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Sufinama

अल-ग़ज़ाली की ‘कीमिया ए सआदत’ की पाँचवी क़िस्त

सूफ़ीनामा आर्काइव

अल-ग़ज़ाली की ‘कीमिया ए सआदत’ की पाँचवी क़िस्त

सूफ़ीनामा आर्काइव

MORE BYसूफ़ीनामा आर्काइव

    चतुर्थ उल्लास (परलोक की पहचान)

    पहली किरण -परलोक का सामान्य परिचय

    मनुष्य जब तक मृत्यु को नहीं पहचानेगा, तब तक परलोक को नहीं पहचान सकता है, और जब तक जीवन को जानेगा, तब तक मृत्यु को नहीं जान सकता। जीवन को पहचान तो जीव के यथार्थ स्वरूप को जानना ही है, और यह जानकारी अपने आपको पहचानने से हो सकती है। इस विषय का पहले (प्रथम उल्लास में) भी वर्णन हो चुका है और संतों ने भी कहा है कि यह मनुष्य दो पदार्थों के सम्बन्ध से उत्पन्न हुआ है (1) जीव और (2) शरीर।

    इनमें शरीर घोड़े के समान है, और जीव उसके सवार की तरह है। परलोक में इस जीव को जो सुख-दुःख भोगने पड़ते हैं, वे शरीर का सम्बन्ध रखते हुए भी होते हैं, और बिना शरीर के भी। इससे निश्चय होता है कि परलोक में जीव बिना शरीर भी रहता है। शरीर के साथ उसकी जो स्थिति होती है, उसे तो स्थूल स्वर्ग या स्थूल नरक कहते हैं, और ये ही सुगति या दुर्गति भी कही जाती है। तथा शरीर के बिना ही सुख या आनन्द भोगने की अवस्था को आत्मस्वर्ग और दुःख या कष्ट भोगने की अवस्था को मानसी नरक कहते हैं। इनमें स्थूल स्वर्ग और स्थूल नरक की बात तो सब लोग अच्छी तरह जानते हैं। उन्होंने सुना ही है कि स्वर्ग में कल्पवृक्ष, उत्तम भोग और अप्सरा आदि है, तथा नरक में सर्प, बिच्छू और अग्निकुण्ड आदि दुःखभोग की सामग्री है। इस प्रसंग का तो इतना ही वर्णन पर्याप्त है। धर्मशास्त्री में इसकी विस्तृत विवेचना है ही। अब आगे मैं मृत्यु का तात्पर्य और सूक्ष्म स्वर्ग-नरक का वर्णन करूँगा, क्योंकि इस विषय को सब लोग नहीं जानते।

    इस विषय को जानने का उत्तम मार्ग यह है कि मनुष्य के चित्त में एक खिड़की है, जो देव-लोक की ओर खुली हुई है। जो पुरुष इस अनुभव रूपी सूक्ष्म खिड़की के द्वारा देखता है, उसे परलोक की सुगति-दुर्गति का स्पष्ट भान हो जाता है। उसे इस विषय में फिर किसी प्रकार का संदेह नहीं रहता, क्योंकि संदेह तो केवल युक्तिवाद या वाक्यश्रवण करने पर ही रहता है, प्रत्यक्ष देख लेने पर संशय के लिये कोई स्थान नहीं रहता। जिस प्रकार वैद्य को शरीर के रोग और नीरोगता का स्पष्ट भान हो जाता है, और साथ ही वह यह भी जान लेता है कि यदि यह रोगी कुपथ्य करेगा तो नष्ट हो जायेगा, तथा पथ्य-सेवन पूर्वक चिकित्सा करेगा तो रोग-मुक्त हो जायेगा। इसी प्रकार संतजनों को जीवों की सुगति-दुर्गति स्पष्ट मालूम हो जाती है, और वे प्रत्यक्ष देखते हैं कि भगवद् भजन और भगवान् की पहचान ही जीव की उत्तम गति के कारण है, तथा मूर्खता और पापों के कारण यह जीव अधोगति प्राप्त करता है। यह विद्या ऐसी दुर्लभ है कि अनेकों विद्वान् भी इस भेद को नहीं समझते, और वे इस पर आस्था ही रखते हैं। वे स्थूल नरक और स्वर्ग के सिवा और कुछ नहीं जानते, तता परलोक को भी केवल श्रवण मात्र ही मानते हैं। मैं शास्त्रों की युक्तियों और वचनों के द्वारा परलोक के विषय में कुछ वर्णन करूँगा। बहुत लोगों की तो परलोक विषयिनी जिज्ञासा अत्यन्त निर्बल एवं संशयापन्न होती है। इस विषय का ठीक-ठीक बोध तो उन्हीं को हो सकता है, जिनकी बुद्धि शुद्ध हो तथा हृदय मत-मतान्तर के वाद-विवाद से शून्य, देखा-देखी के विरुद्ध और सब प्रकार की कामनाओं से रहित हो।

    दूसरी किरण

    मृत्यु का रहस्य

    अब तुम मृत्यु का रहस्य जानना चाहते हो तो सावधान होकर सुनो। इस मनुष्य में दो प्रकार की चेतनाएँ हैं- पहली प्राण-चेतना, जिसके द्वारा हृदयस्थान और प्राण-वायु से सम्बन्ध रहने के कारण शरीर और इन्द्रियाँ चेतन रहती है। यह प्राणचेतना पशुओं और मनुष्यों में समान है। दूसरी है बुद्धिजनित चेतना, जिस पर केवल मनुष्यों का ही अधिकार है। प्राणचेतना शरीर को सचेत रखती है, और प्राणों का स्फुरण हृदय स्थान से होता है। हृदय स्थान तत्वों के सूक्ष्म अंशों से बना हुआ है, और वे तत्वों के अंश है- वात, पित्त, कफ आदि। जब तक इन तत्वों की वृत्ति समान रहती है, तब तक हृदय स्थान सुख से रहता है, और हृदय स्थान से ही सिर से पैरों तक सारे शरीर में नाड़ी-जाल फैला हुआ है। उस नाड़ी-जाल के द्वारा ही प्राणवायु के सम्बन्ध से सम्पूर्ण इन्द्रियाँ चैतन्य रहती है। और शरीर भी सचेष्ट रहता है। प्राण वायु के द्वारा ही वह तत्वों की समान वृत्ति सिर में भी पहुँचती है और सी से नेत्र एवं श्रवण आदि इन्द्रियों को अपने-अपने विषय ग्रहण करने की योग्यता प्राप्त होती है। जिस प्रकार दीपक के प्रकाश से सारा घर आलोकित हो जाता है, और उसमें रखे हुए सब पदार्थ दीखने लगते हैं, उसी प्रकार जब भगवान् की सत्ता पाकर प्राणवायु के द्वारा तत्त्वों का समान अंश सब इन्द्रियों में पहुँच कर उन्हें शक्तिसम्पन्न करता है, तो वे अपने-अपने कार्य में सचेष्ट हो जाती है। जब नाड़ी मार्ग में किसी प्रकार का व्यवधान जाने से प्राण वायु द्वारा वह तत्वों का समान अंश किसी अंग में नहीं पहुंच पाता तो वह अंग निश्चेष्ट या शून्य हो जाता है। आयुर्वेद का प्रयोजन उपचार द्वारा उस व्यवधान या ग्रन्थि को दूर करना ही है। ऐसा होने पर उस अंग में फिर चैतन्य की स्फूर्ति हो जाती है, और वह अपनी क्रिया करने लगता है।

    अतः यह हृदयस्थान शरीर में दीपक की तरह है। इसमें प्राणवायु बत्ती है और आहार तेल है। यह बात सब जानते ही हैं कि तेल रहने पर बत्ती बुझ जाती है। इसी प्रकार आहार मिलने पर प्राणवायु भी नहीं रहता। इसके सिवा बहुत पुरानी होने पर मैल भर जाने के कारण भी जब बत्ती तेल नहीं खींच सकती तो दीपक बुझ जाता है। इसी तरह वृद्धावस्था में नाड़ी-संस्थान कफादि से रुद्ध हो जाने के कारण जब आहार लेना कम हो जाता है तो हृदयस्थान-रूपी दीपक भी निवृत्त हो जाता है। ऐसे ही शस्त्रादि कोई विशेष विघ्न उपस्थित होने पर भी शरीर का नाश हो जाता है। शरीर और इन्द्रियों की क्रियाएँ प्राणवायु की समता होने पर ही सिद्ध होती है। जब बात, पित्त या कफ का कोप होने पर उस समता में त्रुटि आती है तो इन्द्रियों की क्रिया भी शून्य हो जाती है। जैसे दर्पण स्वच्छ रहता है तो उसमें प्रत्येक पदार्थ का प्रतिबिम्ब पड़ जाता है, किन्तु यदि वह मलिन हो जाय तो उसमें कुछ नहीं भासता। इसी प्रकार प्राणों की जो समान वृत्ति है उसका भी यही स्वभाव है कि उसमें कोई उलट-पेर होता है तो हृदय स्थान शून्य हो जाता है। फिर इन्द्रियों का व्यवहार भी नहीं हो पाता तथा शरीर प्राण वायु के प्रकाश से शून्य हो जाता है। ऐसे प्राण-प्रकाश शून्य शरीर को ही मृतक कहते हैं।

    अतः मरने का अर्थ है प्राणवायु की समान वृत्ति का नाश होना। इस समानता का नाश करने वाला यम है। यह यमराज भी भगवान् का ही उत्पन्न किया हुआ है। पर लोग इसे केवल नाम मात्र से ही जानते हैं, इसके स्वरूप का उन्हें कुछ पता नहीं है। इस विषय का विवेचन करने पर बहुत विस्तार हो जायेगा। अतः तात्पर्य यह है कि प्राणवायु का शून्य होना ही मृत्यु है। यह प्राण वायु ही सूक्ष्म शरीर है, अर्थात् तत्वों के सूक्ष्म अंशों से बना हुआ है। चैतन्यस्वरूप जीव इस प्राणचेतना से पृथक् है। यह शरीर की तरह नहीं, अपितु अखण्ड है और भगवान् के परिचय का स्थान है। जैसे भगवान् अखण्डस्वरूप और एक हैं वैसे ही उनका पहचानना भी अखण्ड है और उन्हें पहचानने वाला जीव भी अखण्ड है। ज्ञान स्वरूप भगवान् की पहचान इस खण्डाकार शरीर में नहीं हो सकती, उनका परिचय तो अखण्डाकार जीव में ही होता है।

    अब इस रहस्य को तुम दीपक के दृष्टान्त से समझने का प्रयत्न करों। यह स्थूल शरीर एक दीपक के समान है, हृदय स्थान इसकी बत्ती है, प्राण दीपशिखा है और चैतन्य उसका प्रकाश है। तात्पर्य यह है कि जैसे दीपक की अपेक्षा प्रकाश सूक्ष्म होता है, ऐसे ही प्राणशक्ति की अपेक्षा चैतन्य सूक्ष्म है। इसका स्वरूप ऐसा है कि किसी भी वाक्य द्वारा उसका उल्लेख नहीं किया जा सकता। किन्तु यह दृष्टान्त चैतन्य की सूक्ष्मता को लक्ष्य में रखने पर ही चरितार्थ होता है। इसका यह तात्पर्य नहीं है कि जैसे प्रकाश दीपक के आश्रित है उसी प्रकार चैतन्य भी प्राण के आश्रित होगा। दीपक का नाश होने पर तो उसके प्रकाश का भी नाश हो जाता है, किन्तु प्राण वायु के शून्य होने पर चैतन्य का नाश नहीं होता। साथ ही यह भी समझना चाहिये कि जैसे दीपक की विशेषता प्रकाश के ही कारण है वैसे ही शरीर की विशेषता भी चैतन्य के ही कारण है। अतः दीपक के दृष्टान्त का भी यही प्रयोजन समझना चाहिये कि दीपक की स्थिति प्रकाश के ही लिये है, इसलिये दीपक प्रकाश के आश्रित है। इसी प्रकार चैतन्य के निमित्त ही होने के कारण चैतन्य ही प्राणों का आश्रय है, और प्रकाश की ही तरह वह है भी अत्यन्त सूक्ष्म। ऐसा आश्रय लेने पर ही दीपक का दृष्टान्त चरितार्थ होगा।

    इससे निश्चय हुआ कि प्राण घोड़े के समान है और चैतन्य उसका सवार है। अथवा यों समझो कि चैतन्य स्वरूप जीव के हाथ में प्राण शस्त्र के समान है। प्राण की जब समानवृत्त नष्ट हो जाती है, तो स्थूल शरीर मृतक हो जाता है, और चैतन्य जीव अपने स्वरूप में स्थित रहता है जिस प्रकार घोड़ा नष्ट हो जाने पर सवार पैदल कहा जाता है उसी प्रकाश शरीर नष्ट होने पर जीव भी पैदल रह जाता है। किन्तु जैसे घोड़े का नाश होने से सवार का नाश नहीं होता उसी प्रकार शरीर का नाश होने से जीव नष्ट नहीं होता। यह शरीर रूपी घोड़ा और प्राण रूपी शस्त्र भगवान् ने इस जीव को इसीलिये दिये हैं कि इनके द्वारा यह भगवान् की पहचान रूप शिकार करे। जिस मनुष्य ने यह भगवत्परिचयरूप शिकार कर लिया है, उसे तो इस शरीर रूप बन्धन से छूटा सुख दायक होता है, क्योंकि फिर वह इस भार को ढोने से छूट जाता है और उसे निरतिशय सुख का स्थान प्राप्त हो जाता है। इसी पर महापुरुष ने कहा है कि जब संत लोगों का शरीर छूटता है तो वे सर्वत्तम सुख का स्थान प्राप्त करते हैं और इसे परम लाभ मानते हैं। किन्तु जिन्हें श्री भगवान् की पहचान नहीं हुई, उनका शरीर छूटता है तो वे अत्यन्त दुःखी होते हैं, जैसे शिकार के आये बिना ही किसी का जाल खुल जाय तो फिर कार्यसिद्धि की कोई सम्भावना रहने के कारण उसे बहुत अधिक पश्चात्ताप होता है। उसी प्रकार इस जीव को शरीर छूटने से बहुत दुःख होता है, यमपुरी के मार्ग में ही वह पश्चात्ताप करने लगता है।

