Sufinama

क़व्वाली और अमीर ख़ुसरो – अहमद हुसैन ख़ान

सूफ़ीनामा आर्काइव

क़व्वाली और अमीर ख़ुसरो – अहमद हुसैन ख़ान

सूफ़ीनामा आर्काइव

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    क्या क़व्वाली, मौसीक़ी, गाना बजाना और साज़-ओ-मज़ामीर से हज़ उठाना इस्लामी रू से मम्नूअ’ है? इस मस्अला के तज्ज़िया और तहक़ीक़ी की ज़रूरत है। इसके साथ साथ इम्तिनाई’ अहकाम-ए-शरअ’ की तदवीन में जिन उसूल को पेश-ए-नज़र रखा गया है उनकी वज़ाहत भी ज़रूरी है। फिर ये तअ’य्युन करना होगा कि अया वाक़ई’ गाने बजाने को इस्लाम ने मन्अ’ किया है या इस क़ाइ’दा के तहत कुछ मुस्तस्नियात भी हैं। क़व्ववाली के लफ़्ज़ी मा’नी क्या हैं ? क़ुरआन और उ’लमा-ए-इस्लाम ने क़ौल के क्या मा’नी लिए हैं और मौसीक़ी के माहौल में क़व्वाली से क्या मुराद है? इन सारे उमूर के बा’द मौसीक़ी के चंद सत्ही मा’लूमात भी ज़रूरी हैं ताकि उनकी रौशनी में हम अंदाज़ा कर सकें कि मौसीक़ी और उसके कौन से शो’बे किन हालात में हमारे लिए मंफ़अ’त-बख़्श या नुक़सान-रसाँ हैं ? इस मज़मून में हर एक पर यके बा’द दीगरे इज़्हार-ए-ख़याल किया जाएगा। इन मबाहिस के अ’लावा एक अहम-तरीन सवाल ये हल तलब रह जाता है कि अमीर ख़ुसरो का मज़हब क्या था और उनके अपने रुजहानात के लिहाज़ से वो किस मस्लक के पैरव साबित होते हैं ?

    इस्लामी शरअ’ का माख़ज़ अव्वलन क़ुरआन और सानियन अहादीस-ए-नबवी है। क़ुरआन में सौत-ओ-अस्वात का ज़िक्र उ’मूमन ख़ूबियों और भलाइयों के साथ किया गया है और अफ़्आ’ल-ए-क़बीह की सरीहन मुमानअ’त की गई है। जिन उ’लमा ने गाने बजाने को हराम क़रार दिया है वो ज़ियादा से ज़ियादा इस एक आयत को पेश कर सकते हैं।

    मिनन्नास मय्यशतरी लह्वलहदीसि-लि-युज़िल्-ल अ’न सबीलिल्लाह बिग़ैरि-इ’ल्मिन (सूरा-ए-लुक़्मान)

    (जो लोग फ़ुज़ूल बात ख़रीदते हैं कि अल्लाह की राह से भटका दें, ब-ग़ैर वाक़फ़ियत के)

    इस पर सितम-ज़रीफ़ी ये कि लि-युज़िल्-ल अ’न सबीलिल्लाह को हज़्फ़ करते हैं हालाँकि उसमे लग़्व बातों से इज्तिनाब करने का इशारा है। क़व्वाली और मौसीक़ी की तो मुमानअ’त नहीं है जो आ’म तौर पर अ’रब में ज़िंदा-दिली, ख़ुशी और इज़हार-ए-जोश-ओ-ख़रोश के मौ’क़ों पर अकेले या कोरस के साथ गाई जाती है और जिनकी हम-नवाई मुरव्वजा चंग-ओ-दफ़ से हुआ करती थी।किसी तफ़्सीर में किसी मुहक़्क़िक़ फ़ाज़िल ने ये नहीं बताया कि ये आयत राग के हराम होने की बाबत है।गाने की हुर्मत का इस आयत से इस्तिदलाल इसलिए भी सहीह नहीं कि ये नस्र बिन हारिस के हक़ में नाज़िल हुई थी जो फ़ारस से क़दीम सियर-ओ-तवारीख़ की किताबें लाकर तर्जुमा के साथ कहा करता कि ये क़ुरआन से बेहतर है।

