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अस्मारुल-असरार - डॉक्टर तनवीर अहमद अ’ल्वी

सूफ़ीनामा आर्काइव

अस्मारुल-असरार - डॉक्टर तनवीर अहमद अ’ल्वी

सूफ़ीनामा आर्काइव

MORE BYसूफ़ीनामा आर्काइव

    अस्मारुल-असरार हज़रत ख़्वाजा सदरुद्दीन अबुल- फ़त्ह सय्यिद मोहम्मद हुसैनी गेसू-दराज़ बंदा नवाज़ की तस्नीफ़-ए-मुनीफ़ है और जैसा कि इसके नाम से ज़ाहिर है कि हज़रत के रुहानी अफ़्कार और कश्फ़-ए-असरार से है जिसका बयान आपकी ज़बान-ए-सिद्क़ से रिवायात-ओ-हिकायात की सूरत में हुआ है।जिनके साथ कलामुल्लाह की रौशन आयात और अहादीस-ए-रसूल-ए-मक़्बूल से इस्तफ़ाद-ओ-इस्तिनाद किया गया है।असरार-ए-ग़ैब के शुहूद और दायरा-ए-तसव्वुर से मरकज़-ए-वुजूद तक ज़ेहनी सफ़र के लिए रूह की जिस रौशनी और तजस्सुस और जिस मंतिक़ी रवैय्या की ज़रूरत पेश आती है हज़रत ने उससे मुतअ’ल्लिक़ बातों को तरह-तरह से समझने और समझाने की कोशिश की है और इस मा’नी में आप ज़ात-ए-बहत और असरार-ए-वजूद के अनथक शारेह हैं।

    इस किताब के अस्ल मत्न तक गो सुतूर की तहरीर के वक़्त मेरी रसाई नहीं हुई लेकिन उसका वो तर्जुमा मौलवी सय्यिद यासीन एम.ए ने किया था उसका दूसरा ऐडीशन पेश-ए-नज़र है,जिसे सय्यिद मोहम्मद गेसू-दराज़ तहक़ीक़ाती एकेडमी रौज़ा-ए-मुनव्वरा (बुज़ुर्ग) गुलबर्गा शरीफ़ कर्नाटक ने माह-ए-ज़ीक़ा’दा सन 1401 हिज्री मुताबिक़ माह-ए-सितंबर सन 1981 में शाए’ किया है।इसकी सफ़हात की सैर और मुख़्तलिफ़ अस्मा के मुतालआ’ के बा’द अपनी महदूद नज़र के बाइ’स मुझे बार-बार ये ख़याल आता रहा है कि हज़रत-ए-वाला एक वजूदी सूफ़ी से ज़्यादा एक तौहीदी सूफ़ी हैं।और ज़ुल-ज़ात या वजूद-ए-बहत के ज़िम्न में हज़रत ने जो बहसें और क़ुरआन-ओ-हदीस से इस्तिफ़ादा-ओ-इस्तनाद के साथ जो तवज्जोहात फ़रमाई हैं उनका तअ’ल्लुक़ तसव्वुर-ए-तौहीद के इंशिराह और फिर उसके इब्लाग़ से है।जामी,ग़ज़ाली,अबुल-हसन ख़रक़ानी जैसे उन बुज़ुर्गों के हवाले से बात की है जो शरीअ’त-ओ-तरीक़त की यकजाई के क़ाएल हैं और जिनके यहाँ फ़ल्सफ़ा की अहमियत ज़िम्नी है।

    इसकी तरफ़ ज़ेहन इसलिए भी मुंतक़िल होता है कि हज़रत बंदा-नवाज़ (रहि•) ने शैख़ मुहीउद्दीन इब्न-ए-अ’रबी शैख़-ए-अकबर का हवाला नहीं दिया।हज़रत ने शरीअ’त और तरीक़त की दुई को कहीं तस्लीम नहीं किया और दोनों की मुराद एक और नफ़्सियाती सत्ह को एक दूसरे से इसी तरह मुंसलिक-ओ-मरबूत पाया कि एक देखने वाली नज़र के लिए दोनों में इम्तियाज़ मुश्किल है।