    तीसरी किरण

    शरीर की मर्त्यता और चैतन्य की अखण्डता

    देखों, जब किसी के हाथ, पाँव और भुजा सूख जाते हैं, अथवा अर्द्धांग पक्षाघात होने के कारण उनसे कोई क्रिया नहीं होती, तब भी उस पुरुष की चेतनता नष्ट नहीं होती, क्योंकि चेतनस्वरूप जीव देह से पृथक् है। हाथ-पाँव तो उसके शस्त्र है और वह इनका संचालक है। किन्तु जिस प्रकार हाथ-पाँव तुम्हारा स्वरूप नहीं है उसी प्रकार पेट, पीठ, सिर आदि अन्य अंग भी तुम्हारे स्वरूप नहीं है। तुम इन सबसे और इनके संघातभूत सम्पूर्ण शरीर से भी पृथक् हो। इससे निश्चय हुआ कि जब यह सारा शरीर शून्य हो जाता है तब भी तुम्हारी चेतना अपने स्वरूप में स्थित रहती है। जैसे यह हाथ क्रिया शून्य होने पर मृतक कहा जाता है उसी प्रकार यह शरीर भी निष्क्रिय और संज्ञा शून्य होने पर मृतक कहलाता है।

    हाथ की क्रिया बल से होती है और बल प्राण चेतना के प्रकाश से नाड़ियों द्वारा सब अंगों में पहुँचता है। जब किसी नाड़ी का मार्ग रुक जाता है तो उसके द्वारा प्राण चेतना का प्रकाश पहुँचता, अतः बलहीन हो जाने के कारण वह अंग क्रिया शून्य हो जाता है। इसी प्रकार यह शरीर भी प्राणों के सम्बन्ध से तुम्हारी आज्ञा में बर्तता है। परन्तु जब प्राणों की समानवृत्ति निवृत्त हो जाती है तो शरीर के सब अंग शून्य हो जाते है और तुम्हारी आज्ञा का अनुसरण नहीं करते। इसी को मृत्यु कहते हैं। किन्तु इस स्थिति में भी जीव अपने चैतन्यस्वरूप में ही स्थित रहता है, क्योंकि यदि तुम्हारा कोई सेवक तुम्हारी सेवा कर सके तो इससे तुम्हारा नाश तो नहीं हो जाता। यह शरीर तो तुम्हारा सेवक या टहलुआ है, तुम तो इससे सर्वथा पृथक् हो। यदि तुम विचार करोगे तो मालूम होगा कि तुम्हारे जो अंग बाल्यावस्था में थे वे ही आज नहीं हैं, अब तो तुम्हारे सभी अंग आहारादि से बढ़कर कुछ के कुछ हो गये हैं। इस प्रकार यद्यपि तुम्हारा शरीर वह नहीं है, किन्तु तुम तो वही हो, क्योंकि वास्तव में शरीर तुम्हारा स्वरूप नहीं है। इसलिये शरीर के नष्ट होने की तुम चिन्ता मत करो, इसके नष्ट हो जाने पर भी तुम अपने स्वरूप से अविनाशी ही रहोगे।

    तुम्हारे स्वभाव दो प्रकार है। एक तो शरीर के सम्बन्ध को लेकर है, जैसे भूख, प्यास एवं निंद्रा आदि। शरीर का सम्बन्ध रहने पर इनकी भी स्फूर्ति नहीं होती अतः मृत्यु हो जाने पर इनकी भी निवृत्ति हो जाती है। तथा दूसरे स्वबाव ऐसे हैं जिनमें शरीर के सम्बन्ध की अपेक्षा नहीं है, जैसे भगवान् को जानना और उनके ऐश्वर्य को देखना। उस भगवत्साक्षात्कार से जो अलौकिक आनन्द होता है वह तुम्हारा अपना ही स्वभाव है। यह अनुभव और इसका आनन्द तुम्हारे साथ सर्वदा रहने वाले हैं, इनका तुमसे कभी वियोग नहीं होगा। इसी प्रकार सद्गुणों को जो अविनाशी कहा है इसका कारण भी यही है कि वे सर्वदा जीव के साथ रहते हैं। इन्हीं की तरह अविद्या और मूर्खता बी जीव के अपने ही स्वभाव हैं, इसी से ये भी परलोक में उसका साथ नहीं छोड़तीं। वस्तुतः ये जीव के बुद्धिरूप नेत्रों का अभाव ही हैं और ये ही उसके मन्दभाग्य का मूल कारण है। इसी पर प्रभु ने कहा है जो मनुष्य संसार में अज्ञान के कारण अन्धा है वह परलोक में भी अत्यन्त दुःखी है और अन्धा रहेगा।

    जब तक तुम इस प्रकार के चैतन्य को नहीं पहचानोंगे तब तक किसी प्रकार मृत्यु का रहस्य भी नहीं समझ सकोगे, क्योंकि मृत्यु का अर्थ तो परिणामित्व और चैतन्य का भेद जानने से ही जाना जा सकता है। अतः अब मैं प्राणचेतना और चैतन्यकला का भेद वर्णन करता हूँ।

    चौथी किरण

    प्राणचेतना और चैतन्यकला का भेद

    याद रखो, प्राणचेतना तत्वों का विकार है और वायु-पित्त आदि जो तत्वों के सूक्ष्म अंश है उन्हीं से बनी है, अतः जब वायु-पित्तादि में भी किसी तत्व का कोप होता है तो यह भी विकृत हो जाती है और जब ये समान स्थिति में रहते हैं तो प्राणचेतना भी समान और शान्त रहती है। इसी से वैद्य लोग औषधोपचार के द्वारा वायु, पित्त, कफ एवं रुधिर के कोप को शान्त करके इनकी समान वृत्ति रखते हैं। ऐसा होने पर प्राणचेतना भी साम्य स्थिति में रहती है और चैतन्यकला की आज्ञा का पालन करती रहती है।

    किन्तु चैतन्यकला का आविर्भाव इन तत्वों से नहीं हुआ। वह सूक्ष्म लोक से आयी है और देवताओं के समान निर्मलस्वरूप है। तत्वों के देश में तो वह परदेशी की तरह है तथा उसका स्वरूप भी अधिभौतिक नहीं है। उसके इस शरीर में आने का प्रयोजन तो यही है कि परलोक के लिये तोशा तैयार कर ले। इसी पर साईं ने कहा है कि मैंने कृपा करके सभी जीवों को मार्ग दिखाया है, परन्तु जो शुभ मार्ग का परिचय पाकर उसमें चलते है वे ही भय और शोक से मुक्त होते हैं। मैंने पृथ्वी आदि तत्वों के अंश से मनुष्य का शरीर रचा है और फिर उसमें अपनी अंश-भूत चैतन्यकला का प्रवेश कराया है। तात्पर्य यह है कि पहले भगवान् ने प्राणचेतना की रचना की है और उसे चैतन्यकला की स्थिति का अधिकारी बनाया है। उसके पश्चात् उसमें चैतन्य कला का प्रवेश कराया है। जैसे पहले रुई या कपड़े की मसाल, जिसमें कि अग्नि को आकर्षित करने की योग्यता हो, बनायी जाती है और फिर उसमें अग्नि प्रविष्ट की जाती है, तब वह प्रकाशित होती है। इसी प्रकार इस देह में प्राणों की समानवृत्ति मसाल के समान है और चैतन्यकला अग्नि की तरह है। जैसे वैद्यलोग प्राणों की समानवृत्ति को जानते हैं और उसके द्वारा शरीर की रोग एवं कष्ट से रक्षा करते हैं, उसी प्रकार चैतन्यस्वरूप जीव के स्वभाव की भी एक समानता है, पर उसे संत जन ही पहचानते हैं। जब वैराग्य और पुरुषार्थ के द्वारा इस जीव के स्वभाव संतजनों की मर्यादा में समत्व लाभ करते हैं तभी मनुष्य का चित्त नीरोग होता है। अतः निश्चय हुआ कि जीव जैसे अपने आपको पहचाने बिना भगवान् को नहीं पहचान सकता वैसे ही वास्तविक चैतन्य को पहचाने बिना परलोक को भी ठीक-ठीक नहीं पहचान सकता। इसलिये अपने मन को पहचानना ही भगवान् को पहचानने की कुंजी है। और यही परलोक को पहचानने का भी प्रधान साधन है। इसके सिवा धर्म की प्रतीति का मूल भी अपने आपकी पहचान ही है। इसी से मैंने अपने आपकी पहचान का सबसे पहले वर्णन किया है।

    तथापि अभी तक मैंने जीव के वास्तविक स्वरूप को स्पष्ट नहीं किया है। सन्तों ने भी उस स्वरूप का वर्णन करने के लिये निषेध किया है, क्योंकि जीव की सामान्य बुद्धि उस गुह्य रहस्य को ग्रहण नहीं कर सकती। किन्तु भगवान् की वास्तविक पहचान और परलोक का सम्यक् साक्षात्कार उस यथार्थ स्वरूप का ज्ञान होने पर ही हो सकते हैं। अतः तुम ऐसा पुरुषार्थ करो जिससे अभ्यास और प्रयत्न के द्वारा अपने भीतर उस यथार्थ स्वरूप की झाँकी कर सको। यदि उस स्वरूप की बात सुनकर तुम्हारा हृदय उसके दर्शनों के लिये उत्सुक हो तो जान लो कि तुम्हारा विश्वास ठहरने वाला नहीं है, क्योंकि ऐसे बहुत से लोग देखे गये हैं कि भगवान् के वास्तविक स्वरूप की चर्चा सुनकर जिनका विश्वास जाता रहा है। बुद्धि की हीनता के कारण उनमें सन्देह उत्पन्न हो गया है और वे ईश्वर को अस्वीकार करके अत्यन्त ढीठ हो गये हैं। तात्पर्य यह है कि जब तक तुम्हें भगवान् के यथार्थ स्वरूप को अनुभव करने की योग्यता हो तब तक उसकी बातें सुनकर भी तुम कैसे विश्वास कर सकते हो? इसी से धर्म-ग्रन्थों में भी परमात्मा के वास्तविक स्वरूप का वर्णन नहीं किया गया है, क्योंकि संसारी पुरुष उस स्वरूप के विषय में सुनेंगे तो उनका विश्वास ही जाता रहेगा। अतः भगवान् ने संतों को यही आदेश दिया है कि जीवों की बुद्धि के अनुसार उन्हें उपदेश करो। इन्हें मेरे गुह्य रहस्य और स्वरूप की बात स्पष्ट करके मत बताओ, क्योंकि ऐसे गूढ़ वचन सुनकर मेरे प्रति इनका विश्वास नष्ट हो जायेगा और ये धर्महीन हो जायेगे। अतः जीवों को बुद्धि के अनुसार बात कहना ही विशेष उपयोगी होता है।

    जब तुम भली भाँति समझ गये कि मनुष्य का चैतन्य-स्वरूप स्वतःसिद्ध है, उसकी सत्ता शरीर के अधीन है, तो तुम जान ही गये होंगे कि मृत्यु का अर्थ चैतन्य का नाश नहीं, अपितु इस शरीर में चैतन्यस्वरूप जीव की आज्ञा का अनुवर्तन रहना ही है। तथा जीव के परलोक गमन का भी यह तात्पर्य नहीं है कि यहाँ जीव नष्ट हो जाता है और परलोक में उनकी पुनः उत्पत्ति हो जाती है। परलोक में उत्पत्ति होने का भी यही आशय है कि वहाँ यह जीव दूसरा शरीर स्वीकार कर लेता है। यह बात मनुष्य की बुद्धि से बाहर है कि वहाँ इसे भगवान् किस प्रकार दूसरा शरीर प्रदान करते हैं, क्योंकि भगवान् के कर्म में किसी प्रकार की कठिनता या सुगमता की कल्पना नहीं की जा सकती। बहुत मनुष्यों का ऐसा भी कथन है कि वहाँ जीव को यह शरीर मिल जाता है। किन्तु यह बात ठीक नहीं जान पड़ती, क्योंकि यह शरीर तो घोड़े की तरह है, यदि घोड़ा बदल भी जाता है तो भी सवार नहीं बदलता। शरीर तो बाल्यावस्था से वृद्धावस्था तक परिणाम को प्राप्त होता रहता है तथा आहार के कारण सके सब अंगों का स्वरूप कुछ-न-कुछ हो जाता है पर जीव में कोई अन्तर नहीं आता।

    जिन लोगों का ऐसा विचार है कि परलोक में फिर यही शरीर सचेत हो जाता है, उनके कथन में और भी कई प्रश्न और सन्देह उत्पन्न होते हैं। उनका वे लोग जो उत्तर देते हैं वह बहुत दुर्बल रहता है, उससे सन्देह दूर नहीं होते। मान लो, कोई प्रश्न करे कि यदि एक शरीर को दूसरा व्यक्ति खा जाय तब तो वे दोनों शरीर मिलकर एक हो जायेगे, फिर परलोक में दो जीवों को एक ही शरीर कैसे मिलेगा? अथवा यदि यहां कोई व्यक्ति अंगहीन हो और खूब भजन भी करता हो, तो क्या परलोक में भजन का फल भोगने के लिये भी उसे अंगहीन होता ही नहीं। और यदि कहो कि वहाँ उसे पूर्णांग देह मिलेगा तो भजन के समय जो अंग नहीं था वह वहाँ कहाँ से जायेगा? ऐसे प्रश्नों के उनके पास कोई समाधान कारक उत्तर नहीं है। अतः निश्चय हुआ कि परलोक में इस पूर्व शरीर की अपेक्षा नहीं रहती। जो लोग ऐसा मानते हैं कि वहाँ भी इसे यही शरीर मिलता है वे अपने को शरीर ही समझते हैं। इसी से उनका ऐसा विचार है कि दूसरा शरीर मिलने पर तो जीव भी अन्य हो जायेगा। सो उनका यह कथन मिथ्या है, क्योंकि जीव भिन्न है और शरीर भिन्न।

    पाँचवी किरण

    जीव की अविनश्वरता और परलोक दर्शन के उपाय

    प्रश्न- किन्तु कई शास्त्रों का तो ऐसा मत है कि जब शरीर छूटता है, तो जीव का भी नाश हो जाता है। फिर परलोक में जीव को उत्पन्न करके नया शरीर धारण कराया जाता है। और आप जो बात कह रहे हैं वह इससे सर्वथा विपरीत है। ऐसी अवस्था में हम किस कथन को प्रामाणिक माने?

    उत्तर- जो पुरुष दूसरों की बात सुनकर भटकता रहता है, वह तो अन्धा है। जो लोग ऐसा समझते हैं कि शरीर छूटने पर जीव नष्ट हो जाता है, उनका यह विश्वास तो अपनी बुद्धि के अनुरूप है, और किसी शास्त्र के ही आधार पर है। यदि उन्हें कुछ भी समझ होती, तो वे स्पष्ट जान सकते थे कि शरीर छूटने पर जीव का नाश नहीं होता। और यदि उन्हें शास्त्र पर विश्वास होता, तो वे भगवान् और सन्तों के वचनों द्वारा ही जान सकते थे कि जीव अविनाशी है, शरीर का नाश होने पर वह अपने स्वरूप से स्थित रहता है। इसी से सन्तों के वचनों में यह बात भी स्पष्ट आयी है कि परलोक में भाग्यवान् और भाग्यहीन दो प्रकार के जीव है। जो भाग्यवान् है उनका कल्याण होता है, और कभी नाश भी नहीं होता। प्रभु ने भी कहा है, “जो जीव मेरे मार्ग पर चलने हुए शरीर त्यागते हैं, उनकी मृत्यु हुई मत समझो। वे उत्तम पुरुष तो मेरा कृपाप्रसाद पाकर सर्वदा आनन्द में रहते हैं। और जो भाग्यहीन हैं, नाश उनका भी नहीं होता।” इसी आशय का एक प्रसंग प्रसिद्ध है- एक बार जब लड़ाई में बहुत लोग मारे गये और महापुरुष की जीत हुई, तब महापुरुष ने उन मरे हुए लोगों से पूछा, “भाइयो! मुझे भगवान् का आदेश था कि जीत तेरी ही होगी, सो यह बात तो मैंने प्रत्यक्ष देख ली। किन्तु उन्होंने यह भी कहा था कि तमोगुणी पुरुषों को मैं परलोक में दण्ड और कष्ट दूँगा, सो तुम्हें वह दुःख मिला है या नहीं?” इस पर महापुरुष के साथियों ने पूछा कि ये लोग तो अब मिट्टी की तरह है, आप इनसे बात क्यों कर रहे है? तब महापुरुष ने कहा, “मैं जिस प्रभु की सामर्थ्थ के आगे सार्वथा पराधीन हूँ, उन्हीं को शपथ करके कहता हूँ कि ये मरे हुए लोग मेरी बात तुम्हारी अपेक्षा भी अधिक सुनते हैं, किन्तु इन्हें उत्तर देने की आज्ञा नहीं।” इससे निश्चय होता है कि धर्म-शास्त्र में भी जीव के मरने की बात नहीं कही। इसी से पितृपूजा के लिये श्राद्ध और दानादि करने की विधि भी है। अतः सिद्ध हुआ कि जीव का नाश नहीं होता।

    किन्तु यह बात धर्मशास्त्र में भी कही है कि मृत्यु होने पर जीव का शरीर और स्थान परिवर्तित हो जाता है, अर्थात् उसे शरीर भी दूसरा मिलता है और उसकी स्थिति भी दूसरे लोक में हो जाती है। जो पुण्यवान् जीव होते हैं, उन्हें स्वर्ग का सुख मिलता है, और जो पापी होते हैं वे नरक का दुःख भोगते हैं। अतः तुम निश्चय जानो कि शरीर का नाश होने से तुम्हारे स्वरूप और स्वभावों का नाश नहीं होता। हां, शरीर और इन्द्रियों का सारा व्यापारा निवृत्त हो जाता है, जैसे घोड़ा नष्ट हो जाने पर सवार पियादा रह जाता है, तथा उसके जो कर्म और स्वभाव होते हैं, ज्यों के त्यों बने रहते हैं, क्योंकि तुम्हारा स्वरूप सवार की तरह शरीर रूप घोड़े से सर्वथा भिन्न है।

    इसी से जो लोग शरीर और इन्द्रियों को भुलाकर अपने स्वरूप में स्थित हुए हैं, और भजन की एकाग्रता के द्वारा जिन्होंने चित्त को लीन कर दिया है, उन्हें परलोक की अवस्था स्पष्ट प्रतीत हुई है। इसका कारण यह है कि यद्यपि उनके प्राणों की समानवृत्ति में कोई विपर्यय नहीं हुआ, तथापि चित्त स्थिर होने से उनकी प्राण-चेतना भी ठहर जाती है। इससे वे भगवान् के भी प्रत्यक्ष दर्शन कर सकते हैं, और उनकी चित्तवृत्ति किसी भी पदार्थ में आसक्त नहीं होती। इसी से उन्हें जीवन्मुक्त कहते हैं, अर्थात् जो भेद लोगों के मरने के बाद खुलता है, वह चित्त की एकाग्रता के कारण उन्हें जीवित रहते हुए ही मालूम हो जाता है। वे उसे प्रत्यक्षवत् देखते है, और जब उस अवस्था से उत्थित होकर इन्द्रियों के देश में आते हैं, तो जाग्रत् अवस्था में भी उन्हें उसका स्मरण बना रहता है। यदि एकाग्रता में चित्त की वृत्ति सूक्ष्म होने पर उन्हें स्वर्ग का अनुभव होता है, तो व्युत्थित होने पर उनके हृदय में प्रसन्नता और आनन्द की वृत्ति बनी रहती है, और यदि उस समय अकस्मात् नरक दिखायी दे जाता है, तो जाग्रत में भय और संकोच का भाव प्रकट होता है। इस प्रकार परलोक को जो बात उन्हें जाग्रत् में स्मरण रहती है, उसी का वे संसार में वर्णन करते हैं। उस अवस्था में उनके अन्तःकरण में जैसा संकल्प स्फुरित होता है वह सत्य ही होता है। कहते हैं, एक समय महापुरुष समाधि में बैठे थे। उसी स्थिति में उन्होंने अपना हाथ ऊपर को उठाया, और फिर खींच लिया। लोगों ने इसका कारण पूछा तो वे बोले, “मैंने स्वर्ग के अमृत-फल को देखा था। उसे संसार में लाने की इच्छा से मैंने पहले हाथ उठाया था, किन्तु वह छिप गया, इसलिये हाथ खींच लिया।” इससे तुम ऐसा अनुमान मत करना कि अमृत-फल संसार में आने योग्य तो था, किन्तु महापुरुष उसे लाने में समर्थ नहीं हुए, क्योंकि सूक्ष्म देश का फल इस लोक में ही नहीं सकता। यह आधिभौतिक जगत् तो अत्यन्त स्थूल और जड़रूप है, इसमें दिव्य लोक की वस्तु कैसे सकती है? इस बात को स्पष्ट करने से भी बहुत विस्तार हो जायेगा, और यहाँ उसका विशेष प्रयोजन भी नहीं है। किन्तु बहुत-से विद्वान् को तो संशय बना हुआ है कि वह अमृत-फल कैसा था और महापुरुष ने उसे कैसे देखा? इस प्रकार वे व्यर्थ वाद-विवाद करते हैं और अपने कल्याण की बात पर ध्यान नहीं देते। फिर भी उन्हें अपनी विद्या का बड़ा अभिमान है। सो वास्तव में तो वे महामूढ़ है।

    तात्पर्य यह है कि सन्तलोग परलोक को अपने हृदय की दृष्टि से ही देखते हैं, उनका यह दर्शन किसी कथन या युक्ति के आधार पर नहीं होता। वे इस जगत् की वृत्ति को त्यागकर चैतन्य देश में जाते हैं और परलोक को प्रत्यक्ष देखते हैं। यह परलोक-दर्शन भी सन्तों की शक्ति का एक अंग है। इस प्रकार निश्चय हुआ कि परलोक का दर्शन दो प्रकार से हो सकता है तब जीव परलोक के प्रत्यक्ष दर्शन करता है। और दूसरे जब भजन की एकाग्रता के द्वारा प्राणवृत्ति स्थिर हो जाती है तब हृदय की शक्ति से परलोक का प्रत्यक्ष दर्शन होता है। इन्द्रियादि के देश में रहते हुए तो परलोक का दर्शन होना असम्भव ही है। जैसे एक राई के दाने में चौदहों लोक नहीं समा सकते उसी प्रकार आत्मसुख का एक कण भी सारे ब्रह्माण्ड में नहीं समा सकता। जिस प्रकार श्रवणेन्द्रिय किसी भी पदार्थ का रूप नहीं देख सकती। उसी प्रकार श्रवणेन्द्रिय किसी भी पदार्थ का रूप नहीं देख सकती। उसी प्रकार सारी इन्द्रियाँ चैतन्यदेश की किसी वस्तु को ग्रहण नहीं कर सकतीं। अतः यह निश्चय हुआ कि स्थूल देश को देखने वाली इन्द्रियाँ चैतन्यदेश तक नहीं पहुँच सकतीं, उस देश को देखने वाली इन्द्रियाँ भी सूक्ष्म नहीं है।

    छठी किरण

    यममार्ग के कष्टों का वर्णन

    अब तुम्हें यममार्ग के कष्टों को भी जानना चाहिये। वे कष्ट दो प्रकार के हैं- 1. शरीर के सम्बन्ध से जीव को होने वाले और 2. शरीर को होने वाले। इनमें शरीर को होने वाले कष्टों को तो सब जानते हैं, किन्तु उसके कारण जो जीव को कष्ट होते हैं, उन्हें कोई नहीं पहचानता। उन्हें तो वही जान सकता है, जिसने आपने-आपको पहचाना है, और जिसे हृदय का रूप भी प्रत्यक्ष हुआ है, क्योंकि उसे पता है कि मेरी स्थिति शरीर के आश्रित नहीं है, तथा शरीर का नाश होने से मेरा नाश भी नहीं होता। मृत्यु होने से शरीर और इन्द्रियों का वियोग तो होगा ही, इनके साथ धन, पुत्र, स्त्री, सेवक, सुहृद्, पशु और पृथ्वी आदि जिनते पदार्थ इन्द्रियों से जाने जाते हैं, वे सब भी अपने से दूर हो जायँगे। जिस पुरुष ने अपने को स्थूल पदार्थों के साथ बाँध रखा है, वह इनका वियोग होने से अवश्य दुःखी होगा। किन्तु जिसका हृदय सब ओर से विरक्त है और भगवान् के सिवा जिसकी किसी भी पदार्थ में प्रीति नहीं है, उसे मृत्यु के समय कोई दुःख नहीं होता, प्रत्युत और भी अधिक आनन्द होता है, क्योंकि जिसके हृदय में भगवान् का दृढ़ अनुराग है, जिसे भजन का रहस्य प्रकट हुआ है, जिसने सर्वदा अपने आपको भगवान् की ओर ही लगाया है और जो माया के सम्पूर्ण पदार्थों को नीरस समझ कर उनमें आसकत् नहीं हुआ, वह पुरुष मृत्यु होने पर निःसन्देह अपने प्रियतम को ही प्राप्त करता है, तथा जिन पदार्थों से उसे विक्षेप होता था, वे सहब उससे दूर हो जाते हैं। इसलिये उसे परम शान्ति प्राप्त होती है।

    अब तुम इस बात पर विचार करो कि जो मनुष्य शरीर का नाश होने पर भी अपने को अविनाशी ही जानता है, और जिसे पता है कि सारे मायिक पदार्थ इस संसार में ही रह जायँगे, से यह भी निश्चय हो ही जायेगा कि यदि इन पदार्थों में मेरी आसक्ति होगी तो अन्त समय इनका वियोग होने पर मुझे अवश्य दुःख होगा। इसी पर महापुरुष ने भी कहा है कि जिस पदार्थ के साथ किसी को प्रीति होती है उसका वियोग होने पर वह अवश्य दुःख होता है, और जब वह देखेगा कि मेरी प्रीति तो केवल श्रीभगवान् के साथ है, मायिक पदार्थों से तो मेरा प्राणरक्षा के लिये केवल खान-पान मात्र का सम्बन्ध है, वास्तव में तो ये मुझे फँसाकर अधःपतन की ओर ही ले जाने वाले हैं, तो वह निःसन्देह जान जायेगा कि शरीर का नाश होने पर जब ये पदार्थ मुझसे दूर हो जायँगे तो मैं अपने प्रियतम प्रबु को पाकर आनन्दमग्न हो जाऊँगा। अतः जो पुरुष इस रहस्य को समझता है, उसे निःसन्देह पता है कि मृत्यु के समय विषयों का वियोग होने से विरक्त पुरुषों को तो सुख होता है और विषयी जीव अत्यन्त दुःखी होते हैं। इस कथन का तात्पर्य यह हुआ कि माया मनमुखी पुरुषों को ही स्वर्ग रूप जान पड़ती है, जिज्ञासुओं के लिए तो वह नरक ही है। माया का वियोग मनमुखी पुरुषों को नरकरूप जान पड़ता है, और विरक्तों को उससे आनन्द होता है।

    इस प्रकार यममार्ग के कष्टों के विषय में तुम यह तो समझ गये कि इस दुःख का कारण मायिक पदार्थों की प्रीति ही है। साथ ही यह भी याद रखो कि ये दुःख सब जीवों को एक समान नहीं होते। किसी को कम होते हैं और किसी को अधिक। जिस मनुष्य की मायिक पदार्थों में जितनी अधिक प्रीति होगी, उसे उतना ही अधिक दुःख होगा। यदि किसी के पास केवल एक भोग्य पदार्थ हो और दूसरे के पास पशु-सेवक आदि अनेक प्रकार की भोग्य-सामग्री हो, तो केवल एक ही भोग्य पदार्थ वाले को कम दुःख होगा। जैसे किसी व्यक्ति का एक घोड़ा चोरी जाय और दूसरे के दस घोड़े चुरा लिये जायँ तो इनमें दूसरे की अपेक्षा पहले को कम दुःख होगा। यदि किसी मनुष्य का आदा धन राजा हर ले और किसी का सारा ही धन हर लिया जाय तो इसमें पहले की अपेक्षा पिछले को अधिक दुःख होगा और जिसका धन ही नहीं, उसके साथ स्त्री-पुत्रादि भी नष्ट कर दिये जायँ तथा जिसे देश से भी निकाल दिया जाय, उसे तो और भी अधिक कष्ट होगा। यही मृत्यु का भी अर्थ है, उस समय भई तो शरीर छूटने के साथ ही स्त्री-पुत्रादि सम्पूर्ण मायिक पदार्थ यहीं छूट जाते हैं और यह जीव अकेला रह जाता है। जो पुरुष उन पदार्थों में अधिक आसक्त होता है उसे दुःखी भी अधिक होना पड़ता है और जिसकी उनमें कम प्रीति होती है वह उनके वियोग से दुःखी भी कम होता है। इस पर प्रभु ने भी कहा है कि जिस पुरुष को सब प्रकार के सुख और सम्पत्ति की प्राप्ति हुई है वह इन सभी पदार्थों में आसक्त भी रहता है और अंत में दुखी भी अधिक होता है। तथा जिसकी इन पदार्थों में अल्प प्रीति है वह इसका वियोग होने पर उतना दुःखी भी नहीं होता। इसी प्रकार महापुरुष भी कहते हैं कि यमराज के मार्ग में मनमुखी पुरुष को ऐसा कष्ट होता है कि उसे बड़े-बड़े अजगर काटते हैं और उन अजगरों के हजार-हजार फन होते हैं। विषयी पुरुषों को ऐसे विशालकाय अजगर सर्वदा डसते रहते हैं।

    किन्तु इन अजगरों को देखते वे ही है जिनके बुद्धिरूपी नेत्र खुले हुए हैं। बुद्धिहीन पुरुष तो कहते हैं कि हमने बहुत से मृतक पुरुष देखे हैं, हमें तो उन्हें डसता हुआ एक भी सर्प दिखायी नहीं दिया। ऐसे पुरुषों को ध्यान रखना चाहिये कि ये अजगर जीव के हृदय में रहते हैं और उस जीव को ही डसते हैं। यदि ये शरीर को डसते तब तो और लोग भी उन्हें देख सकते थे और वास्तव में तो वे उसे इस संसार में ही डस रहे थे, पर अचेत होने के कारण उस मूर्ख को इसका पता नहीं था। इस कथन का तात्पर्य यह है कि ये सर्प मन के मलिन स्वभाव ही हैं तथा उनमें से एक-एक स्वभाव से जो अवगुणों की शाखाएँ उपजती हैं वे ही उन सर्पों के हजारों सिर हैं। इनकी उत्पत्ति का मूल कारण माया की प्रीति है। जैसे इस हृदय में जो ईर्ष्या, कटुता, कुटिलता, कपट, मान चंचलता, वर और माप्रियता आदि बुरे स्वभाव है ये ही सर्प है। इन सर्पों के वास्तविक स्वरूप, इनकी संख्या और इनके सिरों का विस्तार ये सब बातें केवल भगवत्कृपा से अनुभव द्वारा ही देखी जा सकती है। ये मलिन स्वभाव मनमुखी पुरुष के हृदय में पहले से ही थे, इसी से वह भगवान् और सन्तों की प्रीति से शून्य था तथा सब प्रकार के मायिक पदार्थों में आसक्त था। ये मलिन स्वबाव रूपी सर्प ही उसे यममार्ग में डसते हैं।

    इन सर्पों का दर्शन अत्यन्त दुःख रूप है, क्योंकि यदि स्थूल सर्प डसे तब तो कभी क्षणमात्र को विश्राम भी दे सकते थे, किन्तु इनसे तो एक क्षण को भी छुटकारा नहीं मिलता। जैसे किसी पुरुष का पनी दासी में राग हो, किन्तु उसे इसका पता हो नहीं, फिर यदि किसी कारणवश उस दासी का वियोग हो जाय तो वह रागरूप सर्प उसे डसता ही रहेगा। यद्यपि यह राग रूप सर्प पहले से ही उसके हृदय में विद्यमान था और उसे डस भी रहा था, पर मूर्खतावश वह इसे पहचानता नहीं था, अब वियोग होने पर उसे प्रत्यक्ष उसके दर्शन का दुःख दिखायी देता है। तात्पर्य यह है कि पहले तो वह उसके राग में रस का अनुभव करता था, किन्तु वियोग होने पर वही राग विष बन कर उसे दुःख देता है। यदि पहले ही दासी में उसका राग होता तो उसका वियोग होने पर यह दुःख क्यों देखना पड़ता? इसी प्रकार मनुमुखी पुरुष की जो माया में प्रीति होती है उसी के कारण उसे मायिक भोगों में सुख जान पड़ता है और माया का वियोग होने पर वह प्रीति ही उसके दुःख का कारण बन जाती है।

    इसी तरह मान और ऐश्वर्य की प्रीति अजगर की भाँति हैं, धन की प्रीति सर्प की तरह है और सौन्दर्यप्रेम बिच्छू के समान है। ऐसे ही जिस-जिस विषय की प्रीति मनुष्य के हृदय में जम जाता है उसके कारण उसे दुःख ही भोगना पड़ता है। जिस प्रकार दासी के वियोगानल से संतप्त पुरुष अपने को अग्नि या जल में डाल कर उस व्यथा से मुक्त होना चाहता है, उसी प्रकार जीव को जब यममार्ग में भोगों के वियोग से उत्पन्न हुआ दुःख दग्ध करने लगता है तब उसे इन स्थूल सर्प और बिच्छुओं का दंशन भी उस के सामने कुछ नहीं जान पड़ता, क्योंकि नके डसने से तो केवल शरीर को ही कष्ट होता है और यह आग निरन्तर उसके हृदय को जलाती रहती है। ऐसा भी कोई नहीं जो उस दुःख को देखता हो और उससे उसकी रक्षा कर सकता हो। अतः निश्चय हुआ कि यह जीव अपने दुःख का बीज इस संसार से ही अपने साथ ले जाता है। इस पर महापुरुष ने भी कहा है कि तुम्हारे अशुभ कर्म ही तुम्हें दुःख देते हैं और कोई दुःख देने वाला नहीं है। प्रबु भी कहते हैं कि यदि तुम्हारी प्रीति और निश्चय दृढ़ हों तो तुम नरकों को इस संसार में ही देख लोगे, क्योंकि मनमुखों का हृदय यहाँ भी नरक के दुःखों से पूर्ण हैं। इस प्रकार प्रभु ने भी केवल यही तो नहीं कहा कि मनमुखी लोग परलोक में ही नरक पायँगे, यह भी तो कहा है कि नरक उनके साथ ही है और वे उससे पूर्ण है। अर्थात् उनका हृदय नहीं नरक रूप बना हुआ है।

    सातवीं किरण

    यममार्ग के दुःखों के विषय में विशेष मीमांसा

    तुम यह शंका कर सकते हो कि धर्मशास्त्र में तो लिखा है कि वे सर्प मरने वाले व्यक्ति को आँखों से दिखायी देते हैं तुम उन्हें उसके हृदय में बताते हो, अतः वे आँखों से दिखायी देने वाले सर्प नहीं हो सकते। ऐसी स्थिति में किस कथन को प्रामाणिक माने?

    इसका उत्तर यह है कि वे सर्प दिखायी तो देते हैं, किन्तु उन्हें वह मरने वाला पुरुष ही देख सकता है, जिसे वे डसते हैं, संसार के दूसरे लोग उन्हें नहीं देख सकते। जो सूक्ष्म देश की वस्तु होती है वह स्थूल नेत्रों से नहीं देखी जा सकती। अतः वे सर्प स्थूल सर्पों की तरह उसे नहीं डसते, जिससे दूसरे लोग भी उन्हें देख सके। हाँ, मरने वाले व्यक्ति को तो वे प्रत्यक्ष ही डसते दिखायी देते हैं। जैसे स्वप्न में कोई पुरुष देखे कि मुझे सर्प काट रहा है तो उसके समीप बैठा हुआ दूसरा व्यक्ति ऐसा नहीं देख सकात। स्वप्न देखने वाले को तो वह सर्प और उसके काटने से होने वाला दुःख प्रत्यक्ष ही जान पड़ते हैं और उसके समीप बैठे हुए जाग्रत् पुरुष को यह सब दिखायी देने से उसके कष्ट में कोई कमी भी नहीं आती। उसके लिये तो वह जाग्रत् की तरह ही प्रत्यक्ष है।

    स्वप्न विचार के अनुसार ऐसे स्वप्न का परिणाम यह माना गया है कि जाग्रत् में वह पुरुष अपने शत्रु से परास्त होगा। अतः इस प्रकार का स्वप्न देखने पर उसे यह मानसकि चिन्ता और घेल लेती है। इससे वह इतना संतप्त होता है कि इसकी अपेक्षा उसे जाग्रत् अवस्था में सर्प से प्रत्यक्ष काटा जाना अच्छा जान पड़ता है, क्योंकि शत्रु से नीचा देखने की अपेक्षा तो सर्पदंश से मृत्यु का आलिंगन करना ही अच्छा है। सर्प तो केवल शरीर को ही कष्ट पहुँचाता है, शत्रु से पराभूत होने का दुःख तो निरन्तर हृदय को संतप्त करता रहता है।

    अब तुम्हें यह शंका हो सकती है कि यदि प्राण प्रयाण के समय डसने वाले सर्प स्वप्न के साँपों के समान ही होते हैं तब तो वे केवल संकल्प मात्र हुए, वास्तव में उसे कोई सर्प नहीं डसते वह व्यर्थ अपने संकल्प से हो दुःख की सृष्टि कर लेता है। इस पर हमारा कथन यह है कि ऐसा सोचना तो बड़ी मूर्खता की बात है। विचारदृ,टि से देखों तो वे सर्प निःसन्देह सत्य है। सत्य या प्रत्यक्ष उसी पदार्थ को तो कहते हैं जिससे सुख या दुःख प्राप्त हो। संकल्पमात्र वस्तु तो वह होती है जिसका सुख-दुःख प्रत्यक्ष नहीं भासता। स्वप्न में भी जब तुम कोई पदार्थ देखते हो तो तुम्हें उस का सुख-दुःख प्रत्यक्ष प्रतीत होता है, अतः दूसरे लोग भले ही उस पदार्थ को देखे, तुम्हारे लिये तो वह प्रत्यक्ष ही है। इसके विपरीत किसी पदार्थ को भले ही सब लोग देखते हो, किन्तु, तुम्हें उसका भान हो तो तुम्हारे लिये वह मिथ्या ही होगा। इसी प्रकार स्वप्नद्रष्टा और मुमूर्षु पुरुष को जो दुःख प्राप्त होता है वह भले ही दूसरों को दिखे, उनके लिये तो प्रत्यक्ष ही है और दूसरों को दिखायी देने से उसमें कोई कमी ही आती है। इन दोनों अवस्थाओं के दुःखों में भी एक अन्तर अवश्य है कि स्वप्न देखने वाला पुरुष शीघ्र ही जग जाता है और जाग्रत् के समय उस दुःख का बोध हो जाता है, इसलिये उसे संकल्पमात्र मानने लगता है। किन्तु मृतक पुरुष को परलोक में जो कष्ट प्राप्त होता है, उसकी तो कोई सीमा ही नहीं कही जा सकती और किसी प्रकार उससे छुटकारा ही हो सकता है। उस कष्ट से तो जब भगवान् की विशेष कृपा हो तभी मुक्ति मिल सकती है।

    इसके सिवा धर्मशास्त्र में भी ऐसा कहीं नहीं कहा कि मरने-वाले व्यक्ति को स्थूल सर्प डसते हैं। यदि वे सर्प भी आँखों से दिखायी देने वाले होते तब तो परलोक भी इस लोक की तरह भौतिक ही सिद्ध होता। सो ऐसी बात है नहीं, क्योंकि परलोक का प्रत्यक्ष भान तो उसी को होता है जो इस लोक को सर्वथा विस्मृत कर देता है। ऐसा व्यक्ति, तामसी पुरुषों को सर्प और बिच्छू डसते हैं- इस बात को भी प्रत्यक्ष देखता है। इसी से कहा है कि दूसरे लोगों को जो बातें आश्चर्य रूप जान पड़ती है वे सन्तजनों को जाग्रत् में ही प्रत्यक्ष भास जाती है, क्योंकि इन्द्रिय-ग्राह्य विषय सन्तों की परलोक विषयिनी दृष्टि में किसी प्रकार का व्यवधान नहीं कर सकते। अतः जो लोग केवल बाह्य दृष्टि से कहते हैं कि मरने के पश्चात् जीव को कोई दुःख नहीं होता वे तो केवल स्थूल शरीर के दुःख को ही दुःख समझते हैं, उन्हें सुक्ष्म शरीर के सुख-दुःखों का कुछ भी पता नहीं है।

    अब तुम शंका कर सकते हो कि तुम जो यममार्ग के दुःखों का कारण मायिक भोग्य पदार्थों को बताते हो उससे तो निश्चय होता है कि कोई भी व्यक्ति उन दुखों से नहीं बचेगा, क्योंकि स्त्री, पुत्र, धन, मान ये तो सबी लोग रखते हैं, न्यूनाधिक रूप में ये मायिक पदार्थ सभी के पास रहते हैं। अतः सिद्ध हुआ कि ये दुःख सभी को भोगने पड़ेंगे।

    इसका उत्तर यह कि सभी लोग मायिक सामग्री रखते हों- ऐसा कोई नियम नहीं। ऐसे भी बहुत से विरक्त और जिज्ञासु पुरुष होते हैं जिनका मन मायिक भोगों से दूर रहता है और जिनकी किसी भी पदार्थ में प्रीति नहीं होती। इसके सिवा जो लोग ये धन-सम्पत्ति आदि रखते हैं वे भी तीन प्रकार के होते हैं। उनका विवरण इस प्रकार है-जिनकी मायिक पदार्थों में भी प्रीति है और भगवान् में भी, किन्तु पदार्थों की अपेक्षा भगवान् में अदिक प्रेम है। ऐसे लोगों को यममार्ग में कष्ट नहीं होता। जैसे कोई पुरुष अपने घर के पदार्थों से प्रेम रखता हो, किन्तु यदि कोई महाराजा उसे किसी देश का राज्य देने लगे तो वह बड़ी सुगमता से घर के सब पदार्थों को त्याग देगा, क्योंकि एक देश के राज्य की प्राप्ति का जो सुख है उसके आगे गृह-सामग्री का सुख तुच्छ हो जाता है। अतः इन पुरुषों की प्रीति माया के भोग और सम्बन्धियों में होने पर भी वह भगवत्प्राप्ति के रस और आनन्द के आगे तुच्छ हो जाती है और जब मरने के समय इन पदार्थों का वियोग होता है तो आनन्दस्वरूप श्रीभगवान् के मिलन के सुख में इनका कोई स्मरण नहीं होता। उस सुख में ही वे विलीन हो जाते हैं।

