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सूर के भ्रमर-गीत की दार्शनिक पृष्ठभूमि, डॉक्टर आदर्श सक्सेना

सूरदास : विविध संदर्भों में

सूर के भ्रमर-गीत की दार्शनिक पृष्ठभूमि, डॉक्टर आदर्श सक्सेना

सूरदास : विविध संदर्भों में

MORE BYसूरदास : विविध संदर्भों में

    सूर का सम्पूर्ण साहित्य का प्रतिक्रिया है। यह प्रतिक्रिया उन्हीं तत्कालीन परिस्थितियों का परिणाम थीं जिन्होंने उनके गुरू श्री वल्लाभाचार्य को अपने सिद्धान्तों के प्रचार के लिए उत्तर भारत में भ्रमणार्थ भेजा था। विजयनगर नरेश कृष्णदेव राज के दरबार में शास्त्रार्थ द्वारा शंकर के मायावाद का खण्डन कर उन्होंने कीर्ति अर्जित की और आचार्य-पद भी पाया, परन्तु हिन्दू धर्म और दर्शन की अवरूद्ध धारा के पुनर्प्रवाह का कार्य शेष रह गया था। 14वीं और 15वीं शताब्दियों में मुस्लिम साम्राज्य और इस्लाम के प्रसार के लिए जो दुर्दमनीय प्रयत्न हुए थे, उन्होंने इस देश की सांस्कृतिक जड़े ही हिला दी थीं। श्री वल्लाभाचार्य ने अपने ‘कृष्णाश्रय पोषश ग्रन्थ’ में मुसलमानों द्वारा आक्रान्त देश की पतितावस्था का वर्णन किया है। तीर्थों की दयनीय स्थिति, वर्णाश्रम-धर्म का विरोध, व्रत-नियम आदि का अभाव, सभी ओर उन्होंने संकेत किया है। सबसे विकट समस्या निर्गुणोपासना-पद्धति के व्यापक प्रचार के कारण उत्पन्न हुई थी। महापतन के उस काल में श्रीवल्लाभाचार्य ने जीवन में पुनः सरसता का संचार करने के लिए जिस आनन्द वर्द्धिनी कला का दर्शन कराया, उसी में उन्हें हिन्दू-समाज के उद्धार का मार्ग दीखा था। अपने शुद्धाद्वैत दर्शन को पुष्टिमार्गीय भक्ति-पद्धति में ढाल कर उन्होंने म्रियमाण हिन्दू समाज में जीवन की ललक तो उत्पन्न कर ही दी, अपनी मधुरा भक्ति से उसे आकर्षक भी बना दिया। पुष्टिमार्ग में गोपीजनों की भक्ति को ही आदर्श माना गया है। वे ही कृष्ण के प्रति सच्चा प्रेम करती थीं, उन्होंने ही कृष्ण का सच्चा अनुग्रह प्राप्त किया था। इस अनुग्रह की प्राप्ति भक्त भी कर सकता है। यदि वह गोपीजनों के सुख-दुःख, हर्ष-शोक, संयोग-वियोग आदि भावों का अपने अन्तर्मन में अनुभव कर सके। “निरोधलक्षणम्” में आचार्यजी ने इसी भाव को इस प्रकार व्यक्त किया है-

    यच्च दुःखं यशोदाया नन्दादीनां गोकुले।

    गोपिकानां यद्दुःखं तद्दुःखं स्यान् मम क्वचित्।।

    भक्त यह कामना करता है कि जो दुःख-सुख नन्द-यशोदा, गोप-गोपियों को गोकुल में हुआ था, उसका अनुभव मुझे भी हो।

    सूरदास वल्लभाचार्य के अन्यतम शिष्य थे। उन्हीं की भक्ति-पद्धति को काव्य में ढाल कर उन्होंने जहाँ उसका व्यापक प्रसार करने में सहायता दी, वहीं उसे आकर्षक एवं ग्राह्य भी बना दिया। वल्लाभाचर्य से प्रभावित होने के पूर्व सूर दास्य भक्ति के प्रवाह में बहे जा रहे थे। तात्कालीन परिस्थितियों में दास्य-भावना की अनुपयुक्तता की ओर उनका ध्यान वल्लभाचार्य ने ही आकर्षित कराया था। “प्रभु हौं सब पतितन कौ टीको” सुनकर वल्लाभाचार्य ने कहा था- “जो सूर ह्वैं कैं ऐसो घिघियात काहे को हैं.....।” उनके आदेश को स्वीकार कर सूर ने घिघियाना छोड़ कर सरस लीलागान के जिस मार्ग का अनुसरण किया, वह विश्व-साहित्य में बेजोड़ हैं। घिघियाने के स्थान पर वाग्वैदग्ध्य, उपालम्भ और कटूक्तियों का सहारा लेकर उन्होंने ज्ञान और प्रेम के सम्मुख प्रेम और भक्ति की महिमा ही प्रतिपादित नहीं की, दिग्भ्रमित हिन्दू समाज का दिशा-निर्देश भी किया। वल्लाभाचार्य के प्रति अपने ऋण को सूर ने स्पष्ट शब्दों में स्वीकार किया है-