    इसके बा’द अहादीस में गाने की हुर्मत की तलाश इसलिए बे-सूद है कि क़ुरआन में इसके मुतअ’ल्लिक़ कहीं मुमानअ’त नहीं बल्कि अहादीस से तो ख़ुश-इल्हानी,अश्आ’र को तरन्नुम से पढ़ने और आवाज़ में आवाज़ मिलाने की मुतअ’द्दिद शहादतें मिलती हैं।हुज़ूर सल्लल्लाहु अ’लैहि वस्ल्लम ने फ़रमाया है ‘फ़स्लुन मा-बैनल हलालि-वल-हरामि अद्दुफ़ वस्सौत (तिर्मिज़ी शरीफ़) हज़रत अबू बकर (रज़ियल्लाहु अ’न्हु) ने गाने वाली लड़कियों को रोका तो नबी अकरम सल्लल्लाहु अ’लैहि वस्ल्लम ने हज़रत सिद्दीक़ को बाज़ रहने को कहा और फ़रमाया कि उनको गाने दो, आज कल ई’द के दिन हैं। (बुख़ारी-ओ-मुस्लिम) सीरतुन्नबी में अ’ल्लामा शिब्ली ने मस्जिद-ए-नब्वी की ता’मीर का ज़िक्र करते हुए लिखा कि पैग़म्बर-ए-ख़ुदा सल्लल्लाहु अ’लैहि वस्ल्लम भी सब के साथ ये रज्ज़ पढ़ते जाते थे।

    अल्ला-हुम्मा ला-ख़ै-र इल्ला ख़ैरल-आख़िरह

    फ़ग़्फ़िरिल-अन्सा-र वल-मुहाजिरह

    अल-फ़ारूक़ में हज़रत उ’मर (रज़ियल्लाहु अ’न्हु) के मुतअ’ल्लिक़ लिखा है हि अ’ब्दुल्लाह बिन अ’ब्बास से वो रात भर अश्आ’र पढ़वाते रहे और जब सुब्ह हुई तो क़िर्अत-ए-क़ुरआन की फ़रमाइश की। हज़रत उ’स्मान (रज़ियल्लाहु अ’न्हु) को रिबाह गाना सुनाया करते थे। हज़रत अ’ली (रज़ियल्लाहु अ’न्हु) जमीला गाने वाली के हाँ गाना सुनने तशरीफ़ ले जाया करते थे।एक दफ़्आ’ किसी ख़ेमे से गाने की आवाज़ आई तो हज़रत अ’ली कर्रमल्लाहु वज्हहु ने मुकर्र गाने की फ़रमाइश की ता-आँकि आप पर गिर्या तारी हो गया।

    हर चहार अइम्मा, इमाम ग़ज़ाली, मौलाना रूम, मौलाना जामी, मुहिउद्दीन इब्न-ए-अ’रबी, शहाबुद्दीन सुहरवर्दी हत्ता कि हज़रत बहाउद्दीन नक़्शबंदी ने भी गाने के जवाज़ में अपनी राय ज़ाहिर फ़रमाई है।

