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सन्तों की प्रेम-साधना- डा. त्रिलोकी नारायण दीक्षित, एम. ए., एल-एल. बी., पीएच. डी.

सम्मेलन पत्रिका

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    मानव ने परम ज्योति परब्रह्म के दर्शन नहीं किए परन्तु उसके गुणगान की परम्परा प्राचीन- बड़ी ही प्राचीन है। सभ्यता एवं शिक्षा के प्रकाश-प्रसार के पूर्व, समाज की स्थापना से भी पूर्व के आदिम मानव को इस विश्व के संचालन में, एक ही पेड़ में विविध प्रकार के फूलों के फूलने में और विविध पेड़ों में एक ही रंग के पुष्पों के विकसित होने में, तरित प्रकाश, मेधो की गड़गड़ाहट में, चन्द्र, सूर्य के नियमित समय पर उदय और अस्त में, ऋतुओं के क्रमिक परिवर्तन में किसी दिव्य शक्ति का आभास मिला था। रीझ कर या खीझ कर, भय अथवा प्रेम के कारण, त्रस्त हो या अनुरक्त हो कर मानव उस आदि कर्ता के गुणों का गान करने लगा। तब से आज तक उस ब्रह्म की शक्तिमत्ता के गुणगान की परम्परा चली रही है। संसार के सभी देशों के सभी धर्मों ने उसकी महत्ता के समक्ष मस्तक झुकाया, सभी वर्गों, सभी सम्प्रदायों ने श्लोको की रचना की, सभी कालों में स्तवन रचनाएं हुईं फिर भी मानव उसकी रूप रेखा स्थापित कर सका। असफल मानव भला कब पराजय स्वीकार करने वाला था। अपनी बौद्धिक हीनता और असमर्थता को छिपाने के लिए उसने सब कुछ वर्णन करने के पश्चात् भी नेति-नेति कह दिया। ठीक भी है, जिसकी अनुभूति नहीं है, जिसकी रूप रेखा नहीं है, जो अनादि है, अनन्त है, अभेद्य है, अनाम है, अमध्य है, अन्तर्यामी है, सूर्य चन्द्र जिसके नेत्र है, त्रिलोक ही जिसका शरीर है, उसका वर्णन कैसे किया जाय? शून्य तत्व का चित्र कैसे खींचा जाय? अनुभूति से परे वस्तु का वर्णन भी हो तो कैसे? परन्तु मानव की सफलता और असफलता का रहस्य अनुभूति ही नहीं है। मानव को प्रेम का अनुभव है। प्रेम का यह तत्व सृष्टि के प्रथम मानव में भी था और आज भी है। इतना ही नहीं कि सभी सजीवो में एक दूसरे के प्रति प्रेम का भाव है वरन् सजीवनों ने निर्जीवो से भी प्रेम किया है और कहता रहेगा। प्रेम के सभी प्रकारों का अनुभव मानव को होता ही है। माता पुत्र का प्रेम, भाई भाई का प्रेम, भगिनी भ्राता का प्रेम, पिता पुत्र का प्रेम, पति पत्नी का प्रेम, मित्र मित्र का प्रेम, पड़ोसी पड़ोसी का प्रेम, प्रेमी और प्रेयसि का प्रेम, साधक का ईश्वर के प्रति प्रेम और भी जाने प्रेम कितने प्रकारों और भेदों का अनुभव प्रत्येक मानव को होता है। प्रेम ही संसार की स्थिति का कारण है। प्रेम की बाती बुझी नहीं कि मानव को फिर संसार से क्या सम्बन्ध? इतना महत्वपूर्ण स्थान प्रेम का है। यदि ब्रह्म की कल्पना और सर्वव्यापकत्व मान लेने में कोई आपत्ति हो, तो मेरी समझ में उसके पश्चात् प्रेम ही वह तत्व है जो सर्वदा, सर्वत्र रहा है, और रहेगा। जिस प्रकार ब्रह्म बहु वर्णित विषय रहा है, ठीक उसी प्रकार प्रेम है। काव्य, महाकाव्य, उपन्यास, कहानी, साहित्य के सभी अंगों में प्रेम की अभिव्यक्ति हुई। सभी ने स्वमत्यानुसार प्रेम की परिभाषाएं प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है, पर क्या उनमें से एक भी, कभी भी पूर्ण कही जा सकती है? हिन्दी के सन्त कवियों एक भी ऐसा नहीं है जिसने प्रेम की परिभाषा निर्धारित करने का प्रयत्न किया हो, या जिसने अपनी मति के अनुसार प्रेम के विषय में अपने विचार व्यक्त किए हों। कबीर, संत काव्य के सिरमौर है। प्रेम की उन्होंने बड़ी विस्तृत व्याख्या की है, फिर भी अन्त में उन्हें अपने ही सामर्थ्य पर सन्देह हुआ। अन्त में उन्हें हार कर कहना ही पड़ा, “प्रेम प्रेम सब कोई कहे प्रेम जाने कोय।” “जिन खोजा तिन पाइया गहरे पानी पैठ” का ललकार कर दावा करने वाला कबीर जब थक कर बैठ गया तो तो प्रेम की परिभाषा कौन प्रस्तुत करेगा?