    कर्म योग पुनि ज्ञान उपासन, सब ही भ्रम भरमायो।

    श्रीवल्लभ गुरु तत्व सुनायो, लीला भेद बतायो।।

    ता दिन ते हरि लीला गाई एक लक्ष पद बंध।

    सूर की भक्ति-दृष्टि में यह जो परिवर्तन हुआ, यह परवर्ती साहित्य की दृष्टि से ही महत्वपूर्ण नहीं रहा, तत्कालीन परिस्थितियों की दृष्टि से भी आवश्यक था। भक्ति को अधिकार और प्रेम का आधार प्रदान कर सूर ने उसे निष्क्रिय दासत्व से उठा कर जाग्रत सख्य के पद पर प्रतिष्ठित कर दिया। यह वह स्थिति थी जिसमें भक्त भगवान को अपने प्रेम के बल पर झुकने को बाध्य कर सकता था, उससे तर्क कर उसे परास्त कर सकता था, प्रेम के अधिकार का प्रदर्शन कर सकता था और सुख-समृद्धि के आकर्षण का तिरस्कार का दुःख और पीड़ा में आनन्दानुभूति प्राप्त कर सकता था। कृष्ण की गोपियों के प्रति चिन्ता और विरह व्याकुलता, गोपियों के सम्मुख उद्धव की पराजय इसी तथ्य की ओर संकेत करती है। मधुरा भक्ति की इस चरित्र विधायिनी शक्ति का पूर्ण परिपाक भ्रमरगीत में हुआ है। स्वतंत्र रूप में भी यह प्रसंग ज्ञान पर भक्ति की ओर निर्गुण पर सगुण की विजय का शंखनाद है।

    भ्रमरगीत की शैली है उपालम्भ। यद्यपि इससे विरह-वर्णन के गहन प्रसंग भी हैं, तथापि उन्हें आकर्षण और तीव्रता उपालम्भ से ही प्राप्त हुई है। उपालम्भ स्वयं में एक बौद्धिक प्रक्रिया है जो प्रिय के द्वारा अपने तिरस्कार-बोध से उत्पन्न होती है। इस प्रक्रिया में एक ओर बुद्धि-विलास के दर्शन होते है तो दूसरी ओऱ अनुभूति की तीव्रता के। परन्तु इस दोनों का समन्वय उस प्रेम में होता है जो प्रिय के व्यवहार से असन्तुष्ट होते हुए भी उसकी हितचिन्ता से ग्रस्त रहता है। उपालम्भ में अपने प्रिय उपेक्षा की प्रतीति तो होती है, परन्तु लज्जन्य विरोध नहीं। वाचालता, वाग्विदग्धता और भावविह्वलता की कलात्मक अभिव्यक्ति उपालम्भ का प्राण है। कृष्ण और उद्धव के प्रति गोपियों के उपालम्भ वास्तव में ज्ञान मार्ग और निराकार ब्रह्म के दर्शन के प्रति सगुण प्रेम भक्ति की वह प्रतिक्रिया है जो सूर के भ्रमरगीत की आत्मा है। उद्धव के निराकार ब्रह्म के उपदेश के उत्तर में गोपियों ने जिस साकार ईश्वर की प्रतिष्ठा की है तथा उद्धव के ज्ञानगर्व को जिस प्रकार खण्डित किया है, वह तत्कालीन धार्मिक-सामाजिक परिस्थितियों के प्रति सूर की अपनी प्रतिक्रिया थी जो विभिन्न साम्प्रदायिक आन्दोलनों के माध्य से सुसंठित रूप में अभिव्यक्त हो रही थी। सूर के काव्य के इस पक्ष पर विचार करने से पूर्व इस स्थिति पर भी किंचित् विस्तार से विचार करने की आवश्यकता है।

    मुस्लिम सम्प्रदायवाद, राजनीतिक अस्थिरता और सांस्कृतिक संकट के काल पूर्व-मध्य युग में दो ऐसी प्रमुख समस्याएँ थीं जिनसे उस काल का भारतीय मानस आक्रान्त था। प्रथम था भौतिक संकट जिसमें धार्मिक अत्याचार और धर्म-परिवर्तन के प्रयास सम्मिलित थे और दूसरा था वैचारिक संकट जिसमें निर्गुन चिन्तन की विविध प्रणालियों से लेकर सगुणोपासना की विविध पद्धतियाँ तक सम्मिलित थीं। इन दोनों ने तत्कालीन जीवन को विश्रृंखलता के कगार तक पहुँचा दिया था। गीता के उपदेश- “यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत”- के विश्वास का प्रकाश मंद पड़ चुका था और दिग्भ्रमित हिन्दू समाज को कहीं भी सुरक्षा का मार्ग नहीं दीख रहा था। ऐसे समय में मधुर, आकर्षक और प्रेममय विश्वास की महती आवश्यकता की पूर्ति कृष्ण के लोकरंजक स्वरूप के माध्यम से ही संभव हुई। इस प्रकार दिग्भ्रम के उस काल में सगुणोपासक भक्त कवियों ने जो आकर्षक मार्ग दिखाया, वह मानसिक शान्ति और भावनात्मक सन्तोष तो प्रदान कर ही सकता था। परन्तु यह कार्य पर्याप्त दुष्कर था, क्योंकि इन भक्त कवियों के लिए पहली आवश्यकता यह थी कि वे साम्प्रदायिक विरोध से अपने प्रचार को बचाते। दूसरी ओर यह भी आवश्यक था कि अपने सिद्धान्तों के प्रति वे आस्था जाग्रत कर पाते। तुलसी ने यह कार्य अलौकिक गुणों से युक्त भगवान राम के चरित्र गान के माध्यम से किया और सूर ने लोक-रंजनकारी दिव्य गुण-सम्पन्न कृष्ण के विशिष्ट व्यक्तित्व के निर्माण के माध्यम से। यह एक अनोखी स्थिति है कि तुलसी के समन्वयवाद की दुहाई बड़े जोर-शोर से दी जाती है परन्तु हिन्दू-धर्म और दर्शन की सूर द्वारा की गई सेवा को अनदेखा कर दिया जाता है। तुलसी ने सगुण और निर्गुण के समन्वय को केवल वैचारिक स्तर पर ही स्वीकार किया है। रामचरितमानस में इस समन्वय की बात केवल चिन्तन, विचार अथवा संवादों के माध्यम से ही कही गई है, जब कि व्यावहारिकता के स्तर पर सगुण ब्रह्म के आदर्श की बात ही पुष्ट होती है। सूर ने इस स्थिति को अधिक सरस और दृढ़ आधार प्रदान किया है और निर्गुण अविनाशी ब्रह्म के विचार को भावना की कसौटी पर कसा है। तुलसी जो बात भूल गये थे वह सूर ने याद रखी- मनुष्य विचारों से कम, भावनाओं से अधिक प्रेरित एवं निर्देशित होता है। इसी कारण तुलसी के राम का ग्राह्यरूप लोकहितकारी, अलौकिक शक्ति-सम्पन्न अवतार का बना जबकि सूर के कृष्ण अवतारी होते हुए भी लोकरंजक, मनोमुग्धकारी मधुर रूप में प्रतिष्ठित हो सके, दिव्य होते हुए भी लौकिक बन सके। यह बात उनके गुरु वल्लभाचार्य के दार्शनिक मतवाद के अनुरूप ही थी। वल्लभाचार्य को यही चिन्ता थी कि मस्तिष्क प्रधान व्यक्ति ब्रह्म के विशुद्ध रूप को प्राप्त कर संसार से मुक्त हो जायेगा, परन्तु हृदय प्रधान भावना प्रेरित व्यक्ति किस प्रकार मुक्त होगा? ज्ञान और योग के मार्ग सामान्य मनुष्य के लिए कष्टप्रद हैं। उन्हें प्रेम ही ऐसा तत्व लगा जो सहज हो सकता है। ‘अणु-भाष्य’ में उन्होंने कहा है- “कृतिसाध्यं ज्ञानभक्तिरूपं शास्त्रेण बोध्यते। ताभ्यां विहिताभ्यां मुक्तिमर्यादा तद्विहितानामपि स्वरूप-वलेन स्वप्राणं पुष्टिरित्युच्यते।” तुलसी के राम की भक्त से दूरी की बात कभी विस्मृत नहीं होती और सूर के कृष्ण की भक्त से निकटता की बात सदा ध्यान में बनी रहती हैं। राम और कृ,ण के विशिष्ट चरित्र-निर्माण की जो भी आवश्यकता रही हो, यह स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं हो सकती कि राम के ईश्वरतत्व ने साहस भले ही बँधाया हो, जीवित रहने की लालसा कृष्ण के चरित्र ने ही उत्पन्न की थी।

