Font by Mehr Nastaliq Web
Sufinama

मिस्टिक लिपिस्टिक और मीरा

सूफ़ीनामा आर्काइव

मिस्टिक लिपिस्टिक और मीरा

सूफ़ीनामा आर्काइव

MORE BYसूफ़ीनामा आर्काइव

    डर्हम के बिशप को भी विक्टोरिया के समय में कहना पड़ा था कि “मिस्टिक लोगों में ‘मिस्ट’ नहीं है। वह बहुत साफ़ साफ़ देखते हैं और कहते हैं।” पश्चिम में इसका सब से बड़ा प्रमाण विलियम लौ की ‘सीरियस कौल’ नामी पुस्तक है जिसने अठारवीं सदी में भी इंग्लिस्तान में धर्म की धारा बहाई और जौनसन गिबन आदि का ध्यान धर्म की ओर फेरा। लौ पर बेमे का प्रभाव पड़ा था। बेमे एक गड़ेरिए का बेटा चमार का काम करता था और एक कसाई की बेटी से ब्याहा था। अध्यात्म मार्ग बताने को यह मिस्टिक भारत की एक कथा कहते थे- “एक ऋषि से एक युवक ईश्वर को पाने का हठ करता था।” ऋषि ने नदी में स्नान करते समय उस युवक का सिर डल के भीतर दबा दिया और उसके अधमरा हो जाने पर छोड़ा। जब युवक को होश आया ऋषि ने पूछा “उस समय तू सब से अधिक क्या चाहता था?” युवक बोला, “एक सांस हवा।” ऋषि ने कहा, “जब ईश्वर को उसी हवा की सांस की तरह चाहेगा ईश्वर मिलेगा।”

    लौ और बेमे आत्मा और संसार का स्पष्ट वर्णन करते हैं, “सृष्टि सर्वदा होती रहती है। विश्व अनादि अनन्त है। भूत भविष्यत वर्तमान कुछ नहीं है। जल दिखाई देता है औक्सीजिन हाइड्रोजिन नहीं दिखाई देते। ऐसे ही सब द्वन्द दुख सुख बुरा-भला संकुचन-प्रसार अकेन्द्रित और केन्द्रित अवस्थाएं हैं अग्निरूपी ज्योतिरूपी का शक्तिस्वरूपी प्रेमस्वरूपी। भावना से सब होता है वह मुख्य है। अकेन्द्रित केन्द्रित और तांडव तीन तीन अवस्थाओं के दो चक्र हैं। कर्कशता केन्द्र से परे खींचती है मधुराइ केन्द्र की ओर ले जाती है। परिणाम है विरह नृत्य। तब इस संसारचक्र की चौथी दशा उत्पन्न होती है तीव्र भावना का संवेग। अब जीव नकार छोड़ हुंकार के पथ में आता है। यहां भी तीन दशा है अकेन्द्रित तत्व केन्द्रित शब्द और प्रेम नृत्य जो अनन्तज्योति से मिलाता है। ईश्वर एकरूप है। नियम एक है परन्तु सब काम द्वन्द से होते हैं। भावना शक्तिचक्र से निकल प्रेमचक्र का अनुभव करती है और इन सात परतों का संसार ईश्वर से अभिन्न है। भावना प्रार्थनामय है जो जीव का कभी पिंड नहीं छोड़ती और उत्साहित उल्लसित होने पर ज्योति तेज प्रेम रूपी पराकाष्ठा है।

    पश्चिम में प्राचीन लोग सृष्टि के इन्जीली उद्भव पर कविता करते थे। ईसा के जीवनचरित्र पर और सन्तों के कारनामों पर भी। परन्तु इन सब में अधिक प्राण नहीं फूंक पाते थे। मरियम की स्तुतियां भी बनीं थीं महन्तिनियों की दिनचर्या भी बखानी गई थी। परन्तु मठों के निवासी भावान्तर ही करते रहे स्वतन्त्र उड़ान ले सके। अंगरेज़ी कविता जब चौसर से आरम्भ हुई इन सब की खूब खिल्ली उड़ा चली। परन्तु चौसर ने एक ईसाई बच्चे की हत्या बताने में करुण रस कूट दिया लोभ के कारण पापियों की भयंकर मृत्यु बड़ी भयावनी रीति से दिखाई। चौसर ने तीर्थयात्रा का वर्णन किया परन्तु उसमें भक्ति थी उसके कथापात्रों में आई। उसके शिष्यों ने तो ऐसा तूमार बांधा कि कविता की बधिया ही बैठ गई। स्पेन्सर ने जब उसे जगाया तब वह बहिर्मुखी हो गई और धार्मिक आन्तरिकता के स्थान में सांसारिक आनन्द दिखाने लगी। मिल्टन ने प्रकांड पक्षपात से धार्मिक कविता को कविता की चोटी पर पहुंचाया पर धर्म का पक्ष शैतान ने शिथिल कर दिया। सत्रवीं सदी में धर्म की लहर उठी थी भेद विरोध भी बढ़ा। लोगों के मस्तिष्क हृदय पर बीती। तब अंग्रेजों में तीन प्रसिद्ध मिस्टिर हुए हर्बर्ट क्राशा वौन। दरबारी असफलता से विश्वविद्यालय के प्रवचनों को छोड़ हर्बर्ट प्रोटेस्टेन्ट पादरी हो गया। क्राशा प्रोटेस्टेन्ट पादरी था परन्तु धार्मिक आवेश से कैथलिक पादरी हो गया। वौन डॉक्टर था कठिन रोग से जब चंगा हुवा तब उसने धर्म में गोते लगाए। ट्रेइर्न एक चमार था जिसने एक अच्छी गद्य पुस्तक लिखी। डन पहले कैथलिक था फिर एक ऊंचा प्रोटेस्टेन्ट पादरी हुवा। उसकी कविता विचारपूर्ण थी और इस सदी के आरम्भ में उसका यथेष्ट प्रभाव पड़ा। क्राशा 38 वर्ष जीया, हबर्ट 39, डन 58। बौन बूढ़ा हो सका परन्तु उसका मुख्य ग्रन्थ मध्य आयु में ही आवेग से लिखा गया था। दूसरा बुढ़ापे का छपा ग्रन्थ मुख्यतः अनुवाद ही था जो उसके काव्य के स्रोत तो अवश्य बताता है परन्तु काव्य को आगे नहीं बढ़ाता। प्रकट है कि यह लोग भारतीय भक्तों से बहुत ही विभिन्न थे। भारतीय भक्तात्माओं ने तन्मय होकर आजीवन उपासना की और अधिक अवस्था पाई जिसका उनके ग्रन्थों पर यथेष्ट प्रभाव पड़ा। राग का तो सागर ही उमड़ पड़ा।

    हर्बर्ट तपस्वी था क्राशा भक्त बौन रहस्यवादी डन दार्शनिक। ट्रेहर्न भी रहस्यवादी ही कहा जायेगा। हर्बर्ट ने मन्दिर की सेवा की ईसाई पूजा का आन्तरिक भाव ढूंढ़ा। वह बालू की रस्सी फेंकता है। प्रभु की शरण में जाता है। दिल दिमाग़ उसे अर्पण करता है। यश रूप धन समाज सब से हटता है। बालकों सा उसका रुदन है। आदम गिरा और आदमी को ले गिरा। मनुष्य अशान्त है थक कर ईश्वर की ओर फिरता है। वह अंगारा है जो यदि सुलगाया नहीं जायेगा तो राख हो जायेगा। पाप और मृत्यु मानव का नाश करते है परन्तु प्रेम और प्रसाद उद्धार करते है। गिरजे का कर्मकांड हृदय और मस्तिष्क की ऐक्यता द्वारा अपने असली तत्वों से उसका कल्याण करता है। हर्बर्ट की कविता सुन्दर है परन्तु सर्वोच्च कोटि की नहीं। भाषा सरल है सरस नहीं।

    क्राशा के भभकते हृदय में ओज है उमंग है रस है राग है। स्वर्गीय थेरेसा की सन्तात्मा से वह प्रार्थना करता है कि वह अपने ईश्वरीय चुम्बनों के राज्य में से क्राशा पर दृष्टि फेरे। अपने ईश्वरीय अंश के बल से क्राशा के अहंभाव को दूर कर दे जिसमें वह अपनी सांसारिकता से मरण पा जाय। साथ ही क्राशा यह भी कह सकता है कि थेरेसा के प्रेमी देवदूत का वाण थेरेसा के हृदय को इतना नहीं धधकावेगा जितना थेरेसा का धधकता हृदय उसके बाण को भभका देगा। क्राशा साधुओं का जीवन दिखलाता है। वह रूखा-सूखा खाते हैं मोटा पहनते हैं कष्ट उठाते हैं नित्य मृत्यु भोगते हैं कि और ईश्वरीय कर्म कर पाएं। क्राशा मरियम का स्वर्गगमन गाता है। मृत्यु का मित्र सा स्वागत करता है। भावना में वह इन तीनों में सर्वोच्च है। लोरेटो के मरियम मन्दिर के कुप्रबन्धन से वह असन्तुष्ट था। कहते हैं इटलीवालों ने इसलिए उसे विष दे दिया और उसकी मृत्यु हो गई।

    बौन सुमिरता है बाल्यकाल के श्वेत दिव्य विचारों की सुन्दरता। माटी के चोले में वह पछियाता है अनन्तकाल की छाया। देखता है कि निकल रहीं हैं वह अमरवृक्ष की टहनियां पत्तियां। उसे अनन्त जीवन झलक जाता है जैसे शुद्ध अनन्तज्योति का चक्र-शान्त शुभ्र-जिसके नीचे चल रहा है त्रिकाल का छायामय चक्र। वह कहता है कि राजनीतिज्ञ सुरंग में चलते हैं जैसे छछुंदर और अपने शत्रुओं को धर दबोचते हैं गप से। परन्तु ईश्वर की आंख से तो नहीं बच पाते। वह पूछता है पन्छी घोसले से उड़ा तो कहां जाता है? मनुष्य मरा तो कहां जाता है? तारा कबर में बन्द हो जाय तो भी जलेगा ही। खुलते ही भुवन में चमकेगा। ईश्वर दया कर इस संसार सागर में भी उस शिखर पर पहुंचावे जहां से दृष्टि दूरवादिनी होगी। बौन में दिव्य झांकियां हैं परन्तु वह अग्रसर नहीं हो सका तन्मय ही हुआ।

    डन में गूढ़भाव हैं। उथल पुथल बरसाती बाढ़। हेमन्त बसन्त। दृष्टि पैनी है गहरी है परन्तु ऊंची नहीं। इतनी व्यापिनी भी नहीं। वह कहता है कि संसार सागर में काग की भांति उतराओ जस्ते की भांति बूड़ो। मछलियों सा तैरते फिरो। सराय चाहे जहां बना लो परन्तु बसो अपने में ही। सदा एक जगह रहना नरक है। घोंघा कम चलता है परन्तु अपना घर अपने पास रखता है, तुम भी अपना महल आप बनो नहीं तो संसार तुम्हें जेलखाना हो जायेगा। प्रेम मर गया तो सुन्दरता पड़ी रह जाती है जैसे खान में सोना। लावण्य किसी काम का नहीं होता जैसे कबर पर की धूप घड़ी। प्रेम भी नेति नेति ही करके बताया जा सकता है। वह इतना अद्वितीय है। जब हम अपने ही को पूरा नहीं समझते हैं तब और क्या जान सकते हैं? प्रेम अनन्त है सनातन। जैसे नक्शों में पूर्व पश्चिम एक से लगते हैं इधर उधर देखने से। यों ही मृत्यु और पुनरुत्थान है। मुझ में दो दो आदम मिले हैं एक आदम का पसीना दूसरे (ईसा) का खून। पतन से ही उत्थान होता है। अनन्तजीवन सदा बदलता रहता है।

    केबिल ने उन्नीसवीं सदी में कुछ त्योहारों पर भजन लिखे जिनका जनता में कुछ प्रचार हुआ। टौमसन ने स्वर्ग का कुत्ता लिख कर दिखाया कि ईश्वर मनुष्य को सदा उस के भले के लिए पछिताया रहता है और पा लेता है। हौपकिन्स ने कैथलिक उत्साह और उमंग की पैंग मारी। सामयिक सन्देह का वह तिरस्कार ही कर सका बहिष्कार नहीं। ब्लेक में कल्पना प्रबल थी। दृष्टिकोण अनूठा। संसार उसे प्रत्यक्ष ईश्वर का चमत्कार दिखाई देता था। उसके भावों में चमत्कार था भावना में नहीं। निजी जीवन में नहीं। वह कहता है “धरती चिपटी है मैं उसके अन्त तक हो आया हूं आकाश को कन्धों से छू आया हूं मृत लेखकों की आत्माओं से बात कर चुका हूं।” वह बार बार संसार में धोखा खाया और माया को पूरा समझ पाया। लीला में पहुंच पाया। शैशव में उसका विशेष प्रवेश है। उसके अधिकांश गाने अच्छे हैं यद्यपि उनमें राग कम हैं। मृत्यु के पीछे उसके काम की कुछ सराहना की गई है।

    स्वीडिनबोर्ग शौपेनहौर आदि मिस्टिक दार्शनिक योरप में देश देश में हुए हैं। धर्म और संसार का संघर्ष योरपीय कविता बहुत अच्छा दिखलाती है। अंगरेजी कविता भी मानव हृदय की आशा निराशा चिन्ता और परलोकचिन्तन यथेष्ट दृष्टिपथ में लाती है। विश्वचेतना का चित्र खींचती है। परन्तु उसकी भावनाएं जब प्रबल हुई तब भी सामयिक ज्ञान से सामयिक काव्यशैलियों से मुक्त नहीं हुई। पंख दबे ही रहे। गीतों के संसार में ऊंचे नहीं उड़ पाए।

    अंगरेजी कविता के अधरों पर मिस्टिक माधुरी केवल लिपिस्टक से ही लगी हुई है। वह रस हैं वह मधुराई वह सत्य जो भारतीय भक्ति में है और मीरा के तन्मय जीवन की सरल सच्चाई में।

    (2)

    हमारे प्रधान भक्त हैं कबीर सूर तुलसी और हमारी मीरा। संभव है महात्मा गान्धी का कोई गद्यसंकलन भी इस पथ में कुछ पैर बढ़ावे।

    कबीर ज्ञानी हैं। उनकी पहुंच और उनकी सीमा की तुलना तथागत के कार्य से भी की जा सकती है। कर्म ज्ञान उपासना मनुष्य प्रकृति के आवश्यक अंश हैं। किसी ओर से सीमित रहना मनुष्य के आदर्शों और उद्देश्यों को अवश्य संकीर्ण करता है। इसका फल मानवसमाज पर पड़ता है और वहां कभी कभी परीक्षा हो जाती है। हमारा सन्तकाव्य कई अंशों में इस बात को सत्य कर दिखाता है, साहित्य भी मानवशक्ति के सब अंशों की पूर्ति चाहता है। ज्ञानी विचार प्रज्ञानी हुए तो अज्ञानी सिद्ध हो जाते हैं। कर्ममार्ग किसी ओर झुकता है तो पक्षपात में फंसता है। भक्ति हवाई ही रहती है तो उसे अपनाने वाले कहां से आवेंगे? नई लहर की करामात उसके ओज ही पर नहीं पूर्णांग प्रवाह पर भी अवलम्बित है। हमारे कुछ बर्तमान बुद्धिमान ऐक्यता का पाठ पढ़ाना और एकाकार भावनाओं को बढ़ाना चाहते हैं। परन्तु वह विशेषताओं को भूल जाते हैं या लीपना चाहते हैं। मानव् प्रकृति की विशेषताओं को काटछांट कर लुन्जपुन्ज बना देने से परिणाम प्रत्यक्ष है। उनके सागर और महासागर तालतलैया ही रह जायंगे। जब पूरी पैठ नहीं है तब सच्ची परम्परा का विरोध कहां तक जड़ जमने देगा?

    सूर ने नेत्र बन्द किए तो भीतर के नेत्र खुल गए। मिल्टन का भी देशप्रेम से यही हाल हुवा परन्तु मिल्टन का प्रभाव सीमित रहा मस्तिष्क ही पर रहा। सूर व्यापी हुए और अन्तःपुरों में हृदयों में पैठ गए। भगवान कृष्ण घर घर में घुसे। गोविन्द कन्हैया नस नस में समा गए। प्रेम सब के आगे नाच गया- माता का प्रेम राधा का प्रेम कृष्ण कन्हैया का प्रेम। यों ही दक्षिण से बौद्धों को शैव भजनों ने भगा दिया था। महामाया हृदय में है तब बंगाल के मस्तिष्क में भी है। नन्ददास परमानन्ददास बड़ी ऊंची कोटि के भक्त कवि और गायक थे परन्तु सुरदास अनूठे हैं और अनूठे रहेंगे। सूरश्याम में किधर सूर हैं किधर श्याम कहना कठिन हो जाता है। भिन्न और अभिन्न की सीमा टटोलनी पड़ती है। दो बोल कितना जादू कर सकते हैं। कितने गहरे पैठ सकते हैं यह सूरदास ही बताते हैं। हिन्दी कैसी लिखनी चाहिए यह सूरदास ही सिखाते हैं।

    परन्तु सूर में कसर थी जो मीरा से पूरी हुई। नहीं तो उसका पूरा होना असंभव ही था। परन्तु मीरा का पूरा काम तभी समझ में सकता है जब पहले तुलसी का महान कार्य पूरा समझा जाय। एपिक और लिरिक में घनिष्ट सम्बन्ध है जो जड़ सूर और मीरा ने जमाई तुमसी में फलीं फूलीं। और जो बीज तुलसी ने बोए वह मीरा में पदों और चरणों में मन्जरित हैं।

    तुलसी ने ग्रन्थ पर ग्रन्थ लिखे- अनुपम। वह सिद्ध हो गए- रामचरित दर्शन किया। स्वान्तः सुखाय दरशाया भरपूर। मानस सरोवर- शुभ्र शीतल पावन सलिल- सात दशाओं के सात सोपान- जहां भारत भर का मेला करता है नित्य स्नान। देखिए- कविता का सरयू भक्ति की भागीरथी रामकथा का पुण्य तीनों मिलकर रामरूप के सागर का दर्शन कराते हैं। यह तुलसी की सुन्दर काव्यभावना हम सब को कृतार्थ करती है।

    वह लिख चले। पहले अपने भाव बताए इष्ट का बाल्यकाल गाया- स्वयंबर फुलवारी धनुषयज्ञ विवाह। प्रेम टूट पड़ा। रोमान्स दर्शा और रोमांच।

    निजगिरा पावनि करन कारन रामजस तुलसी कह्यो।

    रघुवीरचरित अपारवारिधि पार कवि कौने लह्यो।।

    उपवीत ब्याह उछाहमंगल सुनि जे सादर गावहीं।

    वैदेहिरामप्रसाद ते जन सर्व्वदा सुख पावहीं।।

    इस मंगलायतन रामजस के सदा उछाह के पीछे आई अयोध्या। तुलसी ने दिखाई महल का एक रात। राम का गंगा उतरना दशरथ का मरण। और फिर तेरही के पीछे चित्रकूट का मिलाप। वर्णन नाटकों को मात करता है। सागरों से गहरा डुबाता है पहाड़ों से ऊंचा उठाता है। वह है महाकाव्य और तुलसी पुलकित हो कहते हैं, “जो होत जग जनम भरत को। सकल धरम धुर धरनि धरत को।”

    सियारामपेमपियूषपूरन होत जनम भरत को।

    मुनिमनअगम जमनियमसम-दम विषमव्रत आचरत को।

    दुखदाहदारिददम्भदूषन सुजस भिस अपहरत को।

    कलिकाल तुलसी से सठन्हि हठि रामसम्मुख करत को।।

    भरतचरित करि नेमु तुलसी जो सादर सुनहिं।

    सीयरामपदपेम अवसि होइ भवरसविरति।।

    भरत की तपस्या और मीरा की तपस्या, भरत का प्रेममय बलिदान और मीरा का प्रेममय बलिदान मिलाने योग्य है। परन्तु भरत तो नारायण का अंश माया मानव थे।

    गोसांई जी दो सीढ़ी उतर गए। आधी कथा कह गए। परन्तु अब अवतार संसार में अपने कर्म पर अग्रसर हुवा तुलसी साथ हो लिए। उसी की प्रेरणा से आगे की कथा जुटाने और उसकी प्रकृति लुटाने लगे। अब सब कांडों की अन्त की टिप्पणियों पढ़िए।

    अरण्यकांड में क्या है? विमल वैराग्य। यों नहीं कि रामजी बैरागी हो गए या बैरागियों में रहे फिरे ठहरे। परन्तु इस लिए कि निर्वेद है पहली सीढ़ी सब सच्चे कामों में। जोश पीछे आता है। विश्व बुरा नहीं है तब भी बैराग्य सच्चा विमल बैराग्य अपनाना पड़ेगा शुद्ध होकर। तभी कुछ हो सकेगा। जो नेता लिप्त है वह लिप्त रहेगा और डूब भी सकेगा। जो कुछ इस कांड में है- शूर्पणखा का उन्माद सीताहरण जटायु का बलिदान शबरी की सेवा राम का विलाप-सब चिल्लाता है बैराग्य! विमल अमल वैराग्य! संसार के सिनेमा से ऊपर रहो पाप में मत फंसो। तप करो प्राण दो परन्तु उसे बहुत मत मानो। वह भी अहंकार उपजा सकता है। रावण का सा। ईश्वर क्यों विलाप करने चला? उसको क्या दुख क्या सुख? परन्तु नहीं यह उसकी शिक्षा है मनुष्य के कल्याण के लिए। शोनक की नीति नहीं कि राम की स्थूल जांघें थी सीता के घने केश इससे उन्होंने दुख उठाया और वशिष्ठ का ज्योतिष भी चूक गया। नहीं यह भी वही लीला है। राम आप रोते हैं तो उसी फेर में जिससे उन्होंने नारद को बचाया था। जीवन बुरा भला आदर्श सब वही बताता है कि पहली सीढ़ी पहला कदम है बैराग्य। मानव को मानवजीवन को यही अरण्यकांड का सन्देश है।

    अब आई किष्किन्धा। हनुमान ब्राह्मण बन भगवान की परीक्षा लेते हैं। भाई भाई से भिड़ता है। रामजी बालि का शिकार करते हैं। सुग्रीव ऐश करता है। दूतों के ठट्ठ भटकते हैं। अंगद अशक्त है मरने के लिए आसन जमाता है। सब प्रयत्न लगते है अकारथ और तुलसी कहते हैं सीखो विशुद्ध सन्तोष। यह क्या? बात अनूठी है। ईस्वर के आगे जाओ तो छल छोड़ो। पद पाओ तो अधर्म मत करो। नहीं तो ईश्वर को देना पड़ेगा कठोर दंड। उसके बैर है प्यार। वहां मोल तोल नहीं है। रक्षक है केवल एक पश्चात्ताप। उससे वह पड़ता है कोमल कर देता है क्षमा। वही पोसता है वही छोह करता है। मित्रता बड़ी बात है भक्ति मानी जाती है। यह सब सन्तोष की जड़ें हैं। मरते हुए भी काम बन जाता है। जले पंख भी निकल आते हैं। उसी की शक्ति उसी की भक्ति उसी के गुण ग्राम में है विशुद्ध सन्तोष। जब बैराग्य हुवा तब सन्तोष सच्चा होना चाहिए। नहीं तो तृष्णा फिर ले डूबेगी। यह रामायण का दूसरा कदम है। क्या अर्जुन में वैराग्य था? सन्तोष था? कितना? वैराग्य तो उसे किए देता था युद्ध ही से परांमुख। सन्तोष था? सन्तोष से तो वह बैठा जाता था रथ ही में। यह वैराग्य और यह सन्तोष और ही हैं- राममय।

    सुन्दरकांड में सुन्दर है सीता का चरित्र सुन्दर है हनुमान की महावीरता सुन्दर है लंका का विध्वन्स सुन्दर है सेतुबन्ध और सुन्दर है विभीषणमिलन। परन्तु जिस सुन्दरता का तुलसी धरते हैं ध्यान और करते हैं बखान वह है ज्ञान का सम्पादन। पुस्तकों का ज्ञान नहीं सन्तों महन्तों का ज्ञान नहीं है। जीवनचर्या का ज्ञान रामकाज का ज्ञान जीवन सुफल बनाने का ज्ञान। और सीता का पता पाने का भी ज्ञान। राक्षसों का अपना बल तोलने का ज्ञान।

    सन्तोष कर बैठता है आलस्य। नहीं नहीं सच्चा सन्तोष देता है शान्ति करता है धन्य। “जो कोई करइ राम कर काजू। तेहिं सम धन्य आन नहिं आजू” कर्ममार्ग में वह देता है बल रामकाज यों करता है प्रबल। “कवन सो काज कठिन जग माही। जो नहिं तात होइ तुम पाहीं।” तिलतिल सारी रात मारुति ने ढूंढा और सीता को पाया। राम को सुमिरते ही सबेरे अशोक तले ताड़ लिया। संसार को ईश्वर के अनुरूप बनाना ईश्वरीय कार्य को बढ़ाना मानव-जीवन की पराकाष्ठा हैं और ईश्वरीय विश्वास उसका आवश्यक अंश है। उसी से जल में पत्थर तैरते हैं शत्रु भी मित्र हो जाते हैं ब्रह्मफांस भी छूट जाती है। आग भी नहीं जलाता। “सुखभवन संसयसमन दमनविषाद रघुपति गुन गना। तजि सकल आस भरोस गावहि सुनहि सन्तत सठमना।” यह ज्ञान सम्पादन करो सब दूसरे आस भरोस छोड़ के राम पर ध्यान दो। रामकाज पर ध्यान दो। यह वह सुनहली किरण नहीं है जो जादूगर मर्लिन को दूर चमकती दिखाई दी थी। ईसा के लालप्याले सी सर गैलेहड को नभमंडल में झलकती थी। नहीं यह अनन्त ज्योतिकिरण सदा सर्वदा मानव हृदय और मस्तिष्क में रहती है। नहीं तो सोने की लंका भी जल जाती हैं। इस ज्ञान से सुन्दर दूसरा मन्त्र नहीं है, जो संसार को साधे ईश्वरीय इच्छा का पालन करे अदम्य उत्साह से भरे। रामसेवा ही ज्ञान है उसी से सब हाल मिला। मारुति को अपने सच्चे रुप का ध्यान आया।

    अब गई लंका। विषम-संग्राम- घोर छल और बल- दारुण घमासान। अवतार भी परीक्षा देता है युद्ध मचता है, क्लासिक रोमान्टिक। अणिमा गरिमा सब का प्रयोग। रावण का अहमदी उद्योग। अन्त होती है सत्य और धर्म की विजय। देवता करते हैं स्तुति आरती परन्तु अभी अवतार के संसार कार्य की नहीं हुई है इति। और तुलसी कहते हैं यह सब है विमल विज्ञान। प्योर सायन्स ही नहीं विशिष्ट विशुद्ध प्रज्ञान। अर्थात् अत्याचार का नाश करो संसार का उद्धार करो। कर्म कर्म हेतु करो धर्म हेतु करो। फल हेतु नहीं। स्वार्थ छोड़ो। संसार को पावन करो। उससे मुख मोड़ो। यही है पूरा ज्ञान। ईश्वर भी सदा यही करता है। कृष्ण भी आप करते हैं। अर्जुन को प्रेर कर करवाते हैं जब तक विभीषण रावण का भेद नहीं बताएगा रावण अमर रहेगा। अपना कर्तव्य आप पालन करना होगा कितना ही कठोर लगे या सरल। लंका-कांड का यह उपदेश केवल एक वीरकाव्य ही का उपदेश नहीं है। सम्पूर्ण मानवजीवन की नीति है। तुलसी का धर्मोपदेश। यह चारों कांड मावनधर्म का सांसारिक जीवन का ईश्वरीय इच्छा का मानवकर्तव्य का तुलसी के अनुसार पूरा सार है।

    (अब आता है उत्तरकांड। अविरलहरिभक्ति का सम्पादन। सो भी श्रीमुख से वशिष्ठ से भुशुंडि से शंकर से सनकादिक से तुलसी से। यहां अश्वमेघ हुवा मथुरा की नीवं पड़ी तक्षशिला पुष्कलावती की। नींव पड़ी मानवजीवन की महिमा की आवागमन से छूटने के उपाय की। यह तुलसी के रामराज की इतिश्री है जो अब भी भारत के अधरों पर नाच रही है।)

    हमारे साहित्य की सब से उत्तम पुस्तक कर्म का पूरा विश्लेषण करती है। ज्ञान का पूरा सच्चा चित्र खींचती है। भक्ति का शुद्धस्वरूप दिखाती है। वह स्वान्तःसुखाय है। परन्तु घटाकाश पटाकाश से दूर। जीवन के कठोर सत्यों में भरती है मधुर तत्व शुद्ध सिद्धान्त। भक्ति पसारती है अनन्त। राम ब्रह्म हैं मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। सब कुछ हैं। परन्तु प्रत्येक मनुष्य क्या करे कैसे जीवन पार करे। यही राम सर्वदा अपना काम अपना प्रेम बताते हैं और पार लगाते हैं। जो हृदय सच्चा पाते हैं।

    तुलसीदास ने गीता के निष्काम कर्म में भक्ति फूंक दी अवतार के कर्ममार्ग को संसार का कर्ममार्ग बना दिया। उन्होंने ईश्वरीय नीति का पालन मानवधर्म जता दिया। साधुसन्त के जीवनतत्व वैराग्य सन्तोष ज्ञान विज्ञान को सार्वजनिक मानस का उच्च वातावरण ही नहीं सिद्ध कर दिया। उसी के द्वारा नित्य के कामों में प्रयोग करने का महामंत्र राममन्त्र दिया। कर्म ज्ञान उपासनामयी त्रिमूर्ति की ऐक्यता का सिक्का भी चला दिया। अपने समय के आर्थिक राजनीतिक धार्मिक प्रश्नों की समस्याओं को वह सिद्ध करने नहीं बैठे। रुचिर रामकथा से उन्होंने सब संसार कथा समझा दी। केवल कुटुम्बियों के आदर्श बनवास और युद्धभूमि का नाटक ही नहीं दिखाया। ईश्वरचरित्र की सफ़ाई देने नहीं बैठे। उन्होंने उस दिव्यचरित्र के प्रत्येक अंश को उस कांड के सब पात्रों को उनके सब कर्मों के पूर्ण प्रभाव से दर्शाकर उचित निष्कर्ष निकाला। और उपदेश दिया कि मनुष्य को ईश्वर में जड़ जमाना चाहिए और संसार की रक्षा उद्धार में मन लगाना चाहिए। यही उसका कर्म है ज्ञान हैं भक्ति है- तीनों एक साथ। सनातन धर्म का विशुद्ध रूप हमारी हिन्दी की रामायण में है। जिसको सब दल औऱ सब पन्थ सब भारत में घर घर गाते हैं और गावेंगे। होमर एकीलीज़ का गुण गाता है। बाईबिल ईसा का मार्ग बताती है और मनुष्य का। रामायण राम का दर्शन देती है और सबको राममय बनाती है। स्वान्तःसुखाय।

    (3)

    मीरा रामायण का निष्कर्ण है तन्मयता का आदर्श। मीरा भी स्वान्तःसुखाय है। “जाके प्रिय राम वैदेही” मीरा का समाधान नहीं है संसार का समाधान है। “तुलसी सो सब भांति परम हित पूज्य प्रान ते प्यारो, जासों होय सनेह रामपद एतो मतो हमारो।” वैष्णवधर्म के अटल सिद्धान्तों पर सिद्ध गोस्वामी भक्त तुलसी की व्यवस्था है। रामधुन की विश्वव्यापकता पर तुलसी का मत। “अन्जन कहा आंखि जेहि फूटे औरौं कहौं कहां लौ” कविता की इति है। परन्तु “साऊ थे दुसमन होई लागे सबने लगूं कड़ी। तुम बिन साऊ कोऊ नहीं है डिंगी नाव मेरी समुद अडी। तुम पलक उघाड़ों दीनानाथ मैं हाज़िर नाज़िर कब की खड़ी।” मीरा का सीधा सादा सच्चा स्वर संसार असार भुगता हुवा मानवकविता और मानव जीवन का है एकीकरण। विरहिणी व्रजांगना का हिन्दू-कुलसूर्य के धधकते भभकते मंडल से गंगाजली चरणामृत।

    उन्नीसवीं सदी में दोहरे जीवन (डबल लाइफ़) का सिद्धान्त दिखाई दिया। यह यही नहीं कि खाने के दांत और दिखाने के और। दिन में साह रात में चोर। परन्तु यह कि आजकल के संसार में है द्वापर से अधिक दुविधा। कलह है रात दिन समस्याएं हैं महागझिन। कवि कवियित्री भी सब उसी के वशीभूत हैं। विद्रोही होते हैं तो भी अन्त में निकलते हैं अद्रोही। अहिन्सा मानते हैं और नही भी मानते। (हिन्सा है कलि का प्राण) कोई ईसाई ईसा को मानते हैं नहीं भी मानते। (देश का प्रेम है सब जगह रामबाण) जगत के अनुसार चलते हैं नहीं भी चल सकते (स्वेच्छा ही में है कल्याण) सारांश यह कि आजकल व्यक्तित्व पड़ गया है ढीला सिद्धान्त शिथिल। जो नेत्र पसारते हैं दूर के क्षितिज निहारते हैं वह पाते हैं स्वार्थमय संकोच। नई दिवारों के उठ गए हैं नए कोटे परकोटे। क्षेत्र बट गए हैं फिर करोड़ों करोड़। संसारी जीवन कुछ है मानसी जीवन कुछ। द्वन्द मचा है देश में समाज में, व्यष्टि में समष्टि में, दिल में दिमाग़ में, काम में करतूत में क़लम में चिलम में।

    मीरा में यह कुछ नहीं है। (परचे राम रमै जो कोई। या रस परसे दुबिध होई) इसी से उसकी अनेक बातें अद्भुत हैं। वह एकली है। भारत ही में नहीं संसार में कुछ विशेषताएं देखिए।

    भोग की सामर्थ्य और भावना का प्राबल्य।

    अंगरेज़ी में पहली केवल कीट्स और शेक्सपियर ही में बढ़ी चढ़ी थी। दूसरी शेली और शेक्सपियर में। दोनों का मिलान मिलता है शेक्सपियर में बहिर्मुखी और ब्लेक में अन्तर्मुखी अधिकांश। परन्तु मीरा में यह है अत्यन्त प्रबल बहिर्मुखी अन्तर्मुखी सब सर्वांग सम्पूर्ण एकमुखी। इसी से उसका बिरह है प्रखर प्रचंड। चिराग त्याग अद्वितीय। आनन्द अलौकिक। सोना रूप सूं काम नहीं है म्हारे हीरा रो व्योपार गंगा जमना सों काम नहीं है मैं तो जाय मिलूं दरियाव। भाग हमारो जागियो रे भयो समुंद सों सोर। “अमृत प्याला छांडि के कुण पीवै कडवा नीर।” “जोइ जोइ भेख से हरि मिले सोइ सोइ भल कीजे हो। मुख देखे जीजै हो।” “जो जो भेष म्हारे साहिब रीझै सोइ सोइ भेष धरूंगी। या तन की मैं करूं कींगरी रसना नाम रटूंगी।” “जहं जहं पांव धरूं धरनी पै तहं तहं निरत करूंरी।” संसार खेल है माया नहीं। झुरमुट। जहां साईं मिलैगा। पंचरंग चोला रंग। झुरमुट में जा।

    प्रकृति भी इसी रंग में रंग गई। “उमंग्यो इन्द्र चहं दिसि बरसे दामिनि छोड़ी लाज। धरती रूप रूप नवा नवा धरिया राम मिलन के काज। सुनी मैं हरि आवन की आवाज।” मेघ दूत नहीं है तो सही। मतवारे बादल आयो रै। हरि को संदेसो कुछ नहिं लायो रे। मेघ का गुरु बना पड़ा घनश्याम, “बादल देख झरी। स्याम में बादल देख झरी। मीरा के प्रभु गिरिधर नागर कीज्यो प्रीति खरी।” संसार कुलक रहा है “दादुर मोर पपीहा बोले कोयल कर रही सोरा रे। मीरा के प्रभु गिरिधर नागर जो वारूं सो थोरा रे।”

    2.सीधा स्वभाव। इनका सीधा सादा सच्चा स्वभाव अंगरेज़ी में तो कुछ कुछ शेली ब्लेक को छोड़ कर मिलता ही नहीं। मिल्टन शेक्सपियर से कोसों दूर है। सन्तों में भी बिरलों में हैं। परन्तु मीरा का यह प्रधान गुण है। वह बालिका सी बिललाती हैं किलकाती भी है। “मै हरि बिन क्यों जीऊं री माय?” “माईरी मैं तो लियो हैं रमैयो मोल।” उधर भी पीर होगी ही। विश्वास पक्का हैं। “हरि तुम हरी जनन की भीर।” मीरा का मार्ग सीधा है परन्तु सरल नहीं। पथ सब से निकट का है परन्तु सब से कठिन। “या तन को दिवला करौं मनसा करौं बाती हो। तेल भरावों प्रेम का बारों दिन राती हो।” “मन की लौ को जलाना पड़ता है।” पाटी पारौं ज्ञान की मति मांग संवारौं हो। तेरे कारन सांवरै धन जोवन वारौं हो। सिर पर सिन्दूरी अरुणधार दमदमा रही है। “बाई ऊदा पोधी म्हारी खांडा री धार।” “माला म्हारे देवड़ी सील बरत सिंगार। अब के किरपा कीजियो हूं तो फिर बांधूगी तरवार।” रानीपना दिखावेगी शाका और विजय सिखावेगी फिर कुछ समय में। “तन की मैं आस कबौं नहिं कीनी ज्यों रण माही सूरों” “आदे जोहड़ कीच है रे आदे जोहड़ हौज। आधे मीरा एकली रे आधे राणा की फौज।” काम क्रोध को डाल के रे सील लिए हथियार। जीती मीरा एकली रे हारी राणा की धार।” इस अहिन्सा संग्राम ने भारत के धर्म की भारत के प्राणों की सदा को रक्षा कर दी।

    3.व्यक्तित्व। यदि किसी के यह रोम रोम में है पंक्ति पंक्ति में तो मीरा के। यही उसकी छाप है मुद्रा है। मीरा की कोरी नक्लबाज़ी से ख़ुदा राज़ी नहीं हो सकता। कहां कांच कहां हीरे। सूरश्याम भी यहां हिचकते हैं। यह पद भीतरिये हैं। (क) लीला के पद रागगोविन्द का हृदय हैं भागवत का शिखर। इन्हें ढूंढ निकालना होगा। यहां क्षेपक तो फटक ही नहीं सकते। ये पद अब भी इने गिने मिलते हैं परन्तु अद्वितीय। “कमलदललोचना तैने कैसे नाथ्यो भुजंग।” सूर की सी आंखों देखी ही बात नहीं है यहां तो मीरा के प्राण अटके हैं। बालिका धक से चकृत हो गई। “कूदि परयो डरयो जल मांही और और काहूं नहीं संक” गर्व से विजयनाद करती है मीरा के प्रभु गिरिधर नागर श्रीवृन्दाबनचन्द।” गिरधर की विजय से वह फूलों नहीं समाती, “इन्द्र कोपि जल बरस्यो मूसल जलधार। बूड़त ब्रज को राखेऊ मोरे प्रान अधार” आगे बढ़िए। अवस्था बढ़ी। “नन्दनंदन बिलमाई बदरा ने घेरी री माई” जयदेव के मेघैर्मेदुरम्बरम् का पूरा नाटयकाव्य है। “मीरा के प्रभु गिरधर नागर चरणकमल चित लाई।” “छाड़ों लंगर मोरी बहियां गहौ ना।” वह गोपी उद्गीत है जिसने उद्धव पर मोहिनी डाली और जिसकी गूंज शुकदेव ने भागवत में सुनी गोपीगीत का प्राण। “रंगपरी रंगभरी रंग सूं भरी री।” ब्रज की बोरी होरी है और उसका पूज्य वातावरण। यह अठारवीं सदी की हिन्दी होलियों में कहां?” “आछे मीठे चाख चाख बेरि लाई भीलनी।” पद ही नहीं है गोपियों की वह तन्मयी कृष्णलीला है जिसने उद्धव और भागवत को विभोर किया। मीरा आप शबरी हो जाती है पतितपावनप्रभु गोकुलअहीरनी का चित्तौड़ के महल में नित्यनेम। बल्लभ ने सूर को रिरियाना छोड़ गुण गाना कहा था यहां तो श्याम नहीं गाते। मीरा की लगी टकटकी से नित्य नित्य नचाए जाते हैं और विभोर नाचते हैं।

    (ख) मीरागोविन्द सम्बन्धी पद इस व्यक्तित्व का नितनूतन विकास है गीतिकाव्य के अमृतमय हृदय का सार। ‘ऐसी विनयपत्रिका’ ऐसी प्रेमस्तुति ऐसी विरहवेदना और कहां है? सूरविनय जीवन के आदि की है, तुलसीविनय अन्त की। परन्तु यह तो आदिरन्तेण सहेता नित्य कीर्तन है भीतरिया। और विश्वव्यापक बाहरिया। जहां मानवजीवन हरिमन्दिर है महल गोपुर विश्व जगमोहन। यहां है मानव दिव्य भाव का मिलान मनुष्य और ईश्वर का सन्निधान। मीरा का असली आन्तरिक जीवन सच्ची अवतारी लीला यहीं है। विरक्ति प्रचंडशक्ति हो उठी है “हरि बात नहीं बूझते तो पिन्ड से प्राण क्यों नहीं निकलते? सांझ से सबेरा हो गया पट खोले कुछ बोले। अबोलना सहा नहीं जाता। मीरा कटारी से कंठ चिरैगी अपघात करैगी। सपने में दरस दिया सो भी जाते जाते ही नैनों ने जाना। व, उन्हें भी तभी जग ने जगा दिया। अब मीरा बालिका सी बिललाती है। प्राण तो उन्हीं में गए यहां क्या है कुछ हई नहीं। वह घायल सी घूमती फिरती है। पीर का वैद संवलिया ही है। इसे दुख है तो उसे पीर होगी ही। तलफ़ते तलफ़ते जी जा रहा है।” “ज्यों चातक घन को रटे मछरी जिमि पानी हो” वह जनम मरन का साथी है। उसको दिनरात यह कैसे बिसर सकती है? मीरा ही की छाती जानती है, “दरस बिन दूखन लागे नैन” चैन नहीं है रैन छमासी हो गई। “राम बनवास गए सब रंग ले गए। तुलसी की माला दे गए।” वह सीप भर पानी टांक भर अन्न लेती है मिलने के लिए गुप्त लंघन करती है। अंगुली की मूंदरी बांह में आने लगी है। बैद नहीं समझता। पिन्ड रोग बताता है। बैद तो संवलिया ही होगा। बिरहिन व्याकुल जागती है जग सोता है। सूली ऊपर उसकी सेज है। पिया की सेज गगनमंडल पर है। मिलना किस विध होगा? बिरह से तन तपा है परन्तु छाती कठिन है। वह फट के बिखर क्यों गई? उसकी तो नाव डिगी है समुद्र अड़ी वह खड़ी खड़ी सूखती है। अहिल्या से भी अधिक भारू सों ऊपर एक घड़ी। पूरी साढ़े बारह मन की निरी पत्थर। उसने तो कलेजा काढ़ के रख दिया। यम का कौवा तू ले जा जहां वो हों। वो देखैं तू खा।”

    कर्कश विश्व से जब कृष्णकन्हाई की मधुराई की ओर मीरा मुड़ी तब उसे यह बिरहनृत्य हुवा। प्रचन्ड भावना जगी। अब अकेन्द्रित मायातत्वों से वह केन्द्रित शब्दनाद मुरलीध्वनि के क्षेत्र में आई और उसका प्रेमनृत्य खुल खेला।

    “कोई कछु कहे मन लागा।” “जनम जनम का सोया ये मनुवाँ गुरू शब्द सुनि जागा। भाग हमारा जागा।” मेरा मन रामहिं राम रटै रे। कनक कटोरे अमृत भरियो पीवत कौन नटे रे। “रामनाम रस पीजे मनुवां राम नाम रस पीजे। ताही के रंग में भीजे।” “पायोजी मैने नाम रतन धन पायो।” “हिरदै हरि बसे तब नींद कहां? वहां अमृत झरता है हृदय पर।” बसो मेरे नैनन में नंदलाल। भक्तबछल गोपाल।” तुम जीमो गिरधरलाल जी। छप्पन भोग छीतसों व्यंजन पाओ जनप्रतिपाल जी। कीजै बेगि निहाल जी। जगत झुरमुट है। “पंचरंग मेरा चोला रंगा दे मैं झरमुट खेलन जाती।” सखी री मैं तो गिरिधर के रंग राती। खोल अडम्बर गाती।” नाता नाम का है। मीरा का अवतार गोपी प्रेम ही नहीं सिद्ध करता है कृष्णचरित्र भी सिद्ध करता है। तोपखानों की तड़ाप गड़ाप हो जाती है। भारत की आत्मा भारत का तनमन सुरक्षित है। “रघुनन्द आगे नाचूंगी। हरिमन्दिर में निरत करूंगी घूंघरियां घमकास्यां। चरणामृत का नेम हमारे नित उठ दरसन जास्यां। गोबिंद का गुण गास्यां यह दिव्य पदों के घूंघर अनन्तकाल तक गूंजते रहेंगे। भारत के प्राणों में उल्लास और प्रताप भरते रहैंगे। देश का सिर नीचा होगा देश को आत्मा किसी लोभ मोह में फंसैगी।” चाकरी में दरसन पाऊं सुमिरन पाऊं खरची। भावभगति जागीरी पाऊं तीनों बातां सरसी” अब और क्या चाहिए अनन्य विजयध्वनि उसी मुरलीधुनि में जा मिली। “मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरा कोई” जिन्हों ने यह भजन अपनी माताओं से सुना है वही इसका रस जानते हैं। संसार एक खेल है यहां नृत्य ही नृत्य है आनन्द ही आनन्द। वह किसी कुल में कुटुम्ब में सीमित नहीं। ईश्वर जोगी है निर्मोही। आत्मा भी जोगिन है परन्तु मोही।” जोगियो ने कहियो रे आदेश। मैं बैरागिनि आदि की थारे म्हारे कद को सनेस” “तेरे कारन जोग लिया है घर घर अलख जगाई” यह जोग भी वही प्रेमनृत्य है। “चलो अगम के देश काल देखत डरे। जहं भरा प्रेम का हौज हंस केलां करैं।” मैं तो म्हारा रमैंया ने देखबो करूं री। तेरो ही उमरन तेरो ही सुमिरन तेरो ही ध्यान धरूं री। “जहं जहं पांव धरूं धरनी पर तंहतंहनृत्यु करूं री” यह चराचर रूप भगवन्त की उपासना है। राधा ने व्रजवास किया मीरा ने भी बनवास। जोगी मत जा। मत जा मत जा। जलबल भई भसम की ढेरी जोत से जोत मिला जा सात परतों के परे यह ज्योति चक्र है जो आदि अन्त सब में है। पर जहां पहुंचना चक्र व्यूह सा भेदना है।

    (ग) मीरा ने भगवान के स्वरूप का कैसा वर्णन किया है? उसकी दृष्टि अमरीका की अख़बारी दृष्टि नहीं है। किपलिंग ही की रंगीन पेनसिल उसे भाती है। व्रज के कवियों की भांति वह आकाश पताल से उपमाएं नहीं ढूंढ़ती। गुड़ में चींटी सी गड़ जाती है। “जेती निहारिए नेरे है नैननि तेती खरी निकसे सो निकाई” यह उसका भीतरिया दर्शन नहीं है। उसका तो कहना ही क्या? एक ही पद मिलता है जो कदाचित प्रथम मिलन का हो। “जबते मोहिं नन्दवंदन दृष्टि पडयो माई। तब ते परलोक लोक कछु सुहाई।” अनन्यप्रभाव तत्काल। यह विश्वमोहिनी स्वर्ग अपवर्ग सब बिना भगवान के नरक समझती है। आगे क्या है? बस चन्दरकला मुकुट भालतिलक कुटिल भृकुटि अरुन नैन बिम्ब अदर-सरल मधुर राग से भरा “गिरधर के अंग अंग मीरा बल जाई” केवल एक उपमा “कुंडल अलक झलक कपोलन पर छाई। सरवर मधि मनों मीन मकर मिलन आई” वर्णन की स्वच्छता मीन मकरमिलाप। फिर इस पद में है क्या? “चितवन में टोना। खंजन अरू मधुप मीन भूले मृगछोंना” “मधुर मन्द हांसी। दसन दमक दाड़िम दुति चमकै चपला सी” भोलीभाली स्वच्छ चंचल चितवन और बिजली सी भरी मधुरमन्द हंसी- भोला-भाला स्वच्छ वर्णन। सो भी मा से इष्टदेव का- हँसते खेलते मुखारविन्द का- और दौड़। छुद्रघंट किंकिनी अनूपधुनि सुहाई। सच्ची बाललीला जो स्वप्न का दर्शन है तो अंश अंश स्पष्ट। सपनींदा घपला धुंधला अर्द्धविस्मृत आगे तो और भी प्रकट है। “बसो मेरे नैनन में नंदलाल। सांवरी सूरत मोहनी मूरत नैना बने बिसाल।” चाकरी के दर्शन- “मोरमुकुट पीतम्बर सोहै गल बैजन्ती माला। बृन्दावन में धेनु चराबै मोहन मुरली बाला,” मूर्ति की झांकी- “कुसुमल पाग केसरिया जामा ऊपर फूल हजारी। मुकुट ऊपरे छत्र बिराजै कुन्डल की छबि न्यारी।” अब बस एक पद है ब्रज का “मेरो मन बसिगो गिरधरलाल सों” यहां तीन शब्दचित्र हैं तीनों भिन्न भिन्न दशा के, कर्म के, थोड़े से थोड़े शब्दों में। राग में डूबे। “मोरमुकुट पीतम्बरों गल बैजन्ती माल। गउवन के संग डोलत हो जसोमति को लाल” “कालिन्दी के तीर हो कान्हा गउवां चराय। सीतल कदम की छाहियां हो कान्हा मुरली बजाय” “बृन्दावन क्रीड़ा करे गोपिन के साथ। सुरनरमुनि सब मोहै हो ठाकुर व्रजनाथ।” मीरा के गिरिधर गोपाल बैठे नहीं रहते। कुछ कुछ करते ही रहते हैं। गोपालन, मुरलीधुनि, रासक्रीडा। परन्तु मीरा के पास एक भी विशेषण नहीं उपमा। लीला की स्मृति है रूप की नहीं। उसका तो कहना ही क्या? “मेरे तो गिरिधरगोपाल दूसरा कोई। जाके सिर मोरमुकुट मेरो पति सोई” बस आगे एक भी शब्द नहीं। सूर अन्धे थे परन्तु जन्म के नहीं। उन्होंने भी रंगीन वर्णन किए। तुलसी ने वर्णन कर सकने के बीस कलामय बहाने किए। शत-पंचचौपाई उनके वर्णनों का मुकुट है “नीलसरोरुह नीलमणि नीलनीरधर श्याम।” पर जब तुलसी को पकड़ कर पूछिए तो वह भी कुछ नहीं बताते। केवल एक बात बाल्यकाल की “हृदय अनुग्रह इन्दु प्रकासा। सूचित किरन मनोहर हासा” बस भक्त पर कृपामयी रामचन्द्र की चन्द्रिका। “तुलसीदास चन्दन घिसैं तिलक देत रघुबीर” साक्षात् में भी कुछ कह नहीं पाते। तिलक की लीला ही देखते हैं। मीरा भी पूरी अन्तमुर्खी हैं। अपने विषय में भी केवल ‘चूवा चोला’ ‘कुसुम्भी सारी’ कहीं है। नखशिख का यहां फेर नहीं है। गिरिधर गोपाल को विज्ञापन नहीं चाहिए। यह भक्तों के शुद्ध स्मरण हैं। आजकल की रीति नहीं।

    (घ) मीरा के जो बाहरी जीवन के पद हैं उनके भी विशेष लक्षण हैं। सन्तों का स्वभाव सीधी राह खरे मीठे उत्तर प्रमभरा आचरण द्रौपदी की सी जयजयकार। इस अंश में फहरा रहा है मीरा का भगवा झंडा। अड़ी है उसकी अटल पैज। “माई म्हाने सुपने में परण गया दीनानाथ” “तू मत बरजै माइडी साधौ दरसन जाती” “म्हारे सिर पर सालिगराम राणाजी म्हारे कांइ करसी” “जहर का प्याला भेजियो रे दीजो मीरा हाथ। अमृत करके पीगई रे भली करेंगे दीनानाथ।” “तात मात भ्रात बन्धु आपना कोई। छोड़ दई कुल की कान क्या करैगा कोई।” कृष्णाकुमारी ने गरल पीकर मेवाड़ को दुर्गति से बचाया। मीरा ने गरल पीकर संसार में कन्हैया की ड्योढ़ी पीटी और भारतमाता पर छत्रछाया की।

    इतना पूर्णांग व्यक्तित्व संसार के किसी गीतिकाव्य में नहीं है। एक उलटी खोपड़ी के अंगरेज़ ने इससे झल्लाकर फ्रायड के मनोविज्ञान के नशे में यह कह मारा था कि मीरा की कविता उसके वैधव्य की करामात है। मिस्टर को यह तो सपना ही नहीं हुवा था कि मीरा की भक्ति का श्रीगणेश मीरा के बाल्यकाल ही में नहीं जन्मजन्मान्तर से था। जो पूरब जनम का कौल उसे भास जाता था। परन्तु यह भासने के लिए आजकल बहुत से विज्ञान की आवश्यकता है जिसका अभी योरप ने आविष्कार नहीं कर पाया है। खैर छोड़िए उनको।

    (ड) कोरा उपदेश सन्तों का प्यारा क्षेत्र है। मीरा का नहीं। वह तो और ही ओर मस्त है यहां वह रूखी सूखी सरस्वती नहीं जो बालू में बिलाती फिरै। मीरा बच्चे बच्चे को सिखाती है कि ईश्वर इतना पास हैं ऐसा प्रेममय है। यह करता है। उसके पास जाओ पास रहो। जग में जीना थोड़ा है संसार चहर की बाजी है। सांझ पड़े उठ जायेगी। दिया लिया संग चलैगा और चलेगी लार। भज उतरो भवपार। योग सन्यास तीर्थ व्रत आवागमन से छुट्टी पांयगे। यम के पाश भगवान् की आज्ञा ही से कटेंगे। वही चऱण अगम तारण तरण हैं। प्रत्यक्ष। यमनियम के सोलह श्रृंगार करो सजो “पहिर सोने राखडी। सांवलिया सों प्रीत औरों सूं आखड़ी।” जो जो मीरा कभी सपने में भी कहती एक उपदेशक महाशय ने यों उसके गले मढ़ा है। “मीरा को प्रभु सांची दासी बनाओ। झूठे धन्धों से मेरा फन्दा छुड़ाओ। लूटे ही लेत विवेक का डेरा। बुधि बल यदपि करूं बहुतेरा। रामराम नहिं कछु बस मेरा। मरत हूँ बिबस प्रभु धाओ सबेरा। (हिन्दी भी बोल गई) धर्म उपदेश नित्यप्रति सुनती हूं। मन कुचाल से भी डरती हूँ। सदा साधु सेवा करती हूँ सुमिरण ध्यान में चित धरती हूं। भक्तिमार्ग दासी को दिखाओ। मीरा को प्रभु सांची दासी बनाओ।” यह बर्फ का पहाड़ उपदेशक जी की छाती पर कहां से पड़ा जो बदहज़मी के भूत का सवार है। भक्तिमार्ग की बू से सहसों जोजन दूर। मीरा इस फन्दे धन्धे में कैसे फंसती?

    भक्ति की पराकाष्ठा स्त्री ही के हृदय में मिलेगी पुरुष के नहीं। उतना समर्पण वही कर सकती है। इसी से मीरा के पद सूर के भी पदों से अधिक दिव्य और अन्तर्यामी हैं भारत के उन पुण्य प्रदेशों में जहां कृष्ण भगवान् स्वयं बिखरे थे व्रज द्वारका राजस्थान आदि में मीरा का कितना प्रभाव पड़ा प्रत्यक्ष है। दूसरे पदों में वह जीवन की चमोट है वह विजय नाद वह अधिकारी दीनहितकारी पुकार। वैष्ण सिद्धान्तों की ऐसी कठोर परीक्षा और ऐसी विश्वव्यापिनी विजय कहीं अन्यत्र नहीं देखी गई। मीरा जयपत्र है। मीरा विजयनाद है। कर्म ज्ञान उपासना का कर्मठ मेल ठोस सामने आया। सो भी ऊंचे से ऊंचे घराने में और सब का हृदय द्रवीभूत ही नहीं कर गया, जयजयकार से भर गया। हीरों का व्यापार हीरे की लेखनी लिख गई।

    ‘नौकर’ शब्द मुग़लों में बोला जाता है। मीरा ने अपने को ‘चाकर’ कहा है। इससे वह मुग़लकाल से बहुत पूर्व थी। यद्यपि कुछ मुग़ल अलाउद्दीन ख़िलजी के समय में भी थे और मुग़ल बोली के पीछे मुग़लपुरे का हत्याकांड भी हुवा था। परन्तु यह मुग़लों की स्थिति किसी प्रभावशाली रूप में नहीं थी। उसकी राजस्थान पर तब छाह ही पड़ी थी।

    मीरा संसार भर में अद्वितीय है। औलिया सूफ़ियों में यह दर्जा नहीं। ईब्राहिम अदम ने बलख़ का तख़्त छोड़ फ़क़ीरी ली। हुसैन मन्सूर ने अनलहक़ (अहं ब्रह्मास्मि) रटा। उस के हाथपांव काटे गए, नाक कान काटे गए, जीभ काटी गई, सूली दी गई। उसने सब हंसते हंसते सहा। उसकी सूली थी एक बार, मीरा की बार बार। दोनों वेदनाओं में वही अन्तर है जो भक्ति में निर्गुण और सगुण। निर्गुणवाला पार्थिव यन्त्रणा भोगता है सगुण वाला आध्यात्मिक यन्त्रणा। विशिष्ट यही तो लक्षण है। तभी पूरी सफलता होती है। निर्गुण में यह संसार गुण नहीं बदलता। सगुण में गुण बदल जाता है सर्प हार हो जाता है विष अमृत। पीर तीर सी लगती है दोनों ओर। सम्बन्ध घनिष्ट हो जाता है। और अनिष्ट का मिट जाता है जोर। बसरा की राबिया यकायक चीख़ बैठती थी दर्शन को। वह रटती थी कि पूरा जागा हुवा मन वही है जो ईश्वर को छोड़ किसी और चीज़ पर चले ही नहीं। परन्तु राबिया का संवेग नहीं बढ़ा उसके जीवन में उसकी दासीत्व से मुक्ति को छोड़ कोई विशेष घटना ही घटी।

    भारत में सौ से ऊपर स्त्रियां हुई जिन्होंने भारत की भाषाओं में पल्ले सिरे की सरस्वती जगाई। मुक्ताबाई जनाबाई सहजोबाई दयाबाई सब पहुंची हुई थीं परन्तु हक्कारे उठि नाम सूं सक्कारे होय लीन” के अजपा जाप में और मीरा के सन्निकर्ष में आकाश पाताल का अन्तर है। यह सन्तवाणी उतनी गहरी नहीं चुभती जितनी मीरा की। उसका लोकसमाज पर ही उतना प्रभाव पड़ा। इसी से गोपी प्रेम का भक्ति में विशिष्ट स्थान है। अब्बई (?) की दक्षिण में मंगल के दिन पूजा की जाती है परन्तु उनके चेतावनी ही के पद अधिक है। उनमें वह उन्मद मद नहीं। आंदाल विप्रकन्या थी। वह नवां आलवार है। उसने अपने को नारायण को अर्पण कर दिया तामिल में भक्ति की मधुर नदी बहा दी। क्षीरशायी के लिए घी छोड़ा दूध छोड़ा फूल छोड़े श्रृंगार छोड़ा। उत्तरमधुरा के माधव की पूजा से भूत और भविष्य के भी पाप भस्म हो जाते हैं। तीस तीस दिन में तीन तीन बार बर्षा होती है। फूलों में मधु और गैयों में घड़ों दूध हो उठता है। यह दिन में तीनों काल पूजा करती है। बिरह के मारे उस बरदे सी है जो जुए से निकालने से दुबला पड़ गया है। जिन्होंने तीन पैर से तीनों भुवन नापे वे कैसे बदल सकते हैं? हमारे भवन और हमारे हृदय कैसे भग्न कर सकते हैं? शंखधारी हृदय में पैठ गए फिर लोप हो गए। हे कोयल मधुर मधुर गा जिसमें वह मिलैं। यह भक्ति अवश्य प्रखर है। परन्तु मीरा की सी प्रचंड नहीं। इसने मीरा की सी अग्नि परीक्षा नहीं दी।

    अगरेज़ी में क्रिस्टिना रोज़ेटा ने धार्मिक कविता की। उसने भिन्न मत होने से पार्थिव प्रेम को तिलांजलि दे दी। सारा जीवन माँ की सेवा में बिताया। आप भी रोगिणी ही सी रही। अन्त तक विवाह नहीं किया। उसकी संसारी कविताओं में तो फलफूल रागरंग की भरमार है। धार्मिक कविताएं सरल हैं और सरस। नई हिलोर से भरी। परन्तु सादी। स्वच्छन्द ही है। सत्य ठोस नहीं। वह उसका हृदय इतना टटोलता है। उसमें दीनता है विनय है त्याग है। करुण है अकर्मण्य परन्तु वह उल्लास नहीं आल्हाद नहीं पलपल का भीतरी स्वाद नहीं जो सच्चे भक्त में उमड़ता है। जिसपर मिस्टिक कविता का स्वयंसिद्ध अधिकार है। वह तन्मयता नहीं जो भारतीय भक्ति की देन है। उसमें केवल मधुमय पीड़ा है और अस्फुट झंकार।

    ग्रीक संसार में कोरिना आदि को छोड़ कर केवल सैफ़ों ही ऐसी हुई जिसकी भावनाएं खुलीं। उसकी कविताएं अमर चिनगारियां हैं। ज्वलन्त तेज से भरी। भोग की अनन्त आकांक्षा से अधमरी। उसने प्रेम में निराश होने पर समुद्र में कूद कर प्राण दे दिए। उसकी दृष्टि बहिर्मुखी है। टापू के दृश्यों का जीता जागता फड़कता रंगभरा वर्णन करती है। हृदय का उबाल उतना ही है जितना फ़ारसी कविता में। परन्तु यूनानी सौन्दर्य उसकी कला पर दूना जादू करता है। वह स्थिर नहीं है चंचल है चुलबुली है पते की कहती है। चित्र देती है, विशेषणों की भरमार है। उसके शब्द इतने गहरे हृदय से नहीं निकले कि वह उनका ध्यान ही धरे। कला की वह पुजारिन है और प्रेम की भी मीरा यों नहीं है। ग्रीक सुखमा की देवी अफ्रोदिती का भजन देखिए- “हे उच्च ज्यूपिटरकन्ये, हे झलझल आसानी, हे अमृते, हे छल बुननी।” भाव सुन्दर है। स्वर्णरथ की उड़ान बाहनों के गोरे पंखों की फड़फड़ाना महासुन्दर है। परन्तु उसकी प्रार्थना है कि देवी दारुण दुख से मेरी आत्मा का दमन कर। यन्त्रणा दे। मेरे दीवानेपन में तू सदा मेरी समवेदना करती रही है। अब मेरी महासाहयक बन और घोर दुःख से मेरी रक्षा कर। यहां वह सान्निध्य नहीं वह बिरह नहीं वह प्रेम नहीं जो मीरा के रोम रोम में है। भाषा दिव्य है कला भी दिव्य। परन्तु हृदय दिव्य नहीं भावना दिव्य नहीं। अमर आदेश नहीं। यह विलास का पथ है निराशा का। सेफ़ों के चमत्कार वह मरजीये के मोती नहीं है जो अनमोल हों। उस बकावली के फूल नहीं हैं जो अन्धों को आंख दें। उस आत्मा का अमर वरदान नहीं हैं जिसको परलोक लोक कुछ नहीं सुहाता था। और जो सारी सृष्टि में अपने इष्ट के साथ नृत्य करती थी। सब भेषों में सन्तुष्ट थी। परन्तु जिसे क्षण भर भी कल नहीं पड़ती थी। आत्मा, महात्मा, परमात्मा तीन दशाएं हैं और सैफ़ो नीची ही रही कुछ बहुत उठ नहीं पाई। यूनानी कला की वह अच्छी प्रतीक है। सैफ़ों और प्लेटो को मिला कर भी मीरा के लोक तक पहुंचना दुर्लभ है। केवल झोंक ही से काम नहीं चलता केवल बलिदान ही से। ईसाइयों में थेरेसा की महिमा अधिक है। उसमें वैराग्य, बिरह, अनन्यता के लक्षण थे परन्तु उसका जीवन ऊंचा था साहित्य ऊंचा नहीं बन पड़ा और उसका दिव्य प्रेम भी सातवें आसमान का कहा जायेगा।

    भारत के चारों कोनों में चारो धाम हैं और चार विजय। उत्तर में शंकर और व्यास की वेदान्त विजय। पूर्व में गंगा विजय। दक्षिण लंका विजय और पश्चिम में मीरा विजय। मीरा सा व्यक्तित्व और मीरा की सी सरस्वती संसार में अन्यत्र नहीं है। यह भारत के भाग्य थे कि मीरा ने गोपियों से भी बढ़कर धर्म की साक्षी दी और दुहाई की विजय दिखाई। उसके हृदयदीप सदा जगमगाएंगे भारत की भक्ति झलझलाएंगे और गोलोक सानन्द पहुंचाएंगे।

    -प्रोफ़ेसर शिवाधार पाण्डेय, एम.ए., एल.एल.बी., प्रयाग)

    नोट-यह लेख बंगीय हिंदी परिषद द्वारा प्रकाशित मीरा स्मृति ग्रन्थ में सन १९४९ में छपा था . अपने सुधी पाठकों के लिए यह लेख हम ज्यों का त्यों प्रस्तुत कर रहे हैं .

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    Jashn-e-Rekhta | 8-9-10 December 2023 - Major Dhyan Chand National Stadium, Near India Gate - New Delhi

    GET YOUR PASS
    बोलिए