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सूर के माखन-चोर- श्री राजेन्द्रसिंह गौड़, एम. ए.

सम्मेलन पत्रिका

सूर के माखन-चोर- श्री राजेन्द्रसिंह गौड़, एम. ए.

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    हिन्दी-काव्य में बाल-मनोविज्ञान के प्रथम प्रणेता भक्त सूरदास ने अपने आराध्य बालकृष्ण की विविध लीलाओं के जो चित्र उतारे हैं, उनमें माखन-चोरी के चित्र अत्यन्त आकर्षक, मोहक, सरस, अनूठे और प्रभावोत्पादक होने के साथ-साथ बाल-चापल्य के वास्तविक प्रतीक है। विशेषता यह है कि एक वृत्ति के कई चित्र है, पर एक दूसरे से अत्यन्त भिन्न है। इससे उनमें नूतन रस, नवीन भाव-बंगिमा, नवीन उक्ति वैचित्रय और अप्रतिभ मनमोहक क्षमता का समावेश हो गया है। बाल-चेष्टाओं के चित्रण में सूर ने एक चित्रकार की दृष्टि से काम लिया है। जिस प्रकार चित्रकार थोड़ा दाहिने-बाएँ, आगे-पीछे हटकर एक ही दृश्य के विविध चित्र उतार लेता है उसी प्रकार सूर ने एक ही बाल-क्रीडा को विभिन्न अवसरों और विविध परिस्थितियों के बीच रखकर अनूठी उक्तियों द्वारा कही उसका भाव चित्र उतारा है, कही उसका दृश्य-चित्र अंकित किया है और कही दोनों की एक साथ प्रतिष्ठा की है। एक ही वृत्ति के दो चित्र लीजिये-

    मैया! मेरी मैं नहिं माखन खायो।

    भोर भयो गैयन के पाछे मधुवन मोहिं पठायो।

    चार पहर बंसी बट भटक्यो, साँझ परे घर आयो।।

    मै बालक बहियन को छोटो, छीको किस विधि पायो।

    ग्वाल-बाल सब बैर परे है, बरबस मुख लपटायो।।

    मैया! मैं नाहि वधि खायो।

    ख्याल परे ये सखा सबै मिलि मेरे मुख लपटायो।

    देखि तुही छींके पर भाजन ऊँचे धर लटकायो।।

    तुही निरखि नान्हें कर अपने मै कैसे करि पायो।

    मुख दधि पोछ कहत नंद-नन्दन, दोना पीठ बुरायो।।

    एक चित्र माखन-चोरी का है, दूसरा दधि-चोरी का। कृष्ण चोरी करते हुए नहीं पकड़े गये हैं, पर चोरी का स्पष्ट प्रमाण है- मुख पर चोरी करने के स्पष्ट चिन्ह है। परिस्थिति एक सी ही है, पर दोनों चित्र एक दूसरे से भिन्न है। पहले में उक्ति-जनिन्न्य द्वारा बाल-चापल्य का सहज सौंदर्य अंकित किया गया है और दूसरे में उक्ति-वैचिन्न्य के साथ-साथ मुख दधि पोंछ तथा दोना पीठ दुरायो-द्वारा दृश्य-वैचित्र्य का भी अनूठा विधान है। मुँह पर लगे हुए दधि को पोंछकर और फिर पीठ के पीछे दोना छिपाकर बाते बनाने का दृश्य अंकित करना सूर जैसे बाल मनोविज्ञान के पारखी का ही काम है। सूर ने ऐसे एक नहीं अनेक चित्र उतारे हैं और उनका प्रत्येक चित्र कलापूर्ण है।

    बाल-कृष्ण की माखन-प्रियता और दधि-प्रियता का आभास हमे तब से मिलने लगता है जब से वह घुटने के बल चलने और कुछ खान-पीन लगते हैः-

    सोभित कर नवनीत लिये।

    घुटरुवन चलत, रेनु-तन-मडित, मुख दधि लेप किये।।

    माखन तनक आपने कर लै, तनक बदन में नावत।

    कबहुँ चितै प्रतिबिम्ब खभ में, लौनी लिये खवावत।।

    नन्द की गोद में बैठकर भोजन करते समय भी वह माखन-मिश्री खाना नहीं भूलते-

    जेवत श्याम नन्द की कनियाँ।

    मिश्री-दधि-माखन मिश्रित करि मुख नावत छवि-धनियाँ।।

    आपनु खात, नन्द-मुख नावत सो सुख कहत बनियाँ।।

    कभी-कभी माता यशोदा से भी वह हठपूर्वक माखन-मांग कर खाते हैं-

    गोपाल राइ दधि माँगत अरु रोटी।

    माखन सहित दैहि मेरी मैया, सुपक सुकोमल रोटी।।

    कत हौ आगि करत मेरे मोहन, तुम आँगन में लोटी?

