हज़रत शैख़ फ़ख़्रुद्दीन इ’राक़ी रहमतुल्लाह अ’लैह
नाम-ओ-नसबः-
पूरा नाम शैख़ फ़ख़्रुद्दीन इब्राहीम है।तारीख़-ए-गुज़ीदा में सिलसिला-ए-नसब ये है।फ़ख़्रुद्दीन इब्राहीम बिन बज़रचमहर बिन अ’ब्दुल ग़फ़्फ़ार अल-जवालक़ी।मगर तज़्किरा-ए-दौलत शाह,मिर्अतुल-ख़याल,सीरतुल-आ’रिफ़ीन,मख़्ज़नुल-ग़राएब और ब्रिटिश म्यूज़ियम के फ़ारसी मख़्तूतात की फ़िहरिस्त में उनके वालिद-ए-बुज़ुर्गवार का इस्म-ए-गिरामी शहरयार मरक़ूम है।सियरुल आ’रिफ़ीन के मुअल्लिफ़ का बयान है कि-
“शैख फ़ख़्रुद्दीन मोहम्मद शहरयार बहाउद्दीन ज़करिया की बहन के बेटे या’नी भाँजे थे”
मगर बा’ज़ तज़्किरों में उनको शैख़ शहाबुद्दीन उ’मर सुहरवर्दी का भाँजा बताया जाता है।हमदान के नवाह में क़रिया बक्जान (बाकूनजान) में पैदा हुए।सिग़र-ए-सिन्नी में कलाम-ए-पाक हिफ़्ज़ किया।हमदान के लोग उनकी ख़ुश-गुलूई पर शेफ़्ता थे।
इब्तिदाई हालातः-
सतरह साल की उ’म्र में हमदान के मदरसा से मा’क़ूलात-ओ-मंक़ूलात पढ़ कर फ़ारिग़ हुए।एक रिवायत ये है कि वो हमदान से बग़दाद आए और शैख़ शहाबुद्दीन सुहरवर्दी की ख़िदमत में रह कर रूहानी ता’लीम पाई और उनसे शरफ़-ए-बैअ’त हासिल किया।उनके पास रह कर बरसों इ’बादत-ओ-रियाज़त करते रहे।शैख़ शहाबुद्दीन सुहरवर्दी ने उसी मुद्दीत में उनको इ’राक़ी तख़ल्लुस अ’ता फ़रमाया और हिन्दुस्तान जाने का हुक्म दिया।यहाँ पहुँच कर हज़रत शैख़ बहाउद्दीन ज़करिया की ख़िदमत में मुल्तान आए और उनके फ़ैज़-ए-सोहबत मे रूहानी और बातिनी दौलत से माला-माल हुए।एक दूसरी रिवायत है कि ता’लीम से फ़ारिग़ हो कर हमदान के मदरसा में दर्स दे रहे थे कि क़लंदरों की एक जमाअ’त पहुँची और मुंदर्जा ज़ैल ग़ज़ल पढ़ने लगी।
मा रख़्त ज़े मस्जिद ब-ख़राबात कशीदेम
ख़त बर-वरक़-ए-ज़ोहद-ओ-करामात कशीदेम
दर कू-ए-मुग़ाँ दर सफ़-ए-उ’श्शाक़ नशिस्तेम
जाम अज़ कफ़-ए-रिंदान-ए-ख़राबात कशीदेम
अज़ ज़ोहद-ओ-मक़ामात गुज़श्तेम कि बिस्यार
काँ तअ’ब अज़ ज़ोहद-ए-मक़ामात कशीदेम
इन अश्आ’र को सुन कर शैख़ फ़ख़्रुद्दीन इब्राहीम बे-ताब हो गए और उन पर एक वज्द तारी हो गया। क़लंदरों में से एक क़लंदर अपने हुस्न-ओ-जमाल में बे-नज़ीर था। उसके हुस्न-ए-फ़ानी को देख कर उनके दिल में इ’श्क़-ए-हक़ीक़ी की आग भड़क उठी। कपड़े फाड़ डाले और अ’मामा सर से उतार फेंका और उसी वक़्त फ़रमाया:
चे खुश बाशद कि दिलदारम तू बाशी
नदीम-ओ-मूनिस-ओ-यारम तू बाशी
और फिर क़लंदरों के साथ हमदान से चल खड़े हुए और इ’राक़-ओ-अ’रब-ओ-अ’जम की सियाहत करते हुए हिंदुस्तान पहुँचे।जब मुल्तान आए तो क़लंदरों के साथ हज़रत शैख़ बहाउद्दीन ज़करिया की ख़ानक़ाह में क़ियाम किया।हज़रत शैख़ बहाउद्दीन ज़करिया की नज़र उन पर पड़ी तो उनको सूरत-आशना पाया और अपने मुक़र्रब-ए-ख़ास शैख़ इ’मादुद्दीन से फ़रमायाः-
“दरीं जवान इस्ति’दाद-ए-तमाम याफ़्तम.. ईं जा मी-बायद बूदन”।
शैख़ फ़ख़्रुद्दीन इ’राक़ी ने भी हज़रत शैख़ बहाउद्दीन ज़करिया की तरफ़ कशिश महसूस की और अपने साथियों से कहा कि-
“बर मिसाल-ए-मक़नातीस कि आहन रा कशद,शैख़ मरा जज़्ब मी- कुनद-ओ-मुक़य्यद ख़्वाहद कर्द।अज़ ईं जा ज़ूद-तर मी-बायद रफ़्त”
चुनाँचे मुल्तान से देहली चले आए और देहली से सोमनात की तरफ़ जा रहे थे कि रास्ता में सख़्त आँधी आई।आँधी में क़लंदर एक दूसरे से अ’लाहिदा हो गए।शैख़ फ़ख़्रुद्दीन इ’राक़ी साथियों से छूट कर इधर-उधर परेशान फिरते रहे।बिल-आख़िर मुल्तान की तरफ़ मुराजअ’त का तहय्या किया।वहाँ पहुँचे तो हज़रत शैख़ बहाउद्दीन ज़करिया ने देखते ही फ़रमायाः
