अल-ग़ज़ाली की ‘कीमिया ए सआदत’ की दूसरी क़िस्त
प्रथम उल्लास –(अपने-आप की पहचान)
पहली किरण
भगवत्साक्षात्कार के लिए अपने को पहचानने की आवश्यकता
याद रखो, अपने-आपको पहचानना ही श्रीभगवान् को पहचानने की कुंजी है। इसी विषय में महापुरुष ने भी कहा है कि जिसने अपने को पहचाना है उसने निःसन्देह अपने प्रभु को भी पहचान लिया है। तथा प्रभु भी कहते हैं कि मैंने अपने ही लक्षण जीवों के हृदय में प्रकट किये हैं जिससे कि वे अपने को पहचान कर फिर मुझे भी पहचाने। सो, भाई! तेरे आस-पास ऐसा और कोई नहीं है जिसे पहचानना तेरे लिये अपने-आपको पहचानने से अधिक आवश्यक हो। पहले जब तू अपने को भी नहीं पहचानता तो और किसी को कैसे पहचानेगा? यदि तू कहे कि मैं अपने को तो पहचानता हूँ, तो तेरा कथन ठीक नहीं, क्योंकि जिस रूप में तू अपने को पहचानता है तेरी वह पहचान श्रीभगवान् को पहचानने की कुंजी नहीं है। तू जो अपने को हाथ, पाँव, त्वचा एवं मांस आदि से युक्त स्थूल शरीर समझता है तथा भूख होने पर आहार की इच्छा करने वाला, क्रोधित होने पर लड़ने-झगड़ने वाला और कामातुर होने पर भोगवासना से व्याकुल और उसी संकल्प में डूब जाने वाला जानता है, सो इस प्रकार की पहचान में तो पशु भी तेरे समान ही है। अतः तुझे यह वास्तविक ज्ञान प्राप्त करना चाहिये कि मैं क्या वस्तु हूँ, कहाँ से आया हूँ, किस जगह जाऊँगा, किस निमित्त से मैं संसार में आया हूँ, किस कार्य के लिये भगवान् ने मुझे उत्पन्न किया है, मेरी भलाई किस में है और क्या मेरा दुर्भाग्य है? इसके अतिरिक्त यह भी देखना चाहिये कि तेरे भीतर जो दैवी और पाशविक वृत्तियों का संगठन हुआ है उनमें किस प्रकार की वृत्तियों की प्रबलता है। तथा साथ ही यह भी पहचान कि तेरा अपना स्वभाव क्या है और परास्वभाव क्या है।
जब तू भली प्रकार इन सब बातों को पहचान लेगा तो तेरी इनमें श्रद्धा भी होगी, क्योंकि विभिन्न जीवों की भलाई, पूर्णता और आहार भी भिन्न-भिन्न हैं। पशुओं की भलाई और पूर्णता इसी में है कि उन्हें अच्छी तरह सोने और खाने-पीने की सुविधा मिल जाय तथा दूसरे पशुओं को लड़ाई में परास्त करने की शक्ति हो। सो, यदि तू अपने को पशु समझता हो तो दिन-रात उदरपूर्ति और इन्द्रिय पोषण के लिये ही पुरुषार्थ कर। सिंहों की पूर्णता दूसरे जीवों को फाड़ काने और क्रोधाविष्ट होने में ही है तथा भूत-प्रेत छल-कपट के द्वारा ही अपना आतंक स्थापित करते है। सो, यदि तू सिंह या भूत-प्रेत है तो इसी प्रकार के स्वभाव में स्थित रहे। ऐसा होने पर ही तेरी पूर्णता सिद्ध होगी। देवताओं की भलाई और पूर्णता तो श्रीभगवान् के दर्शन प्राप्त करने में है और यही उनका आहार भी है। भोगवासना और क्रोधादि तो पशुओं के स्वभाव हैं। ये देवताओं को छू भी नहीं सकते।
इसलिये यदि मानवयोनि में जन्म लेने के कारण तुझे जन्मतः देवभाव का अधिकार प्राप्त हुआ है तो यही पुरुषार्थ कर कि भगवान् के दरबार तक पहुँच सके। इसके लिये अपने को भोगवासना और क्रोधादि से दूर रख और इस भेद को याद रख कि भगवान् ने तेरे लिये जो पाशविक स्वभाव और वृत्तियों की रचना की है वह इसलिये है कि तेरा उन पर पूर्ण अधिकार हो और तुझे जिस मार्ग द्वारा अपने गन्तव्य स्थान पर जाना है उसमें तू इन्हें अपने अधीन रखकर चले, स्वयं कभी इनके अधीन न हो। अतः जिस प्रकार घोड़े और शस्त्रों पर अधिकार रखकर शिकार खेला जाता है उसी प्रकार इन पाशविक स्वभाव और वृत्तियों पर सवारी गाँठ कर इन्हीं के द्वारा तू देवभाव रूप अपने लक्ष्य को वेध। जितने समय तुझे जीना है इसी कार्य को सिद्ध करने में अपनी आयु समय तुझे जीना है इसी कार्य को सिद्ध करने में अपनी आयु लगा दे। इस प्रकार जब तुझे भलाई प्राप्त होगी और तुझमें दैवी स्वभाव का आविर्भाव होगा तो तू भगवान् को पहचानने के लिये प्रवृत्त होगा और फिर मुक्त हो जायेगा।
अच्छा तो, यह भगवान् की पहचान कैसी है? यही संतजनों के स्थित होने का स्थान है। यह अत्यन्त सूक्ष्म वस्तु है। दूसरे लोग स्वर्ग को ही सर्वोत्कृष्ट सुख समझते हैं, किन्तु संतों का सुख तो श्रीभगवान् की शरण में ही है। जब तू ऐसा समझेगा तभी अपने को थोड़ा पहचान सकेगा। जो पुरुष इस भेद को नहीं पहचानता उसके लिये धर्ममार्ग में चलना कठिन है तथा आत्मसुख भी उससे ओझल ही रहता है।
दूसरी किरण
जीव के वास्तविक स्वरूप और आत्माभ्यास का वर्णन
यदि तू अपने को पहचानना चाहता है तो ऐसा निश्चय कर कि भगवान् ने तुझे दो तत्वों से युक्त उत्पन्न किया है। इनमें एक तो शरीर है जो स्थूल नेत्रों से दिखाई देता है और दूसरा चैतन्य है। वह अत्यन्त सूक्ष्म है। उसी को जीव भी कहते हैं तथा मन और चित्त भी उसी के नाम है। वह स्थूल दृष्टि से परे है उसे बुद्धिरूप नेत्र के द्वारा ही देखा जा सकता है। तेरा निज स्वरूप यह चैतन्य तत्व ही है और जितने भी गुण है वे इस चैतन्य के ही अधीन है, इसी के टहलुए है अथवा इसी की सेना के सदृश है। मैंने उसी चैतन्य का नाम ‘हृदय’ रखा है। इसमें सन्देह नहीं कि आत्मा, हृदय और मन ये सब उस चैतन्य के ही नाम है। अतः जब मैं हृदय का वर्णन करूँ तो मेरा प्रयोजन शरीर के अंगभूत हृदय से न समझे, क्योंकि यह हृदय-स्थान तो मांस और त्वचा आदि से रचा हुआ है और पंचभूतों का कार्य है, अतः जड़ है। और मनुष्य का जो चैतन्य स्वरूप हृदय है वह स्थूल दृष्टि से सर्वथा विलक्षण है। वह तो एक परदेशी की तरह अपने कार्य के लिये इस शरीर में आया है। शरीर में जो स्थूल हृदय-स्थान है वह जीव के घोड़े या शस्त्र की तरह है, इन्द्रियाँ सेना है और जीव शरीर का राजा है। अतः भगवान् की पहचानना और उनका दर्शन करना यह जीव का अधिकार है। इसी से दण्ड और उपदेश तथा पाप और पुण्य का अधिकारी भी जीव ही है। तथा भाग्यहीन और भाग्यवान् भी इस जीव को ही कहा जाता है। यह शरीर सर्वदा जीव के अधीन है, अतः उस चैतन्य के स्वरूप को पहचानना और उसके स्वभाव को समझना ही श्रीभगवान् को पहचानने की कुंजी है।
बस, तू यही पुरुषार्थ कर कि इस चैतन्य के शरीर को पहचान जाय, क्योंकि यह चैतन्य रूपी रत्न अत्यन्त दुर्लभ है और देवताओं की तरह नित्य निर्मल है। इस रत्न की खान परब्रह्म है, क्योंकि यह जीव वही से आया है और फिर उसी में लीन भी होगा। इस संसार में तो यह परदेशी की तरह है, अपने कार्य के लिये ही यहाँ आया है। अतः तुझे अपना वह कार्य भी अवश्य पहचानना चाहिये। परन्तु, उसकी पहचान श्रीभगवान् की कृपा से ही हो सकती है।
अब मैं आत्मसत्ता के अभ्यास का वर्णन करता हूँ। यह बात निश्चय जानो कि जब तक तुम अपने चैतन्य स्वरूप को नहीं पहचानोगे तब तक हृदय के वास्तविक स्वरूप को भी नहीं जान सकोगे, और इसी से तुम्हें श्रीभगवान् की भी पहचान नहीं हो सकेगी और न उत्कृष्ट लोगों का ही ज्ञान होगा। यदि एक दृष्टि से देखा जाय तो चैतन्य-सत्ता अत्यन्त स्पष्ट है, क्योंकि उसकी स्थिति शरीर के आश्रित नहीं है, अपितु उसके न रहने पर ही शरीर और इन्द्रियाँ निर्जीव हो जाती है और उन्हें मृतक कहा जाता है। इसके सिवा यदि कोई मनुष्य नेत्रादि इन्द्रियों को रोक कर चैतन्य का अभ्यास करते हुए अपने शरीर और संपूर्ण जगत् को भूल जाये तो उसे निःसन्देह अपने स्वरूप का साक्षात्कार हो जाता है औऱ वह आत्मा के यथार्थ स्वरूप को जान लेता है। जब इसका अधिक अभ्यास और विचार किया जाता है तो सुगमता से ही परमात्मा का भी दर्शन हो जाता है और यह बात प्रत्यक्ष दिखाई देने लगती है कि जब मनुष्य का शरीर छूटता है तो चैतन्य-स्वरूप जीव का नाश नहीं होता, वह अपने स्वरूप में ही स्थित रहता है।
इस जीव का जो शुद्ध स्वरूप है- इसका जो वास्तविक स्वभाव है उसका धर्मशास्त्रों ने स्पष्ट शब्दों में निरूपण नहीं किया। कहते हैं, कुछ लोगों ने महापुरुष के पास जाकर पूछा था कि जीव का स्वरूप क्या है। इस पर उन्होंने उसका कोई स्पष्ट वर्णन नहीं किया, भगवत्प्रेरणा से केवल इतना कहा कि वह प्रभु की सत्ता मात्र है। इसका और अधिक वर्णन करना उन्होंने उचित नहीं समझा। बस, इतना ही उत्तर दिया कि यह सृष्टि दो प्रकार की है- एक स्थूल सृष्टि है और दूसरी इसकी सूक्ष्म सत्ता। जहाँ पदार्थों की मर्यादा, आकार अथवा घटना-बढ़ना देखा जाता है वह स्थूल सृष्टि है और चैतन्य-सत्ता सूक्ष्म-रूप है। उसकी कोई मर्यादा या आकृति नहीं है, वह अखण्ड है। मनुष्य का जो हृदय-स्थान है वह तो खण्ड-रूप है, इसी में मानव हृदय में एक ओर विद्या और दूसरी और अविद्या रहती है। किन्तु चैतन्य-सत्ता में इस प्रकार विद्या-अविद्या का भेद नहीं है। इसी से यह अखण्ड कही जाती है। इसकी कोई मर्यादा या सीमा भी नहीं है। इस प्रकार यद्यपि यह भगवत्स्वरूप ही है, तथापि इसे भगवान् ने उत्पन्न किया है, इसलिये यह ‘जीव’ कही जाती है। यह जीव-सत्ता ही सूक्ष्म सृष्टि है, क्योंकि इसका कोई स्थूल स्वरूप नहीं है।
जिन लोगों ने ऐसा निश्चय किया है कि जीव अनादि है वे भूल में है तथा जो इसे परमात्मा का प्रतिबिम्म मानते हैं वे भी भूले हुए हैं, क्योंकि प्रतिबिम्ब तो स्वयं कोई वस्तु ही नहीं होती। इसी प्रकार जो अनादि होता है उसकी कभी उत्पत्ति नहीं होती, और जीव उत्पन्न किया हुआ है तथा इस शरीर का आश्रय है। अतः इसे अनादि या प्रतिबिम्ब कहना उचित नहीं। जो लोग इस शरीर को ही आत्मा मानते हैं वे भी भूले हुए हैं, क्योंकि यह शरीर तो खण्ड-खण्ड होता है और आत्मा अखण्ड है इसके सिवा यह ज्ञान-स्वरूप है और शरीर जड़ है। अतः शरीर ही आत्मा नहीं हो सकता। आत्मा तो सत्ता स्वरूप, चैतन्य और देवताओं के समान प्रकाशमान है। वास्तव में, इस जीव का मूल रूप तो किसी की पहचान में आना अत्यन्त कठिन है। उसका शब्दों द्वारा निरूपण भी नहीं किया जा सकता। तथा साधनकाल में जिज्ञासु को इस का निर्णय करने की आवश्यकता भी नहीं रहती। जिज्ञासु को तो धर्म मार्ग में बढ़ते रहने का प्रयत्न एवं उद्योग करते रहना चाहिये। जब विधिवत् प्रयत्न करते-करते अभ्यास में दृढ़ता आती है तो उसे स्वयं ही स्वरूप का प्रकाश हो जाता है, फिर किसी के कुछ कहने सुनने की अपेक्षा नहीं रहती। इस विषय में भगवान् ने भी कहा है कि जब पुरुष मेरे मार्ग में चित्त लगाता है और अभ्यास करने लगता है तो मैं उसे अपने स्वरूप का ज्ञान करा देता हूँ। जिस पुरुष ने सम्यक् प्रकार से अभ्यास और प्रयत्न न किया हो उसके आगे आत्मा के स्वरूप को चर्चा करना उचित नहीं। यदि उसके आगे इसकी चर्चा की भी जायेगी तो वह बात उसके हृदय में बैठेगी नहीं।
किन्तु आत्मसाक्षात्कार का प्रयत्न करने से पहले ही जीव की सेना का परिचय प्राप्त कर लेना आवश्यक है, क्योंकि उसको जाने बिना अशुभ सेना से विरोध करना असम्भव होगा। अतः अगली किरण में जीव की सेना का वर्णन किया जाता है।
तीसरी किरण
जीव की सेना
यह जीव एक राजा के समान है और शरीर इसका राज्य-मण्डल है। इसमें अनेक प्रकार की सेना रहती है। भगवान् ने जीव को इस उद्देश्य से रचा है कि यह अपना परलोक सुधार ले। अतः अपनी भलाई को ढूँढ़ना ही इसका मुख्य कर्तव्य है और इसकी सबसे बड़ी भलाई यही है कि यह श्री भगवान् को पहचान ले। भगवान् की पहचान उनकी आश्चर्यमयी कारीगरी को देखकर होती है। यह सारा संसार भगवान् की कारीगरी ही है और इसकी पहचान इन्द्रियों-द्वारा होती है। अतः जिस प्रकार शिकारी के पास अपने शिकार को फँसाने का फन्दा रहता है उसी प्रकार भगवान् की कारीगरी रूप शिकार को ग्रहण करने के लिये मानो जीव को इन्द्रिय रूप फन्दा मिला हुआ है।
मनुष्य का शरीर पाँच तत्वों से बना हुआ है और बात, पित्त, कफ ये तीन इसके प्रबल विकार है। अतः इसे सर्वदा नष्ट हो जाने का भय लगा रहता है। शरीर का नाश भूख-प्यास से भी हो सकता है, अतएव इनसे बचने के लिये भगवान् ने अन्न और जल उत्पन्न कर दिये हैं। इनके सिवा अग्नि, शत्रु और सिंहादि हिंसक जीवों के द्वारा भी इसके नाश की आशंका रहती है। इनसे शरीर को सुरक्षित रखने के लिये भगवान् ने दो प्रकार की सेना रची है- स्थूल और सूक्ष्म। हाथ, पाँव और शस्त्रास्त्र ये स्थूल सेना है तथा मन की जो भिन्न-भिन्न वृत्तियाँ है वे सूक्ष्म सेना हैं। इन सब में प्रधान बुद्धि है। वही शत्रु और मित्र की पहचान करती है तथा उसी के आदेशानुसार स्थूल एवं सूक्ष्म सेनाएँ अपने-अपने कार्य में प्रवृत्त होती है। इनके सिवा श्रवण, त्वचा, नेत्र, रसना और घ्राण ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ है। ये भी बुद्धि के ही अधीन है। बुद्धि ही अन्तःकरण चतुष्टय-रूप से इन सबकी प्रेरक है। भगवान् ने यह सारी सेना जीवरूप राजा का कार्य करने के लिये ही बनायी है। इस सेना में से जब किसी अंग में कोई त्रुटि आ जाती है तो मनुष्य के स्वार्थ या परमार्थ का कार्य ठीक-ठीक नहीं हो पाता।
इस प्रकार यह स्थूल और सूक्ष्म सारी सेना जीव के ही अधीन है। वही इस सारी सेना का राजा है। उसी का संकेत पाकर रसनेन्द्रिय रस ग्रहण करती है, जिह्वा बोलने लगती है, हाथ वस्तु को ग्रहण करते हैं और चित्त चिन्तन करने लगता है। इस प्रकार सब अंगों और सब प्रवृत्तियों में जीव की आज्ञा ही बर्तती है। अतः यदि यह जीव परलोकमार्ग के लिये तोशा तैयार रखे, भगवान् के स्वरूप की पहचान करे और अपनी भलाई के बीज एकत्रित करे तो अपने परमार्थ-सम्बन्धी कर्तव्य में दृढ़ हो सकता है और तभी इसे निःसन्देह परम पद की प्राप्ति भी हो सकती है।
जीव शरीर के द्वारा ही अपने वास्तविक कर्तव्य की पूर्ति कर सकता है, इसी उद्दश्य से उसके लिये शरीर रक्षा आवश्यक मानी गयी है। जिस प्रकार देवता लोग श्री भगवान् की आज्ञा का अनुसरण करते हैं उसी प्रकार शरीर, इन्द्रिय और अन्तःकरण जीव की आज्ञा के वशवर्ती हैं। अतः ये सब जीव की सेना हैं। इस सना का पूर्णतया वर्णन किया जाय तो बहुत विस्तार होगा, अतः केवल परिचय के लिये संक्षेप से वर्णन करता हूँ। यह शरीर ही जीवरूपी राजा के रहने का नगर है और सम्पूर्ण इन्द्रियाँ इसमें बसने वाले नागरिक है। भोगों की अभिलाषा अर्थात् काम इस राजा का प्रधान सेना नायक है और क्रोध कोतवाल है। इसकी मन्त्री यद्यपि बुद्धि है, तथापि राज्य की व्यवस्था में सेना की सहायता अपेक्षित होती है और उसका प्रधान है कास, जो अत्यन्त झूठा और पाखण्डी है। यह सर्वदा बुद्धिरूप मन्त्री के विपरीत ही चलना चाहता है और सब प्रकार की सामग्री का स्वयं ही उपभोग करने के लिये उत्सुक रहता है। तथा इसका साथी क्रोध रूपी कोतवाल भी बड़ा ही तीक्ष्ण और कठोर है, वह सर्वदा दूसरों का घात ही करना चाहता है। इसलिये इस राजा का यह शरीर रूपी राज्यमण्डल अत्यन्त सन्तप्त रहता है।
किन्तु, यदि यह राजा बुद्धिरूपी मन्त्री से सहयोग रखे और उसकी सम्पत्ति से कामरूपी सेना नायक को दबाकर अपने अधीन रखे- वह बुद्धि के विपरीत कुछ कहे तो उसे बिल्कुल न सुने तथा क्रोधरूपी कोतवाल को भी उसे मर्यादा में ही रखने के लिये प्रेरित करे और साथ ही इस कोतवाल को भी निरंकुश न होने दे, इसे भी मर्य्यादा में ही रखे- तो इसका यह देश सुखी हो सकता है। अतः इसे सर्वदा बुद्धि के कथनानुसार ही बर्तना चाहिये तथा काम और क्रोध को भी इतना दबाकर रखना चाहिये कि वे बुद्धि के संकेत का ही अनुसरण करे, स्वयं बुद्धि पर अधिकार न जमा ले। ऐसा होने पर ही इस जीव का राज्य स्वाधीन एवं सुखी हो सकता है तथा तभी इसे भगवान् के दरबार में भी स्थान प्राप्त हो सकता है तथा तभी इसे भगवान् के दरबार में भी स्थान प्राप्त हो सकता है। इसके विपरीत यदि यह बुद्धि को काम और क्रोध के अधीन कर देगा तो इसका राज्य नष्ट हो जायगा और स्वयं इसे भी बड़े दुर्भाग्य का सामना करना पड़ेगा।
भगवान् ने जल और अन्न शरीर की रक्षा के लिये बनाये हैं तथा शरीर इन्द्रियों की स्थिति के लिये रचा है। अतः शरीर इन्द्रियों का टहलुआ है। इसी प्रकार इन्द्रियों की रचना भगवान् की कारीगरी देखने के लिये की गई है, इसलिये इन्हें बुद्धि की टहल करने वाली समझना चाहिये। ये ही बुद्धि के पास सब प्रकार की सूचनाएँ पहुँचती है। बुद्धि जीव के लिये है। यह उसके पथप्रदर्शन के लिये दीपक के समान है और इसी के द्वारा वह भगवान् का दर्शन भी करता है। यह भगवान् का दर्शन ही जीव का परम स्वर्ग है, अतः बुद्धि जीव की टहलुनी है। इसी प्रकार जीव की रचना भगवान् का दर्शन करने के लेय हुई है। अतः जब यह भगवान् का दर्शन कर लेता है तभी इसके वास्तविक कर्त्तव्य की पूर्ति होती है और तभी यह अपने को प्रभु की सेवा में तल्लीन कर सकता है। इसी विषय में श्री भगवान् ने भी कहा है कि मैंने सब मनुष्यों को अपना भजन करने के लिये ही उत्पन्न किया है।
इसका तात्पर्य यही है कि भगवान् ने जो जीव को इन्द्रियादि रूप सेना और शरीर रूप घोड़े से सुसज्जित किया है उनके द्वारा से स्थूल देश को लाँघकर सूक्ष्म देश में प्रवेश करना चाहिये। अतः यदि यह श्री भगवान् के उपकार का अभारी होकर उनका दर्शन करना चाहे तो इसे सबसे पहले अपने शरीर रूपी देश पर ही स्वाधीन शासन स्थापित करने हुए श्री भगवान् की ओर अपना मुख रखना चाहिये। इस संसार से इसे अनासक्त रहना चाहिये तथा इन्द्रियों के अधीन न होकर उन्हें अपनी टहल में लगाना चाहिये, अर्थात् इन्द्रियों को अपने-अपने कार्य में सावधान रखे। वे जब कोई विषय प्रस्तुत करे तो पहले चित्त में उस पर विचार करे, फिर उसके विषय में बुद्धि की भी सम्मति ले और जैसा बुद्धि का निर्णय हो वैसा ही करे। इस बात को एक दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट करते हैं- जब दूत लोग देशान्तर से कोई समाचार लेकर आते है तो पहले दरबान-लोग यह समाचार मन्त्री के पास पहुँचाते हैं और फिर मन्त्री उसे राजा को समझाता है। इसी प्रकार इन्द्रियाँ इस जीव की दूतियाँ है, चित्त दरबान है और बुद्धि मन्त्री है। अतः इन्द्रियरूपी दूतों के द्वारा चित्तरूपी दरबान को जो सन्देश मिले वह बुद्धिरूप मन्त्री के द्वारा जीवरूपी राजा के पास पहुँचना चाहिये। जब बुद्धिरूपी मन्त्री को दिखाई दे कि इस जीव की सेना में काम, क्रोध अथवा कोई और दूषित प्रवृत्ति बढ़ने लगी है और वह राजा के अनुशासन का उल्लंघन करके उसे नष्ट करने पर तुली हुई है तो यह से अपने अधीन केर और अपनी आज्ञा की अनुवर्तिनी बनाकर रखे, क्योंकि शारीरिक व्यवहार में कभी-कभी इन प्रवृत्तियों का भी कुछ उपयोग होता है। दुःखदायी तो इनका प्रबल होना ही है, यदि ये बुद्धि की अनुवर्तिनी रहें तब तो इनसे भी परमार्थ-पथ में सहायता मिल सकती है।
इस प्रकार यदि यह जीवरूपी राजा नियमानसार बर्ताव करता है तो अन्त में अपने प्रभु को प्राप्त कर लेता है और उनके पुरस्कार का भागी बनता है। और यदि वह अपने देश में न्यायानुसार आचरण नहीं करता, दुष्टों से मिल जाता अथवा वासनाओं के अधीन हो जाता है तो यह भगवान् के प्रति कृतघ्नी होता है और भाग्यहीन होकर अनेकों दुःख पाता है।
