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संतों के लोकगीत- डॉ. त्रिलोकी नारायण दीक्षित, एम.ए., पी-एच.डी.

सम्मेलन पत्रिका

संतों के लोकगीत- डॉ. त्रिलोकी नारायण दीक्षित, एम.ए., पी-एच.डी.

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    सन्त साहित्य के विद्वान डॉ. दीक्षित लखनऊ विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के व्याख्याता है। आपने इस लेख में सन्तों के लोकगीतों पर विवेचना करते हुए उनका एक संक्षिप्त परिचायत्मक इतिहास प्रस्तुत किया है। -संपादक

    लोकगीत के वर्ण्य विषय अव्यक्तिक व्यापक और विस्तृत है। इनका विस्तार जन्म से लेकर मृत्यु तक सभी संस्करों, विशेष घटनाओं एवं अवसरों, किंतु परिवर्तनों, समस्त रसों और समस्त जातियों में प्राप्त होता है। इस दृष्टिकोण से लोक गीतों का वर्ण्य-विषय निम्नलिखित वर्गों में विभाजित किया जा सकता हैः----

    (क) संस्कारों की दृष्टि से वर्गीकरण- पुतर् जन्म के गीत, मुंडन के गीत, जनेऊ, विवाह, द्विरागमन, नामकरण, कन्यादान, कन्या विदा के गीत, श्मशान यात्रा के गीत।

    (ख) ऋतु-सम्बन्धी गीत- कजली, फाग, होली, सती बारहमासा।

    (ग) व्रत-सम्बन्धी गीत- शीतला माता के गीत, नाग पंचमी के गीत, बहुरा, गोधन षष्ठी व्रत के गीत, षीटिया के गीत, तीज के गीत।

    (घ) जाति-सम्बन्धी गीत- अहीरो के गीत, चमारो के गीत, कहारो के गीत, तेलियों के गीत, गडरियों के गीत, जुलाहो तथा धोबियों के गीत, कुर्मियों के गीत पुनखुनियों के गीत, गोडो के गीत, दुसाधो के गीत।

    (ड) विविध गीत- जातसार, नामकरण, जात पीसने, रोपनी सोहनी के गीत, झूमर, अलचारी, पूरबी, खेल के गीत।

    इन विविध विषयों के अतिरिक्त सामाजिक जीवन से सम्बन्धित, पारिवारिक जीवन-विषयक चित्र बड़े व्यापक रूप में लोकगीतों में अभिव्यक्त हुए है। लोकगीतों के सम्यक् अध्ययन से देश के राजनीतिक तथा आर्थिक जीवन का भी अच्छा परिचय प्राप्त होता है। लोकगीतों में जनता की धार्मिक भावनाओं एवं सामान्य विश्वासों की अभिव्यक्ति भी पायी जाती है। परन्तु लोकगीतों में धर्म एवं ज्ञान की इन बातों का बाहुल्य नहीं पाया जाता है। धार्मिक एवं ज्ञान-विषयक लोकगीतों के वर्ण्य विषय को पुनः हम दो भागो में विभाजित कर सकते है। प्रथम है सगुणोपासना-सम्बन्धी और द्वितीय है निर्गुणोपासना-सम्बन्धी गीत। सगुण गीतों में शिव, पार्वती, सूर्य, शीतला, गंगा, कृष्ण, तुलसी, दुर्गावती, राम तथा विष्णु आदि देवताओं की महिमा और सर्वशक्ति-सम्पन्नता का गान होता है। निर्गुण लोकगीतों में गोरखनाथ, मत्स्येन्द्र नाथ, कबीर, रैदास तथा भरथरी (भर्तृहरि) के गीत बहुत अधिक लोकप्रिय तथा व्यापक है। इनके गीत गाँवो, मेलो और संगतों में गाये जाते हुए सुनाई पड़ते है। इन कवियों के अतिरिक्त सुन्दरदास, मलूकदास, चरनदास, दरिया साहब, सहजो, दयाबाई आदि संतों के लोकगीत भी विभिन्न क्षेत्रों में बड़े जनप्रिय है। सुन्दरदास के गीत राजस्थान, मलूकदास के गीत प्रयाग जिला, चरनदास के अलवर प्रान्त, दरिया साहब के बिहार प्रान्त में अधिक सुन पड़ते है। विभिन्न संतों की गद्दियों अथवा समाधिस्थलों पर संतों की संगतो में प्राय सभी संत कवियों के गीत गाये जाते है। सामान्य जनता की निम्न जातियों जिनमे कोरी, चमार, खुनखुनियां, धोबी तथा अहीरो में कबीर, भरथरी और रैदास के गीत बहुत अधिक समादृत होते है। इन कवियों के गीतो में श्रद्धा, भक्ति और सद्भावना का प्रसार करने की अद्भुत शक्ति है।