“इ’राक़ी अज़ मा ब-गुरेख़्ती”
शैख़ फ़ख़्रुद्दीन ने जवाब में कहाः
अज़ तू न-गुरेज़द दिल-ए-मन यक ज़मान
कालबुद रा के बुवद अज़ जान गुज़ीर
दाय:-ए-लुत्फ़त मरा दर बर गिरफ़्त
दाद बेश अज़ मादरम सद गूनःशीर
कैफ़-ओ-मस्तीः”
हज़रत शैख़ बहाउद्दीन ज़करिया उनको अपनी ख़ल्वत में ले गए,जहाँ वो दस रोज़ तक चिल्ला में बैठे।ग्यारहवें रोज़ उन पर एक अ’जीब कैफ़ियत तारी हो गई।वो रोते थे और ये ग़ज़ल पढ़ते थे:-
नख़ुस्तीं बादः कांदर जाम कर्दंद
ज़े-चश्म-ए-मस्त-ए-साक़ी वाम कर्दंद
चू बे-ख़ुद ख़्वास्तंद अहल-ए-तरब रा
शराब-ए-बे-ख़ुदी दर काम कर्दंद
बरा-ए-सैद-ए-मुर्ग़-ए-जान-ए-आ’शिक़
ज़े-ज़ुल्फ़-ए-फ़ित्न:-जूयाँ दाम कर्दंद
ब-हर आ’लम कुजा रंज-ओ-बला बूद
ब-हम बुर्दंद-ओ-इ’श्क़श नाम कर्दंद
चू ख़ुद कर्दंद राज़-ए-ख़्वेशतन फ़ाश
इ’राक़ी रा चरा बद-नाम कर्दंद
हज़रत शैख़ बहाउद्दीन ज़करिया के मुरीदों ने चिल्ला में शैख़ फ़ख़्रुद्दीन इ’राक़ी को नग़्मा-सराई करते देखा तो मुर्शिद को इत्तिलाअ’ दी कि इन चीज़ों की तो मुमानअ’त है, फिर शैख़ फ़ख़्रुद्दीन इ’राक़ी उसके कैसे मुर्तकिब हो रहे हैं।मुर्शिद ने फ़रमाया कि
“शुमा रा अज़ ईं चीज़-हा मन्अ’ अस्त ऊ रा मन्अ’ नीस्त”
उसके कुछ दिनों के बा’द शैख़ इ’मादुद्दीन शहर में निकले।एक ख़राबात से गुज़र रहे थे रिंदों को मंदर्जा बाला ग़ज़ल चंग-ओ-चग़ाना के साथ पढ़ते सुना।शहर से वापस हुए तो अपने मुर्शिद शैख़ बहाउद्दीन ज़करिया को ये वाक़िअ’ सुनाया।मुर्शिद ने ये सुन कर शैख़ फ़ख़्रुद्दीन इ’राक़ी के मुतअ’ल्लिक़ फ़रमाया कि
“कार-ए-ऊ तमाम शुद”
और फिर शैख़ फ़ख़्रुद्दीन इ’राक़ी के पास ख़ल्वत में पहुँच कर इर्शाद फ़रमायाः-
“इ’राक़ी! मुनाजात दर ख़राबात मी-कुनी, बैरून आई”।
शैख़ इ’राक़ी बाहर आए।मुर्शिद के क़दमों पर सर रख दिया और देर तक फूट फुट कर रोते रहे।मुर्शिद ने अपने दस्त-ए-मुबारक से उनका सर उठाया और सीना से लगाया।शैख़ इ’राक़ी ने उसी वक़्त एक ग़ज़ल कही जिस का मतला’ ये है,
दर कू-ए-ख़राबात कसे रा कि नियाज़ अस्त
हुशयारी-ओ-मस्तीयश हमः ऐ’न-ए-नमाज़ अस्त
मुर्शिद ने उसी वक़्त अपना ख़िर्क़ा उतार कर उनको पहना दिया और उसी मज्लिस में अपनी साहिबज़ादी को उनके हिबाला-ए-निकाह में दे दिया।शैख़ इ’राक़ी अपने मुर्शिद और ख़ुस्र की ख़िदमत में पचीस साल रहे। इसी अस्ना में उनके फ़रज़ंद-ए-अर्जुमंद शैख़ कबीरुद्दीन की पैदाइश हुई।
ख़िलाफ़तः-
हज़रत शैख़ बहाउद्दीन ज़करिया ने अपने विसाल के वक़्त शैख़ फ़ख़्रुद्दीन इ’राक़ी को अपना ख़लीफ़ा और जा-नशीन बनाया था, मगर शैख़ फ़ख़्रुद्दीन इ’राक़ी ने मुर्शिद की देरीना रिवायात की पाबंदी न की।वो मग़्लूबुल-हाल होकर अपने जज़्बात का इज़्हार शे’र-ओ-शाइ’री के ज़रिआ’ से किया करते थे, जिसको हज़रत शैख़ बहाउद्दीन ज़करिया के और दूसरे मुरीद अपने मुर्शिद के तरीक़े और मस्लक के ख़िलाफ़ समझते थे।शैख़ फ़ख़्रुद्दीन रहमतुल्लाह अ’लैह ने ये महसूस किया तो उस मंसब से अ’लाहिदा हो कर अ’दन की तरफ़ रवाना हो गए।
अ’दन में पज़ीराईः-