    साहित्य के क्षेत्र में बंगाल के बाउल, हिन्दी के सन्त कवि, तथा सूफ़ियों का प्रेमादर्श बड़े ही उच्च कोटि का माना गया है। इनके प्रेम में अनुभूति की गहराई और विस्तार है, इनकी भावनाओं में तीव्रता है। इनका प्रेम आध्यात्मिक प्रेम है यद्यपि प्रयुक्त प्रतीक और अभिव्यंजना शैली लौकिक प्रेम की सूचना देती है।

    साधकों में एक विशेष प्रकार की एकरूपता उपलब्ध होती है। उत्तर भारत, दक्षिण भारत, महाराष्ट्र, बंगाल, पंजाब अथवा अन्य किसी प्रदेश को लीजिए, किसी वर्ग, किसी भी सम्प्रदाय को देखिए, चाहे वे बाउल हों, सूफ़ी हों, सगुणोपासक हों या निर्गुणिया हों, सभी में एक विशेष प्रकार की एकरूपता है और वह एकरूपता है प्रेम की। सभी सन्तों और साधकों के हृदय में प्रेम लहरे भरता हुआ दीख पड़ता है। यह अवश्य है कि किसी में उसका प्रवेश अपेक्षाकृत कम है किसी में अधकि। इस कमी और आधिक्य का उत्तर तो कोई मनोवैज्ञानिक ही देगा पर इतना तो निश्चय है कि इस भावना से शून्य शायद किसी भी साधक का हृदय नहीं है।

    प्रेम हृदय-जगत का व्यापार है। मस्तिष्क से उसका कोई भी सम्बन्ध नहीं है। प्रेम हृदय से होता है, मस्तिष्क से नहीं। प्रेम तो मन माने की बात है। सुन्दर से सुन्दर वस्तु से घृणा और अपेक्षाकृत उससे कम सुन्दर वा असुन्दर से प्रेम, इस कथन का पोषक है। हृदय-जगत के इस व्यापार में कोई दबाव, जोर, जुल्म और मजबूरी नहीं है। प्रेम हृदय से होता है इसलिए किसी को प्रेम करने के लिए विवश नहीं किया जा सकता। प्रेम तो स्वतः हृदय से निर्बाध फौव्वारे के समान निकलता है।

