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प्रेमाख्यानकार कवि जान और उनका कृतित्व- डाक्टर हरीश

सम्मेलन पत्रिका

प्रेमाख्यानकार कवि जान और उनका कृतित्व- डाक्टर हरीश

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    भारतीय साहित्य में प्रेमाख्यान-काव्यों की परंपरा बड़ी प्रशस्त रही है। यह परंपरा सूफी, असूफी और दक्खिनी तीनों प्रेमाख्यानों के रूप में मिलती है। यही नहीं, भारत की अनेक प्रादेशिक भाषाओं में भी अनेक प्रेमाख्यान काव्य लिखे गये हैं, जिन पर विद्वानों ने यत्किंचित् प्रकाश डाला है। इधर प्रेमाख्यानक काव्यों पर पर्याप्त शोधकार्य भी हुआ है। इस दिशा में अनेक महत्वपूर्ण निर्णय निष्कर्ष भी लिए गये हैं।

    हिन्दी साहित्य के (विशेष कर उतरी भारत के) प्रेमाख्यानों में सूफी प्रेमकाव्यों का अपना एक विशिष्ट स्थान है। इनमें चंदायन, मृगावती, पद्मावत, चित्ररेखा, मधुमालती, चित्रावली, ज्ञानदीप आदि काव्य प्रमुख है।

    सूफी प्रेमाख्यानों के साथ असूफी प्रेमाख्यानों का भी योगदान कम महत्व का नहीं। इन असूफी प्रेमाख्यानों में अनेक महत्वपूर्ण काव्यों के नाम गिनाये जा सकते हैं जो हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि हैं। उदाहरणार्थ ढोला मारूरा दूहा, सदयवत्स सावलिंगा, लखमसेन पद्मावती सत्यवती कथा, छिताई वार्ता तथा मैनासत, नल दयमंती कथा नल दमन, माधवानल कामकंदला, मधुमालती, वेलिकृष्ण रुक्मणी, रसरतन, प्रेम विलास प्रेमलता, प्रेमप्रगास, चन्द्रकुंवर री बात, पहुपावती और वीसलदेव रास आदि। इस परंपरा की उक्त सभी कृतियों पर विद्वानों ने विस्तार से लिखा है और सूफी असूफी दोनों प्रेमाख्यानों पर कई शोध कृतियाँ सामने आई हैं।

    असूफी काव्यो के सृजन में राजस्थान के कवियों का अप्रतिम योगदान है। ढोला मारूरा दोहा, रुक्मणी हरण (सायां झूला), मूमल महेन्द्र, सूपियार दे आदि सैकड़ों प्रेमकथाएँ हैं, जिन पर अभी और कार्य होना बाकी है। इधर राजस्थानी प्रेम कथाओं का एक संग्रह नाहटा जी द्वारा प्रकाशित किया गया है। फिर भी सभी राजस्थान के भंडारों में अभी ऐसे अनेक काव्य हैं, जिनसे प्रेमाख्यान-रचनाओं के इतिहास में अभीष्ट वृद्धि होगी, ऐसा हमारा विश्वास है।

    शोध कार्य करते हुए सन् 1960 से ही मध्ययुग के एक चूडात प्रेमाख्यानकार मे मेरी रुचि हुई। सामग्री संकलन और प्रतियों के पाठ-संग्रह में जुटा रहा। इधर-उधर इस सम्बन्ध में लेखों की सूचनाएँ श्रद्धेय नाहटा जी, नारायणसिंह जी भाटी, सौभाग्यसिंह शेखावत एवं अन्य सूत्रों से ज्ञात भी हुई तो देखा कि इस महान् कवि पर यत्र-तत्र मात्र छूटपुट लेख प्रकाशित हुए हैं। इनमें श्री कमलकुलश्रेष्ठ ने इस ओर एक लेख हिन्दुस्तानी में प्रकाशित कराया। और भी कुछ सामग्री ब्रजभारती, धूमकेतु, आदि में मिल जाती है। कुछ लेख वरदा, विश्ववाणी एवं सरस्वती में भी प्रकाशित हुए हैं। परन्तु इन सभी लेखों ने कवि का ऊपरी आवरण ही स्पर्श किया है। इस महान् प्रेमाख्यानकार की आत्मा का संस्पर्श करने का प्रयत्न किसी ने नहीं किया। यह प्रसिद्ध कवि जान न्यामत खाँ हैं।

