हज़रत शैख़ बू-अ’ली शाह क़लंदर
नाम-ओ-नसबः-
नाम शैख़ शर्फ़ुद्दीन और लक़ब बू-अ’ली क़लंदर था।इमाम-ए-आ’ज़म अबू हनीफ़ा की औलाद से थे।सिलसिला-ए-नसब ये है।शैख़ शर्फ़ुद्दीन बू-अ’ली क़लंदर बिन सालार फ़ख़्रुद्दीन बिन सालार हसन बिन सालार अ’ज़ीज़ अबू बक्र ग़ाज़ी बिन फ़ारस बिन अ’ब्दुर्रहीम बिन मोहम्मद बिन वानिक बिन इमाम-ए-आ’ज़म अबू हनीफ़ा।
इनके वालिद सन 600 हिज्री में इ’राक़ से हिंदुस्तान आए।वो बड़े मुतबह्हिर और जय्यद आ’लिम थे।उनकी पहली शादी हज़रत शैख़ बहाउद्दीन ज़करिया मुल्तानी रहमतुल्लाह अ’लैह की दुख़्तर-ए-नेक अख़्तर से हुई, लेकिन वो ला-औलाद फ़ौत हो गईं।उनके बा’द मौलाना सय्यद ने’मतुल्लाह साहब हमदानी किर्मानी की हमशीरा बीबी हाफ़िज़ा जमाल से अ’क़्द हुआ, जो हज़रत शैख़ शर्फ़ुद्दीन बू-अ’ली क़लंदर की माँ थीं।
शैख़ बू-अ’ली क़लंदर सन 605 हिज्री में पानीपत में पैदा हुए।कम-सिनी में तमाम उ’लूम-ए-ज़ाहिरी हासिल किए और बीस बरस तक देहली में क़ुतुबमीनार के पास उनके दर्स-ओ-तदरीस का फ़ैज़ जारी रहा।देहली के अकाबिर उ’लमा मौलाना क़ुतबुद्दीन,मौलाना वजीहुद्दीन पाठली, क़ाज़ी ज़ुहूरुद्दीन बजवारी, क़ाज़ी हमीदुद्दीन सदररुद्दीन शरीअ’त, मौलाना फ़ख़्रुद्दीन पाटली वग़ैरा उनके इ’ल्मी तबह्हुर और फ़ज़ीलत के मो’तरिफ़ थे।
जज़्ब-ओ-सुक्रः-
आपने जब तसव्वुफ़ के कूचा में क़दम रखा और रियाज़त-ओ-मुजाहदा में मश्ग़ूल हुए, तो जज़्ब-ओ-सुक्र की हालत में उ’लूम-ओ-फ़ुनून की तमाम किताबों को दर्मियान डाल कर जंगल की राह ली, और पानीपत के मज़ाफ़ात बाघोनी और करनाल के नवाह बुढ़ा खेड़ा में आख़िर-ए-वक़्त तक मुक़ीम रहे।
‘ख़ज़ीनतुल-अस्फ़िया’ में है कि मआ’रिजुल-विलायत के मुअल्लिफ़ ने शैख़ बू-अ’ली क़लंदर को हज़रत ख़्वाजा क़ुतबुद्दीन बख़्तियार काकी रहमतुल्लाह अ’लैह का ख़लीफ़ा लिखा है लेकिन उनकी इरादत और ख़िलाफ़त हज़रत ख़्वाजा निज़ामुद्दीन औलिया रहमतुल्लाह अ’लैह की तरफ़ भी मंसूब है।‘अख़्बारुल अख़्यार’ में है:-
“बा’ज़े गोयंद कि ब-ख़्वाजा बख़्तियार काकी इरादत दाश्त-ओ-बा’ज़े गोयंद ब-शैख़ निज़ामुद्दीन औलिया-ओ-हेच यके अज़ ईं दो नक़्ल ब-सेहत न-रसीदःअस्त”।
सुक्र और मस्ती की हालत में एक बार मोंछें शरई’ हुदूद से बहुत बढ़ गई थीं।किसी को तराशने की हिम्मत न होती थी।उनके हम अ’स्र बुज़ुर्ग मौलाना ज़ियाउद्दीन को शरीअ’त की पाबंदी का बड़ा जोश था।उन्होंने शैख़ की रीश-ए-मुबारक को पकड़ कर मोछों को शरई’ हद के मुताबिक़ तराश दिया।जब वो तराश कर तशरीफ़ ले गए तो शैख़ बू-अ’ली क़लंदर रहमतुल्लाह अ’लैह अपनी दाढ़ी को पकड़ कर बार-बार फ़रमाते।ये रीश कैसी मुबारक रीश है कि शरअ’-ए-मोहम्मदी की राह पकड़ गई।
ख़्वाजा शम्सुद्दीन तुर्कः-
शैख बू-अ’ली क़लंदर के क़ियाम-ए-पानीपत के ज़माना में शम्सुल-औलिया हज़रत ख़्वाजा अ’लाउद्दीन साबिर रहमतुल्लाह अ’लैह के हुक्म से यहाँ आ कर क़ियाम-पज़ीर हुए।
हज़रत ख़्वाजा शम्सुद्दीन तुर्किस्तान के सादात में और हज़रत ख़्वाजा अहमद यसवी के फ़रज़ंद थे, जिनका सिलसिला-ए-नसब हज़रत अ’ली मुर्तज़ा कर्रमल्लाहु वज्हहु से मिलता है।ख़्वाजा शम्सुद्दीन उ’लूम-ए-नक़ली-ओ-अ’क़ली की ता’लीम पाने के बा’द इ’ल्म-ए-सुलूक की तरफ़ माइल हुए।और मावराउन्नहर के बहुत से बुज़ुर्गों की सोहबत में रहे।मगर जब कहीं तिश्नगी न बुझी, तो मुर्शिद-ए-कामिल की तलब में हिंदुस्तान की तरफ़ चल खड़े हुए। मुल्तान पहुँच कर बाबा फ़रीद शकर की ख़िदमत में हाज़िर हुए और तर्बियत पाने के बा’द वहाँ से बाबा साहिब की हिदायत के मुताबिक़ कलियर शरीफ़ पहुँचे,जहाँ हज़रत शैख़ अ’लाउद्दीन साबिर ने उनको देख कर फ़रमाया कि-
“शम्मसुद्दीन तु मरा फ़रज़ंदी, अज़ हक़ सुब्हानहु तआ’ला ख़्वासतः-अम कि ईं सिलसिलः-ए-मा अज़ तू जारी बाशद-ओ-ता क़ियामत बरपा मानद”।
और अपनी चहार तुर्की कुलाह उनके सर पर रख दी।वो गयारह साल तक पीर-ओ-दस्तगीर की ख़िदमत में रहे।मुर्शिद को अपने हाथों से नहलाते।वुज़ू कराते।उनके लिए जंगलों से लकड़ियाँ ला कर खाना पकाते और ख़ुद फ़क़्र-ओ-फ़ाक़ा से मुजाहदा-ओ-रियाज़त में मशग़ूल रहते।मुर्शिद से उ’लूम-ए-सीना की तहसील के बा’द पानीपत में क़ियाम करने का हुक्म मिला।लेकिन रूहानी तौर से उस मक़ाम का बार उठाने की आपने सलाहियत नहीं पाई।इसलिए मुर्शिद की इजाज़त से मज़दूरी की तरफ़ मुतवज्जिह हो गए।उस वक़्त सुल्तान ग़यासुद्दीन बलबन का दौर-ए-हुकूमत था।देहली आ कर उनकी फ़ौज में सवारों के ज़ुमरा में शामिल हो गए।कुछ दिनों में उनके पास काफ़ी दौलत हो गई।लेकिन इमारत की किसी चीज़ से उनको कोई तअ’ल्लुक़ न था।शब-ओ-रोज़ ज़िक्र-ए-इलाही में मशग़ूल रहते।
‘सियरुल-अक़्ताब’ के मुअल्लिफ़ का बयान हैः-
