ज़िक्र-ए-ख़ैर : हज़रत शाह मोहसिन दानापुरी
बिहार की सर-ज़मीन से न जाने कितने ला’ल-ओ-गुहर पैदा हुए और ज़माने में अपने शानदार कारनामे से इन्क़िलाब पैदा किया।उनमें शो’रा,उ’लमा,सूफ़िया और सियासी रहनुमा सब शामिल हैं।जब ज़रूरत पड़ी तो क़ौम की बुलंदी की ख़ातिर सियासत में उतरे।जब मज़हब पर उंगलियाँ उठने लगीं तो ब-हैसीयत आ’लिम-ए-दीन उसका जवाब दिया। जब क़लम की ज़रूरत महसूस हुई तो ब-तौर सहाफ़ी-ओ-शाइ’र लिख-लिख कर ज़माने में इन्क़िलाब पैदा किया और अपनी शाइ’री से लोगों को राहत-ओ-सुकून भी मयस्सर कराया।जी हाँ ऐसी भी हस्तियाँ हुईं हैं। इनमें एक नाम हज़रत शाह मोहसिन दानापुरी का है ।आप मशहूर सूफ़ी शाइ’र हज़रत शाह अकबर दानापुरी (1844 -1909) के बेटे और ख़ानक़ाह सज्जादिया अबुल-उ’लाइया दानापुर, पटना के सज्जादा-नशीन थे।
हज़रत शाह मोहसिन का ख़ानदान सूबा-ए-बिहार में अपनी अ’ज़्मत-ओ-बुज़ुर्गी की वजह से रौशन है।ये ख़ानदान सूबा-ए-बिहार में आफ़ताब-ए-नीम-रोज़ की तरह से रौशन है। कुछ बादशाह-ए-तैमूरिया को इस ख़ानदान से निस्बत-ए-ख़ादमियत थी। सर-ज़मीन-ए-बिहार में इस्लाम की रौशनी हज़रत शाह मोहसिन के जद्द-ए-आ’ला(सब से बड़े दादा) हज़रत इमाम मोहम्मद ताज ए फ़क़ीह से फैली। न जाने कितने ला’ल-ओ-गुहर इस ख़ानदान ने पैदा किए और बिहार जैसी सर-ज़मीन को अल्लाह-वालों का मस्कन और अमन-ओ-महब्बत का पैकर बनाया।
आपके पिता का नासब फ़ातिह-ए-मनेर हज़रत इमाम मोहम्मद ताज फ़क़ीह और हज़रत मख़दूम लतीफ़ुद्दीन दानिश-मंद (मुरीद-ओ-ख़लीफ़ा हज़रत शर्फ़ुद्दीन बू-अ’ली क़लंदर)से जा मिलता है।
तर्तीब ये है-
मोहम्मद मोहसिन इब्न मोहम्मद अकबर इब्न मोहम्मद सज्जाद इब्न मोहम्मद तुराबुल-हक़ इब्न मोहम्मद तय्यिबुल्लाह नक़ाब-पोश इब्न मोहम्मद अमीनुल्लाह इब्न मोहम्मद मुनव्वरुल्लाह इब्न मोहम्मद इ’नायतुल्लाह इब्न ताजुद्दीन मोहम्मद इब्न मोहम्मद अख़ुन्द शैख़ इब्न अहमद चिश्ती इब्न मोहम्मद अ’ब्दुल-वहाब इब्न मोहम्मद अ’ब्दुल-ग़नी इब्न मोहम्मद अ’ब्दुल-मलिक इब्न मोहम्मद ताजुद्दीन इब्न मोहम्मद अ’ताउल्लाह इब्न शैख़ सुलैमान लंगर ज़मीन काकवी इब्न मख़दूम अ’ब्दुल अ’ज़ीज़ इब्न हज़रत इमाम मोहम्मद ताज फ़क़ीह हाश्मी (कंज़ुल-अन्साब, पेज 287)
आपकि वालीदा (माता) का नसब हज़रत उ’मर ख़ुरासानी से जा मिलता है और वो इस तरह है:-
मोहम्मद मोहसिन इब्न-ए-अहमदी बेगम बिन्त मीर विलायत हुसैन इब्न मीर सख़ावत अली इब्न बहादुर अ’ली इब्न नूर अ’ली मुनव्वर अ’ली इब्न मुजीबुल्लाह इब्न सदरुद्दीन इब्न ममरीज़ इब्न मोहम्मद फ़ाज़िल इब्न नसीबू इब्न उ’मर ख़ुरासानी (पंजोड़ा)इब्न अ’ली हम्ज़ा।
(कंज़ुल-अन्साब-ओ-दूसरा सफ़ीना से)
आपका नाम मोहम्मद मोहसिन, तारीख़ी नाम ख़ुर्शीद हसनैन,उ’र्फ़ी नाम बू-अली और तख़ल्लुस मोहसिन है।आपकी पैदाइश 17 जमादीउल अव्वल यक-शंबा 1298 हिज्री मुवाफ़िक़ 17 अप्रैल 1881 को गोरकपुर (पटना) अपनी नानीहाल में हुई। हज़रत शाह अकबर दानापुरी फ़रमाते हैं:
“नूर-ए-चश्म तुम्हारा नाम तुम्हारे जद्द-ए-अमजद हज़रत मख़दूम (सज्जादा) ने एक घंटा मुराक़बा के बाद मोहम्मद मोहसिन रखा है’’
(ख़ातिम-ए-नूरी, सफ़हा 32)