    मुश्ते नमूना अज़ ख़रवारे, इन हवालों के अ’लावा मुतअ’द्दिद वाक़िआ’त गाने के जवाज़ में मिलते हैं।फिर ये बात आ’म तौर पर क्यूँ मशहूर है कि गाना शरअ’न मम्नूअ’ है। इसका तअ’ल्लुक़ तदवीन-ए-अहकाम-ए-शरई’ से है।फ़िक़्ह ने जहाँ गुनाह-ए-कबीरा-ओ-सग़ीरा की मज़म्मत की है और उनसे बाज़ रहने का हुक्म दिया है, वहाँ उन बातों से भी रोका है जो फ़ि-नफ़्सिही गुनाह तो नहीं हैं मगर गुनाह की तरफ़ माएल करती हैं। चूँकि मौसीक़ी से सुरूर-ओ-कैफ़ियत के अ’लावा जज़्बात में इश्तिआ’ल पैदा होता है और कोताह-ज़र्फ़ तअ’य्यु’श की तरफ़ झुक जाता है इसलिए इस अम्र का फ़क़ीहों को अंदेशा हुआ।गाने वाले उ’मूमन अपनी जिहालत के बा’इस या अ’वाम के मैलानुत्तब्अ’ के मद्द-ए-नज़र ऐसे गाने और रागनियाँ पेश करते है जिनसे नफ़्सानी ख़्वाहिशात उभरते और मुख़र्रिब-ए-अख़्लाक़ अफ़आ’ल की तरफ़ सामिई’न को माएल कर देते हैं चुनाँचे फ़ुक़हा ने गाने की सरीहन मुमानअ’त करने की बजाए उससे बाज़ रहने की हिदायत की है।गाना सुनने के मुक़ाबला में सुनने को तर्जीह दी गई है। इस सिलसिला में मज़ीद वज़ाहत यूँ की कि मज़ामीर के साथ गाना नाजाइज़ क़रार दिया तो यारान-ए-तरीक़त ने भी नए नए हीले बहाने तराशे और ऐसे आलात ईजाद किए कि तरन्नुम का लुत्फ़ दो-बाला हो गाया। यक तारा से लेकर दो-तारा-ओ-सेह तारा बल्कि हफ़्त तारा और ताऊस तक की ईजाद कर डाली। ज़ेर-ओ-बम के लिए दफ़ का तो जवाज़ था ही, तब्ला को उसकी जगह पर ला बिठाया ताकि दो-रुख़ी तबल या ढ़ोलक के जाईज़-ओ-ना-जाइज़ होने का सवाल ही पैदा हो।

    फ़ुक़्हा-ए-इस्लाम ने चूँकि नेक निय्यती से मौसीक़ी पर तहदीदात आ’इद की थीं और फ़न्न-ए-लतीफ़ से शग़फ़ रखने वाले हज़रात उन पाबंदियों को ना-पसंद करते थे इसलिए जवाज़-ए-मौसीक़ी के तीन उसूल मुक़र्र किए गए जिनको इख़्वान, मकान-ओ-ज़मान के नाम दिए गए हैं।अव्वलन ये कि उस महफ़िल में सिर्फ़ ऐसे लोग शरीक हों जो रुजूअ’ इल्लल्लाह हों। उनकी ज़ेहनियत और ग़ौर-ओ-फ़िक्र की सत्ह मुहमलात, लह्व-ओ-लइ’ब से बाला-तर हो। क़्व्वाल ख़ुद भी शरीफ़ुत्तब्अ’,आ’लिम-बा-अ’मल, सालिह और अल्लाह अल्लाह करने वाला हो सानियन महफ़िल-ए-समाअ’ का इंइ’क़ाद ऐसी जगह हो जो दुनियवी बखेड़ो और करामतों से अलग थलग हो और जहाँ कोई ऐसा ना-मुनासिब शग़्ल होता हो जो हुज़ूरी-ए-क़ल्ब और उसके तवज्जोह में हारिज हो। सानियन ये कि उसके लिए ऐसा वक़्त मुक़र्र किया जाए जबकि शोरका-ए-महफ़िल फ़राईज़-ए-दीनी-ओ-दुनियवी से फ़ारिग़ हो कर बिल्कुल इत्मीनान-ए-क़ल्ब के साथ अपने नफ़ी-ओ-इस्बात का जाइज़ा ले सकें। इस तरह यक्सूई के साथ अल्लाह से रास्त रब्त पैदा करने वालों की शान में क़ुरआन फ़रमाता है ‘फ़-बश्शिर इ’बादल-लज़ी-न-यस्तमिऊ’नल-क़ौल फ़-यत्तबिऊ’न अह्सनहु’। (पारा 23) {पस मेरे उन बंदों को ख़ुश-ख़बरी दो जो बात को ब-ख़ूबी सुनते हैं फिर उसकी अच्छाई की इत्तिबाअ’ करते हैं} इस आयत में यस्तमिऊ’न और क़ौल ऐसे अल्फ़ाज़ है जिनसे समाअ’ और क़व्वाली की इस्तिलाहात राइज की गई हैं और उसका मक़्सद भी बताया गया है कि वो नेक और अहसन हैं।

    शरीअ’त का एहतिराम बर-क़रार रख कर एक तरफ़ आलात-ए-मौसीक़ी की तहदीद और दूसरी तरफ़ दस्तूरुल-अ’मल के शराएत मुक़र्र हो जाने के बा’द मौसीक़ी की ऐसी महफ़िल पर नुक्ता-चीनी करना तंग-नज़री और ज़ुह्द-ए-ख़ुश्क की दलील होगी।

    उ’लमा के मुक़र्र इस्तिलाह में नस्स क़ुरआ’न को, ‘हदीस’ हज़रत नबी-ए-करीम सल्लल्लाहु अ’लैहि व-सल्ल्लम के इर्शाद को और ‘क़ौल’ अल्लाह वालों की बात को कहते हैं। यही बातें क़व्वाली में सुनाई जाती हैं इन बातों को ख़ुश-इल्हानी, ख़ूबी,नए अंदाज, तश्बीहात-ओ-इस्तिआ’रात और अश्आ’र की रंगीनी के साथ गाकर सुनाने वाले को क़व्वाल कहते हैं।इस में कमाल-ए-नुदरत और ग़ुलू पैदा करने वाले के लिए तफ़्ज़ील का सेग़ा इस्ति’माल किया गया है।इसीलिए इस तर्ज़-ए-अदा के बाइ’स क़ौल और उसकी हक़ीक़त दिल में उतर जाती है।क़व्वाल के इस अ’मल को क़व्वाली कहा जता है।नीज़ इन नेक और अच्छी बातों के सुनने को ‘समाअ’ कहा जाता है जिनकी बदौलत सामेअ’ याद-ए- ख़ुदावंदी में मुस्तग़रक़ और उसके ध्यान में गुम हो जाता है।ऐसी मज्लिस को महफ़िल-ए-समाअ’ कहतें हैं।

    क़व्वाली, हल्के गाने और फ़न्न-ए-मौसीक़ी में क्या फ़र्क़ है?

    क़व्वाली का मक़्सद दिलचस्प अंदाज़ में अख़्लाक़ संवारने की तल्क़ीन करना है। अख़लाक़ उसी वक़्त सवंरते है जब रूह में जिला पैदा हो और रूह में जिला पैदा करने के लिए जज़्बात पर क़ाबू, एहसासात में तवाज़ुन ज़रूरी है और इन सबका एक मख़लूत-ओ-मुकम्मल तसव्वुर ही इंसानी सूझ-बूझ की मे’राज है। इस के मुख़्तलिफ़ पहलू एक बुलंद-तरीन क़ूव्वत की शुआ’ में हैं जो दुनिया के ज़र्रा ज़र्रा पर मुसल्लत और हमारी जान, आत्मा या रूह को क़ायम किए हुए है। इस क़य्यूमियत के शहनशाह को परमात्मा, ईश्वर, इलाह, ख़ुदा,यज़दां, हक़, फ़ादर, अल्लाह-ओ-रहमान जैसे मुतअ’द्दिद नाम दिए गए हैं। क़ुलिद-उ’ल्लाह अविद-उ’र्रहमान अय्यामा- तद्ऊ फ़-लहुल-अस्माउल-हुस्ना (अल्लाह कहो या रहमान जो भी चाहो पुकारो, सब उसी के प्यारे नाम हैं) हमारी जान की ख़फ़ीफ़-तरीन किरन का उस अ’ज़ीमुश्शान साहिब-ए-तजल्ली पर इंहिसार है जो उसमें जिला देता है और बिल-आख़िर अस्ल क़िंदील में ये शुआ’ लौट जाती है। क़व्वाली के ज़रिऐ’ इस ता’लीम को दिल-ओ-दिमाग़ में बिठा कर रूह में ताज़गी पैदा की जाती है और जो मज़मून इस के मुग़ाइर समाअ’ में सुनाया जाए वो गढ़े में डालने का सबब होगा। इसलिए क़व्वाली में वो हल्के गाने सुनाए जाते हैं जिनका मफ़्हूम हमें याद-ए-ख़ुदावंदी ही की तरफ़ रुजूअ’ करता है। इस तरह रुजुअ’ करने में मौज़ूँ अल्फ़ाज़, मीठे बोल, दिल-पंसद तरन्नुम और सुरेली आवाज़ मुमिद्द-ओ-मुआ’विन होती है। हर सिंफ़ के अश्आ’र मुनासिब बह्र और मुअस्सिर ज़मीन में क़व्वाली के वास्ते से दिल-जोई और रूह की बालीदगी का सामान पैदा किया जाता है। बाक़ी हल्के गाने से उस में इ’रफ़ान-ओ-हक़्क़ानियत से हट कर दीगर मज़ामीन-ओ-मफ़ाहीम भी गोश-गुज़ार किए जाते हैं ख़्वाह वो नफ़्सानी ख़्वाहिशात को मुश्तइ’ल कर के तख़्रीब-ए-अख़्लाक़ के बाइ’स ही क्यूँ हों। नीज़ ये कि क़व्वाली में आलात-ए-मौसीक़ी की जो तहदीद और इख़्वान, मकान-ओ-ज़मान के शराइत हैं उनसे हल्के गानों की मज्लिसें आज़ाद होती हैं। वहाँ बिला क़ैद-ओ-बंद तअय्यु’श की तरफ़ माएल होने का अंदेशा लाहिक़ होता है।

    फ़न्न-ए-मौसीक़ी या राग बजाए ख़ुद निहायत दिलचस्प फ़न है। आवाज़ की मुख़्तलिफ़ बुलंदियों को सात मदारिज में मुंक़सिम किया गया है। आदमी जब बात करता है तो उसकी आवाज़ एक ही मे’यार या सुर पर क़ाइम रहती है जिससे सामिई’न के ताऊस नुमा तारों के कान लुत्फ़-अंदोज़ होते हैं। अगर उसकी आवाज़ा कभी ग़ैर मे’यारी या मुक़र्रा बुलंदी से कम या ज़्यादा हो जाए तो सुनने वालों को कुल्फ़त महसूस होती है। इसीलिए बे-सुर आवाज़ असर-अंदाज़ नहीं होती ख़्वाह उसके मतालिब कितने ही अनमोल क्यों हों। इंसान तो इंसान,जानवरों और परिंदों तक की आवाज़ में सुर क़ाइम रहता है। हवा की संसनाहट, पानी का बहाव, पत्तों के रगड़, शमशीरों की काट, दिलों की धड़कन, आहों की तान, कलियों की चटक और बादल की गरज वग़ैरा सब में सुर होते हैं और जब कभी सुर बिगड़ जाए तो उसे ‘अन्करुल-अस्वात’ से ता’बीर किया जाता है।फिर आवाज़ के नशेब-ओ-फ़राज़ और उसकी अदाएगी में मुतवाज़िन-ओ-मुसावी वक़्फ़े सरगम से गुज़र कर क़ल्ब-ए-इंसानी की गहराइयों को मुतअस्सिर करते हैं। अगर क़ुरआन की ख़्वांदगी में एक मद तवील और दूसरा क़सीर हो जाए तो क़बाहत पैदा हो जाती है आगर आयात के वक़्फ़े ग़ैर मुतावाज़ी हों तो सामेअ’ की तबीअ’त में झंझनाहट सी जाती है। इसी तरह अश्आ’र के बुहूर को मुंज़बित रखने का काम दफ़ या तबला के तफ़्वीज़ होता है। उसको मीटर, ज़ाबतुस्सौत या आवाज़-पैमा भी कह सकते हैं।सुर और सरगम के अ’लावा ‘लय’ की भी बड़ी अहमियत है इसी को मौसीक़ी की इस्तिलाह में राग या रागनी कहते हैं जो ब-अल्फ़ाज़-ए-दीगर आवाज़ पैदा करने के बाइ’स हैं हर राग का एक वक़्त है।उसकी एक ख़ास कैफ़ियत और उसके जुदा जुदा तअस्सुरात हैं। मलहार से बारिश, दीपक से जगमगहट और भाग से ग़ाफ़िल की बेदारी अ’ला हाज़ल क़ियास मुख़्तलिफ़ रोगों से मुख़्तलिफ़ हिस्सियात में हरकत पैदा होती है।बा’ज़ रागनियों से नफ़्सानी ख़्वाहिशाता में हैजान पैदा होता है। इसलिए मजालिस-ए-समाअ’ में सिर्फ़ मुक़र्रा रागिनियों ही से काम लिया जाता है और कलासिकल म्यूज़िक को इसलिए नज़र-अंदाज़ किया जाता है कि उसके ताल सुर या ठीके क़व्वाली की धुन में बैठ नहीं सकते। सिर्फ़ एक सुर बहर-हाल क़ाइम रहता है।चूँकि क़व्वाली का मक़्सद रूहानी तक़्वियत और हल्के गानों का भरपूर तआउ’न ले कर अहलुल्लाह के अक़्वाल को क़व्वाली के मुंज़बित चौखटे में बिठा दिया गया है। इस मुआ’मले में अमीर ख़ुसरो का कारनामा इम्तियाज़ी हैसियत रखता है।सितार की ईजाद का सेहरा उन के सर ही है। फिर उसके तारों से सुर का क़याम और सातों सरगम की आवाज़ें मिज़्राब की एक चोट से पैदा करना उन का मख़्सूस कमाल है जिसके लिए ‘तोड़ी’ की इस्तिलाह बनाई गई है।

    क़व्वाली के मुक़र्रा मफ़ाहीम,दिल-कश मौसीक़ियाना बहरें और तरन्नुम की रंगीनी से महज़ूज़ होना हो तो ख़ुसरो का कलाम पेश-ए-नज़र रखा जाए।उनके कलाम का मुवाज़ना दीगर शे’र से किया जाए तो मैदान-ए-इ’श्क़ में ‘आं शौख़-ए-तंहा यक तरफ़’, कहने पर हम मज्बूर हो जाएंगे।

    जैसा की हम ने क़ब्ल बताया है कि अख़्लाक़ियात की बुनियाद ख़ैर, हुस्न और सिद्क़ पर है।अल्लाह तआ’ला ख़ैर-ए-महज़, हुस्न-ए-मुत्लक़, और अस्ल-ए-सिद्क़ है इसलिए जहाँ भी ये ख़ूबियाँ पाई जाएं वहाँ ख़ुदाई का ज़ुहूर और उनको ज़ाहिर करने वाली शय को मज़हर-ए-ख़ुदावंदी कहा जाता है।आवाज़ का हुस्न, उसकी लताफ़त-ओ-जाज़बियत और उसके तअस्सुरात, इंसानी जज़्बात में जिला पैदा कर के मब्दा-ए-सौत की तरफ़ हमें रुजूअ’ करते हैं।हुस्न-ए-सौत ऐ’न-ए-फ़ितरत है ख़्वाह वो किसी आदमी के गले से निकले या बे-जान अश्या की हरकत से।

    एक सौत-ए-सर्मदी है जिस का इतना जोश है।

    वर्ना हर ज़र्रा अज़ल से ता-अबद ख़ामोश है।।

    सौत-ए-सर्मदी का ख़ालिक़, इंसान के एहसासात-ओ-जज़्बात पर कैफ़ियत-ओ-ग़ल्बा पैदा करता है और जैसा कि क़ानून-ए-क़ुदरत है हर बड़ी चीज़ की कशिश, छोटी चीज़ को अपने में ज़म कर लेती है। हुस्न-ए-सौत के बाइ’स आदमी थोड़ी ही देर के लिए सही ख़ुद की नफ़ी कर के मब्दा-ए-फ़य्याज़ में समो जाता है।अगर ख़ुदाई क़ुव्वत कार-गर होती तो बे-जान अश्या में हरकत क्यूँ पैदा होती और उस से मीठे बोल क्यूँ कर निकल सकते हैं।

    ख़ुश्क तार-ओ-ख़ुश्क चोब-ओ-ख़ुश्क पोस्त।

    अज़ कुजा मी-आयद ईं आवाज़-ए-दोस्त।।

    ख़ुश-इल्हानी से हज़रत दाऊद ने पानी, परिंद, और पहाड़ों पर हुकूमत की। अर्वाह से अल्लाह तआ’ला ने सब से पहले अल्सतु बि-रब्बिकुम का सुर छेड़ा तो अर्वाह ने बला के कोरस से वो गूँज पैदा की जिस से आज तक हमारे कान बज रहे हैं। तरन्नुम फ़ितरी चीज़ है जो ख़ुद-ब-ख़ुद पैदा होती है।व-इम्-मिन शैयिन इल्ला युसब्बिहु बि-हम्दिहि व-लाकिल्ला-तफ़्क़हू-न-तस्बीहहुम। तो फिर मौसीक़ी या आलात-ए-मौसीक़ी को उस से अलग समझना बड़ी ज़्यादती है। मौसीक़ी की क़ूव्वत के बारे में क़ुरआन का दा’वा है वस-तफ़्ज़िज़ मनिस्-त ता’त-मिन्हुम बि-सौतिक- (बनीइस्राईल) या’नी जिसको तू चाहे अपनी आवाज़ से हिला दे। हदीस-ए-नबवी है ऊ’तीना मिज़्मा-र आलि-दाऊद। मुझ को आल-ए-दाऊद की मिज़्मार दी गई है। और भी अहादीस-ए-सहीहा ये हैं। लिकुल्लि शैयिन हिल्यतुन व-हिल्यतुल-क़ुरआनि हुस्नुस्सौत- हर चीज़ का लिबास होता है और क़ुरआन का लिबास अच्छी आवाज़ है। लैसा मिन्ना मन लम यतग़न्ना-बिल-क़ुरआन। ज़य्यिनुल-क़ुरआ-न-बि-अस्वातिकुम। या’नी हम से नहीं जो क़ुरआन मीठी आवाज़ से पढ़े,क़ुरआन को अपनी आवाज़ से सजाओ। ई’बारत-ए-क़ुरआनी में मद्दात, औक़ाफ़, ग़ुन्ना, इमाला, इद्ग़ाम, इज़्माम वग़ैरा तज्वीद के क़ाइ’दे बजा-ए-ख़ुद आलात और सुर हैं।

    अच्छी आवाज़ से आदमी ख़ुद में एक नई कैफ़ियत या विज्दानियत पाता है।उसमें जो हाल पेशतर था उसको अपने आप में मौजूद पाता है।या’नी ये कि मिन जानिबिल्लाह जो निदा हो वो राग और उससे जो कैफ़ियत पैदा हो वो वज्द है।आदमी का दिल तो ख़ुदा का मस्कन और आईना-दार है। दर्द से भर आए क्यूँ? उसमें कैफ़ियत पैदा होना अ’ज़ीब बात नहीं।जानवरों पर भी तो अच्छी आवाज़ का असर होता है और वो ब-हालत-ए-मस्ती झूमने बल्कि रक़्स करने लगते हैं।

    मज़्कूरा बाला क़ल्ल-ओ-दल्ल से क़व्वाली जैसी मौसीक़ी बहर सूरत मुफ़ीद साबित होती है। इस से जो गहरा तअ’ल्लुक़ हज़रत अमीर ख़ुसरो (रहि.) को रहा है। इस से उनका मक़ाम, मस्लक-ओ-मश्रब, क़ल्बी-ओ-रूहानी कैफ़ियत, वसीउ’न्नज़री और आज़ाद-मनिशी का पता चलता है।

    मज़हब ख़्वाह कोई हो बुत-परस्ती जैसा शिर्क और हुस्न परस्ती जैसा कुफ़्र ही क्यूँ हो उसके ख़ुदाई होने की दलील ये होगी कि वो तौहीद-ए-ख़ैर, तौहीद-ए-हुस्न और तौहीद-ए-सिद्क़ की तरफ़ रहबरी करे।अच्छाई और सच्चाई एक ही चीज़ है। उसके इज़हार का नाम सुंदरता या हुस्न-ओ-जमाल है और उसके मानने या परस्तिश का नाम इ’श्क़-ओ-मुहब्बत है।यही वालिहाना मोहब्बत अस्ल मज़हब है। दीगर तफ़रीक़ात, इंसानी ज़ेहन की आवेज़िश का नतीजा हैं ।इंनसान होने के बा-वस्फ़ अगर मुरव्वजा रुसूम मज़ाहिब का क़ाइल हो और ग़ैर-मुख़्लिसाना रिवायती तरीक़ों का पैरव रहे तो उस में आज़ाद-मनिशी के बजाए तंग नज़री, अ’स्बियत-ओ-वफ़ादारी के बजाए तअ’स्सुब-ओ-ख़ुद-ग़र्ज़ी और हक़-परस्ती के बजाए बातिल पसंदी-ओ-इब्नुल-वक़्ती के मआ’इब पैदा हो जाते हैं।ऐसे मज़हब को दूर से सलाम जो सच्चाई और अच्छाई को तस्लीम करना सिखाए।नफ़्स-कुशी से ग़िना, इस्तिग़ना से दिल की तवंगरी और क़लंदरियत से इंसानी मावराइय्यत हासिल होती है।ये अख़्लाक़-ए-हस्ना किताबों और मकातीब में मदरसों और तहरीरी अस्बाक़ में या यूनिवर्सिटियों और पाठशालाओं में नहीं सीखे जा सकते। इन को सीखना हो तो शहातदत-गह-ए-उल्फ़त में क़दम रखने की ज़रूरत है।ख़ुसरो हो कर गदाई करने की ज़रूरत है और मौलाना रूम की तरह शम्स तबरेज़ की ग़ुलामी या ख़ुसरो की तरह निज़ामुद्दीन (रहि.) की कफ़श-बरदारी की ज़रूरत है तो अंजाम-ए-कार अयाज़ भी महमूद का सा शहरयार हो सकता है।अमीर ख़ुसरो मुसलमान घराने में पैदा हुए मगर काफ़िर-ए-इ’श्क़ बन गए। मज़हब की बंदिशों में उन्होंने परवरिश पाई मगर आज़ाद-मिल्लती ने उनकी रग को ज़ुन्नार बना दिया तो हर मज़हर-ए-हुस्न के आगे सर झुका कर उन्हों ने ऐ’लान किया ‘मुसलमानी मरा दर कार नीस्त’ कि वो अपनी ज़िंदगी ही में मौत से पहले मर चुके थे। उनकी हर साँस हू-व-हक़ की बँसुरी बजाती रही। उनकी हर बात में एक नुक्ता और हर ख़मोशी में गोयाई का एक आ’लम था। उनके मुर्शिद ने रुश्द-ओ-हिदायत की ज़िम्मादाराना ख़िदमत सोंपनी चाही तो उसके बदले उन्हों ने मस्ती-ओ-बे-ख़ुदी को पसंद किया। उनका सेह-तारा उनका तरन्नुम और उनके दिल की तर्जुमानी करने वाले उनके अश्आ’र ही उनकी अ’ज़ीमुल-मर्तबत दुनिया थी। मुर्शिद की मुहब्बत में वो ख़ुदा की मुहब्बत को मुज़्मर समझते थे।मस्मजिद में जमाल-ए-ख़ुदावंदी से बहरावर होते तो मंदिर में हक़ीक़त का मुतालबा करते थे। कज-कुलाही को उन्हों ने अपना क़िब्ला बल्कि क़िब्ला-ए-रास्त बनाया था।आज भी जो ज़ाइर हज़रत निज़ामुद्दीन (रहि.) के आस्ताना पर हाज़िरी देता है वो ख़ुसरो की बारगाह से मस्ती-ओ-सर-शारी लिए ब-ग़ैर वापस नहीं होता।

    हर्गिज़ न-मीरद आँ कि दिलश ज़िंदः शुद ब-इ’श्क़

    सब्तस्त बर जरीदा-ए-आ’लम दवाम-ए-मा

    मज़हब की बंदिशों से आज़ाद हो कर अमीर ख़ुसरो (रहि.) ने अपने लिए जो रविश इख़्तियार की थी, वो रज्अ’त-पसंदों को पसंद आई और उन पर जा-ओ-बे-जा ऐ’तराज़ात होने लगे।बिल-आख़िर उन सब का जवाब उन्हों ने यूँ दिया।

    ख़ल्क़ मी-गोयद कि ख़ुसरो बुत-परस्ती मी-कुनद

    आरे आरे मी-कुनम बा-ख़ुल्क़-ओ-आ’लम कार नीस्त

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