“एक मर्तबा सुल्तान ग़यासुद्दीन बलबन ने एक क़िला’ का मुहासरा किया।एक ज़माना उसी हालत में गुज़र गया, और क़िला’ फ़त्ह न हो सका।इसी दौरान में एक रात ऐसी सख़्त आँधी आई, और बारिश हुई कि सिपाहियों और उमरा-ए-इस्लाम के ख़ैमे गिर पड़े।बारिश तेज़ी से जारी रही। सख़्त सर्दी पड़ने लगी, और किसी जगह आग बाक़ी नहीं रही।शाही सक़्क़ा बादशाह के वुज़ू का पानी गर्म करने के लिए आग की तलाश में निकला।उसने दफ़्अ’तन दूर से देखा कि एक ख़ेमा में चराग़ जल रहा है वो ख़ेमा हज़रत (या’नी ख़्वाजा श्मसुद्दीन तुर्क) का था।सक़्क़ा दौड़ा हुआ ख़ेमा के पास गया।देखा कि एक फ़क़ीर कलाम-ए-मजीद की तिलावत कर रहा है।हज़रत के ख़ौफ़ से वो आग माँग न सका।हज़रत ने सर उठाया, और फ़रमाया ऐ भाई आओ और जितनी आग चाहते हो ले जाओ।वो सामने आया और एक लकड़ी आग से जलाई,और लोटा लेकर लौट गया। इस वाक़िआ’ से सक़्क़ा को बे-क़रारी थी।सुब्ह के वक़्त उस ख़ेमा की तरफ़ चला। और जब उसके पास पहुँचा तो हज़रत को उस में न पाकर हैरान हुआ।और वहाँ से वापस आ कर एक तालाब पर जो लश्कर-गाह के पास था गया।देखा कि एक नेक बुज़ुर्ग वुज़ू कर रहे हैं।ग़ौर किया तो वही पाक सूरत नज़र आई, जिनके चराग़ से रात को आग जलाया था।ये देख कर एक गोशा में खड़ा रहा, यहाँ तक कि वो बुज़ुर्ग वुज़ू के बा’द नमाज़ अदा कर के अपने ख़ेमा की तरफ़ चले गए।सक़्क़ा ने उसी जगह से मश्क में पानी भरा, और बावजूद ये कि जाड़े का ज़माना था, और हर जगह पानी जम गया था, लेकिन जिस जगह हज़रत ने वुज़ू किया था, वहाँ का पानी इस क़दर गर्म था, गोया किसी ने उसको अभी गर्म किया है।उसको लेकर अपने कारख़ाना में गया, और अपनी अ’क़्ल से मा’लूम किया कि ये सब कुछ उसी मर्द-ए-ख़ुदा की अ’ज़्मत-ओ-बरकत के सबब से हुआ है।लेकिन इस राज़ को किसी से ज़ाहिर नहीं किया।दूसरे दिन हज़रत के पहुँचने से पहले जब दो चार घड़ी रह गई थी, तालाब पर पहुँचा और पानी को देखा कि जमा हुआ है।क़रीब ही एक दरख़्त था।उसके पीछे छुप कर बैठ गया, यहाँ तक कि हज़रत तशरीफ़ लाए।उनके पहुँचने के साथ ही तालाब के पानी ने जोश मारा।हज़रत ने वुज़ू किया, और नमाज़ अदा कर के अपने ख़ेमा की तरफ़ रवाना हो गए।सक़्क़ा ने गर्म पानी को मश्क में भरा, और सुल्तान ग़यासुद्दीन बलबन की ख़िदमत में हाज़िर हुआ।और उस वक़्त जब सुल्तान दरबार-ए-आ’म में बैठा था सक़्क़ा ने फ़रियाद की।सुल्तान ने उसको बुला कर इस्तिफ़सार किया।उसने अ’र्ज़ किया, अगर जहाँ-पनाह मेरे राज़ को ख़ल्वत में सुनें तो गुज़ारिश करूँ।सुल्तान ने इसका मौक़ा’ दिया।सक़्क़ा ने हज़रत का तमाम हाल बयान किया।सल्तान सुन कर मुतहय्यिर हुआ, और अपनी ख़्वाब-गाह में उसके ठहरने का हुक्म दिया।जब रात हुई, तो सुल्तान ख़ेमा के अंदर चला गया, और दरवाज़ा की कुंजी सक़्क़ा के हवाला कर दी।जब तीन चार घड़ी रात बाक़ी रह गई, तो सक़्क़ा ने दरवाज़ा खोल कर सुल्तान को जगा दिया। सुल्तान मुसल्लह हो कर बाहर निकला और सक़्क़ा के साथ पा-पयादा तालाब पर पहुँचा।पानी को देखा तो बिलकुल सर्द था।वो छुप कर वहीं बैठ गया, यहाँ तक कि हज़रत तशरीफ़ लाए।उनके पहुँचते ही हसब-ए-मा’मूल पानी में जोश आ गया जिसको सुल्तान ने ख़ुद देखा।हज़रत ने वुज़ू कर के नमाज़ अदा की और अपने ख़ेमा की तरफ़ तशरीफ़ ले गए।सुल्तान ने पानी को देखा तो गर्म था।वो मुतहय्यिर हुआ, और हज़रत के पीछे पीछे चला।हज़रत ख़ेमा में पहुँच कर क़ुरआन-ए-मजीद की तिलावत में मशग़ूल हो गए।सुल्तान दस्त-बस्ता वहीं खड़ा रहा।जब वो तिलावत से फ़ारिग़ हो चुके तो बादशाह को देख कर ता’ज़ीम के लिए खड़े हुए और सलाम किया। सुल्तान ने इज़हार-ए-अदब कर के अ’र्ज़ की कि ये मेरी ख़ुश-क़िस्मती है कि आप जैसे दोस्त मेरे अ’हद में मौजूद हैं, लेकिन इसके बावजूद हज़ार अफ़्सोस है कि अभी तक ये क़िला’ फ़त्ह नहीं हो सका।हज़रत ने हर चंद अपने को छुपाने की कोशिश की लेकिन बे-सूद था।मजबूरन दु’आ के लिए हाथ उठाए, और फ़ातिहा पढ़ कर फ़रमाया कि इसी वक़्त हमला किया जाए, इंशा-अल्लाह फ़त्ह होगी। सुल्तान ख़ुश-ख़ुश रुख़्सत हुआ, और लशकर में पहुँच कर उसी वक़्त हमला किया।क़िला’ फ़त्ह हो गया।सुल्तान जब मुसर्रत से मा’मूर अपने फ़त्ह-मंद लशकर में पहुँचा तो दूसरे दिन बरहना-पा हज़रत की ख़िदमत में हाज़िर होने का इरादा किया, और हज़रत ने अपने नूर-ए-बातिन से उसका इरादा मा’लूम कर लिया।
अपना तमाम अस्बाब-ओ-माल-ओ-मताअ’ फ़ुक़रा को दे दिया और कम्मल ओढ़ कर लश्कर से चल खड़े हुए।और अपने पीर-ए-दस्त-गीर की ख़िदमत में पहुँचे।कुछ दिनों वहाँ रह चुके तो पानीपत में मामूर किए गए।
बलबन पर बुज़ुर्गान-ए-दीन के असरातः-
गो हम अपने मौज़ूअ’ से कुछ अलग ज़रूर हो रहे हे हैं लेकिन ये इसलिए कि नाज़िरीन को अंदाज़ा हो जाए कि सुल्तान बलबन को औलिया-अल्लाह से कैसी अ’क़ीदत थी।पहले ज़िक्र आ चुका है कि उसकी एक लड़की हज़रत बाबा फ़रीद गंज शकर के हिबाला-ए-अ’क़्द में थी।एक मौक़ा’ पर बाबा साहिब ने उसके लिए दु’आ भी की। बादशाहत के ज़माने में वो उ’लमा-ओ-मशाइख़ की सोहबत से बराबर मुस्तफ़ीज़ होता रहा।तारीख़ों में उसकी दीन-दारी, ख़ुदा-तरसी और इ’बात-गुज़ारी की बड़ी ता’रीफ़ की गई है।मौलाना ज़ियाउद्दीन बर्नी उसके मुतअ’ल्लिक़ रक़म-तराज़ हैं-
वो (या’नी सुल्तान बलबन) इ’बादत, रियाज़त, रोज़े, नफ़ल, और शब-बेदारी में ग़ैर मा’मूली एहतिमाम करता। जुमआ’ की नमाज़, नमाज़-ए-बा-जमाअ’त, इश्राक़-ओ-चाश्त, अव्वाबीन और तहज्जुद की भी पाबंदी करता।ख़्वाह कोई मौसम हो, रात को जागता।सफ़र-ओ-हज़र में भी और वज़ाएफ़ को न छोड़ता।कभी बे-वुज़ू न रहता। उ’लमा के ब-ग़ैर खाना न खाता।खाने के वक़्त उ’लमा से दीनी मसाइल पूछता, और उस वक़्त बह्स-ओ-मुबाहसा भी होता।हर क़िस्म के उ’लमा-ओ-मशाइख़ की बे-हद ता’ज़ीम करता।बुज़ुर्गान-ए-दीन की मुलाक़ात के लिए उनके घरों पर जाता।जुमआ’ की नमाज़ के बा’द सवारी की हश्मत-ओ-शौक़त के साथ मौलाना बुर्हानुद्दीन ख़िल्जी के घर पर उतरता और उस आ’लिम-ए-रब्बानी से बहुत ही ता’ज़ीम-ओ-तौक़ीर से पेश आता।क़ाज़ी शर्फ़ुद्दीन, मौलाना सिराजुद्दीन संजरी, मौलाना नज्मुद्दीन दमिश्क़ी की भी जो उस ज़माना के मुम्ताज़ उ’लमा थे, बड़ी इ’ज़्ज़त करता।जुमआ’ की नमाज़ के बा’द बुज़ुर्गान-ए-दीन के मज़ारों की ज़ियारत को भी जाता।शहर के सादात, मशाइख़-ओ-उ’लमा में से किसी का इंतिक़ाल हो जाता, तो उनके जनाज़ा में शरीक होता।फिर उनक्व घर वाले की ख़िदमत में हाज़िर हो कर उनके लड़कों और भाइयों को ख़िलअ’त देता।जागीर और वज़ीफ़ा मुक़र्र करता।अगर अपने दब्दबा-ए-वहशत के साथ कहीं से गुज़रता होता और उसको मा’लूम हो जाता कि पास ही मस्जिद में वा’ज़ हो रहा है, उतर जाता, और आ’म लोगों के साथ बैठ कर वा’ज़ सुनता।वा’ज़ सुनते वक़्त उस पर रिक़्क़त और गिर्या भी तारी होता।वो अपने लश्कर के क़ाज़ियों की भी बड़ी इ’ज़्ज़त करता जो अपने तक़्वा और दीनदारी के लिए मुम्ताज़ होते।और वो सुल्तान से जिस बात की शिफ़ारिश करते उसको वो ज़रूर क़ुबूल करता”।
हज़रत शम्सुद्दीन तुर्क और हज़रत बू-अ’ली क़लंदर
जब हज़रत शम्सुद्दीन तुर्क रहमतुल्लाह अ’लैह का नुज़ूल-ए-इजलाल पानीपत में हुआ, तो वो दूध से भरा हुआ एक प्याला अपने ख़ादिम के हाथ शैख़ बू-अ’ली क़लंदर की ख़िदमत में भेजा।शैख़ बू-अ’ली क़लंदर ख़ादिम को देख कर मुस्कुराए।गुलाब के चंद फूल उनके सामने पड़े थे।उनकी पंखुड़ियाँ दूध में डाल कर उसे हज़रत शम्सुद्दीन तुर्क रहमतुल्लाह अ’लैह के पास वापस कर दिया।वो प्याले में गुलाब की पत्तियाँ देख कर मुतबस्सिम हुए।हाज़िरीन-ए-मज्लिस ने तबस्सुम की वजह पूछी।फ़रमाया शैख़ बू-अ’ली क़लंदर रहमतुल्लाह अ’लैह के पास दूध से भरा हुआ प्याला भेजने से मुराद ये थी कि ये मुल्क मेरे शैख़ ने मुझको अ’ता किया है, जो मुझ से पुर हो गया है।शैख़ बू-अ’ली क़लंदर रहमतुल्लाह अ’लैह ने गुलाब की पंखुड़ियाँ डाल कर दूध का प्याला जो वापस कर दिया, तो उससे मुराद ये है कि वो मेरे मुल्क से कोई तअ’ल्लुक़ नहीं रखेंगें और यहाँ इसी तरह रहेंगे जिस तरह दूध में गुलाब की पंखुड़ियाँ हैं।शैख़ बू-अ’ली क़लंदर रहमतुल्लाह अ’लैह से पूछा गया तो उन्होंने भी यही फ़रमाया। चुनाँचे दोनों में आख़िर-ए-वक़्त तक इख़्लास-ओ-मोहब्बत क़ायम रही।
लेकिन इस ज़ुहद-ओ-इ’बादत और सलामत-रवी के बावजूद वो एक मुसलमान हुक्मराँ के फ़राएज़ से ग़ाफ़िल नहीं रहना चाहता था। चुनाँचे अपने लड़कों और ख़ास लोगों से सय्यद नूरुद्दीन के उस वा’ज़ का ज़िक्र बार-बार करता जो उन्होंने सुल्तान शम्सुद्दीन अल्तमिश के सामने कहा था।ये वा’ज़ तवील है, लेकिन उसका एक हिस्सा ये है कि अगर एक बादशाह रोज़ाना हज़ार रकअ’तें नमाज़ पढ़ता रहे, तमाम उ’म्र रोज़े रखता रहे, गुनाहों से बचता रहे, ख़ज़ाने को राह-ए-हक़ में ख़र्च करता रहे, लेकिन वो दीन की हिमायत न करता हो और अपनी सतवत को ख़ुदा और रसूल के दुश्मनों के क़ला’-क़मा’ करने में सर्फ़ न करता हो, शरीअ’त के अहकाम को जारी न करता हो, अपने मुल्क में अम्र-बिल-मा’रूफ़ को जारी कराने और नह्या-अनिल-मुन्कर को मिटाने में कोशाँ न रहता हो,और अद्ल-ओ-इंसाफ़ से काम न लेता हो तो उसकी जगह दोज़ख़ के सिवा और कोई न होगी।मौलाना ज़ियाउद्दीन बर्नी का बयान है कि बलबन जब वा’ज़ के इस हिस्से को बयान करता तो ज़ार-ज़ार रोने लगता।
शैख़ बू-अ’ली क़लंदरः-
कबीरुल-औलिया हज़रत शैख़ जलालुद्दीन महमूद पानीपती, शैख़ बू-अ’ली क़लंदर ही के फ़ैज़-ए-नज़र से राह-ए-तरीक़त पर गामज़न हुए। एक दिन शैख़ बू-अ’ली क़लंदर रहमतुल्लाह अ’लैह सर-ए-राह बैठे हुए थे कि कम-सिनी के ज़माना में शैख़ जलालुद्दीन घोड़े पर सवार उधर से गुज़रे।उनको देख कर शैख़ बू-अ’ली क़लंदर ने फ़रमाया:
ज़हे अस्प-ओ-ज़हे सवार
कानों में ये आवाज़ पड़ते ही शैख़ जलालुद्दीन बे-ख़ुद हो गए।घोड़े से उतर पड़े, और उसी वक़्त गरीबान चाक कर के जंगल की राह ली। और चालीस साल तक जंगल में फिरते रहे।और इस दर्मियान में मुख़्तलिफ़ दरवेशों और फ़क़ीरों की सोहबत इख़्तियार की।फ़िर जब वतन वापस आए तो शैख़ बू-अ’ली क़लंदर से बैअ’त के लिए मुसिर हुए।शैख़ ने फ़रमाया:-
“ऐ फ़रज़न्द-ए-अ’ज़ीज़ कुशाइश-ए-तू मौक़ूफ़ बर मर्द-ए-दीगर अस्त”।
चुनाँचे जब हज़रत शम्सुद्दीन तुर्क रहमतुल्लाह अ’लैह पानीपती का वुरूद-ए-मस्ऊ’द पानीपत में हुआ, तो शैख़ बू-अ’ली क़लंदर ने शैख़ जलालुद्दीन रहमतुल्लाह अ’लैह को उनके पास इरादत के लिए भेजा, जो आगे चल कर उनके ख़लीफ़ा हुए।
सुल्तान जलालुद्दीन ख़िल्जी की अ’क़ीदतः-
सुल्तान जलालुद्दीन ख़िल्जी को हज़रत ख़्वाजा बू-अ’ली क़लंदर रहमतुल्लाह अ’लैह से बड़ी अ’क़ीदत थी।वो उनके हल्क़ा-ए-इरादत में भी शामिल हो गया था,और बुज़ुर्गान-ए-दीन ही की सोहबत का शायद ये असर था कि उसमें हिल्म,नर्मी और ख़ुदा-तरसी के औसाफ़ ब-दर्जा-ए-अतम मौजूद थे।मौलाना ज़ियाउद्दीन बर्नी लिखते हैं –
“ईं चुनीन बादशाह-ए-हलीम-ओ-करीम-ओ-ईं चुनीं फ़रमा-रवायान-ओ-कार-गुज़ारान-ए-मेहरबान-ओ-ख़ुदा-तर्स बर बंदगान-ए-ख़ुदा न-तवानद दीद”।
हज़रत सीदी मौलाः-
मगर इन ख़ूबियों के बावजूद हज़रत सीदी मौला का ख़ून उसके सर पर है गो इस वाक़िआ’ की तफ़्सील हमारे मौज़ूअ’ से मुतअ’ल्लिक़ नहीं, लेकिन नाज़िरीन को इससे दिल-चस्पी होगी। इसलिए इसको मुज्मलन मौलाना ज़ियाउद्दीन बर्नी की ज़बानी हम बयान करते हैं –
“सीदी मौला एक दरवेश थे, जो सुल्तान बलबन के अ’हद में विलायत-ए-मुल्क-ए-बाला से शहर (या’नी देहली) में आए।वो अ’जीब तरीक़े रखते थे।ख़र्च करने और खाना खिलाने में बे-नज़ीर थे लेकिन जामे’ मस्जिद में जुमआ’ पढ़ने नहीं आते थे।गो वो नमाज़ के पाबंद थे, मगर जमाअ’त के साथ नमाज़ अदा नहीं करते थे, जिसकी पाबंदी तमाम बुज़ुर्गान-ए-दीन ने की है।वो मुजाहदा-ओ-रियाज़त बहुत करते थे।जामा और चादर पहनते, और चावल की रोटी मा’मूली सालन से खाते थे।उनके पास कोई औ’रत, कनीज़ और ख़िदमत-गार न था, और न वो किसी नफ़्सानी ख़्वाहिश में मुब्तला थे।कोई कुछ देता तो उसको क़ुबूल न करते, लेकिन उनके अख़्राजात इतने थे, कि लोगों को हैरत होती थी और उनका ख़याल था कि वो इ’ल्म-ए-कीमिया जानते थे।अपने दरवाज़ा के सामने मैदान में उन्होंने एक ख़ानक़ाह बनवाई थी।उसकी ता’मीर में हज़ारों रुपये ख़र्च किए थे।उस ख़ानक़ाह में बड़ी मिक़दार में खाना पकता था।बर्री-ओ-बहरी सफ़र करने वाले मुसाफ़िर यहाँ आ कर मुक़ीम होते थे,और उनको दो वक़्त खाना मिलता था।और खाना ऐसा होता था कि उस ज़माना के ख़्वानीन-ओ-मुलूक को मयस्सर न था।ख़ानक़ाह में हज़ारों मन मैदा ख़र्च होता था।पाँच सौ मन जानवर ज़ब्ह किए जाते थे।दो तीन सौ मन शकर और सौ दो-सौ मन नबात ख़रीदी जाती थी।ख़ानक़ाह के सामने आदमियों का एक हुजूम रहता था।उनके पास (या’नी हज़रत सीदी मौला) न कोई गाँव था और न उनको शाही वज़ीफ़ा मिलता था।और न वो किसी से फ़ुतूह क़ुबूल करते थे।जब किसी से कोई चीज़ ख़रीदते,या किसी को कुछ रक़म देना चाहते तो कहते,कि जाओ,फुलाँ पत्थर या ईंट के नीचे जाकर इतने नुक़रई टंके ले आओ। वो जाता, वाक़ई’ ईंट के नीचे या ताक़ में तलाई और नुक़रई सिक्के मिल जाते।ये सिक्के ऐसे होते जैसे दारुज़्ज़र्ब से बिल्कुल नए निकले हों”।
आगे चल कर मौलाना ज़ियाउद्दीन बर्नी लिखते हैं –
“हज़रत सीदी मौला की ख़ानक़ाह के अख़्राजात सुल्तान जलालुद्दीन ख़िल्जी के अ’हद में और भी ज़्यादा बढ़ गए थे।सुल्तान जलालुद्दीन का बड़ा लड़का ख़ानख़ाना उनका मो’तक़िद हो गया था,और अपने को हज़रत सीदी मौला का बेटा कहता था।उमरा और हुक्काम की आमद-ओ-रफ़्त उनके पास बढ़ गई थी।क़ाज़ी जलाल काशानी ने जो उस ज़माना का क़ाज़िउल-क़ुज़ात था, लेकिन फ़ित्ना-अंगेज़ था, सीदी से तअ’ल्लुक़ात पैदा किए और दो-दो तीन-तीन रातें ख़ानक़ाह में बिस्तर करता, और वहाँ के लोगों से गुफ़तुगू करता। बलबन के अ’हद के मौलाज़ादे जो उमरा और मुलूक की औलाद से थे, इस गुफ़तुगू में शरीक रहते।ये सब अ’हद-ए-जलाली में बिलकुल बे-सर-ओ-सामान, बे-इक़्ता’ और बे-हशम हो गए थे।लाखों चेतल वज़ीफ़ा पाने वाले बे-वज़ीफ़ा हो गए थे,और बा’ज़ दूसरे अकाबिर जो ओ’हदों से मा’ज़ूल कर दिए गए थे,सय्यदी की ख़ानक़ाह में आ कर रात को सोते और उनसे कुछ चीज़ें पाते।लोग समझते कि उनकी अमद-ओ-रफ़्त महज़ हुसूल-ए-बरकत के लिए होती है।क़ाज़ी जलाल काशानी, ख़ान-ज़ादे, मलिक-ज़ादे, और हथयार पायक के कोतवाल ने इरादा किया कि जुमआ’ के रोज़ जब नमाज़ के लिए सुल्तान जलालुद्दीन की सवारी निकलते तो उस वक़्त हमला कर दिया जाए, और सीदी को ख़लीफ़ा बना कर उनका निकाह सुल्तान नासिरुद्दीन की लड़की से कर दिया जाए, और क़ाज़ी जलाल को क़ाज़ी ख़ान का ओ’हदा और मुल्तान का इक़्ता’-दार मुक़र्र किया जाए।इसी तरह और इक़्ता’आ’त मलिक-ज़ादों और ख़ान-ज़ादों में तक़्सीम कर दिया जाए।उन बेकार लोगों में से एक शख़्स ने जो मश्वरे में शरीक था, उनसे मुंहरिफ़ हो कर ये तमाम ख़बरें सुल्तान जलालुद्दीन तक पहुँचा दी।सय्यदी और उनके साथी मुत्तहम कर सुल्तान के सामने लाए गए।सुल्तान ने तफ़्तीश करनी चाही तो सब ने इंकार कर दिया।उस ज़माना में ये रिवाज न था, कि इंकार करने वालों से लात और डंडे के ज़रिया’ इक़रार करा दिया जाता।चुनाँचे दब के लिए हुकम जारी किया गया। सुल्तान और दूसरे लोगों को साज़िश का पूरा यक़ीन था, लेकिन साज़िश करने वाले मुंकिर थे।दूसरा कोई सुबूत न था, और उन पर कोई हुक्म नाफ़िज़ न किया जा सकता था।इसलिए बहारपुरु के मैदान में आग रौशन की गई।सुल्तान मुलूक और ख़्वानीन के साथ वहाँ पहुँचा।एक कोशक-ए-ख़ास नसब किया गया।सुल्तान ने शहर के तमाम अकाबिर उ’लमा और मशाइख़ का महज़र तलब किया।उस मैदान में शहर के ख़्वास-ओ-अ’वाम जम्अ’ हुए।सुल्तान ने हुक्म दिया कि साज़िश करने वालों को आग में डाल दिया जाए, ताकि झूट और सच रौशन हो जाए।लेकिन इस बारे में जब उ’लमा से इस्तिफ़ता किया गया,तो मुतदय्यिन उ’लमा ने कहा कि दब ना-मश्रूअ’ है और आग के ज़रिया’ से झूट और सच की तमीज़ नहीं की जा सकती है।साज़िश की ख़बर सिर्फ़ एक शख़स ने दी है, और ऐसे जुर्म में सिर्फ़ एक शख़्स की शहादत क़ाबिल-ए-समाअ’त नहीं।इसलिए सुल्तान ने दब का इरादा तर्क कर दिया और क़ाज़ी जलाल को जो फ़ित्ना का सर्ग़ना था, बदायूँ का क़ाज़ी बना कर वहाँ भेज दिया।ख़ान-ज़ादों और मलिक-ज़ादों को जिला-वतन कर दिया और उनकी अम्लाक ज़ब्त कर ली।बरंजतन और हथयापायक के कोतवाल को सज़ा दी।उसके बा’द सय्यदी मौला को बाँध कर सुल्तान के कोशक के पास लाया गया।सुल्तान ने उनसे ख़ुद मुबाहसा किया।उस मज्मा’ में शैख़ अबू बक्र तूसी हैदरी भी अपनी हैदरी जमाअ’त के साथ मौजूद थे।सुल्तान ने उनसे ख़िताब कर के कहा, ऐ दरवेशान इंसाफ़-ए-मन अज़ ईं मौला ब-सितानीद। बहरी नामी एक हैदरी ने बढ़ कर सीदी को उस्तुरे से ज़ख़्मी कर दिया। अर्कली ख़ान ने कोशक के उपर से फ़ीलबानू को इशारा किया।एक हाथी सय्यदी की तरफ़ दौड़ा,और उनको पाँव तले मसल डाला”।
उसके बा’द मौलाना ज़ियाउद्दीन बर्नी अपने तअस्सुरात का ज़िक्र करते हुए रक़म-तराज़ हैं-