अ’दन का सुल्तान उनकी शोहरत सुन चुका था और उनकी शाइ’री का मो’तक़िद था।चुनाँचे वो अ’दन पहुँचे, तो उ’लमा-ओ-सुलहा की मई’यत में उनका शानदार इस्तिक़्बाल किया और शाही ख़ानक़ाह में ठहराया, और हर क़िस्म की ख़ातिर-तवाज़ो’ की। हज का मौसम आया तो हज़रत शैख़ फ़ख़्रुद्दीन इ’राक़ी ने ख़ाना-ए-का’बा की ज़ियारत करने का इरादा किया।सुल्तान उनका इस क़द्र गिरवीदा हो गया था उनकी मुफ़ारक़त गवारा न की लेकिन वो ख़ाना-ए-का’बा की ज़ियारत के इश्तियाक़ में सुल्तान की इजाज़त के ब-ग़ैर चुप-चाप अ’द्न से चल खड़े हुए।सुल्तान को उनके जाने की ख़बर मिली तो उनकी अ’लाहिदगी से बे-ताब हो कर ख़ुद भी आ’ज़िम-ए-हज हुआ।मगर फिर लौट आया और बे-इंतिहा माल-ओ-दौलत का नज़राना उनकी ख़िदमत में इस हिदायत के साथ भेजा कि अगर वो इसको क़ुबूल न करें तो उनके ख़ादिमों और मुरीदों में तक़्सीम कर दिया जाए।
हजः-
हज़रत शैख़ फ़ख़्रुद्दीन इ’राक़ी रहमतुल्लाह अ’लैह मस्त-ओ-सरशार मक्का मुअ’ज़्ज़मा पहुँचे।एहराम बाँधते वक़्त उन्होंने एक क़सीदा तहरीर फ़रमाया, जिसका मतला’ ये था।
ऐ जलालत फ़र्श-ए-इ’ज़्ज़त जाविदाँ अंदाख़्तः
गूए दर मैदान-ए-वहदत कामराँ अंदाख़्तः
और जब ख़ाना-ए-का’बा पर उनकी नज़र पड़ी तो उसके अनवार-ए-तजल्लियात से मसहूर होकर एक दूसरा क़सीदा कहा जिसका एक शे’र ये है:-
तआ’ला मन तवह्-ह-द बिल-कमालि
तक़द्-द-स मन तफ़र्-र-द बिलजलालि
मदीना मुनव्वरा पहुँचे तो उन पर एक विज्दानी कैफ़ियत तारी हो गई और एक रात में पाँच क़सीदे कहे।उन क़सीदों के सिर्फ़ मतले’ मुलाहिज़ा हों –
1
आ’शिक़ाँ चूँ बर दर-ए-दिल हल्क़ा-ए-सौदा ज़नन्द
आतिश-ए-सौदा-ए-जानाँ दर दिल-ए-शैदा ज़नन्द
2
शहबाज़म-ओ-चू सैद-ए-जहाँ नीस्त दरख़ुरम
नागह बुवद कि अज़ कफ़-ए-अय्याम बर परम
3
ऐ रुख़त मज्मा’-ए-ख़याल शुदः
मतला’-ए-नूर-ए-ज़ुल-जलाल शुदः
4
राह बारीकस्त-ओ-शब तारीक-ओ-मरकब लंग-ओ-पीर
ऐ सआ’दत रुख़ नुमा–ओ-ऐ इ’नायत दस्तगीर
5
दिल तुरा दोस्त-तर ज़े-जाँ दारद
जाँ ज़े-बहर-ए-तू दर्मियाँ दारद
सियाहत-ए-अक़्सा-ए-रूमः-
मदीना मुनव्वरा की ज़ियारत से मुशर्फ़ हो चुके तो अक़्सा-ए-रूम की सियाहत के लिए उठ खड़े हुए।क़ूनिया पहुँच कर वहाँ हज़रत शैख़ मुहीउद्दीन अ’रबी के ख़लीफ़ा-ओ-सज्जादा-नशीन हज़रत शैख़ सदरुद्दीन की ख़िदमत में पहुँचे।उनकी सोहबत में रूहानी दिल-चस्पी पैदा हुई तो एक अ’र्सा तक क़ूनिया में क़ियाम-पज़ीर रहे और हज़रत शैख़ सदरुद्दीन की सोहबत में फ़ुसूसुल-हिकम का मुतालआ’ किया, जिसके बा’द अपनी मशहूर किताब लमआ’त तस्नीफ़ की।हज़रत शैख़ सदरुद्दीन ने उसको पढ़ कर फ़रमायाः-
“ऐ फ़ख़्रुद्दीन इ’राक़ी सिर्र-ए-सुख़न-ए-मर्दां आशकारा कर्दी”।
चुनाँचे ये किताब अर्बाब-ए-तसव्वुफ़ के हल्क़ा में बराबर मक़्बूल रही। मुल्ला नूरुद्दीन अ’ब्दुर्रहमान जामी ने अश्इअ’तुल-लमआ’त और मौलाना मुइनुद्दीन अ’ली अस्फ़हानी ने ज़ौउल-लमआ’त के नाम से उसकी शरहें लखीं हैं। सियरुल-आ’रिफ़ीन के मुअ’ल्लिफ़ का बयान है कि सद्र ख़ावरी ने भी उसकी शरह तहरीर की है और लमआ’त का ता’रीफ़ में ये लिखा है:
चे दर सुंबुल चे दर आहू-ए-तातार
और ख़ुद सियरुल-आ’रिफ़ीन के मुअल्लिफ़ ने लमआ’त की तौसीफ़ इन अल्फ़ाज़ में की है:-
“अर्बाब-ए-बसीतर पर मख़्फ़ी नहीं है कि लमआ’त एक क़तरा सहाब-ए-फ़ैज़ का है, जो दरिया-ए-मा’रिफ़त से शैख़ बहाउद्दीन ज़करिया क़ुद्दिसल्लाहु सिर्रहुल-अ’ज़ीज़ के फ़ख़्रुद्दीन की ज़बान पर टपका”।
ये किताब फ़ुसूसुल-हिकम के तर्ज़ पर लिखी गई है और इसमें भी फ़ुसूस की तरह अट्ठाइस फ़स्लें हैं।मय-ख़ाना के मुअल्लिफ़ का ख़याल है कि-
“लमआ’त ब-हक़ीक़त लुब्ब-ए-फ़ुसूस अस्त”।
