Sufinama

सूरसागर, डॉक्टर सत्येन्द्र

सूरदास : विविध संदर्भों में

सूरसागर, डॉक्टर सत्येन्द्र

सूरदास : विविध संदर्भों में

MORE BYसूरदास : विविध संदर्भों में

    सूर-सागर सूर के मानस-रत्नों का सागर है, किन्तु उसका भी एक आधार रहा है। वह आधार मुख्यतः ‘भागवत’ है। स्वयं ‘सूर’ ने यह कई स्थानों पर स्पष्ट स्वीकार किया है। उदाहरणार्थ स्कंध 1, पद 225 में यह स्वीकृति हैः

    व्यास कहे सुकदेव सौं द्वादस स्कंध बनाइ।

    सूरदास सोई कहे पद भाषा करि गाइ।।

    फिर भी ‘भागवत’ और ‘सूर-सागर’ की तुलना से यही विदित होता है कि “सूर-सागर के द्वादश स्कन्धों की भागवत के द्वादश से वस्तुतः आकार में ही विषमता नहीं है, अनुमान में भी उनमें कोई समानता नहीं दिखाई देती। कथा-वस्तु के विवेचन से यह और भी स्पष्ट हो जाता है कि किसी अर्थ में सूर-सागर भागवत का अनुवाद नहीं कहा जा सकता और सम्पूर्ण भागवत की यथातथ्य कथा कहना ही कवि का उद्देश्य जान पड़ता है।”

    अतः विषय की दृष्टि से ‘सूर-सागर’ के तीन विभाग किये जा सकते हैं-

    1. विनयादि।

    2. भागवतादि के आधार पर अन्य पौराणिक कथाओं का स्वतन्त्र वर्णन।

    3. कृष्णलीला।

    इस कृष्णलीला में ही कवि ने ‘भागवत’ से स्वतन्त्र कई-नई उद्भावनाएँ की है, जैसे- “राधाकृष्ण-मिलन, पनघट का प्रस्ताव, दान-लीला, खण्डिता-समय, मान-लीला, बसन्त और फाग की हिंडोल-लीला।” अनन्य भक्ति की प्रधानता, राधा का महत्व, गोपिकाओं का स्वरूप भी सूर ने अपनी प्रतिभा से नये रूप में प्रस्तुत किया है। इसमें सन्देह नहीं है कि इस कवि का मुख्य लक्ष्य सूर-सागर में ‘कृष्णलीला वर्णन’ है। यही दशम स्कन्ध का विषय है।

    ‘सूर-सागर’ के विषय का विस्तृत परिचय ‘सूर-सौरभ’ के आधार पर संक्षिप्त करके दिया जा सकता है। वह इस प्रकार हैः

    प्रथम स्कन्ध- इसमें भक्ति की सरस व्याख्या उपलब्ध होती है। विनय एवं भक्ति के पदों की ही प्रधानता है। विनय और भक्ति-सम्बन्धी पदों के अतिरिक्त इस स्कन्ध में श्रीमद्भागवत के निर्माण का प्रयोजन, शुकदेव की उत्पत्ति, व्यास अवतार, महाभारत की कथा का संक्षिप्त परिचय, सूत शौनक संवाद, भीष्म की प्रतिज्ञा, भीष्म का देह-त्याग, श्रीकृष्ण-द्वारिका-गमन, युधिष्ठिर का वैराग्य, पाण्डवों का हिमालय-गमन, परीक्षित का जन्म, ऋषि का शाप, कलियुग को दण्ड देना आदि प्रसंगों का भी भागवत के प्रथम स्कंध के अनुसार वर्णन है।

    द्वितीय स्कन्ध- श्रीमद्भागवत के द्वितीय स्कन्ध की कथा के अनुसार इसमें भी सृष्टि की उत्पत्ति, विराट् पुरुष, चौबीस अवतार, ब्रह्मा की उत्पत्ति, चार श्लोक आदि का वर्णन है। इसके अतिरिक्त इस स्कन्ध के प्रारम्भ में भक्ति-महिमा, सत्संग-महिमा, भक्ति-साधना, आत्म-ज्ञान तथा भगवान् की विराट् रूप में आरती का वर्णन है।