“ऐसा हलीम-ओ-बुर्दबार बादशाह इस मुआ’मला में मश्वरों को सुनने की ताक़त न पैदा कर सका और ऐसा हुक्म सादिर कर दिया, जिससे दरवेशी की इ’ज़्ज़त जाती रही।मुझ को याद है कि जिस रोज़ सीदी मौला का क़त्ल हुआ, एक सियाह तूफ़ान आया, और तारीकी छा गई।सीदी मौला के क़त्ल के बा’द मुल्क में तरह तरह के फ़ुतूर पैदा हो गए। बुज़ुर्गों ने कहा है कि किसी दरवेश को क़त्ल करना नहस है और किसी बादशाह को रास नहीं आता।सीदी मौला के क़त्ल के बा’द उस साल बारिश नहीं हुई।देहली में क़हत पड़ गया और ग़ल्ला एक चीतल में एक सेर मिलने लगा।सवालक के इ’लाक़ा में एक क़तरा भी बारिश नहीं हुई।उस सर-ज़मीन के हिन्दू औ’रतों और बच्चों के साथ देहली चले आए।बीस बीस आदमी एक जगह रहते और भूक से बे-ताब हो कर अपने को जमुना में ग़र्क़ कर देते थे।अदना लोग सुल्तान और उमरा के सदक़ात पर ज़िंदगी बसर करते थे”।
‘अख़्बारुल-अख़्यार’ के मुसन्निफ़ का बयान हैः-
“जिस रोज़ सीदी मौला का क़त्ल हुआ बे-अंदाजा बाद-ओ-ग़ुबार फ़ज़ा में उठा।दुनिया तारीक हो गई।ऐसा मा’लूम होता था कि क़ियामत आ गई है।सुल्तान जलालुद्दीन ने ये हाल देखा तो सीदी मौला से उसको ए’तिक़ाद पैदा हो गया, जो पहले न था”।
शैख़ बू-अ’ली क़लंदर से अ’लाउद्दीन ख़िल्जी की अ’क़ीदतः-
अ’लाउद्दीन ख़िल्जी हज़रत शैख़ बू-अ’ली क़लंदर रहमतुल्लाह अ’लैह के हल्क़ा-ए-इरादत में था।‘ख़ज़ीनतुल-अस्फ़िया’ में हैः-
“जलालुद्दीन-ओ-अ’लाउद्दीन बादशाह-ए-देहली हम हल्क़ा-ए-इरादत-ए- आँ हज़रत ब-गर्दन-ए-ख़ुद दाश्तंद”। (जिल्द एक सफ़हा 327)
एक बार सुल्तान अ’लाउद्दीन ख़िल्जी ने हज़रत बू-अ’ली क़लंदर के पास कुछ नज़्र भेजनी चाही लेकिन ये मा’लूम था कि वो कोई नज़्र क़ुबूल नहीं करतें हैं।उमरा ने राय दी कि अगर तोहफ़ा हज़रत ख़्वाजा निज़ामुद्दीन औलिया की विसातत से भेजा जाए तो वो ज़रूर क़ुबूल कर लेंगे।सुल्तान अ’लाउद्दीन ने अमीर ख़ुसरो को हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया के पास अपनी ख़्वाहिश के लिहाज़ करने के लिए भेजा।हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया ने पहले तो तअम्मुल फ़रमाया।फिर अपने महबूब मुरीद को नज़्र ले जाने की इजाज़त दे दी।लेकिन ये भी नसीहत फ़रमाई कि जो कुछ क़लंदर, आ’शिक़-ए- अल्लाह कहें उसको तस्लीम करना।मो’तरिज़ न होना।अमीर ख़ुसरो देहली से पानीपत तीन रोज़ में पहुँचे।और जब वो हज़रत बू-अ’ली क़लंदर की क़ियाम-गाह पर आए तो ख़ुद्दाम से कहला भेजा कि हज़रत ख़्वाजा निज़ामुद्दीन औलिया का भेजा हुआ ख़ुसरो ख़िदमत में हाज़िर हुआ है।हज़रत बू-अ’ली क़लंदर ने उनको अपने पास बुलाया। और जब वो जा कर बैठे तो फ़रमाया कुछ सुनाओ।अमीर ख़ुसरो ने अपनी एक ग़ज़ल शुरुअ’ की जो हसब-ए-ज़ैल हैः-
ऐ कि गोई हेच सख़्ती चूँ फ़िराक़-ए-यार नीस्त
गर उम्मद-ए-वस्ल बाशद आँ चुनाँ दुश्वार नीस्त
आशिक़ाँ रा दर जहाँ यकसाँ न-बाशद रोज़गार
ज़ाँ कि ईं अंगुश्त-हा बर-दस्त-ए-मन हमवार नीस्त
ख़ल्क़ रा बे-दार बायद बूद ज़ाब-ए-चश्म-ए-मन
ईं अ’जब काँ वक़्त मी-गिर्यम कि कस बेदार नीस्त
यक क़दम बर नक़्श-ए-ख़ुद नेह वाँ दिगर दर कू-ए-दोस्त
हर चे बीनी दोस्त बीं बा ईन-ओ-आनत कार नीस्त
चंद मी-गोई ब-रोज़-ए-नारबंद ऐ बुत परस्त
बर तन-ए-ख़ुसरो कुदामी रग कि आँ ज़ुन्नार नीस्त
ग़ज़ल सुनकर हज़रत बू-अ’ली ख़ुश हुए और अमीर ख़ुसरो को मुख़ातिब कर के फ़रमाया कि ख़ुसरो ख़ुश रहोगे और ख़ुश जाओगे। फिर ख़ुद ही ये ग़ज़ल पढ़ी:
दिहेम-ए-ख़ुसरवाँ बर ना’ल-ए-उश्तरस्त
ख़ुसरो कसे कि हल्क़ा-ए-तजरीद बर सरस्त
गुफ़्तम ब-इ’ल्म-ओ-अ’क़्ल ब-मिल्क-ए-दिगर शुदम
मुल्कम ज़े-अ’क़्ल-ओ-दीं चू दीदम फ़ुज़ूँ-तरस्त
सीमुर्ग़-वार रुए न-हुफ़्तम ब-क़ाफ़-ए-इ’श्क़
कू आ’रिफ़े कि मंज़र-ए-ऊ अ’र्श-ए-अकबरस्त
अ’क़्ल-ए-कुलस्त इ’ल्म-ए-लदुन्नी ब-आ’रिफ़ान
ईं अ’क़्ल-ओ-इ’ल्म जिस्मे-ओ-रस्मे मुख़्तसरस्त
दर्स-ए-शरफ़ न-बूद ज़े-अल्वाह-ए-अब्जदी
लौह-ए-जमाल-ए-दोस्त मरा दर अब्र अब्र अस्त
हज़रत अमीर ख़ुसरो हज़रत बू-अ’ली की ज़बानी इस ग़ज़ल को सुन कर बहुत रोए।हज़रत बू-अ’ली ने पूछा कि कुछ समझे भी।अ’र्ज़ किया रोना इसका है कि कुछ न समझा।इस जवाब से हज़रत बू-अ’ली ख़ुश हुए और बादशाह की भी नज़्र क़ुबूल कर ली।नज़्र क़ुबूल करते वक़्त फ़रमाया अगर हज़रत ख़्वाजा निज़ामुद्दीन का क़दम दर्मियान में न होता तो मैं हर्गिज़ क़ुबूल न करता।फिर ख़ुद्दाम को हुक्म दिया कि ख़ुसरो को ए’ज़ाज़-ओ-इकराम से ख़ानक़ाह में रखो। तीन दिन ठहर कर हज़रत अमीर ख़ुसरो ने वापस होने की इजाज़त माँगी।रुख़्सत करते वक़्त हज़रत बू-अ’ली ने एक ख़त जो हज़रत ख़्वाजा निज़ामुद्दीन औलिया की ख़िदमत में तहरीर फ़रमाया, और एक ख़त बादशाह को इस तरह लिखा:
“अ’लाउद्दीन फ़ोता-दार देहली मुक़र्र दानद कि बा-बंदगान-ए-ख़ुदा-ए-तआ’ला नेको कुनद”।
जब ये ख़त सुल्तान अ’लाउद्दीन ख़िल्जी को मिला तो उमरा ने कहा बादशाह को इस तरह ख़त लिखना सवाब है।लेकिन सुल्तान ने कहा ग़नीमत है कि इस ज़र्रा-ए-बे-क़द्र को फ़ोता-दार लिखा है।एक बार तो शहना-ए-देहली तहरीर फ़रमाया था।अब फ़ोता-दार जो फ़रमाया तो इसके लिए बहुत शुक्र अदा करता हूँ।शायद उस रुक़आ’ की तरफ़ इशारा था, जो हज़रत बू-अ’ली ने मलिक नायब के ख़िलाफ़ सुल्तान अ’लाउद्दीन को लिखा था।मलिक नायब ने एक दरवेश को ईज़ा पहुँचाई थी। हज़रत बू-अ’ली ने सुल्तान की तवज्जोह उसकी तरफ़ दिलाई और एक रुक़आ’ में तहरीर फ़रमाया:
“अ’लाउद्दीन शहना-ए-देहली रा इ’लाम आँ कि ख़्वाजः-सराए…… यके अज़ दरवेशान रा रंजानीद-ओ-अ’र्शुर्रहमान रा ब-लर्ज़ः आउर्द अगर ऊ रा ब-सज़ा रसानीदी बेहतर व इल्ला बजा-ए-तू शहना-ए-दीगर”।
सुल्तान ग़यासुद्दीन तुग़लक़ भी हज़रत शैख़ बू-अ’ली क़लंदर का मो’तक़िद था।एक बार अपने लड़के शहज़ादा जूना ख़ान और अपने पोते शहज़ादा कमालुद्दीन के साथ ख़िदमत में हाज़िर हुआ।हज़रत शैख़ ने ख़ादिमों को हुक्म दिया कि तीनों के लिए खाना लाएं।ख़ुद्दाम एक प्याले में खाना लाए।बादशाह और शहज़ादों ने एक ही प्याला में खाना शुरुअ’ किया।उस वक़्त हज़रत शैख़ ने फ़रमाया तीन बादशाह एक साथ खा रहे हैं।ये गोया शहज़ादा जूना ख़ान और शहज़ादा कमालुद्दीन के लिए बशारत थी।दोनों आगे चल कर सुल्तान मोहम्मद तुग़लक़ और सुल्तान फ़ीरोज़ शाह के नाम से हिन्दुस्तान के बादशाह हुए।
विसालः-
13 रमज़ानुल-मुबारक सन 724 हिज्री में बू-अ’ली क़लंदर रहमतुल्लाह अ’लैह का विसाल हुआ तारीख़-ए-वफ़ात “या शरफ़ुद्दीन अब्दाल” से निकलती है।करनाल में मदफ़ून हुए।लेकिन कहा जाता है कि अइ’ज़्ज़ा-ओ-अक़रिबा ने एक रात पोशीदा तौर पर ना’श-ए-मुबारक को पानीपत में ले जाकर दफ़्न कर दिया।चुनांचे करनाल, पानीपत, पुढ़ाखेड़ा और बाघोती में आज भी उनके मो’तक़िदीन का हुजूम रहता है।
इशाअ’त-ए-इस्लामः-
पानीपत के इ’लाक़े में जो मुसलमान राजपूत हैं वो हज़रत बू-अ’ली क़लंदर रहमतुल्लाह अ’लैह ही के रुश्द-ओ-हिदायत से मुशर्रफ़ ब-इस्लाम हुए।एक मुम्ताज़ राजपूत अमीर सिंह उनका मुरीद हुआ।उसी के ख़ानदान से मुसलमान राजपूत फैले।
तसानीफ़ः-
हज़रत बू-अ’ली क़लंदर रहमतुल्लाह अ’लैह के नाम से हसब-ए-ज़ैल तसानीफ़ मंसूब हैं-
1. मक्तूबात ब-नाम-ए-इख़्तियारुद्दीन
2. हुक्म-नामा-ए-शरफ़ुद्दीन
3. मस्नवी कंज़ुल-असरार
4. रिसाला-ए-इ’श्क़िया
मक्तूबात के बारे में मौलानना अ’ब्दुल हक़ मुहद्दिस देहलवी लिखते हैं-
“ऊ रा मक्तूबस्त ब-ज़बान-ए-इ’श्क़-ओ-मोहब्बत मुश्तमिल बर-मआ’रिफ़-ओ-हक़ाएक़-ए-तौहीद-ओ-तर्क-ए-दुनिया-ओ-तलब-ए-आख़िरत-ओ-मोहब्बत।मौला, जुम्ला रा ब-नाम-ए-इख़्तियारुद्दीन मी -गोयद”।
‘ख़ज़ीनतुल-अस्फ़िया’ में हैः-
“मक्तूबात-ए-वय कि ब-नाम-ए-इख़्तियारुद्दीन मुरीद-ए-ख़ुद तहरीर कर्दः-अस्त, किताबे अस्त जामे-ए’-उ’लूम-ए-तौहीद”।
सुल्तान शम्सुद्दीन अल्तमिश के शाही हाजिब का नाम भी इख़्तियारुद्दीन था।लेकिन ख़िल्जी उमरा में भी शायद कोई इख़्तियारुद्दीन हो।ये मक्तूबात ग़ालिबन उसी के नाम हैं।बा’ज़ मक्तूबात के नमूने मुलाहिज़ा हों –
“ऐ बिरादर जब तुम पर अल्लाह तबारक-ओ-तआ’ला की इ’नायत शुरुअ’ हो जाए, तुम में जज़्बा पैदा होने लगे, और तुम से दूर किया जाए, तो गोया तुम में इ’श्क़ का आग़ाज़ और तुम पर हुस्न का जल्वा ज़ाहिर हो गया।और जब तुम पर हुस्न का मुशाहदा हो जाए तो मा’शूक़ को पहचानो, और आ’शिक़ बन कर मा’शूक़ हो जाओ। और जब आ’शिक़ बन कर मा’शूक़ हो गए, तो उसी तरह करो। मा’शूक़ की सुन्नत और आ’शिक़ के फ़रीज़ा को क़ाएम रखो।उस वक़्त मा’शूक़ को आ’शिक़ के ज़रिआ’ से पहचान लोगे।ऐ बिरादर मा’शूक़ को तुम्हारी ही सूरत में पैदा कर के तुम्हारे दर्मियान भेजा गया है, ताकि बराह-ए-रास्त तुमको वो दा’वत दे।ऐ बिरादर ख़ुदा अ’ज़्ज़ा-ओ-जल्ला ने बिहिश्त-ओ-दोज़ख़ पैदा किया, और उसका हुक्म है कि दोनों पुर किए जाएंगे।मा’शूक़ को आ’शिक़ों के साथ बिहिशत में जगह दी जाएगी, और शैतान अपने साथियों के साथ दोज़ख़ को पुर करेगा। बिहिश्त-ओ-दोज़ख़ में आ’शिक़ों के सिवा कोई नहीं होगा।दोनों आ’शिक़ ही के हुस्न से पैदा हुए हैं, और दोनों मक़ाम-ए-ग़ैर न होंगे। बिहिश्त दोस्तों से विसाल का मक़ाम है। दोज़ख़ दुश्नों के लिए जा-ए-फ़िराक़ है।ये फ़िराक़ काफ़िरों और मुनाफ़िक़ों को हासिल होगा, और विसाल मोहम्मद रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अ’लैहि वसल्लम के आ’शिक़ों और दोस्तों को नसीब होगा।ऐ बिरादर चश्म-ए-दिल को खोलो, और अच्छी तरह से दोखो, और यो जानो को कि आ’शिक़ ने अपने इ’श्क़ से तुम्हारे लिए क्या क्या चीज़ें और क्या क्या तमाशे पैदा किए हैं।अपना हुस्न एक दरख़्त में मुंतक़िल कर दिया है, और गूनागूँ मेवे पैदा किए,…….उस दरख़्त को न अपनी ज़ात की ख़बर और न अपने फूल की ख़बर और न अपने मेवा की ख़बर है।गन्ना तुम्हारे लिए पैदा किया, और उसको शकर की ख़बर नहीं।मुश्क को हिरन की नाफ़ में रखा, जो तुम्हारे लिए है।हिरन को मुश्क की कोई ख़बर नहीं।गाए से अ’म्बर तुम्हारे लिए पैदा किया, और गाए को अम्बर की ख़बर नहीं।ज़बाद को बिल्ली से तुम्हारे लिए पैदा किया, और बिल्ली को ज़बाद की ख़बर नही।काफ़ूर को तुम्हारे लिए दरख़्त से पैदा किया, और दरख़्त को काफ़ूर की ख़बर नहीं।संदल को तुम्हारे लिए पैदा किया और संदल को अपनी ख़बर नहीं।ऐ बिरादर आ’शिक़ हो जाओ, और दोनों आ’लम को मा’शूक़ का हुस्न जानो, और अपने आपको मा’शूक़ का हुस्न कहो।आ’शिक़ से तुम्हारे वजूद का मुल्क बनाया, ताकि अपने हुस्न-ओ-जमाल को तुम्हारे आइना में देखे, और तुम को महरम-ए-असरार जाने, और अल-इंसानु सिर्री (इंसान मेरा भेद है) तुम्हारी शान में आया है।आ’शिक़ हो जाओ ताकि हुस्न को हमेशा देखो।और दुनिया-ओ-उ’क़्बा को पहचानो।उ’क़्बा मोहम्मद सल्लल्लाहु अ’लैहि वसल्लम की मिल्क है, और दुनिया शैतान की मिल्कियत है।दोनों में मा’लूम करो कि तुम्हारे लिए किसको पैदा किया है।ऐ बिरादर नफ़्स को अच्छी तरह पहचानो।जब तुम नफ़्स को पहचान लोगे। ऐ बिरादर-ए-दुनिया कुफ़्र में जो हुस्न रखा गया है, आ’शिक़ जानते हैं कि उसने (या’नी हुस्न ने) कुफ़्र को अपने आ’शिक़ों के सामने किस क़दर आरास्ता कर दिया है।जो दुनिया का आ’शिक़ उसका मा’शूक़ कुफ़्र का हुस्न है, ऐ बिरादर-ए-दुनिया तुम जानते हो कि हुस्न का जो ग़मज़ा कुफ़्र में रखा गया है, उसने किस क़द्र पुर-लुत्फ़ तीर दुनिया वालों पर मारा है, और उनको अपना आ’शिक़ बना लिया हैतुम जानते हो कि हुस्न का जो ग़मज़ा कुफ़्र में रखा गया है, उसने किस क़द्र लुत्फ़ तीर दुनिया वालों पर मारा है, और उनको अपना आ’शिक़ बना लिया है।ऐ बिरादर अपनी जुस्तुजू में रहो, और अपने को पहचानो।जब तुम अपने नफ़्स को पहचान लोगे, तो इ’श्क़ को भी जान सकोगे।और जब इ’श्क़ को अपने हुस्न पर देखोगे तो कुल इंसान की कैफ़ियत अपने में पाओगे।आ’शिक़ हो जाओ, और मा’शूक़ को अपनी गोद में देखो और हुस्न को अपने दिल के आईने में मुआ’इना करो।