    अपने युग की परिस्थियों के अनुरूप वल्लभाचार्य ने जिस दार्शनिक चिन्तन की भूमिका का निर्माण किया था, उसी के एक अनन्य अनुगामी के रूप में सूर ने उस पद्धति को अत्यन्त मनोवैज्ञानिक धरातल पर प्रतिष्ठित करने का सार्थक प्रयास किया। इस प्रयास की चरम परिणति हुई भ्रमरगीत-प्रसंग में। एक संक्षिप्त धार्मिक सूत्र को ग्रहण कर उस पर सूर ने किस प्रकार तत्व-चिन्तन के भव्य भवन का निर्माण किया, इस पर विचार करना आवश्यक है।

    श्री वल्लाभाचार्य ने श्रीमद्भागवत से प्रेरणा ग्रहण कर पुष्टि का मार्ग दिखाया था। सूर ने भी उसी भागवत का आधार लेकर ‘सूरसागर’ की रचना की। परन्तु यह उनकी सीमा रही। अपनी मौलिक उद्भावनाओं से उन्होंने अपनी आवश्यकता के अनुरूप रोचक प्रसंगों का निर्माण कर लिया। श्रीमद्भागवत में उद्धव-गोपी प्रसंग बहुत सीमित है। दशम स्कंध के 46वें 47वें अध्यायों में ही ‘भ्रमरगीत’ का आधार भी हैं। वहाँ उद्धव को संबोधित कर गोपियाँ कहती हैं कि भौंरों का पुष्पों से और पुरुषों का स्त्रियों से जो प्रेम-संबंध होता है, वह स्वाँग होता है, स्वार्थ के लिए होता हैं। वहाँ कृष्ण के प्रति उपालम्भ व्यक्त करती गोपियाँ भावातिरेक में आत्मविस्मृति की अवस्था में पहुँचकर रुदन करने लगती है। उसी समय पास में गुनगुनाते एक भौंरे को देखकर एक गोपी उसे कृष्ण का दूत मान बैठती है और उसे लक्ष्य कर अपनी मनोव्यथा व्यक्त करने लगती हैं। उद्धव बहुत प्रभावित होते हैं और कृष्ण का संदेश उन्हें सुनाते हैं। कृष्ण का संदेश है कि मैं सबका उपादान कारण होने से सबका आत्मा हूँ तथा सब में अनुगत हूँ, इसलिए मुझसे तुम्हारा कभी वियोग नहीं हो सकता... अशेष वृत्तियों से रहित होकर सम्पूर्ण मन से जब तुम मुझ में अनुरक्त होओगी, तब तुम मुझे सदा के लिए प्राप्त हो जाओगी। जिस समय मैंने वृन्दावन में शरद् पूर्णिमा की रात्रि को रास लीला की थी, उस समय जो गोपियाँ स्वजनों की रोक के कारण रास में सम्मिलित नहीं हो सकी थीं, वे भी मेरी लीलाओं का स्मरण कर मुझे प्राप्त हो गई थीं। तुम्हें भी मैं अवश्य प्राप्त हूँगा, निराशा की कोई बात नहीं है। कृष्ण के संदेश ने गोपियों को आनन्दित एवं संतुष्ट कर दिया, यद्यपि इस कार्य के लिए उद्धव को कई महीने गोकुल ने रहना पड़ा था। उद्धव भी गोपियों की प्रेम भक्ति से इतने प्रभावित हुए थे कि यह कामना करने लगे थे कि लता, जड़ी, बूटी आदि किसी भी रूप में वे वृन्दावन में रह जायें जिससे ब्रजबालाओं की चरणधूलि में स्नान करने का सौभाग्य उन्हें प्राप्त होता रहे।