आपकी पैदाइश पर हज़रत शाह यहया अज़ीमाबादी (1302 हिज्री)ने क़िता’-ए-तारीख़ कही है-
गुल-ए-रा’ना ज़े-फ़्ज़ल-ए-हक़ ब-शगुफ़्त
दर गुलिस्तान-ए-अकबर-ए-ज़ीशान
गुल-ए-बा’ज़े ब-बाग़-ए-अकबर “गुफ़्त”
बुलबुल-ए-तब्बाअ’ साल-ए-मीलादश
(कंज़ुत्तवारीख़) 1298 हिज्री
आपकी तालीम की शुरुआत अपने पिता ही से हुई।मज़ीद तालीम करने के लिए आप इलाहाबाद गए।वहां मदरसा इहयाउल-उलूम में ज़ेर-ए-तालीम रहे और वहाँ से फरिघ हुए।प्रोफ़ेसर अहमदुल्लाह नदवी लिखते हैं :
“तालीम-ए-ज़ाहिरी आपकी मदरसा से दारुल-उलूम इलाहाबाद में हुई थी।वहीं के फ़ारिग़ुत्तहसील थे। चुनाँचे ख़ानक़ाही माहौल,इल्म-ओ-अदब की फ़ज़ा और बुज़ुर्गों की सोहबत ने आपके इल्म को और चमका दिया और आप बड़े आलिम-ए-दीन कहे जाने लगे ” (तज़्किरा मुस्लिम शोअ’रा-ए-बिहार, जिल्द 4,पेज 129)
हज़रत शाह मोहसिन दानापुरी अपने पिता अकबर दानापुरी के हाथ पर सिलसिला-ए-नक़्शबंदिया अबुउलाइया में बैअत हुए और इजाज़त-ओ-ख़िलाफ़त से भी नवाज़े गए।फिर 16 शाबानुल-मुअज़्ज़म 1327 हिज्री ब-रोज़-ए-जुमअ’ हज़रत शाह अकबर दानापुरी के फ़ातिहा-ए-चेहल्लुम के मौक़ा’ पर “ख़ानक़ाह-ए-सज्जादिया अबुल-उलाइया की मसनद-ए-सज्जादगी पर रौनक़-अफ़रोज़ हुए। उस दौर के बुज़ुर्गों का कहना है कि ऐसा शानदार मज्मा’ न देखा न सुना।
ख़ुम-ओ-ख़ुम-ख़ानः बा-मेहर-ओ-निशाँ अस्त
हनूज़ आँ अब्र-ए-रहमत दुर्र-फ़शां अस्त
(तज़्किरतुल-अबरार,पेज 68)
मौलाना अब्दुन्नईम जाफ़री लिखते हैं :
“हज़रत फ़र्द औलिया (शाह अकबर) के विसाल के बा’द 16؍ शा’बानुल-मुअज़्ज़म यौमुल-जुमअ’ 1327 हिज्री को आपकी रस्म-ए-सज्जादगी ख़ानक़ाह-ए-अबुउ’लाइया, दानापुर में अंजाम-पज़ीर हुई।आप तरीक़त-ओ-तसव्वुफ़ के वो वो जुमले बयान करते थे कि सुनने वाले दंग रह जाते थे”
(बज़्म-ए-अबुल-उला, जिल्द 2, पेज 248)
सय्यिद शाह हुसैनुद्दीन अहमद मुनइमी का बयान है :
“दानापुर में सादात का जो ख़ानदान आबाद था वो मोहल्ला शाह साहिबां में आज भी मौजूद है और बि-हम्दिल्लाहि तआला दौर-ए-मुतअख़्ख़िरा और दौर-ए-हाज़िर में भी ज़ी-इ’ल्म-ओ-मुमताज़ हस्तियों से ख़ाली नहीं हुआ। हज़रत सय्यिद शाह मोहम्मद अकबर दानापुरी दौर-ए-मुतअख़्ख़िरा में और सय्यिद शाह मोहम्मद मोहसिन जैसी ज़ी-इल्म-ओ-मुऊज़्ज़ज़-ओ-मुक़्तदिर हस्ती दौर-ए-हाज़िर में भी मौजूद है।”
शाह मोहसिन दानापुरी बहुत ख़लीक़ और मुंकसिरुल-मिज़ाज बुज़ुर्ग थे। तबीअ’त में ऊलुल- अज़्मी थी। ख़ुश-पोशाक थे। फ़सीहुल-बयान और ख़ुश-इलहान थे।वज़अ’ के पाबंद थे। अँगरखा,उचकन और अरबी तराश का पाएजामा पहना करते थे ।तरीक़त और तसव्वुफ़ के रुमूज़ ख़ूब बयान फ़रमाया करते थे। कभी-कभी वाज़-ओ-तक़रीर भी फ़रमाते थे।इल्मी सलाहियात के साथ-साथ हज़रत मोहसिन सियासी शुऊर भी रखते थे। वो मेहमान-नवाज़ और फ़राख़-दिल थे। लोगों की मदद और दिल-जोई करना उनका पसंदीदा अमल था।सब्र-ओ-आज़माइश के पैकर थे। कल की फ़िक्र कभी न करते। अपने ज़माने के मशाहीर में थे। एक नाम-वर आलिम ,एक मशहूर शैख़-ए-तरीक़त और क़ौम के लिए हर वक़्त तैयार खड़े रहते। तहरीक-ए-ख़िलाफ़त के अलम-बरदार,अंजुमन-ए-इख़्वानुस्सफ़ा और अंजुमन-ए-हिफ़ाज़तुल-मुस्लिमीन के बानियों में से थे। एक वजीह-ओ-शकील, साहिब-ए-नुफ़ुज़-ओ-असर।