    संतों के लोकगीतों के वर्ण्य विषय दो प्रकार के है। प्रथम है आध्यात्मिक और द्वितीय है सामाजिक। इन दोनों के भी दो-दो भेद निम्नलिखित दृष्टि से किये जा सकते है---

    (क) आध्यात्मिक- (1) क्रियात्मक- इसका विषय निराकार ब्रह्म, नाम स्मरण, भक्ति, विरह, पतिव्रत, प्रेम, विश्वास, सत्संग, उपदेश, उदारता, शील क्षमा, तप, सन्तोष, धीरज, दीनता, विवेक, गुरुदेव तथा दया है।

    (2) ध्वंसात्मक- इसका विषय चेतावनी, भेष, क्रोध, काम, मोह, माया, मान, कपट, कनक, कामिनी, नशा, आहार, तीर्थ व्रत, दुर्जन तथा कुसंग है।

    (ख) सामाजिक- (1) क्रियात्मक- चेतावनी, एवं समदृष्टि, (2) ध्वंसात्मक चेतावनी एवं भेदभाव।

    संतों के लोकगीतों के विषय सामान्यतया 6 है वे इस प्रकार है----

    (1) रहस्यभावना, (2) क्षणभंगुरता, (3) साम्य भावना, (4) समाजगत विषमताएं, (5) माया, कनक एवं कामिनी तथा (6) पंडे, पंडित एवं मुल्ला की तीव्रालोचना।

    रहस्य भावना से युक्त संतों में कही-कही रहस्य भावना की बड़ी सुन्दर झलक मिलती है। भक्ति भावना के आवेग में संतों ने आत्म-विस्मृति की स्थिति में हृदय के जिन भावनाओं की अभिव्यक्ति की है वे काव्य-कला एवं दार्शनिक्ता दोनों ही दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण होती है। सन्तों ने रहस्यभावना की अभिव्यक्ति प्रतीकों के आधार पर की है जो अधिकतर सांसारिक होते हुए भी पारलौकिक तत्वों की और संकेत करते हैं।

    एक भोजपुरी रहस्यात्मक गीत में एक ऐसी नारी का चित्रण हुआ है, जो अपने ओसारे में बेसुध सो रही थी। किंचित् समय के अनन्तर गुरुजी ने निकट आकर उसके गवने के समय की सूचना दी, किन्तु वह नारी संसार के रमणीय पदार्थों में इतनी अधिक रम गई है कि उसे अभीष्ट गंतव्य स्थल भी विसर गया है। वह यह भूल गई है कि जन्म केवल आगे बंटने के ले सोपान मात्र है। यहां स्थायी रूप से ठहर कर आनन्द मनाने के ले कोई अवसर तथा अवकाश नहीं है। इस प्रकार की निंद्रा से जगानेवाला गुरु के अतिरिक्त और कौन सामर्थ्यवान व्यक्ति है। गुरु की शरण में ही निस्तार और सद्गति है। इस रूपक में नारी आत्मा की प्रतीक है और गवने की बेला मृत्यु के आगमन की सूचना है। रमणीय पदार्थ संसार की अविद्या माया है जिनमें जीव संलग्न रहता है।

