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हज़रत महबूब-ए-इलाही ख़्वाजा निज़ामुद्दीन औलिया देहलवी के मज़ार-ए-मुक़द्दस पर एक दर्द-मंद दिल की अ’र्ज़ी-अ’ल्लामा इक़बाल

सूफ़ीनामा आर्काइव

हज़रत महबूब-ए-इलाही ख़्वाजा निज़ामुद्दीन औलिया देहलवी के मज़ार-ए-मुक़द्दस पर एक दर्द-मंद दिल की अ’र्ज़ी-अ’ल्लामा इक़बाल

सूफ़ीनामा आर्काइव

MORE BYसूफ़ीनामा आर्काइव

    “शाइ’री दिखानी मक़्सूद नहीं है। चंद नाला-ए-मौज़ूँ बे-इख़्तियार लब पर गए हैं। हज़रत ख़्वाजा हसन निज़ामी ने अज़ राह-ए-करम वा’दा फ़रमाया है कि ये अश्आ’र जनाब महबूब-ए-इलाही के मज़ार-ए-मुक़द्दस पर बुलंद-आवाज़ से पढ़ दिए जाएंगें।

    अफ़्सुर्दा-दिल­––इक़बाल

    ज़ैल की नज़्म नवंबर 1921 ई’स्वी के रिसाला “पीर भाई” देहली में शाए’ हुई थी और अ’ल्लामा इक़बाल के मुंदर्जा बाला नोट के साथ हज़रत ख़्वाजा साहिब ने भी उस पर ये नोट लिखा थाः-

    “ये नज़्म आज से सोलह सतरह बरस पहले एक ख़ानगी मुराद के लिए जनाब डॉ. शैख़ मोहम्मद इक़बाल साहिब बैरिस्टर पी.एच.ड़ी, मुसन्निफ़-ए-असरार-ए-ख़ुदी वग़ैरा ने लिखी थी। जिसकी बरकत से ख़ुदा ने उनकी मुराद पूरी की।इसलिए यहाँ दर्ज किया जाता है। ताकि तमाम पीर भाई बे-क़रारी-ए-दिल के वक़्त इसको पढ़ा करें। ख़ुदा तआ’ला मुराद पूरी करेगा।

    “हसन निज़ामी”

    इस नज़्म को लोग आ’म तौर पर भूल चुके हैं।इसलिए इसकी दोबारा इशाअ’त हज़रत महबूब-ए-इलाही के अ’क़ीदत-मंदों और इक़बाल के क़द्र-दानों के लिए बहुत मुफ़ीद और दिल-चस्प साबित होगी।

    जिस वक़्त इक़बाल ने ये शे’र कहा थाः-

    एक नज़र में ख़ुसरव-ए-मुल्क-ए-सुख़न ख़ुसरौ हुआ

    मैं कहीं ख़ाली फिर जाऊँ तिरी सरकार से

    उस वक़्त इक़बाल इक़बाल नहीं बने थे लेकिन महबूब-ए-इलाही की तवज्जोह और करम से उनकी इल्तिजा क़ुबूल हुई और उनको इक़्लीम-ए-सुख़न की ख़ुसरवी के साथ और भी बहुत सी ने’मतें अ’ता हुईं जैसा कि हज़रत की नज़र-ए-इ’नायत से अमीर ख़ुसरौ को सात सौ साल पहले अ’ता की गई थीं। अमीर ख़ुसरौ की बाबत हज़रत महबूब-ए-इलाही ने फ़रमायाः-

    ख़ुसरौ कि ब-नज़्म-ओ-नस्र मिस्लश कम ख़्वास्त

    मिलकियत-ए-मुल्क-ए-सुख़न आँ ख़ुसरौ रास्त

    महबूब-ए-इलाही ने ख़ुसरौ को ख़ुसरौ-ए-मुल्क-ए-सुख़न बनाने के साथ अपना भी बनाया था और इस तरह ख़ुसरौ को नुस्रत-ए-ख़ुदा-वंदी हासिल हुई थी। इक़बाल पर तवज्जोह हुई तो वो भी महज़ सुख़न-तराज़ इक़बाल रहे बल्कि फ़ज़्ल-ए-एज़दी से वो इक़बाल बने जिन से हम आप वाक़िफ़ हैं। (मुदीर)

    1

    क्यूँ हों अर्मां मेरे दिल में कलीमुल्लाह के

    तूर दर आग़ोश हैं ज़र्रे तिरी दरगाह के

    मैं तिरी दरगाह की जानिब जो निकला ले उड़ा

    आसमाँ तारे बना कर मेरी गर्द-ए-राह के

    है ज़ियारत की तमन्ना अल-मदद सोज़-ए-इ’श्क़

    फूल ला दे मुझको गुलज़ार-ए-ख़लीलुल्लाह के

    शान-ए-महबूबी हुई है पर्दा-दार-ए-शान-ए-इ’श्क़

    हाय क्या रुत्बे हैं उस सरकार-ए-आ’ली-जाह के

    तर जो तेरे आस्ताने की तमन्ना में हुई

    अश्क मोती बन गए चश्म-ए-तमाशा-ख़्वाह के

    रंग उस दर्गह के हर ज़र्रा में है तौहीद का

    ताएरान-ए-बाम भी ताएर हैं बिस्मिल्लाह के

    छुपके है बैठा हुआ इस्बात नफ़ी-ए-ग़ैर में

    ला के दरिया में निहाँ मोती हैं इल्ललाह के

    सँग-ए-अस्वद था मगर सँग-ए-फ़सान-ए-तेग़-ए-इ’श्क़

    ज़ख़्म मेरे क्या हैं दरवाज़े हैं बैतुल्लाह के

    किस क़दर सर-सब्ज़ है सहरा मोहब्बत का तिरी

    अश्क की नहरें हैं और साए हैं नख़्ल-ए-आह के

    इ’श्क़ उसको भी तिरी दरगाह की रिफ़अ’त से है

    आह ये अंजुम नहीं आँसू हैं चश्म-ए-माह के

    तेरे नाख़ुन ने जो खोली मीम-ए-अहमद की गिरह

    खुल गए उ’क़्दे जहाँ में हर ख़ुदा-आगाह के

    मेरे जैसे बे-नवाओं का भला मज़्कूर क्या

    क़ैसर-ओ-फ़ग़्फ़ूर दरबाँ हैं तेरी दरगाह के

    मह्व-ए-इज़्हार-ए-तमन्ना-ए-दिल-ए-ना-काम हूँ

    लाज रख लेना कि मैं इक़बाल का हम-नाम हूँ

    2

    सहमी फिरती है शिफ़ा मेरे दिल-ए-बीमार से

    मसीहा-दम बचा ले मुझको इस आज़ार से

    ज़िया-ए-चश्म-ए-इ’र्फ़ां चराग़-ए-राह-ए-इ’श्क़

    तंग आया हूँ जफ़ा-ए-चर्ख़-ए-ना-हंजार से

    सीना-ए-पाक-ए-अ’ली जिनका अमानत-दार था

    शह-ए-ज़ी-जाह तू वाक़िफ़ है इन असरार से

    हिन्द का दाता है तू तेरा बड़ा दरबार है

    कुछ मिले मुझको भी इस दरबार-ए-गौहर-बार से

    इक नज़र में ख़ुसरव-ए-मुल्क-ए-सुख़न ख़ुसरौ हुआ

    मैं कहीं ख़ाली फिर जाऊँ तिरी सरकार से

    ताक मैं बैठी है बिजली मेरे हासिल के लिए

    बैर है बाद-ए-बहारी को मेरे गुलज़ार से

    आज-कल अस्ग़र जो थे अकबर हैं और मौला ग़ुलाम

    हैं मुझे शिक्वे हज़ारों चर्ख़-ए-कज-रफ़्तार से

    क्या करूँ औरों का शिक्वा अमीर-ए-मुल्क-ए-फ़क़्र

    दुश्मनी में बढ़ गए अहल-ए-वतन अग़्यार से

    कह रहे हैं देख कर मुझको क़फ़स में शाद-शाद

    उड़ जाए ये कहीं पर खोल कर मिंक़ार से

    गिर्या-ए-शब्नम पे गुल हँसते हैं क्या बे-दर्द हैं

    वो जो थी बू-ए-मोहब्बत उड़ गई गुलज़ार से

    घात में सय्याद,،माएल आशियाँ-सोज़ी पे बर्क़

    बाग़ भी बिगड़ा हुआ है अं’दलीब-ए-ज़ार से

    कह दिया तंग के इतना भी कि मैं मज्बूर था

    ख़ामुशी मुम्किन नहीं ख़ुद-कर्दा-ए-गुफ़्तार से

    सख़्त है मेरी मुसीबत सख़्त घबराया हूँ मैं

    बन के फ़र्यादी तिरी सरकार में आया हूँ मैं

    3

    कीमिया से भी फ़ुज़ूँ है तेरी ख़ाक-ए-दर मुझे

    हाँ अ’ता कर दे मेरे मक़्सूद का गौहर मुझे

    तू है महबूब-ए-इलाही कर दुआ’ मेरे लिए

    ये मुसीबत है मिसाल-ए-फ़ित्ना-ए-महशर मुझे

    इस मुसीबत में अगर तूने ख़बर मेरी ली

    ग़र्क़ कर ड़ालेगी आख़िर को ये चश्म-ए-तर मुझे

    हो अगर यूसुफ़ मिरा ज़हमत-कश-ए-चाह-ए-अलम

    चैन आए मिस्र-ए-आज़ादी में फिर क्यूँकर मुझे

    आप ये वक़्फ़-ए-तपिश हम सूरत-ए-सीमाब हैं

    क्या तस्सली दे भला मेरा दिल-ए-मुज़्तर मुझे

    क्या कहूँ मैं क़िस्सा-ए-हमदर्दी-ए-अहल-ए-वतन

    तीर कोई भेजता है और कोई नश्तर मुझे

    ये ख़ुशी फैली मिरे ग़म से कि शादी मर्ग हैं

    ज़िंदगानी हो गई है मौत से बद-तर मुझे

    इस बड़ी सरकार के क़ाबिल मिरी फ़र्याद है

    चल हुज़ूरी में शह-ए-यसरिब की तू ले कर मुझे

    मेरा क्या मुँह है कि उस सरकार में जाऊँ मगर

    तेरे जैसा मिल गया तक़्दीर से रहबर मुझे

    वास्ता दुँगा अगर लख़्त-दिल-ए-ज़हरा का मैं

    ग़म में क्यूँ कर छोड़ देंगे शाफ़े-ए’-महशर मुझे

    रोने वाला हूँ शहीद-ए-कर्बला के ग़म में मैं

    क्या दुर-ए- मक़्सद देंगे साक़ी-ए-कौसर मुझे

    हूँ मुरीद-ए-ख़ानदान-ए-ख़ुफ़्ता-ए-ख़ाक-ए-नजफ़

    मौज़-ए-दरिया आप ले जाएगी साहिल पर मुझे

    दिल में है मुझ बे-अ’मल के दाग़-ए-इ’श्क़-ए-अहल-ए-बैत

    ढ़ूँड़ता फिरता है ज़िल्ल-ए-दामन-ए-हैदर मुझे

    जा ही पहुँचेगी सदा पंजाब से देहली तलक

    कर दिया है गर्चे इस ग़म ने बहुत लाग़र मुझे

    आह तेरे सामने आने के ना-क़ाबिल हूँ मैं

    मुँह छुपा कर माँगता हूँ तुझसे वो साएल हूँ मैं

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