सूफ़ीनामा आर्काइव के सूफ़ी लेख
हज़रत शैख़ अबुल हसन अ’ली हुज्वेरी रहमतुल्लाह अ’लैहि
नाम-ओ-नस्बः- अबुल हसन कुन्नियत और अ’ली नाम है। हुज्वेर और जलाब ग़ज़नी के दो गाँव हैं। शुरुअ’ में उनका क़ियाम यहीं रहा,इसलिए हुज्वैरी और जलाबी कहलाए।आख़िरी ज़िंदगी में लाहौर आ कर रहे, इसलिए लाहौरी भी मशहूर हुए। साल-ए-वफ़ात सन 400 हिज्री बताया जाता है।
हज़रत शैख़ बू-अ’ली शाह क़लंदर
नाम-ओ-नसबः- नाम शैख़ शर्फ़ुद्दीन और लक़ब बू-अ’ली क़लंदर था।इमाम-ए-आ’ज़म अबू हनीफ़ा की औलाद से थे।सिलसिला-ए-नसब ये है।शैख़ शर्फ़ुद्दीन बू-अ’ली क़लंदर बिन सालार फ़ख़्रुद्दीन बिन सालार हसन बिन सालार अ’ज़ीज़ अबू बक्र ग़ाज़ी बिन फ़ारस बिन अ’ब्दुर्रहीम बिन
हज़रत शैख़ बहाउद्दीन ज़करिया सुहरावर्दी रहमतुल्लाह अ’लैह
ख़ानदानः- हज़रत शैख़ बहाउद्दीन ज़करिया क़ुद्दि-स सिर्रहुल-अ’ज़ीज़ के जद्द-ए-बुज़ुर्गवार हज़रत कमालुद्दीन अ’ली शाह क़बीला-ए-क़ुरैश से तअ’ल्लुक़ रखते थे। फ़रिश्ता तज़्किरा-ए-औलिया-ए-हिंद मुसन्नफ़ा शैख़ ऐ’नुद्दीन बीजापुरी के हावाला से रक़म-तराज़ है कि “शैख़
मसनवी की कहानियाँ -2
एक गँवार का अंधेरे में शेर को खुजाना (दफ़्तर-ए-दोम) एक गँवार ने गाय तबेले में बाँधी। शेर आया और गाय को खा कर वहीं बैठ गया। वो गँवार रात के अंधेरे में अपनी गाय को टटोलता हुआ तबेले पहुंचा और अपने ख़याल में गाय को बैठा पाकर शेर के हाथ पैर पर, कभी पीठ और
मसनवी की कहानियाँ -3
एक सूफ़ी का अपना ख़च्चर ख़ादिम-ए-ख़ानक़ाह के हवाले करना और ख़ुद बे-फ़िक्र हो जाना(दफ़्तर-ए-दोम) एक सूफ़ी सैर-ओ-सफ़र करता हुआ किसी ख़ानक़ाह में रात के वक़्त उतर पड़ा। सवारी का ख़च्चर तो उसने अस्तबल में बाँधा और ख़ुद ख़ानक़ाह के अंदर मक़ाम-ए-सद्र में जा
हज़रत शैख़ बुर्हानुद्दीन ग़रीब
नाम-ओ-नसबः- इस्म-ए-गिरामी बुर्हानुद्दीन था और आ’म तौर पर शैख़ बुर्हानुद्दीन ग़रीब कहलाते थे। सिलसिला-ए-नसब ये हैः बुर्हानुद्दीन ग़रीब बिन शैख़ मोहम्मद महमूद बिन नासिर हाँस्वी बिन सुल्तान मुज़फ़्फ़र बिन सुल्तान इब्राहीम इब्न-ए-शैख़ अबू बक्र बिन शैख़
हज़रत अ’लाउद्द्दीन अहमद साबिर कलियरी
ख़ानदानी हालात:- वालिद-ए-माजिद की तरफ़ से आप सय्यद हैं और ग़ौसुल-आ’ज़म मीरान मुहीउद्दीन हज़रत अ’ब्दुल क़ादिर जीलानी की औलाद में से हैं। वालिदा माजिदा की तरफ़ से आपका सिलसिला-ए-नसब अमीरुल-मुमिनीन हज़रत उ’मर बिन ख़त्ताब पर मुंतहा होता है। वालिद-ए-माजिदः–
कलाम-ए-‘हाफ़िज़’ और फ़ाल - मौलाना मोहम्मद मियाँ क़मर देहलवी