    भागवत की यही कथा सूर के ‘भ्रमरगीत’ का आधार है, यद्यपि दोनों की प्रकृति और इस कारण काव्य में अन्तर गया है। सूर के भ्रमरगीत में ज्ञान, योग, भक्ति, निर्गुण, सगुण आदि पर वाद-विवाद है जो भागवत में कहीं नहीं है। भागवत में कृष्ण का जो संदेश उद्धव ने दिया, वह कोरा ज्ञानयोग या निर्गुण का संदेश भी नहीं है। वह संदेश तो भक्ति का ही हैं, परन्तु मनोनिग्रहपूर्वक ज्ञानमार्गीय भक्ति का है, यद्यपि अंत में उद्धव भी गोपियों की प्रेम-भक्ति को आदर्श मानने लगते हैं। इसके विपरीत सूर के उद्धव भक्त का खण्डन कर स्पष्ट रूप से ज्ञानयोग और निर्गुण का संदेश देते हैं। सूर की गोपियाँ जिस मधुरा भक्ति की स्थापना करती हैं, उसमें ज्ञान और योग के लिए कोई स्थान नहीं हैं। सूर की गोपियाँ जिस मधुरा भक्ति की स्थापना करती हैं, उसमें ज्ञान और योग के लिए कोई स्थान नहीं है, हालाँकि यहाँ भी अन्त में उद्धव पराजित हो जाते हैं- “सूर उनके भजन आगे लगै फीको ज्ञान।”

    भागवत के कृष्ण नन्द, यशोदा, गोपियों आदि के विरह की विकलता को शान्त करने तथा सबके कुशल-क्षेम का समाचार लाने के लिए उद्धव को भेजते हैं। इस कारण उद्धव जो संदेश ब्रज लाते हैं, वह ज्ञानमार्ग का है, योग का, ही निर्गुण की साधना का। उसमें कृष्ण के सगुण रूप का निषेध तो है ही नहीं, समर्थन ही है। उद्धव गोपियों को केवल प्रबोध देते हैं, उन्हें प्रेरित करते हैं कि वे विरह में रोने-दोने के स्थान पर कण-कण में सर्वात्मा का दर्शन कर शान्ति प्राप्त करें। इस संदेश का गोपियों पर ब्रज भेजते हैं। कृष्ण ने देख लिया था कि उद्धव निर्गुण के साधक हैं और उन्हें (कृष्ण को) त्रिगुण मायाकृत मानते हैं, ब्रह्म नहीं। उन्होंने यह भी देख लिया था कि प्रेम, भजन और भक्ति से भी वे शून्य थे। समझाने से वे मानते नहीं, अतः उनके सुधार का यही एक मार्ग कृष्ण को दिखाई दिया है-

    प्रेम-भजन नैंकु याकै, जाइ क्यौं समुझाइ।

    सूर प्रभु मन यहै आनी, ब्रजहिं देउँ पठाइ।

    भागवत में उद्धव पहली रात नन्द-यशोदा से ही भेंट करते हैं, अगले दिन गोपियों से मिलते हैं। सूर के भ्रमरगीत में यह क्रम इतना स्पष्ट नहीं है, ऐसा लगता है जैसे उद्धव की पहली भेंट गोपियों से ही होती है। गोपियाँ दूर से ही कृष्ण जैसी आकृति को रथ में आते देखकर उत्सुक हो उठती हैं-

    कोउ माई आवत है तनु स्याम।

    वैसे पट, वैसिय रथ बैठनि, वैसीयै उर दाम।।

    जो जैसैं तैसैं उठि धाईं, छाड़ि सकल गृह काम।

    भागवत की गोपियाँ सरल ग्रामीण बालाएँ हैं जो कृष्ण के प्रेम में तो पूर्णतः निमग्न हैं, परन्तु जिनमें सूर की गोपियों जैसी अधीरता या वाक्-चातुर्य नहीं है। कृष्ण को उपहार और मंगल कामनाएँ भेजने का प्रसंग भागवत के समान सूर के काव्य में भी उपलब्ध हैं। उसी कथा के अनुरूप सूर के उद्धव भी गोपियों के प्रेम के सम्मुख परास्त हो जाते हैं और मथुरा लौटकर जो संदेश कृष्ण को देते हैं, वह उन्हें विचलित कर देता है।

    इस प्रकार मोटे तौर पर सूर के भ्रमरगीत में भागवत का आधार दिखाई देता है, परन्तु अपनी प्रकृति और उद्देश्य में सूर का भ्रमरगीत पर्याप्त भिन्न हैं। इसका कारण वही है जो पूर्व के पृष्ठों में स्पष्ट किया गया है- गोपियों के प्रेम की उत्कटता के माध्यम से सूर सगुणोपासना के सिद्धान्त का प्रतिपादन करना चाहते थे। तत्कालीन परिस्थितियों में ऐसी सरस पद्धति का अनुसरण करना कितना उपयोगी था, इस पर भी विचार किया जा चुका है। इस दृष्टि से भ्रमरगीत की सार्थकता सिद्ध करने के लिए सूर के भ्रमरगीत की कथा और उसके दार्शनिक पक्ष पर किंचित् विस्तार से विचार करना उपयोगी होगा।

