तल्क़ीन-ए-मुरीदीन-हज़रत शैख़ शहाबुद्दीन सुहरवर्दी
तल्क़ीन-ए-मुरीदीन-हज़रत शैख़ शहाबुद्दीन सुहरवर्दी
सूफ़ीनामा आर्काइव
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इंतिख़ाब-ओ-तर्जुमा:हज़रत मौलाना नसीम अहमद फ़रीदी
अल्लाह तआ’ला फ़रमाता है ‘वला ततरुदिल-लज़ी-न यद्ऊ’-न रब्बहुम बिल-ग़दाति-वल-अ’शीयी युरीदून वज्ह-हु।’
(आप न हटाएं अपने पास से उन लोगों को जो अपने रब को सुब्ह-ओ-शाम पुकारते हैं और उनका हाल ये है कि बस अपने रब की रज़ा चाहते हैं)।
लफ़्ज़-ए-इरादत जो ख़ास इस्तिलाह के तौर पर मशाइख़-ए-सूफ़िया के यहाँ मुस्ता’मल है उसकी अस्ल बुनियाद यही आयत है’युरीदू-न वज्हहु’।
मुरीद, मशाइख़-ए-सूफ़िया के नज़दीक वो है जिसकी हिम्मत अल्लाह तआ’ला से तलब-ए-मज़ीद करती रहे।जो मज़ीद को बराबर तलब करता रहेगा वो मुरीद-ए-सुफ़िया।जब वो तलब-ए-मज़ीद से सुस्त पड़ जाएगा तो उसको(सम्त-ए-तरक़्क़ी में आगे बढ़ने के बजाय) रजअ’त (वापसी)से दो-चार होना पड़ेगा।और इरादत के बाब में उसकी हिम्मत ज़ाइल हो जाएगी।
अकाबिर-ए-सूफ़िया के नज़दीक ऐसे शख़्स की मौत उसकी हयात से बेहतर होती है इसलिए कि अल्लाह तआ’ला के रास्ते में जो कोई मुरीद, मज़ीद हासिल नहीं कर रहा है, तो वो नुक़सान में है और नुक़सान ऐ’न ख़ुसरान है।जब ख़सारा दाइमी तौर पर किसी बंदे के शामिल-ए-हाल हो जाए तो फिर उसकी मौत उसकी हयात से बेहतर होती है।मुरीद को अपनी इरादत में एक शैख़ की ज़रूरत है जो साहिब-ए-बसीरत हो। वो राह़-ए-सुलूक तय कराए और उसको तुरुक़-ए-मवाजीद और अस्बाब-ए-मज़ीद बताए। नीज़ सिफ़ात-ए-नफ़्स, अख़लाक़-ए-नफ़्स और मख़्फ़ी शहवात-ए-नफ़्स से आगाह करे।इसलिए कि मा’रिफ़त-ए-नफ़्स, तरीक़ा-ए-सूफ़िया की जड़ और बुनियाद है।मा’रिफ़त-ए-नफ़्स का मा’रिफ़त-ए-रब से गहरा तअ’ल्लुक़ है।जैसा कि एक बुज़ुर्ग का मक़ूला है।जिसने अपने नफ़्स को पहचाना उसने अपने रब को पहचाना तब मा’रिफ़त के मरातिब-ओ-मनाज़िल हैं।अहल-ए-मा’रिफ़त की दो क़िस्में हैं।एक अबरार दूसरा मुक़र्रबीन।अबरार को नफ़्स की बा’ज़ हरकात और शहवात की मा’रिफ़त होती है।मगर मुक़र्रबीन की मा’रिफ़त-ए-नफ़्स उससे आ’ला होती है।बहुत से अ’मल अबरार की नज़र में उनके मबलग़-ए-इ’ल्म की रू से ऐ’न ताअ’त होते हैं और वो मुक़र्रबीन के नज़दीक मा’सियत होते हैं।क्यूँकि मुक़र्रबीन की नज़र नफ़्स की हालत मा’लूम करने में दक़ीक़ होती है और उनको इ’ल्मुन्नफ़्स में कमाल हासिल होता है।इसी वजह से बुज़ुर्गों ने कहा है हसनातुल-अबरार,सय्यिआतुल-मुक़र्रबीन।या’नी अबरार के नज़दीक जो (बा’ज़) हसनात हैं वो मुक़र्रबीन के नज़दीक सय्यिआत का दर्जा रखते हैं।