यहाँ के क़ियाम के ज़माना में अमीर मुई’नुद्दीन हज़रत शैख़ फ़ख़्रुद्दीन इ’राक़ी के बे-हद मो’तक़िद हो गया था।उसका इसरार था कि वो कोई जगह इंतिख़ाब कर के अपने लिए ख़ानक़ाह बना लें।पहले तो उन्होंने इसको पसंद न किया लेकिन फिर तोक़ात में ख़ानक़ाह बनवा ली।एक बार अमीर मुई’नुद्दीन कुछ नक़्द रक़म ले कर उनकी ख़िदमत में हाज़िर हुआ।मगर उन्होंने उसको क़ुबूल करने से इंकार किया।अमीर मुई’नुद्दीन ने शिकस्ता-ख़ातिर होकर कहा कि आप मुझसे न कोई ख़िदमत लेते हैं और न मेरी तरफ़ इल्तिफ़ात फ़रमाते हैं।शैख़ ने हंस कर जवाब दिया कि
“ऐ अमीर मा रा ब-ज़र नमी-तवाँ फ़रेफ़्त”।
तबीअ’त में वारफ़्तगी थी और उस वारफ़्तगी के आ’लम में बा’ज़ औक़ात उनके हरकात-ओ-आ’माल अर्बाब-ए-ज़ाहिर के लिए ना-पसंदीदा हो जाते थे।एक रोज़ अमीर मुई’नुद्दीन उनकी क़ियाम-गाह पर आया तो उनको वहाँ न पाया।उनकी तलाश में बाहर निकला तो देखा कि कुछ लड़के उनके गले में रस्सी डाल कर उनको इधर उधर दौड़ा रहे हैं।बा’ज़ लोगों ने शैख़ इ’राक़ी की इस हरकत पर तंज़ भी किया।लेकन अमीर मुई’नुद्दीन ने तंज़-ओ-तश्नीअ’ पर तवज्जोह न की, और शैख़ की मई’यत में उनकी क़ियाम-गाह पर वापस आया। इसी तरह एक रोज़ शैख़ अपनी क़ियाम-गाह से बाहर गए तो दो दिन तक वापस न आए।अमीर मुई’नुद्दीन हर तरफ़ आदमी दौड़ाए, लेकिन उनका कहीं पता न चला।तीसरे रोज़ ख़बर मिली की वो पहाड़ के दामन में मुक़ीम हैं।अमीर मुई’नुद्दीन अपने साथियों के हमराह वहाँ पहुँचे तो शैख़ की अ’जीब कैफ़ियत देखी।वो बरहना-पा और बरहना सर बर्फ़ के तोदों पर रक़्स कर रहे थे।उनके जिस्म से पसीना जारी था और उसी जज़्ब के आ‘लम में अश्आ’र कहते जाते थे, जिन में से एक शे’र ये हैः-
दर जाम-ए-जहां-नुमा-ए-अव्वल
शुद नक़्श हमः जान मुमस्सल
बड़ी मुश्किल से शहर की तरफ़ मुराजअ’त करने के लिए रज़ा-मंद हुए।थोड़े ही अ’र्सा के बा’द अमीर मुई’नुद्दीन के बुरे दिन आ गए। अर्बाब-ए-सल्तनत उससे बर-गश्ता हो गए और हुकूमत की तरफ़ से उसकी अम्लाक ज़ब्त कर ली गई।उसको अपनी ज़िंदगी की ख़ातिर शहर भी ख़ामोशी से छोड़ देना पड़ा।मगर जब वो शहर से जाने लगा तो रात को शैख़ की ख़िदमत में हाज़िर हुआ और जवाहरात का एक ज़ख़ीरा पेश कर के गुज़ारिश की कि इसको जिस तरह चाहें ख़र्च करें। मगर मेरा लड़का मिस्र में मुक़यय्द है, अगर मुम्किन हो तो उसकी रिहाई की कोशिश करें।उसको रिहा करा कर अपने पास रखें, और उसको एक लम्हा के लिए भी अपने से जुदा न करें। उसको अपना पुराना ख़िर्क़ा पहनाएं और उसको मौक़ा’ न दें कि वो उस ख़िर्क़ा को ज़ाए’ करे।अमीर ये बातें कहते वक़्त अश्क-बार हो रहा था ।ख़ुद शैख़ पर भी गिर्या तारी था।बिल-आख़िर शैख़ के पाँव का बोसा देकर वो रुख़्सत हो गया और शैख़ ने जवाहरात को ब-तौर-ए-अमानत अपने पास रख लिया।
अमीर मुई’नुद्दीन की मा’ज़ूली के बा’द उस इ’लाक़ा की निगरानी ख़्वाजा शम्सुद्दीन के सुपुर्द की गई।उसकी मई’यत में मौलाना अमीनुद्दीन भी तशरीफ़ लाए।तोक़ात, पहुँच कर मौलाना अमीनुद्दीन शैख़ फ़ख़्रुद्दीन इ’राक़ी से भी मिलने आए।दोनों बड़ी गर्म-जोशी से एक दूसरे से मिले और जब सैर-ओ-सुलूक पर गुफ़्तुगू शुरूअ’ हुई, तो दोनों ऐसे मह्व हुए कि रात का काफ़ी हिस्सा गुज़र गया। फिर भी दोनों की तिशनगी बाक़ी रही।यहाँ तक की तीन दिन गुज़र गए। चौथे रोज़ मौलाना अमीनुद्दीन ख़्वाजा शम्सुद्दीन से मिले, तो मुअख़्ख़रुज़्ज़िक्र ने तीन दिन की मुफ़ारक़त की शिकायत कर के अपने मलाल का इज़हार किया।मौलना अमीनुद्दीन ने ख़्वाजा शम्सुद्दीन की दिल-जोई कर के फ़रमाया की शैख़ फ़ख़्रुद्दीन इ’राक़ी की सोहबत में था और उनसे ऐसी बातें सुनीं जो किसी से उ’म्र भर न सुनी थीं।