    प्रेम का लक्ष्य होता है प्रेम और केवल प्रेम, दुख सुख, हर्ष, उल्लास, प्राप्ति ऐंद्रिक्ता। प्रेम में प्रेमान्तिकता होती है। इसलिए प्रसिद्ध बाउल कवि मदन ने कहा था “अरे बन्दे! प्रेम का मूल्य तो प्रेम मात्र है, सुख है और दुख। बन्दे! यदि तू वास्तव में ही, प्रेम का प्रेमी है तब तो फिर प्रेम ही तेरी प्यास है, और प्रेम ही तेरी क्षुधा है। सिंध के सुप्रसिद्ध कवि शाह लतीफ ने भी इसी भाव का समर्थन किया था। उनके शब्दों में, अगर मैं पाप करता हूँ तो सभी मेरे प्रति रुष्ट है और यदि मैं पुण्य के लिए लोभातुर हूँ तो मेरे प्रियतम मुझसे रुष्ट है। वास्तव में प्रेम का लक्ष्य पुण्य एवं पाप से शून्य है। शाहलतीफ के हृदय में पाप पुण्य के लिए जो संकल्प विकल्प है, जो शंका है, वह कबीर जैसे दृढ़ मनुष्य के हृदय में ठहर भी नहीं पाई। वे मुक्ति पाने के हेतु, पुण्यार्जन के हेतु या भव नरक से उद्धार के लिए भी अथवा स्वर्ग कामना के हेतु भी प्रेम नहीं करते। उनका प्रेम प्रेम के लिए है। कबीर महा प्राणवान् व्यक्ति थे। “जेहि डरते भव लोक डरत है सो डर हमरे नाहि” कह कर उन्होंने सन्देह के लिए कोई स्थआन नहीं छोड़ा है। जिस बात को शाह लतीफ ने बहुत शान्त रूप में और कबीर ने स्पष्टवादिता का आधार बना कर चुनौती के रूप में ललकार कर कहा है उसी भाव को मलूकदास ने कुछ खीझ कर कहा “अरे सन्तों! तुमने तो प्रेम को लक्ष्य प्राप्ति का साधन बना लिया। तुम्हारा प्रेम सच्चा प्रेम नहीं है। कारण कि सच्चा प्रेम तो कामनारहित होता है और तुम्हारा प्रेम तो ब्रह्म को मोल लेने का साधन बन गया है। हरि तो सद्गुरु द्वारा प्रदर्शित सहज साधना से ही प्राप्त हो जाता है, उसके लिए प्रेम को क्यों कलंकित करते हो।” दादू इन सभी विचारको से एकमत हो कर यहाँ तक कहते है कि “मुझे तो प्रेम की कामना है अन्य वस्तु की नही। प्रेम ही के लिए मैं तो अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देने के लिए प्रस्तुत हूँ।” प्रेम को ही लक्ष्य बना कर प्रेम करने वाले सन्तों की सूची बहुत बड़ी है। मीरा, सहजो, दयाबाई, दादू आदि में यह भावना अधिक मुखर प्रतीत होती है।

    प्रेम जगत में उच्च नीच, धनी निर्धन, महान् क्षुद्र तथा समृद्ध हीन का भाव नहीं है। इसीलिए प्रेम में स्वाधीनता एवं उत्सर्ग आवश्यक माना गया है। निश्चय ही भेद रख कर प्रेम नहीं स्थापित हो सकता है। भेद रख कर स्थापित लगाव और चाहे जो कुछ भी कहा जाय पर प्रेम की संज्ञा नहीं पा सकता है। भगवान् ने स्वतः कहा है कि जो साधक मुझे ईश्वर मानता है और अपने को हीन, उसके प्रेम के वंश में मैं नहीं होता हूँ। वास्तव में भगवान् तो उसी के अधीन है, जो उन्हें हीन समझ कर उनसे प्रेमभाव में रत होता है। भक्तिसूत्र के रचयिता नारद मुनि ने तीन प्रकार की भक्ति का उल्लेख किया है, जिसमें कान्ताभाव से प्रेम भी एक है। प्रेम ही मेरा सर्वस्व है, सब साधना, सब कर्म है, लक्ष्य है, वही धर्म है, वही अमूल्य सम्पत्ति है, वही महान् है, वही ब्रह्म है, इस भाव से युक्त हो पतिपरायणा, पतिगतप्राणा होकर निष्काम भावना से ब्रह्म की सेवा में निरन्तर संलग्न रहना ही कांताभक्ति का उच्चादर्श है। कांताभाव की आत्मा है एकात्मकता। सन्त कवि ब्रह्म की अनादि अनन्त शक्ति, विराट् रूप को देखकर उसकी ओऱ आकर्षित हुए, प्रभावित हुए परन्तु फिर भी उनका प्रेम कान्ताभाव से ओतप्रोत है। कबीर ने तो बारम्बार अपने को राम की बहुरिया ही उद्घोषित किया है और उस दिव्य संयोग की कामना की है जहाँ ममत्व एवं परत्व की भावना विलीन हो जाती है और साधक की आत्मा अनुभव करने लगती है कि मैं ही तू है और तू ही मैं हूँ। कबीर की भांति ही अन्य सन्त कवियो में भी कांताभाव की भक्ति उपलब्ध होती है। सभी ने परब्रह्म के अपने पति होने की कल्पना की है। उदाहरणार्थ यारी, जगजीवन, धरनीदास, दरिया साहब, मारवाड़ वाले तथा मलूकदास की रचनाएँ पठनीय है।