दर हक़ीक़त मशाइख़-ए-सूफ़िया में जो अर्बाब-ए-बसीरत हैं उनके अ’लावा किसी को मक़ामात-ओ-अहवाल की तफ़्सील और उन आफ़ात की मा’रिफ़त हासिल नहीं होती जो फ़साद-ए-आ’माल का बाइ’स हैं।यहाँ तक कि वो उ’लमा जो अहकाम-ए-शरा’ और इ’ल्म-ए-मसाइल-ओ-फ़ुतूह से तो वाक़िफ़ हैं लेकिन ज़ुह्द-फ़िद्दुनिया,तक़्वा और इ’ल्मुल-क़ुलूब से बहरा-मंद नहीं हैं वो भी मशाइख़-ए-सूफ़िया के इस बुलंद मक़ाम तक नहीं पहुंच सकते।इसलिए कि सूफ़िया का इ’ल्म मीरासुत्तक़वा है।अल्लाह तआ’ला फ़रमाता है ‘वत्तक़ुल्लाह व-युअ’ल्लिमुकुमुल्लाह’।इस आयत में इ’ल्म को तक़्वा से मुत्तसिल किया है। नीज़ अल्लाह तआ’ला फ़रमाता है ‘इन्नमा यख़्शल्ला-ह मिन-इ’बादिहल-उ’लमा (या’नी अल्लाह तआ’ला से डरने वाले इ’ल्म वाले हैं।इसी आयत में ग़ैर-मुत्तक़ी से इ’ल्म की नफ़ी है।
जब कोई शख़्स ज़ुह्द-फ़िद्दुनिया और तक़्वा के ब-ग़ैर इ’ल्म को जम्अ’ करे तो वो फ़क़त इ’ल्म का एक बर्तन होगा।हक़ीक़ी आ’लिम वही होगा जो तक़्वा इख़्तियार करेगा।पस जब ये बात वाज़ेह हो गई कि मुरीद-ए-सादिक़ अल्लाह के रास्ते में चलने के लिए एक ज़ी-बसीरत शैख़ की सोहबत का मुहताज है जो उसको मक़ामात-ए-क़ुर्ब और हक़ीक़त-ए-उ’बूदियत तक पहुँचा दे।चुनाँचे अल्लाह तआ’ला फ़रमाता है ‘क़ुल हाज़िही सबीली उद्ऊ’ इल्ललाहि अ’ला बसीरतिन अना व-मनित् त-ब-अ’नी’।(ऐ रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अ’लैहि वसल्लम कह दीजिए कि वो मेरा रास्ता है।मैं और मेरे मुत्तबई’न अल्लाह की तरफ़ बसीरत के साथ दा’वत देते हैं)।तो अब शैख़-ए-कामिल का मुताबअ’त-ए-रसूल की बिना पर बि-इज़्निल्लाहि दाई’ इलल्लाह होना भी साबित हो गया।अल्लाह तआ’ला अपने बंदों की ता’लीम के लिए और अपने ख़ास बंदों की तदरीजी तरक़्क़ी को ज़ाहिर करने के लिए फ़रमाता है ‘वल्लज़ी-न यक़ूलू-न रब्बना हब-लना मिन अज़्वाजिना व-ज़ुर्रीयातिना क़ुर्र-त आ’युनिन वज्अ’लना लिल-मुत्तक़ी-न-इमामा।’
(वो जो कि कहते हैं ऐ हमारे रब हमारी बीवियों और हमारी ज़ुर्रियात-ओ-औलाद को हमारी आँखों की ठंडक बना दे और हमको तक़्वा-शिआ’र लोगों का इमाम बना दे)।
इस आयत से पता चला कि एक गिरोह ऐसा होता है जो क़ुद्वतुल-मुत्तक़ीन कहलाए जाने का मुस्तहिक़ होता है।हर वक़्त और हर ज़माने में, हर इ’लाक़े में ऐसे अफ़राद होते हैं अगर्चे वो अ’दद में क़लील हों।चूँकि ये हज़रात एक बुलंद मक़ाम पर फ़ाइज़ होते हैं लिहाज़ा उनकी इक़्तिदा भी वही मुरीद-ए-सादिक़ीन करते हैं जो तरीक़ा-ए-हक़ के सालिक होते हैं।और वही उनसे इ’ल्म इस तरह हासिल करते हैं जिस तरह उ’लमा हासिल करते हैं।
