मुसलमान शासकों का संस्कृत प्रेम- श्री हरिप्रताप सिंह
लगभग सभी भातरीय भाषाओं की जननी देवभाषा संस्कृत को यह गौरव प्राप्त है कि विदेशों से आये हुये मुस्लिम-शासकों ने भी इसकी सेवा की। भारत में मुस्लिम शासन के प्रारंभिक काल, 12वीं शताब्दी से लेकर 17वी शताब्दी तक की अवधि में ऐसे अनेक मुसलमान-शासक हुये, जिन्होंने संस्कृत-कवियों एवं विद्वानों को अपने दरबार में आश्रय दिया और संस्कृत की सेवा करने के लिये उन्हें प्रोत्साहित किया। यद्यपि उनकी मातृभाषा अरबी या फ़ारसी थी, उन्होने संस्कृत भाषा की शालीनता एवं सरसता को पहचाना और वाड्मय को और भी समृद्ध करने में महत्वपूर्ण योग दिया।
12वीं शताब्दी के मुसलमान-शासक शहाबुद्दीन के दरबारी कवि अमृत दत्त थे। बंगाल के राजा लक्ष्मण सेन के दरबारी कवि श्रीधर ने अपनी रचना सदुक्तिकर्णामृत में अमृतदत्त के एक पद्य को उद्धृत किया है। इससे इनका रचनाकाल 12वीं शताब्दी से भी पूर्व माना जा सकता है। फ़ारूक़ी खानदान (1370-1600) के शासक बुरहान ख़ान के दरबारी कवि पुण्डरीक विट्ठल थे। इन्होंने ही रागमाला की रचना की थी। आगे चलकर सम्राट अकबर ने भी विट्ठल पर कृपा की। यह इससे स्पष्ट है कि इन्होंने अपनी रचना नर्तननिर्णय में लिखा है कि इसकी रचना अकबर की रुचि के अनुसार ही हुई है-----
अकबरनृपरुच्यर्थ भूलोकेसरलसगोतम्।
कृतमिह बहुभेद सुहवां सुखम् भूपात्।।
निजामशाह और शेरशाह अन्य मुस्लिम-शासक है, जिन्होंने संस्कृत को प्रोत्साहन दिया। इन्होंने भानुकर को अपने दरबारों में शरण दी थी। लक्ष्मण भट्ट ने इनके 180 श्लोकों को पद्य-रचना में संग्रहीत किया। इसके अतिरिक्त कुछ अप्रकाशित ग्रंथों में भी इनके कुछ श्लोक मिले है। इनका काल 16वीं शताब्दी का उत्तरार्ध माना जाता है। इनके प्रकाशित ग्रंथ गीतगौरीश तथा रसमंजरी है। इनके द्वारा रचित ग्रंथ कुमार भार्गवीय अलंकारतिलक तथा श्रीनगर-दीपक अभी अप्रकाशित है। इन्होंने अपने काव्यों में यत्र-तत्र आश्रय देने वाले मुसलमान-शासकों की बड़ी प्रशंसा की है।
भारत में मुगल-साम्राज्य की स्थापना करने वाले बाबर तथा उसके बेटे हुमायूं को जीवन भर युद्ध करते ही बीता। इस कारण ये लोग कला, साहित्य आदि की वृद्धि न कर सके। अकबर ने साहित्यसेवियों, कवियों आदि का समुचित आदर ही नहीं किया, वरन उसने उन्हें अपने यहाँ आश्रय दिया और उनसे साहित्य की सेवा कराई। उसके दरबार के एक विशिष्ट संस्कृत कवि अकबरिया-कालिदास थे। इनका किसी विशेष मत या संप्रदाय से संबंध नहीं था। ये शिव एवं विष्णु को समान रूप से देखते थे। पद्मवेणी तथा पद्मामृततरंगिणी नामक अपनी रचनाओं में इन्होंने लिखा है कि अकबर से लंका का बादशाह भी भयभीत रहा करता है। अकबर का आश्रय प्राप्त करने वाले कवि रामचन्द्र ने रामविनोद, मुहूर्तचिंतामणि तथा प्रतिमाक्षरा पर टीका लिखी है। पुण्डरीक विट्ठल ने, जो कर्नाटक के निवासी थे, नर्तननिर्णय को, जिसमे राग, गायन आदि है, उसी समय लिखा। इन्होंने बुरहान ख़ान के दरबार में रहकर वदारणचन्द्रोदय लिखा था। पुण्डरीक विट्ठल ने रागमंजरी की रचना माधव तथा मानसिंह के आश्रय में की, जैसा कि