ज़ाती ख़ूबियों को शुमार में लाएं तो बड़े मेहमान नवाज़ और बड़े फ़य्याज़।बड़े ज़ी-मुरव्वत और बड़े साहिब-ए-अख़्लाक़। जूद-ओ-करम के पुत्ले ।हर शख़्स के काम आने वाले। अल्लाह का दिया हुआ बहुत कुछ था। सुख़ने और क़दमे के अ’लावा दिरमे भी सबकी मदद के लिए तैयार। अ’क़ाइद वही जो आम तौर पर मशाइख़ के होते हैं।दरगाहों और मज़ारात पर पाबंदी से हाज़िरी के पाबंद।ख़ुद अपने यहाँ ख़ानक़ाह में उर्स की महफ़िल बड़े एहतिमाम-ओ-एहतिशाम के साथ करने वाले एक अज़ीम इंसान थे।
आप फ़ितरी शाइर थे।अपने वालिद से इस्लाह-ए-सुख़न लेते रहे। आपकी शाइरी का मुतालआ’ करने पर अंदाज़ा होता है कि आपकी शाइरी में जहाँ मुतअद्दिद शाइरों का रंग-ओ-बू पाया जाता है वहीं ख़ानदानी सूफ़ियाना शाइरी का असर भी नुमायाँ है। वही आरिफ़ाना तख़य्युलात, वही सुफ़ियाना अंदाज़-ए-बयाँ और वही तग़ज़्ज़ुल के हसीन तसव्वुरात जिनकी भीनी-भीनी छाओं में शाइरी का सफ़र जारी रहता है। ब-क़ौल शाह मोहसिन दानापुरी:
अपनी सूरत में तिरे हुस्न का जल्वा देखा
आईना सामने रख कर ये तमाशा देखा
आप बड़े पुर-गो शाइ’र थे। हर सिन्फ़-ए-शाइ’री पर तब्अ’-आज़माई की है और अक्सर जगहों पर उन्होंने बुलंदियों को छू भी लिया है।
1924 ई’स्वी में ख़िलाफ़त मूवमेंट में आपने भरपूर साथ दिया था और जगह-जगह तक़रीरें कीं और अ’वामुन्नास को बेदार किया ।इसी सिलसिले में अंजुमन-ए-हिफ़ाज़तुल-मुस्लिमीन (पटना) की तरफ़ से एक शानदार तीन रोज़ा इजलास का इंइक़ाद हुआ था जिसमें सर अली इमाम बैरिस्टर(पटना), मौलाना शौकत अली(रामपुर),मौलाना ज़फ़र अली ख़ाँ (पंजाब),डॉक्टर मज़हरुल-हक़ वग़ैरा ख़ुसूसी तौर पर शरीक थे।उस में पहले रोज़ के जलसे की सदारत शाह मोहसिन दानापुरी ने फ़रमाई थी।
शाह मोहसिन ने 1926 ईस्वी में “’इख़्वानस्सफ़ा” की बुनियाद रखी जिसके तहत मुशाइ’रे और मुल्क-ओ-समाज के काम भी हुआ करते थे।इसी तरह 1934 ई’स्वी के ज़लज़ले से शहीद हुई मसाजिद की फ़िक्र में और उसकी मरम्मत वग़ैरा के ख़याल से एक कमेटी तैयार की गई जिसका नाम ‘’The Mosque Committee Centre’’ रखा गया था जिसके सर-परस्त सर सुल्तान अहमद बैरिस्टर(सुल्तान पैलेस) थे। और नाएब-सद्र शाह मोहसिन दानापुरी हुए जिसके ज़रिआ’ मूंगेर ,मुज़फ़्फ़रपुर, दरभंगा और पटना वग़ैरा की मसाजिद की मरम्मत हुआ करती थी।
शाह मोहसिन अपने ख़ानदान की क़ाबिल-ए-फ़ख़्र याद-गार और जांनशीन थे। ये ख़ानदान इ’ल्म-ओ-फ़ज़्ल और दरवेशी की हैसियत से हर दौर में मुअ’ज़्ज़ज़-ओ-मोहतरम रहा है। अ’लावा अ’वामुन्नास के शाही ख़ानदानों में भी वो मुवक़्क़र था।इतमीनान-ओ-आज़ादी के साथ उ’लूम-ओ-फ़ुनून,मुजाहदा और मुशाहदा में मसरूफ़ थे।
शाह मोहसिन का हल्क़ा-ए-अहबाब बहुत वसी’अ था।जो भी एक-बार मिलता उनके आ’ला किर्दार, ख़ुदा-दाद ज़ेहानत और बुलंद-अख़्लाक़ से मुतअस्सिर हुए ब-ग़ैर न रहता।ज़ाहिदान-ए-ख़ुश्क की महफ़िल हो या रिन्दान-ए-बला-नोश का झुरमुट,ख़ानक़ाहों की महफ़िल हो या मुशाइ’रे की जगह, किसी शाइ’र या अदीब का मकान हो या अंजुमन-ए-इख़्वानुस्सफ़ा या फिर अंजुमन-ए-हिफ़ाज़तुल-मुस्लिमीन जहाँ पहुँच जाते फूल बरसाकर महफ़िल को ख़ुश-गवार बना देते।
