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रसिक सम्प्रदाय और सखी भाव- डॉ. तपेश्वरनाथ

सम्मेलन पत्रिका

रसिक सम्प्रदाय और सखी भाव- डॉ. तपेश्वरनाथ

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    मध्यकालीन हिन्दी भक्ति साहित्य का सर्वेक्षण करने पर जिज्ञासुओं को सामान्यतः उसकी प्रधानतम प्रवृत्ति के रूप में मधुरोपासना का तत्व-साक्षात्कार होता है। भक्ति की चाहे निर्गुण शाखा हो या सगुण, निर्गुण का चाहे योग मार्ग हो या प्रेममार्ग, सगुण की चाहे कृष्णोपासना हो या रामोपासना- विचित्र क्षेत्रों में प्रायः सर्वत्र इस मधुरोपासना की हो एक सर्वव्यापक प्रवृत्ति- सूत्रे, मणिमणा इव- परिलक्षित होती है। यद्यपि विभिन्न क्षेत्रों और साधना-परम्पराओं से क्रमशः विकसित होकर रूप ग्रहण करने के कारण इनमें प्राप्त नाम-रूपात्मक (प्रतीकात्मक) अभिव्यक्ति-भेदों को दृश्यान्तर नहीं किया जा सकता तथापि इनमें अन्तर्व्याप्त उस रागात्मिका वृत्ति को भी हम लक्ष्यान्तर नहीं कर सकते जो मधुरोपासना का मूलाधार है।

    मधुरोपासना भक्त (उपासना) और भगवान (उपास्य) के बीच के प्रगाढ़ रागात्मक संबंध को सूचित करने वाली प्रेमभक्ति की ही चरम परिणति है। भक्ति की उपासना के लिए शास्त्र-पुराणों साधना-साहित्य में ईश्वर-जीव के बीच जो चार-पाँच भाव क्रमशः शान्त, दास्य, वात्सल्य, सख्य और मधुर (दाम्पत्य)- संबंध स्वीकृत है उनमें से अन्तिम (मधुर) में भाव की तीव्रता राग-परिष्ठता सर्वस्वीकृत होने के कारण भक्त द्वारा इस विधि से की गई भगवान की उपासना चरम कोटि की मानी गयी है। जिस प्रकार लोक में दाम्पत्य संबंध पति के प्रति पत्नी के सर्वात्म समर्पण प्रेम-मिलन का चूड़ान्त दृष्टान्त है, उसी प्रकार इस साधना-लोक में प्रभु के प्रति भक्त का प्रेमयोग उसके समर्पण सम्मिलन के आदर्श प्रतीक रूप में सर्वमान्य बन गया है। मधुरोपासना की इस टेक पर जब हम भक्तिकाव्य की विभिन्न साधना-सरणियों का आलोड़न करते हैं तो कबीर के साई (राम भर्तार) और मीराँ के नटवर नागर, सूर के गोपीपति और हरिवंश के राधावल्लभ, हरिदास के कुंज-बिहारी (कृष्ण) और अग्रदास के रास बिहारी (राम)- सबों का मर्म सहज ही हृदयंगम हो जाता है। यहाँ तक कि सूफी प्रेम-साधक जायसी और रामाश्रयी प्रेम-चातक तुलसी भी इसके अपवाद नहीं लगते।

    उपरोक्त प्रेमोपासकों की मधुरोपासना को तनिक सूक्ष्मता से देखें तो इनमें विभिन्न सम्प्रदाय और प्रतीक, साधना और विश्वास-परम्पराओं के अन्तर के आधार पर न्यूनाधिक रूपान्तर प्रतीत होगा। इनमें सब कहीं उपास्य प्रेय को युगलरूपों में मानकर उनके पारस्परिक लीला-चिंतन की परिपाटी नहीं मिलती। निर्गुण सम्प्रदाय में अवतारलीला की स्वीकृति होने के कारण उसके प्रेम-दर्शन में वियोग की उत्कंटता तो है पर सगुण भक्ति-सा प्रेमी-प्रेम के मध्य लीलाभिनय के उपयुक्त संयोग-सुख का ताम-रूपात्मक रस-क्षेत्र प्रशस्त नहीं है। इससे एक ओर जहाँ इनके प्रेम का स्वरूप युगल होकर सकल है, वहीं प्रेमी का संबंध लीला-माध्यम होकर प्रत्यक्ष है। इस दृष्टि से कृष्ण भख्ति का लीला-क्षेत्र सर्वाधिक व्यापक और उर्वर है।