    धर्मशास्त्र में भगवत् प्राप्ति के तीन साधन प्रतिपादित हुए है। वे साधन है कर्म, ज्ञान एव योग। परन्तु नारद मुनि के अनुसार प्रेम भक्ति उपर्युक्त तीनों साधनों से श्रेष्ठ है। ब्रह्म से प्रेमभक्ति करने का सभी को अधिकार है। इसके लिए वर्ण, वर्ग, आश्रम आदि भेद विभेद मान्य एवं आवश्यक नहीं है। श्रीमद्भागवत, श्रीमद्भगवदगीता और रामचरत मानस जैसे महान ग्रंथों में भी इसी बात को भिन्न-भिन्न सैली में भले ही कहा गया है पर तीनों की विचारधारा में मतैक्य है, कि प्रेम, जप, तप, दान, त्याग, योग, व्रत, मख, नियम, स्वाध्याय, ज्ञान, वेद, यज्ञ से अधिक सरल और महान है। हिन्दी के सन्त कवियों का साहित्य इस बात का पोषक है और उन्होंने भी ज्ञान कर्मादि से प्रम को उच्च और श्रेष्ठ माना है। रहस्यवादियों एवं सूफियों की साधना की आत्मा प्रेम ही है। प्रेम का सम्बन्ध ज्ञान से नहीं है। वह मस्तिष्क की वस्तु नहीं अपितु हृदय की वस्तु है। प्रेम का स्थान ज्ञान से बहुत ऊँचा है। इसी कारण एक साधारण मानव उत्कृष्ट प्रेम कर सकता है और विद्वान उससे अनभिज्ञ रह सकता है। दूलनदास ने स्पष्ट शब्दों में यज्ञ, दान, तप, तीर्थ, व्रत तथा धर्म से प्रेम को श्रेष्ठ माना है। दादू ने भी वेद पुराण की निन्दा कर के प्रेम की महत्ता का गान किया है। चरनदास जी के शब्दों में प्रेम बराबर जोग ना, प्रेम बराबर ज्ञान। कारण कि प्रेम भक्ति बिन साधिबो सब ही थोथा ध्यान। अन्य सन्तों की बानियों में भी इसी प्रकार की सजातीय विचारधारा देखने को मिलती है।

    प्रेम की साधना में बलिदान की विशेष आवश्यकता है। त्याग और बलिदान ही प्रेम का उद्दीपक है। जिस साधक में बलिदान की भावना नहीं है वह प्रेम के क्षेत्र में अग्रसर ही नहीं हो सकता है। कबीर ने प्रेम के क्षेत्र में अवतरित होने वाले को बारबार “सीस उतारे भुई धरे!” तथा सीस देइ ले जाय आदि चेतावनी दे कर प्रेम मार्ग की दुर्गमता बतलाने का प्रयत्न किया है। उन्होंने इस विकट पंथ पर अग्रसर होने के लिए आकांक्षी साधक को संकटों की ओर संकेत कर देने का प्रयत्न किया है। इसीलिए कबीर ने इस प्रेम के व्यापार के विरुद्ध कहाः----

    प्रेम विकंता मै सुना, माथा साटे हाट।

    बूझत विलम्ब कीजिए तत्छिन दीजै काट।।

    (संत बानी संग्रह भाग 1, 19।10)

    दूलनदास जी ने भी कहा है कि प्रेम मार्ग पर चलना हँसी नहीं है। साधक का बलिदान एवं त्याग केवल सांसारिक सुख, ऐश्वर्य आदि तक ही सीमित नही है। उसे तो स्वं शरीरस्थ अहं भावना को भी त्याग देना होगा। कारण कि अहं और प्रेम एक ही शरीर में नहीं ठहर सकता है। इसीलिए सन्तों ने प्रेमी के हेतु अहम् तथा सजातीय भावो का त्याग करने के लिए बार बार उपदेश दिया है।