शाह मोहसिन दानापुरी की शे’री ज़िंदगी का अगर मुतालआ’ किया जाए तो कुल्लियात-ए-मोहसिन इसका वाज़िह सुबूत है।आपने हर तरह की शाइ’री की है।बा’ज़ ग़ज़लें आपकी निहायत ही उ’म्दा पैमाने की हैं। शाह मोहसिन उर्दू और फ़ारसी दोनों ज़बानों में शे’र कहते थे। वो मुशाइ’रे में भी शिरकत करते थे।दरगाह हज़रत शाह-ए-अर्ज़ां(सुल्तानगंज,पटना),हिलसा,आरा, पटना,बिहार शरीफ़, किशनगंज, तिलहाड़ा,आगरा ,इलाहाबाद वग़ैरा में आपने कई मुशाइ’रे पढ़े हैं। हज़रत मोहसिन अपनी ख़ानक़ाह में भी सालाना मुशाइ’रा कराया करते थे जिसमें नूह नारवी वग़ैरा भी तशरीफ़ लाते थे।
उनके मुआ’सिरीन शो’रा में नूह नारवी,नसीम हिल्सवी,निसार अकबराबादी, डॉक्टर मुबारक अ’ज़ीमाबादी,सीमाब अकबराबादी, हामिद अ’ज़ीमाबादी,अख़्तर दानापुरी, रफीक़ दानापुरी, नय्यर दानापुरी, यकता अ’ज़ीमाबादी, मुबारक अज़ीमाबादी,नूर अज़ीमाबादी,हम्द काकवी,कमाल अज़ीमाबादी,शैदा अज़ीमाबादी,यास बिहारी, हैराँ अज़ीमाबादी,नूर नूही वग़ैरा शामिल थे।
शाह मोहसिन ने उर्दू नस्र-निगारी पर कई तरीक़ों से असर डाला है।उन्होंने मज़ामीन-ओ-मक़ालात और ख़ुतूत भी लिखे हैं।उनकी नस्री तस्नीफ़ में एक रिसाला “बुरहानुल-आ’शिक़ीन” के नाम से 1350 हमें तब्अ’ हुआ जिस में ज़बान को आम-फ़हम रखा गया है और हर क़िस्म के मज़ामीन अदा करने की सलाहियत भी पैदा की गई है।आपका एक मुख़्तसर मज़मून “अर्रूह मर्रूह” के उ’न्वान से माहनामा “मआरिफ़” (फुलवारी शरीफ़)में शाए’ हो चुका है।
हज़रत मोहसिन का एक मुसद्दस “फ़ुग़ान-ए-दरवेश’’ के नाम से 1939 ईस्वी में इलाहाबाद से शाए’ हो चुका है।
मोहसिन दानापुरी अपने बुज़ुर्ग शो’रा ख़्वाजा आतिश लखनवी, मीर तक़ी-मीर,इमाम बख़्श नासिख़, साइब, ख़्वाजा फ़ैज़ी शाह अकबर दानापुरी के अश्आ’र पर तज़मीन लगाया है।उन्हें इक़बाल से मोहब्बत थी।उनके कलाम को ख़ूब पसंद करते थे।उनकी ग़ज़ल पुर-आब पर आपने मुख़म्मस कहा है।
शाह मोहसिन दानापुरी ब-हैसीयत-ए-आ’लिम-ए-दीन इ’ल्मी हल्क़ों में ख़ूब सराहे गए हैं।उन्होंने ए’ज़ाज़ी तौर पर मदरसा हनफ़िया (पटना सीटी) और मदरसा नो’मानिया हनफ़िया(शाह टोली,दानापुर)के मुदर्रिस भी रह चुके।हैं उन जगहों पर आपने तफ़्सीर-ओ-हदीस का दर्स दिया है। आ’ला हज़रत रज़ा बरेलवी ने अपने अ’रबी क़सीदा “आमालुल-अबरार–ओ—आलामुल-अशरार” में फ़रमाते हैं :
“व-मोहसिनुना लिअकबरना वलीद” (और हमारे मोहसिन जो अकबर के साहिबज़ादे हैं)”
जनाब मोहसिन की फ़िहरिस्त में बड़े बड़े उ’लमा-ओ-सियासी हज़रात शामिल हैं ।उनमें सर सय्यिद अ’ली इमाम बैरिस्टर (पटना), सर अ’ब्दुल अ’ज़ीज़ बैरिस्टर(पटना),सर सुल्तान अहमद बैरिस्टर(पटना),मौलाना ज़फ़र अ’ली ख़ाँ(पंजाब), मौलाना शौकत अ’ली(रामपुर),मौलाना शाह मुहीउद्दीन क़ादरी(फुलवारी शरीफ़ ), मौलाना अ’ब्दुल-बारी फ़िरंगी महल्ली(लखनऊ),डॉक्टर मोहम्मद इक़बाल लाहौरी(लाहौर),मौलाना शाह हुसैन चिश्ती सुलैमानी (फुलवारी शरीफ़),सर सय्यिद हसन इमाम(पटना) नक़्शबंदी (इलाहाबाद) वग़ैरा सर-ए-फ़िहरिस्त नज़र आते हैं।
शाह मोहसिन का हल्क़ा-ए-तलामिज़ा और हल्क़ा-ए-मुरीद हिन्दुस्तान भर में फैला हुआ था जिनमें आगरा,कराची, इलाहाबाद,पटना, गया , जहानाबाद, नालंदा, दिल्ली, ढाका, चटगाम, डाम-डम, रंगपुर, लाहौर, पंजाब, किशनगंज,पूर्णिया,अररिया ख़ुसूसीयत के साथ क़ाबिल-ए-ज़िक्र हैं ।