उनकी सोहबत में तीन साल रहता या तमाम ज़िंदगी रहने का मौक़ा’ मिल जता, तो भी उनकी मुफ़ारक़त गवारा न करता।मौलाना अमीनुद्दीन की इस अ’क़ीदत-मंदी को सुन कर ख़्वाजा शम्सुद्दीन को भी शैख़ फ़ख़्रुद्दीन इ’राक़ी से मिलने का इश्तियाक़ हुआ, और उनको लाने के लिए ख़िल्अ’त के साथ एक ऊँट भेजा। शैख़ फ़ख़्रुद्दीन इ’राक़ी जब क़रीब पहुँचे तो ख़्वाजा शम्सुद्दीन मुअ’ज़्ज़ज़ लोगों के साथ उनके इस्तिक़बाल के लिए गया।शैख़ ने मौलाना अमीनुद्दीन को देख कर कहा “इन हिया इल्ला-फ़ित्नतुका” या’नी मुझ को यहाँ बुला भेजने में तुम्हारा ही फ़ित्ना है।ख़्वाजा शम्सुद्दीन उनसे बड़ी ता’ज़ीम के साथ पेशा आया और जब सुलूक पर गुफ़्तुगू शुरूअ’ हुई, तो शैख़ की गुफ़्तुगू में इतनी तासीर और गर्मी थी की ख़्वाजा शम्सुद्दीन की आँखों से बहुत देर तक बे-इख़्तियार आँसू जारी रहे।
कुछ ही अ’र्सा के बा’द हासिदों ने अर्बाब-ए-हुकूमत से मुख़्बिरी की कि अमीर मुई’नुद्दीन की सारी दौलत शैख़ फ़ख़्रुद्दीन इ’राक़ी के पास जम्अ’ है।मगर उनकी गिरफ़्तारी से पहले ख़्वाजा शम्सुद्दीन ने उनको इसका मौक़ा’ दिया कि वो तोक़ात छोड़ कर कहीं और मुंतक़िल हो जाएं।चुनाँचे वो अमीर मुई’नुद्दीन की अमानत लेकर दो आदमियों के साथ यसरिब की तरफ़ रवाना हो गए और वहाँ से मिस्र पहुँचे।यहाँ ख़ानक़ाह-ए-सालिहिया में क़ियाम कर के अमीर मुई’नुद्दीन के लड़के की रिहाई की तदबीरें कीं।मगर कोई सूरत कार-गर नहीं हुई, तो सुल्तान मिस्र के दरबार के दरवाज़े पर पहुँचे। हाजिबों ने पहले रोका, मगर फिर अंदर जाने की इजाज़त दे दी। सुल्तान को देख कर सलाम किया और अमीर मुई’नुद्दीन की अमानत उसके सामने रख कर खड़े हो गए।सुल्तान ने उनको देख कर महसूस किया कि वो कोई आ’ला-पाया के बुज़ुर्ग हैं।चुनाँचे उसने उनको इ’ज़्ज़त से बिठाया, औऱ जवाहरात की गठरी की तरफ़ इशारा कर के पूछा कि इस में क्या है।हज़रत शैख़ फ़ख़्रुद्दीन इ’राक़ी ने जवाब दिया कि अमानत है।सुल्तान नु उसको खोलने का हुक्म दिया और बेश-बहा जवाहरात देख कर मुतहय्युर हुआ।मज़ीद तफ़्सील पूछी तो शैख़ फ़ख़्रुद्दीन इ’राक़ी ने सारी बातें बताईं।सुल्तान को तअ’ज्जुब हुआ कि इन्हों ने जवाहरात को मेरे सामने लाकर तोहफ़ा के तौर पर हाज़िर कर दिया है और अपने लिए इनको पसंद नहीं किया।शैख़ को नूर-ए-बातिन से सुल्तान के इस तअ’ज्जुब का कश्फ़ हो गया। चुनाँचे उसी वक़्त कलाम-ए-पाक की इस आयत क़ुल-मताउ’द्दुनिया क़लीलुन-वल-आख़िरतु-लि-मनित्तक़ा,व-लातुज़्ल-मू-न-फ़तीला- की तफ़्सीर बयान फ़रमाई।सुल्तान उनकी तक़रीर से मुतअस्सिर हो कर अपनी मस्नद से नीचे उतर आया और शैख़ के सामने मुअद्दब हो कर बैठ गया, और उनकी बातें सुनता रहा, और हर बात पर रोता था।कहा जाता है कि सुल्तान उस रोज़ इतना रोया कि तमाम उ’म्र न रोया था। (मय-ख़ाना सफ़हा 43)।
उसी रोज़ सुल्तान ने अमीर मुई’नुद्दीन के लड़के को क़ैद से रिहा करने का हुक्म जारी किया और उसके साथ बहुत ही लुत्फ़-ओ-करम से पेश आया।ग़ायत-ए-अ’क़ीदत में उसने हज़रत शैख़ फ़ख़्रुद्दीन इ’राक़ी को सल्तनत का शैख़ुश्शुयूख़ बनाने का इरादा ज़ाहिर किया। दूसरे दिन उस मंसब के अ’ता करने की तक़रीब में तमाम सूफ़िया-ओ-उ’लमा और अकाबिर-ए-सल्तनत को मद्ऊ’ किया।उस दा’वत पर दरबार में छे हज़ार सूफ़िया जम्अ’ हुए, और बड़े ए’ज़ाज़ के साथ शैख़ फ़ख़्रुद्दीन इ’राक़ी को ख़िल्अ’त और तैलीसान पहनाया गया। उसके बा’द एक जुलूस मुरत्तब किया गया, जिसमें सिर्फ़ शैख़ फ़ख़्रुद्दीन इ’राक़ी घोड़े पर सवार थे और बाक़ी तमाम सूफ़िया, उ’लमा, और उमरा उनके रिकाब में पा-पयादा थे।