Sufinama

सतगुरू नानक साहिब

सूफ़ीनामा आर्काइव

सतगुरू नानक साहिब

सूफ़ीनामा आर्काइव

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    सच्चे ख़ुदा का सच्चा वली,तौहीद का समुंदर, हक़्क़ानियत का तूती-ए- हज़ार दास्तान,पाँच दरियाओं के मुल्क में हवास-ए-ख़म्सा को शीरीं गुफ़्तार से दस्त-ए-वहदत देने वाला सतगुरु नानक साहिब”

    सोने चांदी और हीरे मोती की धूम-धाम में जिसने ग़रीब लोहे को इ’ज़्ज़त का ताज पहुँचाया,हर चेले के हाथ में आहनी कड़ा डाल कर ग़रीब-परस्त बनाया।

    उसको सतगुरु क्यूँ कहें? हक़-ओ-सदाक़त की सदा उसके ज़ेहन से निकल कर आज तक गूंज रही है।

    सतगुरु के सुख को देखो कृपान हाथ में रखता है नफ़्स-ओ-शैतान के मुक़ाबला के लिए हर वक़्त तैयार रहता है।

    ग्रंथ साहिब हिन्दुस्तान की दिल-ओ-जान किताब हम उसके पासबान वो हम सब के लिए नय्यर-ए-दरख़्शाँ।

    श्री वाहे गुरू जी का ख़ाल्सा,श्री वाहे गुरु जी की फ़तह और सत श्री अकाल हिन्दुस्तान का पसंदीदा ना’रा हो और सिख जमाअ’त के गुरू साहिब की इ’ज़्ज़त तमाम अक़्वाम-ए-हिन्दुस्तान में तस्लीम की जाए।

    ज़ुल्फ़ों वाले नानक, आँखों वाले नानक की ता’लीम बुलंद हो कि उसकी बुलंदी हिन्दुस्तान के गुरु नानक साहिब की ता’लीम ख़ालिस तौहीद की थी।इसका सुबूत उन लोगों के लिए जो सिख मज़हब से वाक़िफ़ नहीं हैं आसान है।वो सिखों के लिबास, सिखों के चेहरे और सिखों के नाम में रंग-ए-वहदत मा’मूली ग़ौर के बा’द मा’लूम कर सकते हैं।

    हर सिख केस (सर के बाल) कंघा, कृपान (छोटी छुरी) कड़ा (हाथ का आहनी हल्क़ा कच्छा (जांगिया) पाँच काफ़ अपने जिस्म के साथ रखता है जिससे सिख क़ौम की यक्ताई साबित होती है।

    कोई सिख दाढ़ी नहीं मुंडवाता कतरवाता है।ये भी अ’लामत वहदत की है,क्यूँकि क़ौम एक शक्ल की मा’लूम होती है।कोई सिख तम्बाकू के पास नहीं जाता।ये निशान भी वहदत का है।हर सिख पगड़ी बाँधने पर मजबूर है।इसके अंदर भी वहदत का असर है इसलिए कि ये दोनों चीज़ें सिख क़ौम की ख़ुसूसियात मा’लूम होती हैं।

    हर सिख मर्द के नाम में सिंह का लफ़्ज़ ज़रूर होता है और सिख औ’रत के नाम में कौर का लफ़्ज़ होना ज़रूरी है।और ये दोनों सिख क़ौम की यक-जहती को ज़ाहिर करती हैं।

    उनकी किताब एक ही है।उनके अ’क़ाइद-ए-उसूली में भी कुछ ज़्यादा कसरत नहीं है।इसलिए सिख क़ौम के बानी सतगुरू नानक साहिब तौहीद के सच्ची दाई’ इस मुल्क-ए-हिन्दुस्तान में थे।