    जिनकी मायिक पदार्थों में अधिक प्रीति होती है, और भगवान् में कम। ऐसे लोग यममार्ग के कष्ट से छूट तो नहीं सकते, किन्तु अधिक समय तक दुःख भोग चुकने पर फिर धीरे-धीरे उन्हें वे पदार्थ विस्मृत हो जाते हैं और उनके हृदय में जो भगवत्प्रेम का बीज रहता है वह अंकुरित होने लगता है। वही जब धीरे-धीरे बढ़ कर पुष्ट हो जात है तो वे भी भगवदीय अक्षय सुख प्राप्त करते हैं। इनकी स्थिति ऐसी होती है जैसे किसी पुरुष के दो घर हों, पर उनमें से में अधिक प्रीति हो, और दूसरे में कम। किन्तु उसे पहला घर तो छोड़ना पड़े, और दूसरे में जाकर रहे, तब आरम्भ में कुछ समय तक तो उसे पहले घर का वियोग दुःखी रखेगा, किन्तु पीछे दूसरे घर में ही उसका प्रेम बढ़ जायेगा और पहले घर को वह बिल्कुल भूल जायेगा।

    जिनकी भगवान् के साथ कुछ भी प्रीति नहीं है और जो सर्वदा मायिक पदार्थों में ही आसक्त रहते हैं, ऐसे लोग सर्वदा परलोक में महान् दुःख भोगेगे, और उससे कभी उनका छुटकारा नहीं होगा। उनका तो केवल माया से ही प्रेम था, और उसका अब वियोग हो गया। अतः उस वियोगजनित दुःख से उनका छुटकारा कैसे हो सकता है? भगवद्विमुख लोग जो सर्वदा दुःख-मग्न रहते हैं उसका कारण माया की प्रीति ही है।

    अधिकांश लोग कहते तो यही है कि हमें भगवान् ही सबसे अधिक प्रिय है, माया के पदार्थों से हमारा उतना ही प्रेम नहीं, परन्तु यह उनकी मुँह से कहने की ही बात है। इसकी परीक्षा के लिये एक कसौटी की आवश्यकता है, और वह कसौटी यह है कि जिन भोगों में महारी विशेष रुचि है वे यदि शास्त्र और सन्तों के मत से निन्द्य हो तो तत्काल उनसे चित्त हट जाय और मन की उनमें कुछ भी वासना रहे, तब तो समझा जा सकता है कि भगवान् के प्रति उस पुरुष का विशेष प्रेम है। इसे एक दृष्टान्त से भी समझ सकते हैं। मान लो, एक व्यक्ति का दो मनुष्य के साथ प्रेम है, और दोनों में परस्पर विरोध हो गया अब जिसकी ओर उस का चित्त आकर्षित हो, उसी के साथ उसका विशेष प्रेम माना जायेगा। सी प्रकार जब तक जीव की रुचि भोगों की अपेक्षा सन्तजनों की आज्ञा का पालन करने में अधिक हो, तब तक केवल मुँह से कहने से कोई लाभ नहीं हो सकता। उसका वह कथन व्यर्थ ही समझना चाहिये। इसी पर महापुरुष ने भी कहा है- “जो जोग मुख से सर्वदा ऐसा ही कहते हैं कि एकमात्र भगवान् ही सत्य है और तो सभी नाशवान् है पर उनका मन माया के पदार्थों में ही अटका हुआ है, वे केवल ऐसा कह कर ही अपने को मुक्त करना चाहते हैं। उनसे भगवान् यही कहते हैं कि तुम झूठे हो, तुम्हारी प्रीति तो माया के साथ है, और तुम मुख से भगवान् को सत्य कहते रहते हो, इसलिये तुम्हारा कथन केवल विड़म्बनामात्र है।”

    इससे निश्चय हुआ कि जिनके बुद्धिरूप नेत्र खुले हुए हैं प्रत्यक्ष देखते हैं कि यममार्ग के कष्टों से कोई विरला ही मुक्त होगा, अधिकांश मनुष्यों को तो वे भोगने ही पड़ेंगे। हाँ, उनके भोग की न्यूनाधिकता अवश्य रहेगी। जिस प्रकार माया के पदार्थों के प्रति जीवों की आसक्ति में अन्तर है, उसी प्रकार उनके दुःख भोग में भी अन्तर रहेगा, अतः जिनकी आसक्ति अधिक है, वे अधिक काल तक उन दुःखों को भोगेगे, और जिनकी आसक्ति न्यून है, वे अल्प काल तक उन्हें भोग कर फिर मुक्त हो जायेंगे।

    बहुत लोग कहा करते हैं कि यदि यममार्ग के दुखों का काऱण मायिक पदार्थों की प्रीति ही है, तो फिर महें इन दुःखों की कोई आशंका नहीं है, क्योंकि महारा चित्त किसी पदार्थ में आसक्त नहीं है। हमारे लिये तो सब एक समान है। किन्तु उन्हें याद रखना चाहिये, ऐसी स्थिति दुर्लभ है। उनका ऐसा अभिमान कनरा बड़ी भारी भूल है। यदि वे अपने मन की परीक्षा करेंगे तो उन्हें मालूम होगा कि वे व्यर्थ ही अभिमान करते हैं। इसकी परीक्षा तब हो सकती है, जब उनका धन चोर चुरा ले, उनका ऐश्वर्य नष्ट हो जाय, तथा उनके सुहृद् विरोधी होकर उनकी निन्दा करने लगे और फिर भी उनकी स्थिति में कोई अन्तर आवे, उनकी चित्तवृत्ति में किसी प्रकार का खेद हो, और उन्हें ऐसा मालूम हो मानो किसी दूसरे ही का धन हरा गया है तथा किसी दूसरे ही का मान भंग हुआ है, मेरी तो कुछ भी हानि नहीं हुई तब समझा जा सकता है कि नका कथन ठीक है और उन्हें वास्तव में बड़ी उत्तम स्थिति प्राप्त है। किन्तु यदि धन और मान के नष्ट होने का अवसर नहीं आया, तो अपनी परीक्षा के लिये स्वयं ही धन का त्याग करें और जिस स्थान पर अपना मान हो उसे छोड़ कर चला जाय, फिर भी अपने को निर्मल और निर्लेप देखे तो समझे कि मेरी स्थिति ठीक है। जब तक अपने को इस प्रकार की परीक्षा में सफल देखे तब तक त्तम स्थिति का अभिमान करना व्यर्थ ही है। बहुत लोग तो जब तक अपने सगे-सम्बन्धियों में रहते हैं, तभी वह समझते हैं कि उनमें हमारा कोई राग नहीं है, किन्तु जब उनमें से किसी का वियोग हो जाता है, तो उनके हृदय में छिपी हुई राग की आग प्रकट हो जाती है और वे उसके ताप से पागल-से हो जाते हैं।

    अतः जो पुरुष यममार्ग के कष्टों से मुक्त होना चाहे उसे किसी भी स्थूल पदार्थ में आसक्त नहीं होना चाहिये। हाँ, कार्य-निर्वाह के लिये तो मायिक पदार्थों का उपयोग करना भी उचित ही है। जैसे इस मनुष्य को जब मल-मूत्र त्यागने की अपेक्षा होती है तो यह सके अनूरूप स्थानों में जा बैठता है, उसी प्रकार भूख-प्यास लगने पर अन्न-जल ग्रहण करना भी आवश्यक है ही, किन्तु यह आहार ग्रहण केवल शरीर यात्रा का निर्वाह करने के लिये ही होना चाहिये। हृदय में ऐसा समझे कि जैसे मल-त्याग किये बिना शरीर को कष्ट होता है, वैसे ही आहार के बिना भी इसका काम नहीं चल सकता। इसी प्रकार और सब व्यवहारों में भी संयम और संकोच पूर्वक ही बरते। फिर जब इसका चित्त भोगों से विरक्त हो जाय, तो पुरुषार्थ और प्रेम-पूर्वक भगवद्भजन में लग जाय। माया की लगन छोड़ कर भजन की लगन बढ़ावे और चित्त की परीक्षा करता रहे कि यह मायिक पदार्थों की ओर अधिक खिंचता है या भगवान् और सन्तों की आज्ञा पालन करने में अधिक प्रेम रखता है। जब देखे कि मेरा चित्त सुगमता से ही सब प्रकार की वासनाओं को त्याग कर सन्तों की आज्ञाओं का अनुसऱण कर सकता है, तब समझे कि मैं यममार्ग के कष्टों से मुक्त रहूँगा। और यदि, चित्त की ऐसी स्थिति जान पड़े तब तो इस महा दुःख से छुटकारा पाना कठिन ही है। भगवान् की विशेष दया तो तब भले ही इनसे बच सके। भगवत्कृपा तो इन सभभी साधनों से विलक्षण है। जब वे स्वयं ही कृपा करने लगे तब भला इन दुःखों से छूटना कौन बड़ी बात है?

    आठवीं किरण

    मानसी नरक की तीन प्रकार की अग्नियों का विवेचन

    मानसी नरक उन दुःखों को कहते हैं जो केवल जीव को होते हैं शरीर का उनसे कोई सम्बन्ध नहीं होता। जिस अग्नि से शरीर में जलन होती है वह स्थल नरक है और जो केवल मन को जलाती है उसे मानसी नरक कहा जाता है। यह मानसी नरक की अग्नि तीन प्रकार की है-

    स्थूल भोगों के वियोग की अग्नि।

    अपमान, निरादर और संकोच में डालने वाली अग्नि।

    भगवद्दर्शन से वंचित रहने के पश्चात्ताप की अग्नि।

    यह तीन प्रकार की अग्नि केवल हृदय को ही सन्तप्त करती है, शरीर पर इस दुःख का कोई प्रभाव नहीं होता। इसी से इसका पृथक् निरूपण करने की आवश्यकता हुई। किन्तु इन तीनों अग्नियों का बीच यह जीव संसार से ही साथ ले जाता है। इनका स्थूल दृष्टान्तों द्वारा आगे विवेचन करूँगा।

    पहली जो भोगों के वियोग की अग्नि है इसका वर्णन पहले भी कुछ हो चुका है। इस दुःख का कारण मायिक पदार्थों की प्रीति है। उस प्रीति के कारण ही उन पदार्थों का संयोग होने पर यह सुखी होता है और जब वे छूट जाते हैं तो दुःखी होता है। माया के साथ प्रीति होने के कारण ही यह पुरुष इस संसार में स्वर्ग की तरह भोगों को भोगता रहता है, किन्तु फिर से उसे मानसी नरक दुःख भोगना पड़ता है, क्योंकि जिस माया से इसका प्रेम था उससे अब वियोग हो गया। इससे निश्चय हुआ कि एक ही पदार्थ संयोग और वियोग होने पर इसके सुख और दुःख के कारण बन जाते हैं। इस अग्नि का स्वरूप स्पष्ट करने के लिये एक दृष्टान्त दिया जाता है- मान लो, एक बहुत बड़ा राजा है। सारी पृथ्वी पर उसका शासन है, उसे सर्वदा सुन्दर-सुन्दर दृश्य देखने को मिलते हैं, अनेकों दास, दासियाँ, मनमोहिनी सुन्दरियाँ, बाग-बगीचे और सभी प्रकार के भोग उसे प्राप्त है। अकस्मात् उसका कोई विरोधी उस पर चढ़ाई कर दे और उसे परास्त कर उस के सेवकों के सामने ही उसे कुत्तों की टहल में लगा दे, उसकी जो स्त्रियाँ और दास-दासियाँ थीं उन्हें अपनी सेवा में नियुक्त कर दे तथा उसका जो कोष और भण्डार था उसे उसके शत्रुओं को दे डाले, तो सोचिये उसे कितना कष्ट होगा! ऐसा होने पर यद्यपि उसके शरीर को कोई दुःख नहीं दिया गया, किन्तु अपने भोग और ऐश्वर्य का वियोग होने की आग की उसके हृदय को कितना सन्तप्त करेगी! इस स्थिति में तो उसका चित्त बार-बार यही चाहेगा कि मानसिक ताप की अपेक्षा तो मर जाना कहीं अच्छा है। इससे निश्चय हुआ कि मायिक सुख जितने अधिक होगे और उन्हें जिनता ही खुल कर भोगा जायेगा उतना ही अधिक उनकी वियोगागनि हृदय को जलायेगी। इस मानस ताप के आगे भौतिक अग्नि का ताप भी मन्द पड़ जाता है। बौतिक अग्नि से शरीर को अवश्य पीड़ा पहुँचती है, परन्तु हृदय पर उसका पूरा प्रभाव नहीं पड़ता, क्योंकि बेचारी इन्द्रियों के द्वारा हृदय को जो अन्यान्य भोग प्राप्त होते रहते हैं उनके कारण उस पीड़ा का कष्ट बहुत कुछ बँट जाता है तथा नेत्रादि के द्वारा चित्त की वत्ति विषयों में बिखरी रहने से भी वह दुःख निर्बल पड़ जाता है। वास्तव में यह इन्द्रियों का व्यवहार भी हृदय के आगे एक प्रकार का पर्दा है। इसके कारण हृदय में सुख-दुःख का पूरा प्रवेश नहीं हो पाता। जैसे कोई दुःखी पुरुष जब अकस्मात् निद्रा से जागता है तो उसे दुःख की पीड़ा अधिक जान पड़ती है, क्योंकि उस सप्रय उसका चित्त एकाग्र होता है और इन्द्रियों के द्वारा वह अन्य विषयों में बिखरा हुआ भी नहीं होता। इसी प्रकार एक स्वस्थ पुरुष निद्रा से जगे और उसे आरम्भ में ही सुन्दर सुन्दर शब्द सुनायी दे तो उसे उनमें विशेष आनन्द आयेगा और उसकी चित्तवृत्ति एकाग्र हो जायेगी। किन्तु यह जीव जब तक संसार में रहता है तब तक इन्द्रियों का व्यापार इसके साथ लगा ही रहता है और शरीर छूट जाने पर यह अकेला रह जाता है, वहाँ इन्द्रियों का विक्षेप सर्वथा निवृत्त हो जाता है। इसी से इसे परलोक में सुख-दुःख दोनों ही अधिक जान पड़ते हैं। अतः तुम ऐसा अनुमान करो कि परलोक की सूक्ष्म अग्नि संसार की स्थूल अग्नि की तरह ही होगी, उसकी अपेक्षा तो यह सत्तरवाँ अंश शीतल है।