    जान शेखावट (राजस्थान) के फतहपुर नामक कस्बे में उत्पन्न हुए और वे वहाँ के चौहान-वंशीय राजपूतों की शाखा के कवि हैं, जिनको आक्रमण कर्ता सेनापति सैयद ने मुसलमान बना लिया था। अतः जान कवि वंश से चौहान थे एवं धर्म से मुसलमान। ये वहाँ के शासकों में से रहे हैं। इनका वंश नवाबों के नाम से इस प्रदेश पर शासन करता रहा। जान न्यामत खाँ इनका पूरा नाम था। जान के वंशधर आज भी इस कविवर को बड़ी श्रद्धा से स्मरण करते हैं। उनके ऐसे परिजनों से लेखक का सम्पर्क हुआ है।

    जान की कृतियों का लेखक ने यथावसर अध्ययन करने का सौभाग्य प्राप्त किया है और इस उपेक्षित कवि के साथ न्याय हो, इस दृष्टि से जान के कर्तृव्य पर विस्तार में लिखा है, जो जान-ग्रंथावली के रूप में शीघ्र ही विद्वानों के सामने आयेगा।

    इस संबंध में एक महत्वपूर्ण बात यह कहना चाहता हूँ कि उत्तर प्रदेश तथा इतर प्रान्तीय अन्य विद्वानों को तो जाने दीजिए, राजस्थान के अनेक विद्वानों ने भी इस कवि को अंधकार में रखा और अपने ग्रन्थों में इनका बहुत सामान्य सा परिचय देकर ही इस श्रेष्ठ प्रेमाख्यान-कर्ता-कवि को चलता कर दिया। डा. मोतीलाल मेनारिया जैसे राजस्थानी भाषा और साहित्य पर काम करने वाले विद्वान् ने भी इस कवि के सृजन पर सिर्फ चार पंक्तियाँ लिखकर जैसे अपना फर्ज पूरा किया है। कवि जान जैसे मध्ययुग के अनेकों कवि ऐसे हैं, जिन पर विद्वानों द्वारा लिखना तो दूर, आँख उठाकर ताका तक नहीं गया है। उदाहरणार्थ- नरहरि बारहट, कुलपति मिश्र, महाराज जयवंतसिंह, दुरसा आढा, ईसरदास, सग्रामसिंह, (इन्दरगढ़) आदि अनेकों नाम उद्धृत किए जा सकते हैं। डॉ. मेनारिया ने उन पर जो कुछ लिख दिया वही जैसे लक्ष्मण रेखा हो गई। उसे लाँघने का प्रयत्न नहीं किया जाता और यही कारण है कि इन कृतिकारों पर विद्वानों की दृष्टि नहीं जाती। लेकिन मुझे यह कहने में कतई संकोच नहीं है कि डॉ. मेनारिया के ग्रन्थों से इन कवियों के लिए केवल अधूरी रचनाएँ मात्र एकत्रित की जा सकती है। इसके अतिरिक्त उनके ग्रन्थों में किसी भी कवि पर, (केवल कुछेक को छोड़कर), आलोचनात्मक अध्ययन तक नहीं है और यही कारण है कि कवि जान उनकी कलम के श्रृंगार बन सके। जान के लिए डॉ. मेनारिया लिखते है- “जैसा कि उक्त सूची से स्पष्ट है कि जान कवि ने प्रेमाख्यान अधिक लिखें है, अतएव इनकी रचना में श्रृंगार रस का प्राधान्य है। बहुत ऊँची काव्य-प्रतिभा इनमें नहीं दिखाई देती। परन्तु वर्णन की स्वाभाविक्ता तथा सजीवता और कथा-प्रवाह की धारावाहिकता द्वारा पाठक का ध्यान इधर उधर भटकने देने की जो कला-क्षमता एक कुशल कहानीकार में होनी चाहिए, वह इनमें पूरी-पूरी विद्यमान थी। इस दृष्टि से इनके प्रेमाख्यानों की जितनी भी प्रशंसा की जाय वह थोड़ी है।” डॉ. मेनारया का जान के पूरे कर्तृत्व पर यही कथ्य है। उनके सभी ग्रंथों कवियों के साहित्यिक मूल्यांकन की यही स्थिति है। डॉ. मेनारिया अपने इन संक्षिप्त कथ्यों को भले ही सागोपान मानते हों, पर हमारा मत है कि इस तरह के निर्णय एकदम एकागी एवं अपूर्ण हैं तथा ये इस दिशा में, इस पथ पर चलने वाली भावी शोध-पीढ़ी की और भी भ्रम में डालने वाले निर्णय है। यह बात हम बिना किसी पूर्वाग्रह के कह रहे हैं।

    इधर पिछले कुछ वर्षों में जान कवि पर कुछ उल्लेख और हुए हैं। इन शोध-कृतियों में कुछ कृतियाँ ध्यान देने योग्य है। इन कृतियों के लेखक अधिकांश उत्तर प्रदेश और बिहार के हैं, परन्तु इन्होंने जितना और जो कुछ भी कवि जान पर लिखा है, वह हमारे राजस्थान के उक्त कथ्यों से अधिक वजनी है। इन विद्वानों में हम पूज्य पं. परशुराम चतुर्वेदी डॉ. हरिकान्त श्रीवास्तव, डॉ. श्रीमती सरला शुक्ला, डॉ. कमल कुलश्रेष्ठ, डॉ. श्याम मनोहर पाण्डेय, आदि का नाम देना चाहेगे। प्रयाग से कोई श्री रामकिशोर जान के प्रेम काव्यों पर अपना शोध कर रहे हैं, इसकी भी सूचना मिली है, पर वह ग्रंथ प्रकाशित नहीं हैं। अतः तदर्थ उस पर कुछ भी नहीं कहा जा सकता।

    उक्त सभी ग्रन्थों और शोधकर्ताओं के जान सम्बन्धी मूल्यांकन कर यह निर्णय सरलता से किया जा सकता है कि इन्होंने जान को स्मरण तो किया है और किसी-किसी उदारमना ने तो जान के कुछ काव्यों से कुछ उद्धरण-पाठ भी दिए हैं, परन्तु उनके ग्रंथों का मूल्यांकन किसी ने नहीं किया। जान के साथ आज तक न्याय नहीं हो पाया और सैंकड़ों वर्ष हो गए यह असाधारण प्रतिभा विद्वानों की कृपाकिरण की ओर निर्निमेष दृष्टि से देख रही है कि शायद कोई दृष्टि-निरक्षेपण उस पर भी हो जाय।

    उक्त विद्वानों में डॉ. कुलश्रेष्ठ ने अपने शोध प्रबंध में जान के 20 ग्रंथों का परिचय दिया, जो कई भ्रांतियाँ पैदा करने वाला है। उन्होंने जान के ग्रंथों का वर्गीकरण भी किया, जो बहुत सामान्य है। डॉ. मेनारिया ने उनके 75 ग्रंथों की सूची बनाकर प्रस्तुत करने में ही अपने कार्य-कर्तव्य की इतिश्री समझ ली। श्री रामकिशोर ने अपने एक लेख में जान के 78 ग्रंथों का परिचय दिया है, जो यो तो बहुत सामान्य है, पर उक्त सभी विद्वानों के वर्णन-विवरण से अधिक श्रमपूर्वक लिखा गया लगता है, पर उनके वर्गीकरण से भी हमारा मतभेद है तथा ऐसा वर्गीकरण डॉ. श्याममनोहर भी कर चुके हैं। अतः श्री रामकिशोर पर बहुत कुछ छाया डॉ. श्याममनोहर पाण्डेय की ही है।

    इस प्रकार अनेक विद्वानों द्वारा प्रेमाख्यानों पर लेखन-कार्य होने पर भी जान कवि के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की श्रेष्ठ एवं न्यायोचित प्रस्तुति आज तक कोई नहीं कर सका और यह विदग्ध कवि आज तक उपेक्षित पड़ा रहा है।

    जान कवि को सर्व प्रथम हिन्दी जगत के समक्ष विस्तार में प्रस्तुत करने का श्रेय राजस्थानी साहित्य के प्रसिद्ध शोधक श्री अगरचंद नाहटा तथा श्री रावत सारस्वत को है यह कार्य दोनों ने दो प्रकार से किया है-

    (1) पत्र पत्रिकाओं में जान कवि पर दोनों के कई लेख लिखकर।

    (2) कवि जान के दो प्रसिद्ध ऐतिहासिक काव्यों का सम्पादन एवं प्रकाशन द्वारा

    ये ग्रंथ हैं- क्यामखाँ रासो और अलिख खा की पैडी।

    (श्री नाहटा जी द्वारा)

    श्री रावत सारस्वत के भी जान पर लिखे लेख स्मृतव्य है पर रावत जी ने कवि जान का कोई सम्पादन प्रस्तुत नहीं किया, जिसकी हमें उनसे पर्याप्त आशा थी। अस्तु-श्रद्धेय अगरचंद नाहटा का कवि जान संबंधी कार्य स्तुत्य कहा जाना चाहिए, ऐसा हमारा मत है। कवि जान असूफी कवि थे। विद्वानों ने उनमें सूफी दर्शन भी बताया है, पर जान के प्रेमाख्यानों में सूफी विचारधारा या सूफी दर्शन का एकदम अभाव है। यो सामान्यतः सूफी और असूफी काव्यों में कथा-शिल्प में कुछ साम्य मिल जाता है, पर जान में शुद्ध सूफी-दर्शन का हमें तो नितान्त अभाव ही लगता है। हो सकता है हमारी विचारधारा से विद्वान् असहमत हो। जान की इन सभी विशेषताओं पर हम अन्यत्र विस्तार में विचार करेंगे। यो जान की कृतियों में फारसी की मसनवी शैली अवश्य है, पर शेष सब उनका अपना है। हम सबमें एक विचित्र भ्रांति यह है कि हम अपने प्रेमाख्यानों का मूल सम्बंध प्राकृत अपभ्रंश से जोड़कर सूफियों से जोड़ते हैं और भारत में जितने प्रेमाख्यान लिखे गये हैं उन्हें आँख मीच कर सूफी कहने लगते हैं।

    राजस्थान में असूफी काव्यों की एक अच्छी खासी सृजन-परंपरा रही है। इनमें ढोला मारू से लेकर बीसलदेव रास (17वीं शताब्दी) तक यह परंपरा अपने प्रशस्त सृजन को स्पष्ट करती है। इसी कड़ी में कवि जान पड़ते हैं, जिन्होंने राजस्थानी ब्रज में शुद्ध प्रेमाख्यानों का सृजन का है।

    कवि जान का रचना काल सं. 1669 से 1721 वि. तक पड़ता है। कवि जाने ने कुल 53 वर्ष तक साहित्य का अजस्र सृजन किया। जान की सर्व प्रथम कृति तथा कबलावती संवत् 1669 में रची गई तथा अंतिम कृति जफरनामा है, जिसका रचनाकाल सं. 1721 है। जान के इस समस्त काव्य-वैभव से स्पष्ट होगा कि उनका कतृत्व अत्यन्त विशद हैं। उनके सृजन में से सिर्फ प्रेमाख्यानों को ही लिया जाय, तो यह निस्संकोच कहा जा सकता है कि भारतीय साहित्य में ही नहीं, समस्त विश्व के प्रेमाख्यान साहित्य में सर्वाधिक (संख्या में) प्रेमाख्यानों की रचना करने वाले कवि जान ही है। उन्होंने कुल 27 शुद्ध प्रेमाख्यानों की रचना की है और कई शुद्ध विरह-काव्य लिखे हैं। इस तरह जान की सभी कृतियाँ कुल मिलाकर 78 हैं। जिनमें से एक कृति संगीत गुण दीप है जिसकी सूचना दे वर्ष पूर्व प्रकाशित हुई। इस ग्रंथ के शोध करने का श्रेय राजस्थान के श्री श्रीलाल मिश्र को है।

    कवि जान के संबंध में हिन्दी साहित्य के सभी प्रमुख इतिहासकार मौन हैं। गार्सा तासी (अनु. डॉ. लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय), आचार्य शुक्ल, डॉ. रामकुमार वर्मा आदि सभी इतिहासकारों ने अपने इतिहास-ग्रंथों में इस महत्वपूर्ण कवि का आंशिक जिक्र भी नहीं किया। हाँ, डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इनके ग्रन्थों की चर्चा कर, उनके गुरु का परिचय दिया है। आश्चर्य है सभी इतिहासकार जान कवि के संबंध में इतने अनुदार कैसे रहे? जब कि खोज रिपोर्टों में जान के उल्लेख मिल जाते हैं।

    जो हो, जान मध्ययुग के सबसे उपेक्षित कवि रहे हैं। जान कवि के उपलब्ध ग्रंथों के संबंध में अनेक विद्वानों ने भिन्न-भिन्न संख्याएँ निर्धारित की है। डॉ. मेनारिया ने उनके 75 ग्रंथों का उल्लेख किया है। डॉ. कमल कुलश्रेष्ठ ने अपने ग्रंथ में 21 कृतियों का नाम गिनाया है। राजस्थान में हिन्दी के हस्तलिखित ग्रन्थों की खोज में इनके ग्रन्थों की क्रमशः एक, दस, दो तथा एक नये ग्रन्थों की सूचनाएं मिलती है। अपने प्रबंध में डॉ. सरला शुक्ला ने तथा डॉ. हरिकान्त श्रीवास्तव ने क्रमशः 15 तथा 18 ग्रन्थों का नामोल्लेख किया है। कुछ ग्रन्थों का उल्लेख पं. परशुराम चतुर्वेदी ने किया है। डॉ. श्याममनोहर ने तथा श्री रामकिशोर मौर्य ने क्रमशः अपने प्रबंध और अपने लेख में 11 और 78 ग्रन्थों का नाम दिया है। इन सभी सूचनाओं से जान के कृतृत्व का ज्ञान तो हो जाता है पर उसके प्रामाणिक ग्रन्थों की पूरी जानकारी नहीं हो पाती। आजतक कवि जान की सिर्फ तीन काव्य कृतियाँ प्रकाशित है और शेष सभी हस्तलिखित एवं अप्रकाशित है।

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