मुरीद (मजाज़ी तौर पर) वलद होता है और शैख़ ब-मंज़िला-ए-वालिद होता है। इसलिए कि विलादत दो क़िस्म की है। एक विलादत-ए-तबई’या और दूसरी विलादत-ए-हक़ीक़िया।प स विलादत-ए-तबई’या रुसूम-ए-मुल्क और रुसूम-ए-आ’लम-ए-शहादत-ओ-हिक्मत की इक़ामत के लिए वाक़े’ होती है और विलादत-ए-मा’नविया अज्ज़ा-ए-मलकूत और आ’लिमुल-ग़ैब वल-क़द्र के मुतालए’ के लिए होती है। सरकार-ए-रिसालत-मआब नबी-ए-करीम सल्लल्लाहु अ’लैहि वसल्लम तमाम उम्मत के मा’नवी वालिद हैं।और शैख़ मुताबअ’त-ए-रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अ’लैहि वसल्लम की वजह से मुरीदीन का रुहानी बाप होता है। जिस तरह विलादत-ए-तबई’ में बच्चे के दूध पीने का एक ज़माना और दूध छूटने का एक वक़्त होता है उसी तरह विलादत-ए-मा’नविया में है।
पस मुरीद मुलाज़मत-ए-शैख़ और उसकी दवाम-ए-सोहबत का उसी वक़्त तक मुहताज रहता है जब तक इस्तिफ़ादा करने की क़ुव्वत पैदा हो।और उसके लफ़्ज़ और इशारा-ए-चश्म से नफ़अ’ हासिल करने लगे।और शैख़ के इशारा-ए-चश्म से नफ़अ’ हासिल करने की दो सूरतें हैं।
एक ये कि शैख़ को और उसके आ’माल को देखे कि वो किस तरह ख़ल्वत और जल्वत में मअ’ल-हक़ और मअ’ल-ख़ल्क़ रहता है।शैख़ के अख़्लाक़-ओ-आदाब को देख कर ये सब बातें सीखे और उस तौर-तरीक़े का पाबंद रहे। दूसरी सूरत ये है कि कमाल-ए-सिद्क़-ओ-मोहब्बत की बिना पर जब ये शैख़ की तरफ़ नज़र-ए-मोहब्बत से देखे और शैख़ भी उसकी तरफ़ नज़र-ए-मोहब्बत से देखे तो शैख़ की निगाह से उसके बातिन में नूर और बरकत पैदा होने लगे।इस तरह उसके बातिन में ख़ैर जा-गुज़ीं हो जाए जिस तरह सीप के अंदर मोती मुतमक्किन होता है।
बा’ज़ साँपों में ये तासीर है कि वो जब किसी इन्सान पर नज़र डालें या कोई इन्सान उनकी तरफ़ देख ले तो इन्सान हलाक हो जाए। फिर क्या बई’द है कि बा’ज़ बंदों में (मिन-जानिबिल्लाह)दिलों के ज़िंदा करने की क़ुव्वत पैदा हो जाए।
जब मुरीद-ए-सादिक़ शैख़ की ख़िदमत में रहे तो उसका अदब ये है कि वो अपने इरादे और इख़्तियार से निकल जाए और हत्तल-इम्कान माकूलात-ओ-मल्बूसात और तमाम मुआ’मलात में शैख़ का ताबे’ हो, बिल्कुल उस तरह जिस तरह बच्चा अपने वालिद का ताबे’ होता है। मुरीद के लिए हक़ तक पहुँचने का रास्ता सिवा-ए-शैख़ के और कोई नहीं है।पस शैख़ अबवाब-ए-हक़ से एक खुला हुआ दरवाज़ा है।उसकी तरफ़ रुजूअ’ करके अपने इख़्तियार-ओ-इरादा से थोड़ी सी बरकत हासिल करने वाले और उसकी सोहबत से अदना दर्जा पर क़नाअ’त करने वाले हैं।उनका मुरीद नाम पड़ जाना महज़ रस्मी है,हक़ीक़ी नहीं।
