अमीर ख़ुसरो - तहज़ीबी हम-आहंगी की अ’लामत - डॉक्टर अनवारुल हसन
अमीर ख़ुसरो - तहज़ीबी हम-आहंगी की अ’लामत - डॉक्टर अनवारुल हसन
सूफ़ीनामा आर्काइव
MORE BYसूफ़ीनामा आर्काइव
हिन्दुस्तान ज़माना-ए-क़दीम से अपनी रंग-बिरंगी तहज़ीब के लिए एशिया के मुल्कों में इम्तियाज़ी हैसियत का हामिल रहा है।ग़ैर मुल्की अक़्वाम की आमद से यहाँ के तहज़ीबी सरमाया में नए धारे शामिल होते रहे और उनके असरात हमेशा रू-नुमा होते रहे।क़ुदरत से भी इस मुल्क को जुग़्राफ़ियाई ए’तबार से मुतनव्विअ’आब-ओ-हवा मिली है जिसके नुक़ूश कश्मीर से रासकुमारी तक आज भी नुमायाँ हैं।आब-ओ-हवा और पैदा-वार के तनव्वुअ’के साथ साथ ये मुल़्क बहुत सी ज़बानों और तहज़ीबों का भी संगम रहा है।मुख़्तलिफ़ तहज़ीबों के इम्तिज़ाज से इस मुल्क में एक हसीन गंगा-जमुनी तहज़ीब ने जन्म लिया जिसे “हिन्दुस्तानी तहज़ीब’’ कहा जाता है।इस हसीन तहज़ीबी गुलदस्ता के अज्ज़ा-ए-तर्कीबी में बुद्ध मज़हब, हिंदू मज़हब, इस्लाम,फ़ल्सफ़ा-ए-वेदांत और तसव्वुफ़ के रंग सबसे ज़्यादा शोख़,दिल-कश और जाज़िब-नज़र हैं।
तसव्वुफ़ ब-क़ौल अ’ल्लामा शिब्ली वो बातिनी हुस्न है जो मोहब्बत की बुनियादों पर मुश्तक़-ओ-रियाज़त से पैदा होती है और जिसके ज़रिआ’इन्सान अश्या की हक़ीक़त को रुहानी रंगों में देखता है।रूहानियत की इर्तिक़ा इन्सानियत की मे’राज-ए-कमाल है और तसव्वुफ़ की बुनियाद दो चीज़ों पर है।मोहब्बत-ए-इलाही और मइ’य्यत-ए-ज़ाती।सूफ़िया-ए-किराम का दा’वा है कि मोहब्बत-ए-इलाही की दा’वत ख़ुद क़ुरआन-ए-करीम में दी गई है और इसी से मइ’य्यत-ओ-क़ुर्ब-ए-ज़ाती का दा’वा ब-तौर-ए-नतीजा निकलता है।मोहब्बत-ए-इलाही का अ’मली रास्ता ये है कि इन्सान ख़ुदा के बंदों से मोहब्बत करना सीखे क्योंकि क़ुरआन इसी की तालीम देता है और अहादीस-ए-नबवी में भी इसी पर ज़ोर दिया गया है।रसूल-ए-अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व-सल्लम और उनके मुक़द्दस सहाबा का तर्ज़-ए-अ’मल भी इसी दा’वे की शहादत देता है।सूफ़िया-ए-किराम ने मोहब्बत के इसी अ’मली रास्ता को इख़्तियार किया था और ख़िदमत-ए-ख़ल्क़ के लिए अपनी ज़िंदगीयाँ वक़्फ़ कर दी थीं।वो दिन रात इन्सानी दिलों को एक रिश्ता-ए-उल्फ़त में पिरोने के लिए बेचैन रहते थे।उन्होंने नफ़रत,दुश्मनी और बरबरिय्यत के अंधेर में मोहब्बत के चराग़ जला कर लोगों को रौशनी दिखलाई।उन्होंने इन्सानी अख़लाक़ को सुधारने का वो मोहतम-बिश्शान काम किया जिससे मुआ’शरा की इस्लाह हुई और बनी-नौ-ए’-इन्सान में बाहमी उख़ुव्वत और भाई-चारा को फ़रोग़ हुआ।उन्होंने अपनी अ’मली ज़िंदगी से टूटे हुए दिलों को जोड़ने और मोहब्बत-ओ-यगानगत की फ़ज़ा पैदा करने पर सबसे ज़्यादा तवज्जोह सर्फ़ की क्योंकि मोहब्बत ही तमाम बलाओं और मुसीबतों में ढाल का काम करती है।जो शख़्स सर-ता-पा मोहब्बत हो उसे किसी चीज़ का ख़ौफ़ नहीं हो सकता और न वो किसी से नफ़रत कर सकता है।अंबिया और औलिया वहशी जानवरों को राम कर लेते थे और चरिंद-ओ-परिन्द उनकी पनाह में रहते थे। उस की वजह ग़ालिबन यही होगी कि उनकी ज़ात नफ़रत और ग़ीबत से पाक और नूर-ए-वहदानियत की तजल्ली-गाह होती थी।
सूफ़िया-ए-किराम इस हक़ीक़त से ब-ख़ूबी वाक़िफ़ थे कि अपने दुश्मनों,इज़ा पहुंचाने वालों और मुख़ालिफ़ों से मोहब्बत करना और उनकी तरफ़ दोस्ती का हाथ बढ़ाना मोहब्बत का बुज़ुर्ग- तरीन मक़ाम है और इसी से इन्सान को ख़ुदा का क़ुर्ब हासिल होता है इसीलिए उन्होंने इस राह को अपनाया।
जर्मनी के मश्हूर फ़ल्सफ़ी नीतशे ने कहा है कि दोस्त को दोस्त समझने के बजाए दोस्त को दुश्मन समझना इन्सान का बड़ा हुनर है।दर-अस्ल ये मक़ूला उन इन्सान-नुमा हैवानों पर सादिक़ आता है जिसकी माद्दी और हैवानी सिफ़ात उनकी रुहानी और इन्सानी सिफ़ात पर ग़ालिब हैं।लेकिन अंबिया अ’लैहिमुस्सलाम और सूफ़िया-ए-किराम का अ’मल ये रहा है कि उन्होंने दुश्मनों से भी मोहब्बत की है।महात्मा गौतम बुद्ध की ता’लीम भी यही है कि दुश्मनी को दुश्मनी से नहीं दबाया जा सकता है बल्कि दुश्मनी को सिर्फ़ मोहब्बत से ज़ेर करना मुम्किन है। इसलिए गु़स्सा को नर्मी से और दुश्मनी को मोहब्बत से ज़ेर करना चाहिए।
कृष्ण जी कहते हैं कि जो लोग तुम्हें तकलीफ़ पहुंचाते हैं और तुमसे नफ़रत करते हैं उन्हें मुक़द्दस समझो और उनका एहतिराम करो”।ईसा अ’लैहिस्सलाम और सरवर-ए-काएनात मोहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहु अलैहि-व-सल्लम ने अपने दुश्मनों और मुख़ालिफ़ों के साथ भी मोहब्बत और शफ़क़त का जो सुलूक क्या वो दुनिया पर रौशन है।सूफ़िया-ए-किराम उन्हीं के नक़्श-ए-क़दम पर चल कर मुख़ालिफ़ों को मुवाफ़िक़ और दुश्मनों को दोस्त बनाने की कामयाब जिद्द-ओ-जहद करते रहे। मश्हूर फ़ल्सफ़ी गोइटे कहता है कि रू-ए-ज़मीन पर तीन चीज़ों की हुक्मरानी है अ’क़्ल,ख़्याल और ताक़त।लेकिन इ’श्क़ हुक्मरानी नहीं करता है बल्कि वस्ल का काम करता है जो सबसे ज़्यादा अहम है और सूफ़ियों ने वस्ल ही का काम अंजाम दिया है।इस्लाम के सियासी और समाजी निज़ाम में अ’द्ल-ओ-मुसावात,इन्सान-दोस्ती और आ’लमी उख़ुव्वत को सबसे अहम दर्जा हासिल रहा है।जब तक इस्लाम के पैरो उन उसूलों पर कारबन्द रहे उन्हें दुनिया में सर-बुलंदी हासिल रही।अमवी दौर में जब मुसलमान हुक्मरानों ने उससे किनारा-कशी शुरूअ’की तो उसी वक़्त से उनका इन्हितात भी शुरूअ’हो गया।इसलिए उन्हीं के अ’ह्द में बस्रा,कूफ़ा तहरीक-ए-तसव्वुफ़ के अव्वलीन मराकिज़ बने।सूफ़िया-ए-किराम ने इस्लामी ता’लीमात ही को अपना शिआ’र बनाया और मुआ’शरा की इस्लाह का बेड़ा उठाया।मोहब्बत-ओ-उख़ुव्वत के ये मुबल्लिग़ जहाँ-जहाँ भी पहुंचे अपनी अ’मली ज़िंदगी से लोगों को मुतअस्सिर करते रहे।उन्होंने तहज़ीबी हम-आहंगी पैदा कर के अपने पैग़ाम-ए-मोहब्बत की इशाअ’त के लिए फ़ज़ा हम-वार की और अपने मुक़द्दस मिशन को कामयाब बनाने के लिए माहौल को साज़-गार बनाया।मश्हूर दानिश्वर डॉक्टर तारा चंद रक़्म-तराज़ हैं:‘सूफ़िया-ए-किराम के अ’क़ीदों ने हिन्दुस्तान की तहज़ीब की सर्वत में क़ाबिल-ए-क़द्र इज़ाफ़ा किया।मज़हबी और समाजी ज़िंदगी की तरक़्क़ी में क़ाबिल-ए-ता’रीफ़ किर्दार अंजाम दिया।तौहीद-ए-बारी पर वाज़िह और शदीद ईमान रखने की तर्ग़ीब दी और इ’श्क़ की पुर-ज़ोर ताकीद की क्योंकि इ’बादत की रूह और अ’मल-ए-सालिह की वही अस्ल है।इन्सानों की बिरादरी का ए’लान,इन्फ़िरादियत की अ’ज़्मत का ए’तराफ़ और निज़ाम-ए-आ’लम को उलूहियत का क़ौस,नुज़ूल-ओ-उ’रूज तस्लीम करना ये सब ता’लीमात ऐसी थीं जिन्हों ने ज़ेहनों में हलचलल डाल दी।अगर्चे अर्बा-ए-इ’ल्म मसलन पंडितों में हमने इन नए ख़यालात से इस्तिफ़ादा किया मगर औसत तबक़ा के उन लोगों ने जो संजीदगी के साथ हक़-ओ-सदाक़त के जोया थे उन ख़्यालात का बड़ी गर्म-जोशी से ख़ैर-मक़्दम किया”।
तारीख़ शाहिद है कि हिन्दुस्तान में भी ग़ाज़ियों और मुजाहिदों की तल्वारों ने वो काम अंजाम नहीं दिया जो पाक-बातिन सूफ़िया-ए-किराम की अ’मली ज़िंदगी के ज़रिआ’पूरा हुआ। अमीर ख़ुसरो देहलवी सूफ़िया-ए-किराम के चिश्तिया सिल्सिला से वाबस्ता थे।ये सिल्सिला अपने वसीअ’ अख़्लाक़ और इन्सानियत-दोस्ती की बिना पर रसूल-ए-ख़ुदा सल्लल्लाहु अ’लैहि-व-सल्लम के इरशाद “व-कूनू इ’बादल्लाहि इख़्वाना’’
पर कारबन्द था और इसीलिए उस गिरोह के बुज़ुर्गों का ख़याल था कि हिन्दुओं के साथ ख़ुश-गवार और दोस्ताना तअ’ल्लुक़ात रखे जाएं और इस मुल्क की तहज़ीबी ज़िंदगी में अपना मक़ाम बनाया जाए।”नाफ़े’उल-मसालिकीन में ख़्वाजा मोहम्मद सुलैमान तौंस्वी के मल्फ़ूज़ात के ज़ैल में लिखा है:
“हज़रत क़िब्ला-ए-मन फ़र्मूदंद कि दर तरीक़-ए-मा हस्त कि बा-मुसलमान-ओ-हिंदू सुल्ह बायद दाश्त-ओ-ईं बैत मुशाहिद आवर्दंद:
हाफ़िज़ा गर वस्ल ख़्वाही सुल्ह कुन बा-ख़ास-ओ-आ’म।
बा-मुसलमाँ अल्लाह अल्लाह बा-बरहमन राम-राम।।
सूफ़िया-ए-किराम ने आ’म तौर पर और चिश्ती मशाइख़ ने ख़ुसूसिय्यत के साथ हिंदू मज़हब के बारे में वसीअ’-उन-नज़री और इंतिहाई रवादारी से काम लिया।उन्हें अगर हिन्दुओं की कोई बात पसंद आती तो उसकी ता’रीफ़ में बुख़्ल से काम न लेते। हिन्दुओं के त्योहारों में होली,दिवाली,बसंत और दूसरे रस्म-ओ-रिवाज से उनकी दिलचस्पी किसी से पोशीदा नहीं। ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती रहमतुल्लाहि अ’लैह,बाबा फ़रीद गंज शकर और शैख़ निज़ामुद्दीन औलिया रहमतुल्लाहि अ’लैह के अ’क़ीदत-मंदों और इरादत-केशों में मुसलमानों के दोश-ब-दोश हज़ारों हिंदू थे।हिन्दुओं के साथ उनकी रवादारी का अंदाज़ा इस वाक़िआ’से किया जा सकता है कि एक मर्तबा सुब्ह के वक़्त शैख़ निज़ामुद्दीन औलिया अपनी ख़ानक़ाह की छत पर से हिन्दुओं की इ’बादत और अश्नान का नज़ारा कर रहे थे। अमीर ख़ुसरो भी साथ साथ थे।हज़रत शैख़ ने फ़रमाया
‘हर क़ौम रास्त राहे दीने-ओ-क़िब्ला-गाहे’
शैख़ के सर पर उस वक़्त टोपी तिरछी लगी हुई थी ख़ुसरो ने उसी मुनासबत से फ़ौरन ही दूसरा मिस्रा’ लगा दिया।
‘मन क़िब्ला रास्त कर्दम बर तरफ़-ए-कज-कुलाहे’
अमीर ख़ुसरो की मज़हबी रवादारी,बे-तअ’स्सुबी और वसीअ’-उन न-ज़री का सुबूत तो ख़ुद उनका ये शे’र है।
ऐ कि ज़े-बुत ता’नः बःहिंदू बरी।
हम ज़े वय आमोज़ परस्तिश गरी।।
ख़ुसरो ख़ानदानी रिवायत के ब-मोजिब शाही दरबार से वाबस्ता ज़रूर रहे लेकिन वो सूफ़ी-मनिश और दरवेश-सिफ़त इन्सान थे।उनकी निगाह बुलंद और दिल वसीअ’था। तसव्वुफ़ की ता’लीमात ने उन्हें आ’लमी उख़ुव्वत और मोहब्बत का अ’लम-बरदार बना दिया था।उनके वालिद तुर्की-उन-नस्ल और माँ हिन्दुस्तानी थीं।बचपन ही में बाप का साया सर से उठ गया और बूढ़े नाना इ’मादुल-मुल्क रावत के आग़ोश-ए-तर्बियत में परवान चढ़े।ब-क़ौल डॉक्टर तारा चंद “उनकी ज़ात क़िरानुस्सा’दैन थी जिसमें दो तमद्दुनों का संगम नज़र आता है”।
वो बड़े मरनजां मरंज,बा-मुरव्वत,ख़ुश-अख़लाक़,दोस्त-नवाज़, मुन्कसिरुल-मिज़ाज और वफ़ा-शिआ’र थे।इ’ल्म-ए-मौसीक़ी में यगाना-ए-रोज़गार और ऐसे ज़ू-फ़ुनून थे कि अपनी गूना-गूँ ख़ूबियों के बाइ’स शख़्सी हुक्मरानी और आमिरिय्यत के दौर में भी मुख़्तलिफ़ बादशाहों के दरबारों में मुअ’ज़्ज़ज़ ओ’ह्दों पर फ़ाइज़ रहे।अगर उनकी शख़्सियत तहज़ीबी हम-आहंगी का नमूना न होती तो शायद उनको यके बाद दीगरे पाँच पाँच बादशाहों के ज़मानों में हुकूमत से अ’वाम तक यकसाँ मक़्बूलियत और हर दिल-अ’ज़ीज़ी न हासिल हो सकती।वो फ़ारसी के बुलंद-मर्तबा शाइर थे”।सा’दी-ए-हिन्द” कहलाए। अपनी शाइ’राना अ’ज़्मत के लिए उन्होंने अपनी ज़िंदगी ही में ईरान और ख़ुरासान से ख़िराज-ए-तहसीन हासिल किया।कहा जाता है कि हाकिम-ए-मुल्तान सुल्तान शहीद की दा’वत पर शैख़ सा’दी ने ज़ोफ़-ए-पीरी के सबब हिन्दुस्तान न आ सकने की मा’ज़रत करते हुए उसे मशवरा दिया था कि हिन्दुस्तान में ख़ुसरो जैसा जौहर-ए-क़ाबिल मौजूद है।उसी की सर-परस्ती करना चाहिए।मजमूआ’-ए-तिज़्कार में लिखा है।
“आवुर्दा अंद कि क़ाआन आ’दिलन-ओ-आ’जिलन इल्तिमास-ए- क़ुदूम-ए-शैख़ सा’दी अज़ शीराज़ नमूदः-ओ-सय्यिद हुसैन शर्क़ी-ओ-अ’म्मूवश रा बा-तुहफ़-ए-गिरामी-ओ-ख़रज-ए-काफ़ी नज़्द-ए- शैख़ दर शीराज़ फ़िरिस्ताद अममा आँ हज़रत उ’ज़्र-ए-ज़ो’फ़-ए-पीरी दर्मियान निहादः-ओ-सफ़ाइन-ए-ग़ज़ल रा हर दो मर्रः ब-ख़त-ए-मुबारक नविश्त: ब-रसूलाँ सुपुर्द-ओ-फ़र्मूद कि दर हिंद ख़ुसरो बस अस्त’।
इसी वाक़िआ’के बारे में मुल्ला अ’ब्दुल-क़ादिर बदायूनी लिखते हैं:
“व शैख़ बःउ’ज़्र-ए-पीरी न-यामद,अम्मा ब-तर्बियत-ए-अमीर ख़ुसरो सुल्तान रा वसिय्यत फ़र्मूद-ओ-सिफ़ारिश-ए-ऊ-फ़ौक़ुल्लहद नविश्तः”।ख़ुसरो के हम-अ’स्र मुवर्रिख़ ज़ियाउद्दीन बर्नी उनके इ’ल्मी कमालात और शाइराना अ’ज़्मत के बारे में रक़म-तराज़ हैं।
‘दरीं अ’स्र-ए-अ’लाइ शोरा बूददं कि बाद अज़ ईशाँ बल्कि पेश अज़ ईशाँ चश्म-ए-रोज़गार मिस्ल-ए-ईशाँ न दीदः अस्त। सिय्यमा अमीर ख़ुसरो कि शाइ’रान-ए-सलफ़-ओ-ख़लफ़ बूदःअस्त-ओ-इख़्तिरा–ए’-मआ’नी-ओ-कसरत-ए-तस्नीफ़ात-ओ-कश्फ़-ए-रुमूज़-ए-ग़रीब नज़ीर न-दाश्त।व अगर उस्तादान-ए-नज़्म-ओ-नस्र दर यक दो फ़न बे-हमता बूदंद अमीर ख़ुसरो दर जमीअ’-ए- फ़ुनून मुमताज़-ओ- मुस्तग़नी बूद।हम-चुनाँ ज़ू फ़ुनूने कि दर जमीअ’-ए-फ़नहा शाइ’री सर आमदः-ओ-उस्ताद बाशद दर सलफ़ न-बूद-ओ-दर ख़लफ़ ता क़ियामत पैदा आयद या-न-यायद।अमीर ख़ुसरो दर नज़्म-ओ-नस्र-ए-फ़ारसी किताब- ख़ानाइ तस्नीफ़ कर्दः अस्त-ओ-दाद-ए-सुख़नवरी दादः अस्त।
बर्नी एक दूसरे मौक़ा’ पर लिखते हैं:
“अगर हम-चू अमीर ख़ुसरो दर अ’ह्द-ए-महमूदी-ओ-संजरी पैदा आमदे ज़ाहिर-ओ-ग़ालिब आँ-अस्त कि आँ पादशाहान विलायते-ओ-अक़्ताए’ बदू इन्आम दाद्न्दे”।
ख़ुद अमीर ख़ुसरो अपनी ज़बान-दानी के बारे में कहते हैं।
मन बःज़बानहा-ए-कसाँ बेश्तरे
कर्दःअम अज़ तब्अ-शनासा गुज़रे
ख़्वानम-ओ-दर्याफ़तः-ओ-गुफ़्तःहम
जस्तः दर रौशन शुदः ज़ाँ बेश-ओ-कम
ख़ुसरो के दा’वे के मुताबिक़ उन्हें उस ज़माने की बेशतर हिन्दुस्तानी ज़बानों से वाक़फ़िय्यत थी और उनमें फ़िक्र-ए-सुख़न भी करते थे।बा’द के बा’ज़ तज़्किरा-नवीसों ने लिखा है कि वो तुर्की,अ’रबी,फ़ारसी,संस्कृत के अ’लावा बरजभाषा से भी न सिर्फ़ वाक़िफ़ थे बल्कि बरजभाषा में शे’र-गोई पर भी क़ादिर थे।ख़ुद ख़ुसरो दीवान-ए-ग़ुर्रतुल-कमाल के दीबाचे में अपनी हिंदी-दानी के बारे में कहते हैं।
तुर्क हिंदुस्तानियम मन हिंदवी गोयम चू आब।
शक्कर-ए-मिस्री न-दारम कज़ अ’रब गोयम सुख़न।।
चू मन तूती-ए-हिंदम अर रास्त पुर्सी।
ज़े-मन हिंदवी पुर्स ता नग़्ज़ गोयम।।
उन्हें उर्दू ज़बान का पहला शा’इर भी कहा गया है।बहर-हाल इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि उनकी ज़बान-दानी एक मुसल्लमा हक़ीक़त थी और वो लिसानी तअ’स्सुब से आज़ाद थे।उन्होंने खुले दिल से संस्कृत की अ’ज़्मत का ए’तराफ़ करते हुए उसे अ’रबी के हम-पल्ला और फ़ारसी से बर-तर क़रार दिया है और हिन्दी भी उनके नज़दीक फ़ारसी से किसी तरह कम नहीं है बल्कि दुनिया की बहुत सी ज़बानों से बर-तर है।
मस्नवी दवल रानी ख़िज़्र ख़ाँ में हिन्दुस्तान की ज़बानों का ज़िक्र करते हुए उनकी लिसानी अहमियत और बर-तरी पर रौशनी डालते हैं और संस्कृत,अ’रबी-ओ-फ़ारसी नीज़ हिन्दी के बारे में अपनी राय इस तरह ज़ाहिर करते हैं।
ग़लत कर्दम गर अज़ दानिश ज़नी दम।
न लफ़्ज़ हिन्दी अस्त अज़ पारसी कम।।
ब-जुज़ ताज़ी कि मीर-ए-हर ज़बानस्त।
कि बर-जुमलः ज़बाँहा काफ़िराँ अस्त ।।
ज़बान–ए-हिन्दी हम ताज़ी मिसालस्त।
कि आमेज़िश दर आँ जा कम मिसालस्त।।
गर आईन-ए-अ’रब नह्वस्त गर सर्फ़।
अज़ाँ आईं दरीं कम नीस्त यक हर्फ़।।
कसे कीं हर सेह दो काँ रास्त सर्राफ़।
शनासद कीं न तख़्लीतस्त-ओ-ने लाफ़।।
व-गर पुर्सी बयानश अज़ मआ’नी।
दर आँ नीज़ अज़ दिगरहा कम न-दानी।।
अगर अज़ सिद्क़-ओ-इन्साफ़त देहम शर्ह।
हद-ए-हिन्दी कुनी गुफ़्तार-ए-मन जर्ह।।
ख़ुसरो एक सच्चे वतन-परस्त शाइ’र थे।उन्हें हिन्दुस्तान के ज़र्रा ज़र्रा से मोहब्बत थी।वो गंगा और जमुना को दजला, फ़ुरात और नील से बरतर तसव्वुर करते थे।उन्होंने हिन्दुस्तान की तहज़ीब,हिक्मत-ओ-दानिश और उ’लूम-ओ-फ़ुनून की अ’ज़्मत के गीत गाए हैं।मस्नवी “नुह-सिपहर में कहते हैं।
दां कि दरीं अ’र्सः पोशीदः दरूँ।
दानिश-ओ-मा’नीस्त ज़े-अंदाज़ःबरुँ।।
गर्चे ब-हिक्मत सुख़न अज़ रूम शुदः।
फ़ल्सफ़ा ज़े-आँ जा हम: मा’लूम शुद:।।
लेक न हिंद अस्त अज़ाँ माय: तही।
हस्त दरू यक यक ज़े अंदेशःतही।।
मंतिक़-ओ-तंजीम-ओ-कलामस्त दरू।
हर चे कि जुज़ नुक़्तः तमामस्त दरू।।
बरहमनी हस्त कि दर इ’ल्म-ओ-ख़िरद।
दफ़्तर-ए-क़ानून-ए-अरस्तू ब-दरद।।
ख़ुसरो ने इसी मस्नवी में हिंदूस्तानियों की ज़बान-दानी की भी ता’रीफ़ की है कि वो न सिर्फ़ मक़ामी ज़बानों से वाक़फ़ियत रखते हैं बल्कि ग़ैर-मुल्की ज़बानों के सीखने में भी उन्हें बड़ी महारत है जबकि ग़ैर मुल्की अक़्वाम को हमारी ज़बानों का इ’ल्म नहीं और वो हमारे मुल्क में हिक्मत-ओ-दानिश के हुसूल के लिए आती हैं।इ’ल्म-ए-रियाज़ी में सिफ़र की ईजाद,शतरंज जैसे दिमाग़ी इम्तिहान के खेल की ईजाद और कलीला-दिमना जैसी मा’रकतुल-आरा किताब की तस्नीफ़ हिन्दुस्तान की बर-तरी का बय्यिन सुबूत हैं।हिन्दुस्तानी मौसीक़ी अपने सेहर-ओ-ए’जाज़ से इन्सानों ही को नहीं जानवरों को भी मबहूत कर देती है और आख़िर में शाइ’राना शोख़ी से कहते हैं कि इस मुल्क का सबसे बड़ा शाहकार ख़ुद मेरी शख़्सियत है क्योंकि मेरे जैसा शाइ’री से जादू जगाने वला रू-ए-ज़मीन पर कोई दूसरा नहीं।
उन्होंने हिंदू मज़हब की ता’रीफ़-ओ-तौसीफ़ में भी बुख़्ल से काम नहीं लिया बल्कि वो इस मज़हब की अच्छाइयों को खुले दिल से बयान करते हैं और हिन्दुओं को “मुवह्हिद क़रार देते हैं।
मो’तरिफ़-ए-वहदत-ए-हस्ती-ओ-क़दिम।
क़ुदरत-ए-ईजाद-ए-हमः बाद-ए-अ’दम।।
राज़िक़-ए-हर पुर हुनर-ओ-बे-हुनरे।
उ’म्र बर-ओ-जाँ-देह-ए-हर जानवरे।।
ख़ालिक़-ए-अफ़्आ’ल ब-नेकी-ओ-बदी।
हिक्मत-ओ-दानिश-ए-अज़ली-ओ-अबदी।।
फ़ाइल-ए-मुख़्तार-ओ-मुजाज़ी ब-अ’मल।
आ’लिम-ए-हर कुल्ली-ओ-जुज़्वी ज़े-अज़ल।।
इसी मस्नवी में आगे चल कर ख़ुसरो बताते हैं कि ई’साई हज़रत-ए-ई’सा अ’लैहिस्सलाम को ख़ुदा का बेटा मानते हैं। ज़रदुश्तियों के नज़दीक ख़ुदा दो हैं।कोई ख़ुदा का माद्दी जिस्म तसव्वुर करता है और कोई उसे मुम्किनात से तश्बीह देता है। एक गिरोह के नज़्दीक सब्आ-सय्यारा ही को मर्तबा-ए-उलूहियत हासिल है।लेकिन इन सब के बर-अ’क्स हिंदू तौहीद के क़ाइल हैं।अगर वो दरख़्त, पहाड़,दरिया,सूरज या बुतों की परस्तिश करते हैं तो इसीलिए कि उन्हें मज़ाहिर-ए-ज़ात समझते हैं और ये भी आबा-ओ-अज्दाद की मौरुसी रिवायत की बिना पर है जिससे बग़ावत की जुरअत नहीं कर पाते हैं। कहते हैं।
वाँ चे कि मा’बूद-ए-बरहमन अस्त ब-फ़र्क़।
मो’तरिफ़ अस्त ऊ कि न मिस्ले अस्त ज़े-हक़।।
संग-ए-दस्तूर-ओ-ख़िरद,ख़ुरशीद-ओ-गया।
हर चे परस्तंद ब-इख़्लास-ओ-रिया।।
मो’तक़िदानन्द ब-तक़्लीद दराँ।
काँचे रसीदः अस्त ब-मा अज़ पेदराँ।।
मा न-तवानेम अज़-ओ-दूर शुदन।
ख़ुद न-तवानद सियही नूर शुदन।।
ख़ुसरो मज़हब-ए-इ’श्क़ के पैरो और शराब-ए-मा’रिफ़त के मतवाले थे।ख़ुद अपने बारे में कहते हैं।
तर्क-ए-हर मज़हब गिरफ़्तम ज़ाँकि नज़्द-ए-पीर-ए-दैर।
ज़िक्र-ए-मज़हब ला-उबाली ज़े-इख़्तिलाफ़-ए-मज़हबस्त।।
एक दूसरे शे’र में अपने मसलक की मज़ीद वज़ाहत इस तरह की है।
मा-ओ-इ’श्क़-ए-यार अगर दर क़िब्लः-ओ-दर बुत-कदः।
आ’शिक़ान-ए-दोस्त