‘हाफ़िज़’ का कलाम जिस तरह रिन्दान-ए-क़दह-ख़्वार के लिए सर-मस्ती और ख़ुश-ऐ’शी का ज़रीआ’ है, उसी तरह हमेशा से अह्ल-ए-बातिन भी उस से इस्तिफ़ादा के क़ाइल रहे हैं। अह्ल-ए-सफ़ा की मज्लिसें हाफ़िज़ के ज़मज़मों से गूँजती रही हैं। उन पर हाफ़िज़ के अशआ’र से वज्द-ए-हाल
अल-ग़ज़ाली की ‘कीमिया ए सआदत’ की दूसरी क़िस्त
प्रथम उल्लास –(अपने-आप की पहचान) पहली किरण भगवत्साक्षात्कार के लिए अपने को पहचानने की आवश्यकता याद रखो, अपने-आपको पहचानना ही श्रीभगवान् को पहचानने की कुंजी है। इसी विषय में महापुरुष ने भी कहा है कि जिसने अपने को पहचाना है उसने निःसन्देह अपने प्रभु को
अमीर ख़ुसरो - तहज़ीबी हम-आहंगी की अ’लामत - डॉक्टर अनवारुल हसन
हिन्दुस्तान ज़माना-ए-क़दीम से अपनी रंग-बिरंगी तहज़ीब के लिए एशिया के मुल्कों में इम्तियाज़ी हैसियत का हामिल रहा है।ग़ैर मुल्की अक़्वाम की आमद से यहाँ के तहज़ीबी सरमाया में नए धारे शामिल होते रहे और उनके असरात हमेशा रू-नुमा होते रहे।क़ुदरत से भी इस मुल्क
क़व्वाली और अमीर ख़ुसरो – अहमद हुसैन ख़ान
क्या क़व्वाली, मौसीक़ी, गाना बजाना और साज़-ओ-मज़ामीर से हज़ उठाना इस्लामी रू से मम्नूअ’ है? इस मस्अला के तज्ज़िया और तहक़ीक़ी की ज़रूरत है। इसके साथ साथ इम्तिनाई’ अहकाम-ए-शरअ’ की तदवीन में जिन उसूल को पेश-ए-नज़र रखा गया है उनकी वज़ाहत भी ज़रूरी है। फिर
अल-ग़ज़ाली की ‘कीमिया ए सआदत’ की तीसरी क़िस्त
द्वितीय उल्लास (भगवान् की पहचान) पहली किरण शरीर और संसार की वस्तुओं पर विचार करने से भगवान् की पहचान सन्तों का यह वचन प्रसिद्ध है और उन्होंने यही उपदेश दिया है कि जब तुम अपने-आपको पहचानोगे तभी निःसन्देह भगवान् को भी पहचान सकोगे। प्रभु भी कहते हैं कि
हज़रत शरफ़ुद्दीन अहमद मनेरी रहमतुल्लाह अ’लैह
विलादत-ओ-नसबः- हज़रत मख़दूमुल-मुल्क शरफ़ुद्दीन अहमद बिन यहया की विलादत-ए-बा-सआ’दत 26 शा’बानुल मुअ’ज़्ज़म सन 661 हिज्री में ब-मक़ाम-ए-मनेर शरीफ़ (ज़िला’ पटना) हुई। पैदाइश की तारीख़ ‘शरफ़-आगीन’ है।सिलसिला-ए-नसब ये है।शरफ़ुद्दीन अहमद बिन शैख़ यहया बिन इस्राईल
हज़रत क़ाज़ी हमीदुद्दीन नागौरी
इस्म-ए-गिरामी मोहम्मद था, मगर हमीदुद्दीन के नाम से मशहूर थे। इनके वालिद हज़रत अ’ताउल्लाह महमूद अत्ताजिरी, सुल्तान मुइ’ज़ुद्दीन साम उ’र्फ़ शहाबुद्दीन ग़ैरी के ज़माना में बुख़ारा से देहली तशरीफ़ लाए और यहीं उनका इंतिक़ाल हुआ। वालिद के इंतिक़ाल के बा’द
हज़रत सयय्द अशरफ़ जहाँगीर सिमनानी का पंडोह शरीफ़ से किछौछा शरीफ़ तक का सफ़र-अ’ली अशरफ़ चापदानवी
विलादतः- अशरफ़-उल-मिल्लत-वद्दीन हज़रत सय्यद अशरफ़ की सन 722 हिज्री में सिमनान में विलादत-ए-बा-सआ’त हुई जो बा’द में अशरफ़-उल-मिल्लत-वद्दीन उ’म्दतुल-इस्लाम,ख़ुलासतुल-अनाम ग़ौस-ए-दाएरा-ए-ज़माँ,क़ुतुब-ए-अ’स्र हज़रत सयय्द अशरफ़ जहाँगीर अल- सिमनानी के नाम