    प्रेम की तीव्र धारा में वैदिक कर्म एवं लौकिक बाह्याडम्बर स्वतः बह जाते है। प्रेम के वेग में कर्म-त्याग अपने आप ही हो जाता है। साधक का मन सदैव आराध्य में नियोजित रहता है। उसके नेत्र संसार की प्रत्येक वस्तु में उसी ब्रह्म की छबि देखते है। इंद्रियाँ अपना अपना कार्य भूल जाती है। मधुर दिव्य ज्योति के प्रेम में वे इतनी आतुर हो जाती है कि उन्हें अपना व्यापार ही विसर जाता है। प्रेम की इसी स्थिति की अनुभूति होने पर रहस्यवादी सेंट मार्टिन ने कहा था कि मैंने उन फूलो को सुना जो ध्वनि करते थे और उन ध्वनियों को देखा जो जाज्वल्यमान थी। “रहस्यवाद के उन्माद में जीवन इन्द्रिय-जगत से बहुत ऊपर उठ कर, विचार शक्ति और भावनाओं का एकीकरण कर, अनन्त और अन्तिम प्रेम के आधार में मिल जाना चाहता है। यही उसकी साधना है, यही उसका उद्देश्य है। उसमें जीवन अपनी सत्ता को खो देता है।“ लौकिक एवं वैदिक बंधन ढीले पड़ जाते हैं। इसी स्तर पर पहुँच कर वासना, स्वार्थ, सिद्धि, ऐश्वर्य आदि की भावना निर्मूल हो जाती है। साधक के अन्तरंग एवं बहिरंग में कोई अन्तर नहीं रह जाता है। गोपियों ने भी श्रीकृष्ण के प्रेम में स्वं इन्द्रियों को चेष्टाहीन अनुभव किया था। लोक लाज उन्हें निःसार प्रतीत हुई थी। सन्त कवि सुन्दरदास की निम्नलिखित पंक्तियाँ इसी भाव की व्यंजना करती हैः------

    लाज तीन लोक की, वेद को कहयौ करै।

    संक भूत प्रेत की, देव जच्छते डरै।।

    सुनै कान और की, द्रसै और इच्छना।

    कहै बात और की सुभक्ति प्रेम लच्छना।।

    प्रेम के मधुर फल का आस्वादन करने के पश्चात् प्रायः सभी सन्तों ने वैदिक रूढ़ियों एवं बाह्याडम्बरों की दिल खोल कर निन्दा की है। प्रेम की इसी तीव्र अनुभूति के अनन्तर प्रेम-योगिनी मीरा गा उठी थी। इसी स्तर पर पहुँच कर उसके लोक-लाज की भावना समाप्त हो गई थीः-----

    मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो कोई

    ....................................................

    ....................................................

    सन्तन ढिग बैठि बैठि लोक लाज खोई।।

    और इसी स्तर पर पहुँच कर उसने लोक-लाज की निःसारता का अनुभव किया था। इस सम्बन्ध में बाउल साधक का निम्नलिखित कथन पाठनीय होगाः------

    बुलुक से बुलुक बुलुक यार मने या लयगो।

    आपना पथेर पथिक आमि कारबा करि भयगो।

    आमरे बीजे हयइगो आम जामेर बीजे हयगो जाम।

    आमरे बीजे सच्चा आमि जय गुरु जय जयगो।

    अर्थात् जिसे जो मन आए कहे। मैं तो अपने ही पथ का पथिक हूँ। उससे विचलित नहीं हूँगा। मैं किसी से नहीं डरता हूँ। आम के बीज से आम ही उत्पन्न होता है तथा जामुन के बीज से जामुन। मैं के बीज में सच्चा मै। बाउल जगा ने अन्तस के प्रेम पर अधिक जोर दिया है। अन्तस का प्रेम उत्पन्न होने पर बाह्याचार का बाँध विच्छिन्न हो जाता है। “अरे! तेरे ही शरीर में अतल सागर विद्यमान है। पर खेद है कि तू ही उससे अनभिज्ञ है। बाहर तू खोजता फिरता है और अपने शरीरस्थ शक्ति से अपरिचित है। उस अतल सागर का कूल है किनारा। शास्त्र रूपी धारा है, नियम है और कर्म।”

    आछे तोरइ भितर अतल सागर

    तार पाइलि ना मरम

    से था नाइ कूल किनारा शास्त्र धार

    नियम कि करम।।- जाग

    इन्हीं बाह्याचारों की निन्दा करते हुए बाउल मदन ने कहा थाः-----

    तोमार पंथ ढाइक्याछे मन्दिरे मस्जेदे।

    तोमार डाक शुनि सांई चलते ना पाइ।

    रुइख्या दांडाय गुरु ने भरशेदे।।

    .......................................

    तोर दुवारेइ नाना ताला पुरान कोरान तसवी माला।

    मेरख पर बइ तो प्रधान ज्वाला काँइदे मदन मरे खेदे।।

    हे नाथ, मंदिर एवं मस्जिद ने तो तुम तक पहुँचने के सभी रास्ते ढँक लिए है। मैं तुम्हारी वाणी को सुनता हुआ भी अग्रसर नहीं हो पाता। कारण कि गुरु एवं मुर्शिद बिगड़ खड़े होते है......तुम्हारे ही द्वार पर इतने ताले पड़े हुए है। हाय! भेष और पंथ तो प्रधान ज्वालाएं है। यह समस्त बाह्याचार और सत् पथ की बाधाएं देख देख कर मदन खेद के मारे रो रहा है।“ कबीरदास ने स्वतः निर्भीकता के साथ लोकाचार, लोकालोचन के विषय में कहा था-----

    कबीर कोई कुच्छ कहे कोई कुछ कहे

    हम अटके है जहाँ अटके।

    रोम रोम में प्रीति के घुल जाने और समा जाने के बाद कबीर को भी मुख की श्रद्धा पर श्रद्धा रही। कबीर ने प्रेम के चमत्कारी प्रभाव का अनुभव किया था, इसीलिए इसके प्रभाव को जहाँ प्रेम तहं नेम नहिं...........आदि शब्दों में व्यक्त किया। दादू ने प्रेम की तुलना में वेद एवं पुस्तक ज्ञान को हेय बताया है। कबीर की भाँति सहजो बाई ने भी नियम कर्म तथा लौकिक बन्धनों की निस्सारता उस समय अनुभव की जब प्रेम का बीज उनके हृदय में अंकुरित हो उठा। इसी आशय से सम्बन्धित दयाबाई की दो बानियाँ पठनीय हैं------

    दया प्रेम उनमत्त जे तन की तिन सुधि नांहि।

    मुझे रहें हरि रस छके, थके नेम व्रत नाहिं।।

    दया प्रेम प्रगटयो तिन्हें तन की तिन संभार।

    हरिरस में माते फिरै, गृह बन कौन विचार।।

    उपर्युक्त पंक्तियाँ इस बात की द्योतक है कि प्रेम, नेम व्रत, वानप्रस्थ, गृहथाश्रम से उच्च और उत्कृष्ट है। प्रेम और नियम, जप तथा तप आदि एक ही स्थान पर नहीं ठहर सकते हैं। प्रेम-भाव के उद्रेक के अनंतर कर्म और जनेऊ को तोड़ फेंकने का भाव पलटू साहब में भी उपलब्ध होता है। सारांश यह कि सन्त कवियो ने वास्तविक प्रेम की तुलना में विधि व्यवहार, लौकिक तथा वैदिक बाहयाडम्बरों की तीव्र आलोचना की है। सन्तों ने अन्तस्साधना पर अधिक जोर दिया है, साधना के बाहय उपकरणों पर कम-बहुत कम।

    प्रेम “कामनारहित गुणरहितम्” है। नारद मुनि के शब्दों में “गुणरहितं कामना रहितं प्रतिक्षण वर्धमानमविच्छिन्न सूक्ष्मतरमनुभवरूपम्” है। गुणो को देख कर समुत्पन्न प्रेम अस्थायी प्रेम है कारण कि गुणों के अन्तर्हित होने के पश्चात् प्रेम भी विलीन हो जाता है। वास्तविक प्रेम वही है जो अपेक्षा, आकांक्षा, कामना आदि के सीमित क्षेत्र से ऊपर हो, दूर हो। प्रेम तो गुणातीत है। वह स्वार्थ की वासना के निकट भी नहीं है। प्राप्ति का विचार वासना है और वास्तविक प्रेम और वासना दोनों ही विरोधी भावनाएं हैं। इसी कारण सन्तों ने वासना से प्रेम को पृथक् रखने के पक्ष में अनेक स्थलों पर कहा है। प्रेम के द्वारा मुक्ति की कामान वासना ही है। इसीलिए दीदार के मतवाले दादू ने अघाइ कर प्रेम का पान तो कर लिया पर मुक्ति की कामना नहीं प्रकट कीः----

    दादू राता राम का पीवे प्रेम अघाइ।

    मतवाला दीदार का मांगे मुक्ति बलाइ।।

    प्रेमांकुर के उगते ही दूलनदास ने भी अनुभव किया कि वासना उत्पन्न होना दूर है, उनकी पंच इन्द्रियाँ ही शिथिल हो गई। बुल्ला साहब ने भी प्रेम प्याला पान करते ही विस्मृति का अनुभव किया था।