शैख़ ने अपनी ये अ’ज़्मत और तौक़ीर देखी तो उन्होंने अपने नफ़्स का इस्तीला और ग़लबा महसूस किया।इसलिए इज़्तिरारन तैलीसान और दस्तार उतार कर घोड़े की ज़ीन के आगे रख ली।कुछ देर रह कर फिर दस्तार को सर पर रख लिया।हाज़िरीन ये देख कर हंसे और आपस में कहने लगे कि ऐसा दीवाना और मस्ख़रा आदमी शैख़ुश्शुयूख़ के मंसब के लिए क्यूँकर मौज़ूँ हो सकता है।वज़ीर ने शैख़ से पूछा या शैख़ लिमा-फ़अ’ल्-त-हाज़ा-(ऐ शैख़ आपने ऐसा क्यूँ किया) शैख़ ने जवाब दिया।व-अन्ता-मा-तारिफ़ुल-हाल (आपको हाल से वाक़फ़ियत नहीं) और जब सुल्तान को इसकी ख़बर मिली तो शैख़ को बुलाकर इस वाक़िअ’ के मुतअ’ल्लिक़ इस्तिफ़्सार किया।शैख़ ने जवाब दिया कि “नफ़्स बर मन मुस्तूवल्ली शुदः-बूद, अगर चुनीं न-कर्दमे ख़लास न-याफ़्तमे, बल्कि दर उ’क़ूबत ब-मांदमे”
इस जवाब को सुन कर सुल्तान का अ’क़ीदा और भी बढ़ गया, और शैख़ के वज़ीफ़ा में मज़ीद इज़ाफ़ा कर दिया।मगर शैख़ की तबीअ’त की बे-क़रारी और मज़ाज की आशुफ़्तगी ब-दस्तूर-ए-साबिक़ क़ाएम रही।वो बाज़ारों सड़कों और गलियों में बिला-तकल्लुफ़ घूमते नज़र आते थे और इस बे-तकल्लुफ़ी में उनसे बा’ज़ ऐसी बातें सर-ज़द हो जातीं जो दरवेशी के लिए ना-मौज़ूँ होतीं फिर भी उनसे लोगों की अ’क़ीदत-मंदी क़ाएम रही।सुल्तान ने हुक्म दे रखा था कि वो उसके पास जिस वक़्त भी तशरीफ़ लाना चाहें, उनकी मुज़ाहमत न की जाए।चुनाँचे अगर वो हरम या ख़्वाब-गाह में भी होता तो भी फ़ौरन क़दम-बोसी के लिए हाज़िर हो जाता।कुछ रोज़ के बा’द शैख़ की तबीअ’त मिस्र से घबरा गई, तो दमिश्क़ की तरफ़ जाने का क़स्द किया।सुल्तान ने रोकना चाहा, मगर वो उठ खड़े हुए।उस के बा’द सुल्तान ने शाम के मलिकुल-उमरा को उनके इस्तिक़बाल और पज़ीराई के लिए लिखा।चुनाँचे उसने तमाम उ’लमा-ओ-मशाइख़ के साथ उनका पुर-जोश ख़ैर-मक़दम किया।(मय-ख़ाना सफ़हा 46)
वफ़ातः-
यहाँ उनके क़ियाम के छ: महीने के बा’द उनके फ़रज़ंद शैख़ कबीरुद्दीन हिन्दुस्तान से मिलने आए।साहिबज़ादे के आने के कुछ दिनों के बा’द उनके चेहरे पर दमवी वरम ज़ाहिर हुआ जिससे वो पाँच रोज़ तक सो न सके।और यही आ’रिज़ा उनके लिए मरज़ुल-मौत साबित हुआ।मौत के वक़्त शैख़ कबीरुद्दीन को पास बुलाया, और आयत पढ़ी।
यौम-यफ़िर्रुल-मरउ-मिन-अख़ीहि-व-उम्मिहि व-अबीहि-व-साहिबतिहि-व-बनीहि लि-कुल्लिम-रिइम-मिनहुम-यौमइज़िन शानुंयुग़नीहि (अ’बस)
जिस रोज़ ऐसा आदमी अपने भाई से और अपनी माँ से और अपने बाप से और अपनी बीवी से और अपनी औलाद से भागेगा, उनमें हर शख़्स को ऐसा मश्ग़ला होगा जो उसको और तरफ़ मुतवज्जिह होने देगा।
फिर एक रुबाई’ कही और उसके बा’द कलिमा-ए-तय्यिबा पढ़ते हुए आ’लम-ए-जाविदानी को सिधारे।वफ़ात के वक़्त सिन्न-ए-शरीफ़ अट्ठासी साल था।मय-ख़ाना और नफ़हातुल-उन्स में साल-ए-वफ़ात सन 688 हिज्री है।तारीख़-ए-गुज़ीदा में सन 688 हिज्री और तज़्किरा-ए-दौलत शाह में सन 709 हिज्री है।मगर अव्वलुज़्ज़िक्र सन ही सही समझा गया।उनके मज़ार-ए-मुबारक के मुतअ’ल्लिक़ नफ़हातुल-उन्स में है-
“व-क़ब्र-ए-वय दर क़िफ़ा-ए-मर्क़द-ए-शैख़ मुहीउद्दीन बिन अल-अ’रबी अस्त क़ुद्दिसल्लाहु तआ’ला रूहमा, दर सालिहिया, दमिश्क़-ओ-क़ब्र-ए-फ़रज़ंद-ए-वय कबीरुद्दीन दर पहलू-ए-क़ब्र-वय रहमतुल्लाहि तअ’ला अ’लैह”।
तज़्किरा-ए-दौलत शाह में है-