डॉक्टर कलीम आ’जिज़ रक़म-तराज़ हैं :
“चंद साल बा’द मेरी बहन की शादी हुई तो हज़रत शाह मोहम्मद मोहसिन साहिब अबुल-उ’लाई सज्जादा नशीन ख़ानक़ाह-ए-सज्जादिया अबुल-उ’लाइया,दानापुर,पटना मेरे यहाँ तिलहाड़ा तशरीफ़ लाए।हिल्सा से सय्यिद शाह हकीम,ज़हीर साहिब,सय्यिद शाह हकीम,बशीर साहिब दोनों भाई भी तशरीफ़ लाए।ये दोनों हज़रत शाह मोहसिन साहिब के मामूं-ज़ाद भाई होते थे। शादी के बा’द दूसरे तीसरे दिन उसी शामियाने में एक मज्लिस-ए-मुशाइ’रा मुंअ’क़िद हुई जिसकी रूदाद “जहाँ ख़ुशबू ही ख़ुशबू थी” में ब-तफ़्सील मर्क़ूम है।यहाँ थोड़ा सा दुहराता हूँ कि उस मज्लिस में हज़रत शाह मोहसिन अबुल-उ’लाई अ’लैहिर्रहमा के साथ-साथ हकीम ज़हीर नाना और हकीम बशीर नाना ने भी अश्आ’र पढ़े और सुनने वालों में तिलहाड़ा बस्ती के तमाम शोरफ़ा और मुहज़्ज़ब हिंदू सामिई’न भी थे। कायस्थ और बरहमन मधु-प्रशाद अग्रवाल, ज़मीन-दार-ए-तिलहाड़ा और ढनमन सहाय और उनके लड़के गोपाल प्रसाद और मंदिर प्रसाद भी तिलहाड़ा के शो’रा में थे। मौलाना अ’ब्दुस्समद तेशावर अ’ब्दुल हफ़ीज़ हफ़ीज़ी भी थे ।जब हज़रत सय्यद शाह मोहसिन दानापुरी की बारी आई तो हज़रत ने चंद रुबाइ’याँ इर्शाद फ़रमाई जिसने तिलहाड़ा के देहाती माहौल में आग लगा दी।मुझे सिर्फ़ ये याद है कि हज़रत शाह साहिब ने एक रुबाई’ का मिस्रा’ पढ़ा:
‘मेरी आँखों में आँखें डाल साक़ी’
तो आ’ज़म नाना के सबसे छोटे भाई सय्यिद अहमद जो देवबंद से फ़ारिग़ हो कर आए थे रोते हुए खड़े हुए और मुंशी ढनमन सहाय कमाशता तमतमाए हुए सुर्ख़ चेहरे के साथ दोनों हाथ आगे फैलाकर कुर्सी से ये कहते हुए खड़े हो गए शाह साहिब या शाह साहिब !!और कुछ आगे न कह सके और मज्मा’ दम-ब-ख़ुद हो गया था।ख़ुशबू ही ख़ुशबू थी।
शाह मोहसिन दानापुरी के तलामज़ा की ता’दाद भी अच्छी ख़ासी हुई मगर उन्होंने शागिर्द बनाने की तरफ़ कभी ख़याल ही नहीं किया। जो आता शौक़ से इस्लाह कर दिया करते।चंद मख़्सूस शागिर्द उनके ये हैं।
वफ़ा अकबराबादी, ग़नी अकबराबादी, नज़र इलाहाबादी, आसी गयावी, मुज़फ़्फ़र काकवी,मंज़र काकवी,कैफ़ी काकवी,ज़फ़र दानापुरी,हलीम इलाहाबादी,बद्र दानापुरी, रूह काकवी।
उर्दू के अहम तज़्किरा-निगारों में डॉक्टर अ’ज़ीमुद्दीन अहमद, प्रोफ़ेसर अ’ताउर्रहमान अ’ता काकवी, प्रोफ़ेसर सय्यिद हसन अ’स्करी, प्रोफ़ेसर मुख़्तारुद्दीन अहमद आरज़ू, डॉक्टर कलीम अहमद आ’जिज़, डॉक्टर शफ़ीक़ अकबराबादी और मशहूर शाइ’र सबा अकबराबादी आपसे बेहद क़रीब थे।आप उनकी ख़ूब मदद किया करते और अपने मुफ़ीद मश्वरों से भी नवाज़ते थे।
डॉक्टर तय्यब अबदाली का बयान है :
“आप फ़ितरी शाइ’र थे।क़ुदरत ने आपको ज़ौक़-ए-सलीम अ’ता फ़रमाया था।आप अपने वालिद हज़रत शाह अकबर दानापुरी से इस्लाह-ए-सुख़न लेते रहे।आप चूँकि सिलसिला-ए-अबुल-उ’लाइया के साहिब-ए-सज्जादा थे, जिसकी ता’लीम में इ’शक़-ए-हक़ीक़ी की लपट और दर्द-ओ-सोज़ की आँच है, इसलिए हज़रत-ए-मोहसिन की शाइ’री में भी हक़ीक़त-ओ-मारिफ़त के वो तमाम कवाइफ़ हैं जिससे सालिक दो-चार होता है । वह्दतुल-वजूद और वह्दतुश्शुहूद के मसलक को शाइ’र ने अपने मख़्सूस अंदाज़ में पेश किया है” (बिहार में उर्दू की सूफ़ियाना शाइ’री, सफ़हा 211)