चौथी किरण
जीव के चार प्रकार के स्वभाव
याद रखो, इस शरीर में जितने स्वभाव पाये जाते हैं उन सभी के साथ जीव का सम्बन्ध जुड़ा हुआ है। उनमें भेद इतना ही है कि कोई स्वभाव शुभ होते हैं, कोई अशुभ। अशुभ स्वभाव जीव को नष्ट कर देते हैं और शुभ उसे उत्तम स्थिति में पहुँचा देते हैं। इन शुभ और अशुभ स्वभावों के यद्यपि अगणित भेद हैं, तथापि मुख्यता उन्हें चार विभागों में बाँटा जा सकता है, यथा- पशु-स्वभाव, सिंह-स्वभाव, प्रेत-स्वभाव और देव-स्वभाव। मनुष्यों में जो भोगों की अभिलाषा और तृष्णा है, यह इसके पशु-स्वभाव की सूचक है। इसी से प्रेरित होकर जीव कामोपभोग अथवा खान-पान आदि में लगे रहते हैं। क्रोध सिंह-स्वभाव का परिणाम है। इसी से प्रेरित होकर जीव मन, वचन अथवा कर्म से ईर्ष्या, द्वेष और जीवहिंसा आदि में प्रवृत्त होते हैं। तीसरा जो भूत-प्रेतों का स्वभाव है वह मनुष्य को छल, कपट और दम्भ आदि में प्रवृत्त करता है। इसके कारण जीव तरह-तरह के प्रपंचों और झंझटों में फँस जाता है। चौथा जो देव-स्वभाव है वह बुद्धि की प्रेरणा है। इससे प्रेरित होकर मनुष्य अनेकों दिव्य कार्य करता है। इसी के कारण वह विद्या, सत्कर्मऔर वैराग्यादि को स्वीकार करता तथा निन्द्य कर्मों से बचाता है। सब जीवों का हिंसा चाहना, शुभ कर्मों में प्रसन्नता का अनुभव करना तथा जड़ता और मूर्खता के विघ्नों से बचना- ये सब भी देव-स्वभाव के ही परिणाम है।
इस प्रकार मनुष्य में से चार प्रकार के स्वभाव पाये जाते हैं। इन्हीं का आगे विशेष रूप से वर्णन किया गया है। इन स्वभावों के कारण ही जीवों को श्रेष्ठ या निकृष्ट कहा जाता है। कुत्ते को लोग अपवित्र मानते हैं, सो इसलिये नहीं कि उसका शरीर अपवित्र है, बल्कि स्वभाव की अपवित्रता के कारण ही उसे अपवित्र कहा जाता है। वह क्रोधातुर होकर जीवों को फाड़ने लगता है, इसी से अपवित्र माना जाता है। शूकर में भी शरीर-दृष्टि से कोई अपवित्रता नहीं है। वह भी अपवित्र पदार्थों की तृष्णा रखने के कारण ही अपवित्र है। इसी प्रकार भूत-प्रेत और देवताओं की निकृष्टता उत्कृष्टता भी उनके स्वभावों के कारण ही मानी गयी है। अतः मनुष्यों को शास्त्र और संत जन यही उपदेश करते हैं कि बुद्धिरूपी नेत्रों के द्वारा मनरूपी पिशाच के छल-कपटों को पहचाने और उनकी बुराई को समझकर उन्हें अपने चित्त से दूर करे, तभी यह इस मन की चालों से बच सकता है। इसी विषय में महापुरुष ने भी कहा है कि यह प्रेत-स्वभाव सभी मनुष्यों में प्रत्यक्ष पाया जाता है और मुझ में भी है, परन्तु प्रभु की कृपा ने मुझे इस पर प्रबल कर दिया है, इसलिये इसका विघ्न मुझे स्पर्श नहीं कर सकता। इसी प्रकार संतों ने भी मनुष्य-मात्र को आदेश दिया है कि सर्वदा बुद्धि की आज्ञा के अनुसार बर्ताव करो। ऐसा करने से तुम्हारे स्वभाव सुधार जायेंगे और ये स्वभाव ही तुम्हारे पुण्यों के मूल कारण होंगे। और यदि तुम इसके विपरीत आचरण करोगे अर्थात् उन दुष्ट स्वभावों के अधीन होकर चलोगे तो तुम्हारे सभी स्वभाव दूषित हो जायेंगे और वे दूषित स्वभाव ही तुम्हारे दुर्भाग्य के बीज बनेंगे।
जब इस जीव को जाग्रत अथवा स्वप्न अवस्था में अपनी दुष्ट प्रवृत्ति प्रत्यक्ष हो तो निःसन्देह जाने कि मैं प्रेतों या कुक्कुरों के अधीन हूँ और उन्हीं की आज्ञाओं का अनसुरण करता हूँ। यह ऐसी अवस्था है जैसे कोई धर्मात्मा पुरुष यदि किसी अधर्मी या तामसी व्यक्ति के चंगुल में फँस जाय तो उसे अत्यन्त दुःख और कष्ट सहना पड़ता है, अथवा जैसे कोई देवता किसी दैत्य के बन्धन में आ फँसे तो उसे अत्यन्त दुर्गति का सामना करना पड़ता है। अतः जब यह मनुष्य विचारपूर्वक यथार्थ दृष्टि से देखेगा तो इसे मालूम होगा कि मैं रात-दिन अपने मन की वासनाओं के अधीन हूँ। यद्यपि देखने में तो मेरा शरीर मनुष्य के समान है तथापि स्वभाव से तो मैं कुत्ते, शुकर या प्रेतों के समान ही हूँ। सो परलोक में यह बात प्रत्यक्ष प्रकट हो जायेगी, क्योंकि याहँ जिसका जैसा स्वभाव होता है, परलोक में उसे वैसा ही शरीर मिलता है। अतः जिस मनुष्य में तृष्णा और अभिलाषा की प्रबलता है वह वहाँ शूकर-देह ही प्राप्त करेगा। यह बात भी निश्चय समझनी चाहिये कि जब कोई मनुष्य स्वप्न में दूषित दृश्य ही अधिक देखे तो समझना चाहिये कि उसका स्वभाव अपवित्र है। यह स्वप्नावस्था भी परलोक की सूचना देने वाली होती है, क्योंकि उस समय जीव इन्द्रियादि देश से ऊपर उठ जाता है, अतः उस समय इसे अपने आन्तरिक संस्करों का आभास प्रतीत होने लगता है और इसका जैसा हृदय होता है वैसा ही आकार प्रत्यक्ष सामने आ जाता है। इस विषय का विशेष वर्णन करने से बहुत विस्तार हो जायेगा, इसलिये इतना ही कह कर समाप्त करते हैं।
इस प्रकार जब तुमने यह जान लिया कि ये चारों स्वभाव तुम्हारे अन्तःकरण में रहते हैं तो तुम अपनी चेष्टाओं से यह निश्चय करों कि मैं इनमें से किस प्रकार के स्वभावों की आज्ञा का अनुवर्तन करता हूँ। यह तो तुम निश्चय जानो कि तुम जिस प्रकार की चेष्टाएँ करते हो उसी प्रकार का स्वभाव तुम्हारे अन्तःकरण में पुष्ट होता जाता है और वही परलोक में भी तुम्हारे साथ जायेगा। सब प्रकार के स्वभावों का मूल उपर्युक्त चार प्रकार की चेष्टाएँ ही है। अतः जब तुम तृष्णारुपी शूकरी के संकेत का अनुसरण करते हो तो तुम्हारे हृदय में अपवित्रता, निर्लज्जता, लम्पटता एवं ईर्ष्या आदि अशुभ लक्षण प्रकट होते हैं और जब उस तृष्णा-शूकरी को अपने अधीन रखकर आचरण करते हो तो संयम, शीलता, गम्भीरता, निर्लोभता एवं निराशयता आदि शुभ गुणों का आविर्भाव होता है। इसी प्रकार जब तुम क्रोधरूपी कुकुर के अधीन होते हो तो तब तुम्हारे हृदय में कुटिलता, निःशंकता, गर्व, कटुभाषण और मान आदि दोष बढऩे लगते हैं, जिनके कारण तुम अन्य प्राणियों को नीच समझ कर उन्हें दुःख पहुँचाने लगते हो। किन्तु जब यह क्रोधरूपी कुकुर तुम्हारे अधीन रहेगा तो तुम्हारे भीतर धैर्य, सहनशीलता, क्षमा, स्थिरता, पराक्रम एवं दया आदि अनेकों दिव्य गुण उत्पन्न हो जायेंगे। तथा जब तुम छल-कपट रूप शैतान या पिशाचों के अधीन रहोगे तो तुम्हारे चित्त में मलिनता, रोग, कपट, दुविधा, छल एवं पाखण्ड आदि दूषित प्रवृत्तियाँ घर कर लेगी, और यदि तुम इन पिशाचों को अपने वशीभूत रखोगे तो फिर तुम्हारी बुद्धि इन पर विजय प्राप्त कर लेगी, जिससे तुम्हारे अन्दर विवेक, विज्ञान, विद्या, सर्वभूत हितैषिता एवं सद्भाव आदि अनेक गुण प्रकट हो जायेँगे। जब ये सद्गुण तुम्हारे हृदय में आयेँगे तो सर्वदा सच्चे सुहृद् की तरह तुम्हारे साथ रहेंगे और सब प्रकार के दोषों से तुम्हें बचाते रहेंगे। यदि तुम प्रमाद न करोगे तो ये कभी तुम्हारा साथ न छोड़ेगे। और ये ही तुम्हारी परमगति के कारण होंगे। इसके विपरीत जो अशुभ कर्म है उनसे तो हृदय कलुषित ही होता है। इसी से उन्हें ‘पाप’ कहा जाता है।
इस प्रकार इस मनुष्य की जितनी चेष्टाएँ हैं वे शुभ या अशुभ के अन्तर्गत ही रहती हैं, इनसे रहित नहीं होती। मनुष्य का हृदय तो दर्पण के समान स्वच्छ है और अशुभ स्वभाव धुएँ या मल के समान है। इनका संसर्ग होने पर हृदय-दर्पण ऐसा मलिन हो जाता है कि फिर भगवान् की महिमा का अनुभव नहीं कर सकता। तथा शुभ स्वभाव प्रकार के समान हैं, अतः उनका संसर्ग होने पर हृदय-दर्पण की अविद्यारूप मलिनता दूर हो जाती है। इसी से महापुरुष ने कहा है कि जब तुम से कोई निन्दित कर्म हो जाय तो उसके पीछे तुरन्त ही कोई शुभ कर्म करो। उससे वह बुराई नष्ट हो जायेगी और उसके कारण हृदय मलिन न होने पायेगा। परलोक में तो जैसा जिसका हृदय होता है वैसा ही सामने आता है। यदि हृदय स्वच्छ होगा तो वहाँ पर प्रत्यक्ष अनुभव होगा। इस पर श्री भगवान् ने भी कहा है कि जिसका हृदय शुद्ध है उसी के लिए मेरा मार्ग खुलता है। पहले तो इस मनुष्य का हृदय लोहे के समान होता है, जब विधिवत् उसका मार्जन किया जाता है तब दर्पण के समान निर्मल हो जात है और उसमें सब प्रकार के तात्विक विचार प्रकट होने लगते हैं। किन्तु यदि उसका मार्जन न किया जाय तो इतना मलिन हो जाता है कि फिर उसमें कुछ भी देखने की योग्यता नहीं रहती, इस पर श्रीभगवान् भी कहते हैं कि मैं निःसन्देह तुम्हारे हृदय की ओर ही देखता हूँ और तुम जैसी चेष्टाएँ करते हों उनको भी देखता रहता हूँ।
पाँचवी किरण
मानव की विशेषता-विद्या, विद्या के भेद तथा अन्तर्दृष्टि की प्राप्ति का साधन
प्रश्न- इस मनुष्य में पशुओं, सिंहों, प्रेतों और देवताओं के स्वभाव स्पष्ट ही पाये जाते हैं। यह बात तो मैं अच्छी तरह समझ गया। फिर आप ऐसा क्यों कहते हैं कि यह मानव-देह दिव्यरत्न के समान है, यह मूलतः निर्मल है और इसका अपना स्वभाव भी शुद्ध ही है, तथा इसके जो अन्य स्वभाव है वे अपने नहीं, पराये हैं? अतः आप यह बात स्पष्ट करके समझाइये कि किस प्रकार इस मनुष्य को भगवान् का निर्मल स्वभाव प्राप्त करने के लिये ही रचा गया है। यदि यह चारों ही स्वभाव मनुष्य में एकत्रित हुए है और उसे जन्म से ही प्राप्त है तो इसे निर्मल स्वभाव ही कैसे कह सकते हैं और अन्य स्वभावओं को भी पराया कैसे कहा जा सकता है?