    सर्वप्रथम इसके आराध्य लीला पुरुषोत्तम भगवान कृष्ण है। भागवतादि पुराणों में गोपी-कृष्ण की मधुर लीलाओं के ध्यान से इन भाव-क्षेत्र को अत्यन्त विस्तृत और रमणीय फलक प्रदान किया गया है साथ ही, उसमें एक गोपी विभेद (राधा) के स्फूट संकेत से युगल लीला का भी सूत्रपात हुआ है। जिसकी पूर्ति गीत गोविन्द दिखाई देती है। तत्पश्चात् पुराण-साहित्य (ब्रह्मदेवतै, पद्य आदि), तंत्र संहिताओं में क्रमशः कृष्ण की युगलोपासना भी राधा को केन्द्र करके पुरस्सर हो गयी। इनमें कहीं-कहीं (पद्यपुराण, पुराण संहिता आदि में) सखीमान भी समाविष्ट हो गया है।

    16वीं शती के पूर्व की साधनावधि का सिंहावलोकन करने पर हम भलीभाँति पाते हैं कि इस युग के भक्ति आन्दोलन को गति और ऊर्जा प्रदान करने वाले वैष्णव सम्प्रदाय उनके पोषक आचार्य प्रायः कृष्णभक्त रहे हैं। इनमें गौणतः रामानुज मध्याचार्य तथा मुख्यतः निम्बार्क, चैतन्य और वल्लभाचार्य का नाम लिया जा सकता है। रामानुज ( नारायण) मध्व (लक्ष्मी-विष्णु) के आराध्य-युग्म प्रत्यक्षतः सीताराम या राधाकृष्ण नहीं है। अतः हमारे आलोच्य विषय सखी रसिक सम्प्रदाय के लाड़िली-लाल की युगल लीला से इनका सीधा संबंध होकर अवतार माध्यम से ही है। दूसरे, इनमें माधूर्य की अपेक्षा ऐश्वर्यभाव प्रबल है। हाँ, निम्बार्क, चैतन्य और वल्लभ मत (के साधना-साहित्य) में अवश्य ही गोपी-कृष्ण और राधा-कृष्ण की युगल लीला का व्यापक विन्यास हुआ हैं। इनमें पूर्वोक्त दो में तो राधाभाव स्पष्ट होने के कारण युगल माधुर्य अतिशय प्रवण हैं। किन्तु तीसरे में वात्सल्य भाव को ही विहित माना गया है। यों उसकी परवर्ती व्यक्तिगत साधना में युगल माधुर्यभाव भी क्रमशः प्रतिष्ठित और पल्लवित होता गया है। फिर भी उसका प्रतिनिधि भाव ब्रजलीला के अन्तर्गत बाल और माधुर्य का मध्यवर्ती सख्य भाव ही मान्य है।

    अब यदि प्रेमभक्ति पर प्रेमी-प्रेमीः आश्रय-विषय की दृष्टि से विचार करें तो निम्बार्क के प्रेय (विषय) पक्ष में जाहँ स्पष्टतः राधा-कृष्ण युगल दम्पति हैं वहाँ प्रेमी रूप में सहस्रों सखियाँ लीलादर्शन सेवन के हित उपस्थित बतायी गयी है। यह सखीभाव का आदि प्रेरक है। चैतन्य देव के गौड़ीय मत में भी गोपी या सखीभाव से माधुरारति की भाव-दशा की प्राप्ति का उपासक परिस्मृति के अन्तर्गत सुविस्तृत विधान है। यहाँ गोपियों की मिलन-विरहपूर्ण कामरूप परकीया प्रीति अद्भुत है और अद्भुत हैं उनका मंजरी (या सखी) भाव जिसकी विस्तृत समीक्षा यथा प्रसंग होगी।