    माखन-रोटी खाकर शीघ्र बड़े होने की स्पर्द्धा भी देखिए-----

    मैया! मोहिं बडौ करि लै री।

    दूध, दही, माखन-मेवा जो मांगौं सो दै री।।

    होऊँ बेगि मैं सबल सबनि मै, सदा रहौं निरभै री।

    बालकृष्ण की माखन-प्रियता और दधि-प्रियता संबंधी उक्त शिशु-चेष्टाएँ उस समय कुछ और रोचक रूप धारण करती है जब वह पैरों के बल चलने और ग्वाल-बाल के साथ खेलने-कूदने लगते हैं। अपने हाथ-पैर हो गये, हठ करने और आँगनमें लोटने-पोटने की आवश्यकता नहीं रही। छीके पर रखा माखन देखा, किसी ऊँची तिपाई पर चढ़कर उसे उतारा, कुछ खाया, कुछ गिराया और चलते बने। पकड़ गये तो उलटी-सीधी बाते बना दी। माखन-चोरी की ऐसी लीलाएँ घर से ही आरम्भ होती है। एक दिन जब एक गोपी कृष्ण के मुख से यह सुनकरः-

    मैया री! मोहिं माखन भावै।

    जो मेवा पकवान कहति तू, मोहिं नहीं रुचि आवै।।

    अपने मन में कहती है---

    मन-मन कहति कबहुँ अपने घर, देखौं माखन खात।

    बैठे जाइ मथनियाँ के ढिग, मै तब रहौं छपानी।।

    तब अन्तर्यामी बाल-कृष्ण उस गोपी के मन की बात ताड जाते है और फिर-

    गए स्याम तिहिं ग्वालिन के घर।

    देख्यौ द्वार नहीं कोउ, इत-उत चितै, चले तब भीतर।

    हरि आवत गोपी जब जान्यौ, आपुन रहो छपाइ।।

    सूने सदन मथनियाँ के ढिग, बैठि रहे अरगाइ।

    माखन भरी कमोरी देखत, लै-लै लागे खान।

    चितै रहे मनि-खभ-छाँह-तन, तासो करत सयान।

    प्रथम आजु मै चोरी आयौ, भलो बनो है संग।

    आपु खात, प्रतिबिम्ब खवावत, गिरत कहत, का रग।।

    जो चाहो सब देउँ कमोरी, अति मीठो कत डारत।

    तुमहिं देति मै अति सुख पायौ, तुम जिय कहा विचारत।।

    सुनि-सुनि बात स्याम के मुख की, उमँगि हँसी ब्रज नारी।

    सूरदास प्रभु निरखि ग्वालि-मुख, तब भजि चले मुरारी।।

    माखन-चोरी की यह प्रथम उल्लासमय घटना बाल-कृष्ण को साहसी बना देती है। यदि इसी अवसर पर रोक-थाम हो जाती तो काम बन जाता, आगे होने वाले उपद्रव हो पाते। पर रोके भी तो कौन रोके। सब तो उनके इस बाल-चापल्य पर रीझी हुई है। और बालकृष्ण का यह हाल है-

    मन मै यहै बिचार करत हरि, ब्रज घर-घर सब जाऊँ।

    गोकुल जन्म लियौ सुख-कारन, सब कै माखन खाऊँ।।

    ऐसे विचार आते ही बाल-कृष्ण को योजना बनाने में देर नहीं लगती-

    करै हरि ग्वाल सग विचार।

    चोरि माखन खाहु सब मिलि, करहु बाल-बिहार।।

    हो गये बालकृष्ण ग्वालो के नेता और फिर होने लगी दिन दहाड़े माखन-चोरी----

    सखा-सहित गए माखन-चोरी।

    देख्यौ स्याम गवाच्छ-पद ह्वै, भवति एक दधि भोरी।।

    हेरि मधानी भरी नाट तें, माखन हौ उतरात।

    आपुन गई कमोरी माँगन, हरि पाई ह्याँ बात।।

    पैंठ सखनि सहित घर सूने, दधि माखन सब खाए।

    छूछी छाँड़ि मटुकिया दधि की, हँसि सब बाहर आए।।

    यहाँ तक तो हुई उनकी चोरी, माखन खाया और बाहर निकले। इतने में वह गोपी कमोरी लेकर पहुँची और उनके मुख पर दधि-माखन लपटा हुआ देख कर पूछ ही तो बैठी-