    दूसरी अपमान की अग्नि बतलायी थी। उसके लिये यह दृष्टान्त दिया जाता है- जैसे कोई महाराज किसी नीच मनुष्य को अपने आस रख ले और उस पर विश्वास करके महल का सारा काम उसी को सौंप दे। उसी के अधीन भण्डार रहे और अन्तःपुर में जाने की भी उसे पूरी छूट हो। इस प्रकार सारी सुविधाएँ पाकर उसका चित्त दूषित हो जाय और वह विपरीत आचरण करने लगे। भण्डार से धन चुरा ले और रानियों के साथ व्यभिचार करे, किन्तु ऊपर से अपने को बड़ा साधु स्वभाव और सदाचारी प्रकट करे। ऐसी स्थिति में यदि किसी दिन अकस्मात् राजा उसे कोई पकर्म करता देख ले और उसे भी मालूम हो जाये कि आज महाराज ने मुझे महलों में कुमकर्म करते देख लिया है तथा वे नित्य ही झरोखे से मेरी सारी करतूते देखते रहते हैं, किन्तु दण्ड इसलिये नहीं देते कि अब इसके पापों का घड़ा पूरा भर जायेगा तब एक साथ ही इसे कठोर दण्ड और ताड़ना दूँगा, तो उस समय उस नीच पुरुष को लज्जा की आग किस प्रकार जलायेगी! उस समय भले ही उसके शरीर को कोई कष्ट हो, तथापि इस लज्जा के कारण ही वह अपने को धरती में लीन करना चाहेगा और सोचेगा कि किसी प्रकार यह शरीर छूट जाय तो मैं लाज की आग से बच जाऊँ। इसी प्रकार तुम जो अपने मलिन स्वभावों के अनुसार अनेकों कुचेष्टाएँ करते हो वे ऊपर से देखने में भले ही अच्छी जान पड़े किन्तु उसका उद्देश्य दूषित होता है। यहाँ भले ही तुम उनके दुष्परिणाम को देख सको, किन्तु जब परलोक में जाओगे और उनका मलिन तात्पर्य तुम्हारे सामने आयेगा तो लज्जा से तुम्हारा सिर नीचा हो जायेगा और तुम लज्जा की आग में जलने लगोगे।

    यदि कोई पुरुष संसार में किसी की निन्दा करे तो परलोक में उसे इस प्रकार लज्जित होना पड़ेगा जैसे कोई पक्षी का मांस समझ कर अपने भाई का ही मांस खा ले और पीछे उसे उसको वास्तविकता का पता लगे। उस व्यक्ति का हृदय जिस प्रकार लज्जा और परिताप की अग्नि से जलने लगता है वैसी ही गति निन्दा करने वाले की परलोक में होगी। इस समय तो तुम्हें निन्दा करने का दुष्परिणाम नहीं जान पड़ता, किन्तु परलोक में वह प्रत्यक्ष तुम्हारे सामने जायेगा। इसी से कहा है कि यदि किसी पुरुष को स्वप्न में दिखायी दे कि वह मुर्दे को खा रहा है जो समझना चाहिये कि वह निन्दा करने वाला है। इसके लिये यह दृष्टान्त भी दिया जाता है कि जैसे कोई स्वभाव से ही भीत के पीछे पत्थर फेंकता हो और उससे कोई पुरुष कहे भी कि भाई, ये पत्थर तेरे ही घर में गिर रहे हैं और इसके कारण तेरे ही बच्चों की आँखें फूटती है तू इन्हें फेंकना बन्द कर दें। और फिर वह घर में जाकर भी यही बात देखे तो उसे कैसी लज्जा आयेगी उसके चित्त में कैसी आग लगेगी?

    इसी प्रकार जो व्यक्ति किसी से ईर्ष्या करता है वह भी परलोक में अपने को लज्जा की आग से जलता देखेगा। ईर्ष्या करने वाला तो अपने शत्रु का अहित चाहता है, पर वास्तव में हानि उसी की होती है। वह अपने ही धर्म को नष्ट करता है और इससे उसी के शुभ कर्मो का क्षय होता है। तात्पर्य यह है कि परलोक में सब कर्मो का स्वरूप अनके उद्देश्य या तात्पर्य के अनुसार सामने आता है। वहाँ यह पदार्थों के बीज अर्थात् मूल कारण को देखता है, इसलिये अपमान और लज्जा को प्राप्त होता है। यहाँ स्वप्नावस्था भी परलोक की तरह ही होती है, सी से जैसा जिस व्यक्ति का हृदय होता है। वैसा ही स्वप्न में उसे मूर्तिमान देखता है। कहते हैं, कि एक बार एक प्रवृत्तिमार्गीय विद्वान् किसी सन्त के पास गया और बोला कि मैं स्वप्न में अपने को लोगों के मुँह पर मोहर लगाते देखता हूँ, इसका क्या तात्पर्य है। सन्त ने कहा, “तुम जाग्रत् अवस्था में लोगों से बलात्कार से व्रत रखाते होगे।” इस पर पण्डित ने स्वीकार करते हुए कहा कि निःसन्देह मेरा ऐसा ही स्वबाव है। अब तुम विचार करके देखो कि इस क्रिया का स्वरूप कैसा है और इसका तात्पर्य क्या है? यद्यपि स्थूल दृष्टि से व्रत रखना अच्छा ही काम है, किन्तु उसका उद्देश्य या तात्पर्य अशुभ ही प्रकट हुआ। वह मानो लोगों के मुँह पर मुहर लगाना अर्थात् उनका आहार रोकना हुआ। सो यह प्रबु की बड़ी कृपा है कि परलोक की अवस्था सूचित करने के लिये उन्होंने स्वप्नावस्था बना दी है, किन्तु तुम इससे भी अचेत रहते हो।

    सन्तों ने कहा कि परलोक में माया का आकार कुरूपा वृद्धा स्त्री के समान होगा। उस समय सबी जीव उसे देख कर भयभीत होगे और प्रभु से प्रार्थना करेंगे कि भगवान्! इस महाराक्षसी से हमारी रक्षा करो। तब प्रभु ‘कहेगे जिसकी प्राप्ति के लिये तुम अपना धर्म नष्ट करते थे यह वह माया ही है।’ यह सुन कर जीवों को ऐसी लज्जा और अपमान का बोध होगा कि वे अपने को अग्नि में जलाना चाहेंगे, जिससे किसी प्रकार उस लज्जा से छुटकारा मिल जाय। इस लज्जा के विषय में एक दृष्टान्त और भी है- एक बार किसी राजपुत्र का विवाह हुआ। वह मदिरापान से उन्मत्त होकर महलों की ओर चला, किन्तु मद्य के उन्माद में दूसरी ही ओर निकल गया। वहाँ एक घर में दीपक जल रहा था। उसने सोचा मैं अपने महल में पहुँच गया हूँ। घर के भीतर देखा कि बहुत लोग सोये हुए हैं। पुकारने पर उनमें से कोई उठा भी नहीं। उन्हें सोये हुए समझ कर वह चुप हो गया और एक स्त्री को उज्ज्वल वस्त्र पहने सोयी देखकर उसे ही अपनी नववधू समझ कर उसके समीप लेट गया। उस स्त्री के शरीर से उसे सुगन्ध आने लगी, अतः उसी के साथ रति-क्रीड़ा करता रहा। प्रातःकाल सूर्योदय होने पर जब नशा उतरा तो देखा कि जिन्हें मैं सोये हुए समझता था वे सब तो मुर्दे हैं और वह स्त्री भी एक अत्यन्त कुरूपा वृद्धा का शव है। उसमें से जो सुगन्ध रही थी वह तो उसी को दुर्गन्ध है तथा मेरे अंग भी विष्ठा तथा धूलि से मलिन हो गये है। यह सब देखकर उसे बड़ी ग्लानि हुई और वह अत्यन्त दुःखी होकर चाहने लगा कि मेरी मृत्यु जाय तो अच्छा है। साथ ही, इस बात का भी भय हुआ कि कहीं मेरे पिता या कोई राजकर्मचारी मुझे इस स्थिति में देख ले। इतने ही में राजा अपने मन्त्रियों के सहित उसे ढूँढ़ता वहाँ गया। अब तो राजपुत्र बड़ा ही लज्जित हुआ और सोचने लगा कि किसी प्रकार धरती फट जाय तो इसी में समा जाऊँ। विषयी जीव भी जब परलोक में जायेगा तो उसे माया के भोग ऐसे ही मलिन दिखायी देंगे और जब परमपिता परमात्मा के सामने अपने को ऐसी मलिन परिस्थिति में देखेगा तो लज्जा से डूब-मरने की इच्छा करने लगेगा। यदि विचार कर देखे तो भोगी पुरुष इस संसार में ही अत्यन्त निर्लज्जता और दुःख की परिस्थिति प्राप्त करते हैं। तथापि परलोक में जीव को जैसी दुःख और लज्जा की स्थिति प्राप्त होती है उसके सामने लौकिक दुःख और लज्जा तो कुछ भी नहीं है। यहाँ जिज्ञासुओं को लक्ष्य कराने के लिये संक्षेप में इस दूसरी अग्नि का दिग्दर्शन कराया है। इसका तात्पर्य यही है कि लज्जारूप अग्नि भी ऐसी तीक्ष्ण है कि इसके सामने स्थूल अग्नि अत्यन्त नगण्य है तथा वह केवल हृदय को जलाती है, शरीर से इसका कोई सम्बन्ध नहीं है।

    तीसरी अग्नि है भगवद्दर्शन से वंचित रहने की। यह मूर्खता भी जीव के साथ इस संसार से ही जाती है। इस लोक में जिन लोगों ने सन्तजनों के उपदेश और पुरुषार्थ के द्वारा ज्ञान प्राप्त नहीं किया तथा अपने हृदय को शुद्ध करके भगवद्दर्शन के लिये दर्पणवत् नहीं बनाया उन्हें परलोक में इस परिताप की आग में जलना पड़ेगा। पाप रूपी जगार के कारण परलोक में भी उनका हृदय-दर्पण अन्धा ही रहेगा और वहां भी वे प्रभु के दर्शनों से वंचित ही रहेंगे। और उनका चित्त इस पश्चात्ताप की आग में जलता रहेगा। इस विषय में एक दृष्टान्त दिया जाता है- मान लो, अपने कुछ हितैषी मित्रों के साथ अँधेरी रात में किसी वन में जाओ और वहां तुम्हें कुछ कंकर-पत्थर से पड़ जान पड़े, किन्तु अँधेरे में उनका कोई रूप-रंग दिखाई दे। उस समय तुम्हारे साथी यथाशक्ति उन कंकरों को बटोर ले और तुमसे भी कहे कि इन पत्थरों की हमने बड़ी विशेषता सुनी है, तुम भी जितने उठा सको उटा लो। किन्तु तुम उन्हें मूर्ख समझ कर उनकी बात पर कोई ध्यान दो और खाली हाथ ही वहां से चले आओ। परन्तु जब सूर्योदय हो तो वे सब कंकर बहुमूल्य रत्न दिखायी दें- ऐसे मूल्यवान् कि जिसका कोई अनुमान ही हो सके, तब तुम्हारे साथियों को तो अत्यन्त हर्ष होगा और तुम? तुम तो बस, पश्चात्ताप की अगनि में ही जलते रहोगे। तुम्हारे साथी तो उन रत्नों को पाकर अत्यन्त सम्पन्न हो जायँगे और हाथी, घोड़े आदि तरह-तरह की भोग सामग्री संग्रह करके सुख भोगेगे और तुम अत्यन्त दीन और निर्धन रहकर भूख-प्यास का भी कष्ट सहोगे। तुम अपने साथियों से धन माँगोगे तो भी वे मना कर देगे और कहेंगे कि तुम तो हमें मूर्ख समझ कर हँसते थे और तुमने हमारी बात पर कोई ध्यान ही नहीं दिया अब तुम उसका फल भोगो। ऐसी स्थिति में तुम्हें कैसा पश्चात्ताप होगा और तुम किस प्रकार उस आग से सन्तप्त होगे! इसी प्रकार जो लोग भगवद्दर्शन से वंचित है उन्हें परलोक में ऐसी ही अवस्था प्राप्त होगी।

    यह संसार अँधेरे वन के समान है। यहाँ जप, तप, भजन रूप जो साधन है वे ही रत्नों के समान है। इस संसार में इन रत्नों को स्वरूप और मूल्य प्रतीत नहीं होता, इसी से संसारी जीव इन्हें ग्रहण नहीं करते और बड़ी चतुराई प्रकट करते हुए कहते हैं कि इस संसार के प्रत्यक्ष सुख को छोड़कर उधार के पीछे क्यों भटके? ऐसे लोग परलोक में निःसन्देह दुःखी होगे और पुकार-पुकार कर कहेंगे कि साधन करने वाले ही परम-सुख के अधिकारी है। वहाँ उनका सुख देखकर इन्हें बड़ी जलन होगी, क्योंकि जिन पुरुषों ने साधन करके इस लोक में भगवान् का प्रेम और परिचय प्राप्त किया है उन्हें परलोक में प्रभु ऐसा परम-सुख प्रदान करेंगे कि जिस नित्य-सुख के एक लब की तुलना भी माया के सारे भोग मिलकर नहीं कर सकते। वस्तुतः वह आत्मसुख ऐसा अद्भुत और अपार है कि उसके साथ किसी प्रकार के सुख का दृष्टान्त नहीं दिया जा सकता। वह तो सम्पूर्ण सुखों का सार-सर्वस्व ही है। यह ऐसी ही बात है जैसे कोई जौहरी कहे कि इस रत्न का मूल्य सौ मुहर है, तो इसका यह अर्थ तो नहीं होता कि उसका आकार या भार सौ मुहरों के समान है। उसका तात्पर्य तो यही है कि मानो यह रत्न सौ मुहरों के सोने-चाँदी का सार है। इसी प्रकार आत्मसुख को जो सम्पूर्ण इन्द्रिय-सुखो से श्रेष्ठ बताया है वह आकार-प्रकार में उनके समान होने से नहीं, अपितु उन सब का सार होने से कहा है। वह सबका सार है इसी से उसका यहां विशेष रूप से विवेचन किया है।