    जीवन की बाल और किशोरावस्था ब्रजवासियों के मध्य प्रेम में व्यतीत कर जब कृष्ण अक्रूर के साथ मथुरा चले गये, तब ब्रजवासियों के लिए विरह का अपार समुद्र ही उमड़ पड़ा। सबसे अधिक कातर थीं ब्रज की गोपियाँ, क्योंकि माखन चोरी और रासलीला के माध्यम से कृष्ण उन्हीं के सर्वाधिक सम्पर्क में आये थे। यमुनातट, वंशीवट, सघन कुंज, गौएँ, सभी को उन्होंने अपनी उपस्थिति से प्राणवान बना दिया था। विरह व्याकुल गोपियों से एक पखवाड़े में लौट आने की बात वे कह गये थे। परन्तु पखवाड़े पर पखवाड़े बीतते चले गये- “मंदिर अरध अवधि बदि हम सों हरि अहार चलि जात”, पर कृष्ण आये, उनका संदेश ही आया। गोपियों के दुःख की सीमा रही। उन्होंने अपनी वियोग-व्यथा के संदेशे भेजने प्रारम्भ कर दिये। इतने संदेशे भेजे होंगे कि मथुरा के कुएँ भर गये होंगे- “सँदेसनि मधुवन कूप भरे।” परन्तु उनके संदेशों का कोई परिणाम नहीं निकला, उल्टे पथिकों ने ब्रज के रास्ते से निकलना ही छोड़ दिया- “सूर स्याम संदेसनि कैं डर पथिक उहिं मग जात।” गोपियाँ खीज गयीं। यह अच्छी रही, स्वयं तो खोज खबर लेते नहीं और हम संदेश भेजती हैं, तो उन्हें भी दबा जाते हैं-

    अपने तौ पठवत नहिं मोहन, हमरे फिरि फिरे।

    कागद गरे मेघ मसि खूटी, सर दब लागि जरे।

    सेवक सूर लिखन कौ आँधौ, पलक कपाट अरे।।

    पता नहीं मथुरा में स्याही चुक गई या कागज भीग कर गल गये या सरकण्डों के वन में आग लग गई! भक्ति श्रद्धेय के प्रति जिस विश्वास और प्रीति पर आश्रित होती है, उसी का प्रस्फुटन गोपियों की इस खोज में हुआ है। भगवान भक्त के प्रति बेखर दीख सकते हैं, और भक्त उनके उपेक्षा भरे व्यवहार के लिए उन्हें उलाहना दे सकता है, परन्तु भगवान तक उसकी प्रार्थना पहुँचती हो, ऐसा नहीं होता। कृष्ण तो स्वयं ब्रज के वियोग में दुःखी थे, उस पर उद्धव ने अपने ज्ञानोपदेश से जले पर नमक छिड़कने का कार्य किया। अतः उन्होंने एक तीर से दो शिकार करने का निश्चय किया। उद्धव को ही अपना संदेश वाहक बनाकर ब्रज भेज दिया- जाओ, अपने ज्ञान से गोपियों के अज्ञान का नाश कर उनकी विरह-व्यथा का उपचार करो। ज्ञान गर्व से मण्डित उद्धव कृष्ण के अविश्वास का खण्डन करने ब्रज के लिए चल पड़े।

    मथुरा के पथ पर दिवारात्रि आँखें बिछायें बैठी गोपियों ने जब उस दिशा से रथ आता देखा, तो उनके उत्साह की सीमा रही। वे दौड़ पड़ीं। रथ में कृष्णानुर्णी कोई मूर्ति विराजमान थी। रथ निकट आने पर उन्होंने देखा कि कृष्ण तो नहीं, उन्हीं की अनुकृति के उनके साथी थे। प्रिय सही, प्रिय का सखा ही सही। अत्यन्त उत्साह और उमंग से उद्धव का सत्कार कर वे उन्हें पौढ़ी में ले आई। गोपियों के प्रेम को देखकर उद्धव मुग्ध हो गये। परन्तु तत्काल ही उन्हें अपनी यात्रा के उद्देश्य का ध्यान आया- ज्ञान मार्ग का उपदेश देकर मधुरा भक्ति में आसक्त गोपियों के अज्ञान का विनाश करना, जिससे वे साकार कृष्ण को भूल कर, उनमें निराकार ब्रह्म का दर्शन कर, अपने चित्त को शान्त और आत्मा को तृप्त कर सकें। नंद और यशोदा तो उनके ज्ञानोपदेश के सम्मुख नतमस्तक हो गये। वही उपदेश उन्होंने गोपियों को देना प्रारम्भ किया-

    नैन नासिका अग्र है तहाँ ब्रह्म कौ बास।

    अविनासी बिनसै नहीं, सहज ज्योति परकाश।।

    प्रिय के संदेश के स्थान पर नीरस ज्ञान! गोपियाँ बिगड़ गई। कुब्जा की कथा उन्होंने पहले ही सुन रखी थी, अब इस अरसिक कृष्ण सखा से पाला पड़ा। उनके प्रेमी हृदय पर कठोर आघात लगा। उद्धव की ज्ञानगर्वोक्ति वे सहन नहीं कर सकीं। दैवयोग से तभी एक भ्रमर उड़ता हुआ वाँ गया- “इंहिं अंतर मधुकर इक आयौ” और गोपियों के विरह विदग्ध प्रेमी-हृदय ने उसमें एक ओर कृष्ण की प्रवृत्ति का और दूसरी ओर उद्धव की नीति का दर्शन कर लिया- दोनों भ्रमर के समान श्याम वर्ण, वैसे ही स्वार्थी और नीरस! भरी बैठी गोपियों ने उसी को लक्ष्य कर प्रकारान्तर से कृष्ण और उद्धव को जो खरी-खोटी सुनाइँ, वे ही भ्रमरगीत का प्राण हैं। सबसे पहला लक्ष्य उन्होंने भौंरे को ही बनाया। वे उससे, और प्रकारान्तर से जैसे उद्धव से, पूछने लगीं-

    ...................कुब्जा तोहि पठायौ?

