शैख़ फ़रीदुद्दीन अत्तार और शैख़ सनआँ की कहानी
शैख़ फ़रीदुद्दीन अ’त्तार ने अपनी सूफ़ियाना शाइरी से फ़ारसी सूफ़ी साहित्य को विश्व भर में स्थापित कर दिया। शैख़ फ़रीदुददीन अ’त्तार के समक्ष मौलाना रूमी अपने आप को तुच्छ समझते थे –
हफ़्त शहरे इश्क़ रा अत्तार गश्त
मा हनुज़ अन्दर ख़म-ए-यक कूच:ऐम
(अर्थात – अ’त्तार ने इश्क़-ए-हक़ीक़ी के सातों शहरों का भ्रमण कर लिया है परन्तु हम अभी पहली गली के मोड़ पर खड़े हैं ।)
मौलाना रूमी एक जगह और लिखते हैं –
मन आँ मुल्ला-ए-रूमीअम कि अज़ नुत्क़म शकर रेज़द
व लेकिन दर सुख़न गुफ़्तन ग़ुलाम-ए-शैख़ अत्तारम
(अर्थात – मैं रूम का वह मुल्ला हूँ ,जिसकी ज़बान से मधुरता टपकती है लेकिन शे’र कहते समय मैं शैख़ अ’त्तार का दास हूँ !)
शैख़ अ’त्तार का नाम मुहम्मद,लक़ब फ़रीदुद्दीन और ‘फ़रीद’ तथा अ’त्तार उपनाम था। इनका जन्म कदगन नामक गाँव में हुआ था जो निशापुर के समीप स्थित है। इसीलिए इन्हें निशापुरी भी कहा जाता है।
उनके पिता इब्राहीम बिन इसहाक़,अत्तार थे और इत्र तथा दवाइयों का कारोबार करते थे। पिता के देहांत के बा’द शैख़ अ’त्तार ने अपने पिता का काम काज संभाल लिया .उन्होंने ख़ुसरौ नामा में लिखा है –
व दारु ख़ान: पंज सद शख़्स बूदंद
कि दर हर रोज़ नब्ज़म मी नुमूदंद .
(अर्थात – औषधालय में पांच सौ व्यक्ति प्रतिदिन नाड़ी परीक्षा करवाते थे ।)
उनकी विरक्ति के सम्बन्ध में एक घटना प्रसिद्ध है। इस घटना का उल्लेख मौलाना शिब्ली ने शेर-उल-अ’जम में किया है .
एक दिन शैख़ फ़रीदुद्दीन अ’त्तार अपनी दुकान पर बैठे हुए थे। कहीं से एक फ़क़ीर वहां आ पहुंचा और उनकी दुकान की ठाट बाट को देर तक देखता रहा। शैख़ ने झल्ला कर उस से कहा –क्यों व्यर्थ अपना समय नष्ट करते हो, जाओ और अपनी राह लो !
फ़क़ीर ने कहा –तुम अपनी चिंता करो ! मेरा जाना कौन सा कठिन कार्य है ? लो ! मैं चला ! यह कह कर वह वहीं लेट गया। शैख़ अ’त्तार ने जब उठकर देखा तो उस के प्राण निकल चुके थे। इस घटना ने शैख़ फ़रीदुद्दीन अ’त्तार के ह्रदय में विरक्ति की लौ लगा दी। उन्होंने खड़े खड़े अपनी दुकान लुटवा दी और फ़क़ीर बन गए।
शैख़ अ’त्तार ने कई देशों का भ्रमण किया और अनेक सूफ़ियों से मिले । उन्होंने अपने समय के प्रसिद्ध सूफ़ी शैख़ रुक्नुद्दीन को अपना मुर्शिद बनाया। लताइफ़ु-तवाइफ में मंगोलों द्वारा उनकी हत्या के सम्बन्ध में दो रुबाइयाँ मिलती हैं। मौलाना अ’ली बिन सफ़ी बिन मुल्ला हुसैन वाइज़ काश्फ़ी (मृत्यु सन-1533 ई .) ने लिखा है कि मैंने अपने वालिद से सुना है कि जब निशापुर में हुए क़त्ल-ए-आ’म के समय हलाकू ख़ान के एक सैनिक ने शैख़ को शहीद किया तो उन्होंने यह रुबाई कही –
दर राह-ए-तू रस्म-ए-सरफ़राज़ी ईं अस्त
उश्शाक़-ए-तुरा कमीन:बाज़ी ईं अस्त
बा ईं हम: अज़ लुत्फ़-ए-तू नौमीदनेम
शायद कि तुरा बंद:-नवाज़ी ईं अस्त .
(अर्थात –तेरे पथ में सम्मानित और प्रतिष्ठित होने की यही एक रीति है। यह तो तेरे आशिक़ों का तुच्छ सा बलिदान है। मैं तेरी अनुकम्पा से निराश नहीं हूँ । शायद यही तेरी भक्त वत्सलता है ।)
इसके पश्चात इसी लेखक ने लिखा है कि जब हलाकू ने निशापुर में क़त्ल-ए- आ’म किया तो मंगोल सैनिकों में से एक ने शैख़ अ’त्तार का हाथ पकड़ा हुआ था और क़त्ल करने ले कर जा रहा था। शैख़ उस समय मस्ती की अवस्था में थे। उन्होंने उस सैनिक को निहारा और फ़रमाया –तू ने नमदे का ताज पहना हुआ है और हिन्दुस्तानी तलवार कमर पर बाँधी हुई है। तू समझता है कि मैं तुझे नहीं पहचानता ? यह सुनते ही सैनिक ने तलवार निकाली और शैख़ को घुटनों के बल बिठाया। शैख़ ने तब यह आख़िरी रुबाई पढ़ी –
दिलदार ब-तेग़ बुर्द दस्त ऐ दिल बीं
बर बंद मियान-ओ-बर सर पा ब-नशीँ
वांग ब-ज़बान-ए-हाल मी-गो कि ब-नोश
जाम अज़ कफ़-ए-यार व शर्बते बाज़-पसीं .
(अर्थात – ऐ दिल ! देख प्रियतम ने अपना हाथ तलवार की तरफ़ बढाया है .तू अपनी कमर बांध ले ! पाँव के बल बैठ जा और फिर हाल की ज़बान से कह कि यार के हाथ से शराब का प्याला ! और आख़िरी वक़्त का शरबत पी !)
शैख़ अ’त्तार को लिखने का नशा था। सूफ़ी कवियों में संभवतः सब से अधिक किताबें शैख़ फ़रीदुद्दीन अ’त्तार ने लिखी है। इनकी लिखी अनेक किताबों में से अब प्रायः 35 किताबें ही मिलती है। इसका सब से बड़ा कारण यह है कि जब शैख़ अ’त्तार की मृत्यु हुई उस समय चंगेज़ी तूफ़ान ने पूरा ईरान नष्ट भ्रष्ट कर रखा था। जो ग्रन्थ अब मिलते हैं वो वस्तुतः कुछ भले लोगों द्वारा सहेज कर रखने का परिणाम है।
इनकी रचनाओं में कई मसनवियाँ, एक दीवान और एक गद्य ग्रन्थ भी है। तज़किरात-उल-औलिया में इन्हों ने सूफ़ी संतों का जीवन चरित बड़ी रोचक भाषा में लिखा है। दीवान में ग़ज़लें, क़सीदे, क़तआ’त और रुबाइयाँ शामिल हैं।
दूसरे शाइरों की प्रकृति के विपरीत उन्होंने जीवन भर किसी की शान में कुछ नहीं लिखा। वह स्वयं फ़रमाते हैं – मैंने जीवन भर किसी की ता’रीफ़ में कुछ नहीं कहा। मैंने दुनियां के लिए मोती नहीं पिरोए।
इनकी रुबाइयाँ बड़ी उच्च कोटि की हैं –
चूं ज़र्र: ब–ख़ुर्शीद-ए-दरूख्शां पैवस्त
चूं क़तर:-ए- सरगश्त: ब-उम्माँ पैवस्त
जाँ बूद मियान-ए-वै व जानाँ हाएल
फ़िलहाल कि जाँ दाद ब-जानाँ पैवस्त
(अर्थात –वह एक ज़र्रे की भांति चमकते हुए आफ़ताब में मिल गया, एक भटकते हुए बिंदु की तरह समुद्र में लीन हो गया। उस के और महबूब के बीच यह जान एक बाधा थी। जैसे ही उसने अपनी जान न्योछावर की वह महबूब में मिल गया।
शैख़ फ़रीदुद्दीन अ’त्तार की प्रसिद्धि उनकी मसनवियों की वजह से है। इन मसनवियों में कहानियों के द्वारा तसव्वुफ़ के गूढ़ रहस्यों को भी ऐसे समझाया गया है कि नीरस विषय भी रोचक हो जाता है। इनकी मसनवियों में सर्वाधिक लोकप्रिय ‘मंतिक़ुतत्तैर’ है .
शैख़ फ़रीदुद्दीन अ’त्तार के काल में सूफ़ीवाद का विकास बड़ी तीव्र गति से हुआ। इसका एक बड़ा कारण तातारियों के लगातार हो रहे हमले थे। जगत की क्षणभंगुरता और अस्थिरता, जिसका सूफ़ी बार बार इशारा करते थे, वह प्रत्यक्ष हो गयी। इस परिस्थिति में संसार से विरक्ति और ईश्वर के प्रति आकर्षण स्वाभाविक था। इस समय अपने रचनात्मक, दार्शनिक और रहस्यवादी काव्य से शैख़ अ’त्तार ने फ़ारसी काव्य को इतना समृद्ध कर दिया कि इसकी बुनियाद पर सूफ़ी दर्शन अब मज़बूती के साथ स्थापित हो गया था।
हज़रत शैख़ फ़रीदुद्दीन अत्तार की ग़ज़लें भारतीय ख़ानक़ाहों में क़व्वालों द्वारा ख़ूब गाई जाती हैं . एक ग़ज़ल अनुवाद के साथ प्रस्तुत है –
क़िब्ल:-ए-ज़र्रात-ए-आ’लम रू-ए-तुस्त
का’ब:-ए-औलाद-ए-आदम सू-ए-तुस्त
मैल-ए-खल्क़ -ए-हर-दो-आ’लम ता-अबद
गर शनासन्द व अगर न सू-ए-तुस्त
हर परेशानी कि दर हर-दो-जहाँ
हस्त-ओ-ख़्वाहद बूद अज़ गेसू-ए-तुस्त
हर कुजा दर हर-दो-गेती फ़ित्नः ईस्त
तुर्कताज़ -ए-तुर्र:-ए-हि न्दू-ए-तुस्त
नीस्त पि न्हाँ आँ कि अज़ मन दि ल रूबूद
हस्त हम-चूँ आफ़्ता ब आँ रू-ए-तुस्त
ईं हम: ‘अ’त्तार’ दूर अज़ रु-ए-तू
दर्द अज़ आँ दारद कि दूर अज़ रू-ए-तुस्त
अनुवाद –
दुनिया के ज़र्रों का क़िब्ला तुम्हारा चेहरा है
औलाद-ए-आदम का का’बा तू ही है
क़यामत तक तू ही दोनों लोकों के लोगों की तलब है
लोग इस बात को मानें या न मानें
दोनों लोकों में जो भी परेशानी है
उस का कारण सिर्फ़ और सिर्फ़ तुम्हारे बाल हैं
दोनों लोकों में जहाँ कहीं भी उपद्रव है
वो तुम्हारे तिल ही का चमत्कार है
जिसने मेरा दि ल चुराया उस के बारे में सबको मा’लूम है कि
वह सूर्य की तरह चमकने वाला तुम्हारा ही चेहरा है
ऐ ‘अ’त्तार’ ये सब तुम्हारी नि गाहों से दूर है
ये दर्द वहाँ से उठता है जहाँ तुम्हारी नज़र नहीं है
शैख़ फरीदुद्दीन अत्तार द्वारा लिखित शैख़ सनआँ की कहानी बड़ी प्रसिद्ध है. एक प्रेम कहानी के माध्यम से अत्तार साहब ने प्रेम और तसव्वुफ़ की एक अनोखी रचना रची है . यह कहानी मंतिक़ उत तैर में मिलती है . अपने पाठकों के लिए हम यह पूरी कहानी मूल फ़ारसी और अनुवाद के साथ पेश कर रहे हैं .
हिकायत शैख़ सनआँ
शैख़ सनआँ पीर अहद-ए-ख़्वेश बूद ।
दर कमाल अज़ हर चे गोयम बेश बूद ।।
शेख़ सनआँ अपने समय के एक बहुत बड़े सूफ़ी थे। उनकी करामातों के बारे में जितना भी कहा जाय वह कम है।
शैख़ बूद ऊ दर हरम पंजाह साल ।
बा मुरीदाँ चार सद साहब कमाल ।।
काबे की मस्जिद में पचास वर्षों तक उन्होंने फेरी लगाई । चार सौ पहुँचे हुए सूफ़ी उनके मुरीद थे ।
हर मुरीदे कान-ए ऊ बूद ऐ अ’जब ।
मी नआसूद अज़ रियाज़त रोज़-ओ-शब ।।
आश्चर्य यह है कि जो कोई भी साधु उनके दर्शन करता था, वह फिर अहर्निश ध्यान-मग्न और ईश्वर के भेद को जानने में व्यस्त रहता था।
हम अ’मल हम इ’ल्म बाहम यार दाश्त ।
हम अयाँ हम कश्फ़ हम असरार दाश्त ।
ज्ञान और विद्या के अतिरिक्त उनकी अन्तर्दृष्टि बहुत ही पैनी थी और सब बातें उन पर प्रकट थी। ठीक-ठीक सभी भेदों का उन्हें ज्ञान था।
क़ुर्ब पंजह हज बजा आवर्द: बूद ।
उ’मरा उमरे बूद ता मी कर्द:बूद ।
उन्होंने पचास हज किये थे । और उ’मरे में तो उन्होंने अपनी सारी उम्र व्यतीत कर दी थी।
हम सलात-ओ-सौम बे-हद दाश्त ऊ ।
हेच सुन्नत रा फ़रो न-गुज़ाश्त ऊ ।।
व्रत और उपवास भी वह बहुत अधिक रख़ते थे और किसी भी व्रत को खाली नहीं जाने देते थे।
पेशवायाने कि दर इश्क़ आमदंद ।
पेश-ए-ऊ अज़ ख़्वेश बे-ख़्वेश आमदंद ।।
बड़े बड़े सन्यासी और त्यागी जो उनके पास आते थे वह अपने आप को भूल जाते थे।
मू-ए-मी ब-शकाफ़्त मर्द-ए-मा’नवी ।
दर करामात-ए-मक़ामात-ए-क़वी ।।
वह सैकड़ों करामातें दिखला सक़ते थे। योग विद्या के वह पूर्ण ज्ञाता थे।
हर कि बीमारी व सुस्ती याफ़्ते ।
अज़ज दम-ए-ऊ तंदुरूस्ती याफ़्ते ।।
उनमें ऐसी शक्ति थी कि रोगी मनुष्य उनकी फूँक मात्र से स्वस्थ हो जाता था।
ख़ल्क रा फ़िलजुमल: दर शादी-ओ- ग़म ।
मुक़तदाए बूद दर आ’लम अलम ।।
संसार के सुख-दुःख़ उनके लिये समान थे। वह संसार भर में प्रसिद्ध थे।
गर चे ख़ुद रा किदव-ए-असहाब दीद ।
चंद शब ऊ हम चुनाँ दर ख़्वाब दीद ।।
जब उन्होंने अपने आपको सूफ़ियों में एक श्रेष्ठ सूफ़ी के रूप में देखा तो कई दिनों तक लगातार एक स्वप्न देखा
कज़ हरम दर राहश उफ़ताद: मकाम ।
सज्दा मी करदे बुते रा बर दवाम ।।
कि काबे की मस्जिद से आते हुए मार्ग में वह एक जगह पर पड़े हुए हैं और वहाँ एक मूर्ति की पूजा कर रहें हैं।
चूँ बदीद आँ ख़्वाब बेदार-ए-जहाँ ।
गुफ़्त दर्दा व दरेगां इं ज़माँ ।।
जब संसार के रहस्यों से परिचित सूफ़ी ने यह स्वप्न देखा तो उनके मुख से आह निकल पड़ी।
यूसुफ़-ए-तौफ़ीक़ दर चाह ऊफ़्ताद ।
उक़्ब:-ए दुशवार दर राह ऊफ़्ताद।।
सच्चे युसुफ़ कुएँ में गिर पड़े, और एक बहुत भयंकर घाटी मार्ग में आ गई।
मी नदानम ता अज़ीं ग़म जाँ बरम ।
तर्क-ए-जाँ गुफ़्तम अगर ईमाँ बरम ।।
मुझे यह ज्ञात नहीं है कि मैं इस शोक से अपने आपको कैसे बचा सक़ूँगा और यदि किसी प्रकार धर्म को बचा भी लिया तो अवश्य प्राणों की आहुति देनी पड़ेगी ।
नीस्त यक तन दर हम: रू-ए-ज़मीं ।
कू नदारद उक़्ब:-ए-दर रह चुनीं ।।
पूरे संसार में, कोई भी ऐसा मनुष्य नहीं है, जिसे मार्ग में ऐसी घाटी न मिलती हो।
गर कुनद आँ उक़्ब: क़तअ’ आँ जायगाह ।
राह रौशन गर्ददश ता पेशगाह ।।
यदि इस घाटी को वह पार कर जाता है तो अपने अभीष्ट तक पहुँचने का सीधा मार्ग उसे प्राप्त हो जाता है।
वर बमानद दर पस-ए- आँ उक़्ब: बाज़ ।
दर उक़ूबत रह शवद बर वै दराज़ ।।
यदि उस घाटी में वह भटक जाता है तो मुसीबतों के कारण उसका रास्ता लम्बा हो जाता है।
आख़िरुलअम्र आँ ब-दानिश ऊस्ताद ।
बा मुरीदां गुफ़्त कारम ऊफ़्ताद ।।
उन्होंने अपने आस-पास बैठे हुए मुरीदों से कहा कि मुझे एक बड़ा काम पड़ गया है।
मी ब-बायद रफ़्त सूए रूम ज़ूद ।
ता शवद ता’बीर-ए-ईं मा’लूम ज़ूद ।।
उसके भेद को समझने के लिये मुझे शीघ्र ही रूम की ओर जाना है।
चार सद मर्द-ए-मुरीद-ए-मो’तबर ।
हमरही करदन्द बा ऊ दर सफ़र ।।
चार सौ बड़े पहुंचे हुए मुरीद भी शेख़ के साथ हो लिये।
मी शुदंद अज़ का’बा ता अक़्सा-ए-रूम ।
तौफ़ मी कर्दंद सर ता पाए रूम ।।
वह का’बे से लेकर रूम की अंतिम सीमाओं तक और समस्त रूम में भ्रमण करते हुए गये।
अज़ क़ज़ा रा बूद आ’ली मंज़रे ।
बर सर-ए-मंज़र नशिस्त: दुख़तरे ।।
संयोग से एक दिन उन्होंने एक बहुत ऊँची अट्टालिका देखी, जिसमें एक लड़की बैठी थी।
दुख़तरे तरसा-ए-रूहानी सिफ़त ।
दर रह-ए-रूहुल्लाह अश सद मा’रफ़त ।।
वह लड़की (गुबरा) ईसाई थी। पवित्र उज्ज्वलता उसके मुख से प्रकट हो रही थी और वह अपने धर्म तथा आत्मा से सम्बन्ध रख़ने वाली सैकड़ों बातों से भली भाँति परिचित थी।
दर सिपहर-ए-हुस्न दर बुर्ज-ए-जमाल ।
आफ़ताबे बूद अम्मा बे-ज़वाल ।।
वह बड़ी ही रूपवती और लावण्यमयी थी। उसका सौंदर्य घटने-बढ़ने वाले सूर्य के समान प्रक़ाशमान था।
