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दक्खिनी हिन्दी के सूरदास-सैयद मीरां हाशमी- डॉ. रहमतउल्लाह

सम्मेलन पत्रिका

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    ब्रजभाषा के महाकवि सूरदास के अतिरिक्त दक्खिनी हिन्दी में भी एक सूरदास हो चुका है जिसका नाम सैयद मीरां हाशमी बताया जाता है और जो दक्षिण भारत के आदिलशाही राज्यकाल का प्रसिद्ध कवि था। दक्खिनी हिन्दी का अधिकांश साहित्य इसी राज परिवार के संरक्षण में लिखा गया था। सन् 1685 ई. में मुगल सम्राट् औरंगजेब ने इसको मुगल साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया और तभी से आदिलशाही शासन का अन्त हो गया। हाशिम को अली आदिल शाह एवं सिकन्दर आदिलशाह का बीजापुर में और अराकाट में मुगल सूबेदार जुल्फेकार खाँ का संरक्षण प्राप्त हुआ था। अतः गंभीर राजनीतिक वातावरण और उथल-पुथल के कारण शांतिपूर्वक काव्य-सर्जना का अवसर नहीं मिल सका। फिर भी उसने अपनी काव्य प्रतिभा एवं प्रोत्साहन के कारण महत्वपूर्ण काव्य की रचना की।

    अस्तव्यस्त राजनीतिक परिस्थितियों के कारण अधिकांश दक्खिनी हिन्दी का साहित्य विनष्ट हो गया था, जिसके तत्कालीन साहित्य और साहित्यकारों पर विशेष प्रकाश नहीं पड़ पाता। इसी कारण अन्य प्राचीन कवियों की भाँति हाशमी का जीवन भी अन्धकारमय हैं। उनके नाम, जन्म और मृत्यु आदि के सम्बन्ध में संदेह किया जाता है। इसके लिए अन्तर्साक्ष्य एवं अनुमान का सहारा लिया जाता है।

    कवि का वास्तविक नाम- दक्षिण के प्रसिद्ध लेखक श्री इब्राहीम जुबेरी ने अपनी रचना बसातीन सलातीन में और खाकी खाँ ने उनके असली नाम का उल्लेख नहीं किया है। इन विद्वानों ने केवल हाशमी उपनाम का विवरण दिया है। सर्वप्रथम हकीम शमसुल्लाह कादरी साहब ने हाशमी का नाम सैयद मीरां लिखा है। किन्तु लेखक ने जिन पुस्तकों का प्रमाण दिया है, उनमें किसी में भी इसका उल्लेख नहीं है। परवर्ती सभी लेखकों ने इन्हीं का अनुसरण किया है। तत्कालीन तथा आधुनिक परिचय ग्रंथों में भी इसी नाम का समर्थन किया गया है। सन् 1944 ई. में प्रकाशित हिन्दुस्तानी अदब में इनका नाम मियां काँ लिखा हुआ है और उनके मतभेदों का उल्लेख किया गया है। मौलवी सैयद महमूद ने भी इसी नाम का उल्लेख किया है।

    मेंहदवी सम्प्रदाय की बहुत सी कहावतों में हाशमी के सम्बन्ध में अनेक नई बातों का उल्लेख हैं। इनमें इनका नाम सैयद मीरां बताया गया है। उनकी पदवी मियां काँ थी। तारीख सुलेमानी में भी इनका नाम मियां खाँ हाशमी लिखा हुआ है। इसी आधार पर हिन्दुस्तानी अदब में इस नाम का प्रयोग किया गया है। वास्तव में हाशमी ने सैयद थे और पठान। ये सभी उनकी उपाधियाँ थीं। स्वतंत्र रूप से सभी नाम अपूर्ण कहे जा सकते हैं। मेंहदी सम्प्रदाय के लोगों के नाम के साथ प्रायः इसी प्रकार की उपाधियाँ प्रयुक्त होती हैं। श्री सखावत मिर्ज़ा साहब ने इनका नाम सैयद मीरां हाशमी स्वीकार किया है। दक्खिनमें इस परकार का नाम रखने की सामान्य प्रथा थी। मेंहदवी लोग मूल नाम के साथ उर्फ भी लगाया करते थे। इस सम्प्रदाय के लोग इनका नाम मियां खाँ हाशमी ही पुकारते हैं। कुछ लोगों ने इनको मुल्ला हाशमी ही लिखा है। किन्तु इसका आधार प्रस्तुत नहीं किया गया है। किसी अन्य ने इसका उल्लेख नहीं किया है।

    उनका उपनाम हाशमी था। यह नाम उन्होंने अपने पीर की यादगार में रखा था। उनके पीर का नाम सैयद शाह हाशिम था जो बीजापुर के बहुत बड़े सूफी वली और गुजरात के प्रसिद्ध सूफी औलिया शाह वजीहुद्दीन हाशमी के भतीजे थे जिनका अन्तकाल 1682 ई. में हुआ था इसी मुर्शिद की कृपा तथा पैतृकदाय के रूप में ही उनको काव्य कौशल प्राप्त था।

    जन्म तथा मृत्यु तिथियाँ--- उनकी जन्म-तिथि अभी तक अज्ञात है। इसका कहीं उल्लेख नहीं किया गया है। इसी प्रकार मृत्यु के सम्बन्ध में भी संदेह किया जाता है। अधिकांश आलोचकों ने इनकी मृत्यु सन् 1697 ई. में स्वीकार किया है। तज़किरा शोराए दकन में इनकी मृत्यु-तिथि 1776 ई. अंकित है। यह तिथि भ्रम से लिखी गई मालूम पड़ती है। यह वास्तव में 1697 ई. ही हो सकता है। कवि ने अपने काव्य में पुस्तक का रचना काल 1687 ई. अंकित किया है। ऐसी स्थिति में मृत्यु 1676 ई. में होना असम्भव है। ऐसी सम्भावना है कि मसनवी समाप्त करने के दस वर्ष बाद कवि जीवित था। अतः उनकी मृत्यु-तिथि सन् 1697 ई. ही हो सकती है। बुजुर्गान के लेखक के अनुसार भी यही तिथि सत्य है। श्री नसीरुद्दीन हाशमी, डॉ. सैयद एजाज हुसेन आदि को इस तिथि में संदेह हैं। मसनवी के अध्ययन के स्पष्ट होता है कि यह उनके जीवन के अंतिम काल में समाप्त हुई थी। उसने दीर्घकालीन जीवन व्यतीत किया था। अतः मसनवी के दस वर्ष बाद तक जीवित रनहा आश्चर्य की बात नहीं है। इस प्रकार इनकी मृत्यु-तिथि 1697 ई. में मानी जा सकती है। अनवार सुहेली में इब्राहीम जुबेरी ने भी इसका समर्थन किया है।

    निवास स्थान- इस सम्बन्ध में भी मतभेद पाया जाता है। सखावत मिर्जा ने इनको बुरहानपुर का निवासी बताया है। वहीं से वह गुजरात गया था और बाद में बीजापुर गया था। इसी कारण वे गुजराती रीतिरिवाजों से भली प्रकार परिचित थे। जीवन के अन्त में बुरहानपुर गए थे। यह बात उनके एक कसीदे से भी सिद्ध है। इसमें उसने नवाब जुल्फेकार खाँ का संरक्षित बताया है। मिर्जा साहब की सम्मति का क़तील साहब ने विरोध किया है। गुजरात राज्य के अहमदाबाद और सूरत आदि मेंहदवी सम्प्रदाय की दृष्टि से महत्वपूर्ण माने जाते हैं। अतः इन स्थानों के महत्व से प्रभावित होकर वे बीजापुर से गुजरात भी जा सकते हैं, क्योंकि मेंहदी लोगों का गुजरात से आध्यात्मिक सम्बन्ध रहता है। अधिकांश लोगों ने उनको बीजापुर का ही निवासी बताया है। बुरहानपुर निवास होने का कोई लिखित प्रमाण नहीं मिलता। हाशमी के परवर्ती पीढ़ी के लोग दक्षिण के नन्दगाँव पीठ, अमरावती, बरार और हैदराबाद में अब भी निवास करते हैं। तारीख सुलेमानी की सहायता से क़तील साहब ने इसका विस्तार से परिचय दिया है और इनके लम्बे तथा सुखी सम्पन्न परिवार का विवरण दिया है। हाशमी की समाधि बीजापुर में उनके पीर के कक्ष में है।

    हाशमी का धर्म- हाशमी के धर्म एवं सम्प्रदाय के सम्बन्ध में भी मतभेद पाया जाता है। बीजापुर और गोलकुंडा के शासक शिया थे। उनके संरक्षण में रहने के कारण उनके स्वयं शिया होने की सम्भावना की जाती है। किन्तु वह सूफी औलिया सैयद शाह हाशिम का मुरीद था। अतः उसे सूफी भी माना जाता है। हाशमी ने अपने पीर को भी मेंहदवी बताया है। जीवन के अंतिम दिनों में मुग़ल सूबेदार जुल्फेकार खाँ के संरक्षण में रहने के कारण उसके सुन्नी मुसलमान होने की आशा की जाती है।

    स्वयं हाशमी ने अपना धर्म मेंहदवी बताया है। कुछ दिन पूर्व जौनपुर के सैयद मोहम्मद नामक व्यक्ति ने अपने को पैग़म्बरी का दावा किया था और मेंहदवी नाम से एक नया धर्म चलाया था। किन्तु उसको विशेष लोकप्रियता नहीं मिली। इसके मानने वाले दक्षिण भारत में अब भी पाए जाते हैं। हैदराबाद में कुछ मुहल्ले ऐसे हैं जहाँ इसी सम्प्रदाय के लोग रहते हैं। पालनपुर के नवाब मेंहदवी ही थे। आज भी मेंहदवी साहित्य में सैयद मोहम्मद जौनपुरी की घटनाएँ और जीवन सुरक्षित है। वे हिन्दी और गुजराती में कविता करते थे। हाशमी भी इसी धर्म में आस्था रखते थे। निज़ामी बदायूनी ने इनको शेख़ अहमद फारूकी उर्फ शेख़ अहमद सरहिन्दी का मुरीद बताया है। अन्यत्र इसका उल्लेख नहीं मिलता। प्रेमाख्यान युसुफ-जुलेखा के आरम्भ में हजरत मोहम्मद साहब की प्रशंसा के बाद मेंहदवी सम्प्रदाय के प्रवर्तक सैयद मोहम्मद जौनपुरी का विस्तार से वर्णन करते हुए उनके महत्व पर प्रकाश डाला गया है। कवि कहता है----

    यूं खातिम वली रब ने पैदा किया-औलिया में तो सारी बड़ाई दिया।

    यूं मेंहदी सब है पैग़म्बर की शान- यू माबूद रब का वही है निशान।

    निशानियाँ सो अकलाक वही चाल है-कि सूरत वही हौर वही हाल है।

    निशानियाँ तो फीतियाँ अछी इसमें सब-यू सैयद मोहम्मद है जिसका लक़ब।

    नयी हौर मेंहदी कूं एक पचान-यू एक जात दो रकम आया है जान।

    फर्ज़ जिसकी तसदीक है करके जान-यकी कुफ्र इंकार है इसको मान।

    नयी सू रहिया है जिने नक पकर-रहा है वहाँ सख्स मेंहदी सू कर।

    जो कोई सख्स लाया नबी पर ईमान-रह नेच मोमिन हो मेंहदी कूं मान।

    करम करके मेंहदी ऊपर नित सदा-फिकर हौर सलवान दिया है खुदा।

    यूं मेंहदी खलीफा है रहमान का-बयां जिन किया जग पो फुरकान का।

    जमी और जमा का करे यूं नदा-है मेंहदी का खासा दिखाना खुदा।

    तू आया है मेंहदी इस काम कूँ-दिखाया खुदा खास हौर आया कूँ।

    कवि की उक्ति से उसके धर्म के संबंध में संदेह नहीं रह जाता।

    कृतित्व- हाशमी जन्मान्ध कवि था। इसका संकेत प्रायः सभी सभी चरित लेखकों ने किया है। अन्तर्साक्ष्य से भी स्पष्ट हो जाता है। पीर द्वारा यूसुफ जुलेखा की रचना का आदेश दिए जाने पर हाशमी ने अपनी अमसर्थता व्यक्त की क्योंकि इसके पास आँखें नहीं थी। उन्होंने कहा है------

    सकल इल्म के फन सूँ मैं दूर हूँ-यूं दोनों अखियाँ तुज सो माजूर हूँ।

    शेर बोलना कुच भी पड़ना पड़े-सुधर है जो क्या हथ के माँदे पड़े।

    मेरे हाथ में कुछ भी होता कलम-न ऐसे दिखाता मैं आलम सूँ कम।

    वले क्या करूँ मुजमूँ है ला इलाज-हर एक कोई आज़िज़ है अखियाबाज।

    मशक्कत पर मेरी देखो टुक एक-बोलू बीस बतिया तो रहे याद एक।

    उक्त कथन से स्पष्ट होता है कि हाशमी की दोनों आँखें नहीं थीं किन्तु उनको दिव्यदृष्टि प्राप्त थी। इसीका उल्लेख पीर साहब ने किया है-

    दिया शाह हाशिम बुझे किर जवाब-यकीं है मुझे तू जो बोले किताब।

    नज़र जिसकी जलती हैं हर ठार पर-इसे क्यों कहता अखियाँ माजूर कर।

    दुख्त म्यां तेरा कहे जग सो सब, हज़ार एक अखियाँ दिया दिल को रब।

    हुई है तेरी बातनी में नज़र को उस आँखों का तू अफसोस कर।

    अंखियां वे जो खुदा को ले पचान-अखियां वे जो खूबी को देखे निशान।

    दक्खिनी हिन्दी का यह सूरदास एक प्रतिभासम्पन्न कवि था। और इसने दीर्घकालीन जीवन व्यतीत किया था। उसने विभिन्न राज परिवारों की सहानुभूति और संरक्षता प्राप्त किया था। सभी की प्रशंसा में कुछ कुछ लिखा था। कविताएँ बड़ी सुन्दर और सीधी-सादी थी। प्रारंभिक दक्खिनी हिन्दी कविता में उसके साहित्य का महत्वपूर्ण स्थान है। आज भी उसकी कविताएँ इधर-उधर बिखरी पड़ी है। उसका प्रसिद्ध प्रेमाख्यान यूसुफ-जुलेखा है। जिसकी हस्तलिखित प्रतियाँ भारत तथा यूरोप के विविध पुस्तकालयों में विद्यमान है। इससे कवि की लोकप्रियता का पता चल जाता है।

    डॉ. सैयद मोहीउद्दीन क़ादरी के अनुसार हाशमी की रचनाएँ निम्नलिखित है-----

    (1) तरजुमा अहसनुल क़सस- पीरज़ादा गुलाम मुहीउद्दीन ने व्यक्त किया है कि उसने अहसनुल क़सस का अनुवाद करके अपनी विद्वता का परिचय दिया था। बसातीन के लेखक ने भी इसका उल्लेख किया है किन्तु पुस्तक का नाम रोज़्ता अशहदार लिखा है जो आज उपलब्ध नहीं है। वास्तव में उक्त दोनों एक ही रचनाएँ हैं। ये दोनों मसनवी युसूफ-जुलेखा का ही दूसरा नाम है। गुलाम मोहम्मद खाँ भी इसका विरोध करते हैं और अन्य रचनाओं को मानते हैं। स्वयं हाशमी ने कहा है-----

    रखा अहसनुल किस्सा रब जिसका नाम-तुजे खोलकर बोलिया तमाम।

    तथा-कहा अहसनुल क़सस जिसको खुदा-कता हूँ उसका तुजे इब्तदा।

    इस प्रकार कवि ने उक्त रचना की यूसुफ-जुलेखा ही माना है।

    (2) ग़ज़ल का दीवान- डॉ. मोहीउद्दीन कादरी ज़ोर तथा बसातीन के लेखक ने इसका उल्लेख किया है। ये लोकप्रिय कविताएँ थीं। इसमें क़सीदा और ग़ज़ल के अतिरिक्त क़ता, रूबाइयाँ और कुछ मरसिया भी संग्रहीत हैं। यह बहुत दिनों तक अप्राप्य था किन्तु दीवान हाशमी के नाम से डॉ. हफ़ीज़ क़तील द्वारा सम्पादित होकर हैदराबाद से प्रकाशित हो गया है।

    (3) मरसियाँ- हाशमी बीज़ापुरी के प्रारंभिक मरसिया लेखक बताया गया है किन्तु इसका कहीं उल्लेख नहीं मिलता। हाशिम अली नाम से दूसरा मरसिया लेखक हुआ है जो हाशमी से भिन्न है। हाशमी की कुछ मरसिया रचनाएँ दीवान में ही संकलित है।

    (4) रेख्ती कविताएँ- हाशमी को दक्खिनी कवियों में रेख्ती कविता का जनक बताया जाता है। किन्त रेख्ती कविता का कोई स्वतंत्र संग्रह प्राप्त नहीं होता। सैयद एहतेशान हुसेन इनको रेख्ती जन्मदाता नहीं मानते।

    (5) यूसुफ-जुलेखा- यह हाशमी का प्रसिद्ध प्रेमाख्यान है। युसुफ-जुलेखा के सर्वोत्तम आख्यान को दक्खिनी हिन्दी में सबसे पहले हाशमी ने ही पद्यबद्ध किया था। वह दक्खिनी हिन्दी का लोकप्रिय काव्य है। इसकी हस्तलिखित प्रतियाँ दक्षिण भारत तथा यूरोप के विभिन्न पुस्तकालयों में विद्यमान है। इससे इसकी लोकप्रियता का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। सालार जंग संग्रहालय हैदराबाद में दो प्रतियाँ, स्टेट सेन्ट्रल लाइब्रेरी हैदराबाद, उस्मानिया विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में बहुमूल्य प्रतियाँ आज भी सुरक्षित है। सैयद शमसुल्लाह कादरी के अनुसार जर्मनी की ओरियंटल लाइब्रेरी में इसकी दो हस्तलिखित प्रतियाँ विद्यमान है। अभी तक इसका सम्पादन नहीं हो सका है और प्रकाशित ही हो सकी है।

    इसकी रचना सन् 1687 ई. में हुई थी। रचना के अन्त में कवि ने कहा है कि इसकी रचना 1099हिजरी में हुई थी।

    मुरत्तब किया मैं यूं किस्सा कूँ तो-हज़ार बरस पर जो थे नौवत पो नौ।

    यह एक विशालकाय काव्य है। शेरों की संख्या में भी मतभेद है किन्तु कवि ने उनकी संख्या 5107 बताई हैं-----

    अगर कोई पत्तों का पूछे सुमार-एक सद ऐसे सात हैं पंज हज़ार।

    काव्य के प्रणयन की प्रेरणा अपने मुर्शिद से प्राप्त की थी। उन्हीं की आज्ञा पर इसकी रचना की थी। उन्होंने शुद्ध दकनी में इसकी रचना करने का आदेश दिया था---

    तेरे शेर दकनी का है जग में नाव-नको भोत कर दूसरी बोली मिलाव।

    अव्वल कस्द कर दकनी बोली उपर-मुझे यूँ हाशिम कहा सर बसर।

    दिया शाह हाशिम को मैं यूं जवाब-मुझे कां सकत है जो बोलूं किताब।

    इसका आधार कोई फारसी प्रेमाख्यान है। अन्त में पाठक को मंगल सूचना देते हुए इसे दिल से पढ़ने का सुझाव दिया गया है----

    मेरा शेर जिव रख सुनेगा जने-मेरे हक़ पर ईमान मगेगा उने।

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