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संत कबीर की सगुण भक्ति का स्वरूप- गोवर्धननाथ शुक्ल

नागरी प्रचारिणी पत्रिका

संत कबीर की सगुण भक्ति का स्वरूप- गोवर्धननाथ शुक्ल

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    कबीर के संपूर्ण वाङ्मय का रहस्य सत्यं शिवं सुंदरं की साधना एवं उपासना है। उनकी यह उपासना प्रमुख रूप से मानसी और गौण रूप से वाङ्मयी थी। जिस प्रकार अपने समय के प्रचलित सभी काव्यरूपों को अपना कर वे अपनी एक निराली काव्यशैली के स्रष्टा बन गए उसी प्रकार अपने समय की प्रचलित सभी धर्म-साधनाओं को आत्मसात् करके वे एक नितांत निराले धर्म साधक भी सिद्ध हुए। कबीर को मध्ययुगीन सर्वतोमुखी भगवदास्था के साहित्य का आदि कबि और निर्विवाद रूप से निर्गुण भावना का प्रथम प्रवर्तक माना जाता है। यह ठीक भी है कि कबीर ने एक सुधारक के रूप में स्पष्ट और कठोर रूप में मूर्तिपूजा और अवतारवाद का खंडन किया है। परंतु मध्ययुगीन हिंदी भक्तिसाहित्य में कबीर संत और चिंतक के रूप में अधिक चर्चित है। क्योंकि निर्गुण निराकारवादी साधक एक चिंतक के रूप में ही चर्चित होते हैं उन्हें प्रायः भक्त नहीं कहा जाता। इधर हिंदी साहित्य में आधुनिक शब्दप्रयोग की परंपरा के आधार पर इन दो शब्दों में भेद कर लिया गया है। सगुणोपासकों को भक्त कहा जाता है और निर्गुण निराकारवादियों को संत। मराठी भक्ति वाङ्मय में ऐसा कोई भेद नहीं है। उसका मुख्य भी रहे हैं और सभी विट्ठलोपासक भक्त निर्गुण निराकारवादी भी रहे हैं।

    महाराष्ट्र संत ज्ञानेश्वर महाराज ने कहा है-

    सगुण निर्गुण जयाची हीं अंगे।

    तोची साह्मां संगे क्रीड़ा करी।।

    सगुण-निर्गुण जिस एक परमात्मा के अंग हैं वही मेरे साथ लीला करता है। इतना ही नहीं ज्ञानेश्वर महाराज के मत में निर्गुण की अपेक्षा सगुण अधिक मधुर और व्यवहार साध्य है। श्रीएकनाथ महाराज ने कहा हैं-

    तेथ सगुण आंणि निर्गुण। उभय रूपें मी ब्रह्म पूर्ण।

    निर्गुणषासून सगुण न्यून। ह्मणे तो केवल मूर्ख जाण।।

    सगुण निर्गुण दोन्ही समान। ल्यून पूर्ण असेना।

    श्री एकनाथ महारांज ने सगुण निर्गुण का एकत्व सिद्ध करते हुए जमे हुए और पिघले हुए घी से उपमा दी है। उसमें भी जमा हुआ घी विशेष आनंददायक होता है-

    विथरलें तें तूप होये। थिजले त्या परीस गोड आहे।

    निर्गुण परीस सगुणी पाहे। अति लव लाहे आनंदु ।।

    ज्ञानेश्वर महाराज सगुण को अधिक सुविधापूर्ण भजनीय सिद्ध करते हैं-

    तुझें भजन मजंप्रिय गा दातारा।

    साधक कबीर सुधारक भी जबरदस्त थे। सच्चे सुधारक का स्वयं क्रियावान् होना अनिवार्यतः आवश्यक है। सदाचार कबीरसाधना का एक बड़ा साधक तत्व है। बिना सदाचार के अध्यात्म साधना-साध्य नहीं अथवा जलताड़नवत् एक व्यर्थ क्रिया है। अतः सदाचरण संत का प्रथम सोपान हैं। जगत का प्रथम् सोपान है। जगत का प्रथम आदर्श है। संत का व्यवहार सुष्ठु, स्पष्ट और लोकमंगलमय होना चाहिए। उसका आचरण मानव मात्र के लिये आदर्श होना चाहिए। इसी लिये संतों के वरणीय आचरण की एक लंबी सर्वमान्य सूची भारतीय संत वाङ्मय में प्रतिष्ठित चली रही