आफ़ताब अज़ रश्क़-ए-अक़्स-ए-रूए ऊ ।
ज़र्दतर अज़ आशिक़ान-ए- कु-ए-ऊ ।।
सूर्य, उसके सौन्दर्य के आगे लज्जित होकर फीका पड़ रहा था और उसकी प्रभा, उन प्रेमियों के रंग से भी अधिक ज़र्द हो रही थी जो उसकी गली में पड़े हुए थे।
हर कि दिल दर ज़ुल्फ़ आँ दिलदार बस्त ।
अज़ ख़याल-ए-ज़ुल्फ़-ए-ऊ ज़ुन्नार बस्त ।।
जिस किसी ने उसे प्रेम की दृष्टि से देखा वह फिर उसी के ख़याल में डूबा रह गया ।
हर कि जाँ दर ला’ल-ए-आँ दिलबर निहाद ।
पाए दर रह ना निहाद: सर निहाद ।।
जिस किसी ने अपने प्राण उसके होंठों से लगा दिये, उसने प्रेम मार्ग में क़दम रखने से पहले ही अपना शिर दे डाला।
चूँ सबा अज़ ज़ुल्फ़-ए-आँ मुशकीं शुदे ।
रूम अज़ आँ मुश्कीं सिफ़त पुरचीं शुदे ।।
जब शीतल पवन उसके गेसुओं से क़स्तूरी की सुगन्ध लेकर उड़ती तो रूम में एक प्रकार की आनन्ददायक मस्ती की लहर सी दौड़ जाती।
हर दो चशमश फ़ित्न-ए उश्शाक़ बूद ।
हर दो अबरूयश ब-ख़ूबी ताक़ बूद ।।
उस प्रियतमा के वे दोनों नेत्र प्रेमियों को व्याकुल बनाने वाले थे और उसके मुख पर बिखरी हुई अलकें उन्हें और भी बेचैन कर रही थी। उसकी दोनों भँवों की शोभा लासानी थी।
चूँ नज़र बर रू-ए-उश्शाक़ ऊ फ़िगन्द ।
जाँ बदस्त-ए-ग़म्ज़: बर ताक़ ऊ फ़िगन्द ।।
जब वह अपने प्रेमियों पर दृष्टि डालती थी तो उनके प्राण व्याकुल होकर निकलने के लिये फड़फड़ाने लगते थे।
अबरुयश बर माह ताके बस्ता बूद ।
मरदुमे बर ताक़-ए-ऊ बनिशिस्ता बूद ।।
उसकी भँवों ने चंद्रमा के ऊपर एक ताक सा बना दिया था और उसमें एक मनुष्य बैठा हुआ था।
मरदुम-ए-चशमश चू कर्दी मरदुमी ।
सैद कर्दी जाने सद सद आदमी ।।
उसके नेत्र की पुतलियाँ जब अपनी वीरता प्रदर्शित करती थी तो सैकड़ों मनुष्यों के प्राणों का आखेट करती थी।
रूए ऊ दर ज़ेर-ए-ज़ुल्फ़-ए-ताबदार ।
बूद आतिश पार:-ए-बस आबदार ।।
उसका मुख उसकी सियाह अलकों के नीचे अत्यन्त प्रकाशित हो रहा था।
ला’ले सैराबश जहाने तिश्ना दाश्त ।
नरगिस-ए-मस्तश हज़ाराँ दशन: दाश्त ।।
उसके सुन्दर होंठ एक संसार को प्रेम से परिपूर्ण कर देने वाले थे और उसकी मतवाली आँखों में हज़ारों ख़ंजरों की काट छिपी हुई थी।
हर कि सू-ए-चश्म-ए-ऊ तिश्ना शुद ।
दर दिल-ए-ऊ हर मिज़: सद दशन: शुद ।।
जो मनुष्य उसके सौन्दर्य रूपी चश्मे के जल को पीना चाहता था उसके हृदय के अन्दर प्रतिपल सौ ख़ंजरों के चोट सी पीड़ा होती थी।
गुफ़्त रा चूँ बर दहानश रह नबूद ।
वज़ दहानश हर कि गुफ़्त आगह नबूद ।।
जब वह नहीं बोलती थी तो उस समय उसके मुख का पता भी नहीं चलता था।
हमचु चश्म-ए-सोज़नी शक़्ल-ए-दहाँश ।
बस्त: ज़ुन्नारे चु ज़ुल्फ़श बर मियाँश ।।
उसका मुख एक सुई की नोक के समान था। वह अपनी कमर में अपनी अलकों के रंग का काला दुपट्टा बाँधे हुए थी।
चाह-ए-सीमीं दर ज़नख़दाँ दाश्त ऊ ।
हमचूं ई’सा दर सुख़न आँ दाश्त ऊ ।।
और उसकी ठुड्डी में सफेद चाँदी का सा गड्ढा था। वह ईसा के समान मृतकों को भी जीवन प्रदान करने वाली मीठी बातें किया करती थी।
सद हज़ाराँ दिल चुँ यूसुफ़ ग़र्क़-ए-ख़ूं ।
उफ़्ताद: दर चह-ए-ऊ सर निगूँ ।।
सैकड़ों मनुष्य उसके प्रणय में मतवाले होकर यूसुफ के समान कुएँ में गिर पड़े थे।
गौहरे ख़ुर्शीदवश दर मू-ए-दाश्त ।
बुरक़-ए शा’रे सियाह बर रूए दाश्त ।।
उसके काले केशों में सूर्य के समान चमक़दार एक मोती लगा हुआ था और वह अपने मुख पर सियाह बालों का घूँघट डाले हुए थी।
दुख़तर-ए-तरसा चु बुर्क़ा बर गिरफ़्त ।
बंद बन्द-ए-शैख़ आतिश दर गिरफ़्त ।।
उस ईसाई बाला ने जब अपने मुख से घूँघट हटा दिया तो शेख़ के शरीर के प्रत्येक जोड़ में आग सी लग गई।
चूँ नमूद अज़ ज़ेर-ए-बुर्क़ा’ रू-ए-ख़्वेश ।
बस्त सद ज़ुन्नार अज़ यक मू-ए-ख़्वेश ।।
घूँघट उसके मुख से जैसे ही दूर हुआ वैसे ही शेख़ उसके प्रणय-पाश में बँध गया। उसने अपने एक ही बाल से सहस्रों जनेऊ पहना दिये।
गरचे शेख़ आँ जा नज़र दर पेश कर्द ।
इश्क़-ए-आँ बुत रु-ए-कार-ए- ख़्वेश कर्द ।।
शेख़ ने यद्यपि अपनी दृष्टि वहाँ से हटाने का प्रयत्न किया। परन्तु उस ईसाई बाला का प्रेम अपना काम कर गया।
शुद दिलश अज़ दस्त-ओ-दर पा ऊफ़्ताद ।
जाए आतिश बूद-ओ-बर जा ऊफ़्ताद ।।
शेख़ का हृदय उसके वश में नहीं रहा और फिर वह उस बाला के पैरों पर गिर गया। उसका हृदय जल रहा था वह ठीक समय पर उचित स्थान पर जा गिरा।
हर चे बूदश सर बसर नाबूद शुद ।
ज़े आतिश-ए-सौदा दिलश पुर दूद शुद ।।
जो कुछ भी उसके पास था, सब नष्ट हो गया और प्रणय की अग्नि से उसका हृदय जलने लगा।
इश्क़-ए-दुख़तर कर्द ग़ारत जान-ए-ऊ ।
कुफ्र रेख़्त अज़ ज़ुल्फ़ बर ईमान-ए-ऊ ।।
उस लड़की के प्रेम ने उसके प्राण लूट लिये और उसकी काली अलकों ने उसका उसका धर्म छीन लिया।
शेख़ ईमाँ दाद तरसाई ख़रीद ।
आफ़ियत बफ़रोख़्त रुस्वाई ख़रीद ।।
शेख़ ने बेचैनी ले ली और अपने सुख़ को बेचकर बदनामी मोल ले ली। उसने ईमान बेच बुतपरस्ती खरीद ली।
इश्क़ बर जान-ओ-दिल-ए-ऊ चीर शुद ।
ता ज़े दिल नौमीद वज़ जाँ सीर शुद ।।
प्रणय का अधिक़ार उसके प्राणों और हृदय पर हो गया। यहाँ तक कि वह अपने दिल से निराश और जान से तंग आ गया।
गुफ़्त चू दीं रफ़्त चे जाए दिलस्त ।
इश्क़-ए-तरसाज़ाद: कारे मुश्क़िलस्त ।।
उसने कहा कि जब धर्म ही चला गया तो फिर दिल की क्या चिन्ता है। ईसाई बाला का प्रेम बड़ी कठिन समस्या है।
चूँ मूरीदानश चुनाँ दीदन्द ज़ार ।
जुमल: दानिस्तन्द कुफ़्तादस्त कार ।।
जब उसके चेलों ने उसे इस प्रकार व्याक़ुल देखा तो सबने समझ लिया कि कोई बड़ी जटिल समस्या आ उपस्थित हुई है।
सर बसर दर कार-ए-ऊ हैराँ शुदन्द ।
सर निगूं गश्तन्द -ओ-सर गरदां शुदन्द ।।
सबके सब उसके विषय में सोच करने लगे और सिर झुका कर बैठ गये।
पन्द दादन्दश बसे सूदे न दाश्त ।
बूदनी चूं बूद बहबूदे नदाश्त ।।
सबने शेख़ से बहुत कुछ कहा, शिक्षाएं दी, पर उसके ऊपर कोई असर नहीं हुआ। जो होनी थी वह हो चुकी थी, अब उसके लिये कुछ नही किया जा सकता था।
हर कि पंदश दाद फ़रमाँ मी नबुर्द ।
जाँ कि दुर्दश हेच दरमाँ मी न बुर्द ।।
किसी की भी शिक्षा का असर उसके ऊपर नहीं हुआ । वह किसी का कहना नही मानता था। उसे ऐसा रोग हो गया था जिसकी कोई औषधि नहीं थी।
आशिके-ए-आशुफ़्त: फ़रमाँ चूं बरद ।
दर्द-ए-दरमॉ सोज़-ए-दरमाँ चूं बरद ।।
आकुल हृदय प्रणयी किसी से आज्ञा किस प्रकार ले और उस रोग पर, जो सभी औषधियों को व्यर्थ प्रमाणित कर चुका हो, कोई औषधि अपना असर किस प्रकार दिखलावे।
बूद ता शब हम चुनाँ रोज़-ए-दराज़ ।
चश्म बर मंज़र दहानश माँद: बाज़ ।।
बहुत दिनों तक शेख़ इसी अवस्था में रहा । उसकी आँख उस कोठे पर लगी रहती और मुख आश्चर्य से खुला रहता ।
हर चराग़े काँ शब अख़्तर दर गिरफ़्त ।
अज़ दिल-ए-आँ पीर-ए-ग़मख़ुर दर गिरफ़्त ।।
रात्रि अपने वक्ष स्थल पर हज़ारों तारे रुपी दीपकों को धारण करके आती पर ऐसा ज्ञान होता था मानों वह उसी दुखितहृदय वृद्ध के हृदय की अग्नि से जलाए गए हो।
यक दमश नै ख़्वाब बूद-ओ-नै क़रार ।
मी तपीद अज़ इश्क़-ओ-मी नालीद ज़ार ।।
क्षण भरके लिये भी उसकी आँख नहीं लगती थी और न कभी उसे चैन ही मिलता था। प्रेम व्यथा से तड़पता और खूब रोता था।
चूं शब-ए-तारीक दर शा’र-ए-सियाह ।
शुद निहाँ चूं कुफ्र दर ज़ेर-ए-गुनाह ।।
जब रात्रि, काले आवरण में इस प्रकार छिप गई जिस प्रकार धर्म पापों के अन्दर छिप जाता है,
इश्क़-ए-ऊ आँ शब यके सद बेश शुद ।
लाजरम यकबारगी अज़ ख़्वेश शुद ।।
तब शेख़ की पीड़ा सौ गुनी और बढ़ गई और वह अचानक मूर्च्छित हो गया।
हम दिलज़ ख़ुद हम ज़े आ’लम बर गिरफ़्त ।
ख़ाक बर सर कर्द-ओ-मातम दर गिरफ़्त ।।
उसने भगवान तथा संसार दोनों से अपने दिल को हटा लिया। सिर पर धूल डाल ली और विलाप करना प्रारम्भ कर दिया।
गुफ़्त यारब इमशबम रा रोज़ नेस्त ।
या मगर शम’-ए जहाँ रा सोज़ नेस्त ।।
ऐ ख़ुदा! क्या इस रात के बाद दिन नहीं होगा अथवा दुनिया का दीपक़ अब जलता नहीं है।
दर रियाज़त मांद:अम शबहा बसे ।
ख़ुद निशां न देहद चुनीं शब रा कसे ।।
मैंने बहुत सी राते जागकर प्रार्थना करने में व्यतीत कर दी, परन्तु इतनी भयानक और लम्बी रात मैंने अभी तक नहीं देखी। और न इस जीवन में सुनी ही है।
हम चो शम्अ’ अज़ सोख़्तन ताबम न-माँद ।
बर जिगर जुज़ ख़ून-ए-दिल आबम नमाँद ।।
दीपक के समान जलते हुए मुझे बहुत समय हो चुका है और अब अधिक जलने का सामर्थ्य नहीं है। कलेजे पर दिल के रक्त के अतिरिक्त अब और कोई पानी नहीं रहा है।
हम चू शम्अ’अज़ तुफ़्त-ओ-सोज़म मी कुशन्द ।
शब हमी सोज़न्द-ओ-रोज़म मी कुशन्द ।।
दिये के समान जलने की गर्मी मुझे मारे डालती है। रात शम्अ’ की तरह मुझको जलाती है और दिन मुझे मारे डालता है।
जुमल: शब दर खू़न -ए-दिल चूं मांद: अम ।
पा-ए-ता सर ग़र्क़ा दर ख़ूं मांद: अम ।।
सारी रात मैं अफसोस में डूबा हुआ पड़ा रहा हूँ। सर से पैर तक उस में सना रहा हूँ।
हर दम अज़ शब सद शब-ए-ख़ूं बुगज़रद ।
मी न दानम रोज़-ए-मन चूं बुगज़रद ।।
रात का प्रत्येक क्षण मुझ पर ग़म की बारिश करता है। न मालूम दिन कैसे कटेगा।
हर कि रा यक शब चुनीं रोज़ी बुवद ।
रोज़-ओ-शब कारश जिगर सोज़ी बुवद ।।
यदि किसी मनुष्य को ऐसी एक रात भी व्यतीत करनी पड़े तो वह रात-दिन अपने कलेजे को जलाता ही रहे ।
रोज़-ओ-शब बिस्यार दर तब बूदछ अम ।
मन बज़ोर-ए-ख़्वेश इमशब बूदा:अम ।।
अहर्निश मैं एक प्रकार की भयंकर जलन में जलता रहा हूँ और आज की रात को मैं केवल अपने बल के कारण बच गया हूँ।
कार-ए-मन रोज़े कि मी पर्दाख़तंद ।
अज़ बराए इमशबम मी साख़्तंद ।।
ऐसा मालूम होता है कि जन्म के दिन मेरे भाग्य में इसी रात का विधना लिख दिया होगा।
यारब इमशब रा न ख़्वाहद बूद रोज़ ।
या मगर शम्अ’-ए-फ़लक रा नीस्त सोज़ ।।
इस रात को भी, ऐ ख़ुदा, मालूम होता है दिन न चाहिये अथवा आकाश दीप भी इस समय जल नहीं रहा है।
यारबी चंदीं अ’लामत इमशबस्त।
या मगर रोज़-ए-क़यामत इमशबस्त।।
ऐ ख़ुदा, इस रात में इतनी निशानियाँ मौजूद है कि उनके देखने से यह क़यामत का दिन ज्ञात होता है।
या अज़ आहम शम्अ-ए- गरदूँ मुर्द: शुद ।
या ज़े शर्म-ए-दिलबरम दर पर्द: शुद ।।
यह भी हो सकता है कि आकाश दीप मेरी आह की हवा लगने से बुझ गया हो अथवा मेरी प्रियतमा के मुख को देख कर लज्जित होकर पर्दे के अन्दर छिप गया हो।
शब दराज़ अस्त-ओ-सियह चू मू-ए-ऊ ।
वरना सद रह मर्दुम-ए-बे रूए ऊ ।।
उसके गेसुओं के समान रात लम्बी और काली है। यदि यह बात न होती तो मैं अभी तक उसका मुख बिना देखे हुए सौ बार मर चुका होता।
मी बसोज़म इमशब अज़ सौदा-ए इश्क़ ।
मी नदारम ताक़त-ए-ग़ौग़ा-ए-इश्क़ ।।
आज की रात मैं प्रणय की अग्नि में जल रहा हूँ और अब इस शरीर में प्रेम का आक्रमण सहन करने की शक़्ति नहीं है।
उम्र कू ता वस्फ़-ए-ग़मख्वारी कुनम।
या ब-काम-ए-ख़्वेशतन ज़ारी कुनम ।।
वह ज्ञान कहाँ है ताकि उसकी सहायता से विद्या अथवा किसी यत्न से बुद्धि को अपने पास लाऊँ।
दस्त कू ता ख़ाक-ए-रह बर सर कुनम ।
या ज़े ज़ेर-ए-ख़ाक-ओ-ख़ूं सर बर कुनम ।।
वह हाथ कहाँ है कि जिससे गली की मिट्टी सर पर डाल लूँ अथवा मिट्टी और रक्त के नीचे से शिर निकाल लूँ ।
पाए कू ता बाज़ जोयम कु-ए-यार ।
चश्म कू ता बाज़ बीनम रू-ए-यार ।।
वह पैर कहाँ कि जो यार की गली ढूंढ ले। वह नेत्र कहाँ जो उसके चेहरे को देख ले।
यार कू ता दिल देहद दर यक ग़मम ।
अक़्ल कू ता दस्त गीरद यक दमम ।।
इस समय मैं शोक में घुल रहा हूँ । ऐसा कोई भी दोस्त नहीं जो मेरी दिलजोई करे। बुद्धि कहाँ है जो आकर मेरी सहायता करे।
ज़ोर कू ता नाल:-ओ-ज़ारी कुनम ।
होश कू ता साज़-ए-हुश्यारी कुनम ।।
वह सामर्थ कहाँ है कि जिससे रोऊँ और चिल्लाऊँ । होशियार करने वाला होश कहाँ है।
रफ़्त सब्र-ओ-रफ़्त अक़्ल-ओ-रफ़्त यार ।
ईँ चे दर्दस्त ईं चे इश्क़स्त ईँ चे कार ।।
सब्र चला गया, बुद्धि भी विलुप्त हो गई, और दोस्त भी चला गया। यह कैसा प्रेम है, यह कैसा अन्धेर है यह कैसा दुख है।
।। जम्अ‘ शुदन-ए-मुरीदान ब-गिर्द-ए-शैख़ व नसीहत क़र्दन ऊ रा ।।
( चेलों का शैख़ को घेर कर शिक्षा देना )
जुमलः-ए-याराँ ब-दिलदारी-ए-ऊ ।
जम्अ’ गशतन्द आँ शबज़ ज़ारी-ए-ऊ ।।
शेख़ के जितने भी मित्र थे वह सभी उसे सान्त्वना देने लगे और उसे आँसू बहाते देख कर उसके पास आकर इकट्ठे हो गये।
हमनशीने गुफ़्तश ऐ शैख़-ए-केबार ।
ख़ेज़-ओ-ईं वसवास रा ग़ुस्ले बआर ।।
एक दोस्त ने उससे कहा कि ऐ महान सूफ़ी! उठ बैठ और (नहा ले) इस वसवसे को हृदय से निकाल दे ।
शैख़ गुफ़्तश इमशब अज़ ख़ून-ए-जिगर ।
कर्द: अम सद बार ग़ुस्ल ऐ बे-ख़बर ।।
शेख़ ने उत्तर दिया कि मैंने आज की रात अपने कलेजे के ख़ून से सौ बार स्नान किया है।
आँ दिगर गुफ़्ता कि तसबीहत कुजास्त ।
कै शवद कार-ए-तू बेतस्बीह रास्त ।।
एक दूसरे ने कहा कि आपकी माला कहाँ है। बिना उसके सब काम ठीक कैसे चलेंगे?
