प्रणति, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी
प्रणति, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी
सूरदास : विविध संदर्भों में
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सूरदास महाप्रभु वल्लभाचार्य जी के शिष्य थे। ऐसा कहा जाता है कि पहले वे दैन्यसूचक और विनयपरक पद लिखा करते थे। महाप्रभु वल्लभाचार्य जी के संपर्क में आने से, पहले के दैन्य-परक भजनों का लिखा जाना बंद हो गया और उन्होंने लीला-गान के पद लिखने शुरु किये। सूरदास का मुख्य वर्ण्य विषय श्रीकृष्ण, श्रीराधा और अन्य गोपियों की प्रेम-लीलाएं है। उनका मन इन्हीं में रमता है और इन्हीं लीला-पदों में उनका कवि-हृदय अपनत्व अनुभव करता है। महान् गुरु के संपर्क में आने का सबसे सुखद परिणाम यह हुआ कि उन्हें अपने
स्व-भाव’ का पता चल गया। कहते हैं कि महाप्रभु टीका के आरंभिक अंश का ही उपदेश दिया था। बाद में सूरदास ने बहुत कुछ सीखा-सुना होगा, लेकिन उनके ‘स्व-भाव’ के उद्रेक के लिए उतना ही पर्याप्त था।
असल में सूरसागर शास्त्रीय वैष्णव-भक्ति-शास्त्र के प्रेरणा अवश्य लेता है, पर शास्त्रीय होने की अपेक्षा वह लोक-धर्म के अधिक निकट है। हिंदी प्रदेश के लोक-गीतों में श्रीकृष्ण-लीला का प्रवेश महाप्रभु वल्लभाचार्य से बहुत पहले हो चुका था। इसका मतलब यह है कि इस प्रकार की प्रेम-गीतियाँ, जिनमें कुछ प्रेम और विरह की अनुभूतियों का मार्मिक चित्रण था, पहले से ही लोक में प्रचलित थी। महाप्रभु वल्लभाचार्य जैसे मनीषियों के संपर्क में आकर भक्त कवियों ने उन्हें सुव्यवस्थित भक्ति-परक गानों का रूप दिया।
सूरसागर में गोपियों की विविध प्रेम-लीलाओं का इतना अधिक वर्णन है कि इसे स्त्री-चरित्र का विशाल काव्य कहा जाये तो अनुचित न होगा। माता के वात्सल्य में तो वह बेजोड़ है ही, प्रेमिका का, पत्नी का, कुमारी का, गृहिणी का, गोपवधू का, परिहास-पेशला का, चुहल करनेवाली का, विरहिणी का, वासकसज्जा का, प्रोषितपतिका का वह अद्भुत, स्वाभाविक और सरल चित्रण करता है, परन्तु यह सब कुछ लोक-जीवन के निपुण निरीक्षण पर आधारित है। सूरदास का लोक-जीवन का अद्भुत ज्ञान अपने ढंग का अनोखा और अद्वितीय है।
लोक-जीवन ही सूरसागर की लीलाओं की मुख्य सामग्री है। बिसातिन, दही बेचनेवाली, नट-बाजीगर, मेला, पनघट आदि के प्रसंग में सूरदार की वाणी सहस्र सुरों में मुखरित हो जाती है। इस प्रकार लोग-विश्वासों पर आधारित सरस लीलाओं का भण्डार है सूरसागर। उसका मूल प्रेरणा-स्त्रोत है महाप्रभु वल्लभाचार्य का लीला-विषयक उपदेश, और प्रचुर उपादान जुटाया गया है लोक-जीवन से।
माँ यशोदा, कीरति मैया, नन्दबाबा , राधा और उनकी सखियाँ, ग्वालबाल, सब की विभिन्न परिस्थितियों और उनसे उत्पन्न मनोभावों का ऐसा सहज-मनोहर चित्रण अन्यत्र दुर्लभ है, पर सब कुछ विरह, सुख-दुख इतनी गहराई से चित्रित होकर भी अन्ततः भगवान् की मधुर लीलाओं में पर्यवसित हुए हैं। इस प्रकार सूरदास जी एक महान् भक्त कवि थे। उनके काव्य में विद्यमान लोकतत्व की लोकोत्तर परिणति चकित कर देनेवाली है।
उनकी पाँच सौवीं पुण्यतिथि के अवसर पर उस लोकोतर महान् कवि के प्रति मैं हार्दिक प्रणति निवेदन करता हूँ।
चरन-मकल वंदौं हरि-राइ।
जाकी कृपा पंगु गिरि लंघै, अंधे की सब कछु दरसाइ।
बहिरौ सुनै, गूँग पुनि बोलै, रंक चलै सिर छत्र धराइ।
सूरदास स्वामी करुनामय, बार बार बंदीं तिहिं पाइ।।
(सूरसागर 1)
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