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प्रेम और मध्ययुगीन कृष्ण भक्ति काव्य- दामिनी उत्तम, एम. ए.

सम्मेलन पत्रिका

प्रेम और मध्ययुगीन कृष्ण भक्ति काव्य- दामिनी उत्तम, एम. ए.

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    वैदिक साहित्य के अन्तर्गत प्रेम शब्द का प्रायः अभाव ही है, और जहाँ प्रेम शब्द का प्रयोग हुआ भी है वहाँ वह काम शब्द के अर्थ में हुआ है, जिससे कामना का अभाव प्रकट होता है। यदि व्याकरण की दृष्टि से देखें तो प्रियस्यभावः को प्रेम कहा जा सकता है। प्रिय को प्र आदेश करने से, इमनिच् प्रत्यय लगाने पर इससे प्रेम शब्द की व्यत्पत्ति होती है। इसका प्रयोग भावपरक होने के कारण यह प्रसन्नता के अर्थ में प्रयुक्त हो सकता है। इसके अनुसार इसका प्रयोग साधनापरक होने के कारण इसका अर्थ प्रसन्न करने वाला भी हो सकता है। विभिन्न कोशों में इसी प्रकार के अर्थ लिये गये हैं। अमरकोश में कहा गया है- प्रेम तु प्रियता हावम् स्नेहः। वाचस्पति कोश में- सौहार्द स्नेहे हर्षे कहा गया है। अन्य कोशों में लगभग इसी अर्थ को लिया गया है। नारदभक्ति-सूत्र, हरिभक्ति-रासवृत्त, सिम्बु, उज्जवल नीलमणि तथा अन्य अनेक ग्रन्थों में दार्शनिकों, साधकों तथा आलोचकों ने अपने-अपने विचारानुसार प्रेम की परिभाषाएँ दी है।

    आचार्य विश्वनाथ ने रतिर्मनोनुकूलेअर्थे मनसः प्रबलायितम् कह कर अनुकूल विषयौं के प्रति मानसिक आसक्ति को रति कहा है। वास्तव में प्रेम का मूल आधार रति है। अनुकूल विषय के प्रति जब आसक्ति हृदय कों द्रवित कर प्रगाढ़ हो जाती है तो वह प्रेम कहलाने लगती है। इसमें स्वार्थ का अभाव, सम्पूर्ण आत्मत्याग और तन्मयता की पराकाष्ठा रहती है। अनन्तभावों और अनन्त रूपोंमें नित्यक्रीड़ा करने वाल यह प्रेम ही परास्पर तत्व है। इस प्रेम को रस संज्ञा देकर रसो वै सः आदि श्रुतिपरक वाक्यों द्वारा भी समझा जा सकता है। अर्थात् रसरूप भगवान और परात्पर प्रेमतत्व में तात्विक भेद नहीं हैं। यह प्रेम सहज और असीम होने के कारण नित्य माना जाता है। वास्तव में प्रेम की व्यापक महत्ता के कारण साहित्य में इसका सर्वाधिक महत्व है। एकोअहम् बहुस्याम् में भी यही भाव निहित है और सृष्टि का विकास भी इसी से होता है।

    प्रेम का महत्व अनेक विद्वानों और भक्त कवियों ने बतलाया है। जिस शरीर में प्रेम प्रकट हो जाता है वह अजर-अमर हो जाता है। नारद भक्ति-सूत्र में नारद ने भक्ति को प्रेम स्वरूपा और अमृत स्वरूपा कहा है। नारद के अनुसार भक्ति को इस रूप में अपना लेने पर मनुष्य सिद्ध, अमर एवं तृप्त हो जाता है। नारद ने प्रेम की कोई परिभाषा नहीं दी है। बस केवल प्रेम स्वरूप को मूकास्वादनवत् तथा अनिर्वचनीय कह कर रह गये हैं। उनके अनुसार प्रेम अपने पात्र में किसी कामना या गुण की अपेक्षा नहीं करता। यह प्रेम उत्तरोत्तर बढ़ता ही रहता है। बहुत से आधुनिक लेखकों ने इसे केवल स्थूल यौन सम्बन्ध माना है। फ्रायड ने तो प्रत्येक भावपरक सम्बन्ध को ही यौन-सम्बन्धी प्रेम पर आश्रित माना है।

    वास्तव में प्रेम एक सामाजिक महत्व का भाव मात्र नहीं है, वरन् वह आध्यात्मिक भीहै। मध्ययुगीन भक्त कवियों ने इस प्रेम भाव को भक्ति भाव का एक महत्वपूर्ण अंग माना है। मध्ययुगीन स्वच्छन्द प्रेम साधना के अन्तर्गत तो इसे भक्ति की अंतिम परिणति माना गया है। जब प्रेम की उच्छृंखलता लौकिक रूप का परित्याग कर आध्यात्मिक रूप में परिवर्तित हो जाय तभी वह प्रेम स्वच्छन्द-प्रेम-साधना के अन्तर्गत जाता है। लौकिक प्रेम पारमार्थिक प्रेम का रूप धारण कर ले। प्रेम व्यष्टि (व्यक्ति) से समष्टि की ओर पहुँच जाता है और वह अध्यात्म रस की प्राप्ति कराता है, जिसकी प्यास कभी बुझती नहीं। व्यष्टि एवं समष्टि के बीच सामंजस्य की स्थापना तभी हो सकती है जब काडवेल के शब्दों में यह स्वीकार कर लिया जायं- व्यक्ति समाज से प्रत्यक्षतः विपरीत जाता जान पड़ने पर भी उसे भीतर से अनुप्राणित किया करता है और समाज भी स्वयं अपने आन्तरिक विकास के आधार पर नव व्यक्तित्व का निर्माण करता रहता है।

    पद्यपुराण में गोपी, राधा और कृष्ण के इसी अलौकिक स्वच्छन्द प्रेम का वर्णन इस प्रकार है-कृष्ण संदेह सच्चिदानन्द आनन्दघन स्वरूप में दिखाई पड़ते हैं। राधा उनकी पराशक्ति हैं। गोपियाँ उनकी सखी-सहेली, सहचरी और दूती है। पराशक्ति रसधन के सौन्दर्य पर मुग्ध होकर उनसे मिलने को व्याकुल होती है। ये सखियाँ चित्तवृत्तियाँ है, जो देहधारिणी बनी है। ये चित्तवृत्तियाँ इस परमात्मा से पराशक्ति को मिलाने वाली हैं। इन चित्तवृत्तियों (भावनाओं) को उस श्यामसुंदर से स्वतः एकीकरण की अभिलाषा नहीं होती। ये तो आत्म-पराशक्ति को आनन्दधन के साथ एकाकार होने के समय होता है। ये पवित्र भावनाएँ जीवात्मा का साथ तभी कर पाती हैं जब उनमें नितान्त निर्मलता जाती है। यद्यपि राधिका नित्य है, गोपियाँ नित्य हैं, किन्तु वासना के निवारण होने पर दृष्टिगोचर होती है।

    प्रेम-साधना में लीन भक्ति की स्थिति निराली ही हो जाती है। उसे सांसारिक प्रयोजनों और प्रपंचों से कुछ भी लगाव नहीं रहता। उसका हृदय सदैव प्रेम से ही ओत-प्रोत रहता है, और इसी कारण वह अपने भीतर एक विशेष प्रकार का आनन्द अनुभव करता है। वह किसी भी प्रकार के अनुशासन को महत्व नहीं देता और प्रेमोन्मत्त रहता है। वह निर्विकार भाव से स्वच्छन्द अवस्थआ में प्रेम का पवित्र पात्र रहता है। लोक वेद की दृष्टि से उसका व्यवहार अमर्यादित कहा जा सकता है, पर वह तो वास्तव में इस लोक के प्रपंचों से इतना ऊपर उठ चुका होता है कि उसे लोक-व्यवहार का ध्यान ही नहीं रहता। इस सम्बन्ध में डा. हरवंशलाल शर्मा ने लिखा है- “लोकपक्ष में जिसे हम श्रृंगार रस कहते हैं, भक्ति पक्ष में वह मधुर रस कहलाता है। ... सूर की भक्ति का उद्देश्य भक्त को संसार के ऐन्द्रिक प्रलोभनसे बचाना है, यही कारण है कि उनकी भक्ति-भावना स्त्री-भाव से ओतप्रोत है, जिसका प्रतिनिधित्व गोपियाँ करती है। वे कृष्ण में इतनी तल्लीन हैं कि उनकी कामरूप प्रीति भी निष्काम है। इसलिए संयोग-वियोग-दोनों ही अवस्थाओं में गोपियों का प्रेम एकरूप है।“ इस सम्बन्ध में डा. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने भी लगभग समान विचार व्यक्त किये हैं- “जड़-जगत् में जो सबसे नीची है, वही भगवद्विषयक होने पर सबसे ऊपर हो जाती है। यही कारण है कि श्रृंगार रस, जो जड़ जगत में सबसे निष्कृट है, वस्तुतः भगवद्विषयक श्रृंगार होने पर मधुर रस हो जाता है।“ श्री परशुराम चतुर्वेदी ने शुद्ध प्रेम की व्याख्या इस प्रकार की है- शुद्ध प्रेम की प्रवृत्ति सदा स्वच्छन्द रह कर ही प्रवाहित होना चाहती है, वह किसी संयम मर्यादा के अंकुश की कमी सहन नहीं कर पाती। डॉ. रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने कहा है कि व्यक्तिगत मानव और शाश्वत मानव की दो भिन्न भिन्न अन्वितियाँ मानी जा सकती है। जिनमें से शाश्वत मानव में पूर्णता भावनात्मक रूप में सदा निहित रहती है और वही व्यक्तिगत मानव को अपने प्रति प्रेमभाव प्रदर्शित करने तथा तद्रूप होने के लिए निरन्तर प्रेरित भी करती रहती है। वास्तव में स्वच्छन्द प्रेम-साधना में स्व और पर का भेद पूर्णतः समाप्त हो जाता है। वह व्यक्ति से उठ कर समष्टि को प्राप्त कर लेता है।

    राधावल्लभीय सम्प्रदाय के सर्वप्रथम आचार्य गोस्वामी हित हरिवंश ने राधाकृष्ण के वर्णन में प्रेम-साधना की गम्भीरता और तन्मयता को बहुत सुन्दर रूप में प्रकट किया है। उनके अनुसार प्रेम किसी अन्य बात का विचार मन में नहीं आने देता। कृष्ण और राधा दोनों का ही प्रेम अत्यधिक गम्भीर है। कृष्ण ही यह जानते है कि प्रेम का निभाना किस प्रकार का होता है। सारे विश्व के भूषण स्वरूप होते हुए भी उन्हें क्या आवश्यकता थी कि स्वयं को केवल किसी मानिनी की एक मुस्कान भर के लिए ही इतना दीन बना डालते हैं-

    प्रीति की रीति रंगीलोइ जानै।

    जद्यपि सकल लोक चूड़ामणि, दीन अपनपौ मानै।

    श्रीकृष्ण की प्रिया राधिका की स्वच्छन्द प्रेम-साधना भी कृष्ण से कम नहीं है। राजा का कहना है कि-

    जोई जोई प्यारौ करै सोई मरेहि भावै,

    भावै मोहि जोई सोई सोई करै प्यारे।

    मोको तो भावतौ ठौर प्यारे के बैननि में,

    प्यारो भयो चाहै मेरे नैननि के वारे।।

    श्रीहित हरिवंश हंश हंशसी बादल गौर।

    कहौं कौन करै जल तरंगनि न्यारे।।

    सच्चे प्रेमी और प्रेमिका का यही आदर्श है। स्वच्छन्द प्रेम-साधना का वही स्वरूप है। कवि ने स्पष्ट कर दिया है कि ये श्याम और गौर कांति वाले हंस एवं हंसिनी के समान है, जिन्हें जल और तरंग के समान ही कोई अलग नहीं कर सकता।

    माध्ययुगीन कृष्ण-भक्ति काव्य में ऐसे ही स्वच्छन्द प्रेम को गोपियों के माध्यम से व्यक्त किया गया है। वल्लभ सम्प्रदाय के प्रमुख कवि जो अष्टछाप के अन्तर्गत आते हैं उनकी भक्ति स्त्री-भाव की ही थी। वैसे वात्सल्य और सखाभाव की भक्ति भी इन्हीं की विशेषता है। परन्तु माधुर्य भक्ति का सबसे अधिक तन्मयतापूर्ण रूप दिखाई देता है। श्रीकृष्ण की प्रेमिका गोपियाँ विवाहित और अविवाहित दोनों प्रकार की थी। ये गोपियाँ परक्रीड़ा की श्रेणीं में ही आती हैं किन्तु कहीं-कहीं अष्टछाप के कवियों ने उन्हें इस प्रकार चित्रित किया है कि वे स्वकीया-सी प्रतीत होती है। ब्रह्मवैवर्त पुराण के आधार पर राधा-कृष्ण का विवाह भी वर्णित किया गया है-

    देत भांवरि कुंज मंडप पुलित में बेदी रची।

    बैठे जु श्यामा श्यामवर त्रैलोक की शोभा खची।।

    अष्टछाप के कवियों में सूरदास का स्थान सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। सूरदास ने प्रेम के अनेक रूपों का चित्रण किया है। राधा के साथ तो कृष्ण का प्रेम बालपन से ही क्रमशः बढ़ता हुआ दिखाया गया है। सूर ने बालपन में राधा-कृष्ण के खेल आदि का वर्णन किया है। फिर धीरे-धीरे खेल-खेल में ही अपना प्रेम-सम्बन्ध बढ़ाते हैं। राधा कृष्ण के घर भी आने लगती है और माता यशोदा उसके प्रति स्नेह प्रदर्शित करते हुए उसकी चोटी गूँथ देती हैं, कभी नई ओढ़नी उढ़ा देती हैं और स्वादिष्ट व्यंजन आदि भी खाने को देती हैं। कृष्ण और राधा का प्रेम घर और बाहर पल्लवित होता जाता है। हास-परिहास और छेड़-छाड़ भी आरम्भ हो जाती है। अन्य गोपियाँ भी इसमें भाग लेने लगती हैं। तत्पश्चात् दानलीला, चीरहरण लीला आदि लीलाओं में प्रेम विकसित होता जाता है और परिणामतः राधा और गोपियां का प्रेम अलौकिकता का स्पर्ष करने लगता है और वे प्रेम में इतनी अनुरक्त ही जाती हैं कि अपनी सुध-बुध भी भूल जाती हैं। गोपियाँ सभी परकीया है। वैष्णव कवियों ने अपने भगवत्प्रेम को प्रकट करने और प्रेम की तीव्रता को व्यक्त करने के लिए परकीया प्रेम को आदर्श मान कर अपनाया है। भावावेगों की तीव्रता, पूर्वराग, प्रेम की पूर्णता तथा नित्य नवीनता आदि की दृष्टि से भी परकीया प्रेम स्वकीया प्रेम की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण माना गया है। विरह और मान के द्वारा यह परकीया प्रेम और भी तीव्रता को प्राप्त होता है। प्रेम में विरह का अत्यधिक महत्व है। विरह की अग्नि में तपकर प्रेम स्वर्ण की भाँति शुद्ध हो उठता है।

    श्रीमद्भागवत में नवधा भक्ति का विवेचन हुआ है। परन्तु सूरदास ने दसवीं प्रेम-स्वरूपा भक्ति के अन्तर्गत माधुर्य भाव की भक्ति को अत्यधिक महत्वपूर्ण माना है। सूर की स्वकीया और परकीया दोनों ही भावों की रति रहती है। सूर द्वारा वर्णित दान-लीला, रास-लीला और चीरहरणलीला में आत्मसमर्पण और अनन्य भाव दिखाई देता है जो मधुर भक्ति के लिए आवश्यक है। सूर का विरह संयोग से भी अधिक उज्ज्वल और प्रबल है। यह वियोग वर्णन दो रूपों में हुआ है, एक तो भ्रमरगीत के रूप में और दूसरे साधारण रूप में। दोनों ही रूपों में गोपियों के प्रेम की पराकाष्ठा दिखाई देती है। इस वर्णन में विरह से उद्बुद्ध अनेक भावों और अन्तर्दशाओं के चित्र अंकित है। भ्रमरगीत के अवसर पर मन में रह्यो नाहिन ठौर, ऊधौ मन माने की बात आदि कहला कर प्रियतम के प्रति तल्लीनता को प्रकट करते हैं। प्रकृति के सारे पदार्थ गोपियों को काटने को दौड़ते हैं। गोपियों का स्वच्छन्द प्रेम लोक मर्यादा से परे अलौकिक धरातल पर आधारित है। वास्तव में जब सांसारिकता से भिन्न अलौकिक मथुरा रति स्थायीभाव, अनन्त सौन्दर्य-रसानन्द स्वरूप ईश्वर-रूपी आलंबन विभाव को प्राप्त कर लेती है तो विभिन्न अनुभावों जैसे रोमांच, अश्रुपात तथा संचारी भावों जैसे हर्ष, आवेग, औत्सुक्त के माध्यम से मधुर भक्ति में परिणत हो जाती है। यह अलौकिक मधुर रस अत्यधिक चमत्कारिक तथआ लोकोत्तर होता है। भागवतकार ने इसी भाव को व्यक्त करते हुए कहा है- “तुम्हारे साक्षात्कार आह्लाद के विशुद्ध समुद्र में स्थित होने के कारण मुझे समस्त सुख गोपद समान प्रतीत होते हैं।“ सूर के अनुसार राधा और गोपियों का कृष्ण के प्रति प्रेम अलौकिक है। साथ ही वे स्वयं भी अलौकिक है। एक पद में सूर राधा को प्रकृति और कृष्ण को पुरुष कहते हैं। वे दोनों एक है और अभिन्न हैं।

    सूर ने राधा को भगवान की जगत्-उत्पादिका शक्ति भी कहा है और कृष्ण-भक्ति प्राप्त करने के ले वे शक्ति-स्वरूपा राधा की वंदना भी करते हैं।

    परमानन्द की गोपी भी अपने अलौकिक स्वच्छन्द प्रेम को स्पष्ट रूप से स्वीकार करते हुए कहती है-

    मैं तो प्रीति स्याम सों कीनी।

    कोई निन्दो कोऊ बंदो अब तो यह कर दीनी।

    जो पतिव्रत तो या ढोटा सों इन्हें समप्यों देह।

    जो व्यभिचार नंद-नन्दन सो बाढ्यो अधिक स्नेह।

    जो व्रत गह्यो सो और भायो मर्यादा को भंग।

    परमानन्द लाल गिरधर को पायो मोटो संग।।

    सूर के समान ही परमानन्ददास ने भी राधा की प्रशंसा की है। वे राधा के चरणों को कृष्ण-वियोग-रूप-सागर के तारने के लिए नौका के समान कहते हैं।

    अष्टछाप के कवियों ने राधा को पूर्वा स्वकीया नायिका के रूप में वर्णित किया हैं और गोपियों का प्रेम अलौकिक होने के कारण अत्यधिक शुद्ध है। परमानन्ददास जी इन गोपियों की प्रशंसा करते हुए कहते हैं- गोपियाँ अत्यन्त पुनीत आत्माएँ हैं। बहुत उच्च वर्ग की यद्यपि वे नहीं हैं परन्तु ब्राह्मणों से भी अधिक पूजनीय है। जिस ब्राह्मण ने हरि की सेवा नहीं की वह ब्राह्मण घर में जन्म लेने से ही उच्च नहीं हो जाता।

    नन्ददास ने भी स्वच्छन्द प्रेम-साधना का महत्व स्पष्ट करते हुए उपपति-रस पर बल दिया है। यों तो यह उपपति-रस एक विवाहिता का किसी पर-पुरूष के प्रित आकृष्ठ होने के कारण पूर्णरूप से निन्दनीय और हेय समझा जा सकता था। परन्तु नन्ददास का यह प्रेम किसी लौकिक पुरुष के संदर्भ में नहीं वरन् अलौकिक कुँवर कन्हाई से है, अतः यह भक्ति के क्षेत्र में स्वच्छन्द प्रेम-साधना को गरिमा से युक्त हैं। रूप-मंजरी को उसकी सखी इन्दुमती इसी रस के प्रयोग द्वारा सुखी बनाना चाहती हैं। वह कहती है-

    रसनि में जो उपवति रस आही। रस की अवधि कहत कवि ताही।

    सो रस जो या कुंवरिहि होई। तौ हौं निरखि जिऊ सुख होई।।

    धर अंबर ससि सूरज तारे। सर सरिता साइर गिरियारे।

    हम तुम अरु सब लोग लुगाई। रचना तिन ही देव बनाई।।

    नन्ददास की रूपमंजरी ऐसे प्रियतम के प्रति अनुरक्त होकर किसी सामाजिक बंधन या कलंक की भागी नहीं होती। स्वप्न में भी रूपमंजरी को अपने नवल किशोर के आसपास की द्रुम-बेलियों तक अपने गीत सी प्रतीत होती है। जिससे स्पष्ट हो जाता हैं कि प्रेम का मूल आत्मीय है। वास्तव में रूपमंजरी को अपने लौकिक पति से विरक्ति हो जाती है और वह उस अलौकिक को अपनानै के ले व्याकुल हो उठती है जो परब्रह्म है और स्वच्छन्द प्रेम-साधना का मूल है। नन्ददास ने इसे और भी स्पष्ट शब्दों में स्वीकारा है-