सकलनृपतितारा चन्द्रसूर्याविमौ द्वौ जगति
जयनशीलौ माधवा मानसिहौ
से ज्ञात होता है। अकबर के ही दरबार में नीलकण्ठ ने टोडरानद तथा ताजिक नीलकण्ठी लिखी। सूर मिश्र ने जगन्नाथप्रकाश में अकारयद्धर्म निबधमेत धराणिपेअर्कबले नरेशे के द्वारा अकबर के आश्रय में रहने को प्रकट किया है। गंगाधर ने नीतिसार लिखा था इसमें उन्होंने लिखा है---
“श्री मन्महाराज अकबरशाहि आज्ञया गंगाधर दीक्षित विरचित नीतिसारे तृतीय परमार्थ शतक पूर्णम्।“
इसी प्रकार बिहारीकृष्ण मिश्र ने पारसीप्रकाश में लिखा है----
“इति श्रीशाह जल्ललवीन्द्र (अकबर) कारिते बिहारी कृष्णमिज्रकृते पारसी प्रकाशे कृत्य-प्रकरण समाप्तम्।“
श्रीकृष्ण ने जहागीर के समय में बीजनवाङकुर भास्कर के बीजगणित की उच्चकोटि की टीका लिखी। उसी समय रुद्र कवि ने नवाबखां चरित महाराणा प्रताप की प्रेरणा से लिखा था----
“श्रीमहाराजाधिराज श्री नवाबखानानुचरिते श्रीशामपूरादिपुरदर प्रतापशाहोओतित रुद्र कवीन्द्रबिरिचिते तृतीयोल्लासः”
रुद्र कवि ने दो और ग्रन्थ लिखे है, कीर्तिसमुल्लास तथा दानशाहचरित। कीर्तिसमुल्लास में खुर्रम की प्रशंसा तथा दानशाह चरित में दानियाल की प्रशंसा की गई थी।
शाहजहाँ के काल में भी संस्कृत के विद्वानों को आश्रय मिलता रहा। कवीन्द्राचार्य सरस्वती के कहने पर शाहजहाँ ने काशी तथा प्रयाग में लगे करों को बन्द कर दिया तथा कवीन्द्राचार्य को सर्वविद्यानिधान की पदवी भी दी। कवि मुनिश्वर ने सिद्धान्त-सार्वभौम में लिखा है----
श्रीसार्वभौम-जहाँगीरसुनन्दनोअप श्रीशाहजांह-धरणी पुरहूत एव।
निष्कंटकां वसुमतीं प्रतिषाय तस्याः सरक्षणार्थमथ सेह गतासनेस्मिन्।।
इससे यह ज्ञात होता है कि मुनीश्वर शाहजहाँ के संरक्षित कवि थे।
काव्यवृत्तिप्रबोध में भगवती स्वामी ने शाहजहाँ की प्रशंसा में लिखा हैः-----
“लोकाधीशे नरपतेः श्रीजहांगीरसूनोः सभ्यदोद्भूतो
निपुणभगवान् काव्यवृत्तप्रबोधम्।“
नित्यानंद ने ज्योतिष ग्रंथ सर्वसिद्धांतराज लिखा था। यह सम्वत् 1696 में लिखा गया था। नित्यानन्द ने ही सिद्धान्तसिन्धु भी लिखा था। इसमे शाहजहाँ तथा उसके पूर्वजों का वर्णन है। इसकी प्रति अलवर के पुस्तकालय में प्राप्य है। वेदाङ्गराय ने भी अनेक ज्योतिष और धार्मिक ग्रंथ लिखे। उनका एक ग्रंथ पारसी प्रकाश है। उनके पुत्र नन्दिकेश्वर ने भी गण्डकमडण्ल नामक ज्योतिष ग्रंथ लिखा। नन्दिकेश्वर के अनुसार उनके पिता का मूल नाम मालजित् था तथा उन्हें वेदाङ्गराय की उपाधि दिल्लीश्वर से मिली थी।
