ख़्वाजा साहब पर क्या कहती हैं पुरानी किताबें?
हिन्दोस्तान में सिलसिला-ए-तसव्वुफ़ का चराग़ कई सदियों से रौशन है। इसकी अज़्मत के तज़्किरे भरे पड़े हैं। जहाँ एक तरफ़ इस की अज़्मत की मीनार बुलंद हैं, वहीं दूसरी तरफ़ ऐसे क़िस्से और करामात भी मशहूर हैं, जिनका हक़ीक़त से दूर-दूर तक वासता नहीं है। सच्चे और हमदर्द-मिज़ाज सूफ़ियों से ऐसे-ऐसे क़िस्से और करामाती वाक़ियात मंसूब हैं कि पढ़ कर ‘अक़्ल हैरान-ओ-परेशान होती है और उनकी रूह-ए-मुबारक को हम ग़लत-बयानी कर तकलीफ़ पहुँचाते हैं। हम बड़बोलेपन में ऐसे करामात गढ़ कर बताते हैं, जो उनकी शायान-ए-शान नहीं है। ये वो लोग हैं जो सच्चाई, प्रेम और भाईचारे के प्रचारक हैं और इसी पर अटल रहे। इसी फ़िक्र को ‘आम करने के लिए उन्होंने पूरी उ’म्र गुज़ार दी मगर आज उन का चर्चा ऐसे क़िस्से कहानियों के ज़रिये किया जाता है जो सच नहीं हैं। हमें डरना चाहिए कि वो करिश्मे जो उनसे मंसूब किए गए हैं उनमें तारीख़ी ग़लतियाँ हैं। उन्हें बयान करने और लिखने में क्या हमसे पूछ-ताछ नहीं होगी? सूफ़ियों ने जीवन भर यह दर्स दिया कि दुनिया में कोई झूट न बोले।
आज हम ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती जैसे बड़े सूफ़ी को याद करने के लिए बेशतर ऐसे क़िस्से बयान करते हैं, जो तहक़ीक़ से दूर हैं। उन लोगों के मनाक़िब तो इस ख़ूबी पर ख़त्म हैं कि वो ख़ुदा के महबूब हैं और हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया के पिरान-ए-पीर हैं।
हिंदुस्तान में तसव्वुफ़ का चराग़ आप ही से रौशन हुआ। क्या अमीर क्या ग़रीब, क्या हिंदू क्या मुसलमान, सब आपके ‘अक़ीदतमंद और रूहानी फ़ैज़ान के मुंतज़िर रहते। लेकिन ये कारनामे आपकी अच्छी आदतों और अच्छी ज़बान की वजह से हुए। ज़बान की नर्मी, मिज़ाज की ख़ूबसूरती और रौशन दिल होने की वजह से आज हम उनका चर्चा इतने साल गुज़र जाने के बावुजूद भी कर रहे हैं। पहले-पहल हिंदुस्तान में लोग न आपकी ज़बान जानते थे, न आपकी वंशावली जानते थे, न आपका काम जानते थे और न ही आपको पहचानते थे, अगर कुछ पहचाना गया तो आपके अच्छे कर्म पहचाने गए। यही वो कड़ियाँ थीं जिन से आपकी तरफ़ लोग आने शुरू’ हुए और धीरे-धीरे आप महान सूफ़ी साबित हुए। मगर अफ़सोस कि आज हमने उन के करिश्मे को अस्ल बना लिया और उनकी अच्छी आदतों और शिक्षाओं को कोसों पीछे छोड़ दिया है। हमने कभी इस बात पर ग़ौर ही नहीं किया कि उनकी आदतों को हम भी अपना सकते हैं, बल्कि हमेशा उनके करिश्माती क़िस्से सुना कर हम ने ये साबित किया कि उन जैसा बनना मुमकिन नहीं।