    आँखों वाले नानक

    क़सम है इस आ’लम-ए-फ़ानी के चश्म-ए-हैराँ की,क़सम है समुंद्री जोश-ओ-तूफ़ान की,क़सम है तुख़्म-ए-नातवाँ की जो ख़ाक में मुंह छुपा कर चंद दिन चला करता है और फिर अंगड़ाई लेकर दीदा-ए-काएनात के लिए आँख खोलता है।क़सम है कोएले की जिसकी ज़िंदगानी सोख़्त है,क़सम है आग की जिसकी ज़िंदगानी सोख़्त है, क़सम है आग की जो सरापा सोज़ है।नानाक आँखों वाले थे।उनकी दीद में हमारे वास्ते एक शनीद थी।उनकी आँख देखती थी,कहती थी, सुनती थी।वो एक ही वजूद से सब काम लेते थे और हमारी तरह आँख,कान ज़बान की कसरत के मोहताज थे।उन्होंने जो कहा वही देखा और जो देखा वही कहा।उनकी नज़रों में तासीर-ए-तक़रीर थी। उनकी निगाहों से होश की ता’मीर थी।

    क़ुरआन शरीफ़ में ख़ुदा ने सवाल किया हल-यस्तविल-आ’मा-वल-बसीर। क्या अंधा और देखने वाला बराबर है।अर्वाह ने जवाब दिया होगा अंधे और देखने वाले में यकसाँ जान है,फिर दोनों में फ़र्क़ कहाँ? मगर जब रूहें इस आ’लम-ए-अस्बाब की तरफ़ मुतवज्जिह हुई होंगी तो समझ में आया होगा कि बे-शक अंधे और देखने वाले में बड़ा फ़र्क़ है।

    जिस्म की नज़र आने वाली आँख तस्वीर खींचने का कैमरा है,रास्ता दिखाने का वसीला है लेकिन उसकी दीद महदूद है।और मुक़य्यद-ओ-महदूद का होना बराबर है।लिहाज़ा ज़ाहिर है की आँख वाले सब अंधे।आँख वाला वही है जिसकी नज़र माद्दियात की हुदूद में असीर नहीं है और जो ग़ैर-महदू-ओ-ग़ैर-महसूस काएनात तक रसाई रखती है।

    वो आँख सबको नहीं मिलती है।वही आँखों वाला कहलाता है।क़सम है नज़र के ख़ुमार होश-शिकन की।क़सम है निगाहों के तीर-ए-बे-ख़ता की।क़सम है उन संगीनों और बर्छियों की जो आँखों के आस-पास पहरा देती हैं।नानक आँखों वाले थे उनकी आँख दीदार-ए-पार करती थी।।। उनकी आँख हर ना-मा’लूम-ओ-ना-महसूस हस्ती को देखती और दिखाती है।

    नानक आदमी थे और शक्ल-ए-तअ’य्युन में तमाम ज़रूरियात-ए-आदमियत में मशग़ूल नज़र आते थे मगर उनकी आँख क़ुवा-ए-बशरी से निराली शान रखती थी।वो एक ही आँख से देखते भी थे, बोलते भी थे, सुनते भी थे।उसी आँख से बे-शुमार आँखें मख़मूर होती थीं।क्यूँकि उनकी आँख एक आतिश-ख़ाना थी।नानक की आँख जज़्बात-ए-शैतान के फ़ना करने में एक तोप-ख़ाना थी।वो तोप-ख़ाना जो जर्मनी की तोपों से ज़्यादा ताक़त-वर था क्यूँकि उससे दिल के क़िले’ फ़त्ह होते थे। मिट्टी के क़िले’ नहीं थे

    नानक की आँख समुंद्र थी जिसकी तह में मोती बिखरे हुए थे।वो जोश में आती थी तो ग़ुरूर-ओ-तकब्बुर के जहाज़ों को पाश-पाश कर देती थी और सुकून की शान दिखाती थी तो सब के बेड़े पार लग जाते थे।

    चश्म-ए-नानक कुर्रा-ए-शम्सी थी जिसकी कशिश पर निज़ाम-ए-आ’लम का क़रार नज़र आता है।उसमें जादू था जो लोगों को बे-ख़ुद कर देता था।उस में ख़ुनकी थी जिससे अर्वाह तसल्ली पाती थीं।