उत्तर- यह ठीक है, किंतु भगवान् ने इस मनुष्य को पशुओं और सिंहों से कुछ विशेष रचा है और सब वस्तुओं की श्रेष्ठता एवं पूर्णता भी अलग-अलग हुआ करती है। जो वस्तु जिस दृष्टि से अन्य वस्तु की अपेक्षा श्रेष्ठ होती है वही उसका वास्तविक गुण माना जाता है और वही अन्य वस्तु से उसके पार्थक्य का भी कारण होता है। जैसे गधे से घोड़ा श्रेष्ठ है, क्योंकि गधा केवल बोझा ढोने के लिये बनाया गया है और घोड़े की रचना इसलिये हुई है कि वह सवारी के काम आवे, सवार के संकेत के अनुसार चले तथा युद्ध के समय भी सावधान रहे। इसके सिवा बोझा उठाने में भी गधे में नहीं पाये जाते। किंतु यदि घोड़े में भी ये सब विशेषताएँ न रहें तो वह भी फिर बोझा ढ़ोने का ही अधिकारी रह जाता है और उसे भी गधे की ही पदवी प्राप्त होती है। इस प्रकार वह अपनी श्रेष्ठता खो बैठता है। अतः जो मनुष्य समझते हैं कि उनका जन्म खाने, सोने, धन-संग्रह करने और तरह-तरह के भोग-भोगने के लिये ही हुआ है वे मूढ़ हैं और उन की सारी आयु इन्हीं झंझटों में बीत जाती है। इसी प्रकार जिन मनुष्यों का ऐसा विचार है कि उनका जन्म दूसरों को दबाने और उन पर शासन करने के लिये हुआ है वे भी महातामसी और दुष्ट प्रकृति के है। ये दोनों ही प्रकार के मनुष्य भूले हुए है, क्यों कि भोग और आहार तो पशुओं में भी पाये जाते हैं बैल मनुष्य से भी अधिक खाता है, चिड़िया में कामचेष्टा की अधिकता है तथा दूसरों पर क्रोध करना या चीरना-फाड़ना सिंहों का काम है। मनुष्य को यद्यपि ये सब स्वभाव भी प्राप्त है तथाप इनकी अपेक्षा उसमें एक श्रेष्ठता भी है, वह है बुद्धि। उस बुद्धि के द्वारा ही वह भगवान् को पहचानता है, उसी से उनकी कारीगरी को देखता है और उसी के द्वारा वह क्रोध एवं भोग की आँच से अपने को बचाये रखता है। इसी से उसे देवस्वभाव कहा गया है। इस स्वभाव के कारण ही मनुष्य को पशुओं एवं सिंहों से श्रेष्ठ कहा जाता है तथा इसी के प्रताप से सारी जीव सृष्टि मनुष्य के अधीन है। इस विषय में श्री भगवान् ने भी कहा है कि पृथ्वी और आकाश में जितनी सृष्टि है वह सब मैंने तुम्हारी आज्ञाकारिणी रची है। अतः मनुष्य का अर्थ है बुद्धि, और इसकी श्रेष्ठता एवं विशेषता भी केवल बुद्धि के कारण ही प्रकट होती है। बुद्धि के सिवा और जितने स्वभाव है वे वास्तव में मनुष्य के अपने स्वबाव नहीं हैं, वे तो केवल इसकी सेवा और कार्य करने के लिए ही इसे दिये गये हैं।
इसके सिवा जब यह जीव मरता है तो इसकी भोग और क्रोध की सभी सामग्री नष्ट हो जाती है, किन्तु बुद्धि तो बनी ही रहती है। यदि वह बुद्धि शुद्ध होती है तो इसका स्वभाव देवताओं के समान निर्मल होता है और इसे चैतन्य देश की प्राप्ति होती है। वहाँ यह श्रीभगवान् का साक्षात्कार करता है और उन्हीं के स्वरूप में लीन हो जाता है। और यदि इसकी बुद्धि मलिन अथवा विपरीत होती है तो उस पर भोग और क्रोध के संस्कारों का आवरण आ जाता है, जिससे उस चैतन्य देश में पहुँचकर भी इसका मुख संसार की ही ओर रहता है। तात्पर्य यह है कि वहाँ भी उसका हृदय इन्द्रियादि के भोगों में ही बँधा रहता है और इसे इन्द्रियों के विषय ही खींचते रहते है। इसी से उसे अधोगति कहा है। अधोगति का तात्पर्य यही है कि परलोक-रूप उत्तम देश में पहुँचकर भी उसके हृदय का आकर्षण नीचता की ओर रहता है। इसीलिये प्रभु ने कहा है कि परलोक में पापियों का सिर नीचे लटकाया रहेगा। अतः जिस मनुष्य की ऐसी अवस्था है उसे तो पिशाचों के समान ही कहना चाहिये।
तुम निश्चय जानो, इस मनुष्य के हृदय-देश का ऐश्वर्य अतुलित है। इसका हृदय सभी पदार्थों की अपेक्षा आश्चर्यमय है। किन्तु प्रमादवश मनुष्य इस आश्चर्यरूपता का अनुभव नहीं कर पाते। मनुष्य में प्रधानतया दो प्रकार की विशेषताएँ बतायी गयी है- विद्या और बल। ‘विद्या’ शब्द से सामान्यता जो विशेषता समझी जाती है वह तो बहुत स्थूल है। वास्तविक विद्या तो अत्यन्त सूक्ष्म, गुह्य और महादुर्लभ है। स्थल विद्या तो यह है कि मनुष्य अनेक पदार्थों का विज्ञान प्राप्त कर ले, तरह-तरह की कलाओं से परिचित हो जाय, अनेकों ग्रन्थों को पढ़ सके तथा वैद्यिक, ज्यौतिष, व्याकरण और धर्मशास्त्र आदि विद्याओं का मर्मज्ञ हो जाय। किन्तु मनुष्य का हृदय तो आकाश के समान इतना विशाल है कि इन सब प्रकार की विद्याओं का पारंगत होने पर भी उसे वास्तविक पाण्डित्य प्राप्त नहीं होता। ये सारे ज्ञान उसमें लीन हो जाते हैं। और ये ही क्या, सारा संसार ही इसकी चेतना में इस प्रकार समाया हुआ है जैसे समुद्र में बूँद। इस चैतन्य पुरुष की ऐसी सूक्ष्म गति है कि अपने किंचित् संकल्प से ही यह आकाश-पाताल के कार्य कर डालता है और उदयाचल से अस्ताचल तक देखा आता है। यद्यपि शरीर के साथ उसका सम्बन्ध ऐसा दृढ़ बना हुआ है कि स्वयं चैतन्य स्वरूप होने पर भी अपने को शरीर ही समझता है तो भी इसमें ऐसी शक्ति है कि यह विद्या के बल से आकाश के तारों का भी प्रमाण पहचान लेता है और यह भी जान लेता है कि अमुख ग्रह अमुक ग्रह से इतनी दूरी पर है। विद्या के बल से ही यह मछली को समुदर की गहराई से निकाल लेता है तथा आकाश में उड़ने वाले पक्षियों को नीचे गिरा लेता है। तथापि इस संसार में जो कुछ आश्चर्यमय है उसे यह अपनी पाँच ज्ञानेन्द्रियों से ही ग्रहण करता है। अतः इन्द्रियाश्रित होने के कारण यह सारी विद्या स्थूल ही है। इसी से इस विद्या को तो सभी समझते हैं।
किन्तु एक दूसरी विद्या है जो अत्यन्त आश्चर्य-रूप है। वह यह है कि मनुष्य के हृदय में एक झरोखा या खिड़की है, जो दिव्यलोक की ओर खुली हुई है। इन पाँचो इन्द्रियों का मुख तो स्थूल जगत् की ओर है जो आधिभौतिक जगत् कहलाता है। देवलोक इसकी अपेक्षा अत्यन्त सूक्ष्म है, उसी को चैतन्य देश या चिन्मय-लोक भी कहते है। उसकी अपेक्षा यह आधिभौतिक जगत् अत्यन्त तुच्छ है। सो हृदयदेशस्त झरोखे का जो खुलना होता है वह भी दो प्रकार का है। एक तो जब निंद्रा के द्वारा सम्पूर्ण इन्द्रियद्वार रुक जाते है तब स्वप्नावस्था में वह झरोखा सूक्ष्मदेश की ओर खुलता है और उस अवस्था में अनेकों नई-नई चीजे दीखने लगती है, किन्तु वे स्पष्ट दिखाई नहीं देती। जैसे मन्द दृष्टि पुरुषों को पदार्थों का स्वरूप भी धुंधला ही दिखायी देता है वैसे ही स्वप्नावस्था में भी जब कोई भविष्यकालीन घटना की सूचना मिलती है तो वह स्पष्ट समझ में नहीं आती। उसका वर्णन करने पर स्वप्नवेत्ता ही बुद्धिबल से उसका अर्थ समझ पाते हैं, दूसरे लोग नहीं। स्वप्न के तात्पर्य को खोला जाय तो बहुत विस्तार हो जायेगा, तथापि इतना समझना चाहिये कि मनुष्य का हृदय दर्पण की तरह निर्मल है और जब दो दर्पण परस्पर सम्मुख होते है तो उनमें से प्रत्येक में एक दूसरे का प्रतिबिम्ब आ जाता है। इसी प्रकार जब चित्तरूपी दर्पण इन्द्रियादि की वृत्तियों से अलग होता है तो उसमें संपूर्ण स्थूल जगत् के आश्रयभूत हिरण्यगर्भ का प्रतिबिम्ब भासने लगता है। इसी से इन्द्रियों की वृत्तियों को त्याग देने पर यह चित्त भविष्य-काल का अनुभव कर लेता है। किन्तु स्वप्न में इन्द्रियों की वृत्तियाँ रुक जाने पर भी चित्त संकल्प-शून्य नहीं होता, वह भटकता ही रहता है इसलिये उसे भविष्य का धुँधला ज्ञान ही होता है, स्पष्ट नहीं। और जब यह जीव शरीर को त्याग देता है तो इसकी इन्द्रियों और चित्त की वृत्तियाँ नष्ट हो जाती है, इसलिये इसे परलोक प्रत्यक्ष दिखायी देने लगता है तथा स्वर्ग और नरक भी स्पष्ट भासने लगते हैं। तथा यह प्रभु से प्रार्थना करता है कि भगवन्! ‘मेरी रक्षा करो।’ इसके सिवा एक स्थिति ऐसी भी होती है जब अकस्मात् कोई संकल्प हृदय में स्फुरित हो आता है। ऐसा संकल्प प्रायः सत्य ही हो जाता है। इसके विषय में यह नहीं कहा जा सकता है कि वह कहाँ से आता है। किन्तु इससे इतना तो पता चलता है कि ज्ञान का साधन केवल इन्द्रियाँ ही नहीं है। अतः वास्तविक विद्या का प्राकट्य तो सूक्ष्म देश से ही होता है, इन्द्रियाँ तो केवल स्थूल जगत् के पदार्थों को ग्रहण करने के लिए ही बनायी गयी है। इसी से सूक्ष्म देश का अनुभव करने में तो इन्द्रियाँ विघ्नरूप ही है, जब तक इन्द्रियों का विक्षेप शान्त नहीं होता तब तक सूक्ष्म-देश का अनुभव नहीं हो सकता।