    ब्रजभक्ति सम्प्रदायों में स्वामी हितहरिवंश प्रवर्तित राधावल्लभ सम्प्रदाय के उपास्य ब्रज के गोपी कृष्ण के स्थान पर वृन्दावन के श्यामाश्याम है। यहाँ उपासक के रूप में गोपियों को ही सहचरी स्थानीया बनाकर उपस्थित उपस्थित किया गया है। अतः यहाँ रस के एकनिष्ठ पिपासुओं की दृष्टि में विशुद्ध सखीभाव का अभाव ही है। कदाचित् इसी यत्किंचित् रसाभाव की पूर्ति स्वामी हरिदास जी के सखी-सम्प्रदाय द्वारा करायी गयी है। यह पूर्वज दिव्य श्रृंगार या मधुर रस की उपासना है। इसमें यद्यपि ऐश्वर्य-माधुर्य में केवल माधुर्य है, पंचभावों मं मधुर हैं, ब्रज, मथुरा, द्वारिका में केवल वृन्दावन या निभुत निकुंज, परिवारों में केवल सखी है। इस प्रकार, बाध्य विषयों का पूर्ण संकोच है तथापि रसोपासना सर्वाधिक प्रखर, एकनिष्ठ और अनन्य है। सखी साधना के रसिक साधकों में कृष्ण की ब्रजलीला के स्थूल उपकरणों को-छिलके और बीज की नाई-छाँट कर निगम कल्पतरु के परिपक्व फल का नव सीमाशुक की तरह रस-पान किया है। जिस प्रकार शुक को वृक्ष के गहन झुरमुट में भी पल्कव-प्रतान डाल-पात की तरह जगह रस-पक्य फल ही दीखता है, उसी प्रकार इन्होंने नित्य वृन्दावन के निभूत निकुंज (निधि वन) में लाड़िली लाल की निरन्तर चल रही संयोग-लीला की सखी रूप में अन्तरंग झाँकी प्राप्त की है। रसोपासकों के लिए यहाँ गोपी-प्रेम (स्वसुख) के भी ऊपर सखी-सेवा (वत्सुख) का उच्चादर्श प्रतिष्ठित है। तदनुसार नित्य निकुंज की उस अद्वय युगल लीला के साक्षात्कार प्रवेश के ले रसिक साधक को (स्त्री,गोपी) या सखी भाव धारण करना अनिवार्य है। सखी-भावोपासक भक्त अपने आराध्य युगल के मध्य प्रणयदूति का सखी की मध्यस्थता निभाते हे दिव्य दम्पति के आमोद-प्रमोद मान-मनुहार को सतत उद्दीप्त रखता है और स्वयं उस लीला को प्रत्यक्ष कर संयत आनन्द लेता है। अपना सांसारिक इतिवृत्त होकर नित्यसखी का भाव ग्रहण कर रसिक जब प्रिया-प्रियतम के नित्य बिहार कार ध्यान करता है तो श्री हरिवल्लभ कृपा कर उसे अपनी सहचरी बना लेती है। इस प्रकार, रसिक को सखी भावने नित्य लीलाप्रवेश प्रेक्षण का सुअवसर मिलता है। यही सखीभाव की उपासना का परम प्राप्तव्य है। वैष्णव साधकों की दृष्टि में इत नित्य रस की तुलना में ब्रह्म-सम्मिलन या मोक्ष लवण-कण-सा है।

    निष्कर्षतः, ब्रजभक्ति को निचोड़कर कृष्णोपासकों ने जिस अनन्य सखीभावित रस-साधना का रूप दिया उसे सखी-सम्प्रदाय कहते हैं। इसके पुरस्कर्ता वृन्दावनी सन्त स्वामी हरिदास (सं. 1565 के पास) हैं। अनुसन्धित्सुओं ने इस सम्प्रदाय का स्थापना-काल सं. 1565 के आसपास माना है।