पस मुरीद-ए-हक़ीक़ी को शैख़, ख़िर्क़ा-ए-इरादत उस वक़्त पहनाता है जब पहले उसके बातिन को इरादे और इख़्तियार से इन्ख़िलाअ’ का ख़िर्क़ा पहना देता है।और वो मुरीद जो अलहुब्बीईन में से है उसको शैख़ फ़क़त ख़िर्क़ा-ए-तबर्रुक पहनाता है।और ख़िर्क़ा-ए-तबर्रुक में दवाम-ए-सोहबत और मुलाज़मत शर्त नहीं है।उसके पहनने से मुरीदीन बस शैख़ से (क़द्रे) मुशाबहत हासिल कर लेते हैं और शैख़ के साथ राब्ता-ए-मोहब्बत भी (कुछ) महफ़ूज़ हो जाता है और ब-क़द्र-ए-सोहबत,बरकत-ओ- ख़ैर हासिल कर लेते हैं।पस ख़िर्क़ा-ए-तबर्रुक तो हर उस मुहिब्ब को दिया जा सकता है जो अच्छा गुमान रखता हो और उस ख़िर्क़े को तलब करे।मगर ख़िर्क़ा-ए-इरादत उस शख़्स को ही पहनाया जाता है जो मुस्तक़िल जिद्द-ओ-जहद करे और तरीक़े में इस तरह दाख़िल हो कि अपनी ख़्वाहिशात तर्क कर दे।हादिस तक़्वा इख़्तियार कर के अपने इरादे से निकल जाए।अम्र-ए-हक़ की रिआ’यत मद्द-ए-नज़र रखे।अपनी नज़र को मख़्लूक़ से हटा ले।मख़्लूक़ की न इक़्तिदा करे न उनके इस्तिहसान और पसंदीदगी की।न उनके इस्तिक़बाह और ना-पसंदीदगी की।उसके नज़दीक क़बीह-ओ-ना-पसंदीदा वो हो जिसको शरीअ’त ने क़बीह क़रार दिया है।और हसन-ओ-पसंदीदा वो हो जिसको शरीअ’त ने हसन बताया है।वो हर तकल्लुफ़ से बरी हो।
मुरीद को अपने मशाइख़ के साथ क्या तरीक़ा बरतना चाहिए इसके लिए आँ हज़रत सल्लल्लाहु अ’लैहि वसल्लम के सहाबा का तर्ज़-ए-अ’मल बेहतरीन नमूना है।सहाबा-ए-किराम रज़ी-अल्लाहु अ’न्हुम ने फ़रमाया है कि “हमने बैअ’त की आँ हज़रत सल्लल्लाहु अ’लैहि वसल्लम से, सम्अ’-ओ-ताअ’त पर।ख़ुश-हाली में और तंग-दस्ती-ओ-परेशानी के आ’लम में। जी चाहे या न चाहे हर हाल में।
अल्लाह तआ’ला ने भी अपने कलाम-ए-पाक में ग़ायत-ए-अदब रसूल की तंबीह फ़रमाई है।चुनाँचे इर्शाद फ़रमाया है
‘फ़ला व-रब्बि-क ला-यूमिनू-न हत्ता युहक्किमू-क फ़ीमा शज-र बैनहुम सुम्मा-ला-यजिदू फ़ी-अन्फ़ुसिहिम हरजन मिम्मा कज़ै-त व-युसल्लिमू तस्लीमा।’
(ख़ुदा की क़सम लोग ईमान-दार नहीं होंगे जब तक वो अपने आपसी झगड़ों में आपको हकम न बनाएँ।फिर जो फ़ैसला आप सादिर फ़रमाएं उससे दिल में कोई तंगी महसूस न करें और आपके फ़ैसले को तस्लीम कर लें)।
अल्लाह तआ’ला उम्मत को तहकीम-ए-रसूल का हुक्म फ़रमाता है,उन तमाम मुआ’मलात में जो उसको पेश आएं।अगर्चे इस आयत का सबब-ए-नुज़ूल हज़रत ज़ुबैर इब्न-ए-अ’वाम वग़ैरा का मुक़द्दमा है ज़मीन के बारे में।लेकिन ए’तबार उ’मूम-ए-लफ़्ज़ का होता है न कि ख़ुसूसी वाक़िआ’ का। अल्लाह तआ’ला ने पहले तहकीम (सालिस बनाने) का हुक्म फ़रमाया।उसके बा’द तंगी-ए-क़ल्ब ज़ाइल करने का। इसलिए कि तहकीम वज़ीफ़ा-ए-ज़ाहिर और अदब-ए-ज़ाहिर है।और ज़वाल तंगी-ए-क़ल्ब-ओ-वज़ीफ़ा-ए-बातिन और अदब-ए-बातिन है। बा’ज़ लोग हकम बनाने पर तो क़ादिर होते हैं मगर ख़िलाफ़-ए-मिज़ाज फ़ैसले की सूरत में तंगी-ए-क़ल्ब के इज़ाले पर आमादा नहीं होते। मुम्किन है कि वो मुरीद-ए-रस्मी जिसने ख़िर्क़ा-ए-तबर्रुक पहना है फ़क़त साहिब-ए-तहकीम की हैसियत में दाख़िल हो जाए और जिसने ख़िर्क़ा-ए-इरादत पहना है वो इज़ाला-ओ-हरज वाला हो।हमने जो कुछ ज़िक्र किया है मुरीद के अपने शैख़ के मुक़ाबले में अपने इख़्तियार से बाहर आ जाने के मुतअल्लिक़ वो इस आयत-ए-करीमा के मफ़्हूम में दाख़िल है।जब मुरीद शैख़ के साथ अदब का रास्ता इख़्तियार करने का इरादा करे तो वो क़ुरआन-ए-मजीद के ज़रिआ’ अदब सीखे।और तंबीह हो उस हिदायत से जो अल्लाह तआ’ला ने उम्मत-ए-मोहम्मदिया को सोहबत-ए-रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अ’लैहि वसल्लम के बारे में फ़रमाई है।चुनाँचे सूरा-ए-हुजरात में है
‘या-अय्युहल-लज़ी-न आमनू ला-तुक़द्दिमू बैन यदयिल्लाहि-व-रसूलिहि (इला क़ौलिहि)व-लौ-अन्नहुम सबरु-हत्ता तख़्रु-ज इलैहिम ल-कान-ख़ैरल्लहुम व-ल्लाहु ग़फ़ूरुर्रहीम।’
पस मुरीद ग़ौर करे और सीखे उस अदब को जो कलामुल्लाह में है।सूरा-ए-नूर में है
‘इन्नमल-मूमिनूनल-लज़ीन-आमनू बिल्लाहि-व-रसूलिह व-इज़ा कानू मअ’हु अ’ला अमरिन जामिइ’न लम-यज़्हबू हत्ता यस्ताज़िनूहु’
(दर-हक़ीक़त ये है कि ईमान लाने वाले बंदे बस वही हैं जो ईमान लाए अल्लाह और उसके रसूल पर और जिनका अ’मल ये है कि जब वो किसी इज्तिमाई’ मुहिम में रसूल के साथ हों तो उससे इजाज़त लिए बग़ैर कहीं न जाएँ।)
इस आयत से दलालत हो रही है इस बात पर जिसको हमने ज़िक्र किया है। या’नी शैख़ की सोहबत और उससे मुफ़ारक़त, बसीरत के साथ हो। बहुत सी आयात में ये मा’नी मौजूद हैं जो तलाश करेगा वो कलामुल्लाह में पाएगा। मुरीदीन को जिन बातों का हुक्म दिया जाए उस में बड़ी तफ़्सील है।लेकिन जिस बात की ताकीद पहले की गई वो ये है कि तज्दीद-ए-तौबा करे।इसलिए कि तौबा ही काम की जड़ और बुनियाद है।तौबा पर मुरीद क़ादिर नहीं हो सकता सिवा-ए-दवाम-ए-मुहासबा की मदद के।जैसा कि बुज़ुर्गों ने फ़रमाया है।मुहासबा करो(दुनिया में) अपने नफ़्सों का, इस से पहले कि मुहासबा किए जाओ(या’नी क़ियामत में)।और उस का तरीक़ा ये है कि अपने नफ़्स का मुहासबा हर फ़र्ज़ नमाज़ के बा’द करे।
जब सच्चाई के साथ मुहासबे पर मुदावमत करेगा तो उसकी लग़्ज़िशें कम होती जाएँगी यहाँ तक कि मा’दूम हो जाएंगी।जब मुहासबे का हक़ अदा होगा तो क़ौल-ओ-फ़े’ल में जो ला-या’नी बातें होती हैं उनसे बाज़ रहेगा अगर्चे वो मुबाह ही क्यूँ न हो।उस वक़्त उसकी फ़ुज़ूलियात कम होंगी और उसका ज़ाहिर “सियासत-ए-इ’ल्म’’ के क़ब्ज़े में होगा।फिर इस बात की तवक़्क़ोअ’ होगी कि वो मक़ाम-ए-मुराक़बा तक तरक़्क़ी करे और उसका बातिन भी ज़ाहिर की तरह सियासत-ए-इ’ल्म के मा-तहत हो जाए।मुराक़बा, इस्तिलाह-ए-सूफ़िया में ये है कि अपने क़ल्ब को इस बात की तरफ़ मुतवज्जेह रखे कि अल्लाह तआ’ला उसको देख रहे हैं।उस वक़्त वो अल्लाह तआ’ला से पूरी तरह शरमाएग और ज़मीर के ख़तरात से भी इस तरह परहेज़ करे जिस तरह हरकात-ए-जवारिह से परहेज़ करता है।फिर उस मक़ाम से तरक़्क़ी कर के मक़ाम-ए-मुशाहदा तक पहुँचेगा और उसका ये कहना सही होगा कि मेरे क़ल्ब ने रब को देखा।यही मक़ाम-ए-एहसान है जिसकी तरफ़ आँ-हज़रत सल्लल्लाहु अ’लैहि व-सल्लम ने अपने इस क़ौल-ए-मुबारक में इशारा फ़रमाया है
‘अन तअ’बुदल्ला-ह क-अन्न-क तराहु’
(या’नी एहसान ये है कि तू अल्लाह तआ’ला की इस तरह इ’बादत करे गोया कि उसे देख रहा है।)
अर्बाब-ए-मुशाहदा के मवाजीद मुख़्तलिफ़ होते हैं मगर उसूल में सब मुत्तफ़िक़ हैं। फ़क़त फ़ुरूअ’ में इख़्तिलाफ़ होता है।वो अस्बाब जो मुआस्सिर हैं और मुरीद के लिए ख़ैर-ए-कसीर को खींचने वाले हैं चार हैं।तमाम मशाइख़-ए-सूफ़िया, इन चार चीज़ों और उनके हुस्न-ए-तासीर पर मुत्तफ़िक़ हैं।और वो ये हैं।क़िल्लत-ए-कलाम,क़िल्लत-ए-तआ’म,क़िल्लत-ए-मनाम,क़िल्लत-ए-इख़्तिलात मअ’ल-अनाम (या’नी लोगों से बिला ज़रूरत मिलने-जुलने से बचना)।मुरीद को चाहिए की इन चार बातों का ख़याल रखे।और जो कुछ हम ने बयान किया है ये अहवाल-ए-मशाइख़ हैं और उनकी हिदायात और निहायात हैं।और ये सब बातें मीरास-ए-रसूल सल्लल्लाहु अ’लैहि व-सल्लम हैं।
मशाइख़ को ये मीरास, हुस्न-ए-मुताबअ’त–ए-रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अ’लैहि व-सल्लम और अपने शुयूख़ के साथ सिद्क़-ए-सोहबत की बरकत से मिली है।
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