    सन्तों ने प्रेम का आदर्श चकोर एवं मीन माना है। कबीर की भांति अधिक सन्तों ने इन्हीं दो के प्रेमादर्श को बार बार दोहराया है। कुछ सन्तों ने हस को भी आदर्श माना है, जो मोती के अतिरिक्त किसी अन्य पदार्थ को ग्रहण नहीं करता है। परन्तु चकोर एवं मीन का प्रेम परम्परागत है। प्रेम पर विचार प्रकट करने वालों में से प्रायः सभी ने चकोर एवं मीन को आदर्श प्रेम के रूप में स्वीकार किया है।

    हिन्दी के सन्त कवि अपनी अनन्य भक्ति और अनन्य प्रेम के लिए सूफी कवि और बंगाल के बाउलो के समकक्ष सरलता से माने जा सकते हैं। अनन्य प्रेमी के विषय में कहा भी गया है, “भक्ता एकान्तिनो मुख्याः”। वह मनसा, वाचा, कर्मणा अपने को ब्रह्म में समर्पित कर देता है। ब्रह्म और साधक की आत्मा में दिव्य संयोग स्थापित हो जाता है। प्रकृति की प्रत्येक लघु एवं महान् वस्तु में उसे ब्रह्म ही दृष्टिगत होने लगता है। ऐसी ही अवस्था में पहुँच साधक का मन संसार के सभी तत्वों से फिर जाता है, उस दिव्य ज्योति के अतिरिक्त उसे और कुछ देखना अच्छा नहीं लगता है। हिन्दी के सन्त कवियों की रचनाओं से इसी आशय की कतिपय साखियाँ उद्धृत की जाती हैः------

    कबीर- 1. कबिरा काजर रेखहू अब तो दई जाय।

    नैननि पीतम रमि रहा दूजा कहाँ समाय।।

    दादू- 2. प्रीति जो मोरे पीव की पैठी पिंजर मांहि।

    रोम रोम पिव पिव करे दादू दूसर नाहिं।।

    चरनदास-3. जाप करे तो पीव का ध्यान करै तो पीव।

    पिव बिरहिन का जीव है, जिव विरहिन का पीव।

    तुलसी साहब-4.आज्ञाकारी पीव की रहै पिया के संग।

    तन मन से सेवा करै और दूजा रंग।।

    पति की ओर निहारिये औरन से क्या काम।

    सभी देवता छोड़कर जपिये गुरु का नाम।।

    उपर्युक्त पंक्तियों में “दूजा कहाँ समाय”, “दूसर नाहिं”, “ध्यान करै तो पीव” “और दूजा रंग।”, “सभी देवता छोड़ कर..........नाम” विशेषरूपेण ध्यान देने योग्य हैं। सभी साखियों से एक ही ध्वनि प्रतिश्रुति होती है, और वह है अनन्य भक्ति, अनन्य प्रेम और एकान्तिकता की। कबीर ने तो दूसरे ब्रह्म की कल्पना को भी नहीं सहन किया है जैसा कि उनकी प्रस्तुत साखी से ज्ञात होता हैः-----

    नारि कहावे पीव की रहे और संग सोय।

    जार सदा मन में बसे खसम खुसी क्यों होय।।

    सन्तों ने प्रेम को ही ब्रह्म का रूप माना है। जहाँ प्रेम है, हार्दिक प्रेम है वहीं ब्रह्म है, वही परमात्मा है। इसी बात को दयाबाई और तुलसी साहब ने बड़े विश्वास के साथ कहा है। यही भाव हमें दादू में उपलब्ध होता हैः-----

    इश्क अलह की जाति है, इश्क अलह का रंग।

    इश्क अलह औजूद है, इश्क अलह का अंग।।

    दादू की उपर्युक्त साखी से प्राणनाथ की निम्नलिखित पंक्तियाँ बड़ा साम्य रखती हैः---

    इसक बसै पिया के अंग। इसक रहै पिया के संग

    प्रेम बसत पिया के चित्त। इसक अखंड हमेसा नित।।

    इसक दिखावे पार के पार। इसक अखंड घर दातार।

    इस दृष्टिकोण में शिवदयाल के विचार भी दृष्टव्य हैः----

    वह भंडार प्रेम का भारी जाका आदि अंत दिखात।

    प्रेम के विषय में दादू, प्राणनाथ और शिवदयाल के इन विचारों को पढ़ जाने के पश्चात् इस प्रसंग पर क्या कुछ और भी कहने की आवश्यकता रह जाती है?

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