    स्वामी हरिदास जी की सखी-साधना-प्रणाली इतनी भाव-सरल और रस-पेशल सिद्ध हुई कि ब्रज के अन्य (चैतन्य, वल्लभ, राधावल्लभ आदि) कृष्णभक्ति सम्प्रदायों पर तो उसका सहज प्रभाव पड़ा ही, अवध की वैधी रामभक्ति पर भी उसकी रमणीय प्रभाव-छटा फैल गयी है। इसका प्रभाव हमें तुलसीदास की सद्यः परवर्ती रसिक रामकाव्य-धारा के अनुशीलन-क्रम में मिल जाता है। तुलसी का राम-काव्य एक ओर मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम के लोकपावन चरित का अन्यतम आदर्श है तो दूसरी ओर भक्ति के क्षेत्र में वैधी मार्ग और मत के क्षेत्र में दास्यभाव का प्रतिनिधि स्वरूप भी। अपने इन्हीं रूपों में तुरलसी-पुरस्कृत रामकाव्यधारा लोकचित्र को अभिव्यक्ति करती रही है। किन्तु, इस आदर्श निर्मित लोक-संस्कार के प्रतिकूल जब हम उत्तर तुलसी-युग में धारावाहिक रूप में रचित राम की माधुर्य सौन्दर्यपरक काव्य-राशि को देखते है तो सखी भावाश्रित इस रसिकोपासना पर विस्मय होता है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जैसे मर्यादावादी आलोचक को तो इस आदर्श के तथाकथित वीभत्स विपर्यय पर खीझ भी हुई थई। उनके अनुसार इधर आकर कृष्णभक्ति शाखा का प्रभाव बहुत बड़ा।... रामभक्ति मार्ग के भीतर भी श्रृंगारी भावना का अनर्गल प्रवेश ही रहा...। इन्होंने पति-पत्नि भाव की उपासना चलाई। ... राम की रासलीला, बिहार हो आदि के अनेक अश्लील वृत कल्पित किए गए। ... इस प्रकार विलास क्रीड़ा में कृष्ण से कहीं अधिक राम को बढ़ाने की होड़ लगायी गयी। गोलोक में जो नित्य रासलीला होती रही है उससे कहीं बढ़ कर साकेत में हुआ करती है।... चित्रकूट की भावना वृन्दावन के रूप मं की गयी और वहाँ के कुंज भी ब्रज के क्रीड़ा-कुल मान गये। उक्त उद्धरण को सख्य पक्ष-समर्थन यहाँ अभीष्ट होने पर भी इतना दर्शाने के लिए पर्याप्त है कि तुलसी के बाद के राम-साहित्य में व्याप्त इस रसिकोपासना पर उक्त कृष्ण-भावना का न्यूनाधिक प्रभाव है। चाहे विज्ञों की धारणा में यह- प्रारंभिक वैधी मार्ग की कठोरता के विरुद्ध तीव्र मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रिया ही क्यों ने हो। पर रामभक्ति के इस तथाकथित अनोन्मुक्त अवयक्त सखीभाव पर गुप्त गोदावरी की भाँति ही सही, अन्यान्य सम्प्रदायों के अतिरिक्त उन्हें भी कृष्णायत सखी सम्प्रदाय का न्यूनाधिक प्रभाव अवश्य स्वीकार करना पड़ा है। प्रमाण के लिये- आज अयोध्या में अधिकांश मन्दिर कुंज और वन नामक से अभिहित है और श्री कनक भवन के अतिरिक्त भी जितने मुख्य स्थान हैं, वहाँ भी युगल मूर्ति की मधुर उपासना चल रही है। यहाँ के अधिकांश साधु, सन्त एवं साधक या तो कोई लता हैं या प्रिया या अली या सखी। यों तो विद्वानों ने राम रसिकोपासना के प्राचीन रूप का ध्वनंग रामभक्त हुमान और उत्खनन आलवार सन्त शठकोपतक में किया है सखीभाव के आदर्श पर लीला-पुरुषोत्तम भगवान् राम और लीलानायिका भगवती सीता के सुमधुर रास-विलास के नित्य लीला-चिन्तन की साम्प्रदायिक धारणा सर्वप्रथम अग्रदास जी द्वारा ही प्रवर्तित प्रभावित होती है। इनकी ध्यान मंजरी, श्रृंगारी साधना की गीता कही गयी है। इनका समय सं. 1632 के आसपास मान्य है। कृष्ण-सखी सम्प्रदाय के प्रवर्तक स्वामी हरिदास (वृन्दावनी) से 70 वर्ष पीछे होने वाले राम-रसिक सम्प्रदाय के प्रवर्तक स्वामी अग्रदास (जयपुरी-रैदासा गद्दी) की श्रृंगार साधना-प्रणाली- विशेषतः अपने साम्प्रदायिक सखाभाव के कारण- तुलनात्मक समीक्षा की प्रेरणा देती है और इस तुलना के निष्कर्ष बिन्दु पर हम देखेंगे कि उक्त दोनों में जो अधिकांशतः साम्य है वह सखी सम्प्रदाय की साधना-प्रणाली द्वारा रसिक सम्प्रदाय की उपासना-पद्धति को दिये गये रस-दान की ही परिणति है। 17वीं शताब्दी से लेकर 18वीं शताब्दी के अन्त तक इस राम-रसिक शाखा के सैद्धान्तिक विकास में वृन्दावन के कृष्ण रसिक साधकों का प्रत्यक्ष योगदान रहा है। प्रमाण के तौर पर रामभक्ति में रसिक सम्प्रदाय के सुधी विद्वान डॉ. भगवती प्रसाद सिंह की रसिक प्रकाश भक्तमाल पर आधारित वह विस्तृत स्वीकारोक्ति उद्धृत है- “कहने की आवश्यकता नहीं कि रामभक्ति की रसिक शाखा के विकास में कृष्णभक्ति का योग पहले से ही कुछ कुछ चला रहा था। इस काल में यह भावना अधिक विकसित हुई। रसिक प्रकाश भक्तमाल में ऐसे कई राम-भक्तों के वृत्त दिये गए हैं, जिन्होंने रसिकोपासना के सिद्धान्तों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए वृन्दावन के सिद्धान्तों का ज्ञान प्राप्त करने के ले वृन्दावन की यात्रा की थी और वहाँ के प्रसिद्ध आचार्यों से सत्संग-लाभ किया था। मोहन रसिक एक ऐसे ही भक्त थे। उन्होंने वृन्दावन के महात्मा भगवत रसिक से रास-ध्यान सीखा था।... कुछ रसिक रामभक्त स्थायी रूप से कृष्ण-तीर्थों में निवास भी करने लगे थे। मौनी जानकीदास के वृन्दावन में रह कर श्रृंगारी साधना करने की चर्चा रसिक प्रकाश भक्तमाल में आयी है।“

