ज़िक्र-ए-ख़ैर : हज़रत शाह अकबर दानापुरी
सूबा-ए-बिहार अपनी अज़मत के लिहाज़ से दीगर जगहों पर फ़ौक़ियत रखता है। इस्लाम की आमद के पहले यहाँ बौध और जैन मज़हब की ता’लीमात आम थीं। 576 हिज्री के बा’द मुस्लमानों की आमद सूबा-ए-बिहार के खित्ते में कसरत से हुई । फ़ातिह-ए-मुनीर हज़रत इमाम मुहम्मद अल-मारूफ़ ब-ताज-ए-फ़क़ीह मक्की की तीन औलाद मुहम्मद इसराईल,मुहम्मद इसमाईल और अबदुल अज़ीज़ ने यहाँ इस्लाम की तरवीज-ओ-इशाअत ख़ूब ख़ूब की। ये जगह इब्तिदा ही से इल्मी माहौल का आइना-दार रही। ना सिर्फ़ नस्र बल्कि नज़्म में भी जो इब्तिदाई नुक़ूश पाए जाते हैं उन में बिहार का हिस्सा नुमायाँ नज़र आता है । अदब के मैदान में जो काम बिहार के सूफ़ियों ने अंजाम दिया शायद ही ख़ालिस अदब-नवाज़ों ने वो काम किया हो । सूबा-ए-बिहार में उर्दू ज़बान व अदब की ख़िदमत करने वालों में एक मो’तबर नाम सूफ़ी मशरब बुज़ुर्ग सय्यद शाह मुहम्मद अकबर अबुलउलाई दानापुरी का भी है।
विलादत-ओ-नाम : शाह अकबर दानापुरी 27 शाबान बरोज़ चहार शंबाब ब-वक़्त-ए-इशराक़ 1260हिज्री मोहल्ला नई बस्ती, आगरा में पैदा हुए। आपका नाम मुहम्मद अकबर और तख़ल्लुस अकबर था । आप के वालिद-ए-माजिद हज़रत मख़दूम शाह सज्जाद अबुलउलाई दानापुरी अकबराबाद में रूश्द-ओ-हिदायत के ग़रज़ से क़याम फ़रमा थे। उन के बड़े भाई शाह मुहम्मद क़ासिम अबुलउलाई दानापुरी भी अकबराबाद में रहा करते थे। आप की तारीख़-ए-विलादत इस शे’र से निकलती है:
चूँ ब-दह्र ईं मलक ख़िसाल आमद
दुर्र-ए-मकनूँ फ़ैज़-ए-साल आमद
जब आप चालिस दिन के हुए तो आप की वालिदा बसीरून निसा उर्फ़ बशीरन बिंत-ए- सय्यद मुहम्मद आसिम क़ादरी (साकिन क़स्बा रहो ज़िला गया )आप को मज़ार-ए- शाह अमीर अबुलउला अहरारी इंसान अकबरआबादी मुतवफ़्फ़ा 1061 पर ले कर हाज़िर हुईं और चालिस रोज़ की नियत से वहीं दरगाह शरीफ़ पर मो’तकिफ़ हो गईं । दरमान-ए-एतिकाफ़ आपकी वालिदा ने देखा कि मज़ार-ए- मुक़द्दस शक़ हो गई और हज़रत ने बच्चा को गोद में ले कर ख़ूब प्यार किया। सुब्ह को जब ये ख़्वाब आपकी वालिदा ने बयान किया तो आप के अ’म्म-ए-अक़्दस बहुत ख़ुश हुए और फ़रमाया कि मा’लूम होता है ये बच्चा इक़बाल-मंद होगा और इस से सिलसिला-ए-अबुलउलाइ को फ़रोग़ होगा इंशाअल्लाह। चुनांचे आपके अम्म-ए-मुअ’ज़्ज़म की ये ता’बीर हर्फ़ ब-हर्फ़ पूरी हुई और हज़रत शाह मुहम्मद अकबर दानापुरी अपने वक़्त के आफ़ताब-ए-विलायत बने और हज़ारों लाखों लोग सूबा-ए-बिहार, बंगाल,उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, दक्कन और दीगर मुमालिक मसलन पाकिस्तान , बंगलादेश, मक्का मुकर्रमा. मदीना मुनव्वरा , अमरीका वग़ैरा में आप से मुरीद हुए ।
ता’लीम व तर्बियत–ए-ज़ाहिरी-ओ-बातिनी : जब आप पाँच बरस के हुए तो अ’म्म-ए-अक़्दस ने आप की बिस्मिल्लाह अदा फ़रमाई और ख़ुद ही इल्म–ए-ज़ाहिरी की ता’लीम देते रहे फिर एक दीनी दरसगाह में आप को दाख़िल कर दिया। चूँकि आप काफ़ी ज़हीन थे और हाफ़िज़ा भी ख़ूब था जल्द ही इल्म-ए- ज़ाहिरी से फ़ारिग़ हो गए अब आप के अम्म-ए-मुकर्रम ने आप को तालीम-ए-बातिनी देनी शुरू की। थोड़े ही अ’र्से में आप उलूम –ए-ज़ाहिर-ओ-बातिन से आरास्ता-ओ-पैरास्त्ता हो गए । आप के अम्म-ए- मुअज़्ज़म भी इल्म-ए-ज़ाहिरी में बा-कमाल और रूहानियत में बे-मिसाल थे ।आप से सिलसिला-ए-अबुलउलाइया ख़ूब ख़ूब जारी हुआ । इन मराहिल के बा’द आप ने अम्म-ए-अक़्दस के दस्त –ए-हक़-परस्त पर 2 रमज़ान -उल-मुबारक 1281 को सिलसिला-ए-आ’लिया नक़्शबंदिया अबुलउलाइया में बैअ’त फ़रमाई और 27 रमज़ान -उल-मुबारक 1281 हिज्री ब-वक़्त –ए-नमाज़–ए-सुब्ह ब-मक़ाम-ए-ख़ानक़ाह मोहल्ला शाह टोली, दानापुर शरीफ़,पटना तमाम सलासिल की इजाज़त-ओ-ख़िलाफ़त से मुशर्रफ़ हुए।
आप के वालिद-ए-माजिद हज़रत मख़दूम शाह सज्जाद दानापुरी थे जो सय्यद शाह तुराब-उल-हक़ मोड़वी सुम्मा दानापुरी इब्न –ए-सय्यद तय्यिबुल्लाह मोड़वी इब्न-ए-सय्यद अमीनुल्लाह नौआबादी इब्न-ए-सय्यद मुनव्वरुल्लाह नौआबादी इब्न-ए- इनायत उल्लाह चिशती नौआबादी के फ़र्ज़ंद-ए-असग़र थे । शाह तुराबुल हक़ मोड़वी का निकाह दानापुर शरीफ़ , शाह टोली की दुख़्तर-ए- नेक अख़्तर सय्यिदा हफीज़ा साहिबा मुतवफ़्फ़ा 1242 से हुआ। आप बुज़ुर्गान-ए-तरीक़त के इसरार पर दानापुर शरीफ़ ससुराल में रह गए और बस गए। बा’द में आप की औलाद भी यहीं रही और ख़ूब ख़ूब फली फूली। मोहल्ला शाह टोली,दानापुर शरीफ़ को जो चार चांद लगे और उस मुहल्ले को उरूज हुआ वो सय्यद शाह मुहम्मद तुराबुलहक़ की आल औलाद से हुआ। इस ख़ानदान से काफ़ी दरवेश और औलियाउल्लाह, उल्मा, हुकमा व अह्ल-ए-दानिशमंद पैदा हुए। उन सब के मज़ारात यहीं शाह टोली के आबाई क़ब्रिस्तान में हैं।
तर्ज़-ए-मुआ’शरत-ओ-अख़लाक़-ओ-आदात: आप की मुआ’शरती ज़िंदगी सादगी से इबारत थी ।लिबास में भी सादगी थी हमेशा ख़ालता-दार पायजामा ,नीचा कुर्ता ,शाना पर बड़ा रूमाल और पल्ला की टोपी और कभी अँगरखा ज़ेबतन फ़रमाया करते थे । मकान की ज़ीनत सादा थी ।आप अपने दीवान में इरशाद फ़रमाते हैं
फ़क़ीर-ख़ाना के देखो तकल्लुफ़ात आ कर
कि फ़र्श-ए-ख़ाक है उस पे बोरिया भी है
मुरग़्ग़न ग़िज़ा से हमेशा एहतियात फ़रमाते थे और कभी खा भी लेते थे। मछली से अलबत्ता हमेशा परहेज़ रहा ।इस की वजह आपने ख़ुद दीवान-ए- जज़बात-ए-अकबर में यूं बयान फ़रमाई है :
उसी ज़माने से है एहतियात मछली की * हुई है जब से मुज़म्मिल शरीफ़ शुरू
आप बहुत ख़लीक़ थे। मिज़ाज में इन्किसार था ।किसी बुराई का इंतिक़ाम दुश्मन से नहीं लेते थे। ‘बा दोसताँ तलत्तुफ़ बा दुशमनाँ मदारा’ पर आप का पूरा अ’मल था। वतन में आप के ख़ानदान के बा’ज़ लोग ऐसे नुक्ता-चीं थे जो हमेशा आप को ईज़ा दिया करते थे मगर आप हमेशा उनकी ईज़ा पर सब्र फ़रमाया करते थे । इस का इज़हार आप ने अपने दीवान तजल्ली-ए-इश्क़ के सफ़हा 143 पर इस तरह किया है।
यूसुफ़ से भी ज़्यादा दिए हैं भाईयों ने ग़म
परदेसी बन के रहते हैं अपने वतन में हम
आप के दिल में दर्द बहुत था किसी की तकलीफ़ और मुसीबत देख कर आप बेचैन हो जाते थे और उस को दूर करने की कोशिश फ़रमाते थे ।जज़बात-ए- अकबर सफ़हा 120 पर इसी दर्द-ए-दिल को बयान फ़रमाते हैं:
दर्द-ए-दल ने मुझे बेदाम ख़रीदा अकबर
कम सिनी से ही हमारी रिफ़ाक़त में यही
आप हमेशा और हर हालत में अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त पर भरोसा फ़रमाया करते थे और लोगों से कहते थे कि तवक्कुल अ’लल्लाह ईमान का जुज़्व-ए-आ’ज़म है। इस के मुतअ’ल्लिक़ अपने दूसरे दीवान ‘जज़बात-ए- अकबर’ में फ़रमाते हैं:
है तवक्कुल मुझे अल्लाह पर अपने अकबर
जिस को कहते हैं भरोसा वो भरोसा है यही
दूसरी जगह फ़रमाते हैं:
क्यों मारे मारे फिरते हो अकबर इधर उधर
बैठो तो घर में पहूंचेगा अल्लाह का दिया
आपने ज़िंदगी भर किसी से क़र्ज़ ना लिया मगर लोगों को क़र्ज़ –ए-हसना दिया करते थे । ज़्यादा-तर वापस नहीं लिया करते थे । किसी साइल को महरूम ना करते थे । आप के विसाल के बा’द इस अ’जीब-ओ-ग़रीब बात का इन्किशाफ़ हुआ कि आपने दानापुर शरीफ़ और आगरा में बेवाओं का माहाना वज़ीफ़ा मुक़र्रर कर रखा था। आप हर शख़्स से मोहब्बत से पेश आया करते थे जो लोग हर वक़त मज्लिस में हाज़िर रहते थे सब पर आपकी मोहब्बत-ओ-नवाज़िश यकसाँ रहती थी।
सच है शैख़ सा’दी शीराज़ी ने ऐसे ही बुज़ुर्गों के मुतअल्लिक़ ही लिखा है:
शनीदम कि मर्दान-ए-राह-ए-ख़ुदा
दिल-ए-दुश्मनाँ रा न-कर्दन्द तंग
किसी का ज़ुल्म सहना और बर्दाश्त करना फिर सब्र करना यह काम मर्दान-ए-ख़ुदा का है ।
एक शख़्स आप की घड़ी ले गया दूसरे दिन हाज़िर हो कर कुछ मदद का ख़्वाहाँ हुआ तो आप ने उस को पाँच रूपये दे दिया और उस को कोई मलामत ना की।
तलामिज़ा-ए-अकबर :आप के शागिर्दों की ता’दाद बहुत ज़्यादा है, चंद मशहूर शागिर्द कुछ इस तरह हैं: हज़रत सय्यद शाह मुहम्मद मोहसिन अबुलउलाई दानापुरी, मुतवफ़्फ़ा 1364 (साहबज़ादे-ओ-जानशीं ), सय्यद शाह नज़ीर हसन अबुलउलाई नज़ीर दानापुरी मुतवफ़्फ़ा 1343,सय्यद शाह मुहम्मद कबीर अबुलउलाई इर्फ़ान दानापुरी मुतवफ़्फ़ा 1330,सय्यद शाह वाइज़ उद्दीन अबुलउलाई वाइज़ दानापुरी मुतवफ़्फ़ा 1359,मीर सय्यद मुहम्मद निसार अली अबुलउलाई निसार अकबराबादी मुतवफ़्फ़ा 1339,शैख़ मुहम्मद इदरीस अबुलउलाई अज़ीम आबादी सुम्मा अररयावी मुतवफ़्फ़ा 1351,शाह अबदुल्लाह अहक़र दानापुरी,सय्यद शाह मुहम्मद मुबारक हुसैन मुबारक अज़ीमआबादी , सय्यद शाह ग़फ़ूरुर-रहमान हम्द काकवी,सय्यद शाह अब्दुल अज़ीम अबुलउलाई अख़तर व अनवर दानापुरी मुतवफ़्फ़ा 1348,सय्यद फ़ज़ाउर रहमान फ़ज़ाई अकबराबादी सुम्मा अजमेरी,शौक़ अजमेरी, सैफ़ फ़र्ख़आबादी, सय्यद नसरुल्लाह नसर दानापुरी,शैख़ नसीमुल्लाह नसीम दानापुरी , अब्दुल-ग़फ़ूर नैयर दानापुरी 335,सय्यद शाह रुकनु द्दीन आरिफ़ दानापुरी मुतवफ़्फ़ा 1333, अब्दुल-वाहिद ख़ां कौसर दानापुरी मुतवफ़्फ़ा 1335, शैख़र बुलाक़ी क़मर दानापुरी मुतवफ़्फ़ा 1328, मुहम्मद अकबर खाँ सतूल दानापुरी ,मुहम्मद यूसुफ़ खाँ यूसुफ़ दानापुरी,सय्यद मुहम्मद यहया दानापुरी मुतवफ़्फ़ा 1320, अबदुर्रहमान रहमत दानापुरी , अब्दुर रफ़ीक़ रफ़ीक़ दानापुरी मुतवफ़्फ़ा 1335,मिर्ज़ा अल्ताफ़ अली दानापुरी, सय्यद ज़हूरुद्दीन ज़हूर अज़ीम आबादी , सय्यद बदरु द्दीन बदर अज़ीम आबादी , जौहर बरेलवी ,नाज़िश अज़ीम आबादी,शैदा बिहारी,क़ैस गयावी, मस्त गयावी, दोस्त मुहम्मद इल्म गयावी,मज़ाहिर गयावी, सहबा गयावी, रौनक़ गयावी,हिंदू गयावी, बाबू प्रणव चंद्र माह दानापुरी वग़ैरा वग़ैरा ।
तसनीफ़ात-ओ-शाइरी :सफ़र-ए-हज से वापसी के बा’द आपने तसनीफ़ात की तरफ़ पूरी तवज्जा दी। उन तसनीफ़ात को पढ़ने के बा’द शाह अकबर दानापपुरी की इस्तिदाद और तबह्हुर-ए-इल्मी का पता चलता है कि आप किस बुलंद-पाया के इन्सान थे और शरीअ’त-ओ-तरीक़त में कामिल थे। तसनीफ़ात की फ़िहरिस्त ये है : चराग़ –ए-का’बा मतबूआ’301, आगरा , इरादा मतबूआ,301 आगरा, ख़ुदा की क़ुदरत मतबूआ’305 पटना,नज़र-ए-महबूब मतबूआ’306 आगरा, मौलूद-ए-फ़ातिमी मतबूआ307 आगरा ,इदराक मतबूआ309 आगरा, सैर-ए-देहली मतबूआ 311 आगरा, दिल मलफ़ूज़ात-ए- शाह अकबर दानापुरी , मतबूआ 1312,आगरा (जामेअ’ मीर सय्यद, निसार अली अकबराबादी),तारीख़-ए-अ’रब मुकम्मल दो जिल्द मतबूआ318 आगरा, अहकाम-ए- नमाज़ मतबूआ320 आगरा, रिसाला-ए-ग़रीबनवाज़ मतबूआ आगरा, अशरफ़ुत -तवारीख़ मुकम्मल तीन जिल्द मतबूआ ( जिल्द-ए- अव्वल322),(जिल्द-ए-सानी325),(जिल्द-ए- सालिस328),आगरा,सुरमा-ए-बीनानई मतबूआ343इलाहाबाद आबाद,लखनऊ,रिसाला-ए- इल्तिमास मतबूआ344 आगरा,नाद-ए-अली मतबूआ358, इलाहाबाद, शोर-ए-क़यामत मतबूआ आगरा, तुह्फ़ा-ए-मक़बूल (क़लमी),मौलूद-ए-ग़रीब (क़लमी),अख़बारुल इश्क़(क़लमी),मस्नवी-ए-रूह(क़लमी),उर्दू मंजूम बेगम (क़लमी),रिसाला-ए-ख़िज़र क़लमी ( दीवान तजल्लियात-ए-इशक़ मतबूआ 1316 आगरा, जज़बात-ए-अकबर मतबूआ 1333 आगरा, वग़ैरा वग़ैरा।
आप को बचपन से शेर-गोई का शौक़ था। हर वक़्त क़वाफ़ी-ओ-रदीफ़ और मुहावरा की फ़िक्र में लगे रहते थे दर्सी किताबों की तकमील के बाद यह शौक़ काफ़ी बढ़ गया। उस्ताद की तलाश थी हज़रत शाह ग़ुलाम आज़म इलाहाबादी )सज्जादानशीं दाइरा-ए-शाह अजमल, इलाहाबाद पर दिल माइल ना होने के बा’द हज़रत मौलाना वहीदुद्दीन वहीद इलाहाबादी मुतवफ़्फ़ा 1319हक़्क़ी की ख़िदमत में बग़रज़-ए-इस्लाह-ओ-शागिर्दी पहली बार हाज़िर हुए और अपना तआ’रुफ़ कराया। हज़रत मौलाना वहीदुद्दीन वहीद इलाहाबादी ने निहायत गर्म-जोशी और मुहब्बत से आपका ख़ैर- मक़्दम किया और क्यों ना हो क्योंकि ये उस घराने के चश्म-ओ-चराग़ थे जिस से बड़े बड़े बादशाहान-ए-वक़्त-ओ-दीगर माहिरिन-ए-इल्म-ओ-फ़न मुंसलिक थे और हल्क़ा में दाख़िल कर लिया। सय्यद मुहम्मद अकबर इलाहाबादी भी वहीद इलाहाबादी के हल्क़ा-ए- शागिर्दी में दाख़िल हुए। ये दोनों हज़रात शायरी में भी उस्ताद भाई बन गए और तरीक़त में पहले से पीर भाई थे इसलिए कि अकबर इलाहाबादी ने हज़रत शाह मुहम्मद क़ासिम दानापुरी से बैअ’त कर ली थी जो शाह मुहम्मद अकबर दानापुरी के हक़ीक़ी चचा और पीर थे । इन दोनों में बड़ी मुहब्बत-ओ-उन्सियत थी ।नज़र-ए-महबूब मतबूआ306,आगरा में एक ख़त अकबर इलाहाबादी का हज़रत शाह मुहम्मद अकबर दानापुरी के नाम शाए हुआ जिसकी तहरीर ये है:
सरताज-ए- बिरादारान-ए-तरीक़त, मस्नद आरा-ए- बज़्म –ए-मारिफ़त ज़ादल्लाहु इरफ़ानहु तस्लीम ।
आपकी तहरीर के वरूद ने इज़्ज़त बख़्शी ।आप का ख़याल निहायत उम्दा है आप ही के घर का फ़ैज़ है कि इस ज़माना में और इन हालात में भी मेरे अक़ाइद महफ़ूज़ हैं । ये शे’र ज़बान पर आ रहा है ।
हल्क़ा-ए-पीर-ए-मुग़ानम रा अज़ल दर गोश अस्त
बर हमानीम कि बूदेम हमाँ ख़्वाहद बूद
शाह मुहम्मद अकबर दानापुरी की एक ग़ज़ल का मक़्ता इन दिनों बुजु़र्गवारों के तअल्लुक़ को ज़ाहिर करता है।
फ़ितरतन थे एक हम दोनों मगर हुक्म-ए-ख़ुदा
वो तो रश्क-ए-गुल हुए मैं अकबर-ए-शैदा हुआ
एक रुबाई भी इस तअ’ल्लुक़ को ज़ाहिर करती है :
शागिर्द वहीद के हैं दोनों अकबर
हम-मश्क़ भी हम दोनों रहे हैं अक्सर
लेकिन क़ुदरत का साद उन पर ही हुआ
पत्थर पत्थर है और जौहर जौहर
आपकी शाएरी पर तसव्वुफ़ का रंग चढ़ा हुआ है । ग़ज़लों का हर शे’र तसव्वुफ़-ओ-मारिफ़त के रंग व नूर से मुनव्वर नज़र आता है । आपकी शेर-गोई में सलासत भी ज़्यादा है । ये सब उस्ताद से आपको हिस्से में मिला है चुनांचे दीवान-ए-तजल्लियात-ए- इशक़ सफ़हा 284 में मुन्नर आप का ये शे’र:
कोई शागिर्द हुआ उस्ताद का है आईना अकबर
सलासत तेरे शे’रों में वहीद-ए- ख़ुश-नवा की
आप मशाहीर शो’रा में हज़रत मीर हसन देहलवी की बहुत ता’रीफ़ बयान फ़रमाते थे ,चुनांचे जज़बात –ए-अकबर सफ़हा 56 पर एक रुबाई आप के इसी ख़याल को ज़ाहिर कर रही है। वो ये है:
शाइ’र जिसे कहते हैं वो पैदा हुए दो
मैं तो यही कहता हूँ जो होनी हो वो हो
अव्वल तो हुए मीर फिर आख़िर में वहीद
अब ख़त्म हुई बज़म-ए-सुख़न अब कुछ ना कहो
हज़रत मीर हसन देहलवी के एक शे’र के मज़मून को आपने भी अपने अंदाज़ में ख़ूब अदा किया है। दोनों के अश्आ’र को पढ़िए और दाद-ए-सुख़न दीजिए !
हज़रत मीर हसन देहलवी फ़रमाते हैं:
सब पे जिस बार ने गिरानी की
उस को ये नातवाँ ने उठा लिया
शाह अकबर दानापुरी फ़रमाते हैं :
अकबर उसी ने बार-ए-अमानत उठा लिया
ये मुश्त-ए-ख़ाक खेल गई अपनी जान पर
दूसरी जगह इसी मज़मून को दूसरे अंदाज़ में पेश कर रहे हैं:
रखा हुआ है सामने पुश्तारा-ए-उल्फ़त
मैदां में चर्ख़ आए सकत हो तो उठा ले
आप के ये दोनों अश्आ’र इस आयत-ए-शरीफ़ की तर्जुमानी कर रहे हैं’ इन्ना अरज़नल अम्मा-न-त अलस-समावाति वल-अर्ज़ि फ़-अ-बै-न अय-यहमिल-न-हा व अशफ़क़-न व ह-म-ल-हल इन्सान,सूरा अहज़ाब , पारा 22 ।इसी तरह नहनु अक़-र-बु इलैहि मिन हबलिल वरीद,सूरा-ए- ज़ारयात, पारा 26 के मज़मून को एक शे’र में दिलकश अंदाज़ में इस तरह पेश किया है ।
अ’जब शान है आन-ए-वाहिद में वो
बहुत पास है बहुत दूर है
जज़बात-ए-अकबर सफ़हा 232 में हज़रत-ए-मीर के एक शे’र पर आप ने निहायत ख़ूब तज़मीन लिखी है,नाज़रीन-ए-किराम वो भी मुलाहिज़ा करें:
मैं ने जो पुकारा उसे ओ आशिक़ दिल-गीर
सहरा से सदा आई लगा दिल में मेरे तीर
आता नहीं अब दश्त में मुद्दत से वो बे पीर
होगा किसी दीवार के साया के तले मीर
सुनसान नज़र आता है अब ख़ाना-ए-ज़नजीर
सुनते नहीं कुछ रोज़ों से हम नाला-ए-शब-गीर
पूछा जो कल अकबर से तो की उस ने ये तक़रीर
होगा किसी दीवार के साया के तले मीर
शाह अकबर दानापुरी की शाएरी गुल-ओ-बुलबुल-ओ-हिज्र-ओ-विसाल तक महदूद ना थी बल्कि आपके दिल में मुल्क-ओ-क़ौम के ख़ुशहाली का बड़ा ख़याल है।आप इस कोशिश में ही लगे रहे कि क़ौम को बेदार कर के हर क़िस्म के हुनर सीखने में उनकी आदत डाली जाए ताकि मुल्क को फ़रोग़ हो और हिन्दुस्तानी क़ौम भी इस बारे में अक़्वाम-ए- आ’लम पर सबक़त ले जाए। तफ़्सील के लिए तजल्लियात-ए- इशक़ मतबूआ 1316 आगरा और जज़बात-ए-अकबर मतबूआ 1333 आगरा का मुतालिआ’ फ़रमाएं।
विसाल : जब आप की उम्र 67बरस की हुई तो अ’ला लत का सिलसिला शुरू हुआ । ईलाज होता रहा मगर मरज़ तरक़्क़ी करता रहा ।अवाइल-ए-रजब से मरज़ में ज़्यादती हो गई ।ज़ो’फ़-ओ-नक़ाहत की हालत में भी फ़र्ज़ के अ’लावा तहज्जुद के पाबंद थे। विसाल से दो दिन पेश्तर ये दो शे’र ज़्यादा विर्द-ए- ज़बान थे:
ख़ुदा की हुज़ूरी में दिल जा रहा है * ये मरना है इस का मज़ा आ रहा है
तड़पने लगीं आशिक़ों की जो रूहें * ये क्या रूहुल-क़ुदुस गा रहा है
बाद-ए-विसाल ग़ुस्ल के वक़्त ये तारीख़ी आख़िरी ना-मुकम्मल शे’र तकिया के नीचे से लिखा हुआ बरामद हुआ वो ये है :
अ’दम का मुसाफ़िर बताता नही कुछ
कहाँ से ये आया कहाँ जा रहा है
आपकी ज़िंदगी के ये तीन अशआ’र हैं जो उस वक़्त की आप की कैफ़ियत का पता देते हैं ।
बिलआख़िर 14 रजब 1327 दो शंबा ब-वक़्त-ए-नमाज़-ए-अस्र आप ने विसाल फ़रमाया। बाद नमाज़-ए-इशा मदफ़ून हुए।
शाह मुहसिन दानापुरी ने क़ता-ए-तारीख़-ए-रहलत लिखी थी:
बदीं मिस्रा तारीख़-ए- विसालश याफ़्तम मोहसिन
चूँ सुबहानल-लज़ी अस्रा बिअ’बदिहि आमद आवाज़म
मज़ार-ए-मुअ’ल्ला दरगाह हज़रत मख़दूम सज्जाद दानापुरी में वाक़े है।
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