    नानक फ़ितरत-ए-इलाही की आँख के तारा थे जिसमें नूर-ए-मोहम्मदी जल्वा-फ़गन था।यही वजह थी कि उन्होंने रसूल-ए-अ’रब सल्लल्लाहु अ’लैहि वसल्लम की तरह ग़ैर-ए-ख़ुदा की परस्तिश से इंकार किया और मरासिम-ए-जिहालत को तोड़ डाला और काएनात के हर ज़र्रा को नज़र-ए-तौहीद से देखा।

    ऐसी नज़रें अदब के क़ाबिल हैं।प्यार के काबिल हैं।इन्सान अपनी सब क़ाबिलियतें उन पर निसार कर दे और फ़िदा हो जाएगी।

    ज़रा सुनना नानक बाबा की आँखें आँखों ही आँखों में कुछ कह रही हैं।

    “नाम-ए-हक़ का विर्द करो।ख़ैर ख़ैरात को अपना शिआ’र बनाओ। ग़ुस्सा-ओ-ग़ज़ब से दूर रहो।जिस्म को फ़ानी समझो।

    ये ख़ूब इशारे हैं आओ फिर कुछ सुनें।उनसे पूछें क्यूँ बाबा अच्छी ज़िंदगी तारिक की है या उसकी जो दुनिया में मसरूफ़ रह कर ख़ुदा को याद करता है।

    लो,जवाब मिला।फ़रमाते हैं:

    “ख़ाना-दारी की ज़िंदगी को सब पर फ़ज़ीलत है क्यूँकि दुनिया-दार अगर विर्द-ए-इलाही करे और राह़-ए-हक़ में ख़र्च करने से दरेग़ करे तो वो सबसे अफ़ज़ल है। कुँवें का पानी अगर निकलता रहे तो साफ़ और शीरीं रहता है वर्ना ख़राब और बदबू-दार हो जाता है।इसी तरह ख़ैरात करने से इ’ज़्ज़त और दौलत में तरक़्क़ी होती है”

    “इन्सान की फ़ज़ीलत नेकी और हक़-शनासी से है और दुनिया-दार की फ़ज़ीलत ये है कि नेक-चलन हो।तारिकान-ए-दुनिया की हिफ़ाज़त-ओ-ख़िदमत करे।अच्छी सोहबत से रुहानी फ़ैज़ पाए।शीरीं- कलामी इख़्तियार करे।जो कुछ हाथ आए बांट खाए।”

    सुब्हान-अल्लाह क्या लेक्चर था,क्या ख़ुत्बा था,क्या अल्फ़ाज़ थे,क्या मा’नी थे।दुनिया-दारों को दुनिया में रहने का क्या अच्छा सबक़ दिया था।

    अब दर्याफ़्त शुरूअ’ हुई है तो लाओ ज़रा इत्मीनान-ए-क़ल्ब का रास्ता भी पूछ लें।ख़ुदा ने सब कुछ दिया है।माल भी है,औलाद भी है,इ’ज़्ज़त भी है मगर दिल को किसी तरह क़रार नहीं आता।वो हर वक़्त बे-कल रहता है।क्यूँ दाता एक निगाह इस मस्अले पर भी होगी? जी निहायत उदास रहता है।फ़रमईए कि ख़ातिर जम्अ’ हो और बे-कली से नजात मिले।इर्शाद हुआ:

    जो हवास-ए-ज़ाहिरी-ओ-बातिनी और क़ुवा-ए-फ़ासली को लज़्ज़ात-ओ-महसूसात से रोकते हैं और दिल में नाम-ए-हक़ का विर्द करते रहते हैं,वो सआ’दत-ए-दारैन से बहरा-याब होते हैं।तसल्ली और तस्कीन उन्हीं को मिलती है।

    “जिस तरह पानी के डालने से आग ठंडी हो जाती है वैसे ही मुर्शिद-ए-सादिक़ के कलाम से नफ़्सानी जोश-ओ-ख़रोश फ़रो होता है और मलकुल-मौत का ख़ौफ़ नहीं रहता।जो लोग हक़ को प्यार करते हैं वो हादी-ए-बर-हक़ से वस्ल पाते हैं और क़ुर्बत-ए-इलाही का सुरूर उठाते हैं”

    सत श्री अकाल ने जो फ़रमाया हक़ है।अब बाबा से ज़रा आ’लिम और जाहिल का फ़र्क़ भी दर्याफ़्त करो क्यूँकि इस मज़मून में यही मक़्सूद है कि आँख वाले की हक़ीक़त मा’लूम हो।

    बाबा प्यारे! हमको ये बता कि आ’लिम और जाहिल में क्या फ़र्क़ है? इर्शाद हुआ:

    “आ’लिम एक तालाब की मानिंद है।जाहिल और मुतअ’स्सिब लोग जो इर्फ़ान-ए-इलाही से बे-नसीब हैं मेंढ़क की तरह कीचड़ में फंसे हुए हैं।और आ’रिफ़ान-ए-अहदियत उस तालाब में कंवल के फूल हैं और तालिबान-ए-हक़ भँवरे हैं।

    “मेंढ़क कंवल के पास ही रहता है लेकिन हक़ीक़त में हज़ारों कोस दूर है क्यूँकि कंवल की ख़ुशबू से बे-बहरा है।और भौंरा जंगल में रहता है मगर चूँकि वो ख़ुश्बू की लज़्ज़त और कंवल रस का शाएक़ होता है,दूर से कर लुत्फ़-ए-सोहबत उठाता है और तसल्ली-ए-राहत पाता है।”

    जिस तरह चकोर चाँद को देख कर ख़ुश होती है तालिबान-ए-सादिक़ हादी-ए-बर-हक़ की ज़ियारत से सुरूर पाते हैं।इंद्राइन के फल को शीर-ओ-शकर से बोया जाये तो भी वो कभी मीठा फल नहीं देगा।इसी तरह सियाह दिल,कोर-बातिन का कलाम-ए-रुहानी ख़्वाह वो आब-ए-हयात की ख़ासियत ही क्यूँ रखता हो कभी फ़ैज़ नहीं पहुँचा सकता।

    अगर तुम दिली रग़बत और मोहब्बत से तालिब हो कर कलाम-ए-हक़ सुनोगे और नेक-आ’माल में मसरूफ़ रहोगे तो तुम आ’लिम हो और तुम को नजात है वर्ना जाहिल रहोगे और तुम्हारा अंजाम ख़राब है।

    अरे इन बातों को सुनकर एक बात ख़ूब याद आई।आओ ज़रा ये भी मा’लूम कर लें कि ये जो दुनिया में शक्लों और सूरतों की ता’ज़ीम होती है और मख़्लूक़-ए-ख़ुदा के दो गिरोह हो गए हैं।एक कहता है कि ये बुत-परस्ती है दूसरा कहता है कि ये सब ज़ात-ए-ख़ुदा की अश्काल हैं और हम उन सूरतों में उसी का जल्वा देखते हैं।आओ पूछें कि हमारा आँखों वाला नानक इस पर क्या कहता है।

    क्यों गुरु बाबा इस में आप क्या फ़रमाते हैं? फ़रमाया हम निरंकारी हैं (या’नी बे-शक्ल ख़ुदा के पुजारी) और निरंकार ने हमारे तमाम बंधन काट दिए हैं।हर क़िस्म की क़ुयूद-ए-वहमी और बातिल ख़्यालात से आज़ाद हैं।हमारा ठाकुर वही निरंकार है या’नी उसकी कोई शक्ल-ओ-सूरत नहीं जो लोग साकार बनाते हैं हम उनको राह-ए-रास्त पर नहीं जानते। बग़ैर शक्ल-ओ-सूरत क़ाएम किए उसकी दीद ना-मुमकिन है। वो अ’र्श से फ़र्श तक हर ज़र्रा में रहा है।मुर्शिद-ए-सादिक़ की ख़िदमत करोगे तो उसकी दीद मयस्सर जाएगी।

    बस बाबा ! जान लिया,पहचान लिया।अब मानते हैं कोई उ’ज़्र नहीं। आँखों वाले तेरी आँखों के क़ुर्बान जिन्हों ने मौला की राह दिखाई। अब बता कि हम क्यूँ कर उन भठके हुए ना-दानों को समझाएँ जो तेरी पाक और सीधी तरीक़त को अपने नफ़्सानी ख़यालात से आलूदा करते हैं और तेरे सिख धर्म पर जो सुख से भरपूर है ता’न की ज़बान खोलते हैं।

    तू सच्चा,तेरी ज़बान सच्ची,तेरी आँख सच्ची और उसकी दीद सच्ची।बाक़ी झूटा सब संसार।

    ज़ुल्फ़ों वाले नानक

    बे-शुमार कानों ने सुना,ला-ता’दाद आँखों ने देखा,अन-गिनत दिलों और दिमाग़ों ने समझा कि हज़रत गुरू-नानक साहिब के आ’रिफ़ाना कालम में कैसी शीरीनी है,ठंडक है और सुरूर-ओ-इत्मीनान है।पंजाब कहता है कि मैं पाँच दरियाओं से सैराब होता हूँ मगर दरिया बोले हमसे ज़्यादा तर-ओ-ताज़गी उस इन्सान की बातों में है जिसका नाम नानक था और जो ज़ाहिर-ओ-बातिन के हवास-ए-ख़म्सा को सैराब करने आया था।पंजाब भूल वो तेरी ख़ुश्क ख़ाक से नुमूदार हुआ था।

    दिल की आँख का नाम बसीरत है।जिस्म की आँख को बसारत कहते हैं।बसीरत पंजाब में गुज़री तो नानकी मय-कदा के जाम से सर-शार-ओ-मख़मूर हो गई।बसारत हसरत-ओ-यास में खड़ी देखती रही।आख़िर उसने नानक की ज़ुल्फ़ों को अपनी पलकों से दराज़-गेसुओं को चूम कर पूछा नम इस नूरानी दिमाग़ पर कब से हो? क्यूँ हो? ज़ुल्फ़ बोली अपनी हस्ती पर ग़ौर कर।मेरा राज़ ख़ुद ब-ख़ुद ज़ाहिर हो जाएगा।पलक झपकी और उसने अपने वजूद का मुतालआ’ शुरूअ’ किया।

    उसने सोचा रौशन आँख के किनारे मुझे क्यूँ खड़ा किया गया।दिल ने बताया अपनी टेढ़ी नोकों को देख दुनिया के गर्द-ओ-ग़ुबार और आ’दा-ए-अनवार की हिफ़ाज़त के लिए तुझको मुक़र्रर किया गया है। तुझको एक बे-क़रारी मिली है ताकि वह हर सेकंड में एक-बार झपके और बैरूनी दुश्मनों को नूर-ए-चश्म पर हमला करने दे।

    पलकों ने ज़ुल्फ़ से कहा। मेरा तू सिर्फ़ फ़ल्सफ़ियाना वजह बता सका। तू मुझे कुछ और बता कि क़रार नसीब हो।ज़ुल्फ़ ने जवाब दिया हर चीज़ की शनाख़्त उसकी ज़िद और अ’क्स से होती है। गर्मी तपिश,ख़नकी नमी का पता बताती है।प्यास पानी तक ले जाती है।काँटा फूल की जानिब इशारा करता है।अंधेरा रौशनी की ज़रूरत को नुमूदार करता है इसलिए क़ुदरत ने जिस्म-ए-इन्सान के हर उस हिस्से पर जहाँ ज़ात-ए-इलाही के मख़्फ़ी अनवार पोशीदा हैं काले बालों के निशान लगा दिए हैं ताकि ज़ुल्मात के साया में आब-ए-हयात की तलाश की जाए।

    ज़ुल्फ़-ओ-पलक की बातों में नूर-ए-दीदा को आगे बढ़ने की फ़ुर्सत मिली और उसने नानक बाबा की नज़रों पर अपना वुजूद सदक़े कर के पूछा सतगुरु अपनी काकुलों का भेद बता।बाबा की भगत नवाज़-निगाहों ने चश्म-ए-मुश्ताक़ से कुछ मख़्फ़ी इशारे किए जिनसे वो तड़प गई और आँसुओं की चादर में मुँह लपेट कर बे-होश हो गई।

    अ’क़्ल-ओ-दानिश के सर पर तल्वारें खिंच गईं और पुकारने वाले ने कहा ये कूचा दूसरा है यहाँ अदब-ओ-मोहब्बत के दिमाग़ रसाई पाते हैं और अ’क़्ली ग़ुरूर के मतवाले ज़लील-ओ-रुस्वा होते हैं।

    तूने नहीं सुना मुसलमानों के सबसे बड़े पैग़म्बर हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहु अ’लैहि वसल्लम भी अक्सर लंबे बाल सर पर रखते थे।उनके रुहानी नाएब-ओ-जानशीन हज़रत मौला अ’ली रज़ी-अल्लाहु अ’न्हु भी गेसू-दराज़ थे और ख़ानदान-ए-नबुव्वत के शब-चराग़ हजरत इमाम हसन के शानों पर भी काकुलों की प्यारी लटें लटका करती थीं।और मुसलमानों के तमाम बड़े-बड़े रुहानी पेशवा भी उ’मूमन ज़ुल्फ़-दराज़ी के आ’मिल थे।दूसरी तरफ़ नज़र उठा कर यूनान में जा और उसके फ़ल्सफ़ियों, हकीमों और अर्बाब-ए-रूहानियत को देख अक्सर ज़ुल्फ़-दराज़ नज़र आएँगे।

    हिन्दुओं के क़दीम ज़माने के पुराने बुत-ख़ानों की तस्वीरों में देख। सब के सुरों पर बालों का जोड़ा नज़र आएगा।मिस्र में हज़ारों बरस पहले की तस्वीरों पर नज़र डाल ये जल्वा वहाँ भी दिखाई देगा।

    ख़ुद इस यूरोप के बुज़ुर्गों को सामने ला जिसकी औलाद दाढ़ी मूंछ का सफ़ाया हुस्न-ए-मर्दानगी तसव्वुर करती है वो भी अक्सर लंबे बाल रखते थे।

    आदमी जिस फ़ितरत पर पैदा होता है तू उसका मुक़ाबला कर और फ़ितरती बातों को सँभाल और ग़ैब की बर्क़ी लहरों के तार काट।

    इस आवाज़ को सुनकर मैंने कहा मेरा इस पर यक़ीन है मगर पुकारने वाले मुझको दुनिया की दलीलों में डाल।सतगुरु की ज़ुल्फ़ों तक क्यूँकर पहुंचते हैं उसका रास्ता बता।बसारत बे-होश हो गई। बसीरत ख़ामोश हो गई।अ’क़्ल-ओ-ख़िरद के सर काट डाले गए।अब मैं तुझसे कहता हूँ कि नानकी ज़ुल्फ़ की ख़ुशबू किस तरह हासिल होती है।मुझे बता कि मैं उसे पाऊँ।

    कहा बात साफ़ है।तजल्लियात बर्क़ी हों या रुहानी सिल्सिला के तलब-गार हैं।इस मैदान का सिल्सिला मोहब्बत है।अगर तू नानकी फ़ैज़ का तालिब है तो उस इ’श्क़ को इख़्तियार कर जिसके बिरोग में सतगुरु नानक ने बाल बढ़ाए, पाकीज़ा ज़र्दशत ने बाल बढ़ाए। इ’श्क़ की ज़ुल्फ़ें मंज़िल-ए-जानाँ का पता बताती हैं।इस ज़ंजीर को पाँव में डाल, हाथ में डाल, गले में पहन और दिल को भी उस में असीर कर ताकि तसल्ली,इत्मीनान, सुरूर-ए-अबद और शांति नसीब हो।

    (हज़रत बाबा फ़रीद गंज शकर के नवासे और सुल्तानुल-मशाइख़ हज़रत ख़्वाजा निज़ामुद्दीन औलिया के जानशीन शम्सुल-उ’लमा हज़रत ख़्वाजा निज़ामी की चंद क़दीम तहरीरें)

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