिय का मुख देखेगी। आगे चलकर मन की चिंता अभिलाषा का रूप ले लेती है। वह कैसा स्वर्णिम दिवस होगा जब प्रिय हाथ पकड़ कर अपने पास बिठा लेंगे।

    सो दिन कैसा होयगा पिया गहैंगे बाँह।

    अपने घर बैठावहीं चरन कंवल की छांह।।

    विरह वेदना के अनंत अनुभूत चित्र कबीर के काव्य में भरे हैं। उस आधार पर उन्हें कांताभावापन्न परमोच्च भक्त कहा जा सकता है। कबीर की कांतासक्ति से दो बातें स्पष्ट होती हैं, एक तो यह कि वे वैध प्रेम में ही विश्वास करते हैं। किसी सगुणोपासक भक्त ने इतने समारोह के साथ अपना विवाह अविनाशी पुरुष के साथ नहीं कराया। दूसरी बात यह है कि प्रेम की सर्वोच्च स्थिति वे आचार्य वल्लभ की भाँति स्वीया में ही स्वीकार करते हैं। चैतन्य का परकीया प्रेम, उन्हें परमात्मा से भी स्वीकार नहीं। यह उनकी परमोच्च आचारनिष्ठा है। आगे चल कर फिर तो किसी लौकिक सगुणोपासक का इतना साहस हुआ कि वह उस अविनाशी से विवाह करे और वह उस एकांत प्रम को व्यक्तिगत रूप से व्यक्त कर सका।

    सगुणोपासक या तो राधा के माध्यम से अथवा गोपियों के माध्यम से प्रियतम पर पहुँचने लगे या फिर कहीं कहीं स्वामिनियों के नेतृत्व में यूथ बनाकर सखी अथवा सहचरी भाव से पहुँचे। कबीर की तरह धूमधाम से विवाह कर अविनाशी की पत्नी बनने का साहस शायद किसी को नहीं हुआ। यही उनकी मौलिकता है।

    भगवान की उपासना को लौकिक कामना से पंकिल कर उसे यांत्रिक बना कर चलाने वाले भक्तों के पास कबीर जैसी मार्मिक अनुभूति कदापि नहीं हो सकती। निर्गुणियों, निराकारवादियों के पास वैसी अनुभूति हो सकती है। इसी लिये कबीर निर्गुण संतों की पंक्ति से भी अलग खड़े प्रतीत होते हैं।

    वस्तुतः कबीर सुधारक और भक्त दोनों ही है। उनके सुधारवादी और समन्वयवादी दृष्टिकोण ने उन्हें एक ओर कटु आलोचक दूसरी ओर मार्मिक चिंतक बना दिया। परंतु उनका मूल रूप सगुण साकारवादी भक्त का ही है। वे भक्ति के क्षेत्र में दंभ, स्वार्थ, छल, प्रपंच, दिखावा मिथ्याचार आदि पसंद नहीं करते थे। जिन उपासना पद्धतियों में उन्हें सदाचार, संयम, कठोर साधना, देह गेह के प्रति नश्वर बुद्धि, भूतदया, अहिंसा, करुणामैत्री, मुदिता आदि के दर्शन हुए उनको ही उन्होंने सराहा, समझा औऱ अपनी दाद दी। छाप दी। परंतु जहाँ उन्हें दंभ, कपट, मिथ्याचार, हिंसा, छल एवं स्वार्थ दीखा वहीं उन्होंने कस कर कशाघात किया। वे हिंदू मुस्लिम एकता के कट्टर समर्थक थे। अतः राम रहीम के भेद मिटाने की दृष्टि से ही भगवान का साकार रूप समाज के सामने स्पष्ट स्वीकार नहीं करते किंतु अपनी एकांत प्रेम लक्षणा भक्ति के लिये उनके मानस मंदिर में अवश्य ही कोई साकार मूर्ति समाई हुई थी और इसी लिये उन्हें सगुण साकारोपासक भक्तों में रखना समीचीन होगा।

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