    कहँ आए ब्रज-बालक संग लै, माखन मुख लपटान्यौ।

    दूसरा कोई होता तो सटपटा जाता, परन्तु बाल-कृष्ण को बहाना बनाने में देर नही लगी, कहाः-

    खैलत तें उठि भज्यौ सखा यह, इहिं घर आइ छपान्यौ।

    ऐसे एक नहीं, अनेक बहाने बाल-कृष्ण ने बनाये हैं। बातें बनाने और झाँसा-पट्टी देने की कला में वह प्रवीण है। गोपियाँ उनकी ऐसी शरारतों पर खीजती नहीं, रीझती है। वे बाल-कृष्ण की रूप-माधुरी पर मुग्ध है, जी-जान से न्योछावर है। सूर ने माखन-चोरी की लीलाओ को रूपासक्ति के अन्तर्गत ही चित्रित किया है। रूपासक्ति की गई परिस्थितियाँ है- कुछ गोपियाँ तो कृष्ण की रूप-माधुरी पर इतनी रीझी हुई है कि वे उन्हे माखन की चोरी करते समय लुक-छिप कर देखती है और उस दृश्य का जी भर कर आनन्द लूटती है, कुछ उन्हें माखन लूट-खसोट कर खात देखकर उनके सामने आती है और खड़ी खड़ी हँसती रहती है, कुछ उनसे प्रश्न करती है और उनकी चिकनी-चुपडी बातो का रस लेती है, कुछ छीना-झपटी करती है, कुछ डाट-फटकार बताती है और कुछ यशोदा अथवा नन्द के पास उलाहना लेकर जाती है। इधर गोपियो का यह हाल है, उधर बाल कृष्ण की शरारते बढ़ती जाती है। ज्यो-ज्यो गोपियाँ रीझती है, त्यों-त्यों बालकृष्ण का साहस बढता जाता है और वह ढीठ होते जाते है। एक दिन अवसर पाकर अकेले वह एक ग्वालिन के घर में घुस गये और डाल ही तो दिया एक दही की कमोरी में हाथ, पर बेचारे तुरन्त पकड़ गये। फटकार पड़ी तो बोले-

    मैं जान्यौ यह मेरौ यह है, ता धोखे मै आयौ।

    देखत हौं गोरस मै चींटी, काढ़न को कर नायौ।।

    सुनि मृदु वचन, निरखि मुख-सोभा, ग्वालिनि मुरि मुसुकानी।

    कोई कुछ कहे भी तो क्या कहे इस अनोखी सूझ पर! तीसो दिन माखन-चोरी होने लगी। और फिर-

    चली ब्रज घर-घरनि यह बात।

    नद-सुत संग सखा लीन्हें, चौरि माखन खात।।

    कोउ कहति, मेरे भवन भीतर अबहिं पैठे धाइ।

    कोउ कहति, मोहिं देखि द्वारै उतहिं गए पराइ।।

    कोउ कहति, किहिं भाँति हरि को देखौं अपने धाम।

    हेरि माखन देउँ आछौ, खाइ जितनो स्याम।।

    कोउ कहति, मै देखि पाऊँ, भरि धरौं अँकवारि।

    कोउ कहति, मै बाँधि राखौं, को सकै निरधार।।

    जब गोपियो की ऐसी मनोदशा है तब बाल-कृष्ण क्यो चुपचाप बैठे। एक दिन तो वह ऐसा सफेद झूठ बोले, ऐसा स्वांग बनाया कि गोपी चकित हो गयी-

    माखन चोराइ बैधौ, तौ लौ गोपी आई।

    देखे, तब बोल्यौ कान्ह उतर यो बनाई।।

    आँखें भर लीनी, उराहनौ दैन लाग्यौ।

    तेरौ री सुवन मेरी मुरली लै भाग्यौ।।

    री मोकों ल्याइ धेनु, कहि, कर गहि रोवै।

    ग्वालिनि डराति जिपहिं, सुनै जनि जसोवै।।

    इसी को कहते हैं चोरी और सीना जोरी। बेचारी गोपी डर गयी। बालकृष्ण ने मेवा-मिठाई खाई और एक मुरली भी झटकी। कभी जब उनसे कुछ कहते बन पड़ा तब गोपी के मुँह पर कुल्ला कर दिया या चिल्लू में पानी भर कर उसकी आँखों पर छिड़क दिया और भाग खड़े हुए। कभी अनुनय-विनय भी की और पैर पकड़ कर भी बैठे। गोपियाँ परेशान हो गयी। यशोदा जी के पास उलाहने आने लगे। एक ने कहा-