    कैधौं सूर स्याम सुन्दर को, हमैं सँदेसौ लायौ?

    भ्रमर के माध्यम से यह विशेष लाभ था कि उद्धव जैसे सम्मान्य अतिथि का प्रत्यक्ष निरादर किये बिना वे सभी प्रकार के व्यंग्य और उपालम्भ का आधार उन्हें बना सकती थीं। यदि गम्भीरता से देखा जाये तो उद्धव का इसी रूप में उपहास उचित था। जिस ज्ञानमार्ग का खण्डन सूर करना चाहते थे, उस पर उस काल के समाज के एक बहुत बड़े भाग की आस्था थी। शंकराचार्य के बाद उनके नाना अनुयायियों ने, ज्ञानोपासक अन्य संतों ने तथा स्वयं भक्तिमार्गी अनेक साधकों ने, ब्रह्म के निर्गुण रूप में आस्था व्यक्त की थी और सगुण के समकक्ष ही उसे महत्व दिया था। उनकी भावनाओं को ठेस पहुँचाये बिना मीठे प्रहार का, उपालम्भ का यह मार्ग तत्कालीन परिस्थितियों में सर्वाधिक उपयुक्त था। कट्टर निर्गुण-मतवादी विचारधारा के प्रहार से सुरक्षित रहकर भी वे उस पर इस माध्यम से तीखा प्रहार कर सकते थे। अपनी सुदृढ़ सगुण-दृष्टि का इस प्रकार अत्यन्त कूटनीतिक उपयोग दूर ने भ्रमरगीत के माध्यम से किया। इसी हेतु गोपियाँ पहले अत्यन्त भोली बनकर पूछती हैं-

    हम सों कहत कौन की बातें?

    सुनि ऊधौ हम समुझति नाहीं, फिरि बूझति हैं तातैं।।

    पर उद्धव के उत्तर से उन्हें सन्तोष नहीं होता। भक्ति-विरोधी ज्ञान की बात उनकी समझ में नहीं आती। भगवान् में भक्त की कितनी दृढ़ आस्था हो सकती हैं, इसका प्रमाण सूर ने गोपियों के माध्यम से कृष्ण सन्देश के प्रति संदेह व्यक्त करके दिया हैं-

    मधुकर, कान्ह कही नहिं होहीं।

    यह तौ नई सखी सिखई है, निज अनुराग वरोही।।

    सँचि राखी कूबरी-पीठि पै, ये बातें चकचोही।।

    परन्तु जब उद्धव अपने तर्क पर जमें ही रहते हैं, तो गोपियों की खोज बढ़ जाती हैं और वे कृष्ण के प्रति अपना क्रोध स्पष्ट शब्दों में प्रकट कर देती हैं-

    ऊधौ, जान्यौ ज्ञान तिहारौ।

    जानै कहा राजगति लीला, अन्त अहीर विचारौ।।

    वह बेचारा अहीर राजनीति क्या जाने! पर उसीं अहीर में उन्होंने जितना अटल विश्वास व्यक्त किया है, वह भक्ति की तीव्रता का ही प्रमाण है- ‘व्याहौ लाख धरौ दस कुब्जा, अंतहि कान्ह हमारो।’ इस पर भी जब उद्धव अपना प्रलाप जारी रखते हैं, तो गोपियाँ पूछ बैठती हैं- “ऊधौ श्याम ने जो कहा था तुम ठीक तो समझे? नहीं तो जाकर फिर पूछ आओ- “ऊधौ, जाइ बहुरि सुनि आवहु कह्यौ जो नन्दकुमार।” पर यह भी तो हो सकता है कि कृष्ण ने उद्धव के साथ परिहास किया हो और भोले उद्धव उनकी चपलता समझे हों। इसलिए गोपियाँ भेद की बात पूछती हैं- “सूर स्याम जब तुमहिं पठायौ, तब नैंकहुँ मुसकाने?” गोपियों का यह तर्क बुद्धि की प्रक्रिया नहीं, अन्तर्मन में बैठे उस विश्वास की अभिव्यक्ति है जो अपनी आस्था पर तनिक-सा आघात भी सहन नहीं कर सकता। भक्त की उस सगुण आराध्य में यह आस्था ही गोपियों से कहला देती है कि श्याम ने तुम्हें भेजा ही नहीं है- “स्याम तुमहिं ह्याँ कौं नहिं पठयौ, तुम हौ बीच भुलाने।” उद्धव तब भी इन्कार कर देते हैं। उन्हें तो कृष्ण ने ही भेजा है गोपियों को ज्ञानमार्ग का उपदेश देने के लिए, वे किसी के द्वारा उकसाये नहीं गये हैं। इस पर गोपियाँ तुरन्त कृष्ण की राम से तुलना करके कह देती हैं- उनसे तो राम अच्छे थे, कम से कम अपने दूत के हाथ उन्होंने विरह-व्याकुला सीता को तत्वज्ञान का उपदेश तो नहीं भेजा-

    हरि सों भलो सो पति सीता कों।

    दूत हाथ उन लिखि पठायो, निगम ज्ञान गीता को।

    कृष्ण राजा थे, अतः उनको आधार बनाकर सूर ने राजधर्म की बात भी गोपियों से कहला दी। विदेशी विधर्मियों के शासन में स्वदेशी प्रजा की स्थिति का चित्रण इन पंक्तियों में देखा जा सकता है-

    हरि हैं राजनीति पढ़ि आए।

    राजधरम तौ वहै सूर जो प्रजा जाहिं सताए।।

    यह कैसा राजधर्म है जिसमें प्रजा सताई जा रही है?