मरने की थी सबील जिये जा रहा हूँ मैं
साक़ी पिला रहा है पिए जा रहा हूँ मैं
साक़ी को दिल में याद किए जा रहा हूँ मैं
का’बा में भी शराब पिए जा रहा हूँ मैं
(रूहानी गुलदस्ता, सफ़हा 50)
तसव्वुफ़ और रूहानियत आपको विरासत में मिली थी।आपके शेर-ओ-सुख़न में तसव्वुफ़ की आमेज़िश और रुहानी जल्वा-गरी नुमायाँ थी। फ़रमाते हैं:
अ’ली का नूर जिसमें जल्वा-गर है
हमारी ख़ाक है वो ख़ाक मोहसिन
फ़ज़्ल उसका है कि इस पर भी उसे याद रहूँ
मैं तो मोहसिन इसी क़ाबिल हूँ कि भूले वो मुझे
(कुल्लियात-ए-मोहसिन)
फ़न्न-ए-शे’र-ओ-अदब में हुस्न-ए-मतला’,मुहावरा और तकरार-ए-लफ़्ज़ी की बड़ी अहमियत होती है।आपका एक शे’र पेश है।
कहते हैं सियाना है उड़ जाएगा पर बाँधो
आ’शिक़ के कबूतर को क़ासिद वो समझते हैं
1919 ई’स्वी में दरगाह हज़रत शाह-ए-अर्ज़ां के सेह रोज़ा कुल हिंद तारीख़ी मुशाइ’रा में पढ़ी गई हज़रत-ए-मोहसिन की ग़ज़ल का मतला’ मुलाहज़ा हो:
एक नाशाद गया दूसरा नाशाद आया
क़ैस रुख़्सत हुआ दुनिया से तो फ़रहाद आया
आज भी हज़रत मोहसिन की ग़ज़ल जब ख़ानक़ाहों में क़व्वाल हज़रात गाते हैं तो मज्लिस का अ’जब कैफ़-ओ-हाल हो जाता है। कोई हाथ मारता है तो कोई पैर पटकता है यहाँ तक कि पूरी महफ़िल कैफ़-ओ-मस्ती से लबरेज़ हो जाती है।
महफिल-ए-सोज़-ओ-साज़ है चारों तरफ़ हुजूम है
उ’र्स के उनकी धूम है शोर ये बिल-उ’मूम है
(मोहसिन)
शाह मोहसिन ने क़ितआ’त, रुबाइ’यात, ग़ज़लें,हम्द, ना’त, मंक़बत,क़सीदा,हाजात, मुसद्दस,नज़्म,तारीख़,सेहरा,मुख़म्मस और तज़मीन वग़ैरा पर तब्अ’-आज़माई की है।जिसमें हद दर्जा वो कामयाब नज़र आते हैं ।उनकी शाइ’री में एक कशिश है जो पढ़ने वाले को अपनी तरफ़ खींचती है। माहनामा “बज़्म-ए-सुख़न” में भी शाह मोहसिन के चंद कलाम शाए’ हुए हैं। हज़रत-ए-मोहसिन को अल्लाह ने कई ख़ूबियों से नवाज़ा था वो जिस चीज़ की तरफ़ रग़बत करते उन्हें वो हासिल हो जाती ।कमाल इ’ल्म-ओ-अ’मल और बेहतरीन अख़्लाक़-ओ-इख़लास के मालिक थे। अपना ज़्यादा-तर वक़्त अल्लाह की इ’बादत में सर्फ़ करते।अ’स्र में जब जा-नमाज़ पर बैठते तो इ’शा पढ़ कर उठते। ख़ुश-गुफ़्तार के साथ कम-गुफ़्तार भी थे। मगर गुफ़्तुगू का निचोड़ कहते।अक्सर मौक़े’ की इत्तिलाअ’ पहले ही दे दिया करते।
कहा जाता है कि आगरा में ताज-महल और उसके अतराफ़ में कई अजिन्ना आपके हल्क़ा में शामिल थे। हर जुमए’रात आप आस्ताना-ए- हज़रत अबुल-उ’ला पर लंगर तक़्सीम करवाते ।
डॉक्टर इफ़्तिख़ार अहमद ख़ाँ (आगरा) अपने मज़मून में लिखते हैं :
“मेरे वालिद मरहूम हज़रत शाह अकबर दानापुरी और उनके साहिब-ज़ादे हज़रत शाह मोहम्मद मोहसिन दानापुरी की अ’ज़्मतों और फ़ज़ीलतों के तअ’ल्लुक़ से एक से एक रुहानी वाक़िआ’त बयान करते थे। हज़रत शाह मोहसिन सादिक़ुल-क़ौल और रास्त-गो इन्सान थे। कभी-कभी कुछ ग़ैबी-ओ-नुजूमी बात कह दिया करते थे जो सामने आने पर सही साबित होती थी।