अगर तारीख़ की किताबों की तरफ़ नज़र करते हैं, तो हमें इस बात का अंदाज़ा होता है कि फ़वाइद-उल-फ़ुवाद से पहले सिलसिला-ए-चिश्तिया के सूफ़ियों के यहाँ किसी भी किताब का कोई ज़िक्र नहीं मिलता है। हज़रत नसीरुद्दीन चराग़ दिल्ली के मल्फ़ूज़ात (उपदेश) “ख़ैर-उल-मजालिस” में है कि-
“एक शख़्स ने हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया की ख़िदमत में ‘अर्ज़ किया कि मैंने एक मो’तबर शख़्स से सुना है कि उस ने आपकी तस्नीफ़ से एक किताब देखी है। हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया ने फ़रमाया कि, “उसने ग़लत कहा। मैंने कोई किताब नहीं लिखी और हमारे ख़्वाजगान ने कोई किताब नहीं लिखी” ये वाक़िआ सुनकर हज़रत चराग़ दिल्ली ने फ़रमाया कि, “वाक़ई हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया ने कोई किताब नहीं लिखी” फिर मैंने अर्ज़ किया कि “जो रिसाले इस वक़्त दस्तियाब होते हैं, जैसे- मल्फ़ूज़ात-ए-हज़रत उस्मान-ए-हारुनी और मल्फ़ूज़ात-ए-हज़रत क़ुतुबुद्दीन आदि। क्या ये किताबें बड़े हज़रत (निज़ामुद्दीन औलिया) के ज़माने में ज़ाहिर न हुई थीं? हज़रत चराग़ दिल्ली ने फ़रमाया कि “उस वक़्त नहीं थीं। अगर उन हज़रात की तस्नीफ़ होतीं तो बड़े हज़रत उनका ज़िक्र ज़रूर फ़रमाते और ज़रूर दस्तियाब होतीं” (11वीं मज्लिस)
इस तरह अनीस-उल-अरवाह, दलील-उल–आरिफ़ीन, फ़वाइद-उस-सालिकीन, राहत-उल-क़ुलूब आदि सही नहीं साबित होतीं। अनीस-उल-अरवाह में ज़िक्र-ए-ज़िब्ह-ए-जानवर की रिवायत का इंकार हज़रत चराग़ दिल्ली ने ख़ैर-उल-मजालिस में किया है। शुमाइल-उल-अत्क़िया में उन मल्फ़ूज़ात का ज़िक्र कसरत से मिलता है, जो दूसरी तरफ़ इनके दुरुस्त कहने पर मज़बूत दलील बनती है। शुमाइल-उल-अत्क़िया के लेखक ख़्वाजा रुक्नुद्दीन दबीर काशानी हैं जो हज़रत बुरहानुद्दीन ग़रीब के सोहबत-याफ़्ता थे।
ख़्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती का तज़्किरा फ़वाइद-उल-फ़ुवाद में इस तरह से नहीं किया गया है, जिस तरह आज उनको याद किया जाता है। दो या तीन जगह हज़रत हमीदुद्दीन नागौरी और हज़रत क़ुतुबुद्दीन बख़्तियार काकी के तज़्किरे में उन का नाम आया है, लेकिन उनके बुजु़र्गी के तअल्लुक़ से एक तज़्किरा भी नहीं गुज़रा है। हाँ! हज़रत नसीरुद्दीन चराग़ दिल्ली के मल्फ़ूज़ात ख़ैर-उल-मजालिस और ख़्वाजा बंदा-नवाज़ गेसु दराज़ के मल्फ़ूज़ात जवामे-उल-कलिम में थोड़ा तज़्किरा ज़रूर मिलता है।
इसके अलावा अफ़ज़ल-उल-फ़वाइद में ख़्वाजा साहब का हज़रत हसन बसरी का क़िस्सा बयान करने से हज़रत चराग़ दिल्ली के बयान की तर्दीद होती है और ग़ालिबन उसी वजह से कुतुब-ए-मल्फ़ूज़ात की निस्बत ये आम ग़लत-फ़हमी शाए’ हुई, लेकिन अगर किसी वक़्त भी दिरायत की निगाह से तवज्जोह फ़रमाई जाये तो मालूम होता है कि दोनों के बयानात सही हैं।