    डॉ. विजयेन्द्र स्नातक भी राधावल्लभ सम्प्रदाय के अनुशीलन-क्रम में यही पाते हैं कि अयोध्या के रसिक सम्प्रदाय और उसकी सखीभाव-साधना का मूलाधार वृन्दावनी कृष्ण-रस-साधना ही है। उनके अनुसार- अयोध्या के रामानन्दी सम्प्रदाय की एक शाखा सखी सम्प्रदाय (रसिक सम्प्रदाय?) के रूप में सामने आयी। इस सखीभाव का मूलाधार प्रेमलक्षणा में राधा भाव का प्राधान्य था जो हितहरिवंश जी की ही देन हैं।... यह प्रभाव किस रूप में संक्रमित होकर वहाँ तक पहुँचा, यह अनुसन्धान का विषय है।... पूछने पर हमें यही बताया गया कि वृन्दावन और अयोध्या दोनों स्थानों पर प्रेमलक्षणा और राधा भाव का इतना व्यापक प्रभाव किसी काल में पहुँचा था कि राम और सीता को राधा-कृष्ण की छाया में ज्यों का त्यों ग्रहण कर लिया गया और उसी शैली में काव्य-रचना होने लगी। कृष्ण काव्य के अनुसन्धान ही नहीं, राम-काव्य के सुधी विद्वान् भी इसी तथ्य की पुष्टि करते हैं। डॉ. कामिल बुल्के भी श्रृंगारी राम-काव्यों के संविधान में- भाव, साधना और शैली- सभी दृष्टियों से श्रृंगारिक कृष्ण काव्य-साधना के प्रभाव को स्वीकार करते हैं। अपने (राम-कथा) शोध प्रबन्ध में उक्त धारणा की अभिव्यक्ति के अनन्तर वे हिन्दी साहित्य कोश में लिखते हैं- इस भक्ति पर कृष्ण-राधा संबंध साहित्य का प्रभाव भी पड़ा और बाद में उत्तरोत्तर बढ़ने लगा।