कभी बात करते वक़्त ये कह दिया करते कि फ़ुलां शख़्स आने वाला है । कुछ नाशता वग़ैरा का इंतिज़ाम कर लो। हम लोग हैरान होते कि कुछ देर बा’द वो शख़्स जिनकी ख़बर दी चला आ रहा है। कुछ वाक़िआ’त ऐसे भी ज़ाहिर होते रहते जिन्हें करामात से अलग नहीं किया जा सकता था। हज़रत शाह मोहसिन अबुल-उ’लाई साहिब का ये अ’मल था कि सुब्ह,शाम या रात के किसी भी वक़्त अचानक सय्यिदिना अमीर अबुल-उ’ला अ’लैहिर्रहमा के आस्ताने पर हाज़िरी के लिए रवाना हो जाते। आपके हम-राह काफ़ी अफ़राद हो जाया करते। अक्सर आस्ताने पर खाना पकवाते और फ़ातिहा के बा’द तक़्सीम करते।मस्जिद के नीचे कुँआं पर क़दीमी ताक़ है उस ताक़ पर भी खाना रखवाते और हाजत-मंद इस्ति’माल कर लेते। उस ज़माने में आस्ताना-ए-सय्यिदिना अबुल-उ’ला में कुँवें पर खाना भेजवाना एक मुअ’म्मा बन चुका था मगर हिम्मत किसी में न थी कि मियाँ हुज़ूर से पूछे”
(तफ़्सील के लिए अन्वार-ए-अक्बरी का मुतालआ’ करें)
फ़क़्र-ओ-दरवेशी आपकी घुट्टी में पड़ी थी क्यूँ कि हज़रत शाह मोहसिन का ख़ानदान ही दरवेशों का था। ज़ोह्द-ओ-तक़्वे के दामन में उन्होंने परवरिश पाई। रियाज़त-ओ-इ’बादत के आग़ोश में तर्बियत हुई। होश सँभाला आँखें खोल कर देखा तो घर में सबको उसी रंग-ए-दरवेशी में डूबा हुआ पाया। बेशतर औक़ात हज़रत अमीर अबुल-उ’ला और हज़रत मख़दूम के मज़ार-ए-अक़दस से फ़ैज़-ए-बातिन हासिल करते। मज़ार-ए-अक़दस पर बैठे मुराक़िब रहा करते थे और ज़िक्र-ओ-अश्ग़ाल तरीक़ा-ए-आबाई में मश्ग़ूल रह कर बतौर-ए-ख़ुद रियाज़त करते थे। हज़रत सय्यिदिना की रूह ता’लीम-ए-बातिनी की तरफ़ मुतवज्जिह थी और उसी जानिब से ब-इ’नायत-ए-इलाही शाह मोहसिन की तर्बियत भी होती रही यहाँ तक वो अब्दाल कहलाए।
सबा अकबराबादी, ग़नी अकबराबादी, वफ़ा अकबराबादी आप ही के दस्त-गिरफ़्ता और परवर्दा थे। उनका बयान है कि हमारे हज़रत अपने वक़्त के अब्दाल थे। आपकी दुआ’ में ऐसी तासीर थी कि जो कह दिया करते बि-फ़ज़्लिहि तआ’ला वो हो जाता।हमेशा अपनी हस्ती को छुपाए रखा ।आपकी रिहलत के बा’द बेशतर करामात का ज़ुहूर हुआ है जो ना-क़ाबिल-ए-फ़रामोश है।
कलीम आ’जिज़ का कहना है :
“मैं उन्हीं (शाह मोहसिन दानापुरी)बुज़ुर्गों का परवर्दा,उन्हीं के चश्म-ए-अबरू का साख़्ता,उन्हीं का तर्बियत याफ़्ता,उनकी यादों में ग़म–ज़दा, उनकी तलाश में गुम-गश्ता शाइ’री करता हूँ तो वही मेरे सामने रहते हैं।बोलता हूँ तो उन्हीं की सिखाई पढ़ाई बोलता हूँ।लिखता हूँ तो उन्हीं का कहा सुना लिखता हूँ।तो अब कौन समझे अब किस शहर किस मुल्क में हैं वो लोग या ऐसे लोग?” (अनवार-ए-अकबरी, सफ़हा 45)
शाह मोहसिन की शक्ल-ओ-सूरत की तरफ़ कलीम आ’जिज़ यूँ रक़म-तराज़ हैं :
“बहुत दराज़-क़द, तवील और जिस्म बुज़ुर्ग, शेरवानी-नुमा उचकन में मल्बूस सद्र-ए-मक़ाम पर तशरीफ़ रखते थे।गोरे ख़ूबसूरत पुर-बहार, पुर वक़ार चेहरे,सजी हुई ज़ुल्फ़ पर सफ़ेद काम-दार टोपी नूरानियत में और इज़ाफ़ा कर देती।ज़बान कम बोलती,चेहरे की गुफ़्तुगू तवील होती” (अनवार-ए-अकबरी, सफ़हा 45)
प्रोफ़ेसर अहमदुल्लाह नदवी लिखते हैं :
“राक़िम की आपसे पहली और आख़िरी मुलाक़ात थी।आपके नूरानी चेहरा और तक़द्दुस से राक़िम बे-हद मुतअस्सिर हुआ”
(तज़्किरा मुस्लिम शो’रा-ए-बिहार, जिल्द चहारुम, सफ़हा 132)