    तृतीय स्कन्ध- इसमें भागवत के तृतीय स्कन्ध के अनुसार उद्धव-विदुर-सम्वाद, विदुर को मैत्रेय से भगवान् के बताये हुए ज्ञान की प्राप्ति, सप्तर्षि और चार मनुष्यों की उत्पत्ति, देवासुर-जन्म, बाराह-अवतार, कर्दम-देवहूति का विवाह, कपिल मुनि का अवतार, देवहूति का कपिल से भक्ति सम्बन्धी प्रश्न, भक्ति-महिमा और देवहूति की हरि-पद-प्राप्ति आदि कथाओं का वर्णन है।

    चतुर्थ स्कन्ध- यज्ञपुरुष-अवतार, पार्वती-विवाह, ध्रुव-कथा, पृथु-अवतार तथा पुरंजन-आख्यान का वर्णन पाया जाता है।

    पंचम स्कन्ध- इसमें ऋषभदेव-अवतार, जड़ भरत की कथा तथा उनका रहूगणों के साथ सम्वाद वर्णित हुआ है।

    षष्ठ स्कन्ध- इसमें भागवत के आधार पर अजामिल-उद्धार की कथा, इन्द्र द्वारा वृहस्पति का अपमान, वृत्रासुर का वध, इन्द्र का सिंहासन से च्युत होना, गुरु की महिमा तथा गुरु कृपा से इन्द्र की पुनः सिंहासन-प्राप्ति आदि का वर्णन है।

    सप्तम स्कन्ध- इसमें भागवत के आधार पर नृसिंह अवतार का वर्णन किया गया है। परन्तु श्री भगवान् द्वारा शिव की सहायता और नारद की उत्पत्ति की कथाएँ भागवत के इस स्कन्ध में नहीं मिलतीं।

    अष्टम स्कन्ध- इसमें गजेन्द्र-मोक्ष, कूर्मावतार, समुद्र-मंथन, विष्णु का मोहिनी रूप धारण करना, वामनावतार तथा मत्स्यावतार का वर्णन है।

    नवम स्कन्ध- इसमें श्रीमद्भागवत के नवम स्कन्ध की कथाओं के आधार पर राजा पुरुरवा और उर्वशी का उपाख्यान, च्यवन ऋषि की कथा, हलधर-विवाह, राजा अम्बरीप और सौरभरि ऋषि के उपाख्यान, भगीरथ द्वारा गंगा का आनयन, परशुराम-अवतार तथा श्री रामावतार का वर्णन किया गया है। सूर-सागर के इस स्कन्ध में गौतम-अहिल्या का तथा इन्द्र को शाप देने का भी वर्णन है जो भागवत के नवम स्कन्ध नहीं है। सूर को भगवान् कृष्ण का रूप अधिक प्रिय है। वैसे ही जैसे तुलसी को राम का। पर सूर ने राम-चरित्र का भी हृदय-हारी चरित्र-चित्रण किया है। राम के बाल-रूप-वर्णन में तो, अपनी प्रवृत्ति के अनुकूल, वे तल्लीन हो गए है। सीता का विरह-वर्णन भी अद्वितीय है।