गुफ़्त तस्बीहम ब-यफ़गन्दम ज़े दस्त ।
ता तवानम बर मियाँ ज़ुन्नार बस्त ।।
उसने कहा मैंने फेंक दी है, ताकि कमर में जनेऊ पहन सक़ूँ।
आँ दिगर यक गुफ़्त ऐ पीर-ए-कुहन ।
गर ख़ताई रफ़्त बर तू तौबा कुन ।।
उनमें से एक फिर बोल उठा कि हे बूढ़े फ़कीर ! उठ, और ख़ुदा के सामने सर झुका ।
गुफ़्त अगर बुत रू-ए-मन ईंजास्ते ।
सज्द: पेश-ए-रू-ए-ऊ ज़ेबास-ते ।।
उसने उत्तर दिया कि यदि वह सुन्दरी मेरी प्रियतमा यहाँ मौजूद होती तो उसके सामने सर झुकाते हुए मुझे अच्छा मालूम होता।
आँ दिगर गुफ़्ता कि ऐ दाना-ए-राज़ ।
ख़ेज़-ओ-ख़ुद रा जम्अ’ कुन अन्दर नमाज़ ।।
तब तक किसी और ने कहा कि ऐ भेदों के ज्ञाता ! उठो और दिल लगाकर नमाज़ पढ़ो।
गुफ़्त कू मेहराब-ए-आँ रू-ए-निगार ।
ता न-बाशद जुज़ नमाज़म हेच कार ।।
उसने कहा कि प्रियतमा के भवन की महराब कहाँ है ताकि उसमें नमाज़ पढ़ने के सिवा मेरा और कोई काम न रहे ।
वाँ दिगर गुफ़्तश पशेमानीत नेस्त ।
यक नफ़स दर्द-ए-मुसलमानीत नेस्त ।।
किसी और ने कहा कि तुझे ऐसा करते हुए लज्जा भी नहीं आती । मुसलमान होने की तुझे थोड़ी भी चिन्ता नहीं है।
गुफ़्त कस न-बुवद पशेमाँ बेश अज़ीं ।
ता चेरा आ’शिक़ न बूदम पेश अज़ीं ।।
शेख़ ने कहा कि उससे अधिक और किसका हाल बदतर होगा जो उसका आशिक़ न हो।
वाँ दिगर गुफ़्तश कि देवत राह ज़द ।
तीर-ए-ख़ज़लाँ बर दिलत नागाह ज़द ।।
इसके उपरान्त किसी और ने कहा कि शैतान ने तेरा रास्ता रोक दिया है और तेरे हृदय पर यक़ायक़ बर्बादी का तीर मार दिया है।
गुफ़्त देवे कि रह-ए-मा मी ज़नद ।
गो बज़न अलहक़ कि ज़ेबा मी ज़नद ।।
उसने उत्तर दिया कि वह शैतान जो हमेशा लूटता है बहुत ठीक करता है। उससे कह दो कि लूटे।
वाँ दिगर गुफ़्तश कि हर कि आगाह शुद ।
काँ चुनाँ शेख़े चुनीं गुमराह शुद ।।
किसी दूसरे ने कहा कि यदि किसी को यह ख़बर मिल गई कि इतना बड़ा पीर इस प्रकार पथ-भ्रष्ट हो गया है तब क्या होगा।
गुफ़्त मन बस फ़ारिग़म अज़ नाम-ओ-नंग ।
शीश-ए-सालूस ब-शिकस्तम ब-संग ।।
उसने जवाब दिया कि इज़्ज़त और नाम से मैं रहित हो गया हूँ और मैंने शीशे सालूस को पत्थर से तोड़ दिया है।
आँ दिगर गुफ़्तश कि यारान-ए-क़दीम ।
अज़ तो रंजूरन्द-ओ-माँदा दिल दो नीम ।।
किसी और ने कहा कि पुराने मित्र तुझसे नाराज़ है। उनके दिल टूट गये है।
गुफ़्त चूं तरसा बचे ख़ुशदिल वद ।
दिल ज़े रंज-ए-ईन-ओ-आँ ग़ाफ़िल बुवद ।।
शेख़ ने उत्तर दिया कि जब ईसाई लड़की राज़ी हो जायगी तब दिल में किसी के भी नाराज़ होने का ख़्याल न रह जायगा।
आँ दिगर गुफ़्ता कि बा याराँ बसाज़ ।
ता शवेम इमशब बसू-ए-का’बा बाज़ ।।
दूसरा बोला कि अब आकर साथियों से मिल जा ताकि हम सब फिर का’बे को चलें।
गुफ़्त अगर का’बा न-बाशद दैर हस्त ।
होशियार-ए-का’बा अम दर दैर मस्त ।।
पीर ने उत्तर दिया का’बा न सही मन्दिर तो मौजूद है। मैं मन्दिर में मस्त होकर का’बे से भी अधिक बुद्धिमान हो गया हूँ।
आँ दिगर गुफ़्त ईं ज़माँ कुन अज़्म-ए-राह ।
दर हरम ब-नशीन-ओ-उज़्र-ए-ख़ुद ब-ख़्वह ।।
तब किसी दूसरे ने कहा कि उठिये और चल कर मस्जिद में बैठकर क्षमा प्रार्थना कीजिये।
गुफ़्त सर बर आसतान-ए- आँ निगार ।
उज़्र ख़्वाहम ख़्वास्त दस्त अज़ मन ब-दार ।।
शेख़ ने उत्तर दिया कि यदि ऐसा ही करना होगा तो उस प्रियतमा की चौखट पर शिर रखकर करूँगा।
आँ दिगर गुफ़्ता कि दोज़ख़ दूर हस्त ।
मर्द-ए-दोज़ख़ नेस्त हर कू आगहस्त ।।
किसी दूसरे ने कहा कि सब कामों से जानकारी रख़ते हुये इस नर्क में क्यों आ पड़े हो।
गुफ़्त अगर दोज़ख़ बुवद हमराह-ए-मन ।
हफ़्त दोज़ख़ सोज़द अज़ यक आह-ए-मन ।।
शेख़ ने जवाब दिया कि यदि नर्क मेरे पास आ जावे तो मेरी एक ही आह से जल कर भस्म हो जावे।
आँ दिगर गुफ़्ता ब-उमीद-ए-बहिश्त ।
बाज़ गर्द-ओ-तौबा कुन जीं क़ार-ए-ज़िश्त ।।
किसी ने कहा कि स्वर्ग की आशा में इस बुरे काम से हाथ खीच ले और अपने को सुधार ।
गुफ़्त चूँ यार-ए-बहिश्ती रूए हस्त ।
गर बहिश्ते बायदम आँ कुए हस्त ।।
उत्तर मिला कि मेरे लिये स्वर्ग के समान सुन्दर मुख वाली प्रियतमा मौजूद है और अगर उससे भी ज्यादा किसी वस्तु की आवश्यकता होगी तो उसकी गली उपस्थित है।
आँ दिगर गुफ़्तश कि अज़ हक़ शर्म दार ।
हक़ तआ’ला रा ब-हक़ आज़र्म दार ।।
कोई फिर कहने लगा ख़ुदा का लिहाज़ रख और उसको अपने ऊपर कृपालु रखने का प्रयत्न कर।
गुफ़्त ईं आतिश चू हक़ दर मन फ़िगंद ।
मन ब-ख़ुद न-तवानम अज़ गर्दन फ़िगंद ।।
शेख़ ने उत्तर दिया कि जब ख़ुदा ही ने मेरे दिल में यह आग पैदा कर दी है फिर धर्म और ईमान के पीछे क्यों पडूँ।
आँ दिगर गुफ्तश बरौ साकिन ब-बाश ।
बाज़ ईमाँ आवर व मोमिन बबाश ।।
दूसरे ने कहा कि इस से बाज़ आ और धार्मिक़ बन जा।
गुफ़्त ज़ुज़ कुफ्र अज़ मन-ए- हैराँ मख़्वाह ।
हर कि काफ़िर शुद अज़ उ ईमाँ मख़्वाह ।।
उसने कहा मुझे क़ुफ्र के सिवा कुछ न चाहिये। ऐसा जो क़ाफ़िर हो उस से धर्म की उम्मीद न कर।
चूँ सुख़न दर वै न-आमद कारगर ।
तन ज़दंद आख़िर बदाँ तीमार दर ।।
जब किसी की बात ने उसके ऊपर कुछ भी असर नहीं किया तो उसके साथ दया दिख़लाने वाले उसके साथी सब चुप होकर बैठ रहे।
मौज ज़न शुद परद:-ए-दिल शां ज़े ख़ूँ ।
ता चे आयद अज़ पस-ए-पर्द: बरूँ ।।
उनके दिलों में रक्त का प्रवाह तीव्र गति से हो रहा था और प्रतीक्षा कर रहे थे कि देखें भविष्य क्या रँग लाता है
तुर्के रोज़ आमद चु बा ज़र्रीं सिपर ।
हिंदुवे शब रा ब तेग़ अफ़गंद सर ।।
दिवस रूपी यवन सोने की ढाल लिये हुये आया और उसने रजनी रूपी हिन्दू का शिर अपनी तलवार से काट डाला। (यहाँ हिन्दू शब्द का अर्थ काले से लिया गया है –उदाहरनार्थ – ख़त बढ़ा काकुल बढ़े ज़ुल्फ़ें बढ़ीं गेसू बढ़े, हुस्न की सरकार में जितने बढ़े हिन्दू बढ़े -शेख़ इब्राहीम ज़ौक़)
रोज़-ए- दीगर कीं जहान-ए-पुर ग़ुरूर ।
शुद चूं बहर अज़ चश्म-ए-ख़ुर ग़र्क़-ए-नूर ।।
दर्प पूर्ण जगत पुनः सूर्य की उज्ज्वलता में मौजें मारने लगा।
शेख़ ख़ल्वत साज़ कु-ए-यार शुद ।
बा सगान-ए-कुए ऊ दर कार शुद ।।
शेख़ ने अपना आसन उसी प्रियतमा की गली में जमा दिया और उसकी गली के कूकरों के साथ निवास करने लगा।
मो’तकिफ़ ब-नशिस्त दर ख़ाक-ए-रहश ।
हमचू मू-ए-गश्त रू-ए-चूं महश ।।
उसका चन्द्रमा के समान श्वेत और चमकदार मुख बालों के समान काला पड़ गया। वह रास्ते में ही मिट्टी पर बैठ गया।
क़ुर्ब-ए–माहे-ए-रोज़-ओ-शब दर कु-ए-ऊ ।
सब्र कर्द अज़ आफ़ताब-ए-रू-ए-ऊ ।।
लगभग एक मास वह उस गली में उस प्रियतमा के पुनः दर्शन की प्रतीक्षा में पड़ा रहा।
आकिबत बीमार शुद बे-दिल सिताँ ।
हेच बर न-रफ़्त सरअज़ आस्ताँ ।।
अन्त में बीमार हो गया। परन्तु उसकी चौखट से अपना सर न उठाया।
बूद ख़ाक-ए-कू-ए-आँ बुत बिस्तरश ।
बूद बालीं आसतान-ए-आँ दरश ।।
यार की गली की धूल उसकाबिस्तर थी। उसके द्वार की चौखट उसके लिये तकिया के समान थी।
चूँ न बुद अज़ कु-ए-ऊ ब-गुज़श्तनश ।
दुख़्तर आगह शुद ज़े आ’शिक़ गश्तनश ।।
वह उस गली से कहीं जाता ही न था। अन्त में वह ईसाई बाला उसके पास पहुँची,
ख़्वेशतन रा आ’ज़मी साख्त आँ निगार ।
गुफ़्त शैख़ा अज़ चे गश्ती बे-क़रार ।।
और उस पर दया भाव प्रदर्शित करते हुये पूछा ऐ शेख़ तू किस लिये बेचैन हो रहा है?
कै कुनन्द ऐ अज़ शराब-ए-इश्क़ मस्त ।
ज़ाहिदां दर कु-ए- तरसायाँ नशिस्त ।।
ऐ प्रणय की मदिरा में मस्त साधु, पवित्र मुसलमान कभी ईसाइयों की गली में भी बैठा करते हैं।
गर ब-ज़ुल्फ़म शैख़ इक़रार आवरद ।
हर दमश दीवानगी बार आवरद ।।
हाँ, यदि मेरी काली अलकों पर, तेरा दिल आ गया है तो सदैव के लिये वह पागल बना रहेगा।
शैख़ गुफ़्तश चूँ ज़बूनम दीद:ई ।
लाजरम दुज़दीद: दिल दुज़दीद: ई ।।
शेख़ ने कहा कि तूने मुझको दुर्बल देख लिया है। मैं वृद्ध आशिक़ हूँ और कमज़ोर हूँ।
या दिलम देह बाज़ या बा-मन ब-साज़ ।
दर नियाज़-ए-मन निगर चंदीं मनाज़ ।।
या तो दिल वापिस कर दे या मेरी हो जा। मेरी मोहब्बत को देख और इतना नाज़ न कर।
जाँ फिशानम बर तो गर फ़रमाँ देही ।
वर तू ख़्वाही बाज़म अज़ लब जाँ देही ।।
अगर तू आज्ञा दे तो मैं अपनी जान को न्योछावर कर दूँ और अगर तू चाहे तो मुझे अपने ओठों से फिर नई जान बख़्श दे।
ऐ लब-ओ-ज़ुल्फ़त ज़ियान-ओ-सूद-ए-मन ।
रू-ओ-कुयत मक़्सद-ओ-मक़्सूद-ए-मन ।।
ऐ प्रियतमा तेरे होठ और तेरी काली अलकें ही मेरी हानि और लाभ के कारण हैं। और तेरा मुख और गला मेरी अभीष्ट है।
गह ज़े ताब-ए-ज़ुल्फ़ दर ताबम मकुन ।
गह ज़े चश्म-ए-मस्त दर ख़्वाबम मकुन ।।
कभी तू अपनी घुंघराली ज़ुल्फों से मुझे बैचेन कर देती है ओर कभी अपनी मदमाती आँखों से मुझे बेहोश कर देती है।
दिल चूं आतिश दीद: चूं अब्र अज़ तूअम ।
बे-कस-ओ-बे-यार-ओ-बे-सब्र अज़ तूअम ।।
तेरी वजह से मेरे दिल में धू-धू करके आग जल रही है। तूने ही मुझे बेख़बर बना दिया है।
बे तू बर जानम जहाँ ब-फ़रोख़्तम ।
कीसा बीं कज़ इश्क़-ए-तो बर-दोख़्तम ।।
तेरी जुदाई में मैंने अपनी जान की भी सुधि भुला दी है। और देख तेरे प्रेम में मैंने कौन सी दौलत हासिल की है।
हमचू बाराँ अब्र मी बारम ज़े चश्म ।
जाँ कि बे तू चश्म ईं दारम ज़े चश्म ।।
मैं बादल की तरह अपनी आँखों से आँसू बरसाता हूँ, क्योंकि जब तू नहीं है तब उन आँखों से मैं यही उम्मीद करता हूँ।
दिल ज़े दस्त-ए-दीद: दर मातम ब-माँद ।
दीद: रूयत दीद, दिल दर ग़म ब-माँद ।।
मेरा दिल मुझसे किनारा कर गया और आँख उसके दुख में बेचैन हो गई। आँख ने तेरा मुख क्या देखा कि वह सदैव के लिये मेरे दिल को दुख में फँसा गई।
आं चे मन अज़ दीद: दीदम कस नदीद ।
आं चे मन अज़ दिल कशीदम की कशीद ।।
जो कुछ मैंने अपनी इन आँखों से देखा है वह किसी को भी दिखलाई नहीं दिया और जो बोझ मैंने अपने दिल की वजह से उठाया है वह किसी ने भी नहीं उठाया है।
अज़ दिलम जुज़ ख़ून-ए-दिल हासिल न-मांद ।
ख़ून-ए-दिल ता कै ख़ुरम चूं दिल न-मांद ।।
मेरे दिल में अब ख़ून के सिवा और कुछ भी शेष नहीं रहा है। मैं किस दिल का रक्त पान करूँ जब कि मेरे पास दिल ही नहीं है।
बेश अज़ी बर जान-ए ईं मिसकीं मज़न ।
दर फ़ुतूह-ए-ऊ लकद चंदीं मज़न ।।
इससे भी बढ़ कर अब इस दीन की जान के ऊपर हमला न कर और इसको भी जीतने का यत्न न कर।
रोज़गार-ए-मन ब-शुद दर इंतज़ार ।
गर बुवद वस्ले ब-यायद रोज़गार ।।
मेरी सारी उम्र इन्तिज़ारी में बीत गई अब यदि मिलन हो जाये तो फिर दिन निकल आयेगा।
हर शबे बर जॉ कमीन साज़ी कुनम ।
बर सर-ए-कू-ए-तू जाँ बांज़ी कुनम ।।
प्रत्येक रात को मैं अपनी जान दे देने की तय्यारी करता हूँ और तेरी गली में जान पर खेलना चाहता हूँ।
रूये बर ख़ाक-ए-दरत जां मी देहम ।
जाँ ब निर्ख़-ए-ख़ाक अरजाँ मी देहम ।।
तेरे दरवाज़े के सामने ही पड़ा रहकर मैं अपने प्राणों को गँवा देना चाहता हूँ और मिट्टी के मोल अपनी जान को बेच रहा हूँ।
चन्द नालम बर दरत दर बाज़ कुन ।
यक दमम बा ख़्वेश्तन दम साज़ कुन ।।
भला, कब तक मैं इस प्रकार तेरे द्वार पर बैठा हुआ आँसू बहाता रहूँ? थोड़ी देर के लिये ही इस इस द्वार को खोल दे और क्षण भर के लिये मुझसे दो बोल बोल दे।
आफ़ताबी अज़ तो दूरी चूं कुनम ।
ज़र्र: अम बे तू सबूरी चूं कुनम ।।
तू सूरज है, मैं तुझसे कुछ अधिक दूरी पर नहीं हूँ। मैं तेरे लिये ज़र्रे के समान हूँ, फिर तेरे पास बिना आये हुए कैसे रह सकता हूँ।
गर चे हम चूं साय: अम दर इज़्तिराब
दर जहम बर रौज़नत चूं आफ़ताब ।।
मैं छाया हूँ। मेरी कोई निजी हस्ती नहीं है, लेकिन फिर भी मैं तेरे झरोके से होकर सूरज की रोशनी की तरह अन्दर पहुँच जाऊँगा।
हफ़्त गरदूं रा बर आरम ज़ेर-ए- पर ।
गर फ़रो आरी बदीं सर गश्त: सर ।।
अगर तू मुझ बेचैन के ऊपर तनिक सी भी दया दिखलायगी तो मैं इतना ऊँचा चढ़ जाऊँगा कि सातों आसमान मेरे नीचे हो जायेंगे ।
मी रवम बा ख़ाक-ए-जान-ए-सोख़्त: ।
ज़ातशे जानम जहाने सोख़्ता ।।
मैं अपने प्राण को जालकर मिट्टी में मिला जा रहा हूँ और मेरी आह की आग में दुनियाँ भस्म हो चुकी है।
पायम अज़ इश्क़-ए-तू दर गिल मानद:: ।
दस्त अज़ शौक़-ए-तू बर दिल मानद: ।।
तेरे प्रेम के कारण मेरी जान पर आ बनी है और तुझसे मिलने के लिये अपना दिल थामे हुए बैठा हूँ।
मी बरआयद ज़े आरज़ूयत जाँ ज़े मन ।
चन्द बाशी बा मन-ओ-पिन्हाँ ज़े मन ।।
जब तेरा मुँह पर्दे के अन्दर हो जाता है तो मेरी जान निकल जाती है। मेरे दिल की साथिन! तू कब तक मुझसे पृथक रहेगी।
दुख़्तरश गुफ़्त ऐ ख़ज़फ़ अज़ रोज़गार ।
साज़ क़ाफ़ूर-ओ-कफ़न कुन शर्म दार ।।
लड़की ने उससे कहा कि ऐ दुनियाँ भर के मूर्ख! तुझे शर्म नहीं आती। तुझे तो अब कब्र में जाने का सामान करना चाहिये।
चूँ दमत सर्दअस्त दमसाज़ी मकुन ।
पीर गश्ती क़स्द-ए-दिल बाज़ी मकुन ।।
तेरी साँस ठंढी हो चली है तू अब गर्मी न दिख़ा। अब बुड्ढा होकर प्रेम करने के लिये उतावला न बन।
ईं ज़माँ अज़्म-ए-कफ़न कर्दन तुरा ।
बेहतरमआयद कि अज़्म-ए-मन तुरा ।।
इस समय तू अपने कफ़न का इन्तज़ाम कर। अब यही तेरे लिए अच्छा होगा। मुझसे मिलने की इच्छा को अपने दिल से दूर कर दे।
चूं तो दर पीरी बयक नाने गिरौ ।
इश्क़ वरज़ीदन न ब-तवानी बरौ ।।
तू बुढ़ापे में एक रोटी के लिये मारा मारा फिर रहा है। तू प्रेमी कैसे हो सकता है, जा यहाँ से दूर भी हो!
चूं ब पीरी नान न-ख़्वाही याफ़्तन ।
कै तवानी बादशाही याफ़्तन ।।
जब कि तू एक रोटी नहीं बना सकता तो फिर बादशाही के लिये क्यों प्रयत्न कर रहा है?
शैख़ गुफ़तश गर ब-गोई सद हज़ार ।
मन न-दारम जुज़ ग़म-ए-इश्क़-ए-तू कार ।।
शेख़ ने उत्तर दिया कि तू चाहे जितनी सख़्त बात कर मैं तेरे प्रेम के सिवा कोई काम नहीं कर सकता।
आशिकक़ाँ रा चे जवाँ चे पीर मर्द ।
इश्क़ बर हर दिल कि ज़द तासीर कर्द ।।
प्रेमियों को बूढ़े और जवान होने से क्या मतलब है। वह हर एक अवस्था में समान है। प्रणय जिस दिल पर हमला करता है उस पर अपना रोब जमा लेता है।
गुफ़्त दुख़्तर गर दरीं कारी दुरुस्त ।
दस्त बायद पाक अज़ इस्लाम शुस्त ।।
लड़की ने कहा कि अगर तू इस काम में पक्का है तो अपने धर्म इस्लाम को छोड़ दे।
हर कि ऊ हम रंग-ए-यार-ए-ख़्वेश नीस्त ।
इश्क़-ए-ऊ जुज़ रंग-ओ-बू-ए-बेश नीस्त ।।
जो आदमी अपने प्यारे के धर्म का नहीं होता है उसका प्रेम रंग और बू से बढ़ कर नहीं होता है।
शैख़ गुफ़्तश हर चे गोई आँ कुनम ।
आँ चे फ़रमाई बजां फ़रमा कुनम ।।
शेख़ ने कहा तू जो कुछ कहेगी उसे मैं ज़रूर ही करूँगा, और जो आज्ञा देगी उसे भरसक पूरा करने का प्रयत्न करूँगा।
गुफ़्त दुख़्तर गर तु हस्ती मर्द-ए-कार ।
कर्द बायद चार चीज़त इख़्तियार ।।
लड़की ने कहा कि अगर तू मेरा सब काम करने के लिये तय्यार है तो तुझे मेरी चार बातें माननी पड़ेंगी।
सज्द: कुन पेश-ए-बुताँ क़ुरआँ ब-सोज़ ।
ख़म्र नोश-ओ-दीद: अज़ ईमाँ ब-दोज़ ।।
तू मूर्ति पूजा कर, क़ुरान को जला दे, शराब पी और धर्म छोड़ दे।
शैख़ गुफ़्तश ख़म्र कर्दम इख़्तियार ।
बा सेह-ए-दीगर नदारम हेच कार ।।
शेख़ ने उत्तर दिया कि मैं शराब इख़्तियार करता हूँ और बाकी की तीन चीज़ों की मुझे कोई ज़रूरत नहीं है।
बर जमालत ख़म्र दानम ख़ुर्द मन ।
वां सेह-ए-दीगर न-दानम कर्द मन ।।
मुझे सिर्फ़ इतना अधिक़ार दे दे कि मैं तेरी सूरत देखता रहूँ। बस मैं शराब पी सकता हूँ। और शेष की तीन बातों को मैं छोड़ता हूँ।
गुफ़्त बर ख़ेज़-ओ-बयाओ-ख़म्र नोश ।
चूं बनोशी ख़म्र, आई दर ख़रोश
उस लड़की ने कहा कि उठ कर आ और शराब पी। शराब पीने पर तुझे वह नशा आयेगा कि तू मतवाला हो जायेगा।
।। रफ़्तन-ए- शैख़ बा दुख़्तर ब दैर-ए- मुग़ाँ व मस्त गर्दीदन व ख़बर शुदन-ए- तरसायाँ अज़ अहवाल-ए- ख़्वेश ।।
( शैख़ का सुन्दरी बाला के साथ मदिरा गृह में जाना और मतवाला हो जाना तथा ईसाईयों का उसका समाचार जानना )
शैख़ रा बुर्दंद ता दैर-ए- मुग़ाँ ।
आमदंद आँ जा मुरीदां दर फ़ुग़ाँ।।
शेख़ को शराब ख़ाने में लिवा ले गये। उसके चेले उसकी दशा पर खेद व्यक्त करते हुए और अन्य तर्क-वितर्क करते हुए रह गये।
आतिश-ए-इश्क़ आब कार-ए-ऊ ब-बुर्द ।
ज़ुल्फ़-ए-तरसा रोज़गार-ए-ऊ बबुर्द ।।
प्रेमाग्नि ने उसकी प्रतिष्ठा को भस्म कर दिया और ईसाई बाला ने उसका हाल खराब कर दिया।
शैख़ अलहक़ मजलिस-ए-बस ताज़: दीद ।
मेज़बां रा हुस्न-ए-बे-अंदाज़: दीद ।।
सत्य यह है कि शेख़ ने उस मदिरा गृह में एक बहुत ही आनन्ददायक मजलिस देखी और उसके सौन्दर्य को बहुत ही बढ़ा चढ़ा देखा।
ज़र्र: -ए अक़्लश न मांद-ओ-होश हम ।
दर कशीद आं जायगह ख़ामोश दम ।।
यह देखते ही शेख़ बेसुध हो गया और एक स्थान पर चुप होकर बैठ गया।
जाम मी ब-सतद ज़े दस्त-ए-यार-ए-ख़्वेश ।
नोश कर्द-ओ-दिल बुरीद अज़ कार-ए-ख़्वेश ।।
उसने अपनी प्रियतमा के हाथ से मदिरा से भरा हुआ प्याला ले लिया और उसे पीकर अपने काम से हाथ खीच लिया।
चूँ बयक जा शुद शराब-ओ-इश्क़-ए-यार ।
इश्क़-ए- आँ माहश यके शुद सद हज़ार ।।
मदिरा और प्रेम दोनों इक़्ट्ठे हो गये और उनके सम्पर्क़ से शेख़ के हृदय में प्रणय पहले से लाख गुना बढ़ गया।
चूँ हरीफ़-ए-आबे-ए-दंदां दीद शैख़ ।
ला’ल-ए-ऊ दर हुक़्क़ा पिनहाँ दीद शैख़ ।।
इसके अतिरिक़्त शेख़ ने अपने यार के अधरों को निकट से देखा और डिब्बे में छिपे हुए उसके लाल पर दृष्टि डाली।
आतिशे अज़ शौक़ दर जानश फ़िताद।
सैल-ए-ख़ूनीं सू-ए-मिज़गानश फ़िताद ।।
शौक़ से उसका प्राण फड़फड़ाने लगा और रक्त के बिन्दु उसके नेत्रों से टपकने लगे।
बाद:-ए-दीगर गिरफ़्त-ओ-नोश कर्द ।
हल्क़:-इ-अज़ ज़ुल्फ़-ए-ऊ दर गोश कर्द ।।
उसने एक और प्याला पी लिया और अपनी प्रियतमा के केशो की घुँघराली लट को कान में पहन लिया।
क़ुर्ब-ए- सद तस्नीफ़ दर दिल याद दाश्त ।
हिफ्ज़-ए- क़ुरआँ रा बसे उस्ताद दाश्त ।।
शेख़ को लगभग सौ पुस्तक़ें ज़बानी याद थी। क़ुरान काभी पाठ उसने बहुत से गुरुओं से किया था और वह भी उसे कण्ठस्थ था।
चूँ मय अज़ सागर ब-नाफ़-ए-ऊ रसीद ।
दा’वा-ए-ऊ रफ़्त लाफ़-ए-ऊ रसीद ।।
जैसे ही मदिरा उसके कण्ठ से नीचे उतरी उसकी स्मरण शक्ति जाती रही और अहंकार चूर्ण हो गया।
हरचे यादश बूद अज़ यादश ब-रफ़्त ।
बाद: आमद अक़्ल चूँ बादश बरफ़्त ।।
मदिरा के असर से उसकी बुद्धि और विवेचन शक्ति विलीन हो गई और जो कुछ भी से याद था, सब उसके ध्यान से जाता रहा।
ख़म्र हर मा’ना कि बूदश अज़ नख़ुस्त ।
पाकअज़ लौह-ए-ज़मी-रे-ऊ ब-शुस्त ।।
उसके पास जितने भी गुण थे उसमे जितनी भी विशेषताएँ थी वह सब मदिरा के असर से जाती रही।
इश्क़ आँ दिलबर बमाँदश सा’बनाक ।
हर चे दीगर बूद कुल्ली रफ़्त पाक ।।
यदि कुछ रह गया उसके पास तो वह विपत्ति छाने वाला उसकी प्रियतमा का प्रणय। इसके सिवा उसका सर्वस्व जाता रहा।
शैख़ चूँ शुद मस्त इश्क़श ज़ोर कर्द ।
हमचु दरिया जान-ए-ऊ पुर शोर कर्द ।।
शेख़ जिस समय मतवाला हो गया, उस समय उसके प्रेम ने और भी ज़ोर बाँधा और नदी की बाढ़ के समान उसने उसके हृदय को जोश और शोर से परिपूर्ण कर दिया।
आँ सनम रा दीद , मय दर दस्त व मस्त ।
शैख़ शुद यकबारगी आँ जा ज़े दस्त ।।
एक और बात ने उसे और भी मतवाला बना दिया। उसने अपनी प्रणयिनी को हाथ में मदिरा का प्याला लिये हुए देखा।
दिल ब-दाद अज़ दस्त-ओ-अज़ मय ख़ुर्दनश ।
ख़्वास्त ता नागह कुनद दर गर्दनश ।।
बस फिर क्या था, उसके दिल में वह भयंकर तूफान उठा कि उसका दिल बिल्कुल हाथ से जाता रहा और उसने चाहा कि अपनी प्रियतमा के गले में बाहे डाल दे।
दुख़्तरश गुफ़्त ऐ तू मर्द-ए-कार नै ।
मुद्दई’ दर इश्क़-ओ- मा’नी दार नै ।।
यह देखकर उसकी प्रेमिका ने कहा कि तू अच्छा आदमी नहीं है। तू केवल अपनी ज़बान से तो कह सकता है परन्तु कार्यों में उन वचनों को परिणत नहीं कर सकता।
गर क़दम दर इश्क़ मोहकम दारा ई ।
मज़हब-ए-ईं ज़ुल्फ़-ए-पुरख़म दारा ई ।।
अगर तू प्रेम में संलग्न रहना चाहता है तो मेरी घुँघराली अलकों के समान ही विधर्मी बन जा।
इक़्तिदा गर तू ब कुफ़्र-ए-मन कुनी ।
बा मन ईं दम दस्त दर गर्दन कुनी ।।
यदि तू मेरी अलकों की समानता कर लेगा तो उसी समय मेरे गले से लग जायेगा।
गर नख़्वाही कर्द ईं जा इक़्तिदा ।
ख़ेज़ रौ , ईनक अ’सा ईनक रिदा ।।
लेकिन यदि तू मेरी आज्ञा नहीं मानता तो यहाँ से चला जा। यह तेरी लाठी है और यह चादर।
शैख़-ए-आ’शिक़ गश्त: बस उफ़्ताद: बूद ।
दिल ज़े ग़फलत बर क़जा ब-निहाद: बूद ।।
शेख़ को लगन लग रही थी और वह अपना अभीष्ट भी सिद्ध करना चाहता था। वह बेहोशी में अपने दिल को भाग्य के हाथ में दे चुका था।
आँ ज़माँ कन्दर सरश मस्ती न-बूद ।
यक नफ़स ऊ रा सर-ए-हस्ती न-बूद ।।
मदिरा पान से पहले ही उसे अपनी प्रेमिका के अतिरिक़्त किसी का ध्यान नहीं था। अब तो बात ही दूसरी हो गई।
आँ ज़माँ चूँ शैख़ आशिक़ गश्त मस्त ।
मस्त व आशिक़ चूँ बुवद रफ़्त: ज़े दस्त ।।
अब वह मस्त हो रहा था और उस मतवाली अवस्था में अपने आपे को खो चुका था।
बर न-आमद बा ख़ुदी रुस्वा शुद ऊ ।
मी न-तर्सीदअज़ कसो तरसा शुद ऊ ।।
प्रणय में अब वह बदनाम हो चुका था। उसे किसी का भय नहीं रहा और वह ईसाई हो गया।
बूद मय बस कोहना दर वै कार कर्द ।
शैख़ रा सरगश्त: चूँ पर कार कर्द ।।
मदिरा बहुत दिनों की रखी हुई थी। उसने वह रंग दिख़लाया कि शेख़ का सर चक्कर खाने लगा।
पीर रा मय कोहन-ओ- इश्क़-ए-जवाँ ।
दिल बरश हाज़िर, सबूरी कै तवाँ ।।
एक तो वह वृद्ध था और उस पर ताज़ा प्रेम और पुरानी मदिरा। उसकी प्रेमिका उसके सम्मुख उपस्थित ही थी। बस धैर्य्य धारण करना असम्भव था।
शुद ख़राब आँ पीर-ओ- शुद अज़ दस्त मस्त ।
मस्त-ओ-आ’शिक़ चूँ बुवद रफ़्त: ज़े दस्त ।।
अन्त में शेख़ को मदिरा ने अपने रंग में रंग दिया। और जिस प्रकार कि मतवाला प्रेमी मस्ती में पड़ कर अपने आप को भूल जाता है उसी प्रकार वह भी निज को भुला बैठा।
गुफ्त बे-ताक़त शुदम ऐ माह रू ।
अज़ मन-ए-बे-दिल चे मी ख़्वाही बगू ।।
तब उसने कहा कि ऐ चन्द्रमुखी अब मैं बहुत ही बेचैन हूँ। बता तू मुझ से क्या चाहती है?
गर ब-हुशयारी न-गश्तम बुत परस्त ।
पेश-ए-बुत मुसहफ़ ब-सोज़म मस्त मस्त ।।
जब मैं अपने होश में था मैंने कभी मूर्ति के समाने सर नहीं झुक़ाया अब मतवाली अवस्था में मूर्ति के सामने प्रतिज्ञा करके क़ुरआन को अग्नि के हवाले कर दूँगा।
दुख़्तरश गुफ्त ईं जमाँ मर्द-ए-मनी ।
ख़्वाब-ए-ख़ुश बादत कि दरख़ु्र्द-ए-मनी ।।
ईसाई बाला ने कहा कि हाँ अब तू मेरे योग्य हो गया है और काम का आदमी बन गया है।
पेश अज़ीं दर इश्क़ बूदी ख़ाम ख़ाम ।
ख़ुश बज़ी चूँ पुख़्त: गश्ती वस्सलाम ।।
अब जाकर सुख़ की नीदं सो। इससे पहिले तू कच्चा था। अब पक्का हो गया है इसीलिये ख़ूब मज़े में रहेगा।
चूँ ख़बर नज़दीक-ए-तरसायाँ रसीद ।
काँ चुनाँ शैख़े रह-ए-ईशाँ गज़ीद ।।
ईसाइयों को यह समाचार मिला कि इस प्रकार के एक शेख़ ने उनका धर्म ग्रहण कर लिया है।
शैख़ रा बुर्दंद सू-ए-दैर मस्त ।
बाद अज़ाँ गुफ़्तंद ता ज़ुन्नार बस्त ।।
वे सब आये और शेख़ को उसी अवस्था में अपने गिरजे में ले गये। और उससे कहा कि अब अपने धर्म को छोड़ कर हमारे धर्म की दीक्षा ग्रहण कर।
शैख़ चूँ दर हल्क़-ए-जुन्नार शुद ।
ख़िर्क़: रा आतिशज़द-ओ-दरकार शुद ।।
शेख़ ने दीक्षा ले ली और अपनी गुदड़ी को आग में जला दिया।
दिल ज़े दीन-ए-ख़्वेशतन आज़ाद कर्द ।
ना ज़े का’बा ना ज़े शैख़ी याद कर्द ।।
वह अपने धर्म से पृथक हो गया। अब न उसे काबे काही ध्यान था और न अपने शेख़ होने की सुध।
बा’द-ए-चंदीं सालआं ईमाँ दुरूस्त ।
ईं चुनीं यक बार: दस्त अज़ वै ब-शुस्त ।।
बहुत बरसों तक अपने धर्म पर दृढ़ रह कर अब उसने अचानक उसे तिलांजलि दे डाली।
गुफ़्त ख़ज़लाँ क़स्द-ए-ईं दरवेश कर्द ।
इश्क़-ए-तरसा ज़ाद: कार-ए -ख़्वेश कर्द ।।
वह कहने लगा कि हाय यह फ़कीर बरबाद हो गया। ईसाई बाला का प्रेम अपना काम कर गया।
हरचे गोई बा’द अज़ीं फ़रमाँ कुनम ।
जीं बतर चे बुद कि कर्दम आँ कुनम ।।
ऐ प्रियतमा! अब मैं हमेशा तेरा कहना मानूँगा क्योंकि जो कुछ मैं कर चुका हूँ उससे बुरा अब हो ही क्या सकता है।
रोज़-ए-हुशियारी न-बूदम बुत परस्त ।
बुत परस्तीदम चूं गश्तम मस्त मस्त ।।
जब मैं अपनी सुध में था तो मैंने कभी भी मूर्ति की पूजा नहीं की थी। प्रेम में मतवाला होकर अब वह भी कर लिया।
बस कसा कज़ ख़म्र तर्क-ए-दीं कुनद ।
बेशके ऊम्मुऊल ख़बायस ईं कुनद ।।
बहुत से लोग शराब की वजह से अपना धर्म छोड़ बैठते हैं और वास्तव में पापों का परिणाम यही होता है।
शैख़ गुफ़्त ऐ दुख़्तर-ए-दिलबर चे माँद ।
हर चे गुफ़्ती कर्द: शुद दीगर चे माँद ।।
फिर शेख़ ने अपनी प्रियतमा से कहा कि जो कुछ भी तूने कहा था वह मैंने सब पूरा कर दिखाया।
ख़म्र ख़ुर्दम बुत परस्तीदम ज़े इश्क़ ।
कस न-बीनद आँ चे मन दीदम ज़े इश्क़ ।।
तेरे प्रेम में पड़कर मैंने शराब भी पी और मूर्ति पूजा भी की। बता अब भी कोई तेरी माँग बाकी है।
कस चू मन दर आ’शिकी शैदा न-शुद ।
आँ चुनाँ शैख़े चुनीं रुस्वा न-शुद ।।
अफसोस इस प्रेम ने मुझे बरबाद कर दिया। जो कुछ मुझ पर बीती है वह किसी पर भी न बीतेगी। मेरे समान प्रेम में कोई पागल नहीं होगा और न बुढ़ापे में आकर इस प्रकार कोई बदनाम ही होगा।
क़ुर्ब-ए-पंजह साल राहम बूद बाज़ ।
मौज मी ज़द दर दिलम दरिया-ए-राज़ ।।
पचास वर्षों तक मैं अपने धर्म में दृढ़ रहा। इस दुनियाँ के और ख़ुदा के भेदों को समझने में व्यस्त रहा।
ज़र्र:-ए-इश्क़ अज़ कमीन बर जस्त चुस्त ।
बुर्द मारा बर सर-ए-लौह-ए-नख़ुस्त ।।
अचानक तेरे इश्क़ ने निकल कर मुझ पर हमला कर दिया और मैं फिर वही पहुँच गया जहाँ से चलना आरम्भ किया था।
इश्क़ अज़ीं बिस्यार कर्दस्त-ओ-कुनद ।
ख़िर्क़: बा ज़ुन्नार करदस्त-ओ-कुनद ।।
इस प्रेम ने ऐसे अनूठे काम किये हैं और करता रहता है। इसने शेख़ को दूसरे धर्म का अवलम्बी बना दिया और बनाएगा।
तख़्त:-ए का’बास्त अबजद ख़्वान-ए-इश्क़ ।
सिर्र शनास-ए-ग़ैब -ओ-सरगर्दान-ए-इश्क़ ।।
प्रेम के आरम्भिक अक्षर पढ़ने वाला चेला भी ज्ञान का पक्का होता है और प्रणय की लगन में भटकने वाला मनुष्य ईश्वरीय रहस्यों में जानकारी रखता है।
ईं हम: ख़ुद रफ़्त बर गो अन्दके ।
ता तू कै ख़्वाही शुदन बा मा यके ।।
शेख़ ने फिर अपनी प्रेमिकासे कहा कि वह यह सब हो चुका अब यह बतलाओ कि वस्ल कब होगा?
चूँ बिना-ए-वस्ल-ए-तू बर अस्ल बूद ।
आँचे कर्दम बर उमीद-ए-वस्ल बूद ।।
उसके लिये जो कुछ शर्तें थी वह पूरी भी हो चुकी। मैंने जो कुछ किया वह भी तुम्हारे मिलने की उम्मीद पर।
वस्ल ख़्वाहम व आश्नाई याफ़्तन ।
चन्द सोज़म दर जुदाई याफ़्तन ।।
अब तुम मुझे किस दिन अपना दोस्त समझ कर मिलन की राह बताओगी और मैं कब तक तुमसे अलग रहकर इस जुदाई की आग में जलता रहूँगा?
बाज़ दुख़्तर गुफ़्त ऐ पीर-ए-असीर ।
मन गिराँ काबीनम-ओ-तू बस फ़कीर ।।
लड़की ने उत्तर दिया कि ऐ नये बने हुए बूढ़े! मुझे अपने लिये दौलत की आवश्यकता है और तू बिल्कुल भिखारी है।
सीम-ओ-ज़र बायद मरा ऐ बेख़बर ।
कै शवद बे सीम-ओ-ज़र कारत ब-सर ।।
नादान! ज़रा सोच तो सही! रूपये और अशर्फी की माँग तू किस प्रकार पूरा करेगा? बिना चाँदी के तेरा कार्य किस प्रकार सोना बनेगा?
चूँ नदारी ज़र सर-ए-ख़ुद गीर-ओ- रौ ।
नफ़क़:इ ब-सिताँ ज़े मन ऐ पीर व रौ ।।
तेरे पास अगर रुपया नहीं है तो अपना रास्ता नाप और यहाँ से चला जा। सफर के लिये यदि खर्च की ज़रूरत हो तो मैं तुझे अपने पास के कुछ दे सकती हूँ।
हम चू ख़ुर्शीद-ए-सुबुक रौ फ़र्द बाश ।
सब्र कुन मरदान:वार-ओ-मर्द बाश ।।
तेज़ जलने वाले सूरज की तरह अपने रास्ते पर आगे बढ़ और मर्दों की तरह साहस व धैर्य्य से काम ले।
शैख़ गुफ़्त ऐ सर्व क़द्द-ए-सीमबर ।
अ’हद-ए- नेको मी बरी अलहक़ बसर ।।
बूढे ने कहा कि ऐ कठोर हृदय, परन्तु ख़ूबसूरत माशूक़! सच बात तो यह है कि तू बड़ी ख़ूबी के साथ अपने वादे को पूरा कर रही है।
कस नदानम जुज़ तू ए ज़ेबा निगार ।
दस्त अजीं शेव: सुख़न आख़िर बदार ।।
मैं तो तेरे सिवाय किसी दूसरे यार को जानता भी नही हूँ। फिर ऐसी बातें करने से क्या लाभ।
दर रह-ए-इश्क़-ए-तू हर चम बूद शुद ।
कुफ़्र-ओ-इस्लाम-ओ-ज़ियान-ओ-सूद शुद ।।
मेरे पास जो कुछ भी था वह सब तेरे प्रेम में पड़कर गँवा चुका हूँ। अब न धर्म है और न ख़ुदा।
चंद दारी बे-क़रारम ज़े इंतिज़ार।
तू न दारी ईं चुनीँ बा मन क़रार ।।
नफा नुकसान सभी कुछ जाता रहा। तू मुझे अपने लिये कब तक बेचैन रखेगी ? तूने तो मुझसे मिलने का वादा किया था।
जुमल:-ए-याराँ ज़े मन बरगश्त: अंद ।
दुश्मन-ए-जान-ए- मन-ए-सर गश्त: अंद ।।
मेरे जितने भी दोस्त थे वह सब मुझसे बिछुड़ गए हैं। और यही नहीं, मुझ दुखिया की जान के गाहक बन गए है।
तू चुनी-ओ- ईशां चुनाँ , मन चूं कुनम ।
नै दिलम माँद: न जाँ मन चूं कुनम ।।
तू इस प्रकार बदल गई और उन लोगों ने भी मुँह फेर लिया। अब मैं क्या करूँ? अफसोस न तो अब मेरा दिल ही रह गया है और न जान ही।
दोस्तर दारम मन ऐ आ’ली सरिश्त ।
बा तू दर दोज़ख़ कि बे-तू दर बहिश्त ।।
ऐ ईसा के समान दयालू प्रियतमे ! मुझे तो तेरे साथ नर्क में रहना अच्छा लगता है और बिना तेरे स्वर्ग भी मुझे बहुत बुरा मालूम देगा।
आकिबत चूं शैख़ आमद मर्द-ए-ऊ ।
दिल बसोख़्त आँ माह रा बर दर्द-ए-ऊ ।।
अन्त में जब शेख़ बिलकुल उसके काम का हो गया तो उस चन्द्रबदनी के हृदय में भी उसके प्रति दया उत्पन्न हुई।
गुफ़्त काबीन रा कनुन ऐ नातमाम ।
ख़ूक बानी कुन मरा साले मुदाम ।।
उसने कहा कि पूरे एक वर्ष तक रोज़ाना मेरे सुअर चराया कर।
ता चू साले बुग्ज़रद हर दो बहम।
उम्र बगुज़ारेम दर शादी-ओ-ग़म ।।
जब एक वर्ष पूरा होगा तब हम दोनों मिलेंगे और साथ साथ रहकर समय बिताएंगे । और दुःख़ तथा आराम में एक दूसरे के साथी रहेंगे।
शैख़ अज़ फ़रमान-ए-जानाँ सर न ताफ़्त ।
काँ कि सर ताबद ज़े जानाँ सर न याफ़्त ।।
शेख़ ने अपनी प्रेमिका के कहने को शिरोधार्य कर लिया। जो मनुष्य अपनी प्रणयिनी के वचनों को नहीं मानता वह रहस्य को नहीं समझ सकता है।
रफ़्त पीर-ए-का’बा -ओ-पीर-ए-केबार ।
ख़ूक वानी कर्द साले इख़्तियार ।।
का’बे का शेख़ और इतना बड़ा साधु एक सुअर चराने वाले के रूप में परिणत हो गया और उसने एक वर्ष तक यह कार्य करना स्वीकार कर लिया।
दर निहाद-ए-हर कसे सद ख़ूक हस्त ।
ख़ूक बायद सोख़्त या ज़ुन्नार बस्त ।।
प्रत्येक मनुष्य के पास स्वभावतः इच्छाओं रूपी सहस्रों सुअर होते हैं। फिर या तो उनको समाप्त ही कर डाला जावे अथवा उनको चराया जावे।
तू चुना ज़न मी बरी ऐ हेच कस ।
कीं ख़तर आँ पीर रा उफ़्ताद-ओ-बस ।।
ओ दीन-हीन मानव! तू कदाचित् यह सोचता होगा कि यह आपत्ति केवल उस शेख़ के ही ऊपर पड़ी।
दर दरून-ए-हर कसे हस्त ईँ ख़तर ।
सर बरूँ आरद चू आयद दर सफ़र ।।
नहीं, बात दूसरी है। प्रत्येक मनुष्य के हृदय में यह विघ्न उपस्थित है और जब वह ज्ञान के मार्ग में अग्रसर होता है तब उसे इसका ज्ञान आता है।
तू ज़े ख़ूक-ए-ख़्वेश गर आग: नई ।
सख़्त मा’ज़ूरी कि मर्द-ए-रह नई ।।
यदि तू अपने सुअर को नही जानता है तो तू क्षमा के योग्य है, क्योंकि तू इस योग्य नहीं है।
गर क़दम दर रह निही मरदान:वार ।
हम बुत-ओ-हम ख़ूक बीनी सद हज़ार ।।
जब तू इस रास्ते में चलता है लाखों मूर्तियाँ और सुअर तेरे सम्मुख आते हैं।
ख़ूक कुश, बुत सोज़ ,दर सहरा-ए-इश्क़ ।
वरना हमचू शैख़ शौ रुस्वा-ए-इश्क़ ।।
प्रेम के नाम पर सुअर को मार डाल और मूर्ति को तोड़ दे। यदि ऐसा नहीं करेगा तो शेख़ के समान प्रेम में पड़कर बदनामी काकारण बनेगा।
आकिबत चूं शैख़-ए-दीं रुस्वा न-बूद ।
दरमियान-ए-रूम सर ग़ौग़ा न-बूद ।।
यदि वह इस्लाम का संत इस प्रकार कलंकित न होता तो रूम के देश में सब लोग उसकी इस प्रकार कहानी न कहते।
।। दर माँदन-ए-मुरीदान ब-कार-ए-शैख़ व मुराजअ’त करदन ब-का’बा ।।
( शैख़ के विषय में निराश होकर चेलों का का’बे को वापस लौटना )
हमनशींनानश चुनाँ दर-मानदंद ।
क़ज़ फ़िरोमानदन बजाँ दर-मानदंद ।।
शेख़ के साथी उसकी अवस्था देखकर निराश हो गये। उनसे कुछ करते-धरते न बन पड़ा और ख़ुद उनकी जान पर आ बनी।
जुमल: अज़ यारी-ए-ऊ ब-गुरेख़तन्द ।
अज़ ग़म-ए-ऊ ख़ाक बर सर रेख़तन्द ।।
फिर वे सब उसका साथ छोड़कर पृथक हो गये। शेख़ के शोक में वे सब सर धुनने लगे।
बूद यारे दरमियान-ए-जमअ’ चुस्त ।
पेश-ए-शैख़ आमद कि ऐ दरकार सुस्त ।।
उनमे से एक को शेख़ से अधिक स्नेह था। वह जाकर शेख़ से कहने लगा कि अब तो तुम्हारा कार्य चौपट हो गया।
मी रवम इमरोज़ सू-ए-का’बा बाज़ ।
चीस्त फ़रमाँ बाज़ बायद गुफ़्त राज़ ।।
मैं आज का’बे को लौटा जा रहा हूँ। यदि तुम्हे कुछ कहना है तो कह दो।
या दिगर हमचू तू तरसाई कुनेम ।
ख़्वेश रा मेहराब-ए-रुसवाई कुनेम ।।
क्या हम भी तुम्हारी तरह ईसाई बनकर अपने सर पर बदनामी का टीका लगवा लें ?