    सूर गीतकार थे। एक कवि का सच्चा हृदय उन्हें उपलब्ध था, इसी कारण उनके काव्य में अनुभूति की तीव्रता दृष्टिगत होती है। भ्रमरगीत आध्यात्मिक साहित्य नहीं हैं, परन्तु साहित्य के माध्यम से अध्यात्म की बात वह अवश्य कहता है, प्रच्छन्न रूप में। इसी कारण उसे पहचानने के लिए गहन दृष्टि की अपेक्षा है, यद्यपि यह सत्य है कि सूर के अपने समय में आचार्यो और सन्तों की वाणी के व्यापक प्रचार के परिप्रेक्ष्य में इस अर्थ को ढूँढ़ना तब कठिन नहीं रहा होगा।

    भक्त का विश्वास अडिग होता है, इसलिए उद्धव के अटपटे ज्ञान-सन्देश पर गोपियों को हँसी जाती है। चलो, इस प्रकार की मूर्खतापूर्ण बातें करके ही सही, उन्होंने ब्रज के दुःखी लोगों को हँसा तो दिया-

    ऊधौ भली करी तुम आये।

    ये बातें कहि कहि या दुखी में ब्रज के लोग हँसाए।।

    उद्धव का ज्ञान गोपियों की भक्ति के सम्मुख परास्त होना नहीं चाहता, अतः वे अपने प्रवचन को आगे बढ़ाते हैं। गोपियों की खोज बढ़नी स्वाभाविक है। वे सगुण कृष्ण की प्रकृति भली प्रकार जानती हैं। मथुरा में उनके भटक जाने का कारण भी स्पष्ट कर देती हैं-

    स्याम विनोदी रे मधुबनियाँ।

    अबे हरि गोकुल काहे कौं आवत, भावति नव जोबनियाँ।।

    वै दिन माधौ भूलि गए जब, लियें फिरावती कनियाँ।

    दिना चारि तैं पहिरन सीखे, पट पीताम्बर तनियाँ।

    सूरदास प्रभु वाकैं त्रस परि, अब हरि भए चिकनियाँ।।

    चार दिनों में जो बदल गया हो, उसकी प्रीत कैसी है, वे जानती हैं। उनकी खीज क्रोध में प्रकट होनी स्वाभाविक ही है। यह भक्त का अधिकार है जो केवल सगुण आराध्य के प्रति ही प्रकट किया जा सकता है-

    मधुकर जानत है सब कोऊ।

    जैसे तुम अरु सखा तुम्हारे, गुननि आगरे दोऊ।।

    सुफलक-सुत कारे नख-सिखतैं, कारे तुम अरु ओऊ।

    अतिथि उद्धव कहौं बुरा मान जायें, इसलिए गोपियाँ उन्हें पुचकार भी देती हैं। ऊधौ बुरा मत मानना, तुम्हारा कोई दोष नहीं-

    विलग जनि मानौ ऊधौ कारे।

    वह मथुरा काजर की ओबरि, जे आवहिं ते कारें।।

    और उद्धव, हम स्वयं तुम्हारे कहे का बुरा नहीं मानती, क्योंकि तुम्हारी भी मजबूरी है। तुम नीरस ज्ञान, के प्रचारक हो, सरस प्रेम की बात क्या जानो-

    तेरौ बुरौ कोऊ मानै।

    रस की बात मधुप नीरस सुनि, रसिक होइ सो जानै।।

    भगवान के सम्मुख भक्त का रूप प्रिय के सम्मुख प्रेमिका का ही रूप है। मध्ययुग में जिस मधुरा भक्ति का प्रचार हुआ था, उसमें भक्त की अवधारणा प्रेमिका के रूप में ही हुई थी। यद्यपि दास्य, सख्य और वात्सल्य भाव को भी महत्व मिला था, परन्तु जो आकर्षण, रस की जो अनुभूति, आराध्य के साथ एकाकार होने का जो भाव मधुरा भक्त में उपलब्ध हो सकता है वह अन्य रूपों में नहीं। फिर भी सूर में इन विविध भावों की भी उतनी ही गहन अभिव्यक्ति हुई है, कारण इनका आधार भी तो सगुण ब्रह्म ही हैं। वल्लभाचार्य के सिद्धान्तों से इनका मेल भी बैठता है। तत्कालीन अन्य कई सम्प्रदायों ने भी केवल माधुर्य भाव ही स्वीकार किया था। चैतन्य या गौड़ीय सम्प्रदाय में भी माधुर्य भाव की प्रधानता स्वीकार की गई थी। बंगाल में वैष्णव भक्तों ने राधा के परकीया स्वरूप को अपनाया था और मधुरा भक्ति में विरह-भाव को प्रमुख माना था। राधावल्लभ सम्प्रदाय में भी एकमात्र माधुर्य भाव ही ग्रहण किया गया था। हित हरिवंश गोस्वामी ने बाह्य कर्मकाण्ड, विधि-निषेध आदि किसी को भी स्वीकार नहीं किया, जीव, जगत, माया, मोक्ष आदि के सम्बन्ध में हो कोई दार्शनिक मतवाद प्रचारित किया। ध्रुवदासजी ने तो स्पष्ट शब्दों में कहा है-

    महा माधुरी प्रेम रस, आवै जिहि उर माहिं।

    नवधाहू तिहिं रुचै नहि, नैम सबै मिटि जाहिं।।

    भक्त की गोपीरूप में कल्पना इसी आदार पर सूर का भी ल्क्ष्य रहा है। इस रूप में गोपी की कल्पना मात्र से ज्ञान और योग की सारी अवधारणा ही अर्थहीन एवं उपाहास्यस्पद हो जाती है। इसलिए सूर की गोपियाँ उद्धव को फटकार देती हैं-

    उलटी रीति तिहारी ऊधौ....

    अल्प बयस, अबला, अहीर सठ, तिनहिं जोग कत सोहै?

    गोपियाँ अल्पवय हैं, अबला है, जाति की अहीर हैं और ज्ञान की दृष्टि से मूर्ख, उन्हें योग क्या शोभा देगा? प्रकारान्तर से यह कथन सामान्य जन पर पूर्णतः उपयुक्त बैठता है जिसके लिए वल्लभाचार्य ने भक्ति-मार्ग निर्धारित किया था। वय अबला, अहीर सठ के प्रतीकात्मक अर्थ लगाये सा सकते हैं जो प्रेम-भक्ति के मार्ग की उपयुक्तता ही सिद्ध करेंगे।

    आध्यात्मिक दृष्टि से हीन, विचारात्मक दृष्टि से निर्धन ब्रजवासियों में उन्हीं सामान्य जनों का दर्शन सूर ने किया था जिनके लिए जोग की गठरी अद्भुत अनुपम वस्तु थी, अतः उनके किसी काम की नहीं थी-

    ऊधौ जोग बिसरि जनि जाहु।

    बाँधौ गाँठि छूटि परिहैं कहुँ, फिर पाछैं पछिताहु।।

    ऐसी बस्तु अनूपम मधुकर, मरम जानै और।

    ब्रजबनितनि के नाहिं काम की, है तुम्हरेई ठौर।।

    निर्गुण के व्यापक प्रसार को सूर ने व्यापार माना है, उद्धव उसके बड़े व्यापारी हैं, परन्तु भक्त की दृष्टि में तो यह व्यापार ठगी है। यह जोग ठगौरी ब्रज में नहीं बिकेगी। उद्धव तो फाटक देकर हाटक माँगते हैं, बड़े भोले हैं।

    भ्रमरगीत काव्य है, अतः नाना साहित्यिक आवश्यकताओं की पूर्ति भी उसके लिए आवश्यक है। सूर ने वाग्दैवग्ध्य का आश्रय लेकर इस आवश्यकता की पूर्ति की है जिसके उदाहरण विगत प्रसंगों में भी चुके हैं! निर्गुण के सम्बन्ध में वाग्दिंग्धता अपने तीव्रतम रूप में अभिव्यक्त हुई हैं। गोपियाँ अत्यन्त भोलेपन से निर्गुण का परिचय पूछती हैं-

    निरगुन कौन देस की बासी?

    मधुकर कहि समुझाइ सौंह दै, बूझति साँच हाँसी।।

    और,

    मोहन माँग्यौ अपनौ रूप।

    इहिं ब्रज बसत ऊँचै तुम बैठीं, ता बिनु उहाँ निरूप।।

    सगुण कृष्ण को निर्गुण बताये जाने पर कितना पैना व्यंग्य हैं! ‘ज्ञान को पंथ कुठार को धारा’ के ही अर्थ में गोपियाँ सगुणोपासना को सीधा मार्ग मानती हैं जिसके अनुसरण में निर्गुण की बात बाधाएँ उत्पन्न करती हैं-

    काहे कौं रोकत मारग सूधौ।

    सुनहु मधुप, निरगुन कंटक तें राजपंथ क्यौं रूँधौ।।

    ताकौ कहा परेखौ कीजै, जानैं छाँछ दूधौ।

    सूर मूल अक्रूर गयो लै, ब्याज निबेरत ऊधौ।।

    मधुरा भक्ति में प्रिय का व्यक्तित्व सदा सम्मुख रहता है और उसकी उपस्थिति का बोध कबभी क्षीण नहीं होता। ऐसी स्थिति में उसे निर्गुण मान कर कैसे विस्मृत किया जा सकता है? गोपियाँ इस विडम्बनापूर्ण स्थिति को स्वीकार नहीं कर सकतीं-

    सुनि है कौन कथा निर्गुन की, रचि पचि बात बनावत।

    सगुन सुमेरु प्रकट देखियत, तुम तृन की ओट दुरावत।।

    सगुण भक्ति के प्रसार में निर्गुण की बाधा पर खिन्न होकर तुलसी ने कड़े शब्दों में अपना रोष व्यक्त किया था- “तुलसी अलखहिं का लखै, रामनाम जपु नीच।” परन्तु सूर ने इतनी ही कटु बात कहीं अधिक मीठे शब्दों में कही हैं-

    ऊधौं राखति हैं पति तेरी।

    हियाँ ते जाहु, दुरहु आगे तें, देखुति आँख वरति है मेरी।।

    इस क्रोध, आक्रोश और उपहास का कारण है, जो जैसा करेगा, वैसा उत्तर पायेगा-

    वहिरे पति सों बात करै सो तैसोइ उत्तर पावै।

    सो गति होय सबै ताकी जो ग्वारिनि जोग सिखावै।।

    परन्तु उत्तर देने का भी क्या उपयोग? उत्तर साधु को दिया जाता है, दुर्मति को नहीं, उससे तो हार मान लेना ही ठीक है। गोपियों से यह बात कहलाकर सूर ने ज्ञानमार्ग की अनुपयुक्तता पर सबसे कठोर प्रहार किया है-

    साधु होय तेहि उत्तर दीजै, तुमसे मानी हारी।

    याही तें तुमकौं नँदनंदन यहाँ पठाये टारी।।

    और सच तो यह है कि कृष्ण स्वयं उद्धव के ज्ञान गर्व से तंग गये थे और उन्हें ब्रज भेज कर उन्होंने अपनी बला टाली थी। मधुरा भक्ति के वशीभूत कृष्ण जब ब्रज का स्मरण कर व्याकुल हो रहे थे, तब उन्हें भय था कि उद्धव अपने ज्ञान के घमण्ड में उनके प्रेम का तिरस्कार करेंगे। हुआ भी वही-

    जदुपति लख्यौ तिहिं मुसुकात।

    कहत हम मन रही जोई, भई सोई बