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ज़िक्र-ए-ख़ैर : ख़्वाजा रुक्नुद्दीन इश्क़

रय्यान अबुलउलाई

ज़िक्र-ए-ख़ैर : ख़्वाजा रुक्नुद्दीन इश्क़

रय्यान अबुलउलाई

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    ये मय-परस्तों का मय-कदा है ये ख़ानकाह-ए-अबुल-उ’ला है

    कोई क़दह-नोश झूमता है तो कोई बे-ख़ुद पड़ा हुआ है

    इस बर्र-ए-सग़ीर में सिलसिला-ए-अबुल-उ’लाइया का फ़ैज़ान और इस की मक़बूलियत इस तरह हुई कि हर ख़ानक़ाह से इस का फ़ैज़ान जारी-ओ-सारी हुआ।सिलसिला-ए-अबुल-उ’लाईया के बानी-मबानी महबूब-ए-जल्ल-ओ-अ’ला हज़रत सय्यदना शाह अमीर अबुल-उ’ला अकबराबादी क़ुद्दिसा सिर्राहु मुतवफ़्फ़ा1061हिज्री हैं। ये सिलसिला दर-अस्ल नक़्शबंदिया के उसूल-ए-ता’लीम का मुख़्तसर निसाब है। इसलिए इसमें इ’श्क़-ओ-तौहीद की ता’लीम लाज़िमी है ।ज़ाहिरी वजाहत और शान-ओ-शकोह के पर्दे में फ़क़ीरी पोशीदा है ।वज्द-ओ-समाअ’ का शग़फ़ ख़ास है। महबूब-ए-जल्ल-ओ-अ’ला के मुमताज़ ख़लीफ़ा हज़रत सय्यद दोस्त मोहम्मद अबुल-उ’लाई बुर्हानपूरी मुतवफ़्फ़ा1090हिज्री थे और यही वो बुज़ुर्ग हस्ती हैं जिनके दस्त-ए-हक़-परस्त पर हज़रत शाह रुक्नुद्दीन इ’श्क़ के जद्द-ए-फ़ासिद हज़रत शाह मिर्ज़ा मोहम्मद फ़र्हाद अबुल-उ’लाई देहलवी मुतवफ़्फ़ा1135हिज्री मुरीद हो कर सिलसिला के मजाज़ हुए और अपने पीर-ए-बे-नज़ीर के हुक्म के मुताबिक़ बुर्हानपूर से दिल्ली आकर अपना चश्मा-ए-फ़ैज़ जारी किया। ब-क़ौल मेरे दादा मुकर्रम शाह अकबर दानापुरी कि

    आस्ताना हज़रत-ए-फ़र्हाद का

    ख़ास मौक़ा’ है ख़ुदा की याद का

    ये सिलसिला हिन्दुस्तान में काफ़ी फ़रोग़ पाया। मसलन आंध्रा प्रदेश,उत्तर प्रदेश,मद्धय प्रदेश वग़ैरा में इसकी बड़ी मक़बूलियत हुई लेकिन सूबा-ए-बिहार में हज़रत ख़्वाजा शाह रुक्नुद्दीन इ’श्क़ अ’ज़ीमबादी के ज़रिया’ अक्सर ख़ानक़ाहों में इसके फ़ुयूज़-ओ-बरकात जारी-ओ-सारी हुए।

    हज़रत रुक्नुद्दीन इ’श्क़ की तारीख़-ए-विलादत में तज़्किरा-नवीस की मुख़्तलिफ़ राय है,कैफ़िय्यतुल-आ’रिफ़ीन, तज़्किरतुस्सालिहीन ने 1137 हिज्री लिखा। यादगार-ए-इ’श्क़ के मुताबिक़ 1103 हिज्री इसके अ’लावा दर्जनों मुवर्रिख़ों ने 1137 हिज्री की रिवायत को क़ुबूल किया लेकिन नाना हज़रत शाह फ़र्हाद देहलवी की ज़’ईफ़ुल-उ’मरी और आपकी कम-सिनी का वाक़िआ’ (नुस्ख़ा-ए-कीमिया)साहिब-ए-नजात-ए-क़ासिम जो उन तज़्किरों की रौशनी कही जाती है, मज़कूरा वाक़िआ’त से मुख़्तलिफ़ है।

    जा-ए-पैदाइश दिल्ली अपने नाना की क़ियाम-गाह थी क़ियास-ए-अग़्लब है कि पैदाइश तक़रीबन 1125 हिज्री के दरमियान हुई हो, वल्लाहु–आ’लम। वालिद की जानिब से आप फ़ारूक़ी हैं। ब-क़ौल साहिब-ए-कंज़ुल-अंसाब शैख़ मोहम्मद करीम इब्न-ए-शैख़ तुफ़ैल अ’ली कि ‘नसब निस्बत दाश्ता फ़ारूक़ी अज़ औलाद-ए-हज़रत-ए-उ’मर इब्निल-ख़त्ताब रज़ी-अल्लाहु अ’न्हु ,वालिदा मुसम्मात बी-बी इ’स्मतुननिसा बेगम उ’र्फ़ बूबू साहिबा बिंत-ए-हज़रत फ़र्हाद हैं’।आपके नाम में लफ़्ज़-ए-‘मिर्ज़ा’ नाना की वजह से इज़ाफ़ा हुआ जिसको फ़क़ीरी की शान कहते हैं। वो इसे ख़ुद एक शे’र में ज़ाहिर करते हैं:

    ख़िताब आता है हर-दम इ’श्क़

    मुबारक हो तुझे ये मिर्ज़ाई

    इब्तिदाई ता’लीम-ओ-तर्बियत यक़ीनन अपने नाना के ज़ेर-ए-निगरानी हुई होगी। बड़े ख़ूबरू और ख़ुश-अख़्लाक़ ख़ानदान से तअ’ल्लुक़ रखते थे।

    ब-क़ौल साहिब-ए-सूफ़िया-ए-बिहार उर्दू ‘‘दिल्ली के बहुत ही ज़ी-इ’ज़्ज़त सूफ़ी ख़ानदान से तअ’ल्लुक़ रखते थे। दुर्रानियों के हमले के बा’द जो तवाइफ़ुल-मुलूकी का शिकार हुई उस से घबराकर उन्होंने तर्क-ए-वतन किया’’।आप हमले के बा’द शाहजहाँ आबाद की तरफ़ गए ।ब-क़ौल साहिब-ए-गुल्शन-ए-हिंद ‘‘अय्याम-ए-शबाब में शाहजहाँबाद से मुर्शिदाबाद आए और ख़्वाजा मोहम्मदी ख़ान(मुरीद हज़रत फ़र्हाद)के हम-राह एक मुद्दत तक अय्याम-ए-हयात ब-इ’ज़्ज़त –ए-तमाम बसर लाए’’गर्चे कुछ ख़िदमत काम रखते थे लेकिन आँखों में उमरायान-ओ-बादशाह-ए-मुर्शिदाबाद कि निहायत ही एह्तिराम रखते थे। ब-क़ौल साहिब-ए-तज़्किरा-ए-हिन्दी बहुत इ’ज़्ज़त और हुर्मत के साथ बसर करते।और जनाब मीर हसन देहलवी ने अपनी किताब तज़्किरा-ए-शो’रा-ए-उर्दू में नौकरी-ओ-पेशा का लफ़्ज़ इस्तिमाल किया है। मुम्किन है आप इस तरह ज़िंदगी के कुछ वक़्त बसर किए हों लेकिन ये रिवायत क़ाबिल-ए-क़ुबूल नहीं कि मीर क़ासिम की रिफ़ाक़त में आप फ़ौज के सिपहसालार या ब-हैसियत–ए-मुलाज़िम थे क्यूँकि मीर क़ासिम1764ई’स्वी के दरमियान शुजाअ’उद्दौला के हाथों वा’दा-ख़िलाफ़ी पर किसी जा-ए-मा’हूद में क़ैद कर दिया गया।अल-ग़र्ज़ हज़रत-ए-इ’श्क़ ने मुलाज़मत की। दिल में इ’श्क़-ए-हक़ीक़ी की आग लगी ।तलब–ए-पीर का जज़्बा पैदा हुआ और दुनिया से कनारा-कश हुए।

    ब-क़ौल साहिब-ए-अख़्बारुल-औलिया ‘‘शुरूअ’ शुरूअ’ में आपकी तबीअ’त तरीक़ा-ए-सर्हिंदिया की तरफ़ माइल थी’’ और तज़्किरतुस्सालिहीन के रू के मुताबिक़ ‘‘अव्वल तरीक़ा-ए- सर्हिंदिया हज़रत सय्यद अहमद सर्हिंदी से हासिल किया ।बा’द उसके शौक़ हुआ कि अपने नाना कि हल्क़े में देखें’’। एक दफ़ा’’ हज़रत शाह बुर्हानुद्दीन ख़ुदा-नुमा लखनवी मुतवफ़्फ़ा1187हिज्री जो फ़िक़्ह-ओ-उसूल-ए-फ़िक़्ह के लिए दिल्ली में मशहूर थे, की इक पाकीज़ा महफ़िल में ऐ’न आ’लम-ए-वज्द में आप से मुआ’नक़ा फ़रमाया और सिर्फ़ उसी मुअ’नक़ा के ज़रीया’ आपके तरीक़ा-ए-सर्हिंदिया मुजद्ददिया की जानिब मैलान को सल्ब फ़रमा लिया और इर्शाद फ़रमाया कि ख़ानदानी तरीक़ा हासिल फ़रमाएं। चुनांचे मुद्दत तक उनकी सोह्बत में हाज़िर रहे। बा’द-ए-ता’लीम अपने शबाब के ज़माने में ब-तौर-ए-सैर दिल्ली से पूरब की तरफ़ चंद लोगों के हम-राह तशरीफ़ ले गए।

    ब-क़ौल साहिब-ए-तज़्किरातुल-किराम आप उसी नौकरी के ज़रिया’ से दिल्ली से अ’ज़ीमाबाद आए और जब हज़रत शाह मोहम्मद मुनइ’म पाक-बाज़ क़ुद्दिसा सिर्रहु की फ़ैज़-बख़्शी का हाल सुना तो आपकी ख़िदमत में हाज़िर हुए। जब गुफ़्तुगू हुई तो मा’लूम हुआ कि हज़रत शाह मुनइ’म पाक-बाज़ आपके नाना के फ़ैज़-याफ़्ता हैं। इस सबब से आपके फ़ैज़-ए-सोह्बत से कामिल और अकमल हुए ।ब-क़ौल साहिब-ए-अख़्बारुल-अख़्यार ‘और यहाँ पूरा छः महीना हज़रत क़ुतुबुल-आ’लम की सोह्बत में ज़ेर-ए-तर्बियत रहे’। साहिब-ए-हुज्जतुल-आ’रिफ़ीन के मुताबिक़ बारह बरस तक फ़ैज़ से मुस्तफ़ीज़ होते रहे। साहिब-ए-तज़्किरातुल-अबरार के मुताबिक़ ‘बस आप अ’ज़ीमाबाद ही में रह गए’। हज़रत शाह मुन’इम पाक-बाज़ ने आपका बड़ा एह्तिराम किया जैसा कि पीर-ज़ादों का किया करते हैं। छ: महीना तक आप हज़रत शाह मुनइ’म के हल्क़ा में बैठे। बा’द उसके मुनइ’म पाक-बाज़ की इजाज़त से आप ग्वालियार आए।ब-क़ौल साहिब-ए-तज़्किरतुस्सालिहीन ‘बा’द हुसूल-ए-बैअ’त हज़रत मौलाना (बुर्हानुद्दीन)ने क़ाबिलियत-ओ-अफ़राद देखकर ख़िलाफ़त-ओ-इजाज़त सिलसिला-ए-अबुल-उ’लाईया फ़र्हादिया से सरफ़राज़ फ़रमाकर रुख़्सत फ़रमाया

    दुबारा जब आप अ’ज़ीमाबाद तशरीफ़ लाए तो उस तरफ़ का तमाम मुल्क आपके फ़ैज़ान से सैराब हो रहा था। ब-क़ौल साहिब-ए-मिरअतूल-कौनैन ‘आपकी बुजु़र्गी शहर-ए-अ’ज़ीमाबाद में ज़बान-ज़द-ए-ख़लाइक़ है”। अपने वक़्त के शैख़-ए-अ’स्र थे।बड़े बड़े आ’लीशान पटना के हल्क़ा-ए-इर्शाद में दाख़िल हुए और ये हालत हो गई जैसे उमरा के वास्ते अस्बाब-ए-दुनियावी इ’ज़्ज़त-ओ-तफ़ाख़ुर का सबब होता है उस से भी बढ़कर हज़रत-ए-इ’श्क़ के हुज़ूर में हाज़िरी उ’लमा-ओ-उमरा अपने वास्ते मर्तबा-ए-बुलंदी समझते थे।ब-क़ौल साहिब-ए-याद-ए-शो’रा ‘मुतवक्किल होने की वजह से लोगों के दिल में उनकी बड़ी इ’ज़्ज़त थी। नाह ने सुख़न-ए-शो’रा में ‘साहिब-ए-कमाल कहा तो शेफ़्ता ने गुलशन-ए-बे-ख़ार में ‘सुख़न-पर्दाज़’ कहा तो कहीं ख़लील ने गुलज़ार-ए-इब्राहीम में ‘साहिब-ए-हाल’ कहा तो साहहिब-ए-मसर्रत ने ‘अफ़्ज़ा-ए-आ’लीशान’ कहा, तबक़ातुश-शो’रा ने ‘मर्द-ए-बुज़ुर्ग,दरवेश वज़ा’,साहिब-ए-इर्शाद’ और साहिब-ए-यादगार-ए-दोस्ताँ ने दरवेश-ओ-दरवेश-ज़ादा, आ’ली-नसब जैसे इ’ज़्ज़त-ए-मआब अल्क़ाब से याद किया और देखते ही देखते ब-क़ौल साहिब-ए-अख़्बारुल-औलिया कि हज़रत बुर्हानुद्दीन के इंतिक़ाल के बा’द उनकी सेहत के मुताबिक़ उनकी साहिब-ज़ादी से अ’क़्द फ़रमाया।

    आपके दो बेटे थे।हज़रत इ’श्क़ के बड़े साहिब-ज़ादे शाह मोहम्मद हुसैन जिन्हों ने तेरह बरस की उ’म्र में विसाल फ़रमाया और दूसरे शाह अहमद हुसैन मुतवफ़्फ़ा1237हिज्री जो ख़्वाजा सय्यद अबुल-बरकात से ता’लीम-ओ-ख़िर्क़ा याफ़्ता थे,जब ने’मत-ए-बातिनी से सरफ़राज़ हुए तो अ’ज़ीमाबाद में ब-क़ौल साहिब-ए-अख़्बारुल-औलिया लब-ए-दरिया एक कुशादा और बुलंद मकान ता’मीर फ़रमा कर क़ियाम-पज़ीर हुए कि अब तक यहीं आपकी तकिया वाक़े’ है। रुश्द-ओ-हिदायत के लिए एक ख़ानक़ाह क़ाएम की जो बारगाह-ए-इ’श्क़ से मौसूम हुई।ब-क़ौल साहिब-ए-मक़ाम-ए-महमूद कि आप सूफ़ी सज्जादा-नशीं थे।आपके इस सिलसिला का फ़ैज़ान ख़ूब से ख़ूब जारी हुआ।

    मुरीदीन-ओ-मो’तक़िदीन-ए-इ’श्क़ ब-कसरत हुए जिनमें नवाब अहमद अ’ली ख़ाँ गया,ख़्वाजा मोह्तरम अ’ली ख़ाँ,ख़्वाजा अ’ली आ’ज़म ख़ाँ हाजी,ख़्वाजा आ’सिम ख़ाँ,ख़्वाजा मुकर्रम ख़ाँ हरीफ़ (अबनान-ए-ख़्वाजा मोहम्मदी ख़ाँ),मीर ग़ुलाम हुसैन शोरिश अ’ज़ीमाबादी मुतवफ़्फ़ा1195हिज्री और मोहम्मद अ’ली उ’र्फ़ भज्जू फ़िद्वी अ’ज़ीमाबादी वग़ैरा के अ’लावा ख़ुलफ़ा में ख़्वाजा सय्यद शाह अबुल-बरकात अबुल-उ’लाई अ’ज़ीमाबादी मुतवफ़्फ़ा1256हिज्री ख़लीफ़ा-ए-आ’ज़म हुए। अ’लावा अज़ीं शाह अ’ब्दुर्रहमान शेर-घाटवी मुतवफ़्फ़ा12 हिज्री,सय्यद कबीर अ’ली उ’र्फ़ दानिश अ’ज़ीमाबादी,मीर अ’स्करी अ’ज़ीमाबादी मुतवफ़्फ़ा1252हिज्री (मद्फ़न:बारगाह-ए-इ’श्क़), मीर हैदर जान देहलवी सुम्मा अ’ज़ीमाबादी,शाह अ’ली बिहारी,शाह नसरुल्लाह बनारसी, शाह पीर मोहम्मद वासिल मज्ज़ूबीन(मद्फ़ून :बारगाह-ए-इ’श्क़)क़ुद्दिसल्लाहु असरारहुम-व-आ’लमु-बिल्लाह।

    ब-क़ौल साहिब-ए-तज़्किरतुल-अबरार आपका जमाल-ए-ज़ाहिरी ऐसा था जिसको देखकर आदमी मुतअस्सिर हो जाया करते थे। तज़्किरा-ए-इ’श्क़िया ने आपके हुस्न-ओ-इ’श्क़ को यूँ ज़ाहिर किया ‘हुस्न-परस्त दर्द-मंद साहिब-ए-हाल बूद, अज़ लज़्ज़त-ए-इ’श्क़-ओ-मज़ाक़-ए-सूफ़िया चाश्नी-ए-मा’क़ूल दाश्त’ ।और हाल-ए-बातिनी तो पूछना ही नहीं या’नी आपकी ज़ात-ए-वाला दर्जात अख़्लाक़-ए-मोहम्मदी का आईना थी और उसी आईना-ए-रौशन की जल्वागरी ता-दम-ए-आख़िर रही। सिलसिला की रोज़-अफ़्ज़ूँ इशाअ’त में अख़्लाक़ी पहलू सबसे ज़ियादा नुमायां था। यार-ओ-अग़्यार सब पर आपके ख़ुल्क़-ओ-मोहब्बत का असर यक्सर रहता। ख़ाकसारी-ओ-इन्किसारी दाख़िल-ए-फ़ितरत थी हुजूम से नफ़रत और ख़ल्वत से रग़बत थी सुलूक तो आप में दाख़िल-ए-फ़ितरत हो चुका था मगर शोरिश के वक़्त जज़्बी हालत का ज़ुहूर होता था

    ख़ुलासा-ए-कलाम ये कि आपकी ज़ात जामे’–ए-कमालात सुवरी-ओ-मा’नवी थी। या यूँ कहें कि इस पर्दा के पीछे अपने पीर-ए-रौशन-ज़मीर और अपने नाना की रूहानियत की जल्वागरी थी ।जैसे जैसे आपकी शख़्सियत में इ’श्क़-ओ-तौहीद की ता’लीम लाज़िमी होती गई वैसे वैसे शाए’री में दर्द,सोज़ और कैफ़िय्यत का इज़ाफ़ा इ’श्क़ की चक्की में पिस कर होता गया। ब-क़ौल क़ाज़ी हमीदुद्दीन नागौरी कि रिसाला-ए-इ’श्क़िया में ‘ऐ दिल तू कब तक इन तफ़्रिक़ों में मुतफ़र्रिक़ रहेगा।नफ़्स-ओ-शैतान,ख़िल्क़त-ओ-दुनिया,कुफ्ऱ-ओ-इस्लाम,नेकी-ओ-बदी,बहिश्त-ओ-दोज़ख़ सबको मोहब्बत के दाएरे में जमा’ कर और मोहब्बत की चक्की में पीस कर इ’श्क़ के हाथ से गोली बनाकर वहदत के दरिया में फेंक दे। या’नी वला युश्रिक बि-इ’बादति रब्बि अहदा।

    शब-ओ-रोज़ रुश्द-ओ-हिदायत और ता’लीम-ओ-तर्बियत में मसरूफ़ रहने के बावजूद चंद इ’ल्मी तहरीरें आपकी याद-गार हैं जिनमें दो दवावीन ब-ज़बान-ए-फ़ारसी-ओ-उर्दू और कई मस्नवियात,साक़ी-नामा और अम्वाजुल-बहार फ़ी-सिर्रिल-अन्हार वग़ैरा ।अ’लावा हज़रत इ’श्क़ अपने पीर-ओ-मुर्शिद के मल्फ़ूज़ात ‘‘बुर्हानुल-इ’श्क़’’ के नाम से जमा’ फ़रमाया था और इ’श्क़ के मल्फ़ूज़ को उनके मुरीद मीर ग़ुलाम हुसैन शोरिश ने भी मुरत्तब किया था लेकिन ये अब नायाब है।ये बात बिल-कुल ग़ौर तलब है कि इ’श्क़ अपनी शाइ’री से आज तक लोगों में ज़िंदा हैं। ख़ुसूसियत के साथ सूफ़ियाना और आ’शिक़ाना शाइ’री में आपका मुन्फ़रिद सूफ़ी-रंग है ।साहिब-ज़ादगान-ए-ख़्वाजा मोहम्मदी ख़ान की संगत ने उ’न्फ़ुवान-ए-शबाब ही से शाइ’री का मज़ा चखाया और बा’द को शाइ’री अपनी आ’शिक़ाना शाइ’री में मस्त-ए-अलस्त हो गई। बहुतेरों तज़्किरा-नवीस ने आपकी शाइ’री को नक़ल किए हैं लेकिन यहाँ फ़क़त मसाइल-ए-तसव्वुफ़ में मयकश अकबराबादी ने जो नक़ल किए हैं वो रक़म किए जाते हैं, जिससे आपकी आ’रिफ़ाना शाइ’री का लुत्फ़ लेने को मिलता है।