    साधना के क्षेत्र में भी यह प्रभाव दृष्टिगोचर है। रामभक्ति प्रधानतया दास्यभाव की रह कर कुछ सम्प्रदायों में मधुरोपासना में परिणत हुई। अनुसन्धायकों के अतिरिक्त साहित्य के इतिहासकारों ने भी इस तथ्य को लक्ष्य किया है। आचार्य शुक्ल इनमें अग्रगण्य है। उनके अतिरिक्त आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने भी अपने इतिहास में इस धारणा की स्पष्ट-घोषणा की है। तदनुसार- 17वीं शताब्दी के बाद भक्ति-साहित्य में सखी-भाव की साधना का प्राधान्य हो गया।... इसका प्रभाव रामभक्ति शाखा पर भी पड़ा है। वृन्दावन की भाँति अयोध्या भी सखी सम्प्रदाय के भक्तों का केन्द्र बन गई।

    उपर्युक्त दृष्टान्तों से यह सिद्ध है कि 18वीं सदी के प्रारंभ से ही समरयिकों का वृन्दावन के सख्याचार्यों से सम्पर्क-लाभ निरन्तर बना रहा। व्याख्या है कि रसिक साधना की प्रारंभिक पीठ और गद्दियाँ जयपुर (चलता रैदासा) में ही केन्द्रित थीं। 17वीं शताब्दी में जब मुगलों के द्वारा के द्वारा बड़े पैमाने पर वैष्णव तीर्थ ध्वस्त किये जाने लगे तो मथुरा और वृन्दावन के रसिक सन्तों ने भी अपने आराध्य विग्रहों के साथ जयपुर (नरेश) की शरण ली थी। उस प्रवास-अवधि में इन दो धाराओं के प्रारंभिक सन्तों का सत्संग होना स्वाभाविक ही है। यही कारण है कि प्रारंभ से लेकर 18वीं सदी के अन्त तक वृन्दावनी रसिकों के साथ इनका मधुर संबंध बना रहा। इन दोनों (रसिक और सखी सम्प्रदाय) के मध्य सैद्धान्तिक आदान-प्रदान की विस्तृत संभावनाओं का इस भाँति संकेत मिलता है।

    भक्ति साहित्य में मधुरोपासना की समीक्षा करते हुए श्री परशुराम चतुर्वेदी जब मर्यादादर्शवादी रामावत शाखा में रसिकोपासना को लक्ष्य करते हैं तो अपनी निर्गुण-गंभीर वृत्ति के कारण कुछ झुंझलाते हुए कहते हैं- श्रीकृष्णोपासकों के अनुकरण में इन्होंने भी कभी-कभी अनेक सखियों वा मंजरियों की सृष्टि कर उनके कारण अपने मर्यादा प्रेम में कभी ला दी है। और फलतः उनका निष्कर्ष है कि- “श्री रामोपासकों में भी श्री कृष्णोपासकों जैसा एक वर्ग उत्पन्न हुआ जिसने आराध्य देव के युगल स्वरूप की लीलाओं को अति निकट से अनुभव करने का लक्ष्य अपने सामने रखा। इस प्रकार वह सखी सम्प्रदाय वा रसिक सम्प्रदाय भी कहलाया।“

    तथापि यह संकेत कर देना यहाँ आवश्यक है कि सखी सम्प्रदाय और राम रसिक सम्प्रदाय- दोनों पृथक शाखाओं की रसोपासना के संबोधक ये पृथक् अभिधान अत्यन्त साभिप्राय है। ध्यातव्य है कि दोनों ही मुख्यतः श्रृंगारोपसना है और दोनों ही आराध्य युगलों की नित्य लीला के साधक, चाहे रस के उपासक हों अथवा कृष्ण के, रसिक नाम से ही प्रसिद्ध रहे हैं। पुस्त्व भाव-त्याग पूर्वक लीला-सहकार इनके सभी भाव का लक्ष्य है। और यह दोनों में अनिवार्य है। युगल लीला में सखीभाव से नित्य मुक्त जीवों का प्रवेश दोनों में कास्य है। इस दृष्टि से चाहें तो कृष्ण सखीभाव के अतिरिक्त रामरसिक सम्प्रदाय को भी सखीभाव या सखी सम्प्रदाय कह सकते हैं। चूँकि युगलोपासना की विधि दोनों में समानतः सखीभाव ही है। वस्तुतः इसी समानता के आधार पर कृष्णभक्ति में सखीभाव के अन्वेषक ऐसा कहते भी हैं।

    परन्तु, रस-दृष्टि से विचार करने पर हम पायेंगे कि कृष्ण सखी-सम्प्रदाय में जहाँ पंच भक्ति रसों में एकान्ततः अन्तिम मधुर रस की संयोग श्रृंगार लीला का ही संविधान और ध्यान सखी-गण करती हैं वहाँ रामरसिक सम्प्रदाय में विशेषतः श्रृंगार रस और सामान्यता दास्य, सख्य, वात्सल्य और मधुर रसों में से अपनी स्वानुभूति के अनुरूप सद्गुरु-दीक्षित सखी किसी एक रस का अनुसन्धान करती है। इस दृष्टि से विचार करने पर हम पायेंगे कि सखी सम्प्रदाय की अपेक्षा रसिक सम्प्रदाय में रस-वैविध्य अधिक है। अतः राम रसिक सम्प्रदाय की सखी सम्प्रदाय कहने में अव्याप्ति दोष होगा। क्योंकि, रसिक सम्प्रदाय में साधकों के लिए रस-विकल्प अधिक है जिसे विद्वानों ने उसकी व्यापकता का नाम दिया है।

    दूसरी ओर कृष्ण सखी सम्प्रदाय में रस-वैविध्य या विकल्प की अपेक्षा एकनिष्ठता है। इस मधुर लीला में अन्य रसों की समाई या मिश्रण नहीं है। यही इसका अनन्य माधुर्य भाव हैं-

    रसना कहौं ओर, त्वचा परसौं नहिं औरें।

    कुंजविहारी केलि झेलि इन्दिन सब ठौरें।।

    भगवत रसिक अनन्य नेक उपदेशी सैननि।

    बैननि मैन जगाय रैन दिन देखौं नैननि।।

    रसिकों ने इसी कारण अपने सम्प्रदाय को अनन्य रसिक कह कर उद्घोषित किया। व्यास जी के शब्दों में- रसिक अनन्य हमारी जाति। कृष्णोपासकों के इस अनन्य रसिक सम्प्रदा का रामोपासकों के रसिक सम्प्रदाय से यहीं प्रस्थान-भेद सूचित होता है। एक शब्द में- रसिक भाव में सखीभाव की समाहिति तो है पर सखीभाव में पूरे रसिकभाव की समाहिति नहीं है-

    सान्ति दास्य सध्यादि मधि सहचरि करत प्रवेस।

    सखीभाव को यह सबै किंचित् लहै लेस।।

    रसिक भाव में फैलाव है तो इस (सखीभाव) में एक संकोच। कभी-कभी इसे क्रमशः व्यापकता और संकीर्णता का नाम भी दे दिया गया है। किन्तु, तत्वतः बात इतनी उथली नहीं है। रसोपासना के केन्द्रीय प्रसंग में (अवान्तर) भावों का अनेकत्व तो सच्चे अर्थों में उसका व्यापकत्व हैं और एकत्व उसकी संकीर्णता ही। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार- यह संकीर्णता विशालता की उपलब्धि के लिए है।