    दशम स्कन्ध पूर्वार्द्ध- सूर की समस्त कीर्ति का आधार यही स्कन्ध है। सूर के कवित्व की कोमलता, कमनीयता और कला, भगवद्भक्ति, भावुकता और भव्यता, वैलक्षण्य, विलास, व्यंग्य, और विदग्घता, सबका स्रोत यही तो है, जहाँ से भिन्न-भिन्न भाव-धाराएँ फूट-फूटकर सूर-सागर में समाविष्ट होती है और उसके नाम को चरितार्थ करती है। इस स्कन्ध के पदों की संख्या अन्य सब स्कन्धों के पदों की सम्मिलित संख्या के पाँच गुने से भी अधिक है। भागवत में भी यही स्कन्ध सबसे बड़ा है। इसमें भगवान् कृष्ण की जन्म-लीला, मथुरा से गोकुल आना, छटी, पूतना-वध, शकटासुर और तृणावर्त का वध, नामकरण, अन्नप्राशन, वर्षगाँठ, कर्ण-छेदन, घुटनों के बल चलना, बाल-वेश, चन्द्र-प्रस्ताव, कलेवा, माटी खाना, माखन-चोरी, गो-दोहन, वत्स-बक-अधासुर वध, ब्रह्मा द्वारा गोवत्स-हरण, राधाकृष्ण का प्रथम साक्षात्, ब्रीड़ा, राधा का श्याम के घर जाना, श्याम का राधा के घर जाना, गो-चारण, धेनुक-वध, कालिय-दमन, दावानल-पान, प्रलम्ब-वध, मुरली, चीर-हरण, पनघट, गोवर्धन-पूजा, दान-लीला, नेत्र-वर्णन, रास-लीला, राधाकृष्ण का विवाह, मान-लीला, हिंडोल-लीला, वृषभ-केशी-भौमासुर-वध, होरी-लीला, श्रीकृष्ण का अक्रूर के साथ मथुरा जाना, मुष्टिक चाणूर-वध, कंस-वध, उग्रसेन को सिंहासनासीन करना, वसुदेव-देवकी के दर्शन करना, यज्ञोपवीत, कृष्ण का कुब्जा के घर जाना आदि अतीव मनोहर और हृदयाकर्षक प्रसंगों का वर्णन है इसमें सूर की जितनी रुचि रमी है उतनी अन्यत्र नहीं। प्रेम ही सूर का प्रधान क्षेत्र था, और उसके सभी रूपों का जितना विस्तृत और सुन्दर वर्णन सूर-सागर में है उतना और कहीं नहीं।

    दशम स्कन्ध उत्तरार्द्ध- दशम स्कन्ध के उत्तरार्द्ध के जरासंध से युद्ध, द्वारिका-निर्माण, काल-यवन-दहन, मुचकुन्द का उद्धार, द्वारिका-प्रवेश, रुक्मिणी-हरण, प्रद्युम्न-विवाह, उषा-अनिरुद्ध-विवाह, नृगराज का उद्धार, बलराम का ब्रज-गमन, सांव-विवाह, कृष्ण का हस्तिनापुर जाना, जरासंध-वध, शिशु-पाल-वध, शाल्व का द्वारिका पर आक्रमण, शाल्व-वध, दन्त-वक्र और वल्वल का वध, सुदामा-दारिद्र्य-भंजन, कुरुक्षेत्र में आगमन और नन्द-यशोदा तथा गोपियों से मिलन, वेद-स्तुति, नारद-स्तुति, सुभद्रा-अर्जुन का विवाह, भस्मासुर-वध, भृगु-परीक्षा आदि विषयों का वर्णन है, जो भागवत के ही अनुसार है।

    एकादश स्कन्ध- इसमें श्रीकृष्ण का उद्धव को वदरिकाश्रम भेजने का, नारायणावतार तथा हंसावतार का वर्णन है।

    द्वादश स्कन्ध- इसमें बौद्धावतार, कल्कि-अवतार तथा राजा परीक्षित और जनमेजय की कथाएँ हैं। अवतारों का वर्णन भागवत के एकादश स्कन्ध के अनुसार है।

    सूरदास का जन्म वैशाख शुक्ल 5 मंगलवार संवत् 1535 अथवा सन् 1478 ई. में हुआ। मृत्यु सं. 1640 के लगभग हुई, सन् 1583 ई. में। 105 वर्ष के इस काल में भारतीय इतिहास की एक शताब्दी व्यतीत हुई और एक नहीं कई परिवर्तन इस काल में हमें दिखाई पड़ते हैं- सूरदास का समय अकबर के राज्य-काल तक आता है। उससे पूर्व की एक शताब्दी बहुत धार्मिक हलचलों और ऐतिहासिक उथल-पुथलों की थी। समस्त युग सामन्तवादी था। छोटे-छोटे राज्य, छोटे-छोटे सामन्त। प्रत्येक राज्य और प्रत्येक सामन्त की अपनी अलग आन-बान-शान। इनमें परस्पर भी युद्ध होते थे, और अब तक, अकबर से पूर्व तक, विदेशी माने जाने वाले दिल्ली के मुसलमानी शासकों से भी युद्ध होते थे। छुट-पुट मुसलमानी राज्य दक्षिण में भी स्थापित हो गए थे। इनमें भी इस युग की सामन्तवादिनी भावना थी। दिल्ली की केन्द्रीय शक्ति मुसलमानी शासन-स्थापन के बाद एक बादशाह के बाद दूसरे के हाथों में प्रायः इतनी जल्दी-जल्दी गई थी, और राजकीय लड़ाइयाँ जहाँ-तहाँ आए दिन इतनी अधिक होती रहती थीं कि साधारण जन तो उनमें रस ही पाता था, बल। राजा-बादशाहों के लिए भी यह उचित ही था कि वे प्रजा को पीड़ित करें- आए दिन यदि प्रजा का विनाश होगा तो राजा के हाथ क्या लगेगा। फलतः प्रजा को भी युद्धों से वैराग्य था, युद्धों से नहीं राजनीति से भी। वे अपने कार्य में व्यस्त रहते, जो भी राजा होता उसे कर देकर अपनी शान्ति वे खरीदते रहे। इस काल की राजनीति-विषयक साधारण जन की भावना वही थी जो मन्थरा ने विरक्त होकर कैकेयी के समक्ष प्रकट की थीः

    कोउ नृप होउ हमहिं का हानी।

    चेरि छाँड़ि अब होव कि रानी।।

    राजनीति से विरक्त जनता अपने व्यवहारों में ही मग्न नहीं होती गई, अपने व्यसनों में भी डूबी। व्यसन था धर्म और यह व्यसन इस युग में जीवन और व्यवहार का मुख्याधार बन गया था। राज्य और राजनीति से विरक्त मन के लिए ही धर्म आधार नहीं था, वह तो राज्य और राजनीति से भी गहराई के साथ चिपक गया था। राज्य और राजनीति से चिपके इसी धर्म का अत्याचार प्रजा और जनता को भोगना पड़ता रहा था, और इस धार्मिक अत्याचार का कोई-न-कोई प्रभाव सूरदास जी ने भी अनुभव किया ही होगा। यदि इस युग की राजनीति और राज्य के धर्म के आवरण से युक्त होते तो इस काल का ही नहीं, भारत के इतिहास का ही रूप कुछ भिन्न होता, किन्तु ऐसा नहीं हो सका। इसी कारण साधारण जन राजनीति से विरक्त ही नहीं हुआ, विमुख भी हो चला। ‘दिल्लीश्वरो वा जगदीश्वरो वा’ का नारा बुलन्द भी हुआ, पर वह जम नहीं सका। इसी कारण साधारण जन को अपनी अभाव-पूर्ति के लिए, अपनी राज्य-भक्ति की भावना की तुष्टि के लिए अपने मनोनुकूल राजा की आवश्यकता प्रतीत हुई।

    भारतीय प्रजा क्या चाहती थी? वह चाहती थी अपने लिए राजा, क्योंकि वह राजा में विश्वास करती थी- राजतन्त्र में पली थी, राजतन्त्र का वह युग था।

    ऐसा राजा जो उनका प्रतिपालन करे- राजा की सत्ता का इस युग में यही तो प्रधान धर्म था।

    ऐसा राजा, जो उन्हें कल्याण का मार्ग बताये- अन्यथा विदेशी मुसलमान शासक भी राजा थे ही, उन्हें यह भी राज्य-भक्ति प्रदान करता।

    ऐसा राजा, जिसका पार्थिव वैभव भी माहन् हो- राज-कोष का सत्ता के वैभव से इस सामन्तवादी युग में गठ-जोड़ा था।

    ऐसा राजा, जो धर्म की धुरी को भी धारण करने वाला हो, क्योंकि मुसलमानी शासन ने धर्म और राजा को मिला दिया था।

    ऐसा राजा, जो भगवान् का अंश ही हो, उनका अवतार ही हो- राजा में भगवान् का अंश होता है, यह तो भारत में बद्धमूल धारणा थी ही, किन्तु इस धारणा से तो वे मुसलमान-शासक को भी अपनी भेंट देते ही थे, पर भगवान् के उस अंश पर अश्रद्धा जो हो रही थी तो भगवान् का अवतार ही उनकी तुष्टि कर सकता था।

    राजा ऐसा भी हो जो उनका गुरु हो सके- इस युग में सन्त मत के द्वारा गुरु का महत्व बहुत बढ़ा हुआ था- ‘निगुरा’ व्यक्ति हीन दृष्टि से देखा जाता था। कबीर को भी इसी भआवना के आगे हारकर गुरु करना पड़ा था।

    महाप्रभु वल्लाभाचार्य की प्रतिभा ने और गोसाईं विट्ठलनाथ की व्यावहारिक बुद्धि ने इन समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति का एक मूर्त रूप ‘पुष्टिमार्ग’ में खड़ा कर दिया।

    महाप्रभु और गोसाईं तथा उनके पुत्र भगवान् के अवतार ही नहीं स्वयं भगवान् हुए। इनके द्वारा त्रिविध भगवान् का सम्बन्ध प्रस्तुत हुआ-

    1- मूल भगवान्- स्वयं कृष्ण।

    2- विग्रह भगवान्- कृष्ण जी की विविध मूर्तियाँ।

    3- गुरु भगवान्- वल्लभाचार्यजी तथा गोसाईं जी।

    इनमें राज्य-वैभव की प्रतिष्ठा भी बड़ी युक्ति से की गई। भगवान् के विग्रह को ‘ठाकुर’ कहा गया। ‘ठाकुर’ इस युग में राजा के लिए ही प्रयोग में आता था। सूरदास जी ने भगवान् को ठाकुर बताकर उनके राज्य-शासन का ही उल्लेख रूपक से किया है। वल्लभाचार्य तथा गोस्वामी विट्ठलनाथ जी ने ठाकुर जी की सेवा के विधान में पूर्ण राजसी वैभव का समावेश किया। ठाकुर जी के विविध वर्णन राजसिक वैभव और ऐश्वर्य को प्रकट करते हैं। मणि, मोती, हीरा, मूँगा, स्वर्ण से कम का उल्लेख तो हुआ ही नहीं। और यह वर्णन काल्पनिक नहीं यथार्थ था, क्योंकि वल्लभ-सम्प्रदायों के मन्दिरों में वह उपलब्ध था।

    इस विधि के राजनीति राज्य-विधान के अन्तर्गत एक धार्मिक राज्य-विधान इस युग में खड़ा हो गया। धार्मिक और स्वेच्छा पर निर्भर करने वाला होकर यह मन में गहरा प्रभाव प्रस्तुत करने वाला था- इसी ने भक्तजनों को ‘तन मन धन सब गुसाईं जी के अर्पण’ करने को बाध्य किया।

    इस पृष्ठभूमि पर सूर-सागर बना और इश सबकी झिलमिलाहट सूर-सागर में विद्यमान मिलती है। सूर-सागर के काव्य के विश्लेषण से हमें उसमें तीन तत्व मिलते हैं-

    1- पुराण-कथा, 2- वर्णन-वैभव, 3- भाव-सम्पत्ति।

    इसमें ‘पुराण-कथा’ तो भागवत के अनुसार है, जैसा ऊपर कहा जा चुका है, अतः उसका सम्बन्ध मुख्यतः मूल कृष्ण से है- वह कृष्ण जो परम तत्व हैं और जिनके अवतार वल्लभ और विट्ठल है। पर उसमें जो वर्णन विस्तार, विशदता और राजसिकता है, वह मन्दिरों और आचार्य गुओं के वैभव के आधार पर है। भगवान् के रूप की ओर श्रृंगार की कल्पना में पौराणिक श्रृंगार के बीच के साथ विस्तार उस श्रृंगार का है जो प्रतिदिन मन्दिर में ठाकुरजी का किया जाता था। वार्ता में स्पष्ट है कि सूरदासजी अपने कीर्तननों में जैसा श्रृंगार ठाकुरजी का होता था, वैसा ही वर्णन करते थे। इस कथा और वर्णन-वैभव के साथ ‘भाव-सम्पत्ति’ का बड़ा मनोरम समागम है। यह भाव-सम्पत्ति आचार्य और गोसाइयों के प्रति भक्ति की प्रेरणा से प्रभावित थी। स्वयं सूरदास ने अपनी भाव-सम्पत्ति की कुंजी एक पद में दी है, उसकी पुष्टि और व्याख्या ‘वार्ता’ से भी होती है कि सूरदास की रचना का मूल मर्म महाप्रभु वल्लभाचार्य की भक्ति ही थी। यह व्यक्तिगत धरातल पर इतनी गहरी थी कि सूर की कृष्ण-लीला के मौलिक वर्णनों में वात्सल्य के चित्र जैसे विट्ठलनाथ के ही बाल-जीवन के चित्र प्रतीत होने लगते हैं। इस गोवर्द्धनधारी में ढाढी-कीर्तनियाँ सूर के इन वात्सल्य वर्णनों में जो तन्मयता और भक्ति है और काव्य-वस्तु की जो यथार्थता है, वह उनके किसी अन्य वर्णन में नहीं है। इसी कारण सूर के सूर-सागर में काव्य-वृत्ति का विकास कुछ इस प्रकार सिद्ध होता हुआ दिखाई पड़ता हैः