आं शाहिद-ए-मा’नी कि हमः तालिब-ए-ऊयंद
हम ऊस्त कि अज़ चादर-ए-तू साख़्तः सर-पोश
दर बादिया-ए-हिज्र चेरा बन्द ब-मानेम
दर ऐ’न-ए-विसालेम निगारस्त दर आग़ोश
ऐ बिरादर क़ंद का एक गोला लाओ और उससे सौ गोले बना लो। और हर गोला से एक सूरत बनाओ, और हर सूरत का नाम रखो। बा’ज़ को घोड़ा, और बा’ज़ को हाथी कहो तो क़ंद का नाम जाता रहेगा। और सिर्फ़ वो सूरत बाक़ी रहेगी।जब कुल सूरतों को तोड़ कर कंद का गोला बना लोगे तो क़ंद का नाम फिर ज़ाहिर हो जाएगा”।
एक दूसरे मक्तूब में फ़रमाते हैं –
“ऐ बिरादर ये नहीं मा’लूम कि हम लोगों को किस लिए पैदा किया गया और हम लोगों के साथ क्या होगा।लेकिन ख़याल हमेशा फ़िक्र के साथ वाबस्ता रहता है।कभी फ़िक्र हमारे दिल के आईना को आरास्ता कर देती है, और आ’शिक़ के सामने मा’शूक़ के फ़र्ज़ और मा’शूक़ की सुन्नत के मुतालए’ में बजा लाती है।आ’शिक़ और मा’शूक़ के हुस्न से बातिन को मा’मूर करती है, और हुस्न के तमाशा से आ’शिक़ अपने ज़ाहिर को भुला देता है।और अपने बातिन के तमाशे में मसरूफ़ हो जाता है, ताकि आ’शिक़ का हुक्म जिसको मा’शूक़ ने पहुँचाया है, नाफ़िज़ हो जाए। ऐ बिरादर कभी ख़याल नफ़्स का दोस्त हो जाता है, और हाल ख़याल के साथ मुत्तहिद हो कर दुनिया की रोज़ी की तरफ़ ले आता है।ख़याल दुनिया की आराइश नफ़्स को दिखलाता है, और उसके शौक़ में उसको परेशान करता है और उसको या’नी नफ़्स को मा’शूक़ के दरवाज़े पर फिराता है।हर दरवाज़ा पर ज़लील करता है और (नफ़्स) शौक़ और आराइश की आसाइश की वजह से उस ज़िल्लत से वाक़िफ़ नहीं होता और बाज़ नहीं आता।और ये नहीं सोचता कि दुनिया ने किसी के साथ वफ़ा की और न वफ़ा करेगी, न उसको (नफ़्स को) मौत की फ़िक्र होती है, कि वो दफ़्अ’तन आ कर उसको फ़ना कर देगी।दुनिया की आराइश का हुस्न दुनिया के आ’शिक़ों को अपने इ’श्क़ में ऐसा बे-ख़बर कर देता है कि न उसको इस दुनिया की ख़बर होती है, जिस को उन्होंने मा’शूक़ बनाया है।इसकी भी उनको ख़बर नहीं होती कि अगर दुनिया ख़त्म हो जाएगी तो क्या वाक़िआ’त ज़ुहूर-पज़ीर होंगे। और न उ’क़्बा की ख़बर उनको होती कि उनके सामने एक मुहिम दरपेश है।और तुम ने ख़याल और फ़िक्र को अपना मोनिस बनाया है।ख़याल की निस्बत होश रखो कि वो नफ़्स का दोस्त हो गया है। ऐ बिरादर कुछ मा’लूम नहीं कि ख़याल और फ़िक्र क्या हाल पैदा करें।जब वो (हाल) तुम को नज़र आएगा, उस वक़्त तुमको मा’लूम होगा, कि ये क़िस्मत में लिखा था कि तुम्हारे सामने आया।ऐ बिरादर मैं नहीं जानता हूँ कि मैं क्या करूँ, और मुझ से कौनसा काम बन पड़ेगा और क्या मेरी ज़बान से निकलेगा।ज़बान ख़ुदा की क़ुदरत में है।अगर तुम पर ख़ुदा का फज़्ल हुआ तो तुम्हारी ज़बान से वो बात निकलेगी, जो दोनों जहान को पसंद होगी।ऐ बिरादर इस क़दर मा’लूम हुआ कि ख़ुदा ने अपनी मशिय्यत से तुमको पैदा किया और अपनी मशिय्यत से बाक़ी रखता है।यफ़अ’लुल्लाहु मा-यशाउ व-यहकुमु मा-युरीदु (या’नी जो कुछ उसने चाहा उसको किया और जो कुछ चाहता है, करता है।किसी को उस की मशीयत में दख़्ल नहीं”) ।
हुक्म–नामा-ए-शम्सुद्दीन के बारे में मौलाना अ’ब्दुल हक़ मुहद्दिस देहलवी रक़म-तराज़ हैं :
‘व रिसाला-ए-दीगर दर अ’वाम शोहरत दारद कि ऊ रा हुक्म–नाम:-ए-शम्सुद्दीन मी–गोयन्द।ज़ाहिर आँस्त कि आं अज़ मुख़तरिआ’त-ए-अ’वाम अस्त’।
उसका एक नुस्ख़ा बंगाल ऐशियाटिक सुसाइटी में है।(देखो केटलाग फ़ारसी मख़्तूतात सफ़हा 570 नम्बर नमबर 1196)
हज़रत शैख़ बू-अ’ली क़लंदर रहमतुल्लाह अ’लैह के नाम से दो मस्नवियाँ मंसूब हैं।‘मस्नवी कंज़ुल-असरार’ और ‘रिसाला-ए-इ’श्क़िया’।‘ख़ज़ीनतुल-अस्फ़िया’ के मुअल्लिफ़ ने सिर्फ़ इतना लिखा हैः-
“व-सिवा-ए-अज़ीं, मस्नवी अस्त मुख़्तसर कि मख़्ज़न-ए-रूमूज़-ए-तौहीद-ओ-मआ’रिफ़ अस्त”। (जिल्द एक सफ़्हा 327)
1891 में मत्बा-ए’-नामी लखनऊ से एक मंज़ूम रिसाला शाह बू-अ’ली क़लंदर रहमतुल्लाह अ’लैह के नाम से शाए’ हुआ था।अगर ये रिसाला वाक़ई’ हज़रत शाह अ’ली क़लंदर का है, तो हम उसको रिसाला-ए-इ’श्क़िया कह सकते हैं, क्यूँकि उसमें इ’श्क़ पर बहुत से अ’श्आ’र हैं।मस्लन
इ’श्क़ कू बे-बाल-ओ-पर तैराँ कुनद
इ’श्क़ कू दर ला-मकाँ जौलाँ कुनद
इ’श्क़ कू ता ताज-ए-सुल्तानी नेहद
इ’श्क़ कू मुल्क-ए-सुलैमानी देहद
इ’श्क़ कू ता चश्म-ए-दिल बीना कुनद
इ’श्क़ कू ता सीना पुर-सौदा कुनद
इ’श्क़ कू ता अ’क़्ल रा ज़ाएल कुनद
इ’श्क़ कू ता अ’क़्ल रा हासिल कुनद
इ’श्क़ कू ता जाम-ए-मदहोशी देहद
इ’श्क़ बायद ता फ़रामोशी देहद
इ’श्क़ बायद ता देहद जाम-ए-शराब
इ’श्क़ साज़द साग़र-ए-मय आफ़्ताब
इसमें क़रीब 362 अश्आ’र हैं।मस्नवी का आग़ाज़ इन अश्आ’र से किया गया हैः-
मर्हबा ऐ बुलबुल-ए-बाग़-ए-कुहन
अज़ गुल-ए-रा’ना ब-गो बा मा-सुख़न
मर्हबा ऐ क़ासिद-ए-तय्यार-ए-मा
मी-देही हर दम ख़बर अज़ यार-ए-मा
मर्हबा ऐ हुदहुद-ए-फ़र्ख़न्द:-फ़ाल
मर्हबा ऐ तूती-ए-शक्कर-मक़ाल
दर ज़माँ हफ़्त आसमाँ तय मी-कुनी
मर्कब-ए-हिर्स-ओ-हवा रा पे कुनी
दम-ब-दम रौशन कुनी दर दिल चराग़
हर नफ़स अज़ इ’श्क़ साज़ी सीनः दाग़
अज़ तू रौशन गश्त फ़ानूस-ए-तनम
अज़ तू हासिल शुद मरा वस्ल-ए-सनम
मर्हबा ऐ रहनुमा-ए-राह-ए-दीं
