हज़रत शरफ़ुद्दीन अहमद मनेरी रहमतुल्लाह अ’लैह
विलादत-ओ-नसबः-
हज़रत मख़दूमुल-मुल्क शरफ़ुद्दीन अहमद बिन यहया की विलादत-ए-बा-सआ’दत 26 शा’बानुल मुअ’ज़्ज़म सन 661 हिज्री में ब-मक़ाम-ए-मनेर शरीफ़ (ज़िला’ पटना) हुई। पैदाइश की तारीख़ ‘शरफ़-आगीन’ है।सिलसिला-ए-नसब ये है।शरफ़ुद्दीन अहमद बिन शैख़ यहया बिन इस्राईल बिन मौलाना मोहम्मद ताज फ़क़ीह बिन अबी बक्र बिन अबिल-फ़त्ह इब्न-ए-अबिल-क़ासिम, बिन अबिस्साइम बिन अबी दह्र बिन अबी लैस बिन अबी सहमा बिन अबिद्दीन, बिन अबी सई’द इब्न-ए-अबी-ज़र बिन ज़ुबैर अल-मुकन्ना ब-अबिल-सा’ब बिन अ’ब्दुल मुत्तलिब बिन हाशिम बिन अ’ब्द-ए-मुनाफ़।वालिदा माजिदा का नसब-नामा चौदहवीं पुश्त में हज़रत इमाम जा’फ़र-ए-सादिक़ से मिलता है।
ख़ानदानः-
हज़रत शरफ़ुद्दीन अहमद का ख़ानदान बैतुल-मक़्दिस से आ कर मनेर ज़िला’ पटना में आबाद हुआ।ये ख़ानदान अपने ज़ुह्द-ओ-तक़्वा में शुरुअ’ से मुम्ताज़ था।मनेर के आस पास के इ’लाक़ा में इसी ख़ानदान की ब-दौलत इस्लाम की इ’शाअ’त हुई ।हज़रत शरफ़ुद्दीन अहमद की वालिदा उनको ब-ग़ैर वज़ू के दूध न पिलाती थीं।
ता’लीमः-
बच्पन में घर ही पर ता’लीम पाई।उस ज़माना में मसादिर, मिफ़्ताहुल-लुग़ात और दूसरी किताबें दर्स में रहीं। मिफ़्ताहुल-लुग़ात को हिफ़्ज़ किया था।सिन्न-ए-शुऊ’र को पहुँचे तो वालिद-ए-बुज़ुर्गवार ने उनको मौलाना शरफ़ुद्दीन अबू तवामा की मइ’य्यत में मज़ीद ता’लीम के लिए सुनार गाँव में भेजा।मौलाना अबू तवामा अपने अ’हद के बड़े मुम्मताज़ आ’लिम थे।बा’ज़ अस्बाब की बिना पर देहली छोड़ कर बंगाल की तरफ़ रुख़ किया।असना-ए-सफ़र में मनेर में भी क़ियाम किया और यहीं हज़रत शैख़ यहया उनके इ’ल्मी तबह्हुर से मुतअस्सिर हुए।मौलाना शरफ़ुद्दीन अबू तवामा के औसाफ़ का ज़िक्र ख़ुद हज़रत मख़दूमुल-मुल्क ख़्वान-ए-पुर ने’मत में फ़रमाते हैं :
मौलाना शरफ़ुद्दीन तवामा हिन्दुस्तान के उ’लमा में इस क़द्र मशहूर थे कि उनके इ’ल्म में किसी को शुब्हा न था।आप रेशमी सर-बंद और इज़ार-बंद इस्ति’माल करते थे।आपने ऐसी चीज़ें लिखीं कि दूसरे उ’लमा को भी उसकी तक़्लीद करनी चाहिए।अगर सबक़ पढ़ाने में मुश्किल पेश आती तो ग़ौर करते और ग़ौर करते वक़्त सर-बंद कांधे पर लटकाते और उसको हाथ में ले कर मशग़ूल रहते यहाँ तक कि मुश्किल हल हो जाती।उसके बा’द सर-बंद को छोड़ कर मुश्किल को बयान फ़रमाते”।
(सफ़हा 15, मतबूआ’ मतबा-ए’-अहमदी)
हज़रत शरफ़ुद्दीन ने अपने शफ़ीक़ उस्ताद से कलाम-ए-पाक, तफ़्सीर, हदीस और फ़िक़्ह के अ’लावा उ’लूम-ए-अ’क़्ली मसलन मंतिक़,फ़ल्सफ़ा और रियाज़ी की भी ता’लीम पाई।इस ता’लीम के ज़माना में रियाज़त-ओ-मुजाहदा में भी मशग़ूल रहे।मनाक़िबुल-अस्फ़िया में हैः
“दर तहसील-ए-उ’लूम-ए-दीन ब-अक़्सल-ग़ाया कोशीद शब-ओ-रोज़ दर इ’ल्म मशग़ूल बूद-ओ-दर आँ मशग़ूली रियाज़त –ओ-मुजाहदा-दाश्त रोज़ाहाए-दाश्ते”।
रियाज़त-ओ-मुजाहदा के साथ इ’ल्म-ए-तसव्वुफ़ की भी किताबें पढ़ीं। अपने एक मक्तूब में तहरीर फ़रमाते हैं-
अहकाम-ए-मज़हब-ए-ईं ताइफ़ः (सूफ़िया) दर कुतुब-ओ-तसानीफ़-ए- ईंशां सालहा बाज़ मुताल’आ कर्दःशुदः अस्त”।
ता’लीम ही के ज़माना में उस्ताद की दुख़्तर-ए-नेक अख़्तर से अ’क़्द-ए-मुनाकहत की रस्म अदा हुई, जिनसे तीन औलाद हुई।उन में से सिर्फ़ हज़रत शाह ज़कीउद्दीन ज़िंदा रहे और उन्हीं से नस्ल चली।
तलाश-ए-मुर्शिदः-
सुनार गाँव के क़ियाम की मुद्दत में हज़रत मख़दूमुल-मुल्क, घर के ख़ुतूत नहीं खोला करते थे ।ता’लीम ख़त्म करने के बा’द एक दिन उनको खोला, तो उन में वादलिद-ए-बुज़ुर्गवार के इंतिक़ाल की ख़बर पढ़ी, और वालिद की याद में बे-चैन हो कर वतन की तरफ़ मुराजअ’त की।घर में कुछ ही दिनों क़ियाम फ़रमाया थी कि तलब-ए-इलाही की आग इतनी शो’ला-ज़न हुई की घर बार छोड़ कर मुर्शिद की तलाश में निकर खड़े हुए।छोटे भाई की मुहब्बत में बड़े भाई शैख़ जलीलुद्दीन भी हमराह हो गए।उस वक़्त देहली और नवाह-ए-देहली बुज़ुर्गान-ए-दीन के मरकज़ हो रहे थे।देहली पहुँच कर हज़रत मख़दूमुल-मुल्क वहाँ के तमाम आ’बिदों,ज़ाहिदों और सज्जादा-नशीनों से मिले।हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया की ख़िदमत में भी पहुँचे।लताएफ़-ए-अशरफ़ी में हैः
जब हज़रत शैख़ शरफ़ुद्दीन उ’लूम-ए-शरइ’या की तहसील और रियाज़त-ओ-अस्लिया–ओ-फ़रई’या की तक्मील कर चुके तो हज़रत सुल्तानुल-मशाइ’ख़ के शरफ़-ए-मुलाज़मत के लिए देहली तशरीफ़ ले गए और इरादत-ओ-इर्शाद के लिए इस्तिद’आ की।हज़रत सुल्तानुल-मशाइख़ ने आ’लम-ए-ग़ैबी और क़ज़ा-ए-ला-रैबी से इस्तिफ़्सार फ़रमाया और इस्तिग़राक़ में सर झुकाया।फिर फ़रमाया बिरादरम शरफ़ुद्दीन तुम्हारी इरादत और ता’लीम-ए-सुलूक बिरादरम नजीबुद्दीन से मुतअ’ल्लिक़ है। तुम उन्हीं के पास जाओ।वो तुम्हारे मुंतज़िर हैं। और जब वो (या’नी हज़रत शरफ़ुद्दीन) शैख़ नजीबुद्दीन के पास जाने लगे तो हज़रत सुल्तानुल-मशाइख़ ने फ़रमाया कि फ़क़ीरों के यहाँ से ख़ाली न जाओ।तुम को इस ख़ानदान से सफ़ाई और समाअ’ मुबारक हो।हज़रत शरफ़ुद्दीन ता’ज़ीम बजा लाए।उनके ख़ानदान में समाअ’ और सफ़ाई इसी वजह से है”।
एक रिवायत ये भी है कि जब हज़रत मख़दूमुल-मुल्क सुल्तानुल-औलिया की ख़िदमत में गए तो उनको देख कर फ़रमायाः
‘सीमुर्ग़ेस्त, नसीब-ए-दाम-ए-मा नीस्त’
और बै’अत नहीं ली, बल्कि ए’ज़ाज़ और इकराम से रुख़्सत कर दिया।
जब सुल्तानुल-मशाइख़ की हिदायत के मुताबिक़ हज़रत मख़दूमुल-मुल्क हज़रत शैख़ नजीबुद्दीन के हुज़ूर में पहुँचे, तो उन पर बड़ी दहशत तारी थी, और जिस्म पसीना-पसीना हो रहा था।लेकिन शैख़ नजीबुद्दीन ने उनको देखते ही फ़रमाया, दरवेश! बरसों से तुम्हारे इंतिज़ार में बैठा हूँ, ताकि तुम्हारी अमानत तुम्हारे सुपुर्द कर दूँ” । (अख़्बारुल-अख़्यार सफ़हा 109) और फ़ौरन बै’अत ली।कुछ नसीहतें लिख कर रुख़्सत किया।रुख़्सत करते वक़्त फ़रमाया कि तुमको रास्ता में कोई ख़बर मिले तो वापस न आना।हज़रत मख़दूमुल-मुल्क ने मुर्शिद से फ़ुयूज़-ओ-बरकात हासिल करने के लिए कुछ दिनों पास रहने की ख़्वाहिश ज़ाहिर की, लेकिन इसकी इजाज़त नहीं मिली। मुर्शिद की सारी ता’लीमात उन नसाएह में पाई जाती हैं, जो उन्हों ने इरादत के वक़्त लिख कर दी थीं।
वसाया-ए-मुर्शिदः-
वो वसिय्यतें ये हैं-
“ऐ अ’ज़ीज़ ये बात बड़े ग़ैर-ओ-फ़िक्र के बा’द ज़ाहिर होती है कि तर्क-ए-ख़ुदी में मशग़ूलियत के अ’लावा दुनिया की किसी चीज़ में मशग़ूल रहना ग़लती है।इंसानी हरकात, सकनात, अक़्वाल और अफ़आ’ल ही से ख़ुदी पैदा होती है। खाना, सोना, बोलना, मेल-जोल पैदा करना, सुनना, देखना वग़ैरा इंसानी तबीअ’त का इक़्तिज़ा है, लेकिन ये तमाम बातें ब-क़द्र-ए-ज़रूरत होनी चाहिएं।अगर ज़रूरत से ज़्यादा हों तो हक़ से दूरी हो जाती है, इसलिए दिन रात इसी फ़िक्र में रहना चाहिए कि ख़ुदी में से क्या चीज़ रह गई है, यहाँ तक कि अल्लाह के फ़ज़्ल से ख़ुदी से बिल्कुल छुटकारा हो जाए।अगर बाल बराबर भी ख़ुदी बाक़ी रह गई है तो हिजाब बाक़ी है।जब तक इस से फ़राग़त हासिल न हो जाए दूसरे काम में मशग़ूल होना सहीह नहीं, क्यूँकि ख़ुदी से छुटकारा पाने से पहले किसी काम में मशग़ूल होना शैतानियत है।इसलिए किसी हाल में दूसरे काम की तरफ़ मशग़ूल नहीं होना चाहिए।मुजाहदा और रियाज़त-ए-नफ़्स इस तरह होनी चाहिए कि ख़ुदी बिलकुल जाती रहे, और इंतिहाई दर्जा का तक़्वा हासिल हो और बशरियत की पूरी सफ़ाई हो जाए। किसी वक़्त बे-वज़ू रहना मुनासिब नहीं।अगरचे आधी रात, जाड़े का मौसम और ठंढ़ा पानी ही क्यूँ न हो, वज़ू के बा’द दो रकअ’त नमाज़ किसी हाल में फ़ौत न होनी चाहिए।खाना खाने और पानी पीने से सिर्फ़ तीन चीज़ों की बक़ा होती है, हयात, अ’क़्ल और क़ूव्वत। खाना उस वक़्त तक तर्क करते रहना चाहिए जब तक हयात और अ’क़्ल में ख़लल पैदा हो जाने का अंदेशा न हो।ख़ुश्क रोटी, ख़ुश्क चावल या ख़ुश्क खिचड़ी जो कुछ भी मिल जाए ज़रूरत के मुताबिक़ खा लिया जाए। नान-ए-ख़ोरिश (जैसे सालन वग़ैरा) की फ़िक्र न करे।इसी तरह पानी पीना भी तर्क कर दे, यहाँ तक कि जब उसको मा’लूम हो कि ज़िंदगी या अ’क़्ल में ख़लल पड़ेगा।उस वक़्त थोड़ा सा पानी जो सिर्फ़ इस क़द्र हो जिस से हल्क़ तर हो सके पी ले ताकि प्यास बुझ जाए।लेकिन क़ुव्वत के कम होने की वजह से हरगिज़ न खाए न पिए, और क़ूव्वत के ज़ाएल होने की तरफ़ हरगिज़ तोवज्जोह न करे।और ये बात तजुर्बा से मा’लूम हो सेकगी कि खाने की वजह से कितने दिनों में ज़िंदगी और अ’क़्ल में ख़लल पड़ने का ख़ौफ़ पैदा होगा।और जब ये तजुर्बा से मा’लूम हो तो उसका लिहाज़ रखे।रात और दिन में कीसी वक़्त न सोए और नमाज़, क़ुरआन की तिलावत और किताब के मुताल’आ से नींद को दूर करे।इस काम का तमाम -तर दार-ओ-मदार इस पर है कि रात और दिन में किसी वक़्त न लेटे, बल्कि बैठ कर या खड़े हो कर रात दिन गुज़ारे।किसी शख़्स से बात चीत न करे, अल्बत्ता साएल का जवाब दे सकता है।लेकिन साएल अगर आ’लिम हो तो उसका जवाब न दे बल्कि कभी इ’ल्मी जवाब में मशग़ूल न हो क्यूँकि उस में बहुत सी आफ़तें हैं।लेकिन अगर जवाब इ’ल्मी न हो तो उसके मुतअ’ल्लिक़ मुख़्तसर गुफ़्तुगू करे, और सिर्फ़ ज़रूरी बात कहे और वो भी उस वक़्त जब ब-जुज़ बोलने को कोई और चारा न हो, तो जो कुछ हो सके गुफ़्तुगू करे। लेकिन ख़ुद कोई बात न कहे, किसी के साथ बिलकुल मुलाक़ात और मेल-जोल न करे और एक ख़ाली गोशे में बैठा रहे।और जो चीज़ मौज़ूद हो उसको बाक़ी रहने दे।अपने काम के लिए अपने गोशे से बाहर न निकले और किसी को अपने पहलू में आने की इजाज़त न दे।हमेशा नज़र नीची ज़मीन की तरफ़ रखे।बे-ज़रूरत दाएं-बाएं न देखे।किसी की बात न सुने और न इसकी कोशिश करे कि दूसरा क्या कहता है।दिल को अ’म्दन और क़स्दन किसी चीज़ में न लगाए।कोई बात कान में पड़े और समझ में न आए तो उसकी फ़िक्र भी न करे।ज़रूरत के वक़्त सूखी रोटी खा ले और पानी पी ले।कोई चीज़ इसलिए न खाए कि वो मौजूद है, क्यूँकि इस तरह महज़ ख़ुदी का पाबंद होना है।दोपहर के वक़्त रोज़ाना क़ज़ा-ए-हाजत के लिए जाए,और अगर क़िल्लत-ए-तआ’म की वजह से उसकी हाजत न हो तो बेहतर है।लेकिन इससे ज़्यादा न जाए, और वक़्त ज़ा’ए ने करे।अगरचे उसकी ज़रूरत महसूस हो और वज़ू मश्कूक हो, यहाँ तक कि इसकी आ’दत हो जाए।और तमाम वक़्त एक कम्बल के सिवा और कुछ न ओढ़े, लेकिन जाड़े के दिन लिबासचा-ए-कुमैना (शायद आस्तीन वाला लिबादा मुराद हो) ख़िर्क़ा के ऊपर पहने।और उस पर दिन रात में कीसी चीज़ का इज़ाफ़ा न करे।किसी के आने जाने, बोलने और काम करने पर ना-ख़ुश न हो, और न कोई ऐ’तराज़ करे।ये मा’लूम न होने दे कि उसको ज़ाहिरन-ओ-बातिनन किसी चीज़े से इंकार है, ख़्वाह सर पर आग ही क्यूँ न बरसे लेकिन चूँ-ओ-चरा न करे।और न अपने में कमिय्यत-ओ-कैफ़ियत ज़ाहिर होने दे यहाँ तक कि उसको मक़ाम-ए-वहदत और हाल-ओ-ज़ौक़ हासिल हो जाए। समाअ’ के वक़्त जहाँ तक मुम्किन हो, आब-दीदा न हो, और जिस्म को हरकत न दे यहाँ तक कि मग़्लूब हो जाए और अपनी हिफ़ाज़त आप न कर सके।लेकिन समाअ’ में अहवाल के ज़ाहिर होनें से बड़ी आफ़तें हैं, इनका छुपाना बहुत अहम बातों में से है।क़ल्ब और दिल पर जितनी भी आग बरसे उसकी ख़बर न हो, और यही वो मक़ाम-ए-अ’ज़ीम है, जो बड़ी मशक़्क़त, बड़े मुजाहदे और बे-इंतिहा रियाज़त के बा’द हासिल होता है।तुम अपनी तरफ़ से कोशिश करो, ख़ुदा अ’ता करेगा।बरसों के बा’द मशक़्क़त उठाने वाले को रास्ता मिलता है, और अगर ये सआ’दत हासिल नहीं होती है तो अल्लाह तआ’ला उसका अज्र देता है,
कार-ए-नाज़ुक तनान-ए-रा’ना नीस्त
संग-ए-ज़ेरीन-ए-आसिया बूदन
शज्रा-ए-शुयूख़ः-
हज़रत नजीबुद्दीन फ़िरदौसी से हज़रत मख़दूमुल-मुल्क के बैअ’त होने के बा’द शज्रा-ए-बैअ’त ये क़रार पाता हैः
शैख़ शरफ़ुद्दीन अहमद यहया मनेरी, ख़्वाजा नजीबुद्दीन फ़िरदौसी, ख़्वाजा रुक्नुद्दीन फ़िरदौसी, ख़्वाजा नज्मुद्दीन कुब्रा, ख़्वाजा ज़ियाउद्दीन अबू नजीब, ख़्वाजा वजीहुद्दीन अबू हफ़्स, ख़्वाजा मोहम्मद अ’ब्दुल्लाह अल-मा’रूफ़ ब-उ’मूमिया, ख़्वाजा अहमद सिपाह दीनवरी, ख़्वाजा मम्शाद अ’ली दीनवरी, ख़्वाजा अबुल-क़ासिम जुनैद बग़दादी, ख़्वाजा सरी सक़ती, ख़्वाजा मा’रूफ़ कर्ख़ी, सय्यदना इमाम अ’ली रज़ा, सय्यदना इमाम मूसा काज़िम, सय्यदना इमाम जा’फ़र-ए-सादिक़, सय्यदना इमाम मोहममद बाक़र, सय्यदना इमाम ज़ैनुल-आ’बिदीन, सय्यदना इमाम हुसैन सय्यदना अ’ली कर्रमल्लाहु वज्हहु।
ख़्वाजा नज्मुद्दीन कुबरा से ख़्वजा ज़ियाउद्दीन अबू नजीब ने ख़िलाफ़त देते वक़्त फ़रमाया कि तुम मशाइख़-ए-फ़िरदौस हो (शुमा मशाइख़-ए-फ़िरदौस हस्तेद) उसी वक़्त से इस सिलसिला का नाम फ़िरदौसिया हो गया।
सहरा-नवर्दीः-
बैअ’त के बाद की कैफ़ियत हज़रत मख़दूमुल-मुकल ख़ुद तहरीर फ़रमाते हैं :
“मन चूँ ब-ख़्वाजा नजीबुद्दीन फ़िरदौसी पैवस्तम हुज़्न-ए-दर्द-ए-दिल-ए- मन निहादः शुद कि हर रोज़ आँ हुज़्न ज़्यादः मी-शुद”।
बैअ’त के बा’द देहली से रुख़्सत हुए थे कि रास्ते ही में मुर्शिद के विसाल की ख़बर मिली।लेकिन मुर्शिद की हिदायत थी कि वो किसी हाल में न लौटें इसलिए वापस न हुए। जब बिहिया जिला’ आरा के जंगल में पहुँचे तो मोर की चिंघाड़ से दिल में हूक उठी।जज़्ब की कैफ़ियत तारी हो गई और गरेबान चाक कर के जंगल ही में ग़ाएब हो गाए।बड़े भाई शैख़ जलीलुद्दीन साथ थे।हर तरफ़ उनको तलाश किया लेकिन उनका कहीं पता न चला।
मनाक़िबुल-अस्फ़िया के मुअ’ल्लिफ़ रक़म-तराज़ हैं कि हज़रत मख़दूम बिहिया के जंगल में बारह साल रहे। उसके बा’द राजगीर (जिला’ पटना) के जंगलों में भी एक बड़ी मुद्दत गुज़ारी।आ’म रिवायत है कि 30 साल तक जंगलों में इ’बादत की।एक बार एक दरख़्त की शाख़ पकड़े हुए आ’लम-ए-हैरत में खड़े हुए दिखाई दिए। च्यूँटियाँ हल्क़ में आती जाती थीं लेकिन उनको उसकी मुत्लक़ ख़बर न होती थी।
नफ़्स-कुशीः-
इस रियाज़त के ज़माना में खाने पीने से परहेज़ करते।जब कभी इश्तिहा का ग़लबा होता तो दरख़्त की पत्तियाँ खा कर भूक की शिद्दत रफ़ा’ कर लेते।एक बार अ’लस्सबाह नहाने की ज़रूरत पेश आ गई।ग़ुस्ल फ़रमाने के लिए पानी के क़रीब गए।जाड़े का मौसम था। ग़ैर मा’मूली सर्दी थी। पानी बहुत ठंढ़ा था।दिल में ख़याल आया कि तयम्मुम कर के नमाज़ अदा कर लें, लेकिन फिर ख़याल हुआ कि शरई’ रुख़्सत की आड़ में पनाह क्यूँ ली जाए। चुनांचे पानी में उतर गए, लेकिन सर्दी की वजह से बेहोश हो गए।आफ़्ताब तुलूअ’ हुआ तो उसकी तमाज़त से होश आया लेकिन उस वक़्त फ़ज्र की नमाज़ क़ज़ा हो चुकी थी।बड़ा रंज हुआ, और फ़रमाया “मैं ने जो रियाज़तें की हैं, अगर पहाड़ करता तो पानी हो जाता, लेकिन शरफ़ुद्दीन कुछ न हुआ ।कसरत-ए-रियाज़त से बदन में खून बाक़ी न रहा था।एक बार हज्जाम के उस्तुरा से सर-ए-मुबारक मजरूह हो गया तो ख़ून के बजाए पानी बहने लगा।
राजगीर की सहरा-नवर्दी के ज़माना में दामन-ए-कोह के पास एक शख़्स खाना खा रहा था। उसके मुलाज़िमीन मोरछल हिला रहे थे। हज़रत मख़दूमुल-मुल्क की नज़र पड़ी तो उसके खाने को मुबाह समझ कर उस से इजाज़त ली, और उसके साथ खाने के लिए बैठ गए।उसके मुलाज़िमों ने उसको हज़रत मख़दूमुल-मुल्क के साथ खाने पर मलामत की।हज़रत मख़दूमुल-मुल्क फ़रमाते हैं, मुझको उस मलामत में मज़ा मिला।मैं पहाड़ पर चढ़ गया और तीन दिन और रात मुझ पर वज्द तारी रहा।
उसी जमाना में एक गऊ-शाला के पास से गुज़र हुआ। एक गाय भली मा’लूम हुई।उसको देखने लगे।किसी सबब से वो गिर कर मर गई। चरवाहे ने बढ़ कर ग़ुस्सा में हज़रत मख़दूमुल-मुल्क को एक लाठी मारी।फ़रमाते हैं उस लाठी की मार में मुझे अ’जीब ज़ौक़ और मज़ा मिला।
उसी ज़माना में बा’ज़ हिन्दूओं ने और जोगियों से रूहानी मा’रके भी हुए। जिन्हों ने मग़्लूब हो कर हज़रत मख़्दूमुल-मुल्क के हाथ पर इस्लाम क़ुबूल किया।
बिहार शरीफ़ की इक़ामतः-
जब अनवार-ए-इलाही से दिल रौशन हो गया तो आबादी की तरफ़ रुख फ़रमाया।बा’ज़ तालिबान-ए-हक़ जंगल ही में आ कर मुस्तफ़ीद होने लगे थे।जब लोगों का इश्तियाक़ ज़्यादा बढ़ गया, तो जुमआ’ की नमाज़ के लिए बिहार शरीफ़ की जामे’ मस्जिद में तशरीफ़ लाने लगे।रफ़्ता-रफ़्ता लोगों के इसरार से उसी क़स्बा में मुस्तक़िल सुकूनत इख़्तियार कर ली, जहाँ तक़रीबान 60 साल तक अपने सर-चश्मा-ए-फ़ैज़ से अ’वाम-ओ-ख़्वास को सैर करते रहे।
सुल्तान मोहम्मद तुग़लक़ ने जब हज़रत मख़दूमुल-मुल्क की रौशनी और बुज़ुर्गी की शोहरत सुनी तो मज्दुल-मुल्क मक़्ता’-ए-बिहार के नाम एक फ़रमान जारी किया कि हज़रत मख़दूमुल-मुल्क के लिए एक ख़ानक़ाह ता’मीर करा दी जाए, और उसके इख़राजात के लिए पर्गना राजगीर उनके हवाले किया जाए।अगर वो क़ुबूल न करें तो जबरदस्ती दिया जाए। मज्दुल-मुल्क ने उसकी ता’मील की और हज़रत मख़दूमुल-मुल्क को ख़ानक़ाह की ता’मीर और राजगीर जब्र-ओ-इकराह के साथ क़ुबूल करनी पड़ी।ख़ानकाह की ता’मीर के बा’द उस में सुल्तान का भेजा हुआ मुसल्ला-ए-बुलग़ारी बिछाया गया, और उस पर हज़रत मख़दूमुल-मुल्क को जल्वा-अफ़रोज़ किया गया, तो इर्शाद फ़रमाया “ मैं तो इस्लाम ही के लाएक़ नहीं चे जाए कि मुसल्ला के लाएक़ हूँ”, उस वक़्त मज्लिस के एक दरवेश ने कहा “मख़दूम को ख़ानक़ाह और मुसल्ला की वजह से कौन जानता है। हम लोग तो यहाँ सिर्फ़ आपकी क़ूव्वत-ए-बातिनी की वजह से आए हैं।यहाँ आपकी बरकत से इस्लाम ज़ाहिर होगा,और क़ुव्वत पकड़ेगा”।चुनाँचे ऐसा ही हुआ, और उस इ’लाक़े में आप ही के फ़ैज़-ओ-बरकात से इस्लाम की शम्अ’ ज़ौ-फ़गन रही।लेकिन जागीर को हज़रत मख़दूमुल-मुल्क अपने लिए बार समझते रहे।आख़िर उसकी निगरानी बर्दाश्त न फ़रमा सके और जब सुल्तान मोहम्मद तुग़लक़ ने वफ़ात पाई, और फ़ीरोज़ शाह तख़्त-नशीन हुआ तो ब-नफ़्स-ए-नफ़ीस तशरीफ़ ले गए।दरबारियों को ख़याल हुआ कि शायद हज़रत मख़दूमुल-मुल्क जागीर में इज़ाफ़ा चाहते हैं।फ़ीरोज़ शाह को जब उस की ख़बर दी गई तो उसने कहा कि अगर मख़दूमुल-मुल्क तमाम अक़्ता’-ए-बिहार माँगेंगे तो मैं दूँगा।लेकिन जब फ़ीरोज़ शाह के सामने हज़रत मख़दूमुल-मुल्क तशरीफ़ ले गए तो उसको मुख़ातिब कर के फ़रमाया कि एक गर्ज़ ले कर आया हूँ ,अगर क़ुबूल फ़रमाने का वा’दा हो तो अ’र्ज़ करूँ।सुल्तान ने ब-सर-ओ-चश्म मंज़ूर किया। हज़रत मख़दूमुल-मुल्क ने जागीर की सनद आस्तीन से निकाल कर सुल्तान के हाथ में दी, और फ़रमाया, ख़ुदा के लिए इसको वापस ले लीजिए।ये मेरे काम की नहीं।सुल्तान और उसके तमाम उमरा शशदर रह गए।सुल्तान ने फिर भी कुछ ख़िदमत कर के सआ’दत हासिल करनी चाही, और इसरार के साथ इख़राजात के लिए एक बड़ी रक़म पेश की।उसको क़ुबूल तो फ़रमा लिया, लेकन शाही दरबार से निकतले ही फ़ुक़रा-ओ-मसाकीन में तक़्सीम कर दिया और दरवेशाना इस्तिफ़्सार के साथ ख़ाली हाथों वतन की तरफ़ मुराजअ’त की।
रुश्द-ओ-हिदायतः-
ख़ानक़ाह के गोशा में बैठ कर तक़रीर के ज़रिआ’ से रुश्द-ओ-हिदायत का सिलसिला बराबर जारी रखा, जिसका कुछ मजमुआ’ मल्फ़ूज़ात और मक्तूबात की शक्ल में महफ़ूज़ है।और आज तक मा’दन-ए-फ़ुयूज़ और मख़्ज़न-ए-बरकात है।ख़ानक़ाह में सालिकान-ए-राह-ए-तरीक़त की मज्लिसें बराबर मुंअ’क़िद होती थीं। बा’ज़ औक़ात उ’लमा, फ़ुक़हा, मुहद्दिसीन और मुतकल्लिमीन भी जम्अ’ होते, और मुख़्तलिफ़ मसाएल पर बह्स-ओ-गुफ़्तुगू और रद्द-ओ-क़दह भी होती।हज़रत मख़दूम हर मस्अला की वज़ाहत इस तरह फ़रमाते कि सामिई’न और हज़िरीन को पूरी तशफ़्फ़ी हो जाती। मा’दनुल-मा’नी के दीबाचा में हैः
“हर मज्लिम में मुरीदों, नेक और सच्ची तलब रखने वालों का मज्मा’ होता।उनमें से हर एक अपने हाल और काम के मुताबिक़ एक सवाल करता, जिसका तअ’ल्लुक़ तरीक़त, शरीअ’त, हक़ीक़त और मा’रिफ़त से होता।हज़रत मख़दूम हर सवलाल का शाफ़ी जवाब देते ।उनका बयान दिल-पज़ीर और उनके इशारे किनाए बे-नज़ीर होते।हर बयान में सैंकडों मा’नी, हर इशारा में हज़ारों लतीफ़ा-ए-ला-रैबी, और हर मा’नी में बे-इंतिहा मफ़हूम और हर लतीफ़ा में ला-ता’दाद इदराकात, और हर मफ़हूम में बे-शुमार हालात और हर इदराक में बहुत से मक़ामात, और हर हाल में ना-क़ाबिल-ए-बयान ज़ौक़ और हर मक़ाम में इतनी ख़बरें होतीं जिनकी गुंजाइश दुनिया में नहीं।
मौलाना मुज़फ़्फ़र बल्ख़ी शुरुअ’ में जब हज़रत मख़दूमुल-मुल्क की मज्लिस में शरीक़ हुए तो मुख़्तलिफ़ मसाएल पर निहायत तेज़ और तुंद लहजे में मुनाज़िरे करते।मगर हज़रत मख़दूमुल-मुल्क ठंड़े तरीक़े पर उनकी हर बात का जवाब देते।यहाँ तक कि वो हज़रत मख़दूमुल-मुल्क को भी उनसे बड़ी मोहब्बत हो गई थी,और उनको दो सौ ख़ुतूत लिखे थे।जिन में ऐसे असरार थे कि उनके सिवा किसी और को बताना पसंद नहीं फ़रमाया जैसा कि आगे आएगा।
मौलाना ज़ैन बदर अ’रबी की इब्तिदाई ज़िंदगी रिंदी और बादा-ख़्वारी में गुज़री।लेकिन हज़रत मख़दूमुल-मुल्क की सोहबत-ए-कीमिया-असर से उनमें ऐसा इंक़िलाब पैदा हुआ कि वो हज़रत मख़दूमुल-मुल्क के मुक़र्रबीन-ए-ख़ास में हो गए, और उनके बहुत से मलफ़ूज़ात मुरत्तब किए, जैसा कि हम आगे बयान करेंगें।
बयान किया जाता है, कि हज़रत मख़दूमुल-मुल्क के तक़रीबन एक लाख मुरीद थे,जो मज्लिसों में शरीक न हो सकते थे ।उनको मक्तूबात के ज़रिआ’ से ता’लीमात का ख़ुलासा आईंदा सफ़हात में पेशा किया जाएगा। हज़रत मख़दूमुल-मुल्क ने ख़्वास-ओ-अ’वाम दोनों को सुधारने की कोशिश फ़रमाई।
सुल्तान-ए-वक़्त को तल्क़ीनः-
सुल्तान फ़ीरोज़ शाह तुग़लक़ के ज़माना में हज़रत मख़दूमुल-मुल्क से ख़्वाजा आ’बिद ज़बराबादी ने फ़रमाया कि उनका माल ज़ुल्म-ओ-तअ’द्दी से तल्फ़ कर दिया गया है।हज़रत मख़दूमुल-मुल्क ने सुल्तान फ़ीरोज़ शाह की तवज्जोह इस तरफ़ मब्ज़ूल कराई, और बहुत बलीग़ पैराए और आ’लिमाना अंदाज़ में अ’द्ल-ओ-इंसाफ़ की तल्क़ीन की। सुल्तान को इस सिलसिला में जो मक्तूब तहरीर फ़रमाया वो हसब-ए-ज़ैल है। शायद मुरत्तिब-ए-मक्तूबात ने अल्क़ाब हज़फ़ कर दिए हैं। पूरा मत्न ये हैः
हज़रत बिलाल मुअज़्ज़िन रज़ी-अल्लाहु अ’न्हु से रिवायत है कि मैं हज़रत रिसालत-मआब अ’लैहिस्सलाम के साथ अबू-बक्र सिद्दीक़ रज़ी-अल्लाहु अ’न्हु के घर में मक्का में बैठा था, कि एक शख़्स आया।पैग़मबर अ’लैहिस्सलाम ने मुझसे फ़रमाया, बाहर जा कर देखो।जब मैं बाहर आया, तो एक नसरानी को खड़ा देखा।उसने पूछा मोहम्मद यहाँ हैं।मैं ने कहा हाँ ।वो घर के अंदर आया और कहा या मोहम्मद तुम कहते हो कि मैं ख़ुदा का रसूल हूँ और ख़ुदा का भेजा हुआ हूँ।मझको और लोगों को दीन-ए-इस्लाम की दा’वत देते हो। मगर तुम रसूल-ए-बर-हक़ हो तो इसको देखो कि क़वी ज़ई’फ़ पर ज़ुल्म न करे।पैग़म्बर ने पूछा, तुम पर किसने ज़ुल्म किया है।उसने कहा अबू जहल ने मेरा माल ले लिया है।ये वक़्त आपके क़ैलूला का था और बड़ी गर्मी पड़ रही थी।लेकिन आप उसी वक़्त रवाना हुए, ताकि मज़्लूम की मदद फ़रमाएं।मैंने (या’नी हज़रत बिलाल रज़ी-अल्लाहु अ’न्हु ने) अ’र्ज़ की, या रसूलुल्लाह क़ैलूला का वक़्त है, गर्मी पड़ ही है, अबू-जहल भी क़ैलूला कर रहा होगा ।वो बरहम होगा।लेकिन आप न रुके और उसी तरह ख़श्मगीन अबू-जहल के दरवाज़ा पर पहुँच कर उसको खटखटाया।अबू जहल को ग़ुस्सा आया।उसने अपने बुतों लात-ओ-उ’ज़्ज़ा की क़सम खा कर कहा कि जिसने दरवाज़ा खटखटाया है,उसको जाकर मार ड़ालूँगा।बाहर आया तो देखा कि हज़रत रिसालत-मआब खड़े हैं।बोला, कैसे आए।किसी आदमी को क्यूँ न भेज दिया।पैग़म्मबर अ’लैहिस्सलाम ने ग़ुस्सा में फ़रमाया ।इस नसरानी का माल तुमने क्यूँ ले लिया है।उसका माल वापस कर दो।अबू जहल ने कहा, “अगर इसीलिए आए हो तो किसी आदमी को क्यूँ न भेज दिया, माल वापस कर देता।पैग़म्बर सल्लल्लाहु अ’लैहि वसल्लम ने फ़रमाया बातें न बनाओ।इसका माल वापस करो।अबू जहल उसका तमाम माल बाहर लाया और उसके हवाले किया।नसरानी से पैग़म्बर सल्लल्लाहु अ’लैहि वसल्लम ने फ़रमाया अब तो तुम्हारा माल तुम्हारे पास पहुँच गया।उसने कहा लेकिन एक अदना थैला रह गया है।पैग़म्बर ने (अबू जहल से) फ़रमाया, थैला भी दो।अबू जहल ने कहा कि ऐ मोहम्मद तुम वापस जाओ मैं उसको पुहँचा दुँगा।हज़रत रिसालत-मआ’ब ने फ़रमाया, मैं उस वक़्त तक न जाउँगा जब तक कि तुम थैला भी वापस न कर दोगे।अबू जहल घर के अंदर गया।उसको वो थैला न मिला, लेकिन उस से बेहतर थैला लाया, और बोला वो तो मुझ को नहीं मिला मगर उस से बेहतर लाया हूँ ।और इसी को उसके बदला में देता हूँ। पैग़म्बर अ’लैहिस्लाम ने फ़रमाया ऐ नसरानी ये थैला बेहतर है या वो बेहतर था। उसने कहा ऐ मोहम्मद ये बेहतर है।पैग़म्बर अ’लैहिस्स्लाम ने फ़रमाया अगर तुम ये कहते कि वो बेहतर था तो मैं उस वक़्त तक वापस न जाता जब तक मैं क़ीमत ले कर तुम्हारे हवाले न करता।एक दूसरी रिवायत है कि पैग़म्बर अ’लैहिस्सलाम ने फ़रमाया, जो कोई मज़लूम की मदद करता है, ख़ुदा तआ’ला क़ियामत के रोज़ पुल सिरात को उ’बर करने में उसकी मदद् करेगा और बहिश्त में जगह देगा।और जो कोई किसी मज़लूम को देखता है, उससे फ़रियाद करता है, लेकिन वो फ़रियाद नहीं सुनता, तो क़ब्र के अंदर उसको आग के सौ कोड़े मारे जाएंगे।
हज़रत अनस रज़ी-अल्लाहु अ’न्हु से रिवायत है कि पैग़म्बर अ’लैहिस्सलाम ने फ़रमाया जो कोई किसी की मदद करता है, उस के लिए तिहत्तर मग़्फ़िरत लिखी जाती है।उनमें से एक तो उसको दुनिया में मिल जाती है ,उससे उसका काम सुधरता है, और बक़िया बहत्तर उ’क़्बा में मिलती है।हज़रत अनस बिन मालिक रज़ी-अल्लाहु अ’न्हु से रिवायत है कि एक कारवाँ शहर से बाहर ठहरा। उ’मर बिन ख़त्ताब रज़ी-अल्लाहु अ’न्हु ने अ’ब्दुर्रहमान बिन औ’फ़ रज़ी-अल्लाहु अ’न्हु से फ़रमाया, कारवाँ शहर से बाहर ठहरा है।चलो हम उसकी पासबानी करें।ऐसा न हो कि कारवाँ वाले सो जाएं और कोई उनका सामान उठा ले जाए।चुनाँचे वो रात भर पासबानी करते रहे। हक़ तआ’ला ने पैग़म्बर के दोस्तों को ये औसाफ़ अ’ता फ़रमाए थे “रोहमाउ-बैनहुम” वो तमाम मुसलमानों पर मेहरबान थे और उनके लिए ग़म खाते रहे।
अल-हम्दुलिल्लाहि आप (या’नी सुल्तान फ़ीरोज़ शाह ) की ज़ात-ए-मुअ’ज़्ज़म-ओ-मुकर्रम मज़लूमों और दर्दमंदों की जा-ए-पनाह है और आपकी बारगाह का अ’द्ल-ओ-इंसाफ़ दुनिया में ज़ाहिर हो चुका है।
उमरा को तल्क़ीनः-
दाउद मलिक का नाम बड़ी तवाज़ो’ और ख़ाकसारी के साथ लिखा है, जिसमें उन औसाफ़ की अ’मली ता’लीम भी है, और वो ये हैः
ला-इलाहा-इल्लल्लाहु, शरफ़ मनेरी जो कि उ’लमा के आस्ताना का कुत्ता है, निहायत ख़जलत, शर्मिंदगी, और मा’ज़रत के साथ आस्ताना-ए-सद्र की ख़िदमत में सलाम-ओ-तहनियत के बा’द अ’र्ज़ करता है कि इस सियाह-रू कुत्ते की हस्ती क्या है, जो सद्र ने इस की ख़िदमात का ज़िक्र इस तवाज़ो’ के साथ किया है।अल्बत्ता इसकी मिसाल ऐसी है जैसे मुश्क से कहा गया कि तुझ में एक बुराई है।पूछा वो क्या? कहा गया तू सबको ख़ुशबू देता है।जवाब दिया मैं ये नहीं देखता कि कौन ख़ुशबू पाता है, मैं देखता हूँ कि मैं क्या हूँ।यही हाल मेरा है।मेरी क्या हैसियत कि सद्र मेरे मो’तक़िद हों और मुझको मलिकुल-मशाइख़ क़ुतुबुल-औलिया लिखें।अफ़्सोस है कि इस बद-बख़्त का काम ख़ाकसारी, निगों-सारी, बुत-परस्ती और ज़ुन्नार-दारी में अहल-ए-शक़ावत-ओ-ला’नत से ज़्यादा नहीं बढ़ा। फिर भी इस बद-बख़्त और मुनाफ़िक़ के मुतअ’ल्लिक़ लोगों का ख़याल अच्छा है।कहते हैं कि एक बुज़ुर्ग ने एक शैख़ के जनाज़ा की नमाज़ पढ़ाई।नमाज़ के बा’द किसी की ज़बान से सुना कि वो शख़्स शहर में नेक-नाम था।बुज़ुर्ग ने कहा कि अगर मुझको पहले मा’लूम होता तो मैं उसके जनाज़ा की नमाज़ न पढ़ाता।लोगों ने पूछा क्यूँ तो उन्हों ने कहा कि जब तक कोई शख़्स मुनाफ़िक़ नहीं होता, लोगों में नेक-नाम नहीं होता।अगर आपकी तवाज़ो’ मेरी शोहरत की वजह से है तो दुनिया में इस बद-बख़्त से ज़्यादा मशहूर शैतान है। ऐ सद्र-ए-बुज़ुर्ग-वार इस्लाम ऐसा दीन नहीं है जो हर गंदे और नापाक शख़्स को अपना जमाल दिखाए,ला-यमस्सुहु-इल्लल-मुतह्हरून (या’नी उसको छू नहीं सकते मगर पाकीज़ा लोग) ।ये आयत एक दुनिया की हामिल है, व-मा-यूमिनु-अक्सरुहुम-बिल्लाहि-इल्ला-व-हुम-मुश्रिकून, (उनमें से अक्सर लोग अल्लाह पर ईमान नहीं लाते, मगर ब-जिहालत-ए-शिर्क) इस आयत ने एक जहान को तौहीद से हटा दिया है।दीन का काम इतना आसान नहीं जितना लोगों को मा’लूम होता है।जो लोग कि दीन-पनाह हैं और उसकी हर चीज़ की हक़ीक़त से वाक़फ़ि हो गए है,वो कहते हैं कि ख़ुदाया हमको अ’दम बना दे जिसका कोई वजूद नहीं है।बा’ज़ लोग ज़ुन्नार बांध कर आतिश-ख़ाना में आते हैं और इ’ल्म-ओ-अ’क़्ल को एक तरफ़ रख कर कहते हैं:
ऊ इ’ल्म नमी-शनीद लब बर-बस्तम
ऊ अ’क़्ल नमी-ख़रीद दीवानः शुदम
और जिस शख़्स ने ये कहा कि
बा-ख़ुदा दीवाना बाश-ओ-बा-शरीअ’त हुश्यार
तो उसका मतलब यही है, अगर आज कोई अपनी रस्म-ओ-आ’दत को इस्लाम कहता है तो यो बिलकुल अलग चीज़ है।उसका जवाब ये है।
फ़र्दात कुनद ख़ुमार कि इमशब मस्ती
और जब मौत के दरवाज़ा पर फ़-क-श्फ़ना अ’न्का-ग़िता-अ-क- (आज के दिन हम तुम्हारी आँखों का पर्दा उठा लिया) का कश्फ़ होता है, तो फिर पता चलता है कि कोई दस्तार रखता था, या ज़ुन्नार। इख़्लास या निफ़ाक़ ख़ानक़ाह में था या बुत-ख़ाना।में इसीलिए कहा गया है, जब ग़ुबार दूर होगा तो तुम देखोगे कि तुम घोड़े पर सवार हो या गधा पर (सेह सदी मक्तूबात सफ़हा 94-193)
हज़रत मख़दूमुल-मुल्क ने एक मलिक ज़ादा को नफ़्स के फ़रेब की जिस तरह ता’लीम दी उसकी तफ़्सील मा’दनुल-मआ’ली में इस तरह दर्ज हैः
मुबारक ने हुज़ूर में बे-होश हो कर कहना शुरूअ’ किया कि जब मैं अपने पीर का मुरीद हुआ तो मुझसे फ़रमाया कि अब तुम्हारी क्या ख़्वाहिश है।तुम मलिकज़ादे हो, तुम्हारी तबीअ’त चाकरी की तरफ़ माइल है या ख़ुदावंद-तआ’ला से मशग़ूलियत की तरफ़।मैंने अ’र्ज़ की, अब तो मैं आपकी ख़िदमत में हूँ।जैसा फ़रमाएं वैसा करूँ। फ़रमाया कि इस राह में सब से बेहतर चीज़ ये है कि हर चीज़ को तर्क कर दिया जाए।मैं ने भी उसको क़ुबूल कर लिया, और मेरी तबीअ’त में भी यही बात है।हज़रत मख़दूम ने उसको मुख़ातिब कर के फ़रमाया, इस में शक नहीं कि तमाम चीज़ों को तर्क कर देना बेहतर है अगर उसमें इस्तिक़ामत हो।लेकिन कुछ दिनों तमाम चीज़ों को तर्क करने और उनसे बाज़ रहने के बा’द फिर उनकी तरफ़ इल्तिफ़ात हो जाए तो पशेमानी होती है, और इस क़िस्म के तर्क से कोई फ़ाइदा नहीं।तर्क उसी वक़्त बेहतर है कि फिर तर्क की हुई चीज़ों की जानिब इल्तिफ़ात न हो।ऐसी हालत में काम में इस्तिक़ामत और सच्चाई होती है।तुम मलिकज़ादे हो, अपने दोस्तों की मज्लिसों में बैठने के आ’दी हो।उनकी सोहबत में जाकर तुम में फिर तब्दीली पैदा हुई तो ऐसे तर्क से क्या फ़ाइदा।ऐसे बहुत से लोग हैं, जो कहते हैं कि हमने तमाम चीज़ों को तर्क कर दिया।हम ज़ाहिद और आ’बिद हैं, लेकिन जब वक़्त आता है तो झूटे साबित होते हैं।नफ़्स के ऐसे बहुत से धोके हैं।दा’वा ब-ग़ैर इम्तिहान के क़ाबिल-ए-ए’तिमाद नहीं।मोबारक ने अ’र्ज़ की, हज़रत मख़दूम मेरे दिल में अब कोई आरज़ू बाक़ी नहीं रही है।हज़रत ने फ़रमाया, ये नफ़्स का फ़रेब है।ये उसी तरह धोका देता है, जिस से एक शख़्स को यक़ीन हो जाता है, कि उसने तमाम चीज़ों को तर्क कर के आख़िरत की तरफ़ रुख़ कर लिया है।लेकिन जो नफ़्स के फ़रेब से वाक़िफ़ हैं वो जानते हैं कि ये सच है या झूट।नफ़्स की सिफ़त किज़्ब है, और दिल की सिफ़त सिद्क़।नफ़स् जो कुछ कहता है झूट होता है, दिल जो कुछ कहता है सच होता है।अब ये सवाल किया जाता है कि जो काम किया जाता है, अगर उसका फ़रमान देने वाला दिल होता है, और आ’ज़ा उसी को अ’मल में लाते हैं जो दिल कहता है और चूँकि दिल की सिफ़त सिद्क़ है, तो अ’मल में किज़्ब क्यूँ पैदा होता है। इसका जावाब ये है कि दिल और अ’मल में जो हम-आहँगी नहीं होती उसकी वजह से नफ़्स दिल पर क़ाबू पा लेता है, और उसकी जगह बैठ कर चोरी करता है।फिर वो जो कुछ करता है दिल की तरफ़ मंसूब हो जाता है।इसीलिए दिल और अ’मल में हम-आहँगी नहीं होती। इसकी मिसाल ये है कि हज़रत सुलैमान अ’लैहिस्सलाम के तख़्त पर एक देव बैठ गया, और वो जो हुक्म देता था, लोग उसको बजा लाते थे।किसी को ये ख़बर न थी कि यो देव है या हज़रत सुलैमान अ’लैहिस्सलाम।हालाँकि देव हज़रत सुलैमान की जगह फ़रेब से बैठा था।नफ़्स की सिफ़त का यही हाल है।
तुरा बर-मुम्लिकत-ए-जां नीस्त फ़रमान
कि देवत हस्त बर जाए सुलैमान
अगर आरी ब-दस्त अंगुश्तरी बाज़
ब-फ़रमान आयद देव-ओ-परी बाज़
अहल-ए-मा’रिफ़त नफ़्स की तल्बीस से वाक़िफ़ रहते हैं, दूसरों को उससे वाक़फ़ियत नहीं होती।अगर नफ़्स को किसी चीज़ की ख़्वाहिश हुई, और उसको न पाया तो कहते हैं कि क़ब्ज़ है, और अगर पा लिया और ख़ुशी हुई तो कहते हैं बस्त हासिल हुआ। हालाँकि क़ब्ज़-ओ-बस्त दिल के अहवाल हैं जो नफ़्स का नतीजा है।मुराद के न हासिल होने से रंज होता है और और मुराद के पा लेने से से निशात तारी होता है। अहल-ए-तर्क-ओ-तजरीद तमाम चीज़ों को छोड़ देते हैं ।उनके सामने जो कुछ भी होता है उसको ख़राब कर देते हैं। अगर उनका दिल चंद चीज़ों की तरफ़ माइल होता है तो वो समझते हैं कि उनका दिल ख़राब हो गया।शैख़ मुई’ज़ुद्दीन ने पूछा कि क्या नफ़्स की तल्बीस हर मक़ाम पर होती है? तो हज़रत मख़दूम ने फ़रमाया जब तक नफ़्स मग़्लूब न हो जाए, हर मक़ाम पर उसका ज़ुहूर होता है। ये किसी मक़ाम पर ग़ाफ़िल नहीं रहते, ख़्वाह नफ़्स उनका कितना ही मुतीअ’ और फ़रमाँ-बरदार हो गया हो।(मा’दनुल-मा’नी सफ़हां 210-22 मतबूआ’ शर्फ़ुल-अख़्बार, बहार)
उमरा में क़ाज़ी शम्सुद्दीन हाकिम चौ सा ने हज़रत मख़दूमुल-मुल्क से सब से ज़्यादा इस्तिफ़ादा किया। आपके मक्तूब का जो मज्मूआ’ शाए’ हुआ है, उसमें ज़्यादा तर क़ाज़ी शम्सुद्दीन ही के नाम मकातीब हैं।उन में इ’रफ़ान-ओ-तसव्वुफ़ का शायद ही कोई ऐसा मस्अला होगा जिसकी वज़ाहत न की गई हो।बातिनी ता’लीमात के साथ-साथ ज़ाहिरी अख़्लाक़ को भी संवारने की तल्क़ीन है।मस्लन पाकीज़ा अख़्लाक़ की ता’लीम के सिलसिला में फ़रमाते हैं :
बिरादरम शम्सुद्दीन ख़ुदावंद-तआ’ला की इताअ’त में मुस्तक़िल- मिज़ाज रहो, कातिब-ए-हुरूफ़ के सलाम-ओ-दु’आ के बा’द ऐ बिरादर ये ज़रूरी है कि तुम अपने अख़्लाक़ की बुरी बातों को अच्छी बातों में तब्दील करने में रोज़ाना हर मुम्किन कोशिश करो, और उसको एक अहम काम समझो ।इस काम को तुमने छोड़ दिया या उस से ग़ाफ़िल हो गए तो फिर बलाएं पेश आएंगी। नुऊ’ज़ुबिल्लाहि-मिनहा। इस दुनिया के जानवरों और चौपायों में जो सिफ़ात हैं, उनमें से हर एक सिफ़त इंसान में भी पाई जाती है, और इस क़िस्म की जो सिफ़त इंसान में ग़ालिब रहती है, वही क़ियामत के रोज़ सूरत बन कर ज़ाहिर होती है। (मक्तूबात-ए-सेह सदी सफ़हा 203) एक मक्तूब में क़ाज़ी शम्सुद्दीन ही को तहरीर फ़रमाते हैः
ये ज़रूरी है कि कपड़ा जिस्म और लुक़्मा पाक और हलाल हो। हवास-ए-ख़म्सा भी मा’सियत से पाक हों, दिल भी औसाफ़-ए-ज़मीमा या’नी बुख़्ल और हसद वग़ैरा से पाक हो।पहले की पाकी से मुराद राह-ए-दीन में दो-क़दम आगे बढ़ जाता है, और तीसरे की (या’नी दिल की) पाकी हासिल होती है, तो मुरीद तीन क़दम आगे बढ़ जाता है, और मुरीद पर तौबा की हक़ीक़त वाज़ेह होती है।और वो हक़ीक़तन ताएब होता है। (ऐज़न सफ़हा 87-386)
एक मक्तूब में तमा’-ओ-निफ़ाक़ से बचने की तल्क़ीन रूहानी तरीक़ा से फ़रमाते हैः बिरादरम शम्सुद्दीन मा’लूम हो कि निफ़ाक़ से एक काम करना और सिद्दीक़ों के रुत्बा की तमा’ रखना दीनदारों की पहचान नहीं। तुम्हारा कोई काम तमा’ से ख़ाली नहीं होता।ख़ालिस नियत का राज़ इज़हार-ए-उ’बूदियत में है, न कि तमा’ में। तमा’ और चीज़ है, और इज़हार-ए-उ’बूदियत और चीज।ये बात कुछ ग़ौर करने के बा’द मा’लूम हुई है।लेकिन हम तुम ऐसे हैं कि कुछ रिश्वत ही ले कर ख़ुदा की बंदगी करते हैं।
सआ’दत-ओ-शक़ावत के मुतअ’ल्लिक़ रक़म-तराज़ हैं :
बिरादरम शम्सुद्दीन मा’लूम हुआ कि ख़ुदावंद तआ’ला के दो ख़ज़ाने हैं सआ’दत और शक़ावत।एक की कुंजी ताअ’त है और दूसरे की कुंजी मा’सियत है, जो कि अज़ल से अस्सई’दु- मन सु’इ-द फ़ी-बत्नि उम्मिहि के मिस्दाक़ हैं (या’नी सई’द वो हैं जो माँ के पेट ही में सई’द हुए)।उनके हाथ में सआ’दत की कुंजी या’नी ताअ’त दी गई। और जो अज़ल से अश्शक़ीयु मन शुक़ी-य फ़ी बत्नि-ए-उम्मिहि के मिस्दाक़ हैं (या’नी शक़ी वो हैं जो माँ के पेट ही में शक़ी हुए) उन के हाथ में शक़ावत की कुंजी या’नी मा’सियत दी गई।और आज हर शख़्स अपने हाथों में देख सकता है कि कौन सी कुंजी उसके पास है।और ये बात सुन्नत-ए-इलाही के मुताबिक़ है।सई’द-ओ-शक़ी को उ’लमा-ए-आख़िरत देखते हैं, न कि उ’लमा-ए-दुनिया। लेकिन बंदा की तमाम इ’ज़्ज़त और दौलत इसी में है कि वो ताअ’त-ओ-इ’बादत में मशग़ूल रहे (ऐज़न सफ़हा 215)
मुआ’मलात की ता’लीम देते हैं:
बिरादरम शम्सुद्दीन हर वो मुआ’मला जिसका जवाज़ क़ुरआन में नहीं बे-जा है।हर ख़्वाहिश जो शरीअ’त में नहीं बातिल है।हर दलील जो दीन की ताईद में लाई जाए लेकिन दीनी नहीं है महज़ बातिल है।और हर इस्तिआ’नत जो दीन की ख़ातिर की जाए लेकिन दीनी नहीं है मरदूद है। (सफ़हा 255)
एक मक्तूब में फ़रमाते हैं, उमरा, मुलूक,अस्हाब-ए-मंसब, अर्बाब-ए-क़द्र-ओ-मंज़िलत के लिए अल्लाह तआ’ला के पास पहुँचने का सबसे नज़दीक रास्ता ये है कि वो आ’जिज़ों की दस्तगीरी और हाजत-मंदों की हाजत-रवाई करें।चुनाँचे एक बुज़ुर्ग ने फ़रमाया कि अल्लाह तआ’ला के यहाँ पहुँचने की राहें तो बहुत हैं, लेकिन सब से नज़दीक राह दिलों को राहत पहुँचाना है।उन बुज़ुर्ग से ये कहा गया कि जिस शहर के वो रहने वाले है, उसका बादशाह शब-बेदार है। नफ़ल नमाज़ें बहुत पढ़ता है।नफ़ल रोज़े भी रखता है।फ़रमाया, बे-चारे ने अपने काम को तो खो दिया है, लेकिन दूसरों के काम में लगा हुआ है।लोगों ने उन बुज़ुर्ग से पूछा कि आख़िर उस बादशाह का अपना काम क्या है, तो फ़रमाया उसका काम तो ये है कि तरह तरह के खाने पकवाए और भूकों को पेट भर कर खिलवाए,तरह तरह के कपड़े सिलवाए और नंगों को पहनवाए,उजड़े हुए दिलों को आबाद करे, हाजत-मंदों की दस्त-गीरी करे, नफ़ल नमाज़ और नफ़ल रोज़े तो दरवेशों का काम है, (मक्तूबात सेह सदी सफ़हा 489)
इसी तरह और भी ता’लीमात हैं, जिनमें से कुछ आईंदा सफ़हात में पेश की जाएंगी।और दूसरे उमरा जिन्हों ने हज़रत मख़दूमुल-मुल्क से ता’लीम-ओ-तर्बियत पाई, उनमें से बा’ज़ के नाम ये हैं।क़ाज़ी सदरुद्दीन, मलिक मुफ़र्रिह, मलिक मुई’ज़ुद्दीन, शम्सुल-मुल्क , शम्सुद्दीन ख़्वारज़मी वग़ैरा।इन उमरा के नाम जो ख़ुतूत लिखे हैं, उनमें कहीं दरवेशाना इ’ज्ज़-ओ-इंकिसार है, कहीं आ’लिमाना वक़ार-ओ-संजीदगी, कहीं बुज़ुर्गाना मोहब्बत-ओ-शफ़क़त है और कहीं मुर्शिदाना ज़ज्र-ओ-तौबीख़ ।ये मक्तूबात आज भी फ़ुयूज़-ओ-बरकात के सरचश्मे हैं।
दरवेशाना ज़िंदगीः–
अर्बाब-ए-हुकूमत और अस्हाब-ए-दौलत से तअ’ल्लुक़ात के बावजूद हज़रत मख़दूमुल-मुल्क की ज़िंदगी में दरवेशाना शान हमेशा क़ाएम रही।मुर्शदि की हिदायत के मुताबिक़ ख़ुश्क रोटी, ख़ुश्क चावल,ख़ुश्क खिचड़ी तनाउल फ़रमाते।दिन के वक़्त घर में चूलहा जलता।अपनी वालिदा माजिदा को रोज़-मर्रा के ख़र्च के लिए एक मुक़र्रा रक़म देते। लेकिन उनसे ये शर्त थी कि दिन के वक़्त घर में धुवाँ न हो।एक बार घर में कोई अ’ज़ीज़ मेहमान आया।वालिदा माजिदा मेहमान की ख़ातिर मुर्ग़ और रोटी पकानी शुरुअ’ की, जिसकी ख़बर हज़रत मख़दूमुल-मुल्क को नहीं हुई।घर में धुवाँ उठते देखा तो ख़ादिम-ए-ख़ास को बुला कर दरियाफ़्त किया।जब मा’लूम हुआ कि मुर्ग़ और रोटी पक रही है तो वालिदा माजिदा के पास पहुँचे, और अ’र्ज़ किया कि मैं ने अपना मुँह काला कर के आपसे शर्त की थी लेकिन आप उसकी पाबंद न हो सकीं।माँ ने बेटे की ख़ातिर सारी चीज़ें मेहमान को दे दीं कि कहीं और जाकर पकवा लो।एक मर्तबा एक शख़्स फ़ालूदा ले आया।हज़रत मख़दूमुल-मुल्क ने उसको सूँघ कर छोड़ दिया, और फ़रमाया कि ख़ैरियत हुई, अगर खा लेता तो इस फ़ालूदा ने तो मेरा काम ही तमाम कर दिया था।हज़रत मख़दूमुल-मुल्क का अ’मल इस उसूल पर था कि खाना इस तरह खाया जाए जिस तरह दवा खाई जाती है।
लिबास में भी सादगी थी।तहबंद, मिर्ज़ई कुर्ता और चादर के अ’लावा अ’मामा भी सर-ए-मोबारक पर बाँधते थे।लिबास का रंग उ’मूमन संदली होता।लिबास के कुछ तबर्रुकात ख़ानक़ाह शरीफ़ में मौजूद हैं।
ख़शिय्यत-ए-इलाही-ओ-हुब्बुल्लाहः-
अ’ज़ाब-ए-इलाही के ख़ौफ़ से हमेशा रोते रहते, लेकिन इस ख़ौफ़ के साथ हुब्बुल्लाह में अ’जीब वारफ़्तगी पैदा हो गई थी।एक बार एक मुरीद मौलाना निज़ामुद्दीन ने अपने वा’ज़ में ये दो शे’र पढ़ेः
ऐ क़ौम ब-हज्ज रफ़्तः कुजाएद कुजाएद
मा’शूक़ हमीं जास्त ब-याएद ब-बाएद
आनाँ कि तलब-गार-ए-ख़ुदाएद ख़ुदाएद
हाजत ब-तलब नीस्त शुमाएद शुमाएद
हज़रत मख़ूमुल-मुल्क भी मज्लिस-ए-वा’ज़ में तशरीफ़ फ़रमा थे।शे’र सुन कर उन पर अ’जीब कैफ़ियत तारी हो गई।सर-ए-मोबारक को सुतून से इतना टकराया कि मजरूह हो गया।
इत्तिबाअ’-ए-सुन्नतः-
लेकिन हुब्बुल्लाह में इत्तिबाअ’-ए-सुन्नत का भी हर हाल में ख़याल रहता था।फ़रमाते थे कि बा-ख़ुदा दीवाना बाश-ओ-बा-शरीअ’त हुश्यार”
बा-शरअ’ ब-होश बाश-ओ-बा-ख़ुदा दीवानः
बा-इ’श्क़ आशना बाश-ओ-बा-अ’क़्ल बेगानः
ख़िदमत-ए-ख़ल्क़िल्लाहः-
हक़-तआ’ला की ख़ुश-नूदी की ख़ातिर हक़्क़ुल-इ’बाद अदा करने में बराबर कोशाँ रहे। ख़ल्क़ुल्लाह की ख़िदमत को बहुत बड़ी दौलत तसव्वुर फ़रमाते थे।इर्शाद है कि
मुसलमानों का काम अंजाम देना और उनके काम में लगे रहना बड़ी दौलत है।ये काम पैग़म्बरों का है।उन्हों ने मुसलमानों के काम किए, और उनकी बलाएं अपने सर लेते रहे” ।
मलिक ख़िज़्र को एक मक्तूब में लिखते हैः
इस तारीक दुनिया में क़लम, ज़बान, माल औऱ जाह से जहाँ तक मुम्किन हो मोहताजों को राहत पहुँचाओ।सौम-ओ-सलात-ओ-नवाफ़िल अपनी जगह पर अच्छी ज़रूर हैं, लेकिन दिलों को राहत पहुँचाने से ज़्यादा सूदमंद नहीं।
हज़रत मख़ूदमुल-मुल्क का अ’मल भी इस पर रहा।बिहार शरीफ़ में सिर्फ़ इसीलिए इक़ामत की कि ख़्वास-ओ-अ’वाम के ज़ाहिरी-ओ-बातिनी अख़्लाक़ को संवारें, और उसके लिए दर्स-ओ-तदरीस,पंद-ओ-मौइ’ज़त और तक़रीर-ओ-तहरीर वग़ैरा तमाम ज़राए’ इख़्तियार फ़रमाएं।इस सिलसिला में जो ता’लीमात दीं उनकी तफ़्सील आगे आएगी।
दिल-जोई-ओ-पर्दा-पोशीः-
ख़ल्क़ुल्लाह की दिल-जोई और उनके उ’यूब की पर्दा-पोशी का ख़याल हर हाल में रखते।अगर नफ़ल का रोज़ा रखे होते और कोई मद्ऊ’ करता, तो फ़ौरन इफ़्तार कर देते, और फ़रमाते नफ़ल रोज़ा की तो क़ज़ा है लेकिन शिकस्तगी-ए-दिल की क़ज़ा नहीं।
एक रोज़ एक शख़्स इमामत के लिए आगे बढ़ा।लोगों ने हज़रत मख़दूम से कहा शराब-ख़्वार है।फ़रमाया, हर वक़्त न पीता होगा। लोगों ने कहा, हर वक़्त पीता है ।फ़रमाया, माह-ए-रमज़ानुल-मोबारक में नहीं पीता होगा, और उसकी इक़्तदा कर ली।
इ’ज्ज़-ओ-इंकिसारः-
आ’लिम थे लेकिन अपने को सग-ए-गुर्गीन-ए-आस्ताना-ए-उ’लमा समझते थे।अल्लाह तआ’ला के बर्गुज़ीदा बंदे थे, लेकिन अपने आप को मुदबिर (ज़लील) और मख़ज़ूल (बद-बख़्त) वग़ैरा लिखते थे, अपने मुतअ’ल्लिक़ फ़रमाते कि “हेच न शुद” ।पहले भी ज़िक्र आ चुका हैं कि एक बार अ’लस्सबाह सर्द पानी में ग़ुस्ल करते वक़्त बे-होश हो गए।जब होश आया तो फ़ज्र की नमाज़ का वक़्त जा चुका था।इंतिहाई रंजीदा हो कर अपने आपसे मुख़ातिब होकर फ़रमाया कि जितना मुजाहदा मैं ने किया है, अगर पहाड़ ने किया होता तो वो पानी हो जाता, लेकिन अफ़्सोस शरफ़ुद्दीन कुछ न हुआ।तमाम मुआ’सिर मशाइख़ को अपने से बुलंद-तर और बेहतर तसव्वुर फ़रमाते।एक बार हज़रत सय्यद जलाल बुख़ारी की ख़िदमत में एक कफ़श भेजी, जिस से ये मतलब था कि मैं आपका कफ़श-ए-पा हूँ। लेकिन हज़रत सय्यद जलाल बुख़ारी ने उसके बदला में अपनी दस्तार भेजी जिस से ये मुराद थी कि आप मेरे सर-ताज हैं।
ज़ौक़-ए-समाअ’-
मुर्शिद की नसीहत थी कि समाअ’ के वक़्त बातिनी अहवाल ज़ाहिर न हों ।इसलिए जब कभी मज्लिस-ए-समाअ’ होती और उस में हज़रत मख़दूमुल-मुल्क को वज्द आता तो ख़ल्वत में चले जाते, और दरवाज़ा बंद कर लेते ।वहाँ किसी के आने की इजाज़त न होती।
समाअ’ की हिल्लत-ओ-हुरमत पर मा’दनुल-मआ’नी बाब-ए-हफ़्तुम (सफ़हा 461-471) और मक्तूबात-ए-सेह सदी (मक्तूब नौ, दो, सेउम सफ़हा (264-71) में मुस्तक़िल बहसें हैं, जिनका ख़ुलासा ये है कि अगर समाअ’ से अल्लाह तआ’ला की मोहब्बत की तहरीक हो, और अहवाल शरीफ़ या’नी मुकाशफ़ात और मुलातफ़ात ज़ुहूर-पज़ीर हों तो ये हलाल है। और अगर उससे तबीअ’त फ़िस्क़-ओ-फ़ुजूर की तरफ़ माइल हो तो ये हराम है।समाअ’ हलाल भी, हराम भी और मकरूह भी है, और मुबाह भी।अगर समाअ’ के सुनने से दिल सिर्फ़ हक़ की तरफ़ माइल हो तो ये हलाल है।अगर मुजाहदा की तरफ़ माइल हो तो ये हराम है, और अगर कुछ हक़ और कुछ ग़ैर-ए-हक़ की तरफ़ मुतवज्जेह हो, तो ये मकरूह है।और हक़-ओ-मजाज़ दोनों की तरफ़ माइल हो, लेकिन हक़ की तरफ़ ज़्यादा रुज्हान रखे, तो ये मुबाह है।(मा’दनुल-मआ’नी सफ़हा 462-463)समाअ’ अहल-ए-हक़ के लिए मुस्तहब, अहल-ए-ज़ुहद के लिए मुबाह और अहल-ए-नफ़्स के लिए मकरूह है।(मक्तूबात-ए-सदी सफ़हा 267)
समाअ’ अगर तलब-ए-मंफ़अ’त के लिए है तो ये मज़मूम है, और अगर तलब-ए-हक़ीक़त के लिए है, तो ये महमूद है। (मा’दनुल-मआ’नी सफ़हा 467)
मज्लिस-ए-समाअ’ के लिए तीन शर्तें ज़रूरी हैं।मकान, इख़्वान और ज़मान।मकान या’नी जहाँ मज्लिस-ए-समाअ’ होती हो वो मशाइख़ की जगह हो, और पाकीज़ा, कुशादा, और रौशन हो।इख़्वान या’नी मज्लिस-ए-समाअ’ में जो शरीक हों, वो दरवेश या दरवेश के दोस्त हों, अहल-ए-तमीज़, सोहबत-याफ़्ता और मुर्ताज़ हों।ज़मान या’नी समाअ’ के वक़्त दिल तमाम चीज़ों से ख़ाली हो ।
मज्लिस-ए-समाअ’ के आदाब की पाबंदी भी ज़रूरी है।मस्लन शुरका दो-ज़ानू बैठें, सर को आगे झुकाए रखें, दाएं, बाएं न देखें, हाथ और सर को जुंबिश न दें, प्यास मा’लूम हो तो पानी न पिएँ, आपस में गुफ़्तुगू न करें, क़व्वाल की ख़ुश-गोई की दाद न दें, अश्आ’र को बेहतर तरीक़ा से पढ़ने की फ़रमाइश न करें, दिल को हक़-सुब्हानहु तआ’ला की तरफ़ माइल रखें । (मक्तूबात-ए-सेह सदी सफ़हा 270-271)
विसालः-
सन 782 हिज्री में 6 शव्वाल शब-ए-पंज-शंबा को ब-वक़्त-ए-नमाज़-ए-इ’शा आ’लम-ए-जाविदानी की तरफ़ रेहलत फ़रमाई।उस रोज़ सुब्ह की नमाज़ ही के वक़्त से सफ़र-ए-आख़िरत की तय्यारी शुरुअ’ कर दी थी।मुरीदों को पास बुलाते, किसी को गले लगाते, किसी से मुसाफ़हा फ़रमाते, किसी की दाढ़ी का बोसा देते, किसी को आग़ोश में लेते, किसी को दु’आएं देते, किसी को ख़ास ख़ास वसिय्यतें करते, बार-बार कलाम-ए-पाक की आयतें और कलिमे पढ़ते।मग़रिब के वक़्त वज़ू कर के नमाज़ अदा की।नमाज़ के बा’द कलिमा-ए-तय्यबा पढ़ते रहे।फिर मुनाजात की दु’आएं पढ़ीं।आख़िर में उम्मत-ए-मोहम्मदी के लिए दु’आ करते थे कि ला-इलाहा-इल्लल्लाह कहते हुए जान जान-आफ़रीं के सुपुर्द कर दी।तारीख़-ए-विसाल “पुर-शरफ़” (782 हिज्री) है, वसिय्यत की थी कि जनाज़ा की नमाज़ ऐसा शख़्स पढ़ाए जो सहीहुन्नसब सय्यद हो, तारिक-ए-ममलिकत हो और हाफ़िज़-ए-क़िरात-ए-सबआ’ हो।जनाज़ा रखा हुआ था कि ऐ’न उस वक़्त हज़रत अशरफ़ जहाँगीर समनानी रहमतुल्लाह अ’लैह का वुरूद हुआ। ये तीनों शर्तें उनमें मौजूद थीं इसलिए जनाज़ा की नमाज़ पढ़ाने की सआ’दत उन्हीं के हिस्सा में आई।मज़ार-ए-पुर-अनवार बिहार शरीफ़ में मरजा-ए’-ख़लाइक़ है।
उ’लू-ए-मर्तबतः-
सूफ़िया-ए-किराम में मख़दूमुल-मुल्क, मख़दूमुल-आ’लम, सुल्तानुल-आ’शिक़ीन, सय्यदुल-मुतकल्लिमीन, बुर्हानुल-मुहक़्क़िक़ीन-अस्सालिहीन, ताजुल-औलिया, सिराजुल-औलिया और यक्ता-ए-रोज़गार के अल्क़ाब से मशहूर हैं।
तसानीफ़ः-
हज़रत मख़दूमुल-मुल्क के ख़ानदान वाले उनकी तसानीफ़ की ता’दाद सतरह सौ बताते हैं, लेकिन हमको सिर्फ़ हसब-ए-ज़ैल किताबों का पता चल सका है।
(अलिफ़)
मक्तूबात 1. मक्तूबात-ए-सदी 2. मक्तूबात-ए-दो सदी 3. मक्तूबात-ए-बिस्त-ओ-हश्त।
(बा) मल्फ़ूज़ातः 1. मा’दनुल-मआ’नी 2. मुख़्ख़ुल-मआ’नी 3. राहतुल-क़ुलूब 4. ख़्वान-ए-पुर-ने’मत 5. कंज़ुल-मआ’नी 6. मग़ज़ुल-मआ’नी 7. गंज ला-यफ़ना 8. मुनिसुल-मुरीदीन 9. तुहफ़ा-ए-ग़ैबी 10. मल्फ़ूज़स्सफ़र 11. बरातुल-मुहक़्क़िक़ीन।
(जीम)
तसानीफ़ः फ़वाइद-ए-रुक्नी 2. शर्ह-ए-आदाबुल-मुरीदीन 3. अ’क़ाइद-ए-शरफ़ी 4. इर्शादुस्सालिकीन 5. इर्शादुत्तालिबीन 6. अज्विबा 7. औराद-ए-ख़ुर्द 8. औराद-ए-वस्त 9. फ़वाइदुल-मुरीदीन 10. अज्विबा-ए-ज़ाहिदिया 11. रिसाला-ए-इर्शादात 12 रिसाला-ए-मक्किया 13. औराद-ए-कलाँ,
मक्तूबात-ए-सदी: ये हज़रत मख़दूमुल-मुल्क के मुरीद क़ाज़ी शम्सुद्दीन हाकिम-ए-चौसा के नाम से है।क़ाज़ी शम्सुद्दीन अपने फ़राएज़-ए-मंसबी की मशग़ूलियत के बाइ’स हज़रत मख़दूमुल-मुल्क की ख़िदमत में हाज़िर होने से मा’ज़ूर थे, इसलिए उनकी ता’लीम मक्तूबात के ज़रिआ’ होती थी। हज़रत मख़दूमुल-मुल्क उनको बहुत अ’ज़ीज़ रखते थे।विसाल के वक़्त उनको अपने पास बुला कर फ़रमाया, “क़ाज़ी शम्सुद्दीन को क्या कहूँ, क़ाज़ी शम्सुद्दीन मेरे फ़र्ज़न्द हैं।मुतअ’द्दिद बार मैं ने कभी उनको “फ़र्ज़न्दम” और कभी बिरादर लिखा है। उन्हीं की वजह से मेरा इ’ल्म-ए-दरवेशी ज़ाहिर हुआ। उन्हीं के लिए मझको कहना और लिखना पड़ा, वर्ना कौन लिखता”। मक्तूबात-ए-सदी में तसव्वुफ़ के तमाम अहम मसाएल पर मुख़्तसर मगर मुहक़्क़िक़ाना मबाहिस हैं। ये मक्तूबात सन 747 हिज्री में लिखे गए। इनको हज़रत मख़दूमुल-मुल्क के कातिब मौलाना ज़ैनुद्दीन बद्र अ’रबी ने जम्अ’ कर के अपने पास रख लिया था।मक्तूबात-ए-सदी के नुस्ख़े छप गए हैं। एक नुस्ख़ा मत्बआ’ नवल-किशोर में छपा है, जो बे-हद ग़लत है।एक और नुस्ख़ा मत्बा’-ए-अ’लवी मोहम्मद अ’ली बख़्श ख़ान नक़्शबंदी में है।
2. मक्तूबात-ए-दो-सदीः
इसमें आ’म तौर से 151 मक्तूबात पाए जाते है। इसको मौलाना ज़ैनुद्दीन बद्र ने मज़्कूरा-बाला मक्तूबात के बाइस साल के बा’द सन 769 हिज्री में तर्तीब दिया था।मगर ख़ुदा बख़्श ख़ान लाइब्रिरी के मख़्तूता में मुरत्तिब का नाम मोहम्मद बिन मोहम्मद ई’सा अल-बल्ख़ी अल-मदऊ’ ब-अशरफ़ बिन रुक्न है।ये मक्तूबात भी छप गए हैं।एक नुस्ख़ा सेह सदी मक्तूबात के नाम से कुतुब-ख़ाना इस्लामी पंजाब लाहौर से भी शाए’ हुआ है, जिस में मज़्कूरा बाला तीन सौ मक्तूबात एक ही साथ हैं।
ये मक्तूबात किसी एक शख़्स के नाम नहीं हैं, बल्कि उस ज़माना मे हज़रत मख़ूमुल-मुल्क रहमतुल्लाहि अ’लैह ने मुख़्तलिफ़ मुरीदों के नाम जो ख़ुतूत लिखे हैं उन्हीं का मज्मूआ’ है, इसलिए बा’ज़ मबाहिस में तवारुद और तकरार पैदा हो गया है।
3. इंडिया ऑफ़िस में हज़रत मख़दूम के मक्तूबात का एक और मज्मूआ’ है जिसमें 125 मक्तूबात हैं।इसमें भी ख़्वाजा मोहम्मद सई’द और ख़्वाजा मोहम्मद मा’सूम के नाम ख़ुतूत हैं। इन दोनों को हज़रत मख़दूमुल-मुल्क फ़र्ज़न्द कह कर मुख़ातिब फ़रमाते हैं, जिस से इंडिया ऑफ़िस केटलॉग के मुरत्तिब को धोका हुआ है कि वो दोनों हज़रत मख़ूदूमुल-मुल्क के साहिबज़ादे थे।
4. मक्तूबात-ए-बिस्त-ओ-हश्तः-
ये मौलाना मुज़फ़्फ़र के नाम हैं।ब्यान किया जाता है कि हज़रत मख़ूदमुल-मुल्क ने उनके नाम दो सौ से ज़्यादा ख़ुतूत लिखे थे मगर उनको वो (इमाम मुज़फ़्फ़र) अ’वाम से पोशीदा रखना चाहते थे।इसलिए उन्होंने वफ़ात के वक़्त वसिय्यत की थी कि ये ख़ुतूत उनके साथ क़ब्र में दफ़्न कर दिए जाएं, मगर इत्तिफ़ाक़ से ये अट्ठाइस ख़ुतूत कहीं पड़े रह गए, जो रफ़्ता-रफ़्ता आ’म हो गए और अब किताब की सूरत में शाए’ कर दिए गए हैं।
हज़रत मख़दूमुल-मुल्क की तमाम तसानीफ़ में मक्तूबात बहुत ही मक़बूल हैं।अबुल-फ़ज़ल रक़म-तराज़ हैं :
“व फ़रावाँ तस्नीफ़ अज़ ऊ यादगार। अज़ आँ मियान मक्तूबात-ए-ऊ दर सर शिकनी-ए-नफ़्स”
मौलाना अ’ब्दुल हक़ लिखते हैं:
“ऊ रा तसानीफ़-ए-आ’ली अस्त अज़ जुम्ल: तसानीफ़-ए-ऊ मक्तूबात-ए-मशहूर-ओ-लतीफ़-तरीन तसानीफ़ ऊ अस्त, बिस्यार अज़ आदाब-ए-तरीक़त-ओ-असरार-ए-हक़ीक़त दर आँजा इंदराज याफ़्तः”
हज़रत मख़दूमुल-मुल्क के मल्फ़ूज़ात की ता’दाद बहुत ज़्यादा है, जैसा कि ऊपर की फ़िहरिस्त से ज़ाहिर हुआ होगा।
1. मा’दनुल-मआ’नी मुरत्तबा मौलाना ज़ैर बद्र अ’रबी दो जिल्दों में सन 749 हिज्री से सन 751 हिज्री के मल्फ़ूज़ात हैं।इसमें न सिर्फ़ खालिस सूफ़ियाना निकात हैं, बल्कि मज़हब, हदीस, और इ’ल्म-ए-कलाम पर भी मबाहिस हैं, जिनसे अंदाज़ा होता है, कि हज़रत मख़दूमुल-मुल्क की ख़ानक़ाह की मज्लिसों में न सिर्फ़ तसव्वुफ़ के उ’क़्दा हल किए जाते थे, बल्कि वा’ज़-ओ-नसीहत, रुश्द-ओ-हिदायत-ओ-अम्र-ओ-नवाही, औसाफ़-ए-हमीदा और अख़्लाक़-ए-हस्ना की ता’लीम भी जारी थी।उन्हीं ता’लीमात की रौशनी में ये कहा जा सकात है कि उस वक़्त मज़हब और तसव्वुफ़ दो अलग-अलग चीज़ें न थीं, बल्कि दोनों एक ही शम्अ’ के दो परतव थे।
2. ख़्वान-ए-पुर-ने’मत (मुरत्त्बा मौलाना ज़ैनुद्दीन बद्र अ’रबी) को मा’दनुल-मआ’नी की तीसरी जिल्द समझना चाहिए। इसमें ज़्यादा तर तसव्वुफ़ के जुज़्वी निकात और फ़िक़्ही-ओ-शरई’ मसाइल हैं।
3. मुख़्ख़ुल-मआ’नीः– इसको शैख़ शहाबुद्दीन इ’माद ने मुरत्तब किया। इस में मुख़्तलिफ़ मसाएल मस्लन माह-ए-रजब के रोज़े की फ़ज़ीलत, तौबा, लैलतुर्रग़ाएब, तिलावत-ए-कलाम-ए-पाक, अद्ई’या, खाने के आदाब, शहीदों का मर्तबा, शब-ए-मे’राज, इ’ल्म-ए-कसबी-ओ-ग़ैर-कसबी, शब-ए-बरात, लब्स-ए-ना’ल, नमाज़-ए-तरावीह, पीर, मर्द-ए-कामिल, ता’बीर-ए-ख़्वाब, तौबा-ए-मूसा,तस्फ़िया-ओ-तज़्किया-ए-बातिन, सलाबत,अमीरुल-मुमिनीन हज़रत उ’मर, जू-ए’-सादिक़, वुक़ूफ़,रुजूअ’ वग़ैरा-वग़ैरा पर इर्शादात-ए-गिरामी हैं। कुल 51 मज्लिसों के मल्फ़ूज़ात हैं।
4. राहतुल-क़ुलूब (मुरत्तबा मौलाना ज़ैनुद्दीन बद्र अ’रबी ) इस में दस मज्लिसों के मल्फ़ूज़ात हैं।ये छोटा सा रिसाला है जिसकी ज़ख़ामत 20 सफ़हे की है।(मत्बूआ’ मुफ़ीद-ए-आ’म प्रेस आगरा) इस में रज़ा-ए-हक़, मब्दा-ओ-मआ’द, ख़्वाजा उवैस क़रनी,सज्दा-ए-आदम सफ़ीउल्लाह, ता’ज़ीम-ए-तिलावत-ए-कलाम-ए-पाक, नमाज़-ए-जुम्आ’ की फ़ज़ीलत, रोज़ा-ए-आ’शूरा पर मबाहिस के अ’लावा कलाम-ए-पाक की बा’ज़ आयतों की तफ़्सीर भी है।
5. कंज़ुल-मआ’नी, मग़्ज़ुल-मआ’नी, गंज-ए-ला-यनफ़ा,मूनिसुल-मुरीदीन, तुहफ़ा-ए-ग़ैबी, मल्फ़ूज़ुस्सफ़र,और बरातुल-मुहक़्क़िक़ीन ग़ैर मत्बूआ’ है।ये मेरी नज़र से नहीं गुज़री।
तसानीफ़ में फ़वाइद-ए-रुक्नी,इर्शादुस्सालिकीन,रिसाला-ए-मक्किया, फ़िरदौसिया,शर्ह-ए-आदाबुल-मुरीदीन,फ़वाइदुल-मुरीदीन, अज्विबा-ए-अ’क़ाएद-ए-अशरफ़ी,लताएफ़ुल-मआ’नी,औराद-ए-कलाँ,औराद-ए-औसत, औराद-ए-ख़ुर्द छप गई हैं।
फ़वाइद-ए-रुक्नी: ये 44 सफ़हे का एक रिसाला है,जिसमें हज़रत मख़दूमुल-मुल्क ने अपने एक मुरीद रुक्नुद्दीन को हज्ज-ए-का’बा के वक़्त सफ़र-ओ-हज़र में मुतालआ’ के लिए हिदायतें दी थीं।इसको उनकी ता’लीमात का ख़ुलासा कहना चाहिए।
इर्शादुत्तालिबीनः-
ये 16 सफ़हे का एक मुख़्तसर रिसाला है। इसमें हज़रत मख़दूमुल-मुल्क रहमतुल्लाह अ’हैल ने तालिब-ए-हक़ को मुख़्तलिफ़ क़िस्म की हिदायतें दी हैं।इंडिया ऑफ़िस की फ़िहरिस्त में इसका नाम बुर्हानुल-आ’रिफ़ीन है (सफ़हा 1020)
इर्शादुस्सालिकीनः–
ये तौहीद पर 4 सफ़हे का रिसाला है, जिसमें हज़रत मख़दूमुल-मुल्क ने बताया है कि काइनात की सारी चीज़ें एक ही नूर की मुख़्तलिफ़ सूरतें हैं।नूर आ’लम-ए-लाहूत से जबरूत में आया, तो रूह हुआ, और हिज्रत से मुंतक़िल हुआ तो क़ालिब कहलाया।और मलकूत से नासूत में पहुँचा तो जिस्म के नाम से मौसूम हुआ।इसी तरह नूर आ’लम-ए-कसीफ़ में आया तो नार हुआ।नार कसीफ़ होकर बाद हुई, और बाद कसीफ़ होक कर आब हुई।और आब कसीफ़ हो कर ख़ाक हुआ। पस इंसान और अ’नासिर-ए-अरबआ’ एक ही चीज़ की सूरतें हैं।
रिसाला-ए-मक्किया-ओ-ज़िक्र-ए-फ़िरदौसियाः–
ये सात सफ़हे का एक क़लमी रिसाला है,जिसमें अज़्कार के अक़्साम और तरीक़े बताए गए हैं।
शर्ह-ए-आदाबुल-मुरीदीनः-
ये हज़रत शैख़ ज़ियाउद्दीन अबुल ख़ुबैब अ’ब्दुल क़ादिर सुहरवर्दी की मशहूर अ’रबी तसनीफ़ आदाबुल-मुरीदीन की शर्ह है।
फ़वाइदुल-मुरीदीनः-
ये एक मुख़्तसर रिसाला है जिसमें मुरीदों के लिए कलिमा-ए-तय्यिबा की फ़ज़ीलत, नमाज़-ए-बा-जमाअ’त की बरकत, बा’ज़ आयतों के फ़ुयूज़,गोरिस्तान, मुंकिर नकीर, बहिश्त,दोज़ख़,क़ियामत, ईमान, हक़ूक़ुल-वालिदैन, हुक़ूक़-ए-हम-साया, हुक़ूक़-ए-ज़ौजैन के लिए कुछ हिदायतें हैं।ये ब-ज़ाहिर मज़हब-ओ-अख़्लाक़ पर एक रिसाला मा’लूम होता है, मगर इससे अंदाज़ा होता है कि उस ज़माना तसव्वुफ़ मज़हब-ओ-अख़्लाक़ से अलग न था,बल्कि एक सूफ़ी अपनी रूहानियत के साथ अख़्लाक़-ओ-मज़हब का भी आ’ला नमूना होता था।
अज्विबाः-
ये सवालात-ओ-जवाबात का एक मज्मूआ’ है,जो ज़ाहिद बिन मोहम्मद बिन निज़ाम और दूसरे मुक़र्रबीन हज़रत मख़दूमुल-मुल्क से वक़्तन फ़-वक़्तन सवालात किया करते थे,और वो जो जवाबात मरहमत फ़रमाते, उनको इस रिसाला में जम्अ’ कर लिया गया है। तसव्वुफ़ के बहुत से मसाइल इस रिसाला में पाए जाते हैं।
लताइफ़ुल-मआ’नीः-
अ’क़ाइद-ए-शरफ़ी,औराद-ए-कलाँ,औराद-ए-वस्त,औराद-ए-ख़ुर्द के मज़ामीन इनके नाम से ज़ाहिर हैं।
ता’लीमातः-
जैसा कि ऊपर कहा गया है कि हज़रत मख़दूमुल-मुल्क की तमाम तसानीफ़ में मक्तूबात सब से ज़्यादा अहम हैं, और उन में तसव्वुफ़ के तमाम रुमूज़-ओ-निकात पर मुदल्लल और मुहक़्क़िक़ाना मबाहिस हैं।
तौहीदः-
सेह सदी मक्तूबात का मज्मूआ’ लाहौर से शाए’ हुआ है।इसके पहले मक्तूब में तौहीद पर बहस है।हज़त मख़दूमुल-मुल्क फ़रमाते हैं के तौहीद के चार दर्जे हैं।
(1) ज़बान से ला-इलाहा-इल्लल्लाह कहना मगर दिल से उसका इंकार करना ये मुनाफ़क़त है।
(2) दिल से ला-इलाहा-इल्लल्लाह कहना और ए’तिक़ाद भी रखना जैसा कि आ’म मुसलमान रखते हैं।उन मुसलमानों में बा’ज़ अल्लाह की रूहानियत पर सैंकड़ों दलीलें भी पेश करते हैं ।इनको मुतकल्लिमीन और उ’लमा-ए-ज़वाहिर कहा जाता है।
(3) मुजाहदा और रियाज़त से मुशाहदा करना कि फ़ाइ’ल-ए-हक़ीक़ी वही एक ज़ात है।ये तौहीद-ए-आ’रिफ़ाना है, जिसको “मक़ाम-ए-हमः अज़ ऊस्त” कहते हैं।
(4) मुजाहदा और रियाज़त की कसरत से सालिक ऐसा मुस्तग़रक़ हो जाता है कि आ’लम जो आइना-ए-हैरत है उसको नज़र नहीं आता है।सारी हस्तियाँ उसकी नज़र में गुम हो जाती है, और वो अल्लाह तआ’ला के सिवा कुछ और नहीं देखता।उस पर फ़नाईयत तारी रहती है।इसको फ़ना-फ़ित्तौहीद (या’नी हमः-ऊस्त) कहतें हैं। फ़ना फ़ित्तौहीद के बा’द भी एक मर्तबा है, जिसका नास अल-फ़ना अ’निल-फ़ना है। इस मर्तबा में सालिक को कमाल-ए-इस्तिग़राक़ में अपनी फ़नाईयत की भी ख़बर नहीं होती,और वो ख़ुदा के जलाल और जमाल में कोई फ़र्क़ और तमीज़ नहीं कर सकता।क्यूँकि ये तमीज़ बाक़ी रह जाती है,तो ये तफ़रक़ा की दलील है।ऐ’नुल-जम्अ’ और जम्उ’ल-जम्अ’ का मक़ाम उसी वक़्त हासिल होता है,जब सालिक अपने को और कुल काइनात को ख़ुदा के दरिया-ए-नूर में ग़र्क़ कर देता है और उसको खबर नहीं होती है कि कौन और क्या ग़र्क़ हुआ।
तू दर ऊ गुम शौ कि तौहीद ईं बुवद
गुम शुदन गुम कुन कि तफ़रीक़ ईं बुवद
इस मक़ाम-ए-तफ़रीद में पहुँच कर सालिक को वहदतुल-वजूद की हक़ीक़त का इंकिशाफ़ होता है, और वो ऐसा मह्व हो जाता है कि उसको इस्म-ओ-रस्म,वजूद-ओ-अ’दम, इ’बारत-ओ-इशारत,अ’र्श-ओ-फ़र्श और असर-ओ-ख़बर से कोई वाक़्फ़ियत नहीं होती।इस मक़ाम के सिवा कहीं और जल्वा-गर नहीं होता।यहाँ के सिवा उसका निशान कहीं और ज़ाहिर नहीं होता।
इस जगह हज़रत मख़दूमुल-मुल्क ने ब-तौर-ए-इंतिबाह लिखा है कि तौहीद-ए-वुजूदी इ’ल्म के दर्जा में हो या शुहूद के इब्तिदाई दर्जा से इंतिहाई दर्जा में हो, हर दर्जा में बन्दा बंदा है, ख़ुदा ख़ुदा है, इसलिए अनल-हक़ सुब्हानी मा आ’-ज़-म शानी (मैं ख़ुदा हूँ, मै पाक हूँ, और मेरी शान किस क़द्र बड़ी है) वग़ैरी कहना कलिमात-ए-कुफ़्र हैं।
फ़ना फ़ित्तौहीद के सिलसिला में ये सवाल पैदा होता है कि सालिक अपनी फ़नाईयत, मह्वियत और इस्तिग़राक़ में आख़िर क्या देखता है, क्या महसूस करता है, क्या लुत्फ़ उठाता है।
वो दिल में नूर देखता है, और उन चीज़ों का इदराक करता है जो उसको पहले मा’लूम थीं। वो ख़ुदा की तजल्ली का मुशाहदा करता है, और ख़ुदा से वस्ल का लुत्फ़ उठाता है।
ये नूर,इदराक,तजल्ली और वस्ल क्या है?
नूरः-
सालिक के दिल में सिफ़ात-ए-बशरियत की सियाहियाँ और तारीकियाँ दूर हो कर उसमें जो सफ़ाई पैदा होती है, उसी का नाम नूर है।सफ़ाई में जितना ज़्यादा कमाल होगा,उतना ही दिल का नूर ज़्यादा दरख़्शाँ और ताबाँ होगा। इस दरख़्शानी और ताबानी में दिल के अंदर एक ख़ास क़िस्म की लज़्ज़त, कैफ़ियत और ज़ौक़ महसूस होता है, जिसको तहरीर में लाना मुश्किल है।इसी लज़्ज़त, कैफ़ियत और ज़ौक़ को ख़ुदा-वंद तआ’ला की ज़ात-ओ-सिफ़ात का नूर कहते हैं।
इदराकः
सालिक का दिल इस नूर-ए-ख़ुदावंदी से मुनव्वर हो जाता है, तो उसको कश्फ़ या’नी (इदराक) हासिल होता है।पहले मा’क़ूलात के असरार-ओ-रुमूज़ से वाक़िफ़ होता है, जिसको कश्फ़-ए-नज़री कहते हैं।कश्फ़-ए-नज़री से गुज़र कर सालिक को कश्फ़-ए-दिली हासिल होता है, जिसको कश्फ़-ए-शुहूदी भी कहते हैं।इसमें मुख़्तलिफ़ क़िस्म के अनवार कश्फ़ होते है।इस कश्फ़ के बा’द सालिक को कश्फ़-ए-इल्हामी होता है, जब्कि वो तख़्लीक़-ए-आ’लम के असरार, और उसकी हर चीज़ के वजूद की हिक्मत से वाक़फ़ि हो जाता है।
कश्फ़-ए-इल्हामी के बा’द कश्फ़-ए-रूहानी पैदा होता है जब्कि उसकी नज़रों से ज़मान-ओ-मकान का हिजाब उठ जाता है।अज़ल और अबद का दाइरा उसके सामने होता है।वो बहिश्त, दोज़ख़ और मलाइका को देख सकता है।मलाइका की बातों को सुन भी सकता है।माज़ी, हाल, और मुस्तक़बिल के वाक़िआ’त से वाक़फ़ियत हासिल कर सकता है। चुनाँचे इसी मक़ाम में उस से करामत भी सादिर हो सकती है।मस्लन वो पानी या आग पर चल सकता है, हवा में उड़ सकता है, एक लम्हा में दूरी और मसाफ़त को तय कर सकता है।मगर करामत कोई क़ाबिल-ए-ए’तिमाद चीज़ नहीं। इसका इज़हार जाइज़ नहीं, बल्कि इसको पोशीदा रखना फ़र्ज़ है, क्यूँकि इज़हार से फ़ित्ना पैदा होता है।
कश्फ़-ए-रूही से कश्फ़-ए-ख़फ़ी पैदा होता है।कश्फ़-ए-ख़फ़ी सिफ़ात-ए-ख़ुदावंदी का वास्ता होता है।या’नी सिफ़ात-ए-ख़ुदावंदी का अ’क्स रूह पर पड़ता है, इसलिए इसको कश्फ़-ए-सिफ़ाती भी कहते हैं। चुनाँचे मुकाशफ़ात-ए-ख़फ़ी में सालिक को समई’ सिफ़त का कश्फ़ होगा तो वो उस पर ख़ुदा का कलाम ज़ाहिर होगा ।अगर बसरी सिफ़त का कश्फ़ हुआ तो उसको मुशाहदा-ए-हक़ हासिल होगा। और सिफ़त-ए-जमाल मक्शूफ़ हुई तो उसको ज़ौक़-ए-मुशाहदा नसीब होगा।अगर जलाल की सिफ़त ज़ाहिर हुई तो हक़ीक़ी फ़ना ज़ाहिर होगी।और सिफ़त-ए-क़य्यूमी का कश्फ़ हुआ तो हक़ीक़ी बक़ा नसीब होगी।
तजल्लीः-
जब सालिक का दिल आइना की तरह साफ़ होता है तो नूर तजल्ली की शान में ज़ाहिर होता है।तजल्ली की दो क़िस्में हैं, 1. तजल्ली-ए-रूहानी 2. तजल्ली-ए-रब्बानी।तजल्ली-ए-रूहानी में सिफ़ात-ए-बशरी ज़ाइल तो हो जाते हैं, लेकिन बिलकुल फ़ना नहीं होते ।उस में शक-ओ-शुब्हा बाक़ी रहता है, जिस से बा’ज़ औक़ात ग़ुरूर, पिंदार, उ’ज्ब-ओ-ख़ुदी बढ़ जाती है।मगर तजल्ली-ए-रब्बानी में हस्ती नीस्ती से बदल जाती है, और ख़ुदा-वंद तआ’ला जिस सिफ़त में तजल्ली से मुत्तसिफ़ होता है, तो वो हज़रत-ए-ख़िज़्र-ओ-हज़रत-ए-मूसा की तरह ख़ुदा से मुतकल्लिम होता है।और अगर अख़्लाक़ की सिफ़त में तजल्ली पाता है, तो उसमें वो बात पैदा होगी जो हज़रत-ए-ई’सी में थी।
वस्लः-
हक़ तआ’ला से वस्ल के मा’नी उससे मिलना और पैवस्ता होना है।मगर ये मिलना ऐसा नहीं है जैसा कि जिस्म का जिस्म से अ’र्ज़ का अ’र्ज़ से या जौहर का जौहर से या इ’ल्म का मा’लूम से या अ’क़्ल का मा’क़ूल से या शय का शय से है। बल्कि इससे मुराद दुनिया और दुनिया की तमाम चीज़ों से इंक़िताअ’ और दूरी होती है।जिस क़द्र ग़ैर-ए-हक़ से फ़राग़त होगी,उसी क़द्र हक़-तआ’ला का तक़र्रुब होगा, और हक़ तआ’ला से जिस क़द्र दूरी होगी, उतना ही उससे इंफ़िसाल और बो’द होगा।
हज़रत मख़दूमुल-मुल्क ने उन तमाम ज़राए’ पर भी बहस की है, जिनसे अल्लाह तआ’ला का नूर, तजल्ली और वस्ल हासिल होता है। हम इन ज़राए’ को सुहूलत के लिए हसब-ए-ज़ैल तरीक़ा से पेश करते हैं।
1 तौबा, 2 सिद्क़-ए-ईमान 3 मा’रिफ़त 4 तक़्वा 5 मुजाहदा-ओ-रियाज़त-ए-नफ़्स 6 तर्क-ए-दुनिया।
तौबाः-
तौबा के तीन मरातिब हैं: 1 अ’वाम की तौबा इसलिए होती है कि वो अपने नफ़्स पर ज़ुल्म करते हैं, ख़ुदा से ना फ़रमानी करते हैं, इसलिए गुनाहों के अ’ज़ाब से बचने के ख़्वाहाँ होते हैं। 2 ख़ास लोगों की तौबा इसलिए होती है कि वो समझते हैं कि जिस क़द्र उनको ने’मतें अ’ता हुईं ,उस ए’तबार उससे ख़िदमत का हक़ अदा न हो सका 3 ख़ासुल-ख़ास लोगों की तौबा इसलिए होती है कि उन्हों ने अपने को आ’जिज़-ओ-नीस्त क्यँ न ख़याल किया, क़वी और मौजूद तो सिर्फ़ ख़ुदा-वंद तआ’ला ही है।इंसान की हलाकत गुनाह से ज़्यादा तौबा के तर्क से होती है।
ईमानः-
ईमान की सच्चाई ख़ुदा को बड़ा समझने में है और ख़ुदा की बड़ाई के एहसास से ख़ुदा से शर्म पैदा होती है। इस शर्म से बातिन और ज़ाहिर की ता’ज़ीम पैदा होती है। इसके बा’द सालिक का शाहिद ख़ुदा हो जाता है, और वो उसको मुख़्तलिफ़ सूरतों में मुशाहदा करता है, जिनके असरात भी मुख़तलिफ़ होते हैं।मस्लन वो ख़ुदा के ग़िना के कमाल का मुशाहदा करता है, तो उसके दिल से सारी तमअ’ जाती रहती है, और ख़ुदा की क़ुदरत का मुशाहदा करता है, फिर उसके सिवा किसी और से उसको उन्स पैदा नहीं होता।वो ख़ुदा के फ़ज़्ल का मुशाहदा करता है, तो वो अपने अफ़्आ’ल और अहवाल से भी बे-नियाज़ हो जाता है।वो ख़ुदा के करम का मुशाहदा करता है, तो उसको ख़ुदा से ऐसा इंबिसात हासिल होता है कि कौन-ओ-मकान उसके हाजत-मंद हो जाते हैं। ख़ुदा के क़हर का मुशाहदा करता है तो फिर उसको अपने किसी फे’ल पर ए’तिमाद नहीं रहता, और अगर ख़ुदा के जलाल का मुशाहदा करता है तो उस पर ख़ुदा का ख़ौफ़ ऐसा तारी रहता है कि उसको कभी आराम नहीं मलिता। (मक्तूबात) सेह सदी, सफ़हा 112)।
मा’रिफ़तः-
इं मुशाहदात के बा’द सालिक को मा’रिफ़त हासिल होती है, जिसके बा’द जुम्ला काइनात को मक़हूर और आ’जिज़ तसव्वुर करता है। और ख़ुदा की ज़ात-ओ-सिफ़ात को तमाम चीज़ों पर मुहीत समझता है।ये दर्जा न अ’क़्ल और न सिर्फ़ इ’ल्म से बल्कि ख़ुदा की हिदायत से हासलि होता है, (मक्तूबात-ए-सेह सदी सफ़हा 123)
ये हिदायत तलब-ए-हक़ से पैदा होती है।तलब-ए-हक़ में मा’रिफ़त-ए-नफ़्स ज़रूरी है।किब्र, बुख़्ल, हसद, और ख़श्म को मा’तूब और मक़हूर कर के तमाम ख़्हवाहिशों और लज़्ज़तों से पाक हो जाना मा’रिफ़त-ए-नफ़्स है।
तक़्वाः-
ये पाकी तक़्वा से हासिल होती है।तक़्वा से मुराद तमाम चीज़ों से परहेज़ है जिनसे दीन को नुक़सान पहुँचने का ख़तरा हो।ये नुक़सान दो तरह से हो सकता है।हराम चीज़ो और मा’सियत की तरफ़ माइल होने या हलाल चीज़ों की तरफ़ ज़्यादती के साथ रग़बत रखने से। (मक्तूबा-ए-सेह-सदी 234)
मुजाहदा-ए-नफ़्स-ओ-रियाज़तः-
इस मैलान और रग़बत की ज़ियादती को कुचलने के लिए हज़रत मख़दूमुल-मुल्क ने मुजाहदा-ए-नफ़्स पर ज़ोर दिया है।अलमुजाहिदतु हुवल-ग़िज़ाउ अ’निंनफ़्सिश्शैतान (इर्शादुत्तालीबीन सफ़हा 14)
मुजाहदा-ए-नफ़्स में अव्वलीन दर्जा गुरसंगी का है।शिकम तमाम गुनाहों को मंबा’-ओ-मा’दन है (मक्तूबात सफ़हाः236)
व मुख़्ख़ुल-मआ’नी सफ़हा 142), शिकम की सैरी ही से इंसानी शहवत पैदा होती है, इसलिए गुरसंगी आग है, और इंसानी शहवत ईंधन। इंसानी शहवत गुरसंगी ही से जल कर ख़ाक सियाह हो जाती है।(मुख़्ख़ुल-मआ’नी सफ़हा 142)
चुनाँचे जिस शब को दरवेश फ़ाक़ा करता है वो गोया उसकी शब-ए-मे’राज है। गुरसंगी से उसका जेहन तेज़ और फ़हम साफ़ हो जाती है।(मक्तूबात सफ़हा 236) और इसी से उसको अपनी ज़ात से बेज़ारी पैदा होती है,जो ख़ुदा-ए-अ’ज़्ज़-ओ-जल से आशनाई का अव्वलीन दर्जा है । (मक्तूबात-ए-सेह सदी सफ़हा 238-250)
तर्क-ए-दुनियाः-
और जब अपनी ज़ात से बेज़ारी पैदा हो जाती है,तो सालिक के पास जो चीज़ होती है उसको अपने से अ’लाहिदा कर देता है, और जो चीज़ उसके पास नहीं होती उसकी तलब नहीं करता।इसी का नाम तर्क-ए-दुनिया है। (मक्तूबात-ए-सेह सदी सफ़हा 213)
तर्क-ए-दुनिया का इंहिसार ज़ुहद पर है।ज़ुहद की दो क़िस्में हैं।एक तो वो जिस पर बंदा का मक़दूर है, दूसरो वो जिस पर बंदा का मक़दूर नहीं।अव्वलुज़्ज़िक्र ज़ुहद तीन चीज़ों पर मुश्तमिल है 1, उस चीज़ की तलब न करना जो न हो, 2 उस चीज़ को दूर करना जो हो 3 बातिन में दुनिया की तमाम चीज़ों की ख़्वाहिश को तर्क कर देना।मुवख़्ख़रुज़्ज़िक्र ज़ुहद से दुनिया की तरफ से दिल सर्द हो जाता है, जो अव्वलुज़्ज़िक्र ज़ुहद पर पाबंद होने से ख़ुद-ब-ख़ुद हासिल हो जाता है।(मक्तूबात-ए-सेह सदी सफ़हा 213)
तर्क-ए-दुनिया के सिलसिला में हज़रत मख़दूमुल-मुल्क ने जा-बजा और भी बहस की है।उनके नज़दीक दुनिया की चीज़ों की तीन क़िस्में हैं।एक तो जो सूरत और मा’नी में दुनिया की चीजें मा’लूम होती हैं , ये मा’सियत का सरमाया है, जो हरगिज़ ख़ुदा के लिए नहीं हो कसती है।दूसरी वो जो सूरत और मा’नी में ख़ुदा के लिए हो, लेकिन उनसे दुनिया का काम लिया जाता हो, मस्लन फ़िक्र, ज़िक्र, मुख़ालफ़त-ए-शहवत।फ़िक्र कर के कोई दुनियावी जाह-ओ-मर्तबा हासिल करना चाहता हो, या ज़िक्र कर के दुनिया के लोगों की नज़रों में पारसा बनना चाहता हो, या मुख़ालफत-ए-शहवत से अपने को ज़ाहिद दिखाना चाहता हो, तो ये बे-हद मज़्मूम है।तीसरी वो जो ज़ाहिर में दुनिया की चीज़ें हो, लेकिन बातिन में ख़ुदा के लिए हो।मस्लन कोई इसलिए खाता, पीता और सोता हो कि ख़ुदा की इ’बादत के लिए उसकी जिस्मानी क़ुव्वत बर-क़रार रहे, या कोई माल इसलिए तलब करता हो कि वो ख़ल्क़ से बे-नियाज़ हो तो क़ियामत के रोज़ उसका चेहरा चौदहवीं रात की तरह चमकता नज़र आएगा। (ऐज़न सफ़हा 209)
तर्क-ए-दुनिया के सिलसिला मे तर्क-ए-ख़ल्क़ुल्लाह की भी बहस आती है।हज़रत मख़दूमुल-मुल्क का ख़याल है कि तालिब-ए-हक़ हत्तल-वुस्अ’ दुनिया के लोगों की सोहबत से गुरेज़ करे।वो दुनिया के लोगों में सिर्फ़ जुमआ’ की नमाज़ या नमाज़-ए-बा-जमाअ’त अदा करने के लिए आए।अगर इस से भी उसको हक़ की राह में ख़लल पैदा हो तो वो किसी पहाड़ या जंगल में चला जाए जहाँ ये चीज़ें उसके लिए फ़र्ज़ बाक़ी न रहती हों।मगर तालिबान-ए-हक़ में अगर कोई ऐसा शख़्स हो जिसके रुश्द-ओ-हिदायत, पंद-ओ-नसीहत और इ’ल्मी रुमूज़-ओ-निकात के लिए दुनिया के लोग मोहताज हो रहे हों, तो उसके लिए उसकी उ’ज़्लत-नशीनी कार-ए-सवाब नहीं। (मक्तूबात-ए-सेह सदी सफ़हा 5-174) ऐसी हालत में वो लोगों को दरमियान में रह कर उनसे अलग रहे या’नी उनकी मद्ह-ओ-ज़म से बे-गाना रहे, और अपनी मज़र्रत-ओ-मंफ़अ’त को उनके मे’यार के मुताबिक़ न समझे।मा’दनुल-मआ’नी सफ़हा 222)
सालिक की मशग़ूलियत-
तर्क-ए-दुनिया और तर्क –ए-ख़ल्क़ुल्लाह के बा’द सालिक की मशग़ूलियत का सवाल पैदा होता है, कि उसकी मसरूफ़ियतें क्या हों । हज़रत मख़दूमुल-मुल्क के नज़दीक एक सालिक के अश्ग़ाल की तर्तीब ये होनी चाहिए कि वो नमाज़ पढ़े।अगर नमाज़ से मलूल हो जाए तो तिलावत-ए-कलाम-ए-पाक करे। अगर उससे भी मलूल हो जाए तो ज़िक्र करे ।अगर उस से भी मलूल हो जाए तो फ़िक्र करे। (ऐज़न सफ़हा 156)
ज़िक्रः-
ज़िक्र से मुराद ख़ुदा-वंद तआ’ला की याद है। इसकी चार क़िस्में हैं: 1 ज़बान पर हो लेकिन दिल में न हो, 2 ज़बान और दिल दोनों में हो, मगर दिल किसी वक़्त उससे ग़ाफ़िल हो जाता हो, लेकिन ज़बान पर जारी हो, 3 ज़बान और दिल में बराबर हो, 4 दिल में हो और ज़बान ख़ामोश हो।(मा’दनुल मआ’नी सफ़हा 147)
अस्ल ज़ाकिर वो है कि उसकी ज़बान ज़िक्र में मशग़ूल हो, दिल ख़ुदा की तलब में हो, रूह ख़ुदा की तजल्लियात को देखती हो, और उसका सारा अंदरूनी राज़ मज़्कूर के साथ मुद्ग़म हो जाता है ताकि वो कुल “मंज़ूरात” को सुन सके, और उसका हर बाल और रुवाँ, ज़बान हो जाए। इसके बा’द ज़ाकिर फ़ना फ़िल्लाह होता है, और उसको अपनी ज़ात का मुत्लक़ एहसास नहीं होता।वो अपने को महज़ ख़ुदावंद तआ’ला का मर्ज़ूक़, मंज़ूर, मामूर और मख़्लूक़ समझता है ।और अपने हुज़्न-ओ-मसर्रत, मरज़-ओ-सेहत और तंगी-ओ-फ़राख़ी को अहकमुल-हाकिमीन की महज़ मशिय्यत तसव्वुर करता है, और न सिर्फ़ साबिर, शाकिर, और क़ाने’ बल्कि मसरूर रहता है।और उसके अहवाल, अक़्वाल और अफ़्आ’ल में कोई ऐसी बात नहीं होती जो ख़ुदा की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ हो।इस तरह वो ग़ैरुल्लाह से मुंक़ते’ हो कर मक़ाम-ए-ला-इलाहा इल्लल्लाह को पहुँच जाता है, और ख़ुदा के जलाल और जमाल को अपने दिल के अंदर महसूस करता है, और उसकी ज़ात को अपनी ज़ात में देखता है। इसके बा’द उस पर इरादत-ए-ग़ैबी मक्शूफ़ होती है। (इर्शादुत्तालिबीन सफ़हा 5 व राहतुल-क़ुलूब सफ़हा 3)
फ़िक्रः-
फ़िक्र से मुराद ख़ुदा-वंद तआ’ला की आफ़रीनश, ज़मीन, आसमान, अज़ल और अबद के मुतअ’ल्लिक़ ग़ौर-ओ-ख़ौज़ है।फ़िक्र में मुरीद को ख़ुदा के मुतअ’ल्लिक़ सोंचना ख़तरा से ख़ाली नहीं, क्यँकि तफ़क्कुर का मरजा’ महसूर और महदूद होता है, और ख़ुदा-वंद तआ’ला की ज़ात महसूर-ओ-महदूद नहीं, इसलिए उसके मुतअ’ल्लिक़ सोचना गोया ता’लील-ओ-तश्बीह में अपने को ड़ालना है, इसलिए सालिक को सिर्फ़ ख़ुदा-वंद तआ’ला की क़ुदरत, हिक्मत और उसके साथ मुकव्वनात-ए-ग़ैब के मुतअ’ल्लिक़ फ़िक्र करना चाहिए। इस फ़िक्र में सालिक अपने तअ’ल्लुक़ात और तमाम पसंदीदा चीज़ों को छोड़ देता है, और वो अपने इरादों और ख़्वाहिशों से बाज़ आता है। इसी को “कौन” से बाहर आना भी कहते हैं।हज़रत मख़दूमुल-मुल्क के नज़दीक इस क़िस्म की एक साअ’त की फ़िक्र साठ साल की इ’बादत से बेहतर है। (मक्तूबात सफ़हा 170 मा’दनुल मआ’नी सफ़हा 247)
मुख़्ख़ुल मआ’नी में हज़रत मख़दूमुल-मुल्क ने फ़िक्र की तीन क़िस्में बताई हैं 1. अज़ल में क्या हुआ, 2 अबद में क्या होगा 3 अवामिर की क्या पाबंदी हुई और नवाही का क्या इर्तिकाब हुआ, (सफ़हा 149)
सालिक का ज़ाहरी अख़्लाक़ः-
हज़रत मख़दूमुल मुल्क की मज़्कूरा बाला ता’लीमात का तअ’ल्लुक़ तो बातिन से है, लेकिन उन्हों ने सालिक को ज़वाहिर की भी ता’लीम दी है, जो हसब-ए-ज़ैल है।
सालिक का जिस्म, लिबास, और लुक़मा ताहिर और हलाल हो ताकि उसका दिल भी औसाफ़-ए-ज़मीमा से पाक हो।(मक्तूबात-ए-सदी सफ़हा 80) मा’दनुल-मआ’नी में सालिक की तहारत की चार क़िस्में क़रार दी हैं।
1 तहारत-ए-जिस्म, या’नी बदन और कपड़े पाक हों 2 तहारत-ए-हवास, ज़बान से झूट बात न निकले, नज़र मुहर्रमात पर न पड़े, कान ऐसी आवाज़ न सुने जिसको न सुनना चाहिए। 3 तहारत-ए- दिमाग़ अज़ तख़य्युलात। ख़ुदा के सिवा किसी और का तख़य्युल न हो 4 तहारत-ए-दिलः दिल मज़मूमात और महदूदात से पाक हो। मज़मूमात की पाकी बुख़्ल, रिया, हसद, रश्क, वग़ैरा से आज़ादी हासिल करना है, और महदूदात की पाकी से मुराद ये है कि सालिक को अपनी इ’बादत, ज़ुहद वग़ैरा का ख़याल न होने पाए, (मा’दनुल मआ’नी सफ़हा 94) चुनाँचे सालिक को अपनी निय्यत मे पाक होना चाहिए। जब उसकी निय्यत दुनिया के शवाइब से पाक हो जाती है तो वो ज़ाहिद कहलाता है,और जब आख़िरत के शवाइब से पाक हो जाती है तो वो आ’रिफ़ कहलता है।(मक्तूबात-ए-सेह सदी सफ़हा 84)
सालिक को हर हाल में सई’द होना चाहिए, क्यूँकि सआ’दत ताअ’त की कलीद और शक़ावत मा’सियत है। अख़्लाक़-ए-हमीदा में वो रसूलुल्लाह का पैरव हो।मस्लन बद-ख़ू न हो, बल्कि हमेशा ताज़ा-रू और कम-सुख़न हो।सलाम करने में सबक़त करता हो।सख़ी हो। ग़ीबत, झूट, फ़ुहश-कलिमा ज़बान पर न लाता हो। दनाअत, हिक़ारत, और तमअ’ से अपने को आलूदा न करता हो। अपने हर फे’ल, क़ौल औऱ हाल में ख़ुदा की जानिब निगाह रखता हो । मुसलमानों के ऐ’ब पर पर्दा डालता हो।किसी साइल के सवाल को रद्द न करता हो।अगर उसके पास कुछ हो तो वो दे देता हो और कुछ न हो तो देने का वा’दा करता हो।किसी हाल में उसको ग़ुस्सा न आता हो। (ऐज़न स. 6-22)
वो कम बोलता हो, ताकि दिल में मशग़ूल रहे, और कम खाता हो ताकि फ़िक्र जारी रखे। (ऐज़न सफ़हा. 165) वो मुतवाज़े’ हो, क्यूँकि ख़ुदा के बंदों से तकब्बुर गोया ख़ुदा से मुनाज़अ’त है।(मा’दनुल मआ’नी सफ़हा 362) हालत-ए-इंबिसात-ओ-क़ुर्ब में ना-ज़ेबा कलिमात-ओ-शतहिय्यात मुँह से न निकालता हो, क्यूँकि ख़ुदा कि शान में सरासर गुस्ताख़ी है।(मा’दनुल मआ’नी सफ़हा 288) न किसी हाल में पोशीदा असरार को ज़ाहिर करता हो।(मा’दनुल मआ’नी)।
सालिक को पीर की ता’ज़ीम-ओ-तकरीम ज़रूरी है।ख़ुदा तक पहुँचने की इ’ल्लत मशिय्यत-ए-हक़ है।पीर उसका सबब है।गो ब-ग़ैर इ’ल्लत के सिर्फ़ सबब के ज़रिआ’ से मंज़िल-ए-मक़सूद तक कोई सालिक नहीं पहुँच सकता, लेकिन फिर भी सालिक के लिए पीर का एहतिराम ज़रूरी है।उसको अपने पीर की मुताबअ’त क़ौलन, फ़े’लन, क़ल्बन, क़ालिबन करना चाहिए।मा’दनुल मआ’नी सफ़हा 156)
मगर हज़रत मख़दूमुल-मुल्क ने तसव्वुफ़ में दो चीज़ें लाज़मी क़रार दी हैं।एक इ’ल्म, दूसरी शरीअ’त का इत्तिबाअ’।
इ’ल्मः-
किसी सालिक को बग़ैर इ’ल्म के इस राह मे क़दम नहीं रखना चाहिए क्यूँकि इ’ल्म के बग़ैर या तो वो काफ़िर या मज्नूँ हो जाता है।बा’ज़ औलिया जाहिल गुज़रे हैं, मगर उनको रहमत-ए-ख़ास से फ़ैज़ मिला था, जिसकी मिसालें बहुत ही कम हैं। (ख़्वान-ए-पुर-ने’मत सफ़हा 6-7)
शरीअ’त की पाबंदी: इसी तरह शरीअ’त के बग़ैर राह-ए-सुलूक में क़दम रखना जिहालत और हलाकत है।शीरीअ’त से तरीक़त और तरीक़त से हक़ीक़त मा’लूम होती है, चुनाँचे एक सालिक को शरीअ’त से वाक़फ़ियत नहीं, तो वो तरीक़त और हक़ीक़त से आगाही नहीं हासिल कर सकता है।
इस सिलसिला में शरीअ’त तरीक़त और हक़ीक़त को वाज़ेह तौर से बताया है। शीरीअ’त, तौहीद, तहारत, नमाज़, रोज़ा, हज, ज़कात, जिहाद, औराद अम्र-ओ-नवाही का नाम है और अम्र-ओ-नवाही की तहक़ीक़-ओ-तफ़ह्हुस और उनकी रौशनी में ज़मीर की सफ़ाई, अख़्लाक़ की ततहीर और नफ़्स के तज़्किया को तरीक़त कहते हैं।शरीअ’त का तअ’ल्लुक़ ज़ाहिर से और तरीक़त का तअ’ल्लुक़ बातिन से है।मस्लन नमाज़ क़िब्ला-रू हो कर पढ़ना शरीअ’त है, लेकिन नमाज़ में ख़ुदा से दिल लगाना तरीक़त है।नमाज़ की जगह को निजासत से पाक करना शरीअ’त है, लेकिन दिल को बशरी कुदूरत से पाक रखना तरीक़त है।मुबाहात का इख़्तियार करना शरीअ’त है, लेकिन उनकी तख़फ़ीफ़ कर देना तरीक़त है।राह-ए-शरीअ’त में मुबाहात के इख़्तियार करने से राहत और आसाइश में मुब्तला हो जाने का ख़तरा रहता है।तरीक़त उसी राहत की तख़फ़ीफ़ और आसाइश की मुमानअ’त का नाम है, लेकिन शरीअ’त के ब-ग़ैर राह-ए-तरीक़त पर चलना कोठे पर ब-ग़ैर ज़ीना के दीवार फाँद कर चढ़ना है।
शरीअ’त से तरीक़त और तरीक़त से हक़ीक़त हासिल होती है।इ’ल्म-ए-हक़ीक़त तीन चीज़ों पर मुश्तमिल हैः 1. ख़ुदावंद तआ’ला की ज़ात और वहदानियत का इ’ल्म 2 ख़ुदावंद तआ’ला की सिफ़ात और उसके अहकाम का इ’ल्म 3 उसके फ़े’ल और हिक्मत का इ’ल्म।
ये चीज़ें मा’लूम हो जाती हैं तो एक सालिक आ’रिफ़ कहलाता है, मगर हक़ीक़त ब-ग़ैर शरीअ’त के ज़ंदक़ा और शरीअ’त ब-ग़ैर हक़ीक़त के निफ़ाक़ है।बा’ज़ गिरोह का ख़याल है कि हक़ीक़त का जब कश्फ़ हो जाता है तो फिर शरीअ’त की ज़रूरत बाक़ी नहीं रहती, लेकिन हज़रत मख़दूमुल-मुल्क ने ऐसे अ’क़ाइद और मज़हब पर ला’नत भेजी है, और किताब, सुन्नत और इज्माअ’-ए-उम्मत की तक़लीद को हर हाल में ज़रूरी क़रार दिया है।(मक्तूबात-ए-सेह सदी 64,73,72 इला-आख़िरिहि-मा’दनुल-मआ’नी सफ़हा 470 हिस्सा1)
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