    उसके चेहरा पर ख़ुदा जाने ये कैसा नूर था

    वर्ना ये दीवानगी कब इ’श्क़ का दस्तूर था

    सुर्मा-ए-वहदत जो खींचा इ’श्क़ ने आँखों के बीच

    जूँ सा जो पत्थर नज़र आया वो कोह-ए-तूर था

    पास आने को मिरे यारो मसाफ़त कुछ थी

    ग़ौर कर देखा तो मैं भी दिल से तेरे दूर था

    लग गया ना-गाह उस पर ये तेरा तीर-ए-निगाह

    दिल का शीशा जो बग़ल में हमने देखा चूर था

    दिल को तेरे दुख दिया है इ’श्क़ ने हमसे कहा

    शौख़ था बे-बाक था खूँ-ख़्वार था मा’ज़ूर था

    अ’लावा एक रुबा’ई और एक शे’र मुलाहज़ा कीजिए और इ’श्क़ में फ़ना हो कर बक़ा हो जाइए।

    कोई बुत कहते हैं कोई ख़ुदा कहते हैं

    हमसे जो पूछो तो दोनों से जुदा कहते हैं

    दिल के देने के बराबर कोई तक़्सीर नहीं

    जो मुझे कहते हैं सो यार वो बजा कहते हैं

    शे’र”

    बात कहने की नहीं ताक़त तो शिकायत किया करो

    इ’श्क़ रुख़्सत दे तो शोर-ए-हश्र अब बर्पा करो

    वाज़िह हो कि हज़रत सय्यद शाह मोहम्मद अकबर अबुल-उ’लाई दानापुरी ने अपना दीवान-ए-अव्वल तजल्लियात-ए-इ’श्क़ को हज़रत इ’श्क़ की तरफ़ मंसूब किया। अ’लावा अपने दूसरे दीवान ‘जज़्बात-ए-अकबर’ में फ़रमाते हैं।

    इ’श्क़ अस्त कि हस्त हम तजल्ला हम तूर

    इ’श्क़ अस्त कि हस्त हम सुलैमाँ हम तूर

    इ’श्क़ अस्त कि हस्त कासा-ए-दस्त-ए-गदा

    इ’श्क़ अस्त कि हस्त ताज-ए-फ़र्क़-ए-मग़फ़ूर

    तकिया कि शुद ख़्वाब-गह-ए-हज़रत-ए-इ’श्क़

    वल्लाह बुवद ख़ज़ाना-ए-दौलत-ए-इ’श्क़

    दारद हर गोशा-अश दो-सद तूर ब-हबीब

    आ’लम रौशन ज़े-जल्वा-ए-निस्बत-ए-इ’श्क़

    अ’लालत-ओ-विसाल के मुतअ’ल्लिक़ साहिब-ए-अख़्बारुल-औलिया रक़म-तराज़ हैं कि एक रोज़ किसी ज़रूरत से तबी’ब ने आपका मुआ’यना किया तो हैरत-ज़दा रह गया और अह्ल-ए-ख़ानक़ाह को बताया कि हज़रत की नब्ज़ रुकी हुई है फिर भी पता नहीं किस तरह आप ज़िंदा हैं। आपका इंत्क़ाल किसी वक़्त भी हो सकता है हालाँकि डेढ़ साल तक आप नब्ज़ की हरकत के बग़ैर ज़िंदा रहे। एक रोज़ इ’शा की नमाज़ के लिए मस्जिद तशरीफ़ ले गए और उस की सीढ़ी पर ब-यक वक़्त विसाल फ़रमा गए ।तारीख़-ए-वफ़ात8जुमादा-अल-ऊला 1203 हिज्री 1788 ई’स्वी चहार-शंबा )है।हज़रत यहया अ’ज़ीमाबादी ने आफ़्ताब-ए-तरीक़त से 1203 हिज्री निकाली है।

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