    अन्ततः सखीभाव और रसिकभाव के भीतर मधुर रस की सघनता और अनेकता के भूल एक सूक्ष्म कारण है जिसकी ओर संकेत कर देना आवश्यक है। और वह यह है कि कृष्णभक्ति के अन्य अनेक सम्प्रदायों में भक्ति के विभिन्न भावों से की जाने वाली रसोपासना को निधार कर इस सखी सम्प्रदाय के महामधुर रस का सुथरा रूप प्रकट हुआ है। जबकि राम रसिकोपासना में रूप-दृष्टि से यह उप-सम्प्रदायिक वर्गीकरण हो कर सब-के-सब प्रायः संघ रूप में समाविष्ट हैं। राम रसिक बालअली के शब्दों में-

    संतन के राजा ते चारि। सखी सखा पितु दास निहारि।

    तिनमें सखी भाइ नर नारि। सफल सिरोमनि तिन्हैं विचारि।।

    कहना होगा कि रसिकोपासना के क्षेत्र में संधीभूत इन विविध रसों के आधार पर उनका उप-साम्प्रदायिक वर्गीकरण, उनका व्यवस्थित अनुशीलन कृष्णभक्ति सम्प्रदायों से उनका तुलनात्मक अध्यय आदि अनेक विषय रसोपासना के जिज्ञासुओं के लिए आज भी करने को शेष हैं।

    पुनः लीलापुरुषोत्तम कृष्ण और लीलानायिका राधा के माधुर्यप्रधान वृत्त में श्रृंगार रस का यह केन्द्र जहाँ पारस्परिक और सहज संभव है वहाँ सीता-राम के ऐश्वर्य-प्रधान वृत्त में माधुर्य की अनन्य और अमिश्र अनुभूति पारस्परिक और सहज नहीं है। यही कारण है कि रामभक्ति के श्रृंगारी सन्तों की रसिक साधना-प्रणाली ऐश्वर्य और माधुर्य (वैधी औऱ रामानुगाः दास्य और मधुर) के युगल पुलिनों को घूमती हुई प्रवाहित होती है। स्वभावतः यहाँ जबकि-

    गहि केवल माधुर्य पुनि, धरै चित ऐश्वर्य।

    रसिक ताहि नहिं मानिये, राम उपासक वर्ग।।

    माधुर्य पर ऐश्वर्य का शासन है वहाँ नित्य-निकुंजबिहारी के ललित स्वरूप पर सोने का मुलम्मा रास नहीं आता। यहाँ तो- प्रेम गली अति साँकरी, तामें दो समाहिं की-सी स्थिति है। कदाचित् इसी कारण सखीभाव के रामोपासकों ने इसी भाव के कृष्णोपासकों से अपना प्रस्थान-भेद सूचित करने के लिए पीछे उनकी रसिक छाप लेकर अपने सम्प्रदाय को धूमधाम से रसिक सम्प्रदाय घोषित किया।

    इन्हीं भिन्न दृष्टि-बिन्दुओं के प्रभाव-स्वरूप दोनों की रसोपासना-पद्धति प्रायः एक-सी होकर भी यदाकदा भिन्न दिखाया देती है। जैसे दोनों ही सखी-साधनाओं में दिव्य देह की प्राप्ति और तदर्थ सद्गुरु की दीक्षा आवश्यक है। पर, दीक्षा-ग्रहण से लेकर भाव-सेवा तक में वैधी और रागानुगा के मध्य धूप-छाँह (विधि-निषेध की) बनी रहती है। सखीभाव इसी अर्थ में भाव है और रसिक सम्प्रदाय इसी अर्थ में सम्प्रदाय।

    तो, रसिक साधना का मूलाधार है- सखीभाव। यह लिंगोपाधिविनिर्मृक्तं रस-साधना है। कृष्ण की युलगोपासना को केन्द्र बना कर इस भाव का साम्प्रदायिक वितान तान जो पीछे राम-रसिक सम्प्रदाय पर भी चँदोवे की तरह तन गया। पुराण संहिता में ही सर्वप्रथम इसका आदि उल्लेख प्राप्त होता है-

    सखी भावाश्रयाः सर्वेपूस्वा तद्विरह व्यधाम्।

    अनुभूय सखी रूप गोलोक भूयमाप्स्त्यथ।।

    अर्थात्, भगवान् के मूल रूप की प्राप्ति हेतु सखीभाव की भाव-पीड़ा की अवधारणा साधना के क्षेत्र में आवश्यक है।

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