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ज़िक्र-ए-ख़ैर : हज़रत शाह ग़फ़ूरुर्रहमान हम्द काकवी

रय्यान अबुलउलाई

ज़िक्र-ए-ख़ैर : हज़रत शाह ग़फ़ूरुर्रहमान हम्द काकवी

रय्यान अबुलउलाई

MORE BYरय्यान अबुलउलाई

    कमालाबाद उ’र्फ़ काको की क़दामत के तो सब क़ाएल हैं।आज से 700 बरस क़ब्ल मुस्लिम आबादी का आग़ाज़ हुआ। इस तरह तवील अ’र्सा में ना जाने कितने मशाएख़ और दानिश-मंद गुज़रे जिनके मज़ारात आज भी काको के मुख़्तलिफ़ मक़ामात पर शिकस्ता-हाल में मौजूद हैं। काको में चंद ऐसे ख़ानदान भी मौजूद हैं जो तक़रीबन 250 बरस से आबाद हैं।उन्हीं में से एक बुज़ुर्ग जिनसे उस ख़ानदान की काको में इब्तिदा हुई हज़रत अल-हाज सय्यद अ’बदुर्रहमान सेवधवी नव्वारल्लाहु मर्क़दहु हैं जो उस ख़ानदान के जद्द-ए-आ’ला हैं।

    ब-क़ौल हम्द काकवी ”ये ख़ानदान मुल्क-ए-अ’रब से निकल कर दीगर मक़ामात में फिरता-फिराता सूबा-ए-बिहार पहुँचा।फिर मौज़ा’ सेवधा जो वहाँ (काको) से सात कोस पर वाक़े’ है सुकूनत-पज़ीर हुआ।उस ख़ानदान के मुरिस-ए-आ’ला का नाम सय्यद ताजुद्दीन रिज़वी था।”वाज़ेह हो कि सय्यद अ’ब्दुर्रहमान सेवधवी सुम्मा काकवी की कद-ख़ुदाई शैख़ मुबारक अ’ली बिन शैख़ बदरुद्दीन बिन मख़दूम शम्सुद्दीन दवानक़ी सुम्मा काकवी के फ़रज़ंद-ए-चहारुम शैख़ अ’ब्दुर्रहमान शह-ज़ोर की दुख़्तर-ए-दोउम मुसम्मात रुक़य्या से हुई।इसलिए आप अपने ससुराल(काको)ही में सुकूनत-पज़ीर हुए। ब-क़ौल-ए-हम्द ”ये अपने ख़ानदान के पहले बुज़ुर्ग हैं जिन्हों ने काको में मस्कन आबाद किया”।

    ख़ानदान में फ़रमान-ए-शाही ब-अ’हद-ए-सल्तनत बादशाह फ़र्रुख़ सियर (1131हिज्री) कई जागीरें मौजूद थीं। ये ख़ानदान रफ़्ता रफ़्ता अपने अख़लाक़-ए-करीमाना और दाद-ओ-दिहिश के ज़रिआ’ लोगों में मंज़ूर-ए-नज़र हुआ। मशाएख़ में मसलन हज़रत सय्यद अ’ताउल्लाह उ’र्फ़ कालन काकवी ,हज़रत सय्यद हबीबुल्लाह क़ादरी काकवी, हज़रत सय्यद कलीमुल्लाह उ’र्फ़ धूमन काकवी (मुतवफ़्फ़ा 1222 हिज्री), हज़रत सय्यद अहलुल्लाह उ’र्फ़ कालन काकवी, हज़रत सय्यद तइमुल्लाह काकवी (मुतवफ़्फ़ा 1264 हिज्री), हज़रत सय्यद इमदाद हुसैन काकवी, हज़रत-ए-सय्यद मोहम्मद मुबीन काकवी (मुतवफ़्फ़ा 1293हिज्री) और मशहूर-ए-ज़माना शख़्सियत हज़रत सय्यद शाह तबारक हुसैन काकवी (मुतवफ़्फ़ा 1299हिज्री) क़ुद्दिसल्लाहु तआ’ला असरारहुम जिन्हों ने अपने फ़िक़्र-ओ-सुलूक के ज़रिआ’ लोगों के दिलों को रब की जानिब मुतवज्जिह किया।न जाने कितने गुम-गश्ता राह-ए-हिदायत की तरफ़ आए।

    वहीं दूसरी जानिब ये ख़ानदान अपनी रईसाना और शाइ’राना ज़िंदगी के लिए भी अ’वाम-ओ-ख़्वास में मक़्बूलियत हासिल कर चुका था। मसलन सय्यद मुबारक हुसैन मुबारक अज़ीमाबादी मुतवफ़्फ़ा 1341 हिज्री, सय्यद नूरुर्रहमा उ’र्फ़ ला’ल नूर अ’ज़ीमाबादी मुतवफ़्फ़ा 1335 हिज्री, सय्यद अ’ब्दुर्रहमान अबद काकवी मुतवफ़्फ़ा 1308 हिज्री, हाजी सय्यद लुत्फ़ुर्रहमान काकवी, सय्यद मुहीउद्दीन अहमद कमाल काकवी मुतवफ़्फ़ा 1355 हिज्री, सय्यद मुई’नुद्दीन अहमद जलाल मुतवफ़्फ़ा 1315 हिज्री और सय्यद ग़फ़ूरुर्रहमान हम्द काकवी मुतवफ़्फ़ा 1357हिज्री वग़ैरा या’नी फिक्र-ओ-सुलूक के साथ रईसाना और शुऊ’राना ज़िंदगी का संगम था। सब के सब नेक-सीरत,ख़ुश-मिज़ाज,साबिर-ओ-शाकिर,तवक्कुल-अ’लल्लाह, हद दर्जा मुन्कसिरुल-मिज़ाज और इंसान-दोस्ती का पैकर थे।ये कई ग़ैर मुस्लिमों के मलजा और मावा हुआ करते थे। ब-ज़माना-ए-हम्द आठ पुश्तों से ये ख़ानदान काको में सुकूनत-पज़ीर है। ब-क़ौल-ए-आसार-ए-मुअल्लिफ़-ए-काको:

    आठ पुश्तों से हूँ यहीं आबाद

    जद्द-ए-आ’ला थे काको के दामाद

    मशहूर सूफ़ी बुज़ुर्ग हज़रत सय्यद शाह मोहम्मद अकबर अबुल-उ’लाई दानापुरी अपनी किताब नज़्र-ए-महबूब सफ़हा 45 मत्बूआ’ 1306 हिज्री, आगरा’ में हम्द काकवी के मुतअ’ल्लिक़ रक़म-तराज़ हैं कि-

    “आप मुअ’ज़ज़-ओ-मुकर्रम ख़ानदान की याद-गार हैं।चूँकि हज़रत वालिद माजिद(सय्यद शाह मोहम्मद सज्जाद अबुलउ’लाई दानापुरी) को मुअल्लिफ़ से कमाल-दर्जा की मोहब्बत थी लिहाज़ा आपको अपने ख़ानदान में बैअ’त का इत्तिफ़ाक़ हुआ।हज़रत वालिद माजिद से शरफ़-ए-बैअ’त हासिल किया और हल्क़ा-ए-इर्शाद में दाख़िल हुए।मा-शा-अल्लाह फ़ह्म अच्छी है।राब्ता बहुत क़वी है।हज़रत सय्यिदिना (अमीर अबुल-उ’ला आगरा)रज़ी-अल्लाहु तआ’ला अ’न्हु का उ’र्स काको में नहुम सफ़रुल-मुज़फ़्फ़र को कमाल-ए-ख़ुलूस से करते हैं।शरफ़-ए-इजाज़त-ओ-ख़िलाफ़त भी हासिल है। ज़ादल्लाहु तक़वाहु”

    तफ़्सील मुलाहिज़ा कीजिए हम्द की कहानी ख़ुद उनकी ज़बानी-

    आपकी पैदाइश 5 शव्वालुल-मुकर्रम 1279 हिज्री मुताबिक़ 19 मार्च 1863 ई’स्वी 24 चैत 1269 फ़स्ली यक-शंबा सुब्ह-ए-सादिक़ कमालाबाद उ’र्फ़ काको (ज़िला’ जहानाबाद) में हुई।वालिदा की जानिब से आप फ़ारूक़ी हैं।वालिद का नाक़िस नसब-नामा-ए-पिदरी(आसार-ए-काको) में दर्ज ज़ैल है। व-हुवा-हाज़ा: सय्यद ग़फ़ूरुर्रहमान बिन सय्यद मोहम्मद मुबीन बिन सय्यद इमदाद हुसैन बिन सय्यद तइमुल्लाह बिन सय्यद अहलुल्लाह बिन सय्यद हबीबुल्लाह बिन अ’ताउल्लाह बिन सय्यद अ’ब्दुर्रहमान बिन सय्यद अ’ब्दुल-हई बिन सय्यद फ़िरोज़ क़ुद्दिसल्लाहु-तआ’ला असरारहुम।आप तीन भाई और तीन बहन थे।बिरादरान में हाजी सय्यद लुत्फ़ुल्लाह रहमान, सय्यद अ’ब्दुर्रहमान अ’ब्द और हमशीरा में सब साहिब-ए-औलाद और जाह-ओ-मंसब थीं।

    ख़ुद लिखते हैं ”जब चार साल की उ’म्र हुई तो मेरे हक़ीक़ी मामूँ क़ाज़ी अहमद बख़्श ने मेरी बिस्मिल्लाह-ख़्वानी कराई। मुंशी मोहम्मद हाशिम अ’ली से ता’लीम की इब्तिदा हुई।उर्दू फ़ारसी की चंद किताबें मसलन ‘बहार-ए-दानिश’ और ‘सिकंदर-नामा’ शुरूअ’ किया। कहते हैं ”दिल में हिफ़्ज़-ए-क़ुरआन का शौक़ पैदा हुआ’’। हाफ़िज़ की तलाश हुई। आख़िर हाफ़िज़ ख़ुर्शीद अ’ली से सिलसिला-ए-हिफ़्ज़-ए-क़ुरआन चला।लेकिन ना-मा’लूम सबब की बिना पर मौक़ूफ़ हुआ। ज़माना-ए-तिफ़्ली में चंद दिनों काको से गया की जानिब ब-ग़रज़-ए-ता’लीम मुंतक़िल हुए।वहाँ मौज़ा डियानों में रहे।जब यहाँ से दिल-बर्दाश्ता हुआ तो चंद दिन आरा (शाहाबाद) में रह कर फिर घर को लौट आए। आगे लिखते हैं ”जब सिलसिला-ए-ता’लीम ख़त्म हो गया तो वालिद-ए-माजिद मुझसे वो ख़ुतूत पढ़वाने लगे जो उनके नाम इधर-उधर से आते थे या वो भी जो बा’द में लोगों को लिखते थे। फिर उनके मतालिब हमसे पूछते और उसकी वज़ाहत फ़रमाते। इस तरह ये सिलसिला कुछ अ’र्सा तक रहा। ‘इ’ल्म में इज़ाफ़ा होता रहा। बातों को समझने और ग़ौर-ओ-फ़िक्र का नया वसीला बना। यही नहीं बल्कि कहते हैं ”जो समझ में न-आता उसको समझाते।इस तरह ता’लीम का सिलसिला अ’र्सा तक रहा। ख़ुश हो कर इनआ’म देते। उनके फैज़ान-ए-सोहबत से बहुत कुछ हासिल किया”। उर्दू के साथ फ़ारसी की इस्ति’दाद भी ख़ूब से ख़ूब-तर थी।

    ये ख़ानदान अपनी आ’लिमाना-रविश और फ़क़ीराना-ज़िंदगी के लिए काको में मशहूर था।ख़ुद ख़ानदान के अज्दाद सिलसिला-ए-क़ादरिया और चिश्तिया के बुज़ुर्ग मसलन दिल्ली, मुरादाबाद से मुंसलिक रहे।लेकिन क़िस्मत को कुछ और मंज़ूर था।ज़रूरत थी कि फिर से फ़र्ज़न्दान-ए-हज़रत मख़दूमा बी-बी कमाल की रुहानी ता’लीमात-ओ-बैअ’त उनके फ़र्ज़न्दान-ए-मा’नवी के ज़रिआ’ काको में नशो-ओ-नुमा हो। लिखते हैं ”मेरी तबीअ’त में बुज़ुर्गान-ए-दीन से अ’क़ीदत का जज़्बा कार-फ़रमा था ।हज़रत शाह सज्जाद सज्जादा-नशींन ख़ानक़ाह-ए-दानापुर अक्सर काको तशरीफ़ लाते थे।उनसे नियाज़ हासिल हो चुका था।एक-बार वो हाफ़िज़ अहमद रज़ा साहिब वकील के नवासों की तक़रीब-ए-बिस्मिल्लाह में गया तशरीफ़ लाए। ये इत्तिलाअ’ जो मिली तो मैंने एक अ’रीज़ा हज़रत सज्जाद की ख़िदमत में इर्साल किया और अपने यहाँ तशरीफ़ लाने की दा’वत दी। आपने कमाल-ए-मेहरबानी से ये ए’ज़ाज़ बख़्शा और ग़रीब-ख़ाना पर आने और फ़रोकश होने की ज़हमत गवारा की।दो रोज़ आप मेरे ग़रीब-ख़ाना पर मेहमान रहे। फिर काको के रईस-ए-आ’ज़म शैख़ अ’ब्दुर्रहमान साहिब के यहाँ तशरीफ़ ले गए।उनकी वालिदा हज़रत से बैअ’त थीं ।एक दिन यका-य़क दिल में ब-जज़्बा-ए-ग़ैबी पैदा हुआ कि मुझे हज़रत से बैअ’त लेनी चाहिए।अ’रीज़ा इर्साल किया। शरफ़-ए-क़ुबूलिय्यत बख़्शा।ब-तारीख़ 7 रबीउ’स्सानी 1297 हिज्री बा’द नमाज़-ए-मग़रिब मेरे क़याम-गाह पर जो ख़ानदानी ख़ानक़ाह थी आप तशरीफ़ लाए और तरीक़ा-ए-क़ादरिया में मेरी बैअ’त ले ली।और उस वक़्त अज़ राह़-ए-नवाज़िश इजाज़त-ओ-ख़िलाफ़त से भी मुशर्रफ़ फ़रमाया।बस्ती के मुअज़्ज़ज़ अरकान उस मौक़ा’ पर मौजूद थे।मेरी उ’म्र उस वक़्त कुल 17/18 साल की थी। हज़रत का करम था कि दिल की आरज़ू इस शे’र के मिस्दाक़ पूरी हुई।

    आनाँ कि ख़ाक रा ब-नज़र किमिया कुनंद

    आया बुवद कि गोशः-ए-चश्म ब-मा कुनंद

    दूसरी जगह (याद-ए-वतन) मंजूम में पीर-ओ-मुर्शिद की अ’क़ीदत यूँ बयान करते हैं:

    कहाँ हो होश में जाओ अब सँभल बैठो

    वही करो जो है इर्शाद-ए-हज़रत-ए-सज्जाद

    उन्हीं के दस्त–ए-मुबारक पे है मुझे बैअ’त

    मुरीद उनका हूँ मैं और वो हैं मेरी मुराद

    बल्कि एक जगह तो अ’क़ीदत-ओ-मोहब्बत की मिसाल क़ाएम कर रहे हैं : ”बुज़ुर्गान-ए-दीन से गहरी अ’क़ीदत रही। मैंने जो कुछ फ़ैज़ पाया वो अपने मुर्शिद-ए-कामिल शाह सज्जाद अ’लैहिर्रहमा से।और किसी बुज़ुर्ग से कुछ फ़ैज़ हासिल किया और मुआ’नक़ा तक की नौबत आई और किसी की तरफ़ तबीअ’त का रुजहान रखा’’। वाज़ेह हो कि आपके पीर-ओ-मुर्शिद हज़रत मख़दूम-ए-पाक (मुतवफ़्फ़ा 1298 हिज्री) के मुरीद-ओ-मजाज़ काको में ख़ूब हुए। जिनमें से शाह मोहम्मद ग़ज़ाली अबुल-उ’लाई वासिल और शाह मोहम्मद क़ादिर रज़ा रिज़वी काकवी वग़ैरा ज़्यादा मशहूर हुए।

    सुख़न-ए-गुलिस्ताँ के मुतअ’ल्लिक़ ख़ुद रक़म-तराज़ हैं ”मेरी इब्तिदाई ता’लीम का ज़माना था। टूटे फूटे अश्आ’र कहने लगा।एक मुख़्तसर-सा मजमूआ’ हो गया जो मेरे हिंदू साथी नंदकिशोर सिंह के पास था। उनसे वापस लेने का मौक़ा’ ना मिला”। लड़कपन का वो शे’र ये था:

    हवा से तेज़ है चलन में

    उड़ेगा जा के पहूँचेगा अ’दन में

    ख़ानदान के अक्सर फ़र्दों को शे’र-ओ-सुख़न की तरफ़ रग़बत थी लेकिन अफ़्सोस किसी का कलाम इन्फ़िरादी हैसियत से शाए’ हो सका। फ़न्न-ए-सुख़न में उस्ताद अपने पीर-ओ-मुर्शिद के फ़र्ज़न्द-ओ-जांनशीन हज़रत शाह मोहम्मद अकबर अबुल-उ’लाई दानापुरी से थ। तफ़्सील उन्हीं की बान में सुनिए।”जब पहले एक ग़ज़ल कही तो फ़िक्र हुई कि किसी उस्ताद से उस पर इस्लाह ली जाए।नज़र-ए- इंतिख़ाब जनाब सय्यद शाह मोहम्मद अकबर अबुल-उ’लाई दानापुरी पर पड़ी।आप हमारे हज़रत पीर-ओ-मुर्शिद के फ़र्ज़न्द थे। साहिब-ए-दीवान शाइ’र थे।उनसे क़लबी तअ’ल्लुक़ भी था।अल-ग़र्ज़ अपनी ग़ज़ल ब-ज़रिआ’-ए-डाक दानापुर रवाना कर दी।अब ये भी याद नहीं कि कोई तख़ल्लुस भी अपना रखा था या नहीं।हज़रत उस्तादी ने मेरा तख़ल्लुस अहमद तज्वीज़ किया।ग़ज़ल पर इस्लाह फ़रमा दी।”मज़ीद लिखते हैं” हज़रत उस्तादी चूँकि अक्सर मुख़्तलिफ़ मक़ामात मसलन इलाहाबाद, आगरा,ग्वालियर,अजमेर शरीफ़ वग़ैरा पर इक़ामत-पज़ीर रहते थे।इस्लाह का सिलसिला बराबर डाक ही के ज़रिआ’ से होता रहा और ईसी तरह दस बारह ग़ज़लें हज़रत की इस्लाह से मुज़य्यन हुईं। इसके बा’द फिर इसका मौक़ा’ मिला’’। नमूना-ए-कलाम मुलाहिज़ा कीजिए और जनाब-ए-हम्द को दाद-ओ-तहसीन से नवाज़िए:

    अपने उस्ताज़-ए-मुकर्रम की हम्द ‘ऐ बे-नियाज़ मालिक मालिक है नाम तेरा’ के तर्ज़ पर ये ग़ज़ल लिखी है-

    फ़लक तेरा ज़मीं तेरी चमन तेरा शजर तेरा

    ये गुल तेरा ये बू तेरी तेरी रंगत चमन तेरा

    तेरे ख़्वान-ए-करम से ने’मतें मिलती हैं हर इक को

    कोई भी भूल सकता है ये एहसाँ उ’म्र-भर तेरा

    ये दस्त-ओ-पा तिरे आँखें तेरी हैं ये ज़बां तेरी

    ये तन तेरा ये जां तेरी ये दिल तेरा जिगर तेरा

    तअ’ज्जुब है की पुर्सिश हम्द से होती है इ’स्याँ की

    अदब माने’ है क्यूँ कर दूँ जवाब दाद-गर तेरा

    खिंच गया है मिरी आँखों में जो नक़्शा तेरा

    नज़र आता है हर इक चीज़ में जल्वा तेरा

    लिखने-पढ़ने का शौक़ वालिद के ज़माने ही से था।आपका शे’री सरमाया जो तबह्हुर-ए-इ’ल्मी पर ग़म्माज़ है वो ये है।’जाए-नामा’ मतबूआ’, ‘याद-ए-वतन’ मतबूआ’ (हालात-ए-काको मंज़ूम), कित्आ’त-ए-तारीख़ (क़ितआ’-ए-तारीख़-ए-विलादत,ओ-साल),मंज़ूमात (सेहरा और हालात-ए-हाज़िरा), मस्नवी,मुनाजात, कुल्लियात-ए-हम्द (ब-ज़बान-ए-उर्दू, फ़ारसी), और ‘आसार-ए-काको’।नस्र में हालात-ए-हज़रत बी-बी कमाल क़ुद्दिसा सिर्रहा-ओ-बुज़ुर्गान,बाशिंदगान-ए-काको बड़े तफ़्सील से तहरीर किया गया।

    मेरा ख़याल है कि हर दौर में ‘आसार-ए-काको’ बाशिंदगान-ए-काको के लिए मिशअल-ए-राह साबित होगा। शायद जनाब-ए-हम्द ने अपना मुस्तक़बिल ‘आसार-ए-काको ‘के हवाला कर दिया।लिखते हैं ”अपनी याद-गार सिर्फ़ आसार-ए-काको है ”और आने वाली नस्ल को ये दीवाना (हम्द) अपनी दीवानगी में तल्क़ीन कर रहा है। ”आसार-ए-काको की तर्तीब बड़ी मेहनत और कोशिश से हुई है। अपने वक़्त में उसकी तबाअ’त करा सका अब इसके मुतअ’ल्लिक़ मेरे पसंद-गान और यारान-ए-वतन को लाज़िम है कि जो कुछ हालात-ओ-वाक़िआ’त-ए-गुज़िश्ता-ओ-आइन्दा जो मैं ने कलम-बंद कर के दी उसे तबा’ करा दें क्यूँकि ये 34 साल का सरमाया-ए-रियाज़ मेरा है। इसकी क़द्र होनी चाहिए।

    सिलसिला इसका रखो मेरो अ’ज़ीज़ो दाएम

    याद रखो ये मेरे बा’द वसिय्ययत मेरी

    पीर-ए-मोहतरम से जैसी अ’क़ीदत वैसी ही उस्ताद-ए-मुकर्रम से थी। आसार-ए-काको की नज़र-ए-सानी के लिए फ़रमाते हैं ”इब्तिदा में ये दिली-ख़्वाहिश थी कि उस्तादी हज़रत शाह मोहम्मद अकबर रहमतुल्लाहि अ’लैहि की नज़र से गुज़र कर ज़ेवर-ए-इस्लाह से मुज़य्यन हो जाती ।हज़रत उस्तादी का क़याम उन दिनों ज़्यादा-तर अकबराबाद (आगरा) में रहता। इरादा हुआ कि वहीं जाकर ये काम अंजाम-पज़ीर हो मगर क़ुदरत को मंज़ूर था।हज़रत दानापुर तशरीफ़ लाए।बिल-आख़िर 1327 हिज्री 14 रजबुल-मुरज्जब को आप अपने मालिक-ए-हक़ीक़ी से जा मिले। अल-ग़र्ज़ ये तमन्ना पूरी हो सकी और हसरत दिल की दिल ही में रही। ब-क़ौल-ए-उस्ताद:

    उस्ताद तो बहिश्त में हैं और हम हैं यहाँ

    इस्लाह कौन दे ये ज़मीं आसमाँ पर नहीं

    दोस्तों ने मश्वरा दिया कि किसी और साहिब-ए-क़लम को ये तकलीफ़ दी जाए कि इस पर नज़र-ए-सानी करें।मगर दिल उस पर राज़ी हुआ और इस शे’र पर अ’मल हुआ कि

    कुहन जामः-ए-ख़्वेश आरास्तन

    बेह अज़ जामः आ’रियत ख़्वास्तन

    अब ये किताब जिसमें नस्र-ओ-नज़्म दोनों हैं बिला इस्लाह नाज़िरीन की ख़िदमत में पेश करता हूँ। भूल चूक ख़ास्सा-ए-इन्सानी है। ब-क़ौल-ए-उस्ताद अ’लैहिर्रहमा:

    आदमी हूँ मेरी अस्लिय्यत है अकबर भूल चूक

    है ख़ता मेरे लिए मैं हूँ ख़ता के वास्ते

    वालिद की वफ़ात 5 ज़ीका’दा 1293 हिज्री) से छः माह बा’द 14 साल की उ’म्र में रिश्ता-ए-इज़दिवाज से मुंसलिक हुए। मौलवी नूरुल-हसन पटना की मंझली साहिब-ज़ादी से ब-तारीख़ 5 जमादिउल-अव्वल 1294 हिज्री शादी अंजाम पाई। लड़के (दो पिसर)और लड़कियाँ (सेह पिसर) हुईं। मगर सब के सब यके बा’द दीगरे इस दुनिया-ए-आब-ओ-गिल को छोड़ कर आ’लम-ए-जाविदानी सिधारे। अहलिया 26 ज़िल-हिज्जा 1306 हिज्री बा-आ’रिज़ा-ए-तप-ए-दिक़ (पुराना बुख़ार फेफड़ों के ख़राब होने से) काको में इंतिक़ाल किया। क़ब्र डैनी बाग़ में है। चंद रोज़ बा’द अहबाब की तवज्जोह से मख़दूम जलाल बिन मख़दूम अ’ब्दुल अ’ज़ीज़ बिन इमाम मोहम्मद ताज फ़क़ीह की औलाद-ए-ज़ुकूर से शाह मोहम्मद सादिक़ (शैख़पुरा,बिहार शरीफ़)की बड़ी साहिब-ज़ादी मुसम्मा रसूलन से 21 शव्वाल 1308 हिज्री को तक़रीब-ए-सई’द अंजाम पाई।जिनसे दो लड़कियाँ हुईं।(कम-सिन में फ़ौत हुई) और तीन लड़के सय्यद वलीउ’र्रहमान ‘वली’ काकवी, सय्यद मंज़ूरुर्हमान अख़तर काकवी और सय्यद अ’ताउर्रहमान अ’ता काकवी हुए जिनसे एक ज़माने को ता’लीमी रौशनी हासिल हुई।वाज़ेह हो कि सभों की बिस्मिल्लाह-ख़्वानी ख़ुद हज़रत शाह अकबर दानापुरी ने कराई। जिसका ज़िक्र साहिब-ए-आसार ने दिल-कश अंदाज़ में किया है। उनके फ़र्ज़न्दों के मुतअ’ल्लिक़ मशहूर-ए-ज़माना वाक़िआ’ बल्कि अ’जीब-ओ-ग़रीब वाक़िआ’ है कि तीनों बेटों की ता’लीम हासिल करने के सिलसिले में ज़मीन-दारी की आमदनी इस ख़र्च-ए-कसीर को पूरा नहीं कर सकती थी इसलिए आपने अपनी ज़मीन-दारी का हिस्सा बेच बेच कर ये ख़र्च बर्दाश्त करते।ये काको के लोगों के लिए अनोखी और अ’जीब बात थी कि कोई ज़मीन-दार बेटों की ता’लीम का ख़र्च ज़मीन-दारी का हिस्सा फ़रोख़्त कर के पूरा करे। लिहाज़ा पूछने वाले ने पूछा कि सारी ज़मीन बेच ही डालेंगे तो लड़कों को तर्का में क्या मिलेगा। जवाब दिया अगर ये लड़के ता’लीम हासिल कर सके और जाहिल रह गए तो ये ज़मीन-दारी उनकी किफ़ालत कर सकेगी और बर बिना-ए-जिहालत जो कुछ होगा उसे भी बीच डालेंगे।अगर उन लोगों ने ता’लीम पा लिया तो उनमें से हर एक ऐसी-ऐसी तीन ज़मीनें ख़रीद लेंगे। आपका ये आ’क़िलाना जवाब मज़ाफ़ात में अ’र्सा तक बा’ज़ लोगों के लिए सबक़ बना। हालात ने साबित कर दिया कि ये नज़रिया किस क़दर आ’क़िलाना-ओ-मुल्हिमाना था। वो कहते हैं कि ”अगर किसी को दिल से चाहो तो सारी काएनात उसको मिलाने की कोशिश में लग जाती है”।

    इर्तिहाल का हाल साहिब-ज़ादा सय्यद मंज़ूरुर्हमान अख़तर काकवी की तहरीर से ज़ाहिर होता है क्योंकि घरों की बात घर वाले बेहतर जानते हैं।ब-क़ौल अख़तर काकवी ”आपका विसाल काको ही में चंद अमराज़ में मुब्तला रहकर 9 जमादिअल-अव्वल शंबा 1357 हिज्री दो बजे दिन को हुआ।जुलाई का महीना था लेकिन बारिश होने के सबब सब लोग परेशान थे। विसाल के बा’द ही इत्तिफ़ाक़ से इतनी बारिश हुई कि अल्लाह दे और बंदा ले। तज्हीज़-ओ-तक्फ़ीन के मुतअ’ल्लिक़ सब लोग बहुत मुतरद्दिद थे लेकिन ख़ुदा की शान देखिए कि घंटे दो घंटे के बा’द बारिश बिल्कुल थम गई। फ़ज़ा साफ़ हो गई। आसमान ख़ुश-गवार हो गया इसलिए बहुत इत्मीनान से सब काम ब- इत्मीनान तमाम अंजाम पा गया। तवक़्क़ो’ के ख़िलाफ़ जनाज़े में मजमा’ कसीर था। मैंने ही नमाज़-ए-जनाज़ा पढ़ाई।डैनी बाग़ ख़ानदानी क़ब्रिस्तान में जसद-ए-ख़ाकी को सुपुर्द-ए-ख़ाक किया गया। इन्ना लिल्लाहि व-इन्ना एलैहि राजिऊ’न।तक़रीबन नौ बजे शब में सब लोग क़ब्रिस्तान से वापस आए”।और आख़िर में हमें रुख़्सत दीजिए और हमारी ग़लतियों की इस्लाह कीजिए कि नुक्ता-चीनी। ब-क़ौल-ए-हम्द काकवी:

    हम्द बे-चारे से जो हो सका उसने किया

    नुक्ता-चीनी से तो कोई नहीं अब तक है बचा

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    Rekhta Gujarati Utsav I Vadodara - 5th Jan 25 I Mumbai - 11th Jan 25 I Bhavnagar - 19th Jan 25

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