बड़े-बड़े नव्वाबीन और शाहान-ए-ज़माना हज़रत मोहसिन की आमद के मुश्ताक़ रहते थे।उनमें नवाब जीवन यार (बहादुर रुक्न अ’दालत-ए-आ’लिया), (हैदराबाद),नवाब सर-बुलंद जंग(लखनऊ),नवाब मोहम्मद इस्माईल ख़ाँ (आगरा), शैख़ अ’ब्दुर्रहमान (रईस-ए-आ’ज़म काकू),ख़ान बहादुर शाह,मोहम्मद कमाल (लोदी कटरा,पटना सीटी)वग़ैरा ख़ुसूसियत के साथ क़ाबिल-ए-ज़िक्र हैं।
हज़रत शाह मोहम्मद इद्रीस चिश्ती फ़रमाते हैं:
“हज़रत शाह अकबर साहिब दानापुरी के फ़र्ज़न्द-ए-हज़रत शाह मोहम्मद मोहसिन साहिब अबुल-उ’लाई हैं। माशा-अल्लाह ये बुज़ुर्ग भी बड़े हैं। दिन-रात याद-ए-इलाही में मशग़ूल रहा करते हैं और साहिब-ए-नेक-बख़्त-ओ-साहिब-ए-अख़्लाक़ हैं। नूर-ए-इलाही आपके चेहरे से जल्वा-गर है ।अक्सर लोग मुरीद हुआ करते हैं और फ़ैज़ से आपके मा’मूर रहे हैं।ये फ़ुक्राई ख़ानदान है। कैसे-कैसे बुज़ुर्गान दानापुर में लेटे हुए हैं।”
(गंज-ए-इ’रफ़ान, सफ़हा 159)
हज़रत ख़्वाजा बहाउद्दीन नक़्शबंद और हज़रत अमीर अबुल-उ’ला से काफ़ी इत्तिहाद-ओ-इत्तिफ़ाक़ था बल्कि अक्सर-ओ-बेशतर आप उन सूफ़िया-ए-किराम की याद में मह्व रहते ।
दूसरी जानिब ता-उ’म्र ये कहते रहे :
दिल में बसा हुआ ख़याल-ए-अबुल-उ’ला’
आँखों में फिर रहा है जमाल-ए-अबुल-उ’ला
(ख़ानक़ाह सज्जादिया अबुल-उ’लाइया का तारीख़ी पस-मंज़र, सफ़हा 33)
हज़रत मोहसिन की पहली शादी शाह नज़ीर हसन साहिब की साहिब-ज़ादी बी-बी हफ़ीज़ुन्निसा से हुई जिनसे दस औलाद हुईं।मगर उनमें सिर्फ़ एक साहिब-ज़ादे ज़फ़रुल-मुकर्रम हज़रत शाह ज़फ़र सज्जाद अबुल-उ’लाई (मुतवफ़्फ़ा 1394 हिज्री)ज़िंदा बचे जो आपके बा’द ख़ानक़ाह-ए-सज्जादिया अबुल-उ’लाइया, दानापुर के सज्जादा-नशीन हुए। दूसरी शादी हज़रत मोहसिन की ख़ानक़ाह-ए-मनेर शरीफ़ के सज्जादा-नशीन हज़रत शाह सई’दद्दीन अहमद उ’र्फ़ शाह फ़ज़्ल फ़िर्दौसी (मुतवफ़्फ़ा 1341 हिज्री) की बड़ी साहिब-ज़ादी बी-बी मरयम से हुई जिनसे तीन लड़के ज़ैनुल-मसाजिदीन,ऐ’नुल-मसाजिदीन, अमीनुल-मसाजिदीन और एक साहिब-ज़ादी शम्सुन्नहार (मंसूब अख़्तर आ’लम इब्न-ए-शाह अबु सई’द मयकश हिल्सवी )हुईं।तीनों लड़के कम-उ’म्री में दाग़ दे गए। आपकी तीसरी शादी अ’ब्दुस्समद (नियावां ,नालंदा)की साहिब-ज़ादी बी-बी सालिहा से हुई जो ला-वलद रहीं।
हज़रत मोहसिन की ज़ात से बे-शुमार करामतों का भी जुहूर हुआ।वो सिलसिला-ए-अबुल-उ’लाइया के साहिब-ए-सज्जादा थे। 37 बरस तक अपनी हयात में हुस्नो खूबी के साथ इस काम को अंजाम दिया। आपके मुरीदों का इलाका काफ़ी बड़े पैमाने पर फैला हुआ था।मुल्क के मुख़्तलिफ़ इलाक़ों में आपके नाम-लेवा मौजूद थे। चंद लोगों को आपने इजाज़त व ख़िलाफ़त से भी मुशर्रफ़ फ़रमाया है। काई सिलसिला-ए-अबुल-उ’लाइया की ख़ानक़ाहें हिन्दुस्तान के अलावा पाकिस्तान और बंगला देश में आपके से क़ाएम हुईं। ख़ुलफ़ा की जयादा तादाद के साथ शागिर्दों की तादाद भी अच्छी थी ।
आपका इंतिक़ाल 24 मुहर्रम बाद नमाज़-ए-मग़रिब एतवार 1364 हिज्री मुवाफ़िक़ 9 जनवरी 1945 ई’स्वी को हुआ। आख़िरी आराम-गाह आस्ताना मख़दूम साजद पाक शाह टोली,दानापुर, पटना में है।
(तज़्किरा मुस्लिम शोरा-ए-बिहार जिल्द 4, पेज 129)
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