    जसुदा! कहँ लौं कीजै कानि।

    दिन-प्रति कसै सही परति है दूध-वही की हानि।।

    अपने या बालक की करनी जो तुम देखो आनि।

    गोरस खाइ, खवावै लरिकन, भाजत भाजन भानि।।

    दूसरी ने कहा-

    सुनहु महरि अपने सुत के गुन कहा कहौं किहिं भाँति बनाई।

    चोली फारि, हार गहि तोरयो, इन बातनि कहो कौन बड़ाई।

    माखन खाइ, खवावै ग्वालिनि, जो उबरयो सो दियौ लुढ़ाई।।

    तीसरी ने कुछ खीजकर कहा-

    आपनौ गाउँ लेउ नंदरानी।

    बड़े बाप की बेटी, पूतहिं भली पढ़ावति बानी।।

    सखा-भीर लै बैठत घर मैं, आप खाई वौ सहिये।

    मैं जब चली सामुहै पकरन, तब के गुन का कहिये।।

    भागि गए दूरि देखत कतहूँ मैं घर पौढ़ी आइ।

    हरै-हरै बेनी गहि पाछै, बाँधी पाटी लाइ।

    इस गोपी की बात सुन कर बालकृष्ण से रहा गया। दिया झाँसा और बोले-

    सुनु मैया! याके गुन मोसों इन मोहिं लयौ बुलाई।

    दधि मैं पड़ी सेत की मोपै चींटी सबै कढ़ाई।।

    टहल करत मैं याके घर की, यह पति संग मिलि सोई।

    कितना सफेद झूठ है। फिर भी गोपियो के उलाहनो पर यशोदा को विश्वास नहीं होता। वह उनकी बाते बनावटी समझती है-

    पाँच बरष और कछुक दिननिकौ, कब भयौ चोरी जोग।।

    बोलत है बतियाँ तुतरी हीं, चलि चरननि सकात।

    कैसे करै माखन की चोरी, कत चोरी दधि खात।।

    तू तौ धन-जोबन की माती, नित उठि आवति भोर

    लाल कुँअर मेरौ कछू जानै, तू है तरुनि किसोर।।

    कहा भयौ तेरे भवन गए जो पियौ तनक लै भोरै।

    ता ऊपर काहै गरजति है, मनु आई चढ़ि घोरै।।

    यशोदा का मातृ-हृदय वात्सल्य से सराबोर है, इतना सराबोर है कि बालकृष्ण की शरारतों को स्थान देने का उसमें स्थान नहीं है। बालकृष्ण यशोदा के प्रौढ़ावस्था के पुत्र है। वह यौवन की सा पर पहुँच चुकी है और नीचे ढलना आरम्भ कर रही है। अतः उनमें वह क्रोध, खीझ और उतावलापन नहीं है जो प्रायः नवयुवतियों में पाया जाता है। उन्हें बालकृष्ण आशा के पश्चात् मिले हैं। इसलिए उनके प्रति उनका रुका हुआ सहज वात्सल्य फूट पड़ा है। उलाहना के अवसरों पर सूर ने उनकी इस भावना का अत्यन्त सुन्दर ढंग से निर्वाह किया है। बार-बार शिकायते आने पर भी वह क्रोध से उबल नहीं पड़ती, बालकृष्ण को समझाती हुई कहती है-

    इन अँखियन आगै ते मोहन, एकौ पल जनि होहु नियारे।

    औरौ सखा बुलाइ आपने, इहि आँगन खेलो मेरे बारे।।

    कत हो कान्ह! काहु के जात।

    ये सब ढीठ गरब गोरस के, मुख संभार बोलत नहिं बात।।

    जोइ-जोइ रुचै सोइ तुम मोपै, माँगि लेहु किन तात!

    काहे को लाल पराए घर कौ चोरि-चोरि दधि-माखन खात?

    परन्तु बालकृष्ण पर यशोदा के इस समझाने-बुझाने का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। माता से माखन मांगकर वह किसी-न-किसी बहाने घर से निकल जाते है और राह चलती गोपिकाओ के साथ छेड़-छाड़ आरंभ कर देते हैं। अब उनकी शरारतें घर के भीतर ही सीमित नहीं है। कभी घर के भीतर और कभी घर के बाहर जहाँ भी वह दधि-माखन पाते है उस पर डाका डाल देते है। एक दिन एक गोपी ने उलाहना देते हुए कहा-

    भाजि गयो मेरे भाजन फोरि।

    लरिका सहस एक संग लीन्हे, नाचत फिरत सांकरी खोरि।।

    मारग तौ कोउ चलन पावत, धावत, गोरस लेत अँजोर।

    अन्त में यशोदा सुनते-सुनते ऊब गयी। तीसो दिन उलाहना, तीसो दिन हाय-हाय।। उलाहना देने वाली एक ग्वालिन से उन्होंने कहा-

    सुन री ग्वारि! कहौं इक बात।

    मेरी सौं तुम याहि मारियौ, जबहीं पावौ घास।।

    अब मै याहि जकरि बाधौंगी, बहुतौ मोहि खिझायौ।

    इतना ही नही, बालकृष्ण को पकड़ कर उन्होने धमकाया----

    कन्हैया! तू नहि मोहिं डरात।

    षट रस धरे छांड़ि, कत पर-घर चोरी करि-करि खात।।

    बकत-बकत तोसो पचिहारी, नैकुहु लाज आई।

    ब्रज-परगन-सिकंदार महर, तू ताकी करत नन्हाई।।

    इतने पर भी जब बालकृष्ण ने चोरी करना नहीं छोड़ा तब यशोदा से नही रहा गया ऊखल से बाँध दिया और बोली-

    बाँधौं आजु, कौन तोहि छोरै।

    बहुत लँगरई कीन्ही मोसो, भुज गहि रजु ऊखल सो जोरै।

    इस पर बालकृष्ण-

    सुत-हित क्रोध देखि माता के, मन हीं मन हरि हरषै।

    जननी अति रिस जानि बँधायौ, निरखि बदन, लोचन-जल ढोरै।

    बालकृष्ण की ऐसी दशा देखकर गोपियों का हृदय सहज करुणा से भर गया। वे बोलीः-

    जसुदा! तेरो मुख हरि जोवै।

    कमल नैन हरि हिचिकिनि रोवै, बंधन छोरि, जसोवै।।

    जो तेरौ सुत खरौ अचगरौ, तऊ कोखि को जायौ।

    कहा भयो जो घर के ढोटा, चोरी माखन खायो।।

    महरि! ऐसे सुभग सुत सो इतौ कोह निवारि।

    कोटि चंद वारौं मुख-छबि पर, है साहु, कि चोर।।

    गोपियों की बाते सुनते-सुनते यशोदा उनपर उबल पड़ी-

    कहन लगौं अब बढ़ि-बढ़ि बात!

    ढोटा मेरौ तुमहिं बँधायौ, तनकहिं माखन खात।

    अब मोहिं माखन देति मँगाए, मेरै घर कछु नाहिं।

    यशोदा का क्रोध शान्त नहीं हुआ। बात हलधर तक पहुँची। हलधर आये और उन्होंने भी माता को शान्त करने की चेष्टा की, पर सब व्यर्थ। यशोदा नहीं मानी। बोली—

    करन देहु इनकी मोहिं पूजा, चोरी प्रगटत नाम।

    बाल कृष्ण ने अपनी रक्षा का अन्य उपाय देखकर एक कौतुक कर डाला। ऊखल लुढकाते-लुढकाते यमलार्जुन वृक्षों के पास पहुँचे और उन्हें उन्होंने हिलाकर गिरा दिया। दोनों वृक्षों का गिरना था कि कुबेर के दो शापित पुत्र उनसे उत्पन्न हुए। बालकृष्ण ने उन्हें अपना दिव्य रूप दिखाया। यशोदा उन समय वहा नहीं थी। वृक्ष गिरे तो धमाका हुआ। यशोदा दौड़ी आई और कृष्ण का कौतुक देखकर चकित रह गयी। फिर तो उन्होंने कृष्ण को बन्धन-मुक्त कर दिया और पछताती हुई बोली-

    मोहन! हौं तुम ऊपर बारी।

    कंठ लगाइ लिए, मुख चूमति, सुन्दर स्याम बिहारी।।

    अब घर काहू के जनि जाहु।

    तुम्हरै आजु कमी काहे की, कत तुम अनर्ताह खाहु।।

    इस दृश्य के साथ ही माखन-चोरी की लीलाओ का अवसान होता है। अपने इस प्रसंग मे सूर ने लीलाओ की एक सुन्दर योजना प्रस्तुत की है। साथ ही वात्सल्य, श्रृंगार तथा अद्भुत रसो की अत्यंत सुन्दर ढंग से प्रतिष्ठा भी की है। यमलार्जुन की कथा में बालकृष्ण के अलौकिक रूप का महत्व है। सूर के बालकृष्ण परब्रह्म है। इसलिए वह अपनी लौकिक-लीलाओं मैं कही गोपनीय रूप से और कही स्पष्ट रूप से अपने अलौकिक रूप का परिचय देते हैं। माखन-चोरी के प्रसंग में उन्होंने दो अवसरो पर अपने अलौकिक रूप का परिचय दिया है- एक तो मध्य में गोपियों के मन की बात जानने के समय और दूसरे यमलार्जुन के उद्धार के समय। इस से चरित्र के अन्तर्गत एक रहस्यात्मक पुट का समावेश हो गया है। चरित्र-काव्य में रहस्यात्मक पुट की एक मर्यादा होती है। उसका आधिक्य जहां चरित्र-काव्य के सौंदर्य को गहन-गंभरी बना कर नीरस बना देता है वहां उसका नितांत अभाव चरित्र के प्रति पाठकों का सहज आकर्षण प्राप्त करने में बाधक होता है। सूर चरित्र-काव्य की इस विशेषता से परिचित है। इसलिए उन्होंने अपने चरित्र के प्रति अधिक से अधिक आकर्षण प्राप्त करने के लिए मनोवैज्ञानिक विश्वसनीयता के कोई शरारत अस्वाभाविक लगती है, गोपियो की शिकायत और माता यशोदा की दुलार फटकार। गोपियों की रूपासक्ति भी वात्सल्य का ही एक अंग है। इस प्रकार यह संपूर्ण प्रसंग यशोदा और गोपियों के स्नेह की सहज धारा को प्रवाहित करने में समर्थ है। इस स्नेह धारा में अवगाहन कर पाठक का हृदय भक्ति भावना से इतना परिपूर्ण हो जाता है कि उसे बालकृष्ण की माखन चोरी पर पाप-पुण्य की दृष्टि से टीका-टिप्पणी करने का अवकाश ही नहीं मिलता। आगे की लीलाएं- दानलीला आदि- भी इसी प्रसंग के वयप्राप्त रूप है।

    माखन-चोरी की लीलाएँ तो विष्णु पुराण में है, और महाभारत में, हरिवंश-पुराण में प्रसंगवश अवश्य गयी है। भागवत में तो इनकी पर्याप्त चर्चा है। भागवतकार का मत है कि बालकृष्ण अपने लिए नहीं बन्दरों के लिए माखन की चोरी करते थे। बन्दरों के लिए माखन पाने पर वह मचल जाते थे और रोते थे। सूर ने अपनी लीलाओं को भागवत में वर्णित लीलाओं पर ही आधारित किया है, पर इन प्रसंगों में भी उनकी मौलिकता है। उन्होंने बालकृष्ण की प्रत्येक लीला को काव्य-काल और मनोविज्ञान के सिद्धान्तों के अनुसार ही चित्रित किया है। पर कहीं-कहीं वह रूढ़ियों में भी फँस गये है। जहाँ ऐसा हुआ है वहाँ काव्य का मनोवैज्ञानिक सूत्र टूट गया है। उदाहरण के लिये वह अवसर लिया जा सकता है जहाँ बालकृष्ण प्रौढ़ावस्था प्राप्त गोपियो की चोली पर प्रहार करते है और यशोदा के सामने कहते है- यह पति संग मिलि सोई। ऐसे अवसर कम हैं, पर वे जहाँ भी है वहाँ दुर्बल है, अप्रासंगिक है। पाँच वर्ष के अबोध बालकों के मुख से ऐसी बाते कहलाना स्वाभाविक नहीं कह जा सकता। गोपियों की चूड़ियाँ को तोड़ डालना उनके वस्त्र फाड़ डालना, खाट की पाटी से उनका जूडा बाँध देना, उनके गले का हार तोड डालना, उनकी कमोरिया फोड डालना आदि तक तो गनीमत है, पर उनकी चोली पर हाथ लगाना- तो किसी भी दशा में क्षम्य नहीं है।

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