    यथार्थ-स्तर- भावमय स्तर- बौद्धिक स्तर

    भाव-तन्मयता भाव माधुर्य भाव-समृद्धि

    वात्सल्य संयोग वियोग

    सूरसागर का समस्त काव्य वात्सल्य तथा श्रृंगार-रस से युक्त है। इन रसों की क्रमशः स्थिति उपर्युक्त विधि से ही हैः वात्सल्य, उसके उपरान्त संयोग-श्रृंगार तदनन्तर वियोग। वात्सल्य में कृष्ण की बाल-क्रीड़ाएँ हैं जिनमें भक्ति की भाव-संयोजना के साथ बालक के मानसिक विकास का सूत्र भी परिलक्षित होता है। इस वात्सल्य के यथार्थ में आरम्भ से ही गोपियों के प्रेम का अवलम्ब दृष्टिगत होता है। पहले यह गोपी-कृष्ण-प्रेम अत्यन्त साधारण धरातल पर है- गोपियाँ कृष्ण को चाहती हैं, कृष्ण गोपियों के घर में घुसकर उपद्रव करते हैं, माखन चुराते हैं। कृष्ण इस समय बालक ही हैं किन्तु गोपियों का कृष्ण पर प्रेम यशोदा के प्रेम से भिन्न प्रतीत होता है। यह प्रेम कुछ विकसित होते ही ‘राधा’ सामने जाती है और गोपियों के प्रेम की पृष्ठिभूमि पर ही राधा-कृष्ण के प्रेम की लीला होने लगती है। इसकी चरम परिणति रास में होती है, तभी ‘वियोग’ हो जाता है इस वियोग का चरमोत्कर्ष ‘भ्रमर-गीत’ में होता है। वात्सल्य में भावतन्मयता है, कृष्ण की बाल-लीलाओं के अवलम्ब के साथ। संयोग में भाव-माधुर्य है- वयः सन्धि और अंकुरित यौवन के साथ मुरली और रास का इस संयोग में विशेष स्थान है। इन सबमें भाव का ही अस्तित्व प्रधान है। इस काल की क्रीड़ाओं में किसी का भी अवलम्ब यथार्थ नहीं, प्रत्येक यथार्थ के संकेत में दोनों ही महकते हैं- तब वियोग में यह भाव-मुग्धता तो कम हो जाती है, बौद्धिक पक्ष प्रबल हो उठता है। बौद्धिक होकर गोपियाँ अपने प्रेम-उन्माद के लिए युक्तियों तथा तर्कों का भी सहारा लेती है।

    इस विश्लेषण से सूर के काव्य के तन्तुओं का परिचय मिल जाता है। किन्तु सूर का काव्य इन तन्तुओं से निर्मित होते हुए भी, इन्हीं में नहीं है। इन तन्तुओं को जो मानव-कल्याण की महत् भावना अभिमण्डित किये हुए है, वह समय की परिधि से घिरी हुई है, सम्प्रदाय की सीमाओं से। मानव में उसके शारीरिक सौन्दर्य की पूर्ण प्रतिष्ठा के साथ मानसिक अवतीर्ण करते हुए आध्यात्मिक उपलब्धि इस काव्य के द्वारा सम्पन्न होती है।

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    Jashn-e-Rekhta | 8-9-10 December 2023 - Major Dhyan Chand National Stadium, Near India Gate - New Delhi

    GET YOUR PASS
    बोलिए