व-मर्क़द-ए-मुबारकश दर जब्ल-ए-सालिहिया अस्त-ओ-दर क़दम –ए-हज़रत-ए-क़ुद्वतुल-आ’रिफ़ीन शैख़ुश्शुयूख़ अल-आ’लम हादियुल-ख़लाइक़ वल-उमम शैख़ मुहीउद्दीन बिन अल-अ’रबी आसूदः अस्त”।
सियरुल-आ’रिफ़ीन में हैः-
“क़ब्र उनकी बराबर मज़ार शैख़ मुहीउद्दीन अ’रबी के है।चुनाँचे फ़क़ीर जमाली भी वहाँ जाकर ज़ियारत से फ़ैज़याब हुआ है।मोहल्ला-ए- शमहूर सालिहिया दमिश्क़ में मज़ार उनका वाक़े’ है, और उस दयार के ज़ाइर दोनों मज़ारों की निस्बत अल्फ़ाज़ से यूँ करते हैं कि हाज़ा बहरुल-अ’रब या’नी ये क़ब्र शैख़ मुहीउद्दीन अ’रबी की, समुंदर पर फ़ैज़ अ’रब शरीफ़ का है, और निस्बत क़ब्र शैख़ मौलाना फ़ख़्रुद्दीन की कहते हैं, हाज़ा बहरुल-अ’जम या’नी ये समुंदर अ’जम का है, बड़ा फ़ैज़ पहुँचाने वाला, और क़ब्र शैख़ औहदुद्दीन किर्मानी की भी इसी मो’तबर जगह पर है”।
सफ़ीनतुल-औलिया में है
क़ब्र-ए- ईशां दर क़िफ़ा-ए-क़ब्र-ए-शैख़ मुहीउद्दीन अल-इ’राक़ी अस्त दर सालिहिया दमिश्क़”।
तसानीफ़ः-
हज़रत शैख़ फ़ख़्रुद्दीन इ’राक़ी की तसानीफ़ में लमआ’त के अ’लावा एक मस्नवी और एक दीवान भी है।मस्नवी का नाम ब्रिटिश म्यूज़ियम के फ़ारसी मख़तूतात की फ़िहरिस्त में उ’श्शाक़-नामा दर्ज है।मय-ख़ाना में मस्नवी का नाम मरक़ूम नहीं है लेकिन उसका ज़िक्र इन अल्फ़ाज़ में हैः-
“मस्नवी ब-तर्ज़-ए-हदीक़ः ब-रिश्ताः-ए-नज़्म दर आवुर्दः,दर आँ मियान ग़ज़ल गोई फ़र्मूदः”।
और इसी के साथ उस में मस्नवी के कुछ अश्आ’र भी मंक़ूल हैं, जो हम हदिया-ए-नाज़िरीन करते हैं:
अज़ इ’राक़ी सलाम बर-उ’श्शाक़
आँ जिगर ख़स्तगान-ए-तीर-ए-फ़िराक़
महरमान-ए-सिर्र चे-इ क़ुदसी
लौह-ख़्वानान-ए-सिर्र न कुर्सी
सालिकान-ए-तरीक़:-ए-उ’लिया
राह-दारान-ए-जाद:-ए-सुफ़्ला
बादशाहान-ए-तख़्त-ए-रूहानी
ग़ोतः-ख़ोरान-ए-बहर-ए-नूरानी
शाहबाज़ान दर क़फ़स माँदः
पेश-बीनान बाज़ पस माँदः
अज़ हुदूद-ए-वजूद गुम-गश्तः
दर उ’क़ूल-ओ-नुफ़ूस ब-गुज़श्तः
हमचू परवानः ज़े-इश्तियाक़-ए-रुख़श
ख़्वेशतन रा फ़िगंदः दर आतश
दर रह-ए-दोस्त पा ज़े-सर कर्दः
अबजद-ए-इ’श्क़ रा ज़ेर कर्दः
चूँ ज़े कुत्ताब–ए-दहर जीफ़ः शुदः
बर सरीर-ए-सफ़ा ख़लीफ़ः शुदः
यार-ए-ख़ुद दीदः दर पस-ए-पर्दः
तन-ब-जाँ मांदः जाँ फ़िदा कर्दः
मय न-ख़ुर्दः शुदः ब-बू-ए-मस्त
दोस्त-ए-ना-दीदः दिल ब-दादः ज़े-दस्त
ब-रह-ए-यार मुंतज़िर मांदः
नमक-ए-शौक़ बर दिल अफ़्शांदः
बार-ए-मेहनत कशीदः चूँ अय्यूब
ज़हर-ए-फ़ुर्क़त चशीदः चूँ या’क़ूब
नज़र-ए-जान ज़े-जिस्म ब-गुसस्तः
सिद्क़-ए-मीआ’द बाज़ दानिस्तः
कर्दः अज़ जान ब-सू-ए-कूयश रूए
लैस-फ़ी जैबी सिवल्लाह गूए
जान-ए-अनल-हक़ ज़नान-ओ-तन-बरदार
फ़ारिग़ अज़ जन्नत–ओ-गुज़श्त: ज़े-नार
अ’लम-ए-इत्तिहाद बर बस्तः
लश्कर-ए-आज़-ओ- ख़शम ब-शिकस्तः
बुन-ओ-बीख़-ए-ख़याल बर-कंदः
गश्तःआज़ाद हम-चुनाँ बंदः
मौलाना शिब्ली शे’रुल-अजम जिल्द पंजुम (सफ़हा 128) में रक़म-तराज़ हैं कि शैख़ इ’राक़ी की एक मस्नवी का नाम दह फ़स्ल है, जो उनकी नज़र से नहीं गुज़री, लेकिन उसके हसब-ए-ज़ैल चंद अश्आ’र रियाज़ुल-आ’रिफ़ीन से नक़ल किए हैः
अज़ जमालत नमी-शकेबद दिल
मी-बरद अ’क़्ल-ओ-मी-फ़रेबद दिल
आ’शिक़ान-ए-तू पाक-बाज़ानंद
सैद-ए-इ’श्क़ तू शाहबाज़ानंद
फ़ारग़ी अज़ दरून-ए-साहिब-ए-दर्द
ब-कुन ऐ दोस्त हर चे ब-तवाँ कर्द
इ’श्क़-ओ-औसाफ़-ए-किर्दगार यके अस्त
आ’शिक़े-ओ-इ’श्क़-ओ-हुस्न-ए-यार यके अस्त
दीवान में क़सीदों और ग़ज़लों के हज़ारों अश्आ’र हैं।उनके आ’रिफ़ना अश्आ’र की दाद हर ज़माना में मिली है।मुल्ला जामी नफ़हातुल-उन्स में रक़म-तराज़ हैं :