    एक कवि के द्वारा आत्मा-नारी को परमात्मा-प्रियतम के वियोग में व्याकुल और तड़पने का भावपूर्ण चित्रण किया गया है। जिसमें मूल शब्द के सुनते ही आत्मा रूपी नारी के जागने संसार रूपी मायके को भूल कर ससुराल-परलोक के स्मरण होने का वर्णन किया है। परब्रह्म प्रियतम के वियोग में आत्मा विलाप और रुदन करती है।

    देहातो की संगतो में गाये जाने वाले गीतों में क्षण-भंगुरता का मूल बहुत प्रमुख रहता है। ये गीत सामान्यतया कबीर और रैदास द्वारा विचरित होते है। इनमें जीवन, संसार, माया तथा उसके सहायक तत्वों को निःसार सिद्ध करके उनमे क्षण-भंगुरता के तत्वों का प्रकाशन किया जाता है। गायक मंडली की स्वरलहरी श्रोताओं को आनन्द-विभोर करती हुई जनता को स्मृति में इन कवियों के मतों को पुनर्जागरित किया करती है। इनमें पाठकों या श्रोताओं का ध्यान सांसारिक माया-मोहादि से हटाकर उनके समक्ष संसार का वास्तविक चित्र अंक्ति करने का प्रयत्न किया जाता है। कबीर का प्रस्तुत लोकगीत इस दृष्टिकोण से बड़ा लोक-प्रचलित है---

    मन फूला फूला फिरै, जगत में कैसा नाता रे।

    माता कहै यह पुत्र हमारा बहिन कहै बिर मेरा।

    भाई कहै यह भुजा हमारी, नारि कहै नर मेरा।

    पेट पकरि के माता रोवै, बाह पकरि के भाई।।

    लपटि झपटि के तिरिया रोवै, हंस अकेला जाई।।

    देहातों में गोपीचन्द एवं भर्तृहरि के अनेक ऐसे लोकगीत प्रचलित है जो आद्योपात संसार की निःसारता एवं विनाशशीलता के द्योतक है। सत्य तो यह है कि संत कवियों ने पद-पद पर जीवन के इस पक्ष पर अपने विचार प्रकट किये है। ऐसे लोकगीतों में सांसारिक माया मोहादिक की कटु आलोचना की गई और उसके सम्पर्क से दूर रहने का आदेश दिया गया है।

    भारतीय समाज की रचना वर्णव्यवस्था के आधार पर हुई है। जिस वर्णव्यवस्था की स्थापना किसी युग में समाज की सुविधा और सरलता के लिए हुई थी वही आज हमारे लिए अभिशाप बन गई है। आज हमारा समाज उच्च-नीच, कुलीन अत्यंज, स्पर्श्य-अस्पर्श्य भावना से अभिशप्त हो गया है। समस्त क्रियाओं और सत्कर्मों से विहीन ब्राह्मण पूज्य इसलिए है कि समाज द्वारा निश्चित ब्राह्मण कुल में वह जन्मा और पाला पोसा गया है। हमारा समाज काल्पनिक प्रशंसनीय जीवन का उत्तरोत्तर समर्थक बनता जा रहा है। इसी भावना के विरोध में सन्तों ने बारम्बार समता का उपदेश दिया है। उनकी दृष्टि में ये समाजगत विषमतें महत्वहीन थी। सामाजिक विषमताओं की आलोचना और दोषों का निदर्शन करते हुए संतों ने अनेक पदों की रचना की है जो उत्तरी भारत की जनता के कंठों से लोकगीतों के रूप में फूट पड़ते है।

    संतों ने माया की निन्दा खुल कर बडे ही स्पष्ट शब्दों में की है। अविद्या माया के दो विशेष सहायक है, कनक और कामिनी। इन्हीं के जाल में समस्त संसार बँधा पड़ा है। इन्ही के द्वारा अर्जित काल्पनिक सुखों में मानव आत्म-तुष्टि खोजता फिरता है। संतों ने इन दोनों के कुप्रभाव और व्यापक विषमताओं का चित्रण भाँति-भाँति से किया है। इसी प्रकार पाखंडों एवं बाह्याचारी में संलग्न पडे पंडित, मुल्ला और मौलवी के कृत्यों का रहस्योद्घाटन भी सन्तों ने जी खोल कर का है। शास्त्रीय ज्ञान की अपेक्षा अनुभव ज्ञान को संतों ने अधिक महत्व प्रदान किया है। उनका संतों के सत्संगों में विश्वास था और वे संतों की अनुभवगम्य विचार धारा में अवगाहन करना अधिक उचित और विश्वसनीय समझते थे। जो कोई भी धर्म उनके समक्ष आता था उसे वे अपने अनुभव एवं सत्य की तुला पर तोलते थे और उनके अनुभूत सत्य को ग्रहण कर अपनी विचारधारा के अनुसार उसका प्रतिपादन करते। बाह्य उपकरणों का परित्याग करके इन्होंने बारम्बार प्रेम की भावना अंगीकार करने के लिए कहा। करण कि प्रेम में आडंम्बर नहीं होता है अतः कबीर आदि ने अपनी भक्ति को एकमात्र मानसिक रूप ही प्रदान किया है। उनकी भक्ति में कर्मकांड नहीं है केवल मानसिक पक्ष है। संतों की यह प्रेम-भावना इतनी व्यापक है कि उसमें ब्रह्म अनेक नामों से सम्बोधित हुआ है। इसीलिए बाह्माचारो में संलग्न धर्म के वास्तविक स्वरूप को भूल हुए दोनों धर्मों (हिन्दू एवं मुसलमान) के ठेकेदारों की इन्होंने कटु आलोचना की है। संतों के ये पद जनता में विशेष प्रिय है और बहुत गाये जाते है। शायद ही कोई ऐसी संगत हो जहां ये पद गाये जाय।

    इन सब के अतिरिक्त संतों के कुछ और भी जनप्रिय लोकगीत है जिनके विषय उपर्युक्त वर्ण्य विषय-विभाजन में नहीं आते हैं। इन विविध विषयों में विनय भावना से ओतप्रोत आत्म-निवेदन के पद तथा अन्य लोकगीत विशेष रूप से उल्लेखनीय है-----

    रहना नहिं देस विराना है।

    यह संसार कागद की पुडिया, बूद पडे घुल जाना है।

    यह संसार काट की बाडी, उलझ उलझ मरि जाना है।

    यह संसार झाड और झाखर आग लगे बरि जाना है।

    कहत कबीर सुनो भाई साधो, सतगुरु नाम ठिकाना है।

    झीनी झीनी बीनी चदरिया।

    काहे के ताना काहे कै भरनी, कौन तार से बीनी चदरिया।

    इंगला पिगला ताना भरनी सुषमन तार से बीनी चदरिया।।

    आठ कमल दल चरख, डोलै पांच तत्व गुन तीनी चदरिया।

    साई को सियत मास दस लागै ठोक ठोक कै बीनी चदरिया।।

    सो चादर सुर नर मुनि ओढी ओढि कै मैली कीनी चदरिया।

    दास कबीर जतन से ओढी ज्यो की त्यो धरि दीनी चदरिया।।

    नैहरवा हमको नहि भावै।

    साई की नगरी परम अति सुन्दर जह कोइ जाय आतै।।

    चाद सुरज जह पवन पानी को संदेस पहुचावै।

    दरद यह साई को सुनावै।।

    आगे चलौं पथ नहिं सूझै पीछे दोष लगावै।

    केहि विधि ससुरे जाव मोरी सजनी बिरहा जोर जनावै।

    विषैरस नाच नचावै।।

    साईं से लगन कठिन हे भाई।

    जैसे पपीहा प्यासा बूंद का पिया पिया रट लाई।

    प्यासे प्राण लड़फै दिन राती, और नीर ना भाई।

    जैसे मिरगा शब्द सनेही, शब्द सुनन को जाई।

    शब्द सुनै और प्रान दान दे तनिको नाहि डराई।

    जैसे संतो चढी सत ऊपर, पिया को राह मन भाई।

    पावक देख डरे वह नाही, हँसत बैठे सदा भाई।

    छोडो तन अपने की आसा, निर्भय है गुन गाई।

    कहत कबीर सुनो भाई साधो नाहि तो जनम नसाई।

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