    इस प्रकार अब तुम तीन प्रकार की सूक्ष्म अग्नि को तो समझ गये। इसके साथ यह भी निश्चय जानो कि इन सूक्ष्म अग्नियों का दाह स्थूल अग्नि की अपेक्षा अत्यन्त तीक्ष्ण है। देखो, शरीर को स्वतः तो अपने दुःख का कोई ज्ञान होता नहीं है, शारीरिक दुःख का भान भी तभी होता है जब जीव की वृत्ति शरीर में होती है। इस प्रकार परम्परा से जीव ही शरीर के दुःख को अनुभव कनरे वाला है। फिर जो दुःख स्वयं जीव में ही हो वह उसे कितना तीक्ष्ण जान पड़ेगा? अतः जीव के भीतर रहने वाली होने से सूक्ष्म अग्नियाँ उसके लिये अत्यन्त दुःशह है। इस दुःख की दुःशहता का एक विशेष कारण यह भी है कि इस स्थिति में जीव की प्रत्येक अभीष्ट वस्तु का तो वियोग हो जाता है और विपरीत परिश्तिति सामने जाती है। यहीं शारीरिक दुःखों का भी कारण होता है। जैसे शरीर को इष्ट तो यह है कि बात-पित्तादि सब तत्वों की वृत्ति समान रहे तथा शरीर के सब गों का पारस्परिक सम्बन्ध भी बना रहे। किन्तु यदि अकस्मात् किसी विघ्न या शस्त्र के प्रहार से कोई अंग कट जाय तो अंग विच्छेद होने के कारण शरीर दुःखी हो जाता है। तथापि शस्त्र से तो केवल एक अंग का वियोग होता है, अग्नि से तो सभी अंग जलने लगते हैं। अतः शस्त्रों की अपेक्षा अग्नि से होने वाली पीड़ा अधिक असह्य होती है। इसी प्रकार जीव को इष्ट तो है भगवद्दर्शन और भगवत्परिचय, किन्तु वह इनसे तो वंचित रह जाता है और अनेकों प्रकार की विपरीत वासनाएँ उसके हृदय में घर कर लेती है। इसलिये जब वासना की सामग्री का वियोग होता है तो यह अत्यन्त दुःखमग्न हो जाता है और फिर उस दुःख का भी अन्त नहीं होता। संसार में भी जब कभी इसे कुछ चेत होता है तो इस दुःख का कुछ अनुमान हो जाता है, परन्तु यहाँ माया के भोगों में फँस कर यह ऐसा शून्यचित्त हो जाता है कि इसे कुछ भी नहीं सूझता। फिर जब परलोक में उस विषय जनित शून्यता का अभाव हो जाता है तो इसे वह दुःख प्रत्यक्ष भासने लगता है। जैसे अर्द्धांग रोग के कारण यदि किसी पुरुष का बायँ अंग शून्य हो जाय तो उसे अग्नि का ताप प्रतीत नहीं होता पर जब वह शून्यता निवृत्त हो जायेगी तो उसे उसकी तीक्ष्णता व्याकुल कर देती। अतः परलोक में जब इसके हृदय की जड़ता दूर होगी तो इसे यह मानसी नरक की आग अत्यन्त तीक्ष्ण और उग्र प्रतीत होगी।

    यह हृदयस्थ अग्नि कहीं बाहर आकर जीव को नहीं जलाती। इसका बीज तो पहले से ही जीव के अन्तरस्थित था। केवल परिचय होने के कारण यह उसे नहीं जानता था। जब यह बीज बढ़ कर वृक्ष हो गया तो इसे प्रत्यक्ष भासने लगा। और अब तो यह उसके फलों को भोग रहा है। इसी पर भगवान् ने भी कहा है कि यदि तुम्हारी प्रीति दृढ़ होती तो तुम नरक को यहां ही प्रत्यक्ष देख सकते थे। शास्त्रों में जो स्थूल स्वर्ग और स्थूल नरकों का विशेष वर्णन है इसका कारण यही है कि संसारी जीव तो इन्हीं को समझ सकते हैं। ये लोग जब मानसी नरकों की बात सुनते हैं तो बुद्धिहीनता के कारण उन्हें बहुत तुच्छ समझते हैं। जैसे किसी बालक से कहीं कि तू विद्या पढ़, यदि विद्या नहीं पढ़ेगा तो तुझे पिता का ऐश्वर्य प्राप्त नहीं होगा, मूर्ख ही बना रहेगा- तो उस पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता, क्योंकि पिता का ऐश्वर्य मिलने से क्या दुःख होता है इसका उसे कुछ पता ही नहीं है। किन्तु यदि उससे कहा जाय कि तू विद्या नहीं पढ़ेगा तो अध्यापक जी तेरे कान मलेगे, तो वह भयभीत हो जाता है और यह दुःख तत्काल उसकी समझ में जात है। तथापि विद्या पढ़ने पर अध्यापक जी के द्वारा ताड़ित होने का दुःख भी सत्य है और पिता के ऐस्वर्य से वंचित रहने का भी। इसी प्रकार स्थूल नरक भी सत्य है और मूर्खतावश भगवद्दर्शन से वंचित रहने की अग्नि भी सत्य है किन्तु इनमें भगवद्दर्शन से वंचित रहने की आग ऐसी है जैसा पिता के ऐश्वर्य से वंचित रहने का दुःख।

    नवीं किरण

    मानव जीवन की चार मंजिलों का वर्णन

    प्रश्न- आप कहते हैं कि मानसी नरकों को अनुभव की दृष्टि से ही देख सकते हैं और विद्वानों का कथन है कि शास्त्रों ने परलोक के विषय में विश्वास को ही प्रमाण माना है, वे कहते हैं कि अपनी दृष्टि से परलोक को देखना असम्भव है। सो इस विरोध का सामंजस्य कैसे किया जाये?

    उत्तर- इस विषय पर पहले भी कहा चुका है। यदि ध्यान देकर देखा जाय तो इनमें कोई विरोध भी नहीं है। शास्त्र में जिस प्रकार परलोक का वर्णन किया है सामान्यतया उसका ज्ञान विश्वास के आधार पर ही हो सकता है। विद्वानों में भी बहुत तो ऐसे ही हुए हैं जिनकी बुद्धि इन्द्रियदेश से बाहर नहीं गयी, चैतन्य देश को उन्होंने देखा ही नहीं था। किन्तु कुछ बुद्धिमान ऐसे भी हुए है जिन्होंने परलोक और मानसी नरकों को प्रत्यक्ष अनुभव की दृष्टि से देखा था। तथापि इस बात को उन्होंने इसलिये प्रसिद्ध नहीं किया कि अधिकांश लोग इस मानसी दुःख को समझ नहीं सकते तथा हर किसी की बुद्धि में ऐसा बल भी नहीं होता कि अत्पमति जीवों को चैतन्य देश का रहस्य हस्तमलकवत् प्रत्यक्ष दिखा सके। इसे तो जिस पर भगवान् की विशेष कृपा होती है वह स्वयं ही देखता है और युक्तिपूर्वक दूसरों को समझा भी सकता है। किन्तु ऐसे पुरुष संसार में विरले ही होते हैं। अतः स्थूल नरकों का भेद तो सामान्यतया शास्त्रों को सुन कर और उन पर विश्वास करके ही जान सकते हैं। किन्तु मानसी नरकों का ज्ञान अपने स्वरूप की पहचान होने पर ही हो सकता है। तता अपने स्वरूप की पहचान ओर बुद्धिरूप नेत्रों के द्वारा चैतन्य का साक्षात्कार- ये पुरुषार्थ और यत्न के मार्ग से चलने पर ही हो सकते हैं। अतः इस परम-पद को वही पाता है जो पने देश से चल कर किसी अन्य देश में पहुँचे और जिस स्थान में यह जीव उत्पन्न होकर स्थित है उसे त्याग कर आगे चलने का उद्यम करे।

    किन्तु यह जो मैंने अपने देश और स्थान को त्यागने की बात कही है, इसका अर्थ यह नहीं है कि किसी स्थूल देश या गृह को त्याग कर चलना है, क्योंकि इनका सम्बन्ध तो स्थूल शरीर से हैं, अतः इन्हें त्यागने से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होगा। मैंने तो जीव के देश त्यागने की एक विशेष बात कही है। उसका तात्पर्य यह है कि जीव का वास्तविक देश तो दूसरा है, इस शरीर में तो यह किसी कार्य-विशेष के लिए आया है। किन्तु इसने इसे ही अपना देश समझ लिया है। ऐसा होने पर भी इसे इस स्थूल देश से जाना और सूक्ष्म देश में पहुँचना अवश्य पड़ेगा। इसके रास्ते में कई मंजिले हैं और उनके भिन्न भिन्न व्यवहार है। इसकी स्थिति का पहला स्थान है इन्द्रियादिक देश, दूसरी मंजिल है संकल्प देश और तीसरा देश संकल्प की हेतुभूता जगत्प्रताति है, जिसे स्थूल बुद्धि भी कहते हैं। इससे आगे चौथा सूक्ष्मबुद्धि का देश है। जब यह जीव इस सूक्ष्म देश में पहुँचता है तब इसे अपने स्वरूप का ज्ञान होता है, पहले तीन देशों में तो यह अज्ञान से आच्छादित रहता है।

    मैंने जो चार मंजिले कही है ये दृष्टान्तों के द्वारा समझ में सकती है। पहले इन्द्रियादिक देश में इस जीव की दशा पतंग ककी तरह होती है। पतंग नेत्रेन्द्रिय के विषय में आसकत् होकर दीपक के ऊपर गिरता है। उसमें किसी प्रकार के संकल्पता या चिन्तन करने की तो योग्यता होती नहीं। वह चाहता है अन्धकार से बचने के लिये खिड़की के मार्ग से बाहर निकलना, और दीपक को ही वह खिड़की समझ बैठता है। इसलिये बार-बार उसी की ओर जाता है। धुएँ के कारण वह पीछे की ओर लौटता भी है, किन्तु उसमें इतनी समझ भी नहीं होती कि धुएँ के दुःख को याद रखे और पुनः उस ओर जाय। अतः वह फिर दीपक ही की ओर जाता है और अन्त में उसी में जल मरता है। यदि उसमें कुछ भी स्मृति और चिन्तनशक्ति होती तो एक बार दुःख पाकर वह पुःन उसकी ओर जाता।

    दूसरा संकल्प का देश पशुओं की तरह है। पशु को जब एक बार लाठी लगने के दुःख का अनुभव हो जाता है तो दूसरी बार लाठी दिखाने पर वह भयभीत होता है। उसे उस लाठी का दुःख स्मरण रहता है। इसी प्रकार जब यह मनुष्य संकल्प के देश में रहता है तो इसकी अवस्था पशुओं के समान होती है। इसी से जब तक यह किसी पदार्थ से दुःखी नहीं होता तब तक उसका त्याग भी नहीं करता। परन्तु जब उसके दुःख का अनुभव हो जाता है तो उसे देखते ही भागने लगता है।

    तीसरी मंजिल है स्थूल बुद्धि की, जो संकल्प ही हेतु है। जब मनुष्य इस मंजिल में पहुँचता है तो उसकी अवस्था घोड़े और बकरी के समान होती है। इस स्थिति में वह पहले दुःख का अनुभव किये बिना ही दुःखदायक पदार्थों से भय मानने लगता है और वह समझ जाता है कि इससे मुझे दुःख प्राप्त होगा। जैसे बकरी ने कभी पहले भेड़िये को और घोड़े ने सिंह को देखा हो तो भी जब वे अकस्मात् इनके सामने आयेंगे तो ये देखते ही भगने लगेंगे। किन्तु ऊँट या हाथी को देखकर नहीं भागेंगे। इस प्रकार इस अवस्था में स्वभाव से ही शत्रु और मित्र की पहचान हो जाती है। यह पहचान भी सूक्ष्म दृष्टि से ही होती है और भगवान् ने इन जीवनों को वह सूक्ष्म दृष्टि प्रदान की है। परन्तु फिर भी ये इस भेद को नहीं जानते कि कल क्या होगा।

    इस आगामी दुःख को पहचानना और उससे भय मानना- यह अवस्था चौथी मंजिल में प्राप्त होती है तबी पशुओं के पद से ऊपर उठता है। इससे पहले की तीन मंजिलों में तो वह पशुओं के समान ही होता है। किन्तु यह सूक्ष्म बुद्धि का देश भी सम्पूर्ण मानव के पद की प्रथम अवस्था ही है। इस समय यह चीज को देख सकता है जिस तक इन्द्रिय संकल्प और स्थूल बुद्धि की गति नहीं होती और जिस वस्तु से भविष्य में दुःख हो सकता है उससे भय करने लगता है। साथ ही कर्मो के सारे भेद को और उस भेद के कारण कर्मो के आकार प्रकार को भी समझने लगता है। उसे सब पदार्थो की मर्यादा का भी बोध हो जाता है और वह समझता है कि इस दृश्य जगत् में जितने पदार्थ है वे सभी नाशवान है, क्योंकि इन्द्रियों के विषय होने से ये सभी स्थूल है।

    यहाँ जो चार मंजिले बतायी गयी है इनमें इन्द्रियादिक देश की क्रियाएँ तो पृथ्वी पर चलने-फिरने के समान सभी के लिये सुगम है। संकल्प देश की क्रियाएँ ऐसी है जैसे नौका पर बैठ कर चलना। बौका पर बड़े आदमियों को तो कोई भय नहीं होता, किन्तु बालक डरता है। इसके आगे स्थूल बुद्धि जो संकल्पों का कारण है उसकी क्रियाएँ तैरने के समान है। जल में वही आदमी तैर सकता है जो इस कला में कुशल हो, प्रत्येक सयाना आदमी भी तैर नहीं सकता। तथा चौथी जो सूक्ष्मबुद्धि की मंजिल है उसकी स्थिति मेघमण्डल में उड़ने के समान है। वहाँ कोई विरला शक्तिसम्पन्न पुरुष ही उड़ सकता है। यद्यपि इस अवस्था का प्राप्त होना भी अत्यन्त कठिन है, तथापि ज्ञानवान् महापुरुषों का पद तो इससे भी परे हैं। उस परमपद की गति तो ऐसी है जैसे कोई महाकाश में उड़ान भरे। इसी से जब महापुरुष से किसी ने कहा कि महात्मा ईसा जल पर चलते थे, तो वे बोले, “यह बात सत्य है, किन्तु यदि उनका अनुभव अत्यन्त दृढञ होता तो वे आकाश में भी उड़ सकते थे।”

    इस प्रकार इस मनुष्य की जो इन सब मंजिलों में गतियाँ है उनका लक्ष्य तो ज्ञान का ही देश है। इन विभिन्न गतियों के द्वारा यह पशुओं की अवस्था से देवताओं की स्थिति में पहुँच सकता है। इसी से कहा है कि अधोगति या ऊर्ध्वगति में जाने का अदाकर केवल मनुष्य को ही है और इसलिये मनुष्य में ही यह आशंका रहती है कि जाने मैं अधोगति रूप रसालत में जाऊँगा या देवलोक रूप ऊर्ध्वगति प्राप्त करूँगा। इसका कारण यह है कि जितने जड़ पदार्थ है उनकी अवस्था तो कभी बदलती नहीं, क्योंकि उनमें चेतनता का अभाव है, इसलिये वे निर्भय है। तथा देवता है ईश्वर कोटि में, वे अपने सुद्ध स्वरूप से कभी च्युत नहीं होते, इसलिये उन्हें भी किसी प्रकार के उत्थान या पतन की आशंका नहीं है। केवल मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जो शुभक्रमो के द्वारा ऊर्ध्वगति और अशुभ कर्मों के द्वारा अधोगति प्राप्त कर सकता है। इसलिये उसे ही ऐसी शंका भी रहती है। तथा यह जो कहा है कि भगवान् ने अपनी भक्ति और प्रेम की अमानत (धरोहर) मनुष्य को ही सौंपी है, सका भी यही तात्पर्य है।

    परन्तु मनुष्य भी नगर निवासी और परदेशी की तरह दो प्रकार के होते हैं। इन दोनों की स्थितियों में बहुत अन्तर रहता है। अधिकांश लोग तो नगरवासियों की तरह अपने स्वभाव में ही स्थित रहते हैं। परदेशी की तरह रहने वाले जिज्ञासुजन तो विरले ही है। जिस पुरुष की स्थिति इन्द्रियादिक देश या संकल्पों के देश में ही रहती है उसे यथार्थ भेद की समझ नहीं हो सकती और वह देहातीत पद को ही प्राप्त कर सकता है। इसी से शास्त्रों में भी चैतन्य-सत्ता का विशेष वर्णन नहीं है। अतः मैं भी इस प्रकरण को यहीं समाप्त करता हूँ। स्थूल-बुद्धि पुरुष तो इतना भी नहीं समझ सकते, फिर इससे आगे का रहस्य तो उनकी बुद्धि कैसे ग्रहण कर सकती है?

    दसवीं किरण

    परलोक में विश्वास रखने की आवश्यकता

    कितने ही मनुष्य तो ऐसे मूर्ख होते हैं कि वे परलोक की गति को अपनी बुद्धि से तो देख नहीं सकते और सन्तों के वचनों में भी उनका विश्वास नहीं होता, इसलिये इस विषय में वे संदिग्ध ही रहते हैं, तथा भोगवासनाओं की प्रबलता के कारण परलोक को अस्वीकार भी कर देते हैं। यह सब उनके मन की ही धृष्टता है। वे समझते हैं कि सन्तों ने नरकों का वर्णन जीवों को डराने के लिये किया है और स्वर्गों का उल्लेख उन्हें प्रलोभित करने के लिये, वास्तव में नरक या स्वर्ग नाम की कोई चीज नहीं है। ऐसा मानकर वे भोगों में आसकत् रहते हैं और सन्तों की आज्ञा के विपरीत आचरण करते हैं। जो लोग शास्त्रमर्यादा का अनुसरण करते हैं उन्हें वे मूर्ख समझ कर हँसते हैं और कहते हैं कि ये तो मर्यादा की डोरी में बँधे हुए हैं। ऐसे बुद्धिहीन नास्तिक पुरुषों की परलोक की गति किसी प्रकार समझायी नहीं जा सकती। हाँ, यदि इनमें से किसी की कुछ श्रद्धा हो तो ऐसा कर सकते हैं कि भाई! यदि तुम्हारी बात सच मानी जाय तो अनेको सन्त और आचार्यगण, जिन्होंने बड़ी-बड़ी तपस्याएँ की है, झूठे हो जायेंगे। वे क्या सब धोखे ही में थे? यह विषय तो अत्यन्त गुह्य है, तुमने बिना ही कुछ साधनादि किये इसके विषय में कैसे निर्णय कर लिया? इस विषय में तुम्हारा विचार कैसे प्रामाणिक माना जा सकता है। वास्तव में वे तो झूठे है और धोखे ही में थे, इस विषय में तो तुम्हीं अनभिज्ञ हो। तुम्हें तो परलोक के रहस्य का पता है और आत्मा-अनात्मा का विवेक ही है।

    इस पर भी वह मूर्ख अपनी भूल स्वीकार करे और हठपूर्वक कहने लगे कि हमें तो इस बात का हस्तामलकवत प्रत्यक्ष ज्ञान है कि इस समय भी शरीर में उससे भिन्न किसी चेतनतत्व को मानना सर्वथा मिथ्या है तता मरने के पीछे भी उसका नाश नहीं होता यह बात भी कोरी कपोल-कल्पना है, क्योंकि शरीर के सब व्यापार तो प्राणवायु के द्वारा ही सम्पन्न होते हैं, अतः परलोक के सुख-दुःख कल्पनामात्र ही है। जब किसी का ऐसा निश्चय जान पड़े तो समझो कि इसकी बुद्धि तो मूल से ही नष्ट है। वह तो महामूर्ख है, उसे समझाने की चेष्टा करना व्यर्थ है। सी पर किसी सन्त को आकाशवाणी हुई थी कि तुम नास्तिकों को उपदेश मत करो, क्योंकि ये मूर्ख वचनो से समझने वाले नहीं होते। किन्तु जब वह इस प्रकार प्रश्न करे कि परलोक की बात होगी तो निःसन्देह सत्य, किन्तु हमारे लिये तो वह बहुत आगे की चीज है, क्योंकि वह हस्तामलकवत् प्रत्यक्ष तो है नहीं, फिर ऐसी अनिश्चित स्थिति के पीछे वर्तमान भोगों को क्यों त्यागे तथा सारी आयु वैराग्य और तपस्या का दुःख ही क्यों सहे? तो उससे इस प्रकार कहना चाहिये “भाई, यदि तुम्हें परलोक की बात मानने योग्य जान पड़ती है तो तुम्हारे लिये यह आवश्यक हो जाता है कि सन्तों की निश्चित की हुई मर्यादा के अनुसार आचरण करो, क्योंकि जिस कार्य में किसी भारी भय की आशंका हो उसे तो संदिग्ध होने के कारण भी त्यागना अच्छा है। देखो, यदि तुम्हारे सामने भोजन आये और तुम्हें भूख भी खूब लगी हो, किन्तु यदि कोई कह दे कि इस भोजन में सर्प ने मुँह डाला है, तो तुम उसे त्याग दोगे या नहीं? उस समय तुम्हें ऐसा भी निश्चय ही कि यह आदमी झूठा है, इसलिये अपने किसी लाभ के लिये ही ऐसा भय दिखाता होगा, तो भी तुम उस भोजन को अंगीकार नहीं करोगे। कारण कि, तुम्हें संदेह होता है कि सम्भव है, वह सच ही कह रहा हो, सलिये भोजन छोड़ने में हानि भी क्या है, मरने की अपेक्षा तो भूखा रह जाना भी अच्छा है। अतः बोजन में मृत्यु की सम्भावना देख कर तुम भूखे रह जाते हो। इसी प्रकार जब तुम्हें कोई रोग हो और तुम से कोई कहे कि मैं एक यन्त्र लिख दूँगा, बस उससे तुम्हारा रोग दूर हो जायेगा, तो उस समय यद्यपि तुम्हें पूरा विश्वास नहीं होता और तुम समझते हो कि यन्त्र और रोग का कोई सम्बन्ध नहीं है, फिर भी सोचते हो कि यदि थोड़ा सा धन देकर मैं यन्त्र लिखवा लूँगा तो हानि क्या है? सम्भव है, इससे रोग दूर हो ही जाय। यदि रोग मिट गया तो बड़ा भारी लाभ होगा। इसी प्रकार ज्योतिषी की बात मान कर तुम देवपूजन भी कर लेते हो। वहाँ भी तुम यही सोचते हो कि यदि इनकी बात ठीक हुई तो मुझे बड़ा भारी सुख प्राप्त होगा और यदि झूठ हुई तो देव पूजन में ऐसा परिश्रम भी क्या पड़ता है? जब ऐसी बात है तो उन ज्योतिषी और यन्त्र लिखने वालों की अपेक्षा उत्कृष्ट जो असंख्य सन्तजन, अवतार, महापुरुष, आचार्य और अवदूत हो गये हैं, उनके वचन बुद्धिमानों की दृष्टि में तुच्छ तो नहीं होने चाहिये। इसी से जिज्ञासुजन विश्वास करके यत्नपूर्वक सन्तों के वचनों पर स्थिर रहते हैं और निःसन्देह परलोक के दुःखों से मुक्त हो जाते हैं।

    और तुम्हें जो वैराग्यादि के दुःखों की बात कही, सो परलोक के दुःखों के सामेन तो वे अत्यन्त तुच्छ है। भला, सोचो तो, इस जगत् में जीना ही कितने दिन है?परलोक की अवस्था का तो कभी अन्त ही नहीं आता। अतः परलोक के दुख से मुक्त होने के लिये इस जगत् में जो यत्न किया जाता है उस दुःख की गणना की क्या है, वह तो केवल नाममात्र है। अतः इस जीव को चाहिये कि सन्तों के वचनों में विश्वास रखे और समझे कि यदि मैं उनके आदेश का उल्लंघन करूँगा तो चिरकाल तक दुःख भोगता रहूँगा और उन दुःखों से मेरा किसी प्रकार छुटकारा नहीं होगा। इन्द्रियादि के भोग तो कुछ ही समय में नीरस हो जाते हैं, इनसे मुझे क्या लाभ होगा? परलोक का दुःख तो अनन्त है। यदि सारे ब्रह्माण्ड को राई के दानों से भर दिया जाय और उन्हें कोई ऐसा पक्षी भक्षण करे जो हजार वर्षों में एक ही दाना खाता हो, तो कभी कभी उस अन् का अन्त तो हो सकता है किन्तु परलोक के दुःख का अन्त कभी नहीं होगा। ऐसा अनन्त दुःख चाहे मानसिक हो अथवा स्थूल उसे सहन करना बड़ा ही कठिन है। उस दुःख के सामने इस संसार में जीव की आयु ही कितनी है? अतः जो बुद्धिमान् है वह समझता है कि विचारपूर्वक मर्यादा में चलना और दोषदृ,टि के द्वारा अपकर्मों को त्यागना ही उचित है, क्योंकि जिस कार्य में महान कष्ट की सम्भावना हो उससे तो अनुमान के आदार पर बचे रहना भी अच्छा है। ऐसा करने में कुछ कष्ट भी उठाना पड़े तो भी कोई हानि नहीं। देखो, सब लोग व्यवहार-सिद्धि के लिये जहाजों पर बैठ कर विदेशी को जाते हैं, वहाँ भी उन्हें अनुमान का आश्रय लेना पड़ता है। इसलिये जिस पुरुष का परलोकवाद में पूरा विश्वास हो, केवल अनुमान से ही उसमें कुछ आस्था होती हो, उसे भी वहां के दारुण दुःखों से बचने के लिये धैर्यपूर्वक वैराग्यादि का क,ट सहन करना ही चाहिये। इस विषय में किसी नास्तिक की महात्मा अली के साथ बात-चीत हुई थी। जब उसने कहा कि परलोक के सुख-दुःख तो सब लोग अनुमान के आधार पर ही मानते हैं, किसी ने उन्हें प्रत्यक्ष नहीं देखा तो अली कहने लगे, ‘अच्छा, यदि तेरा ही कथन सत्य हो तब तो हम और तू दोनों ही मुक्त हो जायेंगे, और यदि मेरी बात ठीक हुई कि परलोक है तो हम मुक्त हो जायेंगे, किन्तु तुझे अनन्तकाल तक परलोक का कष्ट भोगना पड़ेगा।’ अली ने जो यह सन्देहयुक्त वाक्य कहा था वह केवल उस नास्तिक की बुद्धि में बिठाने के लिये था, स्वयं उन्हें परलोक की सत्ता के विषय में कोई सन्देह नहीं था। किन्तु वे समझते थे कि जिस प्रकार हम परलोक को भलीभाँति देख सकते हैं वैसे यह मूर्ख तो नहीं देख सकता, इसलिये उन्होंने उसी के मत को सामने रख कर उसे शुभ कर्मों में प्रवृत्त करने की चेष्टा कीं।

    अतः याद रखो, जो लोग इस संसार में आकर परलोक के लिये तोशा नहीं बनाते, बल्कि अन्यान्य कार्यों में लगे रहते हैं वे निःसन्देह अत्यन्त मूर्ख है। उनकी इस मूर्खता का कारण विषयों की प्रीति ही है। वे विषयासक्ति में ऐसे डूबे रहते हैं कि कभी परलोक के विषय में विचार ही नहीं करते। किन्तु जिन्हें परलोक में विश्वास है उन्हें तो वहां के दुःखों से भयभीत होना ही चाहिये तथा संयम और सावधानी के मार्ग से ही चलना चाहिये।

    इस प्रकार जब तुमने इन चार उल्लासों में अपने, भगवान् के, माया के और परलोक के स्वरूपों की पहचान के विषय में अनुशीलन करके यह जाना कि इस जीव की भलाई सर्वथा श्री भगवान् के भजन रउनकी पहचान ही में है तो आगे भगवान् के भजन और उनकी आज्ञापालन के विषय में भी श्रवण करना चाहिये। इन विषयों का आगे के चार उल्लासों में वर्णन किया जायेगा और इनके वर्णन में ही यह ग्रन्थ समाप्त होगा। अतः आगे के उल्लासों में जिन विषयों का वर्णन होगा उनका विवरण क्रमशः इस प्रकार है-

    पंचम उल्लास- भगवान् के भजन और सत्कर्मों में स्थित होना।

    षष्ठम उल्लास- समस्त शारीरिक क्रियाओं को विचार की मर्यादानुसार करना।

    सप्तम उल्लास- चित्त के मलिन स्वभावों का शोधन।

    अष्टम उल्लास- हृदय को सत्स्वभावों से सम्पन्न करना।

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