परमभट्ट के पुत्र तथा शेष वीरेश्वर के शिष्य जगन्नाथ कवि ने एक काज़ी को परास्त करके जहागीर का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया था। उनके कतिपय गद्यों से ज्ञात होता है कि उन्होंने मुसलमान कन्या लवङ्गी से अपना संबंध स्थापित किया था। आसफ़-विलास नामक पुस्तक भी उन्होंने लिखी थी, जिस पर उन्हें शाहजहाँ से पण्डितराज की उपाधि मिली थी। उनका जन्म 16वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में हुआ था। इनकी साहित्यिक देन गंगा, यमुना तथा विष्णु के स्तोत्र, प्रौढ़ मनोरमा पर कुचमर्दिनी टीका, रस गंगाधर, काव्य प्रकाश एवं चित्रमीमांसा-स्वण्डन पर टीका है। रसगंगाधर का कार्य अपूर्ण रह गया। यदि वह पूर्ण हो गया होता तो वे अद्वितीय अलंकारशास्त्री हो गये होते। शाहजहाँ की बेगम मुमताज महल के प्रिय कवि बंशीधर मिश्र थे।
औरंगजेब यद्यपि कट्टर मुसलमान था, तो भी उसके शासन काल में संस्कृत ग्रंथों के रचना का क्रम चलता रहा। ईश्वरदास ने उसके ही शासनकाल में मुहूर्तरत्न नामक ज्योतिष ग्रंथ लिखा था। इसका काल सन् 1663 ई. था रघुनाथ ने मुहुर्तमाला लिखा था। इसका निर्माण सन् 1660 ई. में लिखा था।
दाराशिकोह स्वयं संस्कृत का विद्वान् था। उस ने उपनिषदों का अनुवाद कराया था। सूफ़ीमत से विरक्ति होते पर उसे हिन्दू धर्म ही शांति मिली थी। वह अपनी अँगूठी आदि पर प्रभु लिखता था। उसने योगवाशिष्ठ का पुनः अनुवाद करवाया। चतुर्भुज के रसकल्पद्रुम में इसके 6 पद मिलते है। लक्ष्मीपति न अपनी लिपि मालिका में अपनी वंशावली दी है। इसमें औरंगजेब के मृत्यु की समय की एक घटना तथा मुहम्मद शाह के राज्य रोहण-काल की एक घटना का वर्णन मिलता है। ये न्याय, ज्योतिष तथा तंत्र के विद्वान थे। अपनी रचनाओं में इन्होंने अरबी तथा फारसी के भी शब्दों का प्रयोग किया है।
मुसलमान शासकों ने संस्कृत भाषा में बद्ध भावों को समझने तथा उन्हें अनुवाद रूप में लाने के भी प्रयास किये। नसीरशाह ने महाभारत का अनुवाद बंगाल में कराया। अकबर ने नगीना तथा तारीख़-ए-बदायूनी के लेखक अब्दुल क़ादिर को महाभारत का अनुवाद करने की आज्ञा दी। कुछ महीनों में दो पर्वों का अनुवाद हुआ। इसके बाद सुल्तान हेजी तथा शेख़ फैज़ी ने भी इसमें सहायता पहुँचायी। उसका नाम रज्मनामा रखा गया? अबुल फ़ज़ल ने इसकी भूमिका लिखी। सन् 1585 ई. में अब्दुल कादिर ने रामायण का अनुवाद आरंभ करके सन् 1589 ई. में उसे पूरा किया। एक धर्म परिवर्तित मुसलमान की सहायता से अथर्ववेद का अनुवाद किया गया। फैज़ी ने उसे शुद्ध किया। फैज़ी ने लीलावती का और मुकम्मल खां गुजराती ने ताजक का अनुवाद किया। इमामुद्दीन ने राजतरङ्गिणी का अनुवाद किया और नजरूल्ला मुस्तफा ने फ़ारसी में हरिवंश पुराण का अनुवाद किया। इसके अतिरिक्त मौलवी हुसियानी ने पंचतंत्र का अनुवाद किया। अपारदानिश के नाम से पंचतंत्र का दूसरा भी अनुवाद हुआ। शाइस्ता खाँ का संस्कृत-ज्ञान प्रसिद्ध है। दारक खां का गंगास्तोत्र महत्वपूर्ण है।
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