अतः हृदय में जो झरोखा बताया गया है उसके खुलने का दूसरा साधन इस प्रकार हैः- जब कोई मनुष्य पुरुषार्थ और अभ्यास के द्वारा इन्द्रियों को रोके, चित्त के क्रोध और कामरूप मलिन-स्वभावों को दूर करे, एकान्त में बैठ कर उसे एकाग्र करे, चित्तवृत्ति को चैतन्य देश में ले जाकर स्थिर करे और भगवत्स्मृति में सावधान रहे तो उस अभ्यास में वह ऐसा लीन हो जाता है कि उसे अपने शरीर और संसार की कोई सुधि नहीं रहती। उस अवस्था में उसके चित्त में किसी भी पदार्थ का संकल्प नहीं फिरता। ऐसा होने पर निःसन्देह जाग्रत अवस्था में ही उसके हृदय की खिड़की खुल जाती है और दूसरे मनुष्यों को जो स्वप्नावस्था में भावी घटनाओं का आभास मिलता है वे इसे जाग्रत्काल में ही स्पष्ट प्रतीत होने लगती है। इसे अनेकों देवताओं, महापुरुषों और अवतारों के दर्शन होते हैं तता उनसे सहायता और वर आदि की भी प्राप्ति होती है। जिसके हृदय का यह मार्ग खुल जाता है उसको ऐसे अनेकों पदार्थों का ज्ञान होता है, जिनका वर्णन नहीं किया जा सकता। इस विषय में महापुरुष ने अपने अनुभव का उल्लेख करते हुए कहा है- ‘मैंने अपने तेज से पृथ्वी और आकाश को व्याप्त किया हुआ है तथा उदय और अस्त के स्थानों को मैंने प्रत्यक्ष देखा है।’ अतः संतों की जो विद्या है वह उन्हें हृदय के मार्ग से प्राप्त हुई है, इन्द्रियों के द्वारा वह नहीं मिल सकती। परन्तु पहले उन्होंने भी बहुत प्रयत्न और अभ्यास किया है। इसी पर भगवान् ने कहा है कि पहले तुम सब पदार्थों से विरक्त और शुद्ध होओ। फिर अपने आपको मुझे अर्पण करो और मायिक पदार्थों की आसक्ति छोड़ दो, क्योंकि तुम्हारे सब काम मेरी ही सहायता से पूर्ण हो जायेंगे। संसार में मुझसे अधिक समर्थ और कोई नहीं है। अतः मेरा ही आश्रय लो, किसी और कार्य में चित्त मत लगाओ। जब तुमने मेरा सहारा लिया है तो तुम अपने चित्त को निःसंकल्प कर सारे जगत् से असंग हो जाओ। यह सारा उपदेश और साधन इसीलिये कहा गया है कि हृदय जगत् के प्रपंच और इन्द्रियजनित भोगों की वासनाओं से मुक्त हो जाय। जिज्ञासुओं और संतों का तो सनातन मार्ग यही है।
यद्यपि शास्त्रों को पढ़ना और उनके रहस्यों को समझना यह पण्डितों का मार्ग और उन्हीं की विशेषता है, तथापि संतों की विद्या ऐसी है कि वह किसी भी शास्त्र या उपदेश के अधीन नहीं है, अतः उनके हृदय में भगवत्कृपा से सर्वदा ही अनुभव का मेघ बरसता रहता है। यह स्थिति अनेक पुरुषों को प्राप्त हुई है और उनकी अवस्था भी ऐसी ही दृढ़ हुई है। यह बात शास्त्र के वचनों से और अपनी बुद्धि से भी समझ में आती है। अतः मेरे इस कथन से तुम्हारे चित्त में इतना तो दृढ़ विश्वास हो जाना चाहिये कि यह अवस्था प्राप्त हो सकती है। ऐसा होने पर संतों के अनुभव, विद्वानों के शास्त्रज्ञान और उनके प्रति अपने विश्वास के आधार पर यह स्थिति सर्वथा अप्राप्य नहीं रहेगी।
ऊपर जिस अवस्था का वर्णन किया है वही मनुष्य के हृदय का आश्चर्य है और यही उसकी विशेषता है। साथ ही ऐसा अनुमान करना भी ठीक नहीं कि यह स्थिति तो पहले संतजन और अवतारों को ही प्राप्त हुई थी, अब किसी को प्राप्त नहीं होती, क्योंकि सृष्टि के आरम्भ से ही सभी मनुष्यों का हृदय इस पद का अधिकारी है। जैसे प्रत्येक लोहा दर्पण के समान स्वच्छ होने की योग्यता रखता है, किन्तु यदि किसी पर जंग लग जाय तो वह मलिन हो जाता है और उसकी स्वच्छता नष्ट हो जाती है। इसी प्रकार जिस मनुष्य का हृदय मायिक पदार्थों की तृष्णा, भोगों की अभिलाषा एवं पाप-कर्मों के द्वारा मलिन हो जाता है और इन दूषित स्वभावों को ही जिसमें प्रबलता हो जाती है, उसकी मनुष्यता निःसन्देह नष्ट हो जाती है और वह स परम-पद को प्राप्त करने का अधिकारी नहीं कहा जाता। महापुरुष ने कहा है कि यद्यपि सभी बालकों का एक ही धर्म होता है, तथापि पीछे माता-पिता की संगति के कारण उनके विचार भिन्न-भिन्न हो जाते हैं। इसी पर साई ने भी कहा है कि मैं तुम्हारा ईश्वर हूँ, और तुम मेरे उत्पन्न किये हुए हो। प्रभु का यह वचन सभी जीवों ने सत्य माना है, अतः इससे निश्चय हुआ कि इस अवस्था को प्राप्त करने के सभी अधिकारी हैं, इसमें कोई भेदभाव नहीं हैं। जैसे बुद्धिमान पुरुष किसी से न सुनने पर भी यह निःसन्देह जानता है कि एक की अपेक्षा दो अधिक होते हैं वैसे ही सब जीवों को आदि-उत्पत्ति के विषय में यह दृढ़ निश्चय है कि हम सभी को उत्पन्न करने वाला ईश्वर है तथा उसी ने पृथ्वी और परलोक को स्थित किया है। अतः अपने अनुभव और युक्ति के द्वारा हमारा स्पष्ट निश्चय है कि उस परमपद को प्राप्त करने का अधिकार केवल उन्हीं को नहीं, हम सभी को है। इस विषय में महापुरुष ने कहा है कि मैं भी तुम्हारी तरह मनुष्य ही हूँ पर भगवान् की कृपा से मुझे आकाशवाणी होती है। इस वचन का तात्पर्य यही है कि जिस मनुष्य को ऐसी अवस्था प्राप्त हो जाती है और जो उपदेश करके सब जीवों को कल्याण का मार्ग दिखाता है उसी को आचार्य या अवतार कहने लगते हैं। यदि कोई ऐसा व्यक्ति हो जिसे यह अवस्था प्राप्त है और वह दूसरो को उपदेश करने में भी समर्थ है, किन्तु पहले से ही जनता में किसी अन्य आचार्य का उपदेश विद्यमान है, इसलिये स्वयं उपदेश नहीं करता, तो इससे भी उसकी स्थिति में कोई क्षति नहीं आती।
किन्तु एक बात निश्चय जानो कि यद्यपि इस अवस्था के प्राप्त होने का मूल कारण अभ्यास ही है, तथापि इसकी प्राप्ति होती है भगवान् की कृपा होने पर ही, केवल अपने बल से यहाँ तक पहुँचना कठिन है। क्योंकि इसके मार्ग में विघ्न करने वाले शत्रु भी अनेक हैं। जो पदार्थ अद्भुत होता है उसकी प्राप्ति भी बहुत कठिन हुआ करती है। उसे पाने के लिये युक्तियाँ भी अनेक करनी पड़ती है इसी से सभी खेतिहरों को अनाज नहीं मिलता और सभी ढूँढ़ने वालों को अपनी इष्ट वस्तु नहीं मिलती। यद्यपि अनाज की प्राप्ति खेती करने से और इष्ट वस्तु की उपलब्धि ढूँढ़ने से ही होती है, तथापि बीच में अनेक विघ्न भी आ जाया करते हैं। अतः उनकी निवृत्ति के लिये भगवत्कृपा भी अत्यन्त आवश्यक है।
इस प्रकार इस प्रसंग में मनुष्य की बुद्धि और उसकी सर्वश्रेष्ठ स्थिति के विषय में वर्णन किया गया। किन्तु इसका प्राप्त होना अपने पूर्ण प्रयत्न और गुरुदेव की सहायता के बिना सम्भव नहीं। अपना प्रयत्न और गुरुदेव की सहायता प्राप्त हो तो भी भगवत्कृपा अत्यन्त आवश्यक है, क्योंकि उनकी कृपा हुए बिना किसी भी कार्य में सफलता नहीं मिल सकती। इसी से महापुरुष ने भी कहा है कि पुरुषार्थ और महत्व भी उसी को प्राप्त होते हैं जिसको भगवान् देते हैं तथा धर्म का मार्ग भी उसी को दिखायी देता है जिसे वे दिखाते हैं।
छठी किरण
मानव की दूसरी विशेषता-बल और उसके भेद
इस प्रकार तुमने मनुष्य की एक विशेषता-विद्या को तो भली प्रकार समझा। अब उसकी दूसरी विशेषता जो बल है उसे भी पहचानो, क्योंकि वह भी एक दिव्य शक्ति है जो पशु आदि में नहीं पायी जाती। ये जितने देहधारी जीव है, सब देवताओं के ही अधीन है। देवता ही भगवान् की आज्ञानुसार जीवो के सुख के लिये जल बरसाते हैं और जब आवश्यकता होती है तब वायु को भी चलाते हैं। वे ही गर्भ में जीवों का पालन-पोषण करते है तथा पृथ्वी में तरह-तरह की वनस्पतियाँ उत्पन्न करते है। इस प्रकार भगवान् ने सभी देवताओं को अपने-अपने कार्य में नियुक्त देवता हुआ है। इन्हीं की तरह मनुष्य का हृदय भी एक प्रधान देवता ही है। इसे भी भगवान् ने देवताओं के समान ही बल दिया है। इसी से अनेक शरीरों पर इसका अनुशासन भी चलता है। मनुष्य का जो अपना शरीर है वह भी हृदय के अधीन है तथा इसके सब अंगों पर चित्त का ही आदेश चलता है। यह बात सब लोग जानते हैं कि हाथ अँगुलियों में चित्त का स्थान नहीं है, फिर भी चित्त की प्रेरणा होने पर ही अँगुलियाँ हिलती हैं। इसी तरह जब हृदय में क्रोध या आवेग होता है तब शरीर के अंग-प्रत्यंगो में पसीना आ जाता है। जब चित्त में काम का संकल्प आता है तो इन्द्रियों में चपलता आ जाती है और जब भोजन की इच्छा होती है तो जीभ जल डालने लगती है। इस प्रकार यह सभी जानते हैं कि शरीर की सारी क्रियाएँ चित्त का संकल्प होने पर ही होती है।
किन्हीं-किन्हीं मनुष्यों में तो ऐसी विलक्षणता और पुरुषार्थ की विशेषता होती है कि उनका अपना स्वभाव तो देवताओं के समान होता ही है, अन्य शरीरों पर भी उनका आदेश चलता है। उनके तेज से सिंह भी काँपने लगते हैं, वे जब चाहें तो रोगियों को निरोग कर सकते हैं, यदि क्रोध करके किसी की ओर देख दे तो निरोग को भी रोगी बना सकते हैं, अपने संकल्प द्वारा खींच कर दूरदेशवर्ती पुरुषों को अपने पास बुला सकते हैं तथा जब इच्छा करे तभी जल बरसा सकते हैं। ये सब बाते प्रसिद्ध ही है, और इनके होने में भी किसी प्रकार का सन्देह नहीं हो सकता- यह बात बुद्धि और युक्ति के द्वारा भी सिद्ध की जा सकती है। इतना ही नहीं, संतों का बल तो इससे भी बहुत बढ़ा-चढ़ा होता है। इसके सिवा दृष्टिदोष और मन्त्र-यन्त्र आदि की जो करामात है वह भी मनुष्य के हृदय की विशेषता और बल ही है। यह हृदय का बल ही शरीर में भी उतर आता है। किन्तु जिसका हृदय मलिन होता है उसका बल भी ऐसा ही होता है। यहाँ तक यदि वह किसी सुन्दर पशु को देखता है तो हृदय में ईर्ष्या और दृष्टि का दोष आने से तत्काल ही वह पशु रोगी पड़ कर मर भी जाता है। यह भी यद्यपि मनुष्य के हृदय का बल ही है, तथापि इसमें और अन्य बलों में इतना अन्तर है कि जिस बल के द्वारा जीवों का हृदय शुभ मार्ग में स्थिर हो वह शुद्ध सात्त्विकी बल कहलाता है, जिससे उन्हें शारीरिक अथवा आर्थिक सुख प्राप्त हो उसे सिद्धि, ऐश्वर्य या राजस बल कहते हैं और जिसके द्वारा उनको दुःख या खेद उत्पन्न हो वह तामस बल है। तथापि ये सात्त्विक, राजस और तमस जितने भी बल है वे सब इस मनुष्य के हृदय के ही बल या पुरुषार्थ है, यद्यपि बाह्य दृष्टि से इनमें बड़ा अन्तर दिखायी देता है तथा इनके परिणाम भी परस्पर बहुत विभिन्न होते हैं। इन सब प्रकार के बलों का बड़ा विस्तार है, अतः इनका पूरा विवरण इस ग्रन्थ में नहीं दिया जा सकता।
किन्तु जो पुरुष ऊपर बताये हुए भेदों का रहस्य नहीं समझना उसे संतों की वास्तविक अवस्था का कुछ भी परिचय नहीं हो सकता, वह तो केवल दूसरों से सुनकर ही उन्हें संत समझ लेता है। तथापि संतों और अवतारी पुरुषों को भी जो अवस्था प्राप्त हुई है वह इस मनुष्य का पुरुषार्थ ही है। इस अवस्था के तीन लक्षण है- पहला तो यह कि संसारी जीवों को जिस रहस्य या भावी घटना का स्वप्न में भान होता है उसे संतजन जाग्रत् अवस्था में ही जान लेते हैं। दूसरा यह कि अन्य जीवों का संकल्प केवल अपने शरीर तक ही कार्यकारी रहता है किन्तु संतों का संकल्प दूसरों के शरीरों में भी चरितार्थ हो जाता है। तथापि उनके संकल्प से जीवों के हृदय की सर्वदा शुभ मार्ग में ही प्रवृत्ति होती है। तथा तीसरा लक्षण यह है कि अन्य जीव जिस विद्या को पढ़ कर प्राप्त करते हैं संतों के हृदय में वह बिना पढ़े ही स्फुरित हो जाती है। इसका कारण यह है कि जिस पुरुष का हृदय शुद्ध होता है, उसे कोई-कोई विद्या स्वतः ही भास आती है। इसी को अनुभव कहते हैं। इसी पर साईं ने भी कहा है कि किन्हीं पुरुषों की विद्या तो अपने अनुभव के आधार पर ही होती है। अतः जिस पुरुष में ये तीनों लक्षण पूर्णतया हो उसकी स्थिति संतों, अवतारों या आचार्यों की कही जाती है। आचार्य उनमें वे ही कहे जाते हैं जिनके आदेश या उपदेश का संसार में प्रचार हो। और जब ऐसा महापुरुष वैराग्यवश संकोच करता है, उपदेशादि नहीं देता तो उसकी अवस्था सनकादि के समान अवधूतकोटि की कही जाती है। संतों की अवस्थाओं में भी बड़ा भेद रहता है। अवस्थाभेद से वे उत्तम, मध्यम और निकृ,ट कोटि के कहे जा सकते हैं। वास्तव में संपूर्ण सन्त तो उन्हीं को कहा जा सकता है, जिनमें उपर्युक्त तीनों लक्षण पूर्णतया पाये जायँ। हमने संतों के ये तीन लक्षण भी केवल इसी दृष्टि से बताये हैं कि इनका कुछ अंश अन्य जीवों में भी पाया जाता है, जैसे स्वप्न का अनुभव अथवा किसी संकल्प का सत्य हो जाना आदि। इस प्रकार अपने को थोड़ा अनुभव होने से जीव इन लक्षणों को परख सकता है क्योंकि मनुष्य का यह स्वभाव ही है कि जिस स्थिति का अंश उसमें रहता है उसी को वह समझ भी सकता है। इसी से कहा है कि भगवान् की पूर्णता को तो भगवान् ही ठीक-ठीक जान सकते हैं, और कोई नहीं। इसका तात्पर्य यही है कि यद्यपि आचार्यों और संतों में इन तीन लक्षणों के सिवा और भी अनेक लक्षण होते हैं, किन्तु हम उन्हें पहचान नहीं सकते, क्योंकि हमारे भीतर उनका कोई अंश नहीं है। इसी से कहा है कि जैसे भगवान् स्वयं ही अपने को यथावत् जान सकते हैं वैसे ही संतों की यथार्थ स्थिति को भी संतजन ही पहचान सकते हैं, अन्य जीव नहीं। इसे इस दृष्टान्त से समझ सकते हैं- मान लो, हमारे देश में किसी को निद्रा का अनुभव नहीं होता और तब हमसे आकर कोई पुरुष सुनाता है कि अमुक देश में हमने लोगों को पृथ्वी पर पड़े हुए देखा है, उस समय उनमें बोलना, सुनना, देखना कुछ भी नहीं रहता और उनकी चेष्टा भी शून्य हो जाती है तथा कुछ समय पश्चात् वे सचेत होकर उठ बैठते हैं- तो हम इस बात को किसी प्रकार नहीं समझ सकते थे, क्योंकि यह पुरुष जो स्वयं अनुभव करता है उसी को समझ भी सकता है। इसी पर साईं ने भी कहा है कि यद्यपि मैंने तुझे विद्या प्राप्त कनरे का अधिकार दिया है तथापि जब तक मैं मार्ग न दिखाऊँ तब तक तुझे विद्या का रहस्य जानने की युक्ति नहीं मिल सकती। अतः इस बात से तुम्हें आश्चर्य नहीं होना चाहिये कि संतों में कितने ही ऐसे भी लक्षण होते हैं जिनको अन्य जीव नहीं पहचान सकते और उन लक्षणों के कारण संतजन परमानन्द का अनुभव करते हैं। जैसे यह बात सभी जानते हैं कि जिस पुरुष को राग और गीत की पहचान नहीं होती उसे उसके श्रवण का आनन्द भी प्राप्त नहीं हो सकता और यदि उसे कोई समझावे तो वह नहीं समझ सकता, तथा जैसे जन्मान्ध को प्रकाश अतवा रूप के सौन्दर्य का कोई अनुभव नहीं हो सकता, उसी प्रकार श्रीभगवान् का अद्भुत सामर्थ्य देखते हुए, इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि संत और आचार्य जनों की ऐसी भी अनेक अवस्थाएँ होती हैं जिन्हें अन्य जीव नहीं जानते।
सातवीं किरण
अनुभव-ज्ञान की महत्ता तथा शरीर विज्ञान की आवश्यकता
यहाँ तक जो कुछ वर्णन हुआ है उससे तुमने मनुष्य को विशेषता तथा जिज्ञासुओं के मार्ग को अच्छी तरह समझ लिया होगा। किन्तु तुमने योगियों से सुना होगा कि आन्तरिक अभ्यास के मार्ग में बाह्य विषयों का ज्ञान अर्थात् स्थूल विद्या तो विघ्न रूप ही है। यह वचन निःसन्देह सत्य हैं, इसमें तुम किसी प्रकार अविश्वास न करना। ये इन्द्रियाँ और इन्द्रिय सम्बन्धी ज्ञान हृदय की एकाग्रता में निश्चय ही विघ्नकारक है, क्योंकि इनके द्वारा चित्त में विक्षेप होता है। इस बात को समझाने के लिये एक दृष्टान्त दिया जाता है। मनुष्य का हृदय एक तालाब के समान है और ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ उसमें बाहर से जल जाने के मार्ग है। इनके द्वारा उसमें निरन्तर गँदला जल जाता रहता है। अब यदि कोई पुरुष इस तालाब के जल को स्वच्छ करना चाहे तो उसका उपाय यही है कि उस तालाब में जो गन्दा जल है उसे बाहर निकालकर बाहर से जल जाने के मार्ग को रोक दे तथा उसकी कीचड़ साफ करके उसे गहरा कर दे। इससे उसमें नीचे के स्त्रोत-द्वारा स्वयं ही निर्मल जल भर जाएगा। किन्तु यदि बाहर के गँदले पानी और कीचड़ की सफाई नहीं की जायेगी तो उसमें स्वच्छ जल कभी नहीं भर सकेगा। इसी प्रकार जब तक चित्त बाह्य स्थूल विद्या के संकल्पों से शून्य नहीं होगा तब तक उसमें सूक्ष्म विद्या प्रकट नहीं हो सकती। अतः जब यह मनुष्य स्थूल जगत् की स्फुरणाओं को छोड़कर दृढ़तापूर्वक हृदय के संयम का अभ्यास करेगा तभी इसे निःसन्देह परमार्थ का अनुभव हो सकेगा।
इसके सिवा स्थूल विद्या को जो विघ्नरूप माना है उसका एक अन्य कारण भी है। जब यह मनुष्य पढ़-लिखकर किसी मत या पन्थ को स्वीकार कर लेता है और युक्तियों द्वारा भी उसके हृदय में उसकी पुष्टि हो जाती है तो वह दूसरे मतों का खण्डन करने लगता है और वाद-विवाद में ही उसकी दृढ़ आश्था हो जाती है। फिर तो वह यह समझने लगता है कि वास्तविक ज्ञान यही है, इससे भिन्न और कोई ज्ञान या विद्या नहीं। उसे यदि कोई परमार्थ-विद्या की बात सुनने या समझने का अवसर भी आता है तो भी वह अपने मन से भिन्न होने के कारण उसे अपरमार्थ ही समझता है। इसी से उसे फिर यथार्थ-विद्या की प्राप्ति असम्भव हो जाती है। ऐसे मताग्रही लोगों का जिस विद्या या मत का आग्रह होता है वह तो यथार्थ ज्ञान की त्वचा के समान है, वह सार-वस्तु या यथार्थ ज्ञान नहीं है। यथार्थ ज्ञान तो वह है जिससे हृदय का अन्तर्निहित गुह्य रहस्य एकदम खुल जाता है, जैसे त्वचा या छिलका दूर होने पर ही फल का सारभूत गूदा या रस प्राप्त होता है, इसी प्रकार जब हृदय से मत-मतान्तर का आग्रह निकल जाता है तभी यथार्थ-ज्ञान की उपलब्धि होती है। इस प्रकार निश्चय जानो कि जो पुरुष वाद-विवाद की विद्या ही प्राप्त करता है, यथार्थ ज्ञान उससे कोसों दूर रहता है। किन्तु वह स्वयं वही समझता है कि मैंने पढ़-लिखकर जो कुछ निश्चय किया है यही यथार्थ विद्या है, इसी से कइस मिथ्याभिमान को यथार्थ ज्ञान का विघ्न कहा है। हाँ, यदि उसे पढ़-लिखकर भी अभिमान न हो तो उसकी विद्या विघ्न-रूप नहीं कही जाती, यह तो कालान्तर में उसके द्वारा यथार्थ-ज्ञान ही प्राप्त कर लेता है। उसकी अवस्था तो उत्तम ही है। किन्तु अधिकांश विद्वान तो ऐसे ही होते हैं जो मिथ्या अभिमान में ही अपना जीवन नष्ट करते हैं।
जो पण्डित बुद्धिमान् होता है वह इस प्रकार का मिथ्या मताग्रह कभी नहीं करता। उसके तो विद्या के द्वारा अनेक संशय निवृत्त हो जाते हैं और उसमें एक प्रकार की निर्भयता आ जाती है। अतः ऊपर जो स्थूल विद्या को विघ्नरूप बाताया गया है उस बात को तुम्हें अच्छी तरह समझ लेना चाहिये, उसकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिये। हाँ, यह बात कहने का अधिकारी वही है जिसे अनुभवगम्य विद्या प्राप्त हुई है। जो मनमाने चलाने वाले मिथ्याभिमानी लोग हैं उन्हें वह विद्या प्राप्त नहीं है। उन्होंने संतों के कुछ सूक्ष्म विद्याविषयक वचन अवश्य पढ़ लिये हैं, किन्तु उनकी करतूत तो यही है कि सदा शरीर को धोते रहना, मैली गुदड़ी और आसनों को सँवारते रहना औऱ बिना कुछ समझे ही विद्या और विद्वानों की निन्दा करना। ये लोग साधन-मार्ग को नष्ट करने वाले तथा भगवान् और भगवद् भक्तों के विरोधी है, अतः ये तो दण्ड के अधिकारी है। भगवान् और संतों ने तो विद्वानों की भी स्तुति ही की है और सभी को विद्या पढ़ने का उपदेश किया है। ये लोग तो बड़े ही पापी और भाग्यहीन हैं जिन्होंने न तो अनुभव की अवस्था ही प्राप्त की है और न विद्या ही पढ़ी है। अतः इनका विद्वानों की निन्दा करना कैसे उचित हो सकता है? इन लोगों की दशा तो ऐसी है जैसे किसी ने सुना हो कि सुवर्ण की अपेक्षा रसायन श्रेष्ठ है, क्योंकि उसके द्वारा अधिक से अधिक सुवर्ण बनाया जा सकता है, और फिर यदि कोई उसे सोना दे और वह यह कहकर अस्वीकार कर दे कि सोना किस का? हम तो रसायन लेगे, क्योंकि उसी से तो सोना बनता है। ऐसा पुरुष यदि रसायन प्राप्त न कर सके और सुवर्ण स्वीकार न करे तो भाग्यहीन और दरिद्र ही रहेगा। वह तो मूर्ख ही है, क्योंकि केवल रसायन की विशेषता सुनकर उसी में मस्त है। इसी प्रकार संतों की अवस्था तो रसायन के समान है और विद्वान की सुवर्णन के समान। संत निःसन्देह विद्वानों से श्रेष्ठ हैं, किंतु मूर्खों के लिये तो विद्वान् भी परम आदरणीय है, अतः उन्हें विद्वानों की निन्दा नहीं करनी चाहिये।
इसके अतिरिक्त इसमें एक भेद और भी है। मान लो, किसी के पास इतना रसायन है कि वह सौ मुहरों के बराबर सोना बना सकता है और एक दूसरे व्यक्ति के पास एक हजार मुहरें हैं। ऐसी स्थिति में उस मुहरों वाले से वह रसायन वाला श्रेष्ठ नहीं हो सकता। संसार में रसायन विद्या की खोज करने वाले तो अनेक व्यक्ति है, उनमें से पूर्णतया वह विद्या तो किसी विरले को ही प्राप्त होती है। इसी प्रकार यद्यपि अन्तर्दृष्टि के उन्मेष का अभ्यास सबसे बढ़कर है, तथापि इसमें पूर्णतया प्राप्त करना तो अत्यन्त कठिन है। इसलिये यदि किसी व्यक्ति को सामान्यतया ध्वनि, ध्यान अथवा मन्त्र-यन्त्र इत्यादि का कुछ परिचय हो तो सी से वह सभी विद्वानों से बढ़कर नहीं हो सकता। बहुत से लोग तो ऐसे होते है कि उन्हें साधन के आरम्भ में तो कुछ एकाग्रता होती है, किन्तु पीछे वे एकदम ठण्डे पड़ जाते हैं, अथवा किसी संकल्प को लेकर ही पागल से हो जाते हैं और समझते हैं कि हमें बड़ी ऊँची स्थिति प्राप्त हो गयी है। ऐसा तो कोई विरला ही होता है जो अपने हृदय को शुद्धता-द्वारा पूर्ण पद प्राप्त कर सके। अधिकतर तो ऐसे लोग विक्षिप्त ही होते हैं। जैसे हमारे स्वप्नों में भी सच्चा स्वप्न तो कोई ही होता है, अधिकतर तो चित्त के भ्रम ही होते हैं, अतः विद्वानों की अपेक्षा ऊँची स्थिति तो उन्हीं महापुरुषों की मानी जा सकती है जिनमें ऐसी योग्यता हो कि जिस विद्या को दूसरे लोग पढ़कर प्राप्त करते हैं उसे वे बिना पढ़े ही अनुभव कर ले। किन्तु यह अवस्था अत्यन्त दुर्लभ है। अतः तुम्हें चाहिए कि संतजनों की विशेषता और विलक्षणता में आस्था रखते हुए भी पाखण्डी धूर्तों की बातों में आकर कभी विद्वानों का निरादर न करो। तभी तुम्हारा धर्म अक्षुण्ण रह सकता है।
अब यदि तुम प्रश्न करो कि हम इस रहस्य को कैसे समझ सकते हैं कि भगवान् की पहचान करना ही मनुष्य की सबसे बड़ी भलाई है, तो इसका उत्तर इस प्रकार है- जिस वस्तु से किसी व्यक्ति को प्रसन्नता और आनन्द प्राप्त होता है वही उसकी भलाई मानी जाती है। तथा प्रसन्नता और आनन्द उसी वस्तु से प्राप्त होते है जो उस व्यक्ति के स्वभाव के अनुसार हो। और जीव का स्वभाव वही माना जा सकता है जिसकी पूर्ति के लिये भगवान् ने उसे उत्पन्न किया है। देखिये, सकाम पुरुष की प्रसन्नता अपनी अभीष्ट वस्तु पाने पर होती है, क्रोधी की प्रसन्नता अपने प्रतिपक्षी का पराभव होने से होती है और श्रवमेन्द्रिय की प्रसन्नता सुन्दर शब्द या राग सुनने से होती है। इसी प्रकार बुद्धि की प्रसन्नता प्रत्येक कार्य का भेद जानने से होती है और यही इसका स्वभाव है। अतः इसी में इसकी भलाई भी है। वास्तव में, भगवान् ने इसी निमित्त से बुद्धि की रचना की है। इसके सिवा काम, क्रोध और पाँच इन्द्रियों के भोग तो पशुओं में भी पाये जाते हैं, परन्तु मनुष्य में इतनी विशेषता है कि जिस वस्तु का भेद उसकी समझ में नहीं आता सके विषय में वह खोज करता रहता है। उसे उसका रहस्य जानने की लालसा लगी रहती है और जब से उसका पता लग जाता है तो बड़ा प्रसन्न होता है और उसे अपनी विशेषता भी मानने लगता है। वह पदार्थ चाहे निम्न कोटि का भी हो तो भी उसका ज्ञान होने पर उसे ऐसी प्रसन्नता होती है कि वह उसे दबा कर नहीं रख सकता। जैसे कोई पुरुष शतरंज खेलने में कुशल है तो उसमें इतना धैर्य नहीं होता कि वह अपने उस कौशल को किसी पर व्यक्त न करे, उसे अपने कौशल का ज्ञान भी होता है और वह उसे दूसरों के आगे प्रकट भी करना चाहता है। इससे यह निश्चय हुआ कि पहचान या ज्ञान ही मनुष्य का स्वभाव है। साथ ही, यह भी स्मरण रखो कि जो पदार्थ जितना ही विलक्षण और श्रेष्ठ होता है उसकी पहचान से उतना ही अधिक आनन्द होता है। जिस प्रकार यदि किसी व्यक्ति का मंत्री से परिचय है तो उसे भी सुख तो होता है, परन्तु जिसका राजा से परिचय है उसका आनन्द उससे भी बढ़कर है। इसी तरह शतरंज जानने वाले से ज्योतिष या आयुर्वेद जानने वाला अधिक सुखी होती है। किन्तु भगवान् से बढ़कर तो कोई भी पदार्थ नहीं है, क्योंकि सम्पूर्ण पदार्थों की विशेषता या श्रेष्ठता तो उन्हीं की शक्ति से होती है और वे ही सबसे स्वामी है तथा संसार में जो कुछ आश्चर्य या विलक्षणता है सब उन्हीं की कारीगरी है। अतः उनकी पहचान से बढ़कर और किसी की पहचान नहीं हो सकती और न उनके समान किसी अन्य रूप का सौंदर्य ही है। वास्तव में उनकी पहचान और उनकी दर्शन करना ही इस मनुष्य का स्वभाव है और इसी निमित्त से भगवान् ने मानव को उत्पन्न किया है। इसलिये इस मनुष्य की भलाई और पूर्णता भगवान् की पहचान करने में ही है।
यदि नहीं, यदि किसी मनुष्य के हृदय में भगवान् की पहचान करने की रुचि न हो तो जानो कि उसका हृदय रोगी है। यदि किसी को अन्न में तो रुचि न हो और मिट्टी अच्छी जान पड़े तो से रोगी ही कहेंगे। ऐसे व्यक्ति की यदि चिकित्सा न की जाय तो एक दिन वह मर ही जायेगा, और संसार में भी से भाग्यहीन ही कहा जाएगा। इसी प्रकार जिस मनुष्य की विषयों में तो प्रीति हो, किन्तु भगवान् से प्रेम न हो, उसको हृदय रोगी ही कहा जायेगा। वह यदि अपने इस मानस रोग का उपचार न करे तो उसे परलोक में अधोगति ही प्राप्त होगी। उसकी बुद्धि नष्ट हो जाती है और वह अत्यन्त दुःखी होता है, क्योंकि इन्द्रिय-सम्बन्धी भोगों का सम्बन्ध तो इस शरीर के ही साथ है और मृत्यु होने पर इसका वियोग हो जाता है, अतः उसके सारे ही भोग नष्ट हो जाते हैं और उनकी आसक्ति के कारण जीव बड़े कष्ट में पड़ जाता है। इसी से परलोक में वह बड़ा भाग्यहीन समझा जाता है। इसके विपरीत भगवान् की पहचान का जो सुख है उसका सम्बन्ध है हृदय के साथ, इसलिये मृत्यु के समय वह और भी अधिक बढ़ जाता है, क्योंकि उसमें विक्षेप पैदा करने वाले पदार्थ उस समय दूर हो जाते हैं। इस प्रकार इस ग्रन्थ में यद्यपि जीव के सबी स्वभावों का वर्णन किया है, तथापि मानव हृदय की जो विशेषता है उसके विषय में इतना ही कथन पर्याप्त होगा।
इसके सिवा इस मनुष्य का जो शरीर है उसमें भी भगवान् ने बड़े आश्चर्यमय गुण प्रकट किये हैं तथा इसके अंग-प्रत्यंगों में भी अनन्त गुण उत्पन्न किये है। इसमें कितनी नाड़ियाँ और अस्थियाँ हैं! उन सभी के आकार और गुण पृथक्-पृथक् है तथा उनके कर्म भी सर्वथा भिन्न भिन्न ही है। तुम तो सब अंगों के विषय में जानते भी नहीं केवल इतना ही समझते हो कि हाथ ग्रहण करने के लिये हैं, चरण चलने के लिये और जिह्वा बोलने के लिये। देखो, ये जो तुम्हारे नेत्र है इनमें सात परदे रखे गये हैं, इनमें से यदि एक परदा नष्ट हो जाता है तो दृष्टि मन्द पड़ जाती है, किन्तु तुम तो यह नहीं जानते कि सात परदे किस निमित्त से बनाये गये हैं और उन सब में देखने की प्रक्रिया किस प्रकार रखी है। इसके अतिरिक्त नेत्रों का आकार यद्यपि स्पष्ट ही अत्यन्त क्षुद्र है, किन्तु इनकी दृष्टि कहाँ तक फैलती है। इनकी दृष्टि और देखने की प्रक्रिया का वर्णन कनरे लगें तो कितने ही ग्रन्थ बन सकते हैं। अतः तुम्हें इतना पहचानना चाहिये कि इस शरीर में मूलचक्र से लेकर जितने भी अंग बनाये गये हैं उनका प्रयोजन क्या है? पहले पक्वाशय को लीजिये। यह भिन्न-भिन्न आहारों को परिपक्व करके रुधिर बनाता है और उसे सम्पूर्ण नाड़ियों में पहुँचाता है। एक ऐसा भी स्थान है कि जो जब रुधिर परिपक्व होता है तो उसका जो मल शेष रहता है, उसे गिरा देता है। उसी रुधिर में कुछ झाग उत्पन्न होते हैं तो उन्हें पित्त दूर कर देता है। आरम्भ में जो रुधिर हृदय से निकलता है वह पतला और उपयुक्त होता है। उस जल को गुरदा खींच लेता है और वह अन्य नाड़ियों द्वारा मूत्राशय में पहुँच जाता है। इस प्रकार मैल, झाग और जल से रहित होकर शुद्ध हुआ रक्त नाड़ियों में जाता है। इन अंगों में से किसी में भी कोई त्रुटि आ जाने से शरीर रोगी हो जाता है। इससे निश्चय हुआ कि स्थूल और सूक्ष्म शरीरों के जितने भी अंग है उन सभी का अपना-अपना कोई प्रयोजन है और उन सभी से इस शरीर की रक्षा होती है।
यह जो जीव का पिण्ड (शरीर) है, सो देखने में यद्यपि क्षुद्र-सा जान पड़ता है, तथापि यह ब्रह्माण्ड के समान ही है। जितने पदार्थ ब्रह्माण्ड में है अंशतः वे सब पिण्ड में भी है, इस शरीर में अस्थियाँ पर्वतों के समान हैं, रोमावली वनस्पतियों के सदृश है, पसीना मेघ की तरह है, सिर आकाश के सदृश है और इन्द्रियाँ तारामण्डल के समान है। इस प्रकार इनका वर्णन बड़े विस्तार से हो सकता है, किन्तु तात्पर्य यही है कि ब्रह्माण्ड में जितने पदार्थ है उनके अंश इस पिण्ड में भी विद्यमान हैं। इसके सिवा संसार में जो शूकर, कूकर, पशु, प्रेत, देवता और अप्सरा आदि विविध प्रकार के जीव हैं उनके स्वभाव भी इस मानव शरीर में पाये जाते हैं। तथा ब्रह्माण्ड में जितने व्यवहार है उनके अंश भी इस शरीर में विद्यमान है, जैसे जठराग्नि आहार को पचाती है सो मानो रसोई करने वाली है, जो शक्ति आहार के रस को लेकर मल को अलग करती है, वह गन्धी के समान है, जिस अवयव के द्वारा रुधिर का दूध और वीर्य बनता है वह मानो धोबी का काम करता है, जो जलीय भाग को मूत्राशय में ले जाता है वह पनिहारे के समान है, जो मल को शरीर से बाहर निकालता है वह झाडू देने वाले भंगी की तरह है और जिसके द्वारा बात, पित्त अथवा कफ का प्रकोप होने से शरीर को कष्ट होता है वह चोर या लुटेरे के समान है तथा जो इनके कोप को निवृत्त करके शरीर को स्वस्थ बनाता है वह धर्मात्मा राजा की तरह है। इस प्रकार इन सबका वर्णन किया जाय तो बहुत विस्तार हो सकता है।
इस सबका तात्पर्य यही है कि तुम्हें ऐसी पहचान होनी चाहिये कि तुम्हारे शरीर में जितने स्वभाव और अंग पैदा किये है वे सभी तुम्हारी सेवा करने में सावधान रहते हैं और जब तुम अचेत होकर सो जाते हो तब भी वे तुम्हारी सेवा नहीं छोड़ते। किन्तु तुम उन्हें जानते भी नहीं हो? तथा जिन प्रभु ने तुम्हें ऐसे सेवक दिये हैं उनका भी तुम कोई उपकार नहीं मानते। संसार में तो यदि कोई व्यक्ति तुम्हारी सेवा के लिये अपने किसी टहलुए को भेज देता है तो तुम सारी आयु उसका उपकार मानते रहते हो पर जिन भगवान् ने तुम्हारे शरीर की सेवा में हाजरों टहलुए लगा रखे हैं और वे इतने सावधान है कि एक पल भी तुम्हारी सेवा में ढील नहीं करते उनको तुम कभी स्मरण भी नहीं करते।
इसके अतिरिक्त इस शरीर की जो रचना है और इसके अंगों में जो गुण रखे गये हैं उनका विज्ञान भी असीम है, किन्तु इस विद्या की ओर से भी सभी लोग अचेत हैं। यदि कोई इस विद्या का अध्ययन भी करता है तो उसका उद्देश्य भी वैद्यक-द्वारा अर्थोपार्जन करना ही रहता है। वास्तव में इसका अध्ययन भी तभी सार्थक होता है जब इसके द्वारा भगवान् की कारीगरी को पहचाना जाय। ऐसे पुरुष को निःसन्देह भगवान् का परिचय प्राप्त हो सकता है और जिसे उनका परिचय हो जाता है उसकी दृष्टि में भगवान् की निम्नलिखित विशेषताएँ आ जाती हैं-इस जीव और शरीर को उत्पन्न करने वाले भगवान् ऐसे समर्थ हैं कि उनमें किसी भी प्रकार की दीनता या पराधीनता का अंश नहीं पाया जाता। वे जो चाहें वही कर सकते हैं। जिन्होंने वीर्य की एक बूँद से यह शरीर उत्पन्न किया है उनके लिये, नष्ट हो जाने पर, इसे पुनः जीवित कर लेना कौन बड़ी बात है? इसी से परलोक में प्राप्त होने वाले सुख-दुःख की भी पहचान हो सकती है।
वे भगवान् ऐसे ज्ञान स्वरूप है कि उनका ज्ञान सारे संसार में भरपूर है। संसार में जितने भी आश्चर्य और विशेष गुण है वे सब उन्हीं की कारीगरी के परिणाम है।
वे परम दयालु है, सबी जीवों पर उनकी असीम करुणा है। जिस-जिस जीव को जो कुछ आवश्यक था वह सभी उन्होंने दिया है, कोई भी चीज कृपणता करके छिपाई नहीं है। सिर, हृदय, हाथ, पाँव, रसना आदि जिन-जिन अंगों की अपेक्षा थी और जिनके द्वारा जीव का कार्य निष्पन्न हो सकता था वे सभी अंग उन्होंने दिये हैं। इनके सिवा जिन अंगों का कोई विशेष प्रयोजन भी न था, किन्तु उनके द्वारा इस शरीर का श्रृंगार और सौन्दर्य सिद्ध होता था वे भी उन्होंने दिये हैं, जैसे नेत्रों की समता, ओठों की लालिमा, केशों की कालिमा, भृकुटि की कुटिलता और पलकों की समानता। इसी प्रकार उन्होंने और भी कई अंग केवल सौन्दर्य की दृष्टि से रचे हैं।
-भगवान् ने ऐसी कृपा केवल मनुष्यों पर ही नहीं की, सभी जीवों पर उनकी दया समान है। इसी से उन्होंने मक्खी और मच्छर जैसे जीवों को भी जो कुछ अपेक्षित था वह सभी दिया है। उनके शरीर और आकार भी तरह-तरह के चिन्हों से सुशोभित किये हैं। अतः इन जीवों के शरीरों की उत्पत्ति का परिचय प्राप्त करना भी भगवान् को पहचानने की कुंजी है।
-वास्तव में विद्याध्ययन का विशेष फल यही है कि इसके द्वारा भगवान् की महिमा का ज्ञान हो। जिस प्रकार किसी कवि की कविता और शिल्पी की शिल्प-रचना को देखकर निःसन्देह उनकी विशेषता का ही परिचय मिलता है, उसी प्रकार जितनी भी भगवान् की कारीगरी है वह सब उन्हें पहचानने की कुंजी ही है। ससे उनके गुणों का ही परिचय प्राप्त होता है। तथापि हृदय की पहचान के आगे शरीर की पहचान तो अत्यन्त नगम्य है, क्योंकि शरीर घोड़े की तरह है और हृदय सके सवार के समान हैं। अतः मुख्य पहचान तो हृदयरूप सवार की ही है, क्योंकि घोड़ा तो सवार के लिये ही होता है, किन्तु सवार घोड़े के लिये नहीं होता।
इस प्रकार यहाँ तक जो कुछ वर्णन किया गया है उससे यह निश्चय होता है कि तुम अपने अंगों को अच्छी तरह से नहीं जानते हो। और यह बात तो स्पष्ट ही है कि अपने स्वरूप से तुम्हारे अधिक समीपवर्ती और कोई वस्तु नहीं है। सो जब तुम अपने स्वरूप को ही नहीं जानते तो अन्य किसी पदार्थ को जानने का अभिमान कैसे कर सकते हो? यह तो ऐसी ही बात होगी जैसे किसी के पास अपनी उदरपूर्ति की सामग्री भी हो नहीं और वह सारे नगर को अपने यहाँ भोजन करने के लिये आमन्त्रित करे। ऐसी असम्भव बातें करने वाला अभिमानी पुरुष तो मूर्ख और मिथ्यावादी ही कहा जायेगा।
आठवीं किरण
देहदृष्टि से मानव की हीनता और पराधीनता
अब तुम मनुष्य के हृदयरूपी रत्न की महिमा, शोभा और विशेषता तो अच्छी तरह समझ गये होंगे। किन्तु यह भी याद रखो कि यद्यपि भगवान् ने तुम्हें ऐसा रत्न दिया है, फिर भी इसे रखा तुमसे गुप्त ही है। अतः तुम यदि इस रत्न की खोज न करोगे, इसकी ओर से अचेत रहोगे और अपने जीवन को व्यर्थ गँवाओगे तो इससे तुम्हारी अत्यन्त हानि होगी। इसलिये तुम पुरुषार्थ करके इस रत्न की खोज करो और माया के जालों से विरक्त रहो, तभी तुम्हारा हृदय-रत्न पूर्णपद को प्राप्त कर सकेगा। इसकी पूर्णता और श्रेष्ठता चैतन्यरूपी सूक्ष्म देश में पहुँचने पर ही प्रकट होती है, क्योंकि वहां यह शोकर हित आनन्द का अनुभव करता है और अपने अविनाशी सत्य-स्वरूप का साक्षात्कार करता है। तथा वहीं इसकी अविद्या की निवृत्ति होकर इसे ज्ञान प्राप्त होता है। यह चैतन्य ही श्रीभगवान् का शुद्ध स्वरूप है और जीवात्मा भी सूक्ष्म देश में पहुँचकर इसी में लीन होता है।
तथा स्थूल देश में जो जीव की विशेषता कही गयी है उसका कारण यही है कि यह उस परमपद को प्राप्त करने का अधिकारी है। जब तक इस पद को प्राप्त नहीं करता तब तक यह जीव ऐसा पराधीन और नीच है कि इसकी नीचता का वर्णन नहीं किया जा सकता। यह भूख, प्यास, शीत, उष्ण, रोग, शोक, दुख, मोह, क्रोध और तृष्णा आदि नीच स्वभावों के अधीन रहता है। जो भोग इसे अत्यन्त प्रिय लगते हैं वे इसके रोग के ही कारण हैं तथा इसके शरीर का सुख रहता है कड़वी औषधियों में। वास्तव में मनुष्य की विशेषता तो विद्या, बल, धैर्य और श्रद्धा आदि दिव्य गुणों के कारण ही है। यदि शरीर की ओर देखे तब तो इसमें कुछ भी विशेषता नहीं है। यदि इसके मस्तक की एक नाड़ी में कोई दोष आ जाय तो यह पागल हो जाता है और इसकी मृत्यु की भी आशंका हो जाती है। उस अवस्था में तो इसे अपने पास पड़ी हुई अपनी औषधि की भी पहचान नहीं रहती और न यह अपने रोग को ही समझता है। इसके समान बलहीन और पराधीन भी कौन होगा? एक मक्खी से तो यह अपनी रक्षा कर नहीं सकता। यदि मच्छर भी इसे काटने लगे तो उसी से यह अत्यन्त व्याकुल हो उठता है। यदि इसके पुरुषार्थ और धैर्य की ओर देखा जाय तो उसमें भी यह अत्यन्त पिछड़ा हुआ है। कभी-कभी तो एक पैसा गिरने से ही यह दुःखी और उदास हो जाता है तथा भूख के समय एक ग्रास की कमी रह जाने से ही व्याकुल हो उठता है और मूर्च्छित-सा हो जाता है। अतः शरीर दृष्टि से तो यह मनुष्य बहुत ही गिरा हुआ है।
यदि शरीर की सुन्दरता पर विचार करें तो यह अत्यन्त मलिन जान पड़ता है। इसमें है क्या? मानो मल-मूत्र के भवन पर त्वचा लपेटी हुई हो। यदि इसे दिन में दो बार न धोया जाय तो ऐसी दुर्गन्ध उठती है कि अपने को भी ग्लानि होने लगती है और दूसरे लोग भी घृणा करते हैं। अजी! जिस शरीर को तुम अपना सर्वस्व समझते हो और जिसकी सुन्दरता का तुम्हें इतना अभिमान है उसके मल को तो तुम नित्यप्रति स्वयं ही अपने हाथों से साफ करते हो, फिर भी तुम्हें इसकी मलिनता का ज्ञान नहीं होता। इस विषय में एक दृष्टान्त दिया जाता है। एक बार एक महापुरुष मार्ग में चल रहे थे। आगे कुछ चाण्डाल गड्ढे में विष्ठा डाल रहे थें। उसके पास होकर निकलने वाले दुर्गन्ध के कारण नाक मूँद लेते थें। उनसे महापुरुष ने कहा, ‘भाई! क्या तुम भी सुनते हो, यह विष्ठा कहती है कि कल मैं बाजार में रखी हुई थी और लोग मुझे मूल्य देखकर खरीदते थे। अब एक रात तुम्हारी संगति करने से मेरी यह दुर्दशा हो गयी। सो विचार तो करो कि मुझे तुम्हारे पास से भागना चाहिये या तुम्हें मेरे पास से?’
तात्पर्य यह है कि इस शरीर से समबद्ध होने पर तो यह जीव अत्यन्त दीन और पराधीन है तथा इसकी अवस्था भी बहुत गिर जाती है। इसी नाते परलोक में भी इसकी हीनता या विशेषता प्रकट होगी। अर्थात् यदि यह दिव्य-स्वभाव रूप पारस के द्वारा अपने को शुद्ध कर लेगा तो पशु और सिंहों के स्वभावों से मुक्त होकर परलोक में देवपद प्राप्त करेगा, क्योंकि फिर इसे पाशवी क्रिया और कर्मों में लगा रहेगा तो अन्त में नरक भोगेगा। अतः पुरुष को चाहिये कि जिस प्रकार यह अपनी विशेषता को जानता है उसी प्रकार अपनी नीचता और पराधीनता को भी परखता रहे, क्योंकि इस प्रकार की परख भी श्रीभगवान् को पहचानने की कुंजी है।
बस, अपने-आपको पहचानने के विषय में इतना ही कथन पर्याप्त होगा।
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