“वय साहिब-ए-किताब-ए-लमआ’तस्त-ओ-दीवान-ए-शे’र-ए-वय मशहूर अस्त”।
तज़्किरा-ए-दौलत-ए-शाही में हैः-
“सुख़नान-ए-पुर-शोर-ओ-आ’रिफ़ानः दारद,दर वज्द-ओ-हाल बे-नज़ीर –ए-आ’लम बूदः-ओ-मुवह्हिदान-ओ-आ’रिफ़ान-ए-सुख़न ऊ रा मो’तक़िदंद”। (सफ़हा 215)
सियरुल-आ’रिफ़ीन के मुअल्लिफ़ का बयान है,
“और नीज़ अक्सर क़साएद-ओ-मदाएह ख़ूब-ओ-मर्ग़ूब अपने पीर-ए-बे-नज़ीर शैख़ बहाउद्दीन ज़करिया की सिफ़त-ओ-सना में फ़ख़्रुद्दीन मरहूम ने लिखे हैं (जिल्द 1 सफ़हा 24)
मख़्ज़नुल-ग़राएब में है,
“सुख़नान-ए-पुर-शोर-ओ-आ’शिक़ानःबिस्यार वय रा अस्त”। (क़लमी नुस्ख़ा दारुल-मुसन्निफ़ीन)
उनका दीवान छप गया है।ग़ज़लों के कुछ अश्आ’र और रुबाइ’यात मुलाहज़ा हों:
बिया ऐ दीदः ता यक-दम ब-गिर्यम
नयम चूँ ख़ुश-दिल-ओ-ख़ुर्रम ब-गिर्यम
गहे अज़ दर्द-ए-बे-दर्मां ब-नालेम
गहे अज़ ज़ख़्म-ए-बे-मर्हम ब-गिर्यम
न-शुद जाँ महरम-ए-असरार-ए-जानाँ
बराँ महरूम-ए-ना-महरम ब-गिर्यम
इ’राक़ी रा कनूँ मातम ब-दारेम
बराँ मिस्कीं दरीं मातम ब-गिर्यम
**
चे कर्दःअम कि दिलम अज़ फ़िराक़ ख़ूँ कर्दी
चे उफ़्ताद कि दर्द-ए-दिलम फ़ुज़ूँ कर्दी
हमःहदीस-ए-वफ़ा-ओ-विसाल मी-गुफ़्ती
चे आ’शिक़-ए-तू शुदम क़िस्सः बाज़-गूँ कर्दी
ब-सोख़्ती दिल-ओ-जानम गुदाख़्ती जिगरम
ब-आतिश-ए-ग़मत अज़ बस कि आज़मूं कर्दी
सियाहरूए दो-आ’लम शुदम कि दर ख़ुम-ए-फ़क़्र
गलीम-ए-बख़्त-ए-‘इ’राक़ी’ सियाह-गूँ कर्दी
**
दस्त अज़ दिल-ए-बे-क़रार शुस्तम
वंदर सर-ए-ज़ुल्फ़-ए-यार बस्तम
बे-दिल शुदम-ओ-जाँ ब-यक बार
चूँ तुर्रः-ए-यार बर शिकस्तम
गोयंद चे गूनः-इ चे गोयम
हस्तम ज़े-ग़मश चुनाँ कि हस्तम
साक़ी क़दहे कि अज़ मय-ए-इ’श्क़
चूँ चश्म-ए-ख़ुश-ए-तू नीम मस्तम
दर दाम-ए-बला उफ़्तादः बूदम
हम तुर्र-ए-ऊ गिरफ़्त दस्तम
शुद नौबत-ए-ख़्वेशतन परस्ती
आमद गह आँ कि मय-परस्तम
फ़ारिग़ शवम अज़ ग़म-ए-इ’राक़ी
अज़ ज़हमत-ए-ऊ चू बाज़ रस्तम
दर मय-कदः मी-कशम सबूए
बाशद कि ब-याबम अज़ तू बूए
रुबाई’
ऐ दोस्त अल-ग़ियास कि जानम ब-सोख़्ती
फ़रियाद कज़ फ़िराक़ रवानम ब-सोख़्ती
दानम कि सोख़्ती ज़े-ग़म-ए-इ’श्क़ ख़ुद मरा
लेकिन न-दानम ईं कि चिसानम ब-सोख़्ती
**
रुबाई’
गुल सुब्ह-दम अज़ बाद बर आशुफ़्त-ओ-बरेख़्त
बा-बाद-ए-सबा हिकायते गुफ़्त-ओ-बरेख़्त
बद-अ’हदी-ए-उ’म्र बीं कि गुल दर दह रोज़
सर बर ज़द-ओ-ग़ुंचः कर्द-ओ-ब-शगुफ़्त-ओ-बरेख़्त
रुबाई’
यारब तू ब-ख़ुद मरा तवंगर गरदां
वज़ हर चेः ख़बर अज़ तुस्त दिलम बर गरदां
आमेख़्तः शुद मिस-ओ-ग़िल बा-नक़्दम
आख़िर नज़रे मिस रा ज़र गरदां
मौलाना शिब्ली शे’रुल अ’जम (हिस्सा पंजुम सफ़हा 129) में रक़म-तराज़ हैं कि शैख़ इ’राक़ी अक्सर वहदत-ए-वजूद के मस्अला को साफ़ तमसीलों में अदा करते हैं।मस्लन
इ’श्क़ शोरे दर निहाद-ए-मा निहाद
जान-ए-मा दर बूत:-ए-सौदा निहाद
गुफ़्तुगूए दर ज़बान-ए-मा फ़िगंद
जुस्तुजूए दर दरून-ए-मा निहाद
दम ब-दम दर हर लिबासे रुख़ नमूद
लहज़: लहज़ः पाए दीगर पा निहाद
बर मिसाल-ए-ख़्वेशतन हर्फ़े नविश्त
नाम-ए-आं हर्फ़ आदम-ओ-हव्वा निहाद
हम ब-चश्म-ए-ख़ुद जमाल-ए-ख़ुद ब-दीद
तोहमते बर-चश्म-ए-ना-बीना निहाद
ये ग़ज़ल उनकी मशहूर-ए-आ’म है और हाल-ओ-क़ाल के जल्सों में गाई जाती है।
ब-ज़मीं चू सज्दः कर्दम ज़े-ज़मीं निदा बर आमद
कि मरा ख़राब कर्दी तू ब-सज्दः-ए-रियाई
चू बराह-ए-का’ब: रफ़्तम ब-हरम रहम न-दादंद
कि बेरून-ए-दर चे कर्दी कि दरून-ए-ख़ानः आई
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