हज़रत सूफ़ी मनेरी की तारीख़-गोई का एक शाहकार – रख़्शाँ अब्दाली, इस्लामपुरी
हज़रत सूफ़ी मनेरी (सन 1253 हिज्री ता सन 1318 हिज्री )अपने वक़्त के एक बा-कमाल शाइ’र थे। आपको हज़रत-ए-ग़ालिब से तलम्मुज़ था।आपके समंद-ए-फ़िक्र की जौलान-गाह उर्दू ही की वादी नहीं बल्कि ज़मीन-ए-पारस भी थी और नस्र-ओ-नज़्म दोनों ही हैं। आपने इतनी वक़ीअ’
तल्क़ीन-ए-मुरीदीन-हज़रत शैख़ शहाबुद्दीन सुहरवर्दी
इंतिख़ाब-ओ-तर्जुमा:हज़रत मौलाना नसीम अहमद फ़रीदी अल्लाह तआ’ला फ़रमाता है ‘वला ततरुदिल-लज़ी-न यद्ऊ’-न रब्बहुम बिल-ग़दाति-वल-अ’शीयी युरीदून वज्ह-हु।’ (आप न हटाएं अपने पास से उन लोगों को जो अपने रब को सुब्ह-ओ-शाम पुकारते हैं और उनका हाल ये है कि बस अपने
हज़रत शैख़ सदरुद्दीन आ’रिफ़ रहमतुल्लाह अ’लैह
हज़रत शैख़ सदरुद्दीन रहमतुल्लाह अ’लैह हज़रत शैख़ बहाउद्दीन ज़करिया के फ़रज़ंद-ए-अर्जुमंद थे और वालिद-ए-बुज़ुर्ग़वार ही की सोहबत में अ’क़ली-ओ-रूहानी ता’लीम पाई।इसी ता’लीम की बदौलत अपने ज़माना में सर-हल्क़ा-ए-औलिया समझे जाते थे।इनके वालिद के एक मुरीद अमीर
अल-ग़ज़ाली की ‘कीमिया ए सआदत’ की पाँचवी क़िस्त
चतुर्थ उल्लास (परलोक की पहचान) पहली किरण -परलोक का सामान्य परिचय मनुष्य जब तक मृत्यु को नहीं पहचानेगा, तब तक परलोक को नहीं पहचान सकता है, और जब तक जीवन को न जानेगा, तब तक मृत्यु को नहीं जान सकता। जीवन को पहचान तो जीव के यथार्थ स्वरूप को जानना ही है,
सतगुरू नानक साहिब
सच्चे ख़ुदा का सच्चा वली,तौहीद का समुंदर, हक़्क़ानियत का तूती-ए- हज़ार दास्तान,पाँच दरियाओं के मुल्क में हवास-ए-ख़म्सा को शीरीं गुफ़्तार से दस्त-ए-वहदत देने वाला सतगुरु नानक साहिब” सोने चांदी और हीरे मोती की धूम-धाम में जिसने ग़रीब लोहे को इ’ज़्ज़त
हज़रत शैख़ फ़ख़्रुद्दीन इ’राक़ी रहमतुल्लाह अ’लैह
नाम-ओ-नसबः- पूरा नाम शैख़ फ़ख़्रुद्दीन इब्राहीम है।तारीख़-ए-गुज़ीदा में सिलसिला-ए-नसब ये है।फ़ख़्रुद्दीन इब्राहीम बिन बज़रचमहर बिन अ’ब्दुल ग़फ़्फ़ार अल-जवालक़ी।मगर तज़्किरा-ए-दौलत शाह,मिर्अतुल-ख़याल,सीरतुल-आ’रिफ़ीन,मख़्ज़नुल-ग़राएब और ब्रिटिश म्यूज़ियम
ख़्वाजा गेसू दराज़ बंदा-नवाज़ - प्रोफ़ेसर सय्यद मुबारकुद्दीन रिफ़्अ’त
हज़रत मख़दूम सय्यदना ख़्वाजा अबुल-फ़त्ह सदरुद्दीन सय्यद मोहम्मद हुसैनी गेसू दराज़ बंदा-नवाज़ हिन्दुस्तान में सिल्सिला-ए- आ’लिया चिश्तिया के आख़िरी अ’ज़ीमुल-मर्तबत बुज़ुर्ग हैं।इस मुल्क में अ’ज़ीमुल-मर्तबत चिश्तियों का सिल्सिला हज़रत मख़दूम ख़्वाजा-ए-आ’ज़म
अल-ग़ज़ाली की ‘कीमिया ए सआदत’ की चौथी क़िस्त