    जदपि अगन ते अगम अति, निगम कहत हैं जाहि।

    तदपि रंगीले प्रेम ते, निपट निकट प्रभु आहि।।

    अष्टछाप के अन्य कवि कृष्णदास ने भी प्रेम के अलौकिकत्व को स्वीकारा है और उन्होंने जहाँ भी श्रीकृष्ण का वर्णन किया है, उन्हें युगल रूप में देखा है। उनके अनुसार राधा और कृष्ण-दोनों रसमय हैं, उनके अंग-अंग रस के बने हुए हैं और इस युगल रस को रसिक जन ही पहिचान पाते हैं। कृष्णदास को इस उभयपक्षीय प्रेम या रति की न्योछावर मिल रही है। कुम्भनदास प्रेममूर्ति युगल किशोर के उपासक थे। उन्होंने केवल कृष्ण की रसवती लीलाओं का ही चित्रण किया है। चतुर्भुजदास ने एक गोपी द्वारा कहलाया है कि कृष्ण रसनिधि और रसिक हैं और वे रस ही से रीझते हैं, जो रहस कर उनको हृदय से लगाता है वह रस रूप कृष्ण की रसता में मिल जाता है। यहाँ ब्रह्म की रसता में मिलने के भाव से अद्वैत के भाव को ही व्यक्त किया गया है। चतुर्भुजदास के अनुसार भी श्रीकृष्ण परब्रह्म है और राधा उनकी आनन्द-शक्ति है। राधा और कृष्ण की युगल उपासना भी इन्होंने की है। अष्टछाप के कवि गोविन्दस्वामी भी नंदनन्दन कृष्ण और उनकी सहचरी राधा-दोनों को रसरूप मानते हैं। दोनों को एक रूप मान कर उनके प्रति अपनी भक्ति प्रकट की है। छीतस्वामी एक पद में गोपी बन कर कहते हैं- मैं अपने आगे-पीछे, इधर-उधर सर्वत्र कृष्ण ही देखती हूँ और सबको कृष्णमय पाती हूँ।

    अष्टछाप के कवियों में मुख्यतया सूरदास, परमानन्ददास तथा नन्ददास ने ही मधुरा भक्ति द्वारा प्रेम के महत्व को व्यक्त किया है। अन्य अष्टछापों कवियों ने यद्यपि विस्तृत वर्णन नहीं किया है परन्तु प्रेम के महत्व को स्वीकारा है। वास्तव में नारद ने इस भक्ति को परम-प्रेम-रूप और अमृत-स्वरूप कहा है तथा शाण्डिल्य ने जिस भक्ति को ईश्वर में परमानुरक्ति कहा वही मध्ययुगीन कृष्ण-भक्त कवियों के काव्य रूप में राधा और गोपियों के माध्यम से व्यक्त की गयी।

    मध्ययुगीन कृष्णभक्त कवियों ने ईश्वरोन्मुख प्रेम को ही स्वार्थ से रहित माना है। इस ईश्वरीय प्रेम में किसी प्रकार का भय नहीं रहता। क्योंकि इसका आधार पूर्ण आत्मसमर्पण होता है। इसमें किसी भी प्रकार का छल, कपट, द्वेष और हृदय की मलिनता नहीं रहती। ऐसा प्रेमी निष्पाप और निर्वेरी हो जाता है। इसीलिए गोपियों का स्वच्छन्द प्रेम ऐसा हैं जिसमें काम का लेशमात्र नहीं है और वह इतनी ऊँचाई पर पहुँचा हुआ है कि उसमें फिर लोक-मर्यादा का भय भी नहीं रह जाता।

    मध्यकालीन भक्तों का आदर्श गोपीभाव केवल कामगंधहीन अपितु कामना-रहित अथवा अहैतुक भी बताया जाता है। उसमें अपने प्रेमास्पद के प्रति स्वर्था अर्पितमनोबुद्धि तथा अर्पितारिव लाचार तक हो जाना पड़ता है जिससे वैसा प्रेमी जड़-यंत्रवत् बन जाता था और उसका अन्तिम लक्ष्य अपने परोक्ष प्रेमपात्र द्वारा अपना लिया जाना अथवा पूर्णतः उसका हो जाना मात्र था। प्रेम-भाव में उदाहऱण का भी अत्यधिक महत्व है। काम और शारीरिकता से दूर होने के कारण प्रेमी यदि अपने प्रेमपात्र से वियुक्त भी हो जाता है तो भी उसे प्रिय की स्मृति सदैव आनन्दविभोर किये रहती है। मध्यकालीन प्रेम की सबसे उत्कृष्ट अवस्था वही है जहाँ भक्त अपने भगवान् को कान्ताभाव से अपनाता है।...... (अपूर्ण)।

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