अज़ तू रौशन शुद मरा चश्म-ए-यक़ीं
याफ़्त क़ालिब तीनत-ए-पाकी ज़े-तू
शुद परेशां आदम-ए-ख़ाकी ज़े-तू
मर्हबा ऐ फ़ैज़-बख़्श-ए-काइनात
याफ़्त तर्कीब अज़ वजूद-ए-तू हयात
आगे चल कर एक शैख़ के ज़ुहद-ओ-तक़्वा की तसरीह की गई है।
ज़ुहद-ओ-तक़्वा चीस्त ऐ मर्द-ए-फ़क़ीर
ला-तमा’ बूदन ज़े-सुल्तान-ओ-अमीर
ज़ुहद-ओ-तक़्वा नीस्त ईं कज़ बहर-ए-ख़ल्क़
सूफ़ी बाशी-ओ-पोशी कोहनः-ए-दल्क़
शानः-ओ-मिस्वाक-ओ-तस्बीह-ए-रिया
जुब्ब-ओ-दस्तार-ओ-क़ल्ब-ए-बे-सफ़ा
पेश-ओ-पस गर्दद मुरीद-ए-ना-ख़लफ़
चूँ ख़र-ए-अबल: पय-ए-आब-ओ-अ’लफ़
चूँ ब-बीनी चंद कस बेहूदः गर्द
ख़्वेश रा गोई मनम मर्दाना मर्द
दाम अंदोज़ी बरा-ए-मर्द-ओ-ज़न
ख़्वेश रा गोई मनम शैख़-ए-ज़मन
वा’ज़ गोई ख़ुद न-यारी दर अ’मल
चश्म-पोशी हम-चू शैतान-ए-दग़ल
मक्र-ओ-तल्बीस-ओ-रियाकारत बुवद
हर नफ़स शैताँ तुरा यारत बुवद
चूँ शवी इस्तादः अज़ बहर-ए-नमाज़
दिल बुवद दर गावख़र ऐ हीला-साज़
आँ नमाज़-ए-तू शवद आख़िर तबाह
फ़िक्र-ए-बातिलहा कुनद रूयत सियाह
चूँ दर ईमानत फ़ितद आख़िर क़ुसूर
हाँ चेरा ख़्वानी नमाज़-ए-बे-क़ुसूर
ख़ादिमाँ गोयंद ईं शैख़-ए-ज़माँ
चश्म पोशीदस्त अज़ ख़ल्क़-ओ-जहाँ
शैख़ रा लाहूत बाशद मंज़िलश
शुद फ़ना ज़ात-ए-बक़ा शुद हासिलश
ईं ख़ुशामद-गोई चंदीं अब्लहाँ
रहज़नानंद रहज़नानंद रहज़नाँ
अज़ सताइश ख़्वेशतन रा गुम म-कुन
ऐ’ब-ए-ख़ुद बीं ऐ’ब बर मर्दुम म-कुन
ऐ गिरफ़्तार आमदी दर बंद-ए-नफ़्स
नफ़्स-ए-काफ़िर रा ब-कुश ब-शिकन क़फ़स
ता-कुनी परवाज़ सू-ए-अस्ल-ए-ख़्वेश
जा कुनी दर आशयान-ए-वस्ल-ए-ख़्वेश
इसके बा’द दुनिया की हिर्स-ओ-हवा से परहेज़ की ता’लीम हैः-
दिल चू-आलूदस्त अज़ हिर्स-ओ-हवा
के शवद मक्शूफ़ असरार-ए-ख़ुदा
सद तमन्ना दर दिलस्त ऐ बुल-फ़ुज़ूल
के कुनद नूर-ए-ख़ुदा दर दिल नुज़ूल
दीन-ओ-दुनिया हर दो के आयद ब-दस्त
ईं फ़ुज़ूलीहा ब-कुन ऐ ख़ुद-परस्त
बर तू क़िस्मत मी-रसद ऐ बे-ख़बर
पस चेरा क़ाने’ न ई बर ख़ुश्क-ओ-तर
हिर्स-ए-तू दल्क़-ए-क़नाअ’त पार: कर्द
नफ़्स-ए-अम्मारा तुरा आवार: कर्द
हस्त दुनिया पीर-ज़ाल-ओ-पुर-फ़रेब
मी-कुनद पीर-ओ-जवाँ रा बे-शकेब
ईं सुख़न दर गोश दार ऐ नौजवाँ
मौलवी गुफ़्त: ज़े रू-ए-इम्तिहाँ
हम ख़ुदा ख़्वाही-ओ-हम दुनिया-ए-दूँ
ईं ख़यालस्त-ओ-महाल अस्त-ओ-जुनूँ
नफ़्स-कुशी की तल्क़ीन इस तरह की गई हैः
मर्द बायद ता नेहद बर-नफ़्स पा
ब-गुज़रद अज़ शहवत-ओ-हिर्स-ओ-हवा
दस्त-ए-हिम्मत रा बर अफ़राज़द बुलंद
नफ़्स रा चूँ सैद आरद दर कमंद
दस्त रा कोताह साज़द अज़ हवस
ब-शिकनद बा-चंग-ए-हिम्मत ईं क़फ़स
गर ख़ूरी यक लुक़्मः अज़ वज्ह-ए-हलाल
नूर ताबद बर दिल अज़ महर-ए-कमाल
गर शवी अज़ लुक़्म:-ए-शुब्हा नफ़ीर
नफ़्स रा साज़ी ब-फ़ज़्ल-ए-हक़ असीर
चूँ कुशाई चश्म-ए-मा अहल-ए-यक़ीं
हर तरफ़ ताबां जमाल-ए-यार बीं
इसके बा’द तौहीद-ओ-मा’रिफ़त की मुसव्विरी की गई हैः-
यार रा मी-बीं तू दर हर आइनः
सोज़-ओ-साज़-ए-ऊस्त दर हर तनतनः
हर चे आयद दर नज़र अज़ ख़ैर-ओ-शर
जुम्ल: ज़ात-ए-हक़ बुवद ऐ बे-ख़बर
ऊस्त दर अर्ज़-ओ-समा-ओ-ला-मकाँ
ऊस्त दर हर ज़र्रःपैदा-ओ-निहाँ
पास दार अन्फ़ास ऐ अहल-ए-ख़िरद
ता तुरा ईं फ़ासला मंज़िल बरद
ऊस्त पैदा-ओ-निहान-ओ-आशकार
जल्वः-हा कर्दस्त दर हर शय निगार
होश दर दम दार ऐ मर्द-ए-ख़ुदा
यक नफ़स यक दम मआ’श अज़ हक़ जुदा
नफ़ी गर्दां अज़ दिल-ए-ख़ुद मा सिवा
ता न गुंजद दर दिलत ग़ैर अज़ ख़ुदा
ज़ंग-ए-दिल अज़ सैक़ल-ए-ला पाक कुन
सीन: बा तेग़-ए-मोहब्बत चाक कुन
इस्म-ए-ज़ात-ए-ऊ चू बर दिल नक़्श बस्त
सिक्क:-ए-ज़र्ब-ए-मोहब्बत ख़ुश नशिस्त
गश्त चूँ बर नक़्श-ए-दिल नक़्श-ए-इलाह
ग़ैर-ए-नक़्शुल्लाह रा ऐ दिल म-ख़्वाह
चूँ शवी फ़ानी तू अज़ ज़िक्र-ए-ख़ुदा
राह-याबी दर हरीम-ए-किब्रिया
चूँ ब-मानी बा-ख़ुदा याबी विसाल
ख़्वेश रा गुम साज़ ऐ साहिब-कमाल
हर कि शुद दर बहर-ए-इ’रफ़ाँ आशना
ज़र्रःज़र्रः क़तरः दानद अज़ ख़ुदा
इ’रफ़ान के लिए चश्म-ए-बीना और दिल-ए-मुसफ़्फ़ा ज़रूरी हैः-
चश्म-ए-दिल ब-कुशा जमाल-ए-यार बीं
हर तरफ़ हर सू रुख़-ए-दिलदार बीं
चश्म बायद ता-ब-बीनद रू-ए-यार
जल्वाए कर्दस्त दर हर शय निगार
नीस्त पोशीदः रुख़-ए-दिलदार-ए-तू
लेक ईं नक़्सस्त दर अब्सार-ए-तू
इ’श्क़-ए-इलाही में जो मदहोशी और ख़ुद-फ़रामोशी होनी चाहिए, उसकी तस्वीर इन अश्आ’र से नुमायाँ होती है, जो शुरूअ’ में नक़्ल किए गए है।इस सिलसिला के कुछ अश्आ’र मुलाहज़ा हों।
हेच मी-दानी कि अस्ल-ए-इ’श्क़ चीस्त
इ’श्क़ रा अज़ हुस्न-ए-जानाँ ज़िन्दगीस्त
इ’श्क़ चूँ जिब्रील दर मे’राज-ए-हुस्न
बर सर-ए-आ’शिक़ नेहद सद ताज-ए-हुस्न
आ’शिक़-ओ-मा’शूक़ गर्दंद हर दो यक
हम तुइ मा’शूक़-ओ-आ’शिक़ नीस्त शक
ऐ कि गश्ती वाक़िफ़ अज़ असरार-ए-इ’श्क़
नेह क़दम मर्दानः अंदर कार-ए-इ’श्क़
इ’श्क़-बाज़ी नीस्त कार-ए-बुल-हवस
ख़ाम-तबआं’ हाज़िर अंद हम-चू मगस
गर कुनी जाँ रा तू बर जानाँ निसार
दर इ’वज़ यक जाँ देहद सद जाँ निगार
कुश्तगान-ए-इ’श्क़ रा जान-ए-दिगर
हर ज़मां अज़ ग़ैब एहसान-ए-दिगर
मस्नवी का ख़ातमा हसब-ए-ज़ैल तरीक़ा पर होता हैः-
या इलाही चश्म-ए-बीनाई ब-देह
दर सरम अज़ इ’श्क़-ए-सौदाई ब-देह
आतिश अफ़गन दर दिलम मानिंद-ए-तूर
शो’ला बर ख़ेज़द-ओ-गर्दद ज़ंग दूर
सालहा शुद अज़ तु मी-ख़्वाहम तुरा
हाजतम रा चूँ नमी-साज़ी रवा
अज़ लिसानुल-ग़ैब ईं गर्दद नवेद
अज़ दर-ए-तू कस न गश्त: ना उम्मीद
ऐ ख़ुदा-ए-मन ब-हक़्क़-ए-मुस्तफ़ा
अज़ तुफ़ैल-ए-हुर्मत-ए-आल-ए-अ’बा
रोज़-ए-महशर दार मा आल-ए-रसूल
अज़ तुफ़ैल-ए-मुक़्बिलाँ गर्दद क़ुबूल
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