तृतीय उल्लास (माया की पहचान) पहली किरण-संसार का स्वरूप, जीव के कार्य और उसका मुख्य प्रयोजन याद रखो, यह संसार भी धर्ममार्ग का एक पड़ाव ही है। जो जिज्ञासु भगवान् की ओर चलते हैं, उनके लिये यह मार्ग में आया हुआ ऐसा स्थान है, जैसे किसी विशाल वन के किनारे
अस्मारुल-असरार - डॉक्टर तनवीर अहमद अ’ल्वी
अस्मारुल-असरार हज़रत ख़्वाजा सदरुद्दीन अबुल- फ़त्ह सय्यिद मोहम्मद हुसैनी गेसू-दराज़ बंदा नवाज़ की तस्नीफ़-ए-मुनीफ़ है और जैसा कि इसके नाम से ज़ाहिर है कि हज़रत के रुहानी अफ़्कार और कश्फ़-ए-असरार से है जिसका बयान आपकी ज़बान-ए-सिद्क़ से रिवायात-ओ-हिकायात
ख़्वाजा बुज़ुर्ग शाए’र के लिबास में - ख़्वाजा मा ’नी अजमेरी
एक ज़माना से ये हिकायत नक़्ल-ओ-रिवायत के ज़ीने तय कर के बाम-ए-शोहरत पर पहुँच चुकी है कि हज़रत ख़्वाजा बुज़ुर्ग रहि• की ज़बान-ए-हक़ से शे’र-ओ-मज़ाक़-ए-सहीह की तक्मील होती है, चुनाँचे बारहवीं सदी के वस्त में सर-ज़मीन-ए-इस्फ़हान पर जब फ़ारसी शो’रा का एक
हज़रत मख़दूम अशरफ़ जहाँगीर सिमनानी के जलीलुल-क़द्र ख़ुलफ़ा - सय्यद मौसूफ़ अशरफ़ अशरफ़ी
हज़रत मख़दूम अशरफ़ जहाँगीर सिमनानी की ज़ात-ए-गिरामी से सिलसिला-ए-आ’लिया क़ादरिया जलालिया अशरफ़िया और सिलसिला-ए-चिश्तिया निज़ामिया अशरफ़िया की तर्वीज-ओ-इशाअ’त हुई और कसीर औलिया-ए-रोज़गार-ओ-फ़ाज़िल उ’लमा-ओ-मशाइख़-ए-किबार दाख़िल-ए-सिलसिला हुए।आपके ख़ुलफ़ा
हज़रत महबूब-ए-इलाही ख़्वाजा निज़ामुद्दीन औलिया देहलवी के मज़ार-ए-मुक़द्दस पर एक दर्द-मंद दिल की अ’र्ज़ी-अ’ल्लामा इक़बाल
“शाइ’री दिखानी मक़्सूद नहीं है। चंद नाला-ए-मौज़ूँ बे-इख़्तियार लब पर आ गए हैं। हज़रत ख़्वाजा हसन निज़ामी ने अज़ राह-ए-करम वा’दा फ़रमाया है कि ये अश्आ’र जनाब महबूब-ए-इलाही के मज़ार-ए-मुक़द्दस पर बुलंद-आवाज़ से पढ़ दिए जाएंगें। अफ़्सुर्दा-दिल––इक़बाल
ख़्वाजा ग़ुलाम हुसैन अहमद अल-मा’रूफ़ मिर्ज़ा सरदार बेग हैदराबादी
आपके जद्द-ए-अमजद अशरफ़-ओ-सादात-ए-बल्ख़ और औलाद-ए- हज़रत ख़्वाजा बहाउद्दीन नक़्शबंदी रहमतुल्लाह अ’लैह थे।जब वारिद-ए-हैदराबाद हुए तो अपने घराने का नाम छुपा के अपने को ब-इस्म मिर्ज़ा-ए-वाहिद बेग मशहूर किए और तालिबुद्दौला के रिसाला-ए-मुग़लिया में मुलाज़िम
ख़्वाजा-ए-ख़्वाजगान हज़रत ख़्वाजा मुई’नुद्दीन चिश्ती अजमेरी - आ’बिद हुसैन निज़ामी
ये 582 हिज्री की बात है।निशापुर के क़रीब क़स्बा हारून में वक़्त के एक मुर्शिद-ए-कामिल ने अपने मुरीद-ए-बा-सफ़ा को ख़िर्क़ा-ए-ख़िलाफ़त से नवाज़ा और चंद नसीहतें इर्शाद फ़रमा कर हुकम दिया कि अब अल्लाह की ज़मीन पर सियाहत के लिए रवाना हो जाओ। मुरीद-ए-बा-सफ़ा
मिस्टिक लिपिस्टिक और मीरा
डर्हम के बिशप को भी विक्टोरिया के समय में कहना पड़ा था कि “मिस्टिक लोगों में ‘मिस्ट’ नहीं है। वह बहुत साफ़ साफ़ देखते हैं और कहते हैं।” पश्चिम में इसका सब से बड़ा प्रमाण विलियम लौ की ‘सीरियस कौल’ नामी पुस्तक है जिसने अठारवीं सदी में भी इंग्लिस्तान में
सय्यद शाह शैख़ अ’ली साँगड़े सुल्तान-ओ-मुश्किल-आसाँ - मोहम्मद अहमद मुहीउद्दीन सई’द सरवरी
है रहमत-ए-ख़ुदा करम-ए-औलिया का नाम ज़िल्ल-ए-ख़ुदा है साया-ए-दामान-ए-औलिया नाम,नसब-ओ-पैदाइश: सय्यद शाह शैख़ अ’ली नाम, साँगड़े सुल्तान-ओ-मुश्किल-आसाँ लक़ब,आठवीं सदी हिज्री के अवाख़िर में सन 770 ता सन 780 ई’स्वी ब-मक़ाम-ए-शहर क़ंधार शरीफ़ ज़िला’ नानदेड़
सूफ़िया-ए-किराम और ख़िदमात-ए-उर्दू - सय्यद मुहीउद्दीन नदवी
आज दुनिया बजा तौर पर उन मुबारक हस्तीयों पा नाज़ कर सकती है जिन्हों ने इ’मादुद्दीन बन कर अपने रुहानी फ़ुयूज़-ओ-बरकात से दीन-ओ-मिल्लत की बेश-बहा ख़िदमात अंजाम दीं और इस्लाम के वो ख़द्द-ओ-ख़ाल जो ज़माना के दस्त-बुर्द के शिकार हो रहे थे, उन्हें हत्तल-इमकान
हज़रत शैख़ अ’लाउ’द्दीन क़ुरैशी-ग्वालियर में नवीं सदी हिज्री के शैख़-ए-तरीक़त और सिल्सिला-ए-चिश्तिया के बानी - सरदार रज़ा मुहम्मद
हिन्दुस्तान की तारीख़ भी कितनी अ’ज़ीब तारीख़ है। यहाँ कैसी कैसी अ’दीमुन्नज़ीर शख़्सियतें पैदा हुईं। इ’ल्म-ओ-इर्फ़ान के कैसे कैसे सोते फूटे। मशाएख़िन-ए-तरीक़त ने यहाँ अल्लाह के नबियों के बरकात को भी महसूस किया। बा’ज़ ने नामों की निशान-देही भी की और एक
अल-ग़ज़ाली की ‘कीमिया ए सआदत’ की पहली क़िस्त
पारसमणि का मूल आधार है ‘कीमिया ए सआदत’ इसके लेखक मियां मुहम्मद ग़ज़ाली साहब ईरान के एक सुप्रसिद्ध सन्त थे। उनका पूरा नाम था हुज्जतुल इस्लाम अबू हमीद मुहम्मद इब्न-मुहम्मद-अल-तूसी, किन्तु सामान्यतया वे इमाम ग़ज़ाली के नाम से सुप्रसिद्ध है। इनका जन्म सन्
मसनवी की कहानियाँ -4
लोगों का अँधेरी रात में हाथी की शनाख़्त पर इख़्तिलाफ़ करना ऐ तह देखने वाले, काफ़िर-ओ-मोमिन-ओ-बुत-परस्त का फ़र्क़ अलग अलग पहलू से नज़र डालने के बाइ’स ही तो है। किसी ग़ैर मुल्क में अहल-ए-हिंद एक हाथी दिखाने लाए और उसे बिलकुल तारीक मकान में बांध दिया।
मसनवी की कहानियाँ -5
एक बादशाह का दो नव ख़रीद ग़ुलामों का इम्तिहान लेना(दफ़्तर-ए-दोम) एक बादशाह ने दो ग़ुलाम सस्ते ख़रीदे। एक से बातचीत कर के उस को अ’क़्लमंद और शीरीं- ज़बान पाया और जो लब ही शकर हो तो सिवा शर्बत के उनसे क्या निकलेगा। आदमी की आदमियत अपनी ज़बान में मख़्फ़ी
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere