सूरदास : विविध संदर्भों में के सूफ़ी लेख
सूर का वात्सल्य-चित्रण, डॉक्टर सोम शेखर सोम
सूरदास का वात्सल्य-चित्रण केवल भारतीय साहित्य में ही नहीं, समस्त विश्व–साहित्य में अनुपमेय है। सूरदास ने अपनी मधु पर कोमल भावनाओं को वात्सलता से सींच कर वात्सल्य को रसता प्रदान की है। डॉ. हरवंशलाल शर्मा के शब्दों में “यदि मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखा
भ्रमरगीत में सूर की रस-साधना का मूल रहस्य, डॉक्टर गोवर्धन नाथ शुक्ल
सूरसागर का मूल स्रोत महर्षि व्यास की समाधि-भाषा श्रीमद्भागवत ग्रंथ रहा है। काव्यवस्तु के लिए सूर जहाँ श्रीमद्भागवत महापुराण के ऋणी है, वहाँ अपनी कल्पना की उर्वरता ‘सागर’ में जो सबसे अधिक बढ़ा-चढ़ाकर लिखा है, उसका क्या रहस्य हो सकता है। यह गम्भीरता से
सूरदास का वात्सल्य-निरूपण, डॉ. जितेन्द्रनाथ पाठक
मध्यकालीन हिन्दी साहित्य में सूरदास का स्थान सर्वोच्च माना गया है। यदि गृहीत भाव-क्षेत्र में अतलस्पर्शिता कविता की वास्तविकता सिद्धि और उसकी श्रेष्ठता का परिचायक हो, तो सूरदास की सर्वोच्चता स्वयं प्रमाणित है। मध्यकालीन वैष्णव कविता के मापक पृष्ठाधार
राष्ट्रीय जीवन में सूरदास, श्री शान्ता कुमार
भारतीय लोक-संस्कृति और परम्परा को एक ऊँची पीठिका पर आसीन करने में संतप्रवर सूरदास और उसके द्वारा रचित काव्य-साहित्य का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। उन्होंने द्वापर के नायक श्री कृष्ण भगवान की बाल-लीलाओं का समसामयिक लोक-आस्था के अनुरूप चित्रण किया और भगवान
सूर की लोकमंगल-भावना, डॉक्टर भगवती प्रसाद सिंह
सूरदास कृष्ण की लोकरंजक लीलाओं के चिन्तन तथा गान में निरन्तर मग्न रहने वाले भावसिद्ध भक्त थे। उन्होंने उपास्य के जिस स्वरूप को अपनी साधना का आधार बनाया था, वह बाल तथा किशोरावस्था की ब्रजलीलाओं तक ही सीमित था। यह दूसरी बात है कि भागवत के आधार पर कृष्ण-लीला-गान
भ्रमर-गीतः गाँव बनाम नगर, डॉक्टर युगेश्वर
नागर सिंधु सभ्यता के बावजूद भारतीय नगरी नहीं ग्रामीण है। पूरा भारतीय साहित्य गाँव उन्मुख हैं। रामकी जवानी के 14 वर्ष गाँव नहीं, जेगल में बीते। भरत नंदि गाँव में रहे। कृष्ण का असली चरित गोकुल गाँ का है। लव-कुश, शंकुतला, सभी गाँव या अरण्य में पले। भारतीय
सूर की सामाजिक सोच, डॉक्टर रमेश चन्द्र सिंह
सूर की सामाजिक सोच क्या थी? क्या वह सोच आज के भारतीय समाज के लिए भी प्रासंगिक है? फिर आज का हमारा समाज पहले की तरह दुनिया से अलग-थलग अस्तित्व तो रखता नहीं, इसलिए प्रश्न यह भी है कि क्या सूर का मनुष्यमात्र को स्वीकार्य हो सकता है। पर दिक्कत यह है कि
सूर के भ्रमर-गीत की दार्शनिक पृष्ठभूमि, डॉक्टर आदर्श सक्सेना
सूर का सम्पूर्ण साहित्य का प्रतिक्रिया है। यह प्रतिक्रिया उन्हीं तत्कालीन परिस्थितियों का परिणाम थीं जिन्होंने उनके गुरू श्री वल्लाभाचार्य को अपने सिद्धान्तों के प्रचार के लिए उत्तर भारत में भ्रमणार्थ भेजा था। विजयनगर नरेश कृष्णदेव राज के दरबार में शास्त्रार्थ
सूरसागर, डॉक्टर सत्येन्द्र
सूर-सागर सूर के मानस-रत्नों का सागर है, किन्तु उसका भी एक आधार रहा है। वह आधार मुख्यतः ‘भागवत’ है। स्वयं ‘सूर’ ने यह कई स्थानों पर स्पष्ट स्वीकार किया है। उदाहरणार्थ स्कंध 1, पद 225 में यह स्वीकृति हैः व्यास कहे सुकदेव सौं द्वादस स्कंध बनाइ। सूरदास
सूर की कविता का आकर्षण, डॉक्टर प्रभाकर माचवे
सूरदास के समय में और आज के समय में पाँच सौ वर्षों का व्यवधान है। उनकी देश-काल-परिस्थिति में और आज उनकी कविता पढ़ने-सुनने वाले भारतीय या भारतेतर देशवासी व्यक्तियों की देश-काल-परिस्थिति में कितना अन्तर है! फिर भी वह क्या बात है जो उनके पदों का आकर्षण अक्षुण्ण