    न-तवाँ तुरा-ओ-जाँ रा हम ज़े इम्तियाज़ कर्दन

    हज़रत के अफ़्क़ार और सिलसिला-ए-इज़हार में अहद-ओ-अहदियत ही की इस्तिलाहें बार-बार आई हैं।और अहदियत के साथ अहमद-ए-बे-मीम की तशरीह भी अहिदयत के उसी रौशन-ओ-शफ़्फ़ाफ़ नुक़्ता-ए-नज़र के साथ पेश की गई है।तसव्वुफ़ के मुख़्तलिफ़ मसाइल और मक़ामात की रम्ज़-शनासी-ओ-पर्दा-कुशाई में भी यही ज़ाविया-ए-निगाह कार-फ़रमा रहा है।

    इस किताब से मुतअ’ल्लिक़ इसके पेश-लफ़्ज़ में लिखा गया है कि अक्सर साहिब-ए-इ’ल्म-ओ-फ़ज़्ल बुज़ुर्गों का ये ख़याल बिल्कुल सही है कि फ़न्न-ए-तसव्वुफ़ और मआ’रिफ़-ए-सुलूक में इससे आ’ला-तर और बेहतर किताब हिन्दुस्तान में तस्नीफ़ नहीं हुई।इसमें ज़िक्र है,शुग़्ल है, मरातिब-ए-सुलूक का बयान है, इ’श्क़ है, तौहीद है, हक़ाएक़-ओ-मआ’रिफ़ हैं। ग़र्ज़ सब कुछ और एक ख़ास अंदाज़ से है।

    इस किताब में रुमूज़-ए-हक़ाएक़ की तशरीह-ओ-ता’बीर में क़ुरआन-ओ-हदीस से जो रुजूअ’ किया जाता रहा है उस का अंदाज़ा इस से भी होता है कि शायद ही कोई बात हज़रत की ज़बान पर ऐसी आई हो जिसके लिए क़ुरआन-ओ-हदीस से सनद ली गई हो।इसी के साथ जिस तरह क़ुरआन-ए-करीम की सूरतें एक सौ चौदह हैं उसी तरह इस किताब में अस्मार की ता’दाद भी 114 है।उइस के शारेह ने भी इसकी तरफ़ इशारा किया है।

    “सूरतहा-ए-क़ुरआन सद-ओ-चहारदा अस्त-ओ-किताब-ए-समर हम ब-रौनक़-ए-आँ मुश्तमिल बर-सद-ओ-चहारदा समर। ता इत्तिबाअ’-ए-तंज़ील हासिल शवद।” अपने पेश-लफ़्ज़ में साहिब-ए-अस्मार ने इसके ख़ुसूसी मौज़ू या’नी तौहीद के तसव्वुर और उसकी तफ़रीद को वाज़ेह किया है। इन इस्तिलाहात-ए-आ’लिया की ता’रीफ़ हवाशी में इस तौर पर की गई है:

    तजरीदुत्तौहीद और इफ़रादुत्तफ़रीद से मुराद मक़ाम-ए-समदियत है, जामे’-ए-कुल है। इस के वरा कोई मक़ाम नहीं।तजरीद “को अ’लाइक़-ए-ज़ाहिरी से ख़ाली करना, तफ़रीदों को हिजाबात-ए-ज़ुहूर से पाक करना और तौहीद-ए-रूह को मा-सिवल्लाह से मुनज़्ज़ह करना है।

    अल्लाह पाक की हम्द-ओ-सना के बा’द सहाबा-ए-रसूल-ए-मक़्बूल हज़रत अबू बक्र रज़ी-अल्लाहु अ’न्हु हज़रत उ’मर फ़ारूक़ रज़ी-अल्लाहु अ’न्हु और हज़रत उ’समान रज़ी-अल्लाहु अ’न्हु की रुहानी अ’ज़्मतों को सरहा गया है।और हज़रत अ’ली कर्रामल्लाहु वज्ह-हु के बारे में कहा गया है कि कोई शरफ़ और बुजु़र्गी ऐसी थी जिसमें वो उसकी हद से मुतजाविज़ हुए हों।कोई नेकी और एहसान ऐसा था जिसको उन्होंने जीत लिया हो।वो क़ाएम-मक़ाम,वो में’राज़-ए-रसूल थे और शैख़ुल-मशाइख़-ओ-क़ुद्वतुल-अहरार। इसके वाज़ेह तौर पर ये मा’नी हैं कि हज़रत-ए- वाला तफ़जील-ए-अ’ली के क़ाएल थे।और इसी के साथ उन्हें बानी-ए-सिलसिला-ए-रूहानियत क़रार देते थे जो नक़्शा-ए-हिंद ये सिलसिला और तरीक़-ए-सुलूक के मासिवा तमाम अहल-ए-सिलसिला का अ’क़ीदा है।

    बहुत से समार ऐसे हैं जिनके आख़िर में फ़क़त भी लिखा हुआ मिलता है जिससे ये मुराद है कि आपने इस हद तक इस बहस को काफ़ी समझा लेकिन सच ये है कि हर बहस के साथ आपके यहाँ तसव्वुर-ए-तौहीद एक ज़ेरीं लहर के तौर पर आगे बढ़ता रहा है।और एक नुक़्ता-ए-इर्तिकाज़ से पैदा हो कर गोया आबी दायरों का ये सिलसिला बराबर फैलता चला गया है।और अपने फैलाव के साथ फ़िक्र की मुख़्तलिफ़ जिहतों को समेटता हुआ नज़र आता है।

    ईब्तदाअन आपके तरीक़ा-ए-रसाई में फ़ल्सफ़ा-ओ-मंतिक़ का रंग ज़्यादा गहरा है।धीरे-धीरे विज्दानी कैफ़ियात का ग़लबा बढ़ता जाता है लेकिन ये बात इब्तिदा ही में आपकी ज़बान-ए-सिद्क़ तर्जुमान पर आई है।मैंने इस में अपनी तरफ़ से कुछ नहीं कहा बल्कि जो कुछ मुझे लिखवाया गया ये वो लिखा हूँ।

    अपनी इस तस्नीफ़ से मुतअ’ल्लिक़ ये बात हज़रत ने बड़े मुख़्तसर और वाज़ेह अल्फ़ाज़ में लिखी।

    फ़िक्र-ए-समर की तरफ़ माइल हुआ तो दिल में ख़याल आया कि इन अस्मार को अस्मारुल-असरार कहूँ कि वो उन तालिबान-ए-हक़ के काम आए जिन्हें अहरार कहा जता है कि वो ख़ुदा के आज़ाद बंदे हैं जो इ’श्क़-ए-इलाही में गिरफ़्तार हैं। अगर ये उन अस्मार पर तवज्जोह करें तो मरातिब-ए-विलायत और मक़ाम-ए-समदियत के अहवाल से वाक़िफ़ हों और फ़नल-फ़ना के रम्ज़ को जान लें।

    जैसा कि इस से पेशतर कहा जा चुका है पहले ही समर में हज़रत ने हेयूला और सूरत से बहस की है जो आ’लम-ओ-सूरत-ए-आ’लम के बारे में फ़ल्सफ़ियाना मबाहिस की तरफ़ इशारा करने वाली मुस्तलहात में है और फ़रमाया है तुम कहते हो कि आ’लम हेयूला और सूरत से मुरक्कब है ये कैसे हो सकता है कि हेयूला इस्तिलाह-ए-फ़ल्सफ़ा के ए’तबार से क़दीम है और सूरत हादिस है दोनों एक हुक्म में दाख़िल हैं और इस ज़िम्न में तसव्वुफ़ के उस मा’रूफ़ मस्अला को पेश किया है कि तजल्ली को तकरार और ज़ात को इन्क़िलाब नहीं।

    हज़रत जुनैद बग़दादी रहमतुल्लाहि अ’लैह से मुतअ’ल्लिक़ मज़्कूरा नुक्ता की वज़ाहत करते हुए ये रिवायत की है कि किसी शख़्स ने अल-हम्दुलिल्ला कहा तो आपने फ़रमाया इसके साथ रबुल-आ’लमीन भी कहो। इसके इस्तिफ़सार पर आपने जवाब दिया कि हादिस जब क़दीम से मिलाया जाता है तो अपना असर-ए-हुदूस खो देता है। बर्फ़ के कूज़ा को अगर पानी में डाल दिया जाए तो उसकी आ’रिज़ी शक्ल मह्व हो जाती है और वो अपनी अस्लियत की तरफ़ वापस लौट जाता है।

    आगे चल कर यही बहस इस वालिहाना अंदाज़-ए-फ़िक्र और हुस्न-ए-इज़हार के साथ सामने आती है। मैं ख़ुद से गुज़र चुका हूँ इसी से उसको जानता हूँ। मेरा कोई नाम नहीं दहुम दुइ से एक नाम रख लिया गया था ताकि तमीज़ हो। जुज़्व, कुल इज्माल और तफ़्सील ये सब अल्फ़ाज़ के गोरख धंदे हैं।

    एक मौक़ा’ पर हज़रत ने फ़रमाया है। हक़ बात से इंकार करने वाला शैतान है और शैतानियत दर अस्ल हक़ीक़त से दूर है। शैतान हक़ से दूरी और महजूरी की अ’लामत है।

    समर –ए-सेउम में हज़रत अ’ली का ये क़ौल दुहराया गया है। इ’ल्म नुक़्ता है और उसकी कसरत जिहालत। जिसकी ता’बीर इस तौर पर की गई है की इ’ल्म नुक़्ता-ए-वहदत के मुशाबिह है कि उसी नुक़्ता से हुरूफ़ और हुरूफ़ से अल्फ़ाज़ और अल्फ़ाज़ से कलिमात बनते हैं चूँकि ये नुक़्ता-ए-वहदत किसी को नज़र नहीं आता इसलिए लोग उसकी हक़ीक़त को नहीं जानते।यही नुक़्ता-ए-वहदत जब वजूद-ए-बहत से तअ’य्युन-ए-अव्वल में आता है और यहाँ से गुज़र कर अश्काल में उनकी अपनी इस्ति’दाद-ओ-क़ाबलियत के ए’तबार से रू-नुमा होता है तो उसके बहुत से नाम होते हैं लेकिन आग़ाज़-ओ-इख़्तिताम में उस नुक़्ता के अ’लावा कुछ नहीं होता। हुवल-अव्वलु हुवल-आख़िरु,हुवज़्ज़ाहिरु,हुवल-बातिनु। पानी हज़रत के यहाँ ता’बीर-ए-हक़ाएक़ के लिए एक अहम अ’लामत है। हज़रत शैख़ शहाबुद्दीन सुहरवर्दी ने भी व-उंज़ि-ल मिनस्समाइ-माअन की तशरीह करते हुए कहा है कि यहाँ इ’ल्म से पानी मुराद है।

    आब-ओ-कूज़ा-ओ-बर्फ़ का ज़िक्र इस से पेशतर चुका है। एक और समर में लिखा है:

    समुंदर हरकत में आता है तो उसे मौज का नाम दिया जाता है और जब दरिया का पानी सूरज की गर्मी से भाप बन कर उठता है और तह-ब-तह हो जाता है तो उसको अब्र कहा जाता है और जब बरसने लगता है तो उसे बारिश कहते हैं। यही बारिश जब ज़मीन पर गिर कर बहने लगती है तो उसे नदी का नाम दिया जाता है और ये नदी समुंदर में जा गिरती है तो फिर समुंदर बन जाती है या’नी इ’ल्म अपनी इब्तिदा में अपनी इंतिहा भी है। आपके यहाँ तौहीद-ओ-अहदियत के तसव्वुर में इत्तिहाद का रिश्ता ईजाद का रिश्ता है और यही यगानगत में बे-गानगी को ज़ाहिर करता है जिसकी वजह से अकेली दुइ बाक़ी रहती है। इस की बुनियाद वही उलूही फ़ल्सफ़ा है कि हादिस को क़दीम के साथ नहीं। और अगर ऐसा मुज़िर्र मान लिया जाए तो हादिस का असर बाक़ी नहीं रहता।

    हज़रत ने जगह-जगह ख़ुदा की हस्ती को वरा-उल-वरा कहा है और इस ज़ैल में हज़रत मुहीउद्दीन इब्न-ए-अ’रबी से इख़्तिलाफ़ करते हुए लिखा है:

    मुहीउद्दीन इब्न-ए-अ’रबी कहते हैं कि उसके वुजूद के वरा और कोई वुजूद नहीं है। इस लिहाज़ से उस वजूद को मुतलक़ क़रार देते हैं और उसको कुल्ली मानते हैं। अस्तग़फ़िरुल्लाह उसके तो ये मा’नी हुए कि उसका कौन,उसका वजूद, उसका वजूद उसका ऐ’न एक वुजूद दूसरे में मह्व है। इस नुक़्ता पर मज़ीद इज़हार-ए-ख़याल करते हुए आगे चल कर लिखा है कि इस आ’लम को कश्फ़-ओ-ज़ुहूर का आ’लम बताया जाता है लेकिन वरा-उल-वारा का सुराग़ और पता कोई नहीं जानता। बेचारा हुसैनी उस दरिया में गिर कर ग़र्क़ हो गया है और उस बादिया में गुम हो चुका है।एक समर में अरवाह-ए-सलासा की तशरीह पेश की है और कहा है कि रूह की तीन अक़साम हैं।रूह-ए-हैवानी जो बदन में जारी-ओ-सारी है।रूह-ए-इन्सानी जो जिस्म-ए-इन्सानी में हयात और हर्कत पैदा करती है।तीसरी वो रूह है जो क़ुरआन की इस्तिलाह में नफ़ख़तु-फ़िहि-मिर्रूही का हिस्सा है जो न-दाख़िल है न-ख़ारिज है,न-मुत्तसिल है न-मुनफ़सिल, न-क़रीब है न-बई’द कि वो शश-जिहत में है और शश-जिहत से बैरूं भी है।ये वो जो आ’लम-ए-लाहूत की निशान-देही करती है।

    उसके बा’द लिखा है ख़ुदाया मैंने तेरे भेद को लतीफ़ पर्दा में इशारात के साथ बयान किया है तू अपने बंदों को समझने की फ़ह्म अ’ता फ़रमा।

    हक़ीक़त-ए-अल्लाह और आ’लम-ए-सूरत के बाहमी रिश्ते पर अपने नज़रिया’-ए-तौहीद के तहत गुफ़्तुगू करते हुए आपकी ज़बान-ए-हक़ीक़त तर्जुमान पर ये अल्फ़ाज़ आए हैं:

    जब ख़ुदा किसी पर तजल्ली फ़रमाता है तो ख़्वाह वो किसी सूरत से हो उसकी ज़ात उस तजल्ली से पाक होती है और वो वैसी ही रहती है जैसा कि वो अपनी ज़ात के लिहाज़ से है ।उसकी ज़ात-ए-वरा कुल-वरा है।अलबत्ता वो अपनी सिफ़ात को मुश्तमिल-ओ-मुतशक्किल कर देता है।ये अश्काल और सूरतें उसकी ज़ात का फ़ैज़ हैं कि ये अश्काल और सूरतों ही ज़ात हैं।

    हक़ीक़त हिजाब दर हिजाब है। मा’मूलात फ़ाइ’ल पर हिजाब में,अफ़्आ’ल सिफ़ात पर, सिफ़ात ज़ात पर और ज़ात ज़ातुज्ज़ात पर। अल्लाहु-अकबर।

    हज़रत के यहाँ एक और रूह का भी तसव्वुर मिलता है जिसे हज़रत ने रूह-ए-आ’ज़म कहा है और उसके बारे में लिखा है कि उसमें ख़ुदाई सिफ़ात की तमाम तजल्लियात होती हैं। वो बे-हैयत, बे-जिहत, बे-कैफ़-ओ-कम, ला-मकानी-ओ-ला-ज़मानी है।ज़िंदा को मुर्दा और मुर्दा को ज़िंदा करती है लेकिन वो ख़ुदा नहीं है।हज़रत के फ़रमूदात के मुताबिक़ ये ख़ुदा के जलाल-ओ-जमाल के वस्त से निकलती है ।तसव्वुफ़-ओ-सुलूक के मराहिल में सबसे अव्वल मरहला तक़्वा है जिसकी बुनियाद तवक्कुल-अ’लल्लाह भी है।ख़ुद तवक्कुल को हजरत ने दो हिस्सों में तक़्सीम किया है।एक ये कि रिज़्क़ के लिए अल्लाह पर तकिया किया जाए ये तवक्कुल ख़ुदा को पसंद है और वो मुतवक्किल को ग़ैब से रिज़्क़ पहुँचाता है लेकिन तवक्कुल की दूसरी सूरत ज़्यादा लतीफ़ और नाज़ुक है।वो ये कि मर्द-ए-मुतवक्किल को तवक्कुल से जो ज़ौक़ मिलता है वही उसका रिज़्क़ बन जाता है।तवक्कुल करने वाला अपने नफ़्स को ख़ुदा के सुपुर्द कर देता है।अपने क़ौल-ओ-फ़े’ल को ख़ुद जानता है और ख़ुदा को फाइ’ल-ए-हक़ीक़ी।

    एक समर में शिर्क को भी दो क़िस्मों में बाँटा है जली और ख़फ़ी। शिर्क-ए-जली ये ग़ैर-वाजिब-बिज्ज़ात को ख़ुदा जानना और ख़ुदा कहना है। और ये समझना है कि उससे सिफ़ात और अफ़आ’ल का सुदूर होता है। इस शिर्क की क़ैद से मर्द-ए-आ’क़िल का अज़ रू-ए-अ’क़्ल हट जाना आसान बात है।अलबत्ता शिर्क-ए-ख़फ़ी की क़ैद और उसके जाल से रिहाई-ओ-ख़लासी सख़्त मुश्किल है।काले पत्थर पर अँधेरी रात में सियाह च्यूँटी को चलते हुए देखना है।ये दुइ का शाइबा-ए-ख़याल है।

    एक समर में बयान किया है कि क़ुरआन-ए-पाक में एक तो आयात-ए-मोहकमात और वही अस्ल किताब हैं और दूसरी आयात-ए-मुतशाबिहात। मुतशाबिहात-ए-ज़ैल में कुन फ़-यकुन के बारे में तशरीह करते हुए हज़रत ने लिखा है कि ख़ुदा तआ’ला जब किसी शय की तकवीन करना चाहता है तो उस शय को जो उसके इ’ल्म-ए-नफ़्सी में मौजूद है सूरत-ए-ख़याल की तरह हाज़िर फ़रमाता है और कहता है “हो जा” तो मुजर्रद कहने से वो शय मौजूद हो जाती है।

    एक समर में इ’बादत के मफ़्हूम की वज़ाहत ये कहते हुए की है कि पैदाइश की अस्ल मा’रिफ़त है जिसको इ’बादत भी कहा जाता है।इस मौक़ा’ पर हज़रत ने कश्शाफ़ के हवाला से लिखा है:

    उ’बूदियत वो एहतियाज ज़ाती है जो इन्स-ओ-जिन से कभी अलग नहीं होती। इसी को हम फ़ैज़ से ता’बीर करते हैं और हुकमा-ए-यूनान इसी को नफ़्स-ए-जुज़्ई कहते हैं।हज़रत इब्न-ए-अ’रबी इसको मुतलक़ और मुक़य्यद से ता’बीर करते हैं।वो इसी के क़ाएल हैं लेकिन ये मुहक़्क़िक़ीन का कलाम नहीं है।

    हुकमा-ए-यूनान और शैख़ अकबर मुहीउद्दीन इब्न-ए-अ’रबी का फ़ल्सफ़ा-ए-इलाहियात की तरफ़ इशारा दर अस्ल उस ज़ेहनी फ़िज़ा और इ’ल्मी माहौल की तरफ़ इशारा है जिसमें अस्मारुल-असरार की ता’बीरात-ए-वजूद से बहस की गई है।

    इन्सान के ख़लीफ़तुल्लाह फ़िल-अर्ज़ की वज़ाहत करते हुए फ़रमाया है कि ख़िलाफ़त के मर्तबा की तफ़्वीज़ उसी वक़्त मुम्किन है जब सूरत और मा’नी के लिहाज़ से निस्बत मुकम्मल हो जाए। ख़ुदा ने आदम को अपनी सूरत पर पैदा किया है जिसके ये मा’नी हैं कि ख़ुदा ने सुवरी निस्बत की तक्मील कर के आदम को क़ुर्बत-ओ-मा’रिफ़त अ’ता फ़रमाई जिससे उसको सिर्र–ए–अहदियत-ओ-मा’रिफ़त पर वाक़फ़ियत हासिल हुई।आदम को सज्दा दर अस्ल ख़ुदा तआ’ला ही को सज्दा था।

    हज़रत ने असरार-ए-इलाही पर मुख़्तलिफ़ निकात-ए-फ़िक्र को सामने रखकर जो गुफ़्तुगू की है उसमें तश्बीह-ओ-तम्सील का वो अंदाज़ भी सामने आता है जिसमें हिंदवी असालीब-ए-फ़िक्र की धनक जैसे रंग और सूरतें रू-नुमा होती हैं।एक समर में लिखा है।

    चार मस्तूरात जो अख़्लाक़-ओ-सीरत से आरास्ता-ओ-पैरास्ता थीं दिल की अंजुमन में बैठी आ’लम-ए-क़ुद्स के निकात और आ’लम-ए-जबरूत-ओ-लाहूत के अहवाल-ओ-अतवार पर मसरूफ़-ए-गुफ़्तुगू थीं,उनमें से हर एक के कंधों पर किबरियाई ओढनी थी जो अ’लामात-ए-हयात को छुपाए हुए थी उनके मल्बूसात का रंग अलग-अलग था या’नी एक का काला,एक का सफ़ेद,एक का सुर्ख़ और एक का ज़र्द था।

    किसी आ’रिफ़ की नज़र उस दिल-आवेज़ मंज़र पर पड़ी।उसने उनकी दिलचस्प गुफ़्तुगू को सुना।उसके शौक़ ने एक इश्तियाक़-अंगेज़ अंगड़ाई ली और उसको ख़याल हुआ कि काश ये चारों एक हो जाते। रंगों की तशरीह इस तौर पर सामने आई।

    सियाह-रंग को पसंद करने वाले कहते हैं कि सियाह-रंग आख़िरी रंग है जिसके बा’द अलवान-ए-मुख़्तलिफ़ा का कोई वजूद नहीं। इस रंग का अपनाने वाला उस मक़ाम पर पहुँच जाता है जहाँ तअ’य्युनात मफ़क़ूद हैं। सफ़ेद रंग को पसंद करने वाले कहते थे कि ये जुमला रंगों में रौशन-ओ-शिफ़ा है और लौह-ए-महफ़ूज़ की नुमाइंदगी करता है। जो शय भी इस काएनात में मौजूद है वो लौह-ए-महफ़ूज़ की नुमाइंदगी करता है।जो शय भी उस काएनात में मौजूद है वो लोह-ए-महफ़ूज़ में नक़्श है।

    सुर्ख़ रंग को पसंद करने वाले अफ़राद का कहना है कि ये ग़ैरत-ओ-अहमिय्यत का रंग है और इ’श्क़ का मज़ह है।चौथा रंग इ’श्क़ का ज़हमत-कशी और दूरी-ओ-महजूरी की अ’लामत है जो आ’शिक़ान-ए-ज़ात-ए-अहदियत की ज़िंदगियों की पहचान बन गई है।ये नाटीका भेद तो नहीं है लेकिन रंग और इसके वसीला से मिज़ाज-शनास का तो उस्लूब सामने आता है। इसे हक़ाएक़ की हिंदवी ता’बीर से अलग नहीं कहा जा सकता है।हज़रत ने ख़ुदा और रूह के बाहमी रिश्तों की वज़ाहत बा’ज़ ऐसे सिंबल के ज़रिआ’ फ़रमाई है। यहाँ तक कि जिस्मानी क़ुर्बत और सोशल महबूब की कशिश-ओ-रौशन की बात भी एक से ज़्यादा मौक़ओ’ पर हज़रत की ज़बान-ए-क़लम पर आई।मतलब इस गुफ़्तुगू का ये है कि मुख़्तलिफ़ लोगों ने ता’बीरात-ए-वजूद को अपने-अपने तौर पर पेश किया है लेकिन नुक़्ता-ए-इर्तिकाज़ और मरकज़-ए-अहदियत एक और ग़ैर-मुनक़सिम है।

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