अब्दुल बारी मानी अजमेरी लिखते हैं कि-
“किताब अनीस-उल-अरवाह जिसकी निस्बत-ए-तालीफ़ में हमें शुब्हा है, हज़रत ख़्वाजा चराग़ दिल्ली के बयान से क़तअन ग़ैर सही साबित होती है, क्योंकि ये वही किताब है जिसमें ज़िब्ह-ए-जानवर की रिवायत मौजूद है और बुजु़र्गी-ए-शैख़ हसन बसरी की रिवायत किताब अनीस-उ-आ’रिफ़ीन में किसी जगह मर्क़ूम नहीं है, इसलिए हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया के बयान से किसी तरह उसकी सेहत साबित नहीं की जा सकती” (तारीख़-उल-सल्फ़, पृष्ठ 68)
पहले-पहल ख़्वाजा साहब का तज़्किरा हमें सियर-उल-औलिया में मिलता है कि आप अजमेर आए। इस वाक़ि’ए को उन्होंने हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया से सुना है। इसके बा’द हुमायूँ के वक़्त में शैख़ जमाली देहलवी की किताब सियर-उल-आरिफ़ीन में ख़्वाजा साहब के हालात नक़्ल हुए हैं। इसमें बहुत सी रिवायत ब-ग़ैर तारीख़ और साल के लिखी गई है और कुछ रिवायात पर तारीख़ी सवाल भी क़ाइम होता है, जैसे 52 बरस की ‘उम्र में ख़िलाफ़त मिलना, निकाह के हालात, औलाद की डिटेल, शैख़ अब्दुल-क़ादिर जीलानी और शैख़ यूसुफ़ हम्दानी से मुलाक़ात वग़ैरा मगर जमाली ने ख़्वाजा बुज़ुर्ग से मंसूब किसी करिश्मे का कोई ज़िक्र नहीं किया है। तारीख़ी दस्तावेज़ पर अगर हम रौशनी डालें तो गुलाम वंश के सुल्तान नासिरुद्दीन के ज़माने में तबक़ात-ए-नासिरी लिखी गई, जिसमें शहाबुद्दीन ग़ौरी के तज़्किरे में मुईनुद्दीन ऊमी या ऊशी का तज़्किरा ज़रूर आया है, लेकिन इसकी वज़ाहत नहीं की गई है।
सियर-उल-‘आरिफ़ीन के बा’द जब सल्तनत-ए-मुग़लिया के गद्दी पर जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर बैठे, तो अज़ राह-ए-‘अक़ीदत 949 हिज्री (1542 AD) में ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर हाज़िर हुए, जिसका ज़िक्र आईन-ए-अकबरी, मुंतख़ब-उत-तवारीख़ और तारीख़-ए-फ़रिश्ता में मौजूद है। बादशाह की हाज़िरी के बा’द जो किताबें लिखी गई (अख़बार-उल-अख़यार, तारीख़-ए-फ़रिश्ता, गुलज़ार-ए-अबरार, मिरात-उल-असरार, सियर-उल-अक़्ताब, सफ़ीनत-उल-औलिया, मूनिस-उल-अरवाह, इक़्तिबास-उल-अनवार आदि) उन सब तज़्किरों में ख़्वाजा साहब की ऐसी-ऐसी करामतों का ज़िक्र है, जिन्हें इससे पहले न सुना गया और न ही किसी जगह पढ़ा गया। ख़्वाजा साहब के अजमेर में पहुँचने के बा’द राजा के ऊँट का बैठ जाना, गाय के बच्चे का दूध देना, अनासागर का पानी कासे में समा जाना, ‘इल्म-ए-नुजूमी और राय पिथौरा की माँ का क़िस्सा, जयपाल और शादी देव का क़िस्सा ये सब इन तज़्किरों से पहले कहीं नहीं लिखे गए। या’नी ख़्वाजा साहब की मृत्यु के पाँच सौ बरस के बा’द या यूँ कहिए कि अकबर बादशाह की हाज़िरी के बा’द कौन सा ऐसा नुस्ख़ा निकला, जिसमें ये सब क़िस्से लिखे गए। इन पाँच सौ सालों में रिवायत की जांच-परख कैसे हुई और इसका असल स्रोत क्या है, जबकि आईन-ए-अकबरी, मुंतख़ब-उत-तवारीख़ और सफ़ीनत-उल-औलिया में इस तरह के क़िस्से नहीं मिलते हैं। तारीख़-ए-फ़रिश्ता की ज़ियादा-तर ‘इबारत सियर-उल-आरिफ़ीन से मिलती है। मूनिस-उल-अरवाह का हवाला इतना मज़बूत नहीं मा’लूम होता। उनके कई हवाले तो अख़बार-उल-अख़यार से हैं, जबकि बा’ज़ जगह गुलज़ार-ए-अबरार ने भी इस तरह की करामत लिखी है और बाबा फ़रीद के तज़्किरे में उनसे मंसूब ग़लत करामात की निशान-देही भी की है। इक़्तिबास-उल-अनवार का हाल भी इसी तरह का है। जब हम इन कुतुब पर तारीख़ी नज़र डालते हैं और साल की क़ैद-ओ-बंद के साथ समझने की कोशिश करते हैं, तो तज़्किरे की ‘इबारत ख़ुद लेखक के साल की तारीख़ से नहीं मिलती है जैसा कि सियर-उल-आरिफ़ीन का ये दा’वा करना कि ख़िलाफ़त 52 बरस की ‘उम्र में मिली और 51 बरस की ‘उम्र में हिंदुस्तान आने का तज़्किरा है, तो क्या हिंदुस्तान आ कर फिर लौटे और ख़िलाफ़त हासिल की, यानी आप कई बार हिंदुस्तान आए? ये मुहाल है। इसी तरह सियर-उल-अक़्ताब और मिरात-उल–असरार में बड़ी सारी रिवायतें गुंजलक है, जो तहक़ीक़ तलब हैं। सियर-उल-अक़्ताब में तो बाज़ करामाती क़िस्से पर सवालिया निशान भी लगाए गए हैं।
अख़बार-उल-अख़यार पर जब नज़र पड़ती है तो ये अंदाज़ा होता है कि ख़्वाजा साहब के मल्फ़ूज़ात (प्रवचन) भी जमा किए गए हैं। इनका सन्दर्भ क्या है, इस का कोई ‘इल्म नहीं है।
बारहवीं सदी हिज्री में ख़्वाजा साहब पर दर्जनों छोटी-बड़ी किताबें लिखी गई हैं जिनमें क़िस्से और करिश्मे पुरानी किताबों से ज़ियादा उन किताबों में लिखी गई, जो मज़ीद तहक़ीक़ तलब हैं। चंद किताबों की फ़ेहरिस्त ये है।
शजरत-उल-अनवार (अली असग़र गीलानी)
मिरत-उस-सलातीन (ग़ुलाम हुसैन तबातबाई)
ख़ज़ीनत-उल-अस्फ़िया (मुफ़्ती ग़ुलाम सरवर लाहौरी)
अहसन-उस-सियर (मोहम्मद अकबर जहाँ शगुफ़्ता)
वक़ा-ए-शाह मुईनुद्दीन चिश्ती (फ़ारसी) (मुंशी बाबू लाल इलाहाबादी)
गुलशन-ए-चिश्त (मोहम्मद सिराजुद्दीन अहमद)
बड़ी सवानेह उमरी (मोहम्मद हफ़ीज़ुल्लाह साबरी)
अता-ए-ख़्वाजा (शैख़ रियाज़ुद्दीन)
मत्न-ए-अता-ए-ख़्वाजा (अब्दुल्लाह शाह चिश्ती)
तारीख़-ए-अजमेर शरीफ़ (मोहम्मद वज़ीर हुसैन)
मल्फ़ूज़-ए-मुतह्हिर (ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती पीर सलाम)
अता-ए-रसूल (अब्दुर्रहमान अरब)
तोहफ़त-उल-अबरार (मिर्ज़ा आफ़ताब बेग)
तज़्किरत-उल-मुईन (सय्यद ज़ैनुल आबिदीन)
रौज़त-उल-अक़्ताब (रौनक़ अली)
मनाक़िब-उल-हबीब (हाजी नज्मुद्दीन चिश्ती)
शहंशाह-ए-हिंद (हसनुज़्ज़माँ चिश्ती फ़ख़्री)
ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती (अब्दुल हलीम शरर)
सवानेह-उमरी ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती (सय्यद मोहम्मद इलयास रिज़वी)
सवानेह-उमरी ख़्वाजा ग़रीब नवाज़ (सीमाब अकबराबादी)
महताब-ए-अजमेर (मुफ़्ती इंतिज़ामुल्लाह शहाबी)
मुकम्मल सवानेह-उमरी ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती मआ-अजमेरी गाइड (मुफ़्ती इंतिज़ामुल्लाह शहाबी)
तारीख़-ए-ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती अजमेरी (मोईनुद्दीन चिश्ती)
कामिल सवानेह-उमरी ग़रीब नवाज़ (मलिक बशीर अहमद लाहौरी)
अजमेरी ख़्वाजा (मक़्बूल अहमद सिवहारवी)
हमारे ख़्वाजा (अब्दुल बारी मा’नी अजमेरी)
इसी तरह कुछ तहक़ीक़ी किताबें जो आपसी इख़्तिलाफ़ात पर लिखी गईं हैं, वो ये हैं-
मुईन-उल-अरवाह (इमामुद्दीन अली)
तहक़ीक़ात-ए-औलाद-ए-ख़्वाजा साहब (हाफ़िज़ हुसैन अजमेरी)
गुलदस्ता-ए-चिश्ती (मिस्बाहुद्दीन हक़्क़ी)
तारीख़-उल-सल्फ़ (अब्दुल बारी मानी अजमेरी)
कुछ और तहक़ीक़ी किताबें भी हैं, जैसे-
हज़रत ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती (सबाहुद्दीन अब्दुल रहमान)
सवानेह ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती (वहीद अहमद मसऊद)
कुछ पांडुलिपियाँ हैं, जिन का सिर्फ़ तज़्किरा मिलता है, जैसे-
तज़्किरा ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती (शाह अता हुसैन फ़ानी)
रहनुमा-ए-अजमेर शरीफ़ वग़ैरा।
इसी तरह कुछ मंज़ूम (पद्य) रिसाले भी हैं, जैसे-
ज़िक्र-ए-ख़्वाजा मआ करामात-ए-हारूनी (ज़ब्त अजमेरी)
तोहफ़ा-ए-चिश्त (अफ़्ज़ल बदायूनी)
अरमुग़ान-ए-चिश्ती (मोहर्रम अली चिश्ती)
फ़िराक़-ए-अजमेर (ज़ोर बदायूनी)
ये रिसाले कम पन्नों पर प्रकाशित होते थे। बा’ज़ तो ख़्वाजा साहब की शान में चंद मंक़बत कह कर उसे रिसाले की सूरत में मंजूम (पद्य) प्रकाशित करवाते। ये वो किताबें हैं, जिनमें ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती के हालात और करिश्मे अकबर के ज़माने की किताबों से भी ज़ियादा बढ़ा-चढ़ा कर लिखे गए हैं, पर इनका स्रोत मज़बूत नहीं है।
ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती एक महान सूफ़ी हुए हैं जिन की शिक्षाएँ 800 वर्ष गुजरने के बावुजूद भी प्रासंगिक हैं और उन से लाखों लोग फैज़ पाते हैं।
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