ईं चुनीं तनहात म-पसन्देम मा ।
हमचू तो ज़ुन्नार बर बन्देद मा।।
हम यह नहीं चाहते कि तू अकेला रहे और इसलिये हम भी अब ईसाई हो जायेंगे।
या चू न-तवानेम दीदत हम चुनीन।
ज़ुद बगुरेज़ेम अज़ तो जीं ज़मीन ।।
तुम्हारी यह हालत हम अपनी आँखों से नहीं देख सकते और उससे बचने के लिये हम बहुत जल्द यहाँ से भाग जायेंगे।
मो’तकिफ़ दर का’बा बनशीनेम मा ।
ता न बीनेम आँचे मी बीनेम मा ।।
हम का’बे में पहुँचकर किसी कोने में छिप रहेगे। ताकि जो हम देख रहे है न देखे।
शैख़ गुफ़्ता जान-ए-मन पुरदर्द बूद ।
हर कुजा ख़्वाहेद बायद रफ़्त ज़ूद ।।
शेख़ ने उत्तर दिया कि मेरी जान में आग लग रही है। मैं तुम्हें क्या बतला सकता हूँ। जहाँ जाना हो जल्द जाओ।
ता मरा जानस्त दैरम जाय बस ।
दुख़्तर-ए-तरसाए रूह अफ़ज़ाए बस ।।
जब तक ज़िन्दगी है तब तक मेरे रहने के लिये यही मन्दिर क़ाफ़ी है और वह आत्मा प्रसन्न करने वाली ईसाई की लड़की मेरी ज़िन्दगी का सहारा है।
मी नदानेद, अर चे बस आज़ाद: ऐद ।
जाँ कि ईंजा जूमल: कार उफ़्ताद:ऐद ।।
मुझे नहीं मालूम तुम इतने बेफिक्र क्यों हो। कदाचित् इस वजह से कि तुम्हारे ऊपर यहाँ किसी प्रकार का काम नहीं पड़ा है।
गर शुमा रा कार उफ़्तादे दमे ।
हमदमे बूदे मरा दर हर ग़मे ।।
अगर तुममें से कोई भी इस काम में फँस जाता तो मुझे हर बात में कोई न कोई नया साथी मिल जाता।
बाज़ गर्दीद ऐ रफ़ीक़ान-ए-अज़ीज ।
मी नदानम ता चे ख़्वाहद बूद नीज़ ।।
मेरे प्यारे साथियों तुम लोग अब यहाँ से रवाना हो जाओ। मैं नहीं कह सकता कि आगे चलकर क्या होगा।
गर ज़े मा पुर्सन्द बर गोयेद रास्त ।
काँ ज़े पा उफ़्ताद: सर गरदां चेरास्त ।।
अगर लोग मेरा हाल पूछें तो सब बातें ज्यों की त्यों बयान कर देना। ताकि वह लोग भी समझ जावें कि शेख़ क्यों वापस लैटने से लाचार है।
चश्म पुरख़ून-ओ-दहन पुर ज़ह्र मांद ।
दर दहान-ए-अज़दहा-ए-दह्र माँद ।।
लोग पूछें तो कह देना कि शेख़ की आँखें ख़ून से भरी हुई है, उसका मुख ज़हर से कड़वा हो गया है और वह कहर-रूपी अज़दहे के मुख में जा पड़ा है।
हेच काफ़िर दर जहाँ नदेहद रज़ा ।
आँचे क़र्द आँ पीर-ए-इसलाम अज़ क़ज़ा ।।
किसी विधर्म्मी के द्वारा भी ऐसा काम न होगा जैसा कि उस इस्लाम के पक्के मानने वाले से हो गया है।
रू-ए-तरसाए नमूदन्दश ज़े दूर ।
शुद जे दीन-ओ-अक़्ल-ओ-शैख़ी ना-सबूर ।।
एक ईसाई लड़की की शक़्ल उसे दूर से दिखला दी गई जिसे देखते ही उसका धर्म और ज्ञान सब कुछ जाता रहा।
ज़ुल्फ़ हमचूं हल्क़: दर हल्क़श फिगंद ।
दर ज़बान-ए-जुमल:-ए-ख़ल्क़श फिगंद ।।
जंज़ीर के समान ज़ुल्फ़ ने उसके गले में फन्दा डाल दिया और यह बात सारी दुनिया जान गई।
गर मरा दर सरज़निश गीरद कसे ।
गो दर इं रह ईं चुनी उफ़्तद बसे ।।
अगर कोई आदमी मेरी कहानी सुनकर मुझे बुरा भला कहना शुरु करें तो उससे कह देना कि इश्क़ की राह में बहुत सी बातें हुआ करती हैं।
दर चुनीं रह कस न सर गीरद न बुन ।
हेच कस रा नेस्त रू-ए-यक सुख़न ।।
इस रास्ते में किसी भी आदमी को अपने सर और पैर का ख़्याल नहीं रहता है और न किसी को कोई बात ही कहने की सामर्थ्य होता है।
बस कि याराँ दर ग़मश ब-गिरीस्तन्द ।
गाह मी मुर्दंद-ओ-गह मी ज़ीस्तंद ।।
साथी लोग उसके शोक में बहुत रोये और अपने प्राणों को पीड़ित करने लगे।
शैख़-ए-शां दर रूम तनहा मानद: ।
दाद: दीं दर राह-ए- तरसा मानद:।।
उनका शेख़ और गुरु विधर्म्मी होकर रूम में अकेला रह गया था और उनसे पृथक हो गया था।
आकिबत रफ़्तन्द सू-ए-का’बा बाज़ ।
माँद: जाँ दर सोख़्तन, तन दर गुदाज़ ।।
अन्त में वह सब का’बे को लौट गये, परन्तु उनके प्राण पीड़ा से आकुल हो रहे थे।
चूँ रसीदंद आँ अज़ीजां दर हरम ।
लब फ़िरो बसतंद-ओ- न-कुशादंद दम ।।
जब वह का’बा पहुँचे, अफसोस के मारे ज़बान बन्द किये थे, और तकलीफ़ में घुल रहे थें।
अज़ हया-ए-शैख़ ख़ुद हैराँ शुदंद ।
हर यके दर गोश:-ए पिनहाँ शुदंद ।।
अपने गुरु की अप्रतिष्ठा से लज्जित होकर वह इधर-उधर छिपते फिरते थें।
शैख़ रा दर का’बा यारे चुस्त बूद ।
दर इरादत दस्त अज़ कुल शुस्त बूद ।।
का’बे में शेख़ का एक ऐसा मित्र भी था जो उसके स्नेह में अपना सब कुछ छोड़ बैठा था।
बुद बस बीनन्द:-ओ -बस राह बर ।
ज़ू न-बूदे शैख़ रा आगाह तर ।।
वह बड़ी गम्भीर दृष्टि वाला और विद्वान था और शेख़ के भेदों को उससे अधिक और कोई नहीं जानता था।
शैख़ चूँ अज़ का’बा शुद सू-ए-सफ़र ।
ऊ नबूद आँ जायगाह हाज़िर मगर ।।
शेख़ जब का’बे से रूम को गया था उस समय वह मित्र घर पर नहीं था। कहीं बाहर गया हुआ था।
चूँ मुरीद-ए-शैख़ बाज़ आमद बजाय ।
बूद अज़ शैख़श तेही ख़ल्वत सराय ।।
जब वह बाहर से घर लौटकर आया उसने हुजरे को शेख़ विहीन पाया।
बाज़ पुर्सीद अज़ मुरीदाँ हाल-ए-शैख़ ।
बाज़ गुफ़्तन्दश हम: अहवाल-ए-शैख़ ।।
दूसरे चेलों से उसने शेख़ काहाल पूछा, उन्होंने ने सब शेख़ का हाल कह दिया।
कज क़ज़ा ऊ रा चे बारआमद ब-बर ।
वज़ क़दर ऊ रा चे कार आमद ब-सर ।।
दूसरे चेलों से सब समाचार सुनकर उसकी समझ में आ गया कि शेख़ को भाग्य ने कहाँ ले जाकर पटका था।
मु-ए-तरसाए ब-यक मूयश ब-बस्त ।
राह बर ईमां जे हर सूयश ब-बस्त ।।
उसकी समझ में आ गया कि वह अब एक ईसाई-बाला के प्रणय में फंसकर अपने धर्म को ख़ो बैठा है।
इश्क़ मी बाज़द कनूँ बा ज़ुल्फ़-ओ-ख़ाल ।
ख़िर्क़: गश्तस मुख़्रक़: हालश मुहाल ।।
उसकी काली अलकों के जाल में पड़कर, उसने अपनी गुदड़ी को त्याग दिया है और अपनी हालत ख़राब कर ली है।
दस्त कुल्ली बाज़ दाश्त अज़ ताअत ऊ ।
ख़ूक वानी मीकुनद ईं साअ’त ऊ ।।
ख़ुदा की अभ्यर्थना से उसने बिल्कुल हाथ खीच लिया है और अब सुअर चराया करता है।
ईं ज़माँ आँ ख़्वाज:ए-बिस्यार दर्द ।
बर मियाँ जुन्नार दारद चार कर्द ।।
उस मित्र को ज्ञात हो गया कि ख़ुदा से प्रेम रखने वाला वह वृद्ध अब अपनी कमर में चार फेरों वाला जनेऊ बाँधे हुए है।
शैख़ -ए-मा गर चे बसे दर दीं ब-ताख़्त ।
अज कोहन गबरेश मी न-तवाँ शगिफ़्त ।।
हमारा शेख़ यद्यपि अपने धर्म में उन्नति कर चुका था परन्तु अब पुरानी बातों का स्मरण दिलवाकर उसे पुनः उचित मार्ग पर लाना कठिन था।
चूँ मुरीद आँ किस्स: ब-शुनूद अज़ शगुफ़्त ।
रू-ए-ख़ुद ज़र कर्द-ओ- ज़ारी दर गिरफ़्त ।।
शेख़ के मित्र ने जब यह कहानी सुनी तो आश्चर्य और शोक से उसका मुख पीला पड़ गया।
बा-मुरीदां गुफ़्त ऐ तर-दामनां ।
दर वफ़ादारी न मरदां न ज़नाँ ।।
तब उसने अन्यान्य चेलों से कहा कि ऐ पापियों, तुम वफ़ादारी में न तो स्त्रियों के ही समान हो और न मर्दों के।
यार-ए-कार उफ़्ताद: बायद सद हज़ार ।
यार नायद जुज़ चुनीं रोज़े ब-कार ।।
लानत है तुम्हारी दोस्ती पर। मतलब के तो सैकड़ों यार होते हैं, लेकिन सच्चा दोस्त वही है जो मुसीबत के समय में काम आवे।
गर शुमा बूदेत यार-ए-शैख़-ए-ख़्वेश ।
यारी-ए-ऊ अज़ चे न-गिरफ़्तेद पेश ।।
अगर तुम शेख़ के दोस्त थे तो उसके साथ दोस्ती का हक़ क्यों नहीं अदा करते रहे ?
शर्मतां बाद, आख़िर ईं यारी बुवद ।
हक़ गुज़ारी-ओ-वफ़ादारी बुवद ।।
तुम्हें शर्म आनी चाहिये। क्या दोस्ती ऐसी ही होती है और शुक़्र गुज़ारी और वफ़ादारी इसी का नाम है?
चूँ निहाद आँ शैख़ बर ज़ुन्नार दस्त ।
जुमल: रा ज़ुन्नार मी बायस्त बस्त ।।
जब तुम्हारे शेख़ ने दूसरे धर्म की दीक्षा ली थी तब तुम्हें भी ऐसा ही करना था।
अज़ बरश अ’मदन नमी बायस्त शुद ।
जुम्ला तरसा हमी बायस्त शुद ।।
जान-बूझ कर उसका साथ छोड़ देना ठीक नहीं था बल्क़ि उसी के समान सब को ईसाई हो जाना था।
ईं न यारी-ओ-मुवाफिक़ बूदनस्त ।
आँ चे कर्देद अज़ मुनाफिक़ बूदनस्त ।।
तुम लोगों ने जो कुछ किया है वह दोस्ती नहीं कही जा सकती है। यह तो बहुत बुरे आदमियों का काम है।
हर कि यार-ए-ख़्वेश रा यावर शवद ।
यार बायद बूद अगर काफ़िर शवद ।।
अपने दोस्त का जो सच्चा साथी होता है वह हमेशा उसके तईं सच्चा ही बना रहता है। चाहे वह विधर्मी ही क्यों न हो जावे।
वक़्त-ए-नाकामी तवाँ दानिस्त यार ।
ख़ुद बुवद दर कामरानी सद हज़ार ।।
जब आदमी के दिन बुरे होते हैं उसी वक़्त दोस्त की पहचान होती है। अच्छे दिनों में ऐश के जलसों में तो सैकड़ों साथी हो जाते है।
शैख़ चूँ उफ़्ताद दर काम-ए-निहंग ।
जुमल: ज़ू ब-गुरेख़्तन्द अज़ नाम-ओ-नंग ।।
शेख़ जिस समय मुसीबत में पड़ गया, उस समय उसके सब साथी बदनामी के डर से उसको छोड़ कर भाग गये।
इश्क़ रा बुनियाद बर बदनामी अस्त ।
हर कि ज़ीं दर सर कशद अज़ ख़ामी अस्त ।।
प्रेम की नींव बदनामी होती है और इस द्वार से होकर निकलने वाला बदनाम हो जाता है।
जुमल: गुफ़्तन्द आँचे गुफ़्ती पेश अज़ीं ।
बारहा गुफ़्तेम बा ऊ बेश अज़ीं ।।
यह सुनकर सब चेलों ने दूर ही से कहा कि जो कुछ तू कहता है उससे कहीं ज़्यादा हम लोगों ने किया।
अ’ज़्म-ए- आँ कर्देम ता ब ऊ बहम ।
हम नफ़स बाशेम बा शादी-ओ-ग़म ।।
शेख़ को हमने हर तरह समझाया था और इस बात का पक्का इरादा कर लिया था कि दुख़ और आराम में उसके साथी रहे।
ज़ोह्द ब-फ़रोशेम -ओ-रूस्वाई ख़रेम ।
दीं बरंदाज़ेम-ओ-तरसाई ख़रेम ।।
हमने यहाँ तक कहा था कि हम भी उसी की तरह बदनामी मोल लेकर ईसाई बन जावे।
लेक राय दीद शैख़-ए-कारसाज़ ।
कज़ बरू यक बयक गरदेम बाज़ ।।
लेकिन शेख़ ने हमारी एक भी न सुनी। उसकी यही राय हुई कि हम सब उसके पास से चले जावें।
चूँ नदीद ज़े यारी-ए-मा हेच सूद ।
बाज़ गर्दानीद मारा शैख़ ज़ूद ।।
हम लोगों को साथ रखने में उसे कोई नफ़ा नहीं दिखलाई दिया और हम को बहुत जल्द वहाँ से रवाना कर दिया।
बाद अज़ाँ असहाब रा गुफ्त आँ मुरीद ।
गर शुमा रा कार बूदे बर मज़ीद ।।
यह बातें सुनकर शेख़ के उस ख़ास चेले ने कहा कि अगर तुम अच्छे काम करने वालो और समझदारों में होते,
जुज़ दर-ए-हक़ नेस्ती जा-ए-शुमा ।
दर हुज़ूर हस्ती सरापा-ए-शुमा ।।
तो शेख़ काहाल देखकर ख़ुदा के दर्वाज़े पर अपना डेरा जमा देते। वहीं उसकी मिन्नत करते और गिड़-गिड़ाकर शेख़ के लिये कहते।
दर तज़ुल्लुम दाश्तन दर पेश-ए-हक़ ।
हर यके बुर्दे अजाँ दीगर सबक़ ।।
तब उसके दरबार में तुम्हारी सुनवाई होती जब वह तुमको इस बात में एक दूसरे से बढ़ा-चढ़ा हुआ देखता
ता चू हक़ दीदी शुमा रा बे-क़रार ।
बाज़ दादी शेख़ रा बे इन्तिज़ार ।।
और समझता कि तुम अपनी आन पर मर मिटने वाले हो तो वह फौरन ही शेख़ को वापस लौटा देता।
गर ज़े शैख़-ए-ख़्वेश कर्देद एहतराज़ ।
अज़ दर-ए-हक़ अज़ चे मी गशतेद बाज़ ।।
मान लिया कि तुमने शेख़ का साथ छोड़ दिया, लेकिन ख़ुदा के दरवाज़े पर क्यों नही गये।
चूँ शनीदंद आँ सुख़न अज़ इज्ज़-ए-ख़्वेश ।
बर नयावरदंद यक तन सर ज़े पेश ।।
दूसरे शिष्यों ने जब यह बातें सुनी तो लज्जा से उनके सिर झुक गये। उनका अपराध प्रमाणित हो चुका
आँ मुरीदश गुफ़्त आँ ख़िजलत चे सूद ।
कार चूँ उफ़्ताद बर ख़ेज़ेद ज़ूद ।।
इस पर उसी ख़ास शिष्य ने कहा कि इस ताने से कुछ नहीं होता है। काम आ पड़ा है। आओ, उठो।
लाज़िम-ए-दरगाह-ए- हक़ बाशेम मा ।
दर तज़ल्लुम ख़ाक मी पाशेम मा ।।
जल्दी हम सब इकट्ठे होकर मस्जिद में जमकर बैठ जावें। ख़ुदा से फरियाद करे
पैरहन पोशेम अज़ कागज़ हम: ।
दर रसेम आख़िर ब-शैख़-ए-ख़ुद हम: ।।
और फटे-पुराने कपड़े पहन लें। उम्मीद है कि उसकी दुआ से हम अपने शेख़ से फिर मिलेगे।
।। बाज़ गरदीदन-ए-मुरीदाँ अज़ का’बा ब-रूम अज़ पय-ए-शैख़ ।।
( चेलों का शैख़ से मिलने के लिए का’बे से रूम को फिर से यात्रा करना)
जुमल: सू-ए-रूम रफ़्तन्द अज़ अ’रब ।
मो’तकिफ़ गश्तंद पिनहाँ रोज़-ओ-शब ।।
सब मुरीद अरब देश से रूम को चल दिये। वहाँ पहुँचकर वे अन्य लोगों की दृष्टि से छिपकर एकान्त स्थान में रहने लगे।
बर दर-ए-हक़ हर यके रा सद हज़ार ।
गाह ज़ारी गह शफ़ाअ’त बूद कार ।।
उन लोगों ने ईश्वर के द्वार पर आसन जमा दिया। उनमें से प्रत्येक विनती करके अपने गुरु को पुनः प्राप्त करने के लिये कहता।
हम चुनाँ ता चिल शबां रोज़-ए-तमाम ।
सर न-पेचीदंद हर यक अज़ मकाम ।।
इस प्रकार चालीस दिन तक वह लोग लगातार ईश्वर की आराधना में निमग्न रहे।
जुमल: रा चिल शब न ख़ूर बूद-ओ-न-ख़्वाब ।
हम चूं शब चिल रोज़ न नान-ओ-न आब ।।
चालीस दिन तक न तो उन्होंने भोजन ही किया और न शयन। और चालीस रातें भी उन्होंने इसी प्रकार जागकर प्रार्थना में व्यतीत की।
अज़ तज़र्रो’ करदन-ए-आँ क़ौम-ए-पाक ।
दर फ़लक़ उफ़्ताद जोशे सा’बनाक ।।
इस पवित्र ज़ात की इस तपस्या से आक़ाश हिल उठा और शोर होने लगा।
सब्ज़ पोशां दर फराज़-ओ-दर फ़रूद ।
जुमल: पोशीदंद अज़ मातम कबूद ।।
सब्ज़ वस्त्र धारण करने वाले देवताओं ने शोक में काले वस्त्र धारण कर लिये।
आख़िरूलअम्र आँ कि बूदज़ पेश-ए-सफ़ ।
आमदश तीर-ए-दुआ’ अन्दर हदफ़ ।।
अन्त में उन सब मुरीदों के मुखिया की प्रार्थना से तीर लक्ष्य पर जा लगा।
बा’द-ए-चिल रोज़ आँ मुरीद-ए-पाक बाज़ ।
बूद अंदर ख़ल्वत-ए-ख़ुद दर नमाज़ ।।
चालीस दिन समाप्त होने पर जब वह मुरीद अपने आसन पर प्रातः काल बैठा हुआ था,
सुब्ह दम बादे बर आमद मुश्क़बार ।
शुद जहान-ए-कश्फ़ बर वै आशक़ार ।।
सुगन्धित वायु चलने लगी और वह मस्त होकर झूमने लगा।
मुस्तफ़ा रा दीद मीआमद चू माह ।
दर बरफ़गन्द: दो गेसू-ए-सियाह ।।
उसने देखा कि चाँदी के समान उज्ज्वल पैग़म्बर दो काली लटें अपनी गर्दन में डाले हुए उसकी तरफ चले आ रहे है।
साय:-ए-हक़ आफ़ताब-ए-रू-ए-ऊ ।
शुद जहाने जान वक़्फ़-ए-मू-ए-ऊ ।।
उनका मुख सूर्य के समान ईश्वरीय प्रभा से प्रकाशित हो रहा है और सारे संसार की जानें उनके एक लट पर न्यौछावर थी।
मी ख़िरामीद-ओ-तबस्सुम मी नमूद ।
हर कि मी दीदश दर उ गुम मी नमूद ।।
वह धीरे धीरे टहल रहे थे और मुस्क़ुरा रहे थे। उनको जो कोई भी देखता था वह उनकी शोभा पर मोहित हो जाता था।
आँ मुरीद ऊ रा चू दीद अज़ जाए जस्त ।
काय नबीअल्लाह दस्तम गीर दस्त ।।
उस मुरीद ने जब पैग़म्बर को देखा तब उठकर खड़ा हो गया और विनीत भाव से बोला कि ऐ ख़ुदा के नबी, मेरी सहायता कीजिये।
रहनुमाए ख़ल्क़अज़ बह्र-ए-ख़ुदा ।
शैख़-ए-मा गुमरह शुद: राहश नुमा ।।
आप सारी दुनिया को ख़ुदा का रास्ता दिखलाते हैं, हमारे पीर को भी, जो अपने रास्ते को भूल गया है,ठीक रास्ते पर लाइये।
मुस्तफ़ा गुफ़्त ऐ ब-हिम्मत बस बुलंद ।
रौ कि शैख़त रा बरूँ कर्दम ज़े बंद ।।
पैगम्बर साहब ने कहा कि ऐ ऊँचे हौसले वाले मर्द, जा ! मैने तेरे पीर को कैद से छुड़ा दिया।
हिम्मत-ए-आ’लीत कार-ए-ख़्वेश कर्द ।
दम नज़द ता शैख़ रा दर पेश क़र्द ।।
तेरी ऊँची हिम्मत अपना काम कर गई। तूने जब तक शेख़ को आगे नहीं बढ़ा लिया दम भी न लिया।
दरमियान-ए-शैख़-ओ-हक़ ता दैर गाह ।
बूद गरदे व ग़ुबारे बस सियाह ।।
तेरे शेख़ और ख़ुदा के बीच में बहुत दिनों से एक काला पर्दा आ गया था और वह भी गर्द-ओ-गुबार का ।
आँ गुबार अज़ राह-ए-ऊ बर्दाश्तम ।
दर मियान-ए-ज़ुल्मतश न-गुज़ाश्तम ।।
मैंने वह गर्द उसके सामने से हटा दी है औऱ अब वह अँधेरे में नही रह गया है।
कर्दम अज़ बह्र-ए-शफ़ाअ’त शब नमी ।
मुन्तशर बर रोज़गार-ए-ऊ हमी ।।
मैंने उसके हाल पर एक फुआर छिड़क दी है, जिसकी वजह से वह सारी गर्द साफ हो गई है।
आँ ग़ुबार अकनूं ज़े रह बरख़ास्तस्त ।
तौबा बनशिस्त-ओ-गुनाह बरख़ास्तस्त ।।
अब उसने बुरे काम करने से हाथ खीच लिया है और बुराई उससे दूर भाग गई है।
तू यकी मीदां कि सद आ’लम गुनाह ।
अज़ तफ़-ए-यक तौबा बर ख़ेज़द ज़े राह ।।
तू इस बात पर यकीन रख कि सारी दुनियाँ के बुरे काम केवल उन पर एक बार अफसोस करने मात्र से ही दूर हो जाते है।
बह्र-ए-एहसाँ चूँ दर आयद मौजज़न ।
मह्व गर्दानद गुनाह-ए-मर्द-ओ-ज़न ।।
जब ख़ुदा के अहसान का दरिया बाढ़ पर आ जाता है, तब मर्दों और औरतों सभी की बुराइयों को धो देता है।
ईं दो सेह हर्फ़े बगुफ़्त अज़ यार-ए-ऊ ।
दर ज़माँ ग़ायब शुद अज़ दीदार-ए-ऊ ।।
यह दो-तीन बातें शेख़ के प्रधान चेले से कहकर पैगम्बर साहब तक्षण उसकी दृष्टि से ओझल गये।
मर्दअज़ शादी-ए-आँ मदहोश शुद ।
ना’र:-ए-ज़द कासमाँ पुर जोश शुद ।।
वह मनुष्य आनन्द में आकर झूमने लगा और मतवाला हो गया। और उसी अवस्था में इतने जोर से यक़ायक़ चिल्लाया कि आकाश में एक प्रकार का हुल्लड़-सा मच गया।
हम चुनाँ ना’र: ज़नाँ बेरूँ फ़िताद ।
आब-ए-दीद: दरमियान-ए-ख़ूँ फ़िताद ।।
इसी प्रकार चिल्लाता हुआ वह बाहर निकला और उसने रोना प्रारम्भ किया। यहाँ तक रोया कि आँसुओं के कीचड़ में लोटने लगा।
जुम्ल:-ए असहाब रा आगाह कर्द ।
मुज़्दगाने दाद अज़म-ए-राह कर्द ।।
अपने सारे साथियों को उसने यह आनन्ददायक समाचार कह सुनाया और यात्रा करने के लिये प्रबन्ध करने लगा।
रफ़्त बा असहाब गिरयान-ओ-दवाँ ।
ता रसीद आँ जा कि शैख़-ए-ख़ूक वाँ ।।
इसके उपरान्त अपने सब साथियों के साथ रोता बिलखता और दौड़ता हुआ वह वहाँ पहुँचा जहाँ शेख़ सूअर चरा रहा था।
शैख़ रा दीदन्द चूँ आतिश शुद: ।
दरमियान-ए-बे-क़रारी ख़ुश शुद: ।।
इन सबों ने जाकर देखा कि शेख़ अग्नि के समान भड़क रहा है और बहुत ही व्याकुल हो रहा है।
दीद:आँ दरवेश रा बाज़ आमद: ।
बा ख़ुदा-ए-ख़्वेश दर राज़ आमद: ।।
उस प्रधान शिष्य ने देखा कि वह सूफ़ी पहले ही से बुरे कामों से हाथ खीच चुका है और ख़ुदा से दिल लगा चुका है।
हम फिगंद: बूद नाक़ूस अज़ दहाँ ।
हम गुसिस्त: बूद ज़ुन्नार अज़ मियाँ ।।
उसने अपने मुख से शंख को पृथक कर दिया है और जनेऊ को तोड़ डाला है।
हम कुलाह-ए-गब्रकी अंदाख़्त: ।
हम ज़े तरसाई दिलश पर्दाख़्त: ।।
उसने ईसाइयों की टोपी को भी उतार कर फेंक दिया था और ईसाई होने का ख़्याल भी हृदय से अलग कर दिया था।
शैख़ चूँ असहाब रा अज़ दूर दीद ।
ख़ेश्तन रा दरमियान-ए-नूर दीद ।।
जैसे ही उसने इन सब चेलों को अपनी तरफ आते देखा उसे ऐसा ज्ञात हुआ कि वह उजाले में आ गया है।
हम ज़े ख़िजलत जाम: बर तन चाक कर्द ।
हम बदस्त-ए-इज्ज़ बर सर ख़ाक कर्द ।।
मारे शर्म के उसने अपने वस्त्र फाड़कर फेंक दिये और ख़ुदा के सम्मुख विनीत भाव से बैठकर सर पर धूल डालने लगा।
गाह चूँ अब्र अश्क-ए-ख़ूनीं मीफ़शांद ।
गाह दस्तज़ जान-ए-शीरीं मीफ़शांद ।।
कभी तो वर्षा की झड़ी के समान अपने नेत्रों से शोक आँसू बरसाता था और कभी अपने प्राण खो देने की इच्छा करता था।
गह ज़े आहश पर्द:-ए गर्दूँ ब-सोख़्त ।
गह ज़े हस्रत बर तन-ए-ऊ ख़ूँ ब-सोख़्त ।।
कभी उसकी गर्म साँसों से आकाश का पर्दा जलने लगता था और कभी शोक और दुख से उसका रक्त जलने लगता था।
हिकमत-ए-क़ुरआ’नी असरार-ओ-ख़बर ।
शुस्त: बूद अन्दर ज़मीरश सर ब-सर ।।
क़ुरआन और हदीस के सारे रहस्य जो उसके मस्तिष्क़ से धुल चुके थे।
जुमल: बा-याद आमदश यकबारगी ।
बाज़ रस्त अज़ जेह्ल-ओ-अज़ बे-चारगी ।।
अब सब उसपर प्रकट हो गये और उसकी सुस्ती तथा काहिली दूर हो गई।
चूँ बहाल-ए-ख़ुद फ़िरो न-गुरीस्ते ।
दर सजूद उफ़ताद-ओ-बगुरीस्ते ।।
जब वह अपनी अवस्था पर विचार करता तो ख़ुदा के सामने सर पटक कर रोने लगता था।
हम चू गिल दर ख़ून-ए-दिल आग़श्त: बूद ।
वज ख़िजालत दर अरक़ गुमगश्त: बूद ।।
वह पुष्प के समान अपने हृदय के रक्त में रंग गया था और शर्म के पसीने से तर-ब -तर हो रहा था।
चूँ ब-दीदंद आँ चुनाँ असहाबनाश ।
माँदा दर अंदोह-ओ-शादी मुब्तिलाश ।।
जब उसके साथियों ने अपने गुरु को आनन्द और शोक दोनों अवस्थाओं में मस्त देखा तो दौड़कर सब उसके पास पहुँच गये।
पेश-ए-ऊ रफ़्तन्द सरगरदां हम: ।
अज़ पए शुक़रान: जाँ अफ्शां हम: ।।
और धन्यवाद दे दे अपने आपको उस पर न्यौछावर करने लगे।
शैख़ रा गुफ़्तंद ऐ पैबुर्द: राज़ ।
मेग़ शुद अज़ पेश-ए-ख़ुर्शीद-ए-तू बाज़ ।।
शेख़ से उन्होंने कहा कि हे पीर !, तेरे सूरज के सामने से रूकावट का पर्दा दूर हो गया है।
कुफ़्र बरख़ास्त अज़ रह-ओ-ईमाँ नशिस्त ।
बुतपरस्त-ए-रूम शुद यज़दाँ परस्त ।।
क़ुफ़्र (नास्तिक़ता) रास्ते हे हट गया है मूर्ति का पूजक ख़ुदा को मानने लगा है।
मौज ज़द नागाह दरिया-ए-क़बूल ।
शुद शफ़ाअ’त ख़्वाह कार-ए-तू रसूल ।।
यक़ायक़ ख़ुदा की मुहब्बत ने ज़ोर मारा और ख़ुदा के दूत ने तेरी सिफारिश की।
ईं ज़माँ शुक़राना आ’लम आ’लमस्त ।
शुक़्र कुन हक़ रा चे जाए मातमस्त ।।
अब यह मौका ऐसा आ गया है कि ख़ुदा का शुक़्र किया जाए । रंज के दिन दूर हो गये है।
मिन्नत-ए-ऐज़िद रा कि दर दरिया-ए-तार ।
कर्द: राहे हम चु ख़ुर्शीद आशक़ार ।।
उस ख़ुदा का शुक़्र (धन्यवाद) है जिसने अन्धकार से भरे हुए दरिया में सूरज के समान एक साफ रास्ता तेरे लिये निकाल दिया है।
आँ कि दानद कर्द रौशन रा सियाह ।
तौबा दानद दाद बा चंदीं गुनाह ।।
जो चमकदार चीज़ को भी काला बना सकता है। उसमें बुरे कामों को भी नीचा दिखाने की ताक़त है।
आतिशे अज़ तौबा चूँ ब-फ़रोज़द ऊ ।
हरचे याबद जुमल: दरहम सोज़द ऊ ।।
जब वह किसी दिल में पश्चाताप की आग भड़का देता है तो उसके द्वारा गुनाहों को भी जला डालता है।
किस्स: कोताह मी कुनम ईं जायगाह ।
बूद शां अलबत्त: हाल-ए-अज़्म-ए-राह ।।
मैं इस अवसर पर इस कथानक का थोड़े ही शब्दों में वर्णन करना उचित समझता हूँ। सारांश यह कि उन लोगों ने उसी समय यात्रा करने की ठान ली।
शैख़ ग़ुस्ले कर्द: शुद दर हल्क़: बाज़ ।
रफ़्त बा असहाब ता सू-ए-हिजाज़ ।।
शेख़ ने स्नान किया और पुनः अपने साथियों के बीच बैठा और फिर उनके साथ अरब देश को चल दिया।
।। ख़्वाब दीदन-ए-दुख़्तर-ए-तरसा व अज़ अकब-ए-शैख़ख़ रफ़्तन ।।
( ईसाई बाला का स्वप्न देखना और शैख़ के पीछे जाना )
दीद अजाँ पस दुख़तर-ए-तरसा ब-ख़्वाब ।
काऊफ़्तादे दर किनारश आफ़्ताब।।
शेख़ के चले जाने के उपरान्त ईसाई की लड़की ने यह स्वप्न देखा कि उसके अंक में एक सूर्य आकर गिर पड़ा है,
आफ़्ताब आँ गाह बकुशादे ज़बाँ ।
कज़ पय-ए-शैख़त रवाँ शै ईं ज़माँ ।।
और वह उससे कह रहा है कि इसी क्षण अपने प्रेमी शेख़ के पीछे रवाना हो जा।
मज़हब-ए-ऊ गीर-ओ-ख़ाक-ए-ऊ ब-बाश ।
ऐ पिलीदश क़र्द: पाक़-ए-ऊ ब-बाश ।।
उसका धर्म स्वीकार कर ले और उसी की शिक्षाओं पर चल। तूने ही उसे अपवित्र किया था अब स्वयं उसके हाथों से पवित्र बन जा।
ऊ चू आमद दर रह-ए-तू बे-मजाज़ ।
दर हकीक़त तू रह-ए-ऊ गीर बाज़ ।।
वह सांसारिक प्रणय-जाल में फँसकर तेरे धर्म में आया था परन्तु तू वास्तव में उसके धर्म को स्वीकार कर ।
अज़ रहश बुर्दी ब-राह-ए-ऊ दर आ ।
चूँ ब-राह आमद तू हमराही नुमा ।।
तूने उसको सीधे मार्ग से हटाया था। अब जा और उसके धर्म में परिवर्तित हो जा।
रहज़नश बूदी तू पस हमरह ब-बाश ।
चंद अज़ीं बे आगही आगह ब-बाश ।।
तूने उसको पथ-भ्रष्ट किया था अब जाकर उसकी सहायक बन और उसके साथ रह। वह अब अपने उचित मार्ग पर आ गया है। तू कब तक इस प्रकार सुस्ती में पड़ी रहेगी। अब ख़ुदा को समझ ले।
चूँ दर आमद दुख़्तर-ए-तरसा ज़े ख़्वाब ।
नूर मीदादे दिलश चूँ आफ़्ताब ।।
ईसाई बाला यह स्वप्न देखकर चौंक पड़ी। उसका हृदय सूर्य के समान प्रकाशित हो रहा था।
दर दिलश दरदे पदीद आमद अ’जब ।
बे-क़रारश कर्द आँ दर्द अज़ तलब ।।
उसके दिल में एक विलक्षण पीड़ा उत्पन्न हो गई जिसने उसे एक आकुल जिज्ञासु बना दिया।
आतिशे दर जान-ए-सरमस्तश फ़िताद ।
दस्त दर दिल अज़ दिल-ओ-दस्तश फ़िताद ।।
उसके मतवाले प्राण में एक जलन सी पैदा हो गई और दिल पीड़ित होने के कारण उसका हाथ दिल पर जा पड़ा। उसका हाथ भी व्यर्थ हो गया।
मी न-दानिस्त ऊ कि जान-ए-बे-क़रार ।
दर दरूँन-ए-ऊ चे तुख़्म आवुर्द बार ।।
उसको यह भी ज्ञात न रहा कि उसके व्याकुल प्राणों ने उसके अन्दर कैसा बीज उगा दिया है।
कारश उफ़्ताद-ओ-नबूदश हमदमे ।
दीद ख़ुद रा दर अ’जायब आ’लमे ।।
उसके प्रति स्नेह दिखाने वाला कोई न था। वह बड़ी कठिनाई में पड़ गई।
आ’लमे काँ जा मजाल-ए-राह नेस्त ।
गुंग बायद शुद ज़बां आगाह नेस्त ।।
उसने अपने आप को एक अनूठे जगत में देखा जहाँ पहुँचने का कोई मार्ग ही नहीं दिखलाई पड़ता था।
चूँ नज़र बर शैख़ अफ़्गंद आँ निगार ।
अश्क़ मी बारीद चूँ अब्र-ए-बहार ।।
उसने अपने नेत्र खोल कर शेख़ को देखा और उसे बादल के समान आँसू गिराते हुए पाया।
दीद: बर अह्द-ओ-वफ़ा-ए-ऊ फ़िगन्द ।
ख़्वेश रा बर दस्त-ओ-पा-ए-ऊ फ़िगन्द ।।
उस समय उसने शेख़ के सच्चे प्रेम और प्रतिज्ञा पर विचार किया। और जोश में आकर उसके पैरो पर गिर पड़ी।
गुफ़्ती अज़ तशवीर-ए-तू जानम ब-सोख़्त ।
बेश अज़ीं दर पर्द: न-तवानम ब-सोख़्त ।।
फिर वह कहने लगी कि तुम्हारे शोक में मेरे प्राण जल गये है और अब अधिक समय तक पर्दे के भीतर छिपकर जलने की शक्ति मुझमें शेष नहीं रह गई है।
बर फ़िगन ईं पर्द: ता आगह शवम ।
अ’र्ज़: कुन इस्लाम ता बा रह शवम ।।
आप इस पर्दे को दूर कर दीजिये ताकि मैं ख़ुदा तक पहुँच सक़ूँ। मुझे अपने धर्म की दीक्षा दीजिये जिससे कि मैं उचित मार्ग पर आ जाऊँ।
शैख़ बर वै अर्ज़:-ए-इस्लाम दाद ।
ग़लग़ला दर जुमल:-ए-याराँ फ़िताद ।।
शेख़ ने उसे दीक्षा दी और उसके मित्र आनन्द के मारे चिल्लाने लगे।
चूँ शुद आँ बुत रूए अज़ अह्ल-ए-अयाँ ।
अश्क़-ए-बाराँ मौजज़न शुद दर ज़माँ ।।
वह सुन्दरी ख़ुदा को चाहने वालों में से बन गई और उसके नेत्रों से आँसुओं की नदी बह चली।
आख़िरुलअम्र आँ सनम चूँ राह याफ़्त ।
ज़ौक़-ए-ईमाँ दर दिलश नागाह याफ़्त ।।
शेख़ की शिक्षा पाते ही उस प्रेमिका के हृदय में धर्म के प्रति श्रद्धा उत्पन्न हो गई।
शुद दिलश अज़ ज़ौक़-ए-ईमाँ बे-क़रार ।
ग़म दर आमद गिर्द-ए-आँ बे-ग़मगुसार ।।
धर्म की श्रद्धा से उसका दिल बेचैन हो गया। उस निरीह अबला को परमात्मा के प्रेम ने चारों तरफ से घेर लिया।
गुफ़्त शैख़ा ताक़त-ए-मन गश्त ताक़ ।
मी न-दारम हेच ताक़त दर फ़िराक़ ।।
और उसने शेख़ से कहा कि ऐ शेख़ मुझमें अब जुदाई बर्दाश्त करने की ताब नहीं है।
मी रवम जीं ख़ाक़दान-ए-पुर सुदाअ’ ।
अलविदा’ ऐ शैख़-ए-आ’लम अलविदा’ ।।
मेरी ताकत जाती रही, मैं इस दुख भरी दुनियाँ से कूच कर रही हूँ। शेख़ बस अब रुख़्सत होती हूँ ।
चूँ मरा कोताह ख़्वाहद शुद सुख़न ।
आजिज़म अ’फ़वी कुन-ओ-ख़स्मीं मकुन ।।
मैं मजबूर हूँ, मेरा झगड़ा ही ख़त्म हो रहा है। इसलिये अब मुझे मुआफ़ करो।
ईं बगुफ़्त आँ माह व दस्त अज़ जाँ फिशांद ।
नीम जाने बूद बर जानाँ फिशाँद ।।
उस सुन्दरी ने यह कह कर अपना हाथ प्राण पर से खीच लिया। एक तो पहले ही से उसमें आधी जान शेष थी और अब वह भी उसने अपने प्रियतम पर न्यौछावर कर दी।
जान-ए-शीरीं जीं जुदा शुद-ए-दरेग़ ।
गश्त पिनहाँ आफ़्ताबश ज़ेर-ए-मेग़ ।।
प्राणों का त्याग करना कितने शोक की बात है और साथ ही कठिन भी। उसका सूर्य घन-घटाओं में विलीन हो गया।
क़त्र:इ- बूद अंदरीं बह्र-ए-मजाज़ ।
सू-ए-दरिया-ए-हकीक़त रफ़्त बाज़ ।।
वह इस प्रकट जगत-रूपी सागर में एक बुलबुले के समान थी और अब परम सत्यके सागर में मिल गयी।
जुमल: चूँ बादे ज़े दुनिया मी रवेम ।
रफ़्त ऊ व मा हम: हम मी रवेम ।।
हम सभी वायु के समान इस संसार को छोड़कर चले जाते हैं। वह तो चली गई, परन्तु हम सभी किसी न किसी दिन इसी प्रकार चले जायँगे।
ईं चुनीं उफ़्तद बसे दर राह-ए-इश्क़ ।
ईं कसे दानद कि हस्त आगाह-ए-इश्क़ ।।
इश्क़ के मार्ग में ऐसी बहुत सी बातें होती है, परन्तु उनके रहस्यों को वही समझ सकता है जो इश्क़ के पेचों को समझता है।
हर चे मी गोई चू दर रह मुमकिनस्त ।
रहमत-ओ-नौमीद गिर्द-ए-ऐमनस्त ।।
जो कुछ भी तू कह रहा है वह इस मार्ग में सम्भव है। दया करना और निराश करना दोनों में किसी प्रकार का भय नहीं है।
नफ़्स ईं असरार न-तवानद शुनूद ।
बे नसीबा गूए न-तवानद रबूद ।।
नफ़्स इन बातों को नहीं सुन सकता है और भाग्य की सहायता के बिना सफलता प्राप्त नहीं हो सक़ती है।
ईं बगोश-ए-जाँ ज़े दिल बायद शुनीद ।
न ज़े नफ़्स-ए-आब-ओ-गिल बायद शुनीद ।।
यह बात प्राणों पर भली प्रकार विदित होनी चाहिये। पानी और मिट्टी के इस प्रकट शरीर की इच्छाओं का इसके साथ सम्बन्ध होना चाहिये।
जंग दिल बा नफ़्स हर दम सख़्त शुद ।
नौह:-इ-दर देह कि मातम सख़्त शुद ।।
मानवी इन्द्रियों और हृदय के साथ सदैव युद्ध होता रहता है। इस शोक के विषय पर दुःख़ प्रकट कर।
दर चुनीं रह चाबुके बायद शिगर्फ़ ।
बू कि बतवाँ रफ़्त अज़ीं दरिया-ए-शर्फ़ ।।
इस मार्ग पर चलने के लिये एक बहुत चालाक और चुस्त मनुष्य होना चाहिये। तब आशा की जा सक़ती है कि वह इस अथाह नदी के पार जा सकता है।
शैख़ रा अज़ रफ़्त ऊ जाँ ब-सोख़्त ।
दीद: अज़ बे-रूए ऊ आ’लम ब-दोख़्त ।।
शैख़ के प्राणों में उस प्रेमिका की मृत्यु से धू-धू कर अग्नि जलने लगी और उस चन्द्रबदनी के न रहने से उसने भी संसार की तरफ से अपनी आँखें फेर ली।
बा-रफ़ीकाँ गुफ़्त शैख़-ए-ग़मज़द: ।
ख़स्त:-ओ-सरगश्त:-ओ-मातम ज़द: ।।
शेख़ बहुत ही उदासीन और दुख़ी था। वह परेशान, दुखी और दुर्बल हो गया था।
कै रफ़ीकाँ हाल-ए-मा रा ब-निगरेद ।
ईं चुनी अहवाल मारा ब-निगरेद ।।
उसने अपने साथियों से कहा कि मेरी इस अवस्था को देखो और विचार करो कि मुझ पर क्या बीती है।
बाशद ईं आग़ाज़ ईं अंजाम-ए-इश्क़ ।
हर कि ख़्वाहद कू बरद दर दाम-ए-इश्क़ ।।
प्रेम की शुरुआत और ख़ात्मा इसी प्रकार होता है। इश्क़ को काबू में लाना बहुत ही मुश्किल काम है।
मुर्ग़ दाम आमद गिरफ़्तम ज़ेर-ए-बाल ।
मन नख़्वाहम माँद बे ऊ देर-ए-साल ।।
चिड़िया जाल में फँस गई थी और मैंने उसे गोद में भी छिपा लिया। अब उसके बिना बहुत दिनों ज़िन्दा नहीं रह सकता।
अज़ जहाँ सू-ए-जिनाँ ख़्वाहम शुदन ।
वज़ पय-ए-जानाँ रवाँ ख़ाहम शुदन ।।
मैं इस दुनियाँ से बहिश्त को चला जाऊँगा और अपनी प्रेमिका के पीछे रवाना हो जाऊँगा।
बामदादाँ दिलबर अज़ आ’लम ब-रफ़्त ।
शैख़ अज़ पै नीमरोज़े हम बरफ़्त ।।
प्रातःकाल उस प्रेमिका के प्राण निक़ले थे और दोपहर के समय शेख़ भी इस संसार को छोड़कर उसके पीछे चल दिये।
क़ब्र-ए-शैख़-ओ-क़ब्र-ए-दुख़्तर साख़्तन्द ।
हर दो रा पहलू-ए-हम पर्दाख़्तन्द ।।
लोगों ने शेख़ और उस लड़की की समाधियाँ एक ही जगह बनाईं और उन दोनों को एक दूसरे की बग़ल में दफ़ना दिया।
पेशवा-ए-इश्क़-ए-जानाँ ख़ुत्ब:ख़्वान्द ।
आ’शिक़-ओ-मा;शूक़ रा बाहम निशाँद ।।
प्रेमिका के प्रेम रूपी, क़ाज़ी ने विवाह का मन्त्रोच्चरण किया और प्रेमी और प्रेमिका को एक दूसरे से मिला दिया।
चूँ दो आ’शिक़ दायमन मदहोश हम ।
चूँ दो मौजूँ दस्त दर आग़ोश हम ।।
यह दो प्रेमी थे जो सदैव आनन्द में रहेगे। दो मित्रों के समान एक दूसरे के गले मिलते रहेंगे।
जाँ दो क़ब्र-ए-आँ दो यार-ए-दर्दमंद ।
दस्त अजाँ हस्रत ज़द: सर्व-ए-बुलंद ।।
उन दोनों की समाधियों से दो ऊँचे-ऊँचे सरो के वृक्ष उत्पन्न हुये।
वाँ कि आँ जा ऐज़िद अज़ लुत्फ़-ओ-कमाल ।
कर्द पैदा चशम:-ए-आब-ए-ज़ुलाल ।।
और इसके अतिरिक्त उन्होंने अपने प्रभाव से एक मीठे जल का स्त्रोत भी पैदा कर दिया।
चंद फ़रसंग आँ चुनाँ ख़ुर्रम बुवद ।
हम चुनाँ जाए ब-गीती कम बुवद ।।
उन समाधियों के आस पास थोड़ी दूर तक इतना हरा भरा और रमणीक स्थान है कि जैसा इस दुनियाँ में बहुत कम होगा ।
गर दराँ मंज़िल तुरा बाशद क़रार ।
चार फ़स्ल आँजा न बीनी जुज़ बहार ।।
तुम अगर वहाँ जाओ तो वहाँ चारों ऋतुओं में मेवे फलते फूलते पाओगे।
हेच फ़स्लज़ मेव: ख़ाली नेस्तन्द ।
ता न पिंदारी कि आ’ली नेस्तन्द ।।
कोई ऋतु ऐसी नहीं कि जिसमें मेवा न होता हो। परन्तु यह न समझो कि वह मेवा स्वादिष्ट नहीं होता है।
हर दो मी आरन्द बार-ए-आ’शिकी ।
बुलअ’जब कारेस्त कार-ए-आशिकी ।।
बात इसके विपरीत है। वही दोनों प्रेमी प्रेम के फल उत्पन्न करते हैं। यह प्रेम का कारखाना है।
दरमियान-ए-का’बा-ओ-रूम आँ मकाम ।
शुद ज़ियारतगाह-ए-ख़ल्क़ अज़ ख़ास-ओ-आ’म ।।
इश्क़ का रहस्य भी निराला है। का’बे और रूम के बीच में यह स्थान जन-साधारण के लिये तीर्थ-स्थल हो गया है।
किस्स:-ए-अ’त्तार बर ईं माह नेस्त ।
सिर्र-ए-साहब नज़्द-ए-कस आगाह नेस्त ।।
अत्तार ने उस प्रेमिका की कहानी नहीं लिख़ी है। ईश्वर का भेद किसी ज्ञानी को भी विदित नहीं होता है।
*- इस कहानी के लिए मूल फ़ारसी किताबों और अनुवादों की मदद ली गयी है. फ़ारसी से हिंदी लिप्यान्तरण अब्दुल वासे साहब ने किया है
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