"है शहर-ए-बनारस की फ़ज़ा कितनी मुकर्रम"
तारीख़ की रौशनी में इस हक़ीक़त से कौन इंकार कर सकता है कि जिन मक़ासिद के लिए काएनात बनाई गई और अम्न ओ आश्ती, मोहब्बत ओ रवादारी की तालीम ओ तरबियत पूरी काएनात में ख़ुसूसन भारत में फैली और अख़लाक़ी क़दरों का पूरे मुआशरे में बोल बाला हुआ, वो एक ना-क़ाबिल-ए-फ़रामोश एहसान है। चीनी सय्याह इब्न-ए-बतूता ने अपने सफ़र-नामा में दुनिया के कई देशों का जाएज़ा लेने के बाद उसे सुनहरे अलफ़ाज़ में लिखा। तेरहवीं सदी हिज्री के शुरु में 22 दिन के यादगार सफ़र-ए-दिल्ली को “सैर ए दिल्ली” के नाम से हज़रत शाह अकबर दानापुरी (1843-1909)ने रोज़-नामचा की शक्ल में किताबी सूरत दी, जिसकी दूसरी इशाअत 2010 में दिल्ली यूनीवर्सिटी शोबा ए उर्दू के ज़ेर ए हतीमाम गोल्डन जुबली के मौक़ा पर अमल में आई । फ़क़ीर भी इसी रिवायत के पेश-ए-नज़र अपने मब्लग़-ए-इल्म के मुताबिक़ 7 शाबानुल-मुअज़्ज़म 3 मई 2017 ईस्वी ब-रोज़ बुध वक़्त-ए-सुब्ह,क़ब्ल नमाज़-ए-फ़ज्र ख़ानक़ाह सज्जादिया अबुल-उलाइया,शाह टोली, दानापुर से दानापुर रेलवे स्टेशन को रवाना हुआ। रेल-गाड़ी अपनी नज़ाकत को सामने रखते हुए क़दीम हालत पर तक़रीबन 2 घंटे की देरी से तीन नंबर पर आई। दीगर शहरों की सैर-ओ-सियाहत करते हुए 1:30 बजे दिन मुग़लसराय जंक्शन पहुंचा और सवारी की मदद से कजाकपुरा होते हुए “सिरीयाँ” हाज़िर हुआ। दहोपहर की तपिश अपने उरूज पर थी। अक्सर मदरसों में ता’तील-ए-कलाँ हो रही थी। और मैं ठहरा अकेला। जिस मंज़िल में क़याम था वो मंज़िल थी अकेली। चंद मिनट मस्जिद में आराम करने के बा’द मौलाना अमीर आज़म मिस्बाही की इसरार पर उनके दौलत-कदा पर हाज़िर हुआ। मुख़्तसर ख़ुर्द-ओ-नोश से फ़ारिग़ हो कर तक़रीबन 3:15 बजे मंज़िल में रहने की इजाज़त दी गई। सामान रखा।ठंडे हुए। एक साहिब फ़ातिहा कराने की ग़र्ज़ से तशरीफ़ लाए। बाद फ़ातिहा उनके शौक़ पर शीरीनी से एक दाने चखा। शब गुज़ारने के बाद 8 शाबान जुमअरात को मदरसा रशीदुल-उलूम के चंद असातिज़ा से मुलाक़ात हुई। वाज़ेह हो कि फ़क़ीर की इब्तिदाई तालीम इसी इल्मी गुल्शन में हुई है। यहाँ के जनाब सुल्तान साहिब जिनकी मुझ पर नज़र-ए-इनायत रहती है मुझसे ख़ंदा-पेशनी से अपने दफ़्तर में पेश आए।चंद लम्हे बाद हम मदरसा मदीनतुल-उलूम,जलाली पूरा हाज़िर हुए ।लौटते वक़्त हज़रत मख़दूम सय्यद ताजुद्दीन बुख़ारी के आस्ताना पर नेक ख़्वाहिशात के साथ हाज़िर हुए । ये इहाता काफ़ी वसीअ ओ अरीज़ है।गुंबद पुर-फ़ज़ा है।यहाँ औरतों और मर्दों की तादाद अन-गिनत रहती है।और करम मौला का कि सब उस क़लंदर की बारगाह से शिफ़ा-याब होते हैं। दीगर मज़ारात की ज़ियारत करके अपने दिल को चैन और रूह को तस्कीन बख़्शा। 1:30 बजे दिन में मदरसा मज़हरुल-उलूम,पीली कोठी आया। 5:00 बजे बनारस के अवाम-ओ-ख़्वास में मक़्बूलियत हासिल करने वाली जगह दाल की मंडी पहुँचा। वहाँ की सैर-ओ-सियाहत और हुस्न-ए-मुआशरत से ख़ुश हो कर मशहूर बाग़ ‘बनिया बाग़’ पहुँचा।यह बाग़ अपने हसीन-नज़ारे दिखला रहा था।वाक़िअतन न तो ये शहर बदला न ही यहाँ के लोग बदले।वही ख़ुलूस और वही अख़लाक़ का मुज़ाहरा। हाँ शायद मैं बदल गया हूँ। ब-क़ौल जनाब-ए-‘हफ़ीज़’ बनारसी कि –
है शहर-ए-बनारस का गदा कितना मुकर्रम
रहती है मदीने की गली आँखों में हर-दम
और फ़क़ीर जहाँ से आया है, वहां के बारे में शाह अकबर दानापुरी कह्ते हैं की
रहे शहर-ए-दानापुर आबाद-ओ-शाद
इलाही बर आए सभों की मुराद
ख़ैर आगे बढ़ा और ख़ानकाह-ए-हमीदिया रशीदिया,शकर तालाब पहुंचा। यहाँ के बुज़ुर्ग निस्बतन फ़ारूक़ी और तरीक़तन फ़रीदी हैं ।मेरी मुराद यही शहर-ए-बनारस है ।हज़रत शाह अ’ब्दुल-वहीद फ़ारूक़ी फ़रीदी के आबा-ओ-अज्दाद और आल-ओ-औलाद से ये बनारस इ’ल्मी-ओ-अदबी, सक़ाफ़ती-ओ-फ़न्नी ए’तिबार से मुम्ताज़-ओ-बे-मिसाल है। दरगाह और ख़ानक़ाह निहायत पुर-लुत्फ़ मंज़र दिखा रही है। यहाँ मैं ने फ़ातिहा पढ़ी और अपने दिल की दुनिया को आबाद-ओ-शाद किया ।शब में अपनी मंज़िल को हाज़िर हुआ और रात गुज़ारने के लिए आस्ताना-ए-हज़रत शहीद के छाओं में लब-ए-सड़क वाक़े’ बाला-ख़ाना को मुंतख़ब किया। आज की रात मेरे हम-राह हाफ़िज़ मौलवी मोहम्मद शाहिद रज़ा शम्सी ग़ाज़ीपुरी और मौलवी मोहम्मद अबसार आ’लम भी थे। आने वाला दिन जुमआ’ का था जिसकी फ़ज़ीलतें हदीस में वारिद हैं और जिसे हम हफ़्तों की ई’द कहते हैं। सुब्ह मुलाक़ात की ख़ातिर मौलाना मोहम्मद जहाँगीर आ’लम साहिब तशरीफ़ लाए और हम लोगों ने जुमआ’ की नमाज़ अदा की।बा’द नमाज़-ए-अ’स्र हम बनारस के दीगर शहरों की ब-निस्बत ज़्यादा मक़बूल और तारीकी में दिल-फ़रेब नज़्ज़ारे पेश करने वाली नीज़ दीगर मज़हब वाले लोगों के मुराद पूरी होने और ख़ूबसूरत क़ुम-क़ुमों से सजी इमारतों वाली जगह काशी पहुंचे। हालात का जाएज़ा लिया । तक़रीबन 7:00 बजे शब जब सूरज अपनी शुआ’ओं के साथ ख़ामोश हो रहा था दिलों में मिन्नतें लिए हुए दीगर मज़हब के अ’क़ीदत-मंद मौजूद थे।चंद मल्लाहों की तकरार और मसहूर कर देने वाली हवाएं ये मंज़र पेश कर रही थीं कि ये जगह अम्न और प्रेम का संगम है।मुझे अपने जद्द्ल-करीम शाह अकबर दानापुरी के दीवान का वो शे’र याद आ रहा है जो एक सदी पहले की तख़्लीक़ है-
अगर हिंदू मुस्लिम मेल कर लें
अभी घर अपना ये दौलत से भर लें
इलाही एक दिल हो जाएं दोनों
वज़ारत इंडिया की पाएं दोनों
शब में हमने मल्लाहों के ज़रिआ’ गंगा की सैर की । उन लोगों का ख़ुलूस देखा और यहाँ की ख़ुसूसियत उन लोगों से मा’लूम कीं। शब की नमाज़ के लिए सिरीयाँ में लब-ए-सड़क वाक़े’ निहायत पुर-फ़िज़ा और दिल-कश मस्जिद में गए। उस मस्जिद की एक सफ़ में तक़रीबन 25 मुक़्तदी नमाज़ अदा करते हैं।उस मस्जिद में तक़रीबन 19 सफ़ें हैं या’नी ब-यक-वक़्त 475 नमाज़ी सर ब-सुजूद होते हैं।अ’लावा अज़ीं तक़रीबन 60 नमाज़ी की जगह आसमान के शामियाना में रहती है।मस्जिद के सद्र दरवाज़ा से मुत्तसिल दो बुज़ुर्ग शैख़ और मुरीद के मज़ार मौजूद हैं जिनका साल में एक-बार फ़ातिहा बड़े-बड़े धूम धाम से होता है। फ़िल-वक़्त ये मस्जिद रंग-ए-नूर से मा’मूर है। ज़मीन क़ीमती फ़र्श से मुज़य्यन है।मैं उस मस्जिद नमाज़ अदा करने को हाज़िर हुआ। दाख़िल होते ही ऐसा लगा कि मैं लोगों का मंज़ूर-ए-नज़र बन गया। सबकी निगाह ब-यक-वक़्त फ़क़ीर पर थी। नमाज़ पढ़ाने की दा’वत दी गई लेकिन बेचारा कम-तरीन और ज़लील-तरीन क्या करे। सफ़र की वज्ह कर मा’ज़रत की और पीछे नमाज़ अदा की। 9 शा’बान हफ़्ता बख़ैर-ओ-आ’फ़ियत गुज़ारने के बा’द इत्वार को चंद लोगों से मुलाक़ात हुई।पीर को आख़िर कुछ लोग मेरी ख़ानक़ाही कुलाह को देखकर मुतहय्यर थे और पूछ ही डाला। मैंने उन्हें इसकी अहमियत-ओ-इफ़ादियत अपने मब्लग़-ए-इ’ल्म के मुताबिक़ बताई।पीर की शब आस्ताना-ए-हज़रत शहीद के गिर्द-ओ-नवाह था कि एक साहिब ने तलाक़ का मस्अला छेड़ दिया और बह्स-ओ-मुबाहसा का सिलसिला काफ़ी तवील हुआ।मैं ने बनारस के लाल जी का ज़र्दा और चुना से बना पान खाया और फिर ये कहने पर मजबूर हो गया ब-क़ौल अंजन जी कि-
खई के पान बनारस वाला
खुल जाए बंद अ’क़ल का ताला
9 मई बरोज़ मंगल सुब्ह 4:30 बजे हवाओं की बे-रुख़ी, मौसम की बे-नियाज़ी और बिजली की कड़क अपने उ’रूज पर थी।सारा शहर हैरत-ज़दा हो कर नीले आसमानों को देख रहा था। फिर क्या था, उसको रोकने के लिए ब-बारगाह-ए-रब्बुल-इज़्ज़त हर मस्जिद से फ़ज्र की अज़ान की सदाएँ बुलंद होने लगीं।मोबाइल से मा’लूम हुआ कि यही तूफ़ान-ए-बद-तमीज़ी हमारे शहर पटना में भी मुँह मारने की कोशिश कर रहा है। अब हम लोग बौधों की क़दीम जगह या’नी सारनाथ’ के क़रीब थे।यहाँ के लोग बताते हैं कि गौतम बुद्ध जो तक़रीबन 2500 सौ साल पहले या’नी क़ब्ल-ए-ई’सा अलैहिस्सलाम नेपाल में पैदा हुए थे अपने पिता हर्षवर्धन से ता’लीम मुकम्मल करके सारनाथ में अपने चंद शागिर्दों को यहीं ता’लीम दी थी जिसकी रमक़ आज भी बाक़ी है और फिर ता-ज़िंदगी उन्हों ने अपनी उ’म्र गया में गुज़ारी।
बा’द नमाज़-ए-मग़रिब हम बनारस की मशहूर और बा-फ़ैज़-ओ-बा-मुराद और मुक़द्दस बारगाह हज़रत मौलाना शाह मोहम्मद वारिस रसूल-नुमा क़ादरी बनारसी (मुतवफ़्फ़ा 1167 हिज्री) हाज़िर हुए ।बारगाह-ए-नाज़नीं में सलाम पढ़ने का शौक़ हुआ। “या-अय्युहल-लज़ीन-आमनुत्तक़ुल्लाह वब्तग़ू इलैहि वसीला” के तहत दुआ’एं माँगी ।ये वो बुज़ुर्ग-ए-आ’ली-मर्तबत हैं जिनकी कश्फ़-ओ-करामत ख़्वास-ओ-आ’म में मशहूर है। हमें ये महसूस हो रहा था कि हम जन्नत की हसीन क्यारी में बैठे हैं-
महसूस यूँ हुआ कि हम जन्नत में आ गए
कैसी है देखो आज फ़ज़ा कुछ न पूछिए
आस्ताना काफ़ी बड़े इहाते में और बुलंदी पर वाक़े’ है। आपके मज़ार के मुत्तसिल आपके साहिब-ज़ादे सय्यद शाह वली अहमद मियाँ पैदाइशी वली का मज़ार है।लोगों का हुजूम हमेशा रहता है। बग़ल में ज़ाइरीन के आराम करने की जगह और मस्जिद भी पुर-फ़िज़ा है। इनके अ’लावा दीगर मज़ारात इस सिलसिले के मौजूद हैं। मज़ार के मुत्तसिल संग-ए-मरमर की तख़्ती लगी हुई है जिसमें मौलाना बनारसी के मुकम्मल हालात मुख़्तसर मगर जामे’ तहरीर हैं ।आपके विसाल की तारीख़ इस शे’र से बरामद होती है जो हज़रत सय्यद शाह अबुल-हसन फ़र्द फुल्वारवी ने निकाली है:-
आँ सय्यद-ओ-वारिस रसूल-नुमा अ’रबी
अज़ साल-ए-विलादतश अगर मी-तलबी
ला-रैब ख़लीफ़ा-ए-रसूलुल्लाह अस्त
तारीख़-ए-विसाल-ए-ऊ बा-ज़ात-ए-नबी
1167 हिज्री
तकमील-ए-इ’मारत-ए-बारा-दरी गुबंद आस्ताना-ए-मौलाना बनारसी अज़ जनाब हकीम सय्यद मोहम्मद यूसुफ़ फ़ुल्वारवी कि-
बुलंदी पे है जो मज़ार-ए-मुबारक
ये मौलाना वारिस का है आस्ताना
लिखो उसकी तक्मील का साल यूसुफ़
नज़ीर-ए-हरम हो गया आस्ताना
1967 ई’स्वी
आस्ताना-ए-मुनव्वरा मोहब्बत भरी अंजुमन, नाज़िश-ए-बाग़-ओ-बिहार लिए हुए रूह को ईमान की लताफ़त बख़्श रहा था ।यही वो बुज़ुर्ग हस्ती हैं जो हमारे ताजुल-आ’रिफ़ीन हज़रत मख़दूम शाह पीर मोहम्मद मुजीबुल्लाह क़ादरी फुल्वारवी ( मुतवफ़्फ़ा 1195 हिज्री )को मारिफ़त का जाम पिलाया और ऐसा पिलाया कि जाम की दमक-ओ-रमक़ से आज फुल्वारी शरीफ महक रहा है। वाज़ेह हो कि यहाँ हज़रत मौलाना बनारसी, हज़रत ताजुद्दीन बुख़ारी, हज़रत अ’ब्दुल-वहीद फ़ारूक़ी, हज़रत कौसर अ’ली बनारसी की आ’ली-शान दरगाहों के अ’लावा हर मोहल्ले में हज़रत शहीद बाबा के नाम से कई बुज़ुर्ग तशरीफ़ रखते हैं जिनके दुआ’ओं से ये शहर-ए-बनारस महफ़ूज़ है। मसाजिद की ता’दाद बहुत है। चंद के नाम ये हैं।दहरौरा मस्जिद, ज्ञान वापी मस्जिद, गंज-ए-शहीदाँ मस्जिद, डाहाई कंगूरा मस्जिद, लाड शाही मस्जिद और बी-बी रज़िया की मस्जिद वग़ैरा जो अपनी एक अलग तारीख़ी हैसियत रखती है। मस्जिद की तरह मदरसों की ता’दाद भी बे-शुमार है। चंद इ’ल्मी दरस-गाहें ये हैं। जामिआ’ फ़ारूक़िया, जामिआ’ हमीदिया रिज़्विया,जामिआ सलफ़िया,जामिआ’ हनफ़िया गौसिया,मदरसा हमीदिया रशीदिया,मदरसा मजीदिया ,ख़ानम जानम, मदीनतुल-उ’लूम, रशीदुल-उलूम,मत्लउल-उलूम, ज़ियाउल-उलूम और बहरुल-उलूम वग़ैरा।यहाँ से बयक-वक़्त निकलने वाला इल्मी-ओ-अदबी रिसाला अस्सौतुल-उम्मा और अल-हदीस हैं ।फ़ी ज़माना-ए-जदीद रिसाला ब-नाम मज़हबी आवाज़ वग़ैरा इ’ल्मी-ओ-अदबी दुनिया में अपनी शनाख़्त रखता है। मज़हबी जल्से रोज़ होते हैं और मुशाइ’रे ख़ूब होते हैं जिसमें कलाम की अहमियत कम और आवाज़ की क़द्र कहीं ज़्यादा होती है ।तफ़रीक़ ख़ूब है। नज़रियात मुख़्तलिफ़ हैं। कुछ कमियाँ हैं जो दूर होनी चाहिए। कुछ ख़ुसूसियात हैं जो सीखनी चाहिए। चाय और पान की तिजारत और साड़ी की बनावट मशहूर है। ज़बान-ओ-बयान में अल्फ़ाज़ की बे-तमीज़ी ख़ूब झलकती है। गुफ़्त-ओ-शुनीद का तरीक़ा ना-मुकम्मल है। सफ़ेद लिबास मिस्ल सफ़ेद लुंगी और सफ़ेद शर्ट ज़ेब-तन कर के पान खाना यहाँ की ख़ुसूसियत है। यहाँ के लोग रात को काम और दिन को आराम करते हैं। घरों की ज़ीनत चंद जगह मिलती है वरना ना-मुकम्मल है । छत हमेशा यहाँ पत्थर और लोहे से ता’मीर होती है। उर्दू का रिवाज बहुत कम है। यहाँ कुछ क़ादरी हैं तो कुछ वारसी हैं और कुछ चिश्ती हैं तो कुछ अबुल-उ’लाई हैं। और जो बचे वो ग़ैर-नज़रियाती हैं। इस शहर में दो नदी मशहूर है।पहली राजघाट नदी है जो इलाहाबाद संगम से होती हुई आगरा के जमुना में मिलती है, और दूसरी पच-कोसी नदी है जो पुराने पुल से मिल कर घोसी मठ की तरफ़ जाटी है। वाज़ेह हो कि बनारस का दूसरा और अस्ल नाम वाराणसी है। बा’ज़ तारीख़-दाँ लिखते हैं कि ई’सा अलैहिस्सलाम के मुक़ाबिल बनारस के एक जादू-गर ने अपनी जादूगरी की सलाहियत दिखाई थी ।इसलिए हम इसके क़दामत के क़ाएल हैं। 10 मई ब-रोज़-ए-बुद्ध 14 शा’बानुल-ममुअज़्ज़म 1438 हिज्री अपने 8 आठ दिन के फ़ुर्सत से फ़ारिग़ हो कर फ़ौरन मुग़लसराय के लिए रवाना हुआ और 7:13 बजे “विभूती एक्सप्रेस” अपनी क़दीम रिवायत के मुताबिक़ आई। उस्ताज़-ए-मुकर्रम मौलाना महबूब अहमद अ’ल-क़ादरी की ग़ैर-मौजूदगी में, मौलवी मोहम्मद रिज़वान अहमद आरवी के हमराह निकल पड़ा ।शब में तक़रीबन 1:25 बजे अपने ग़रीब-ख़ाना पर हाज़िर हुआ और सफ़र-नामा हाज़ा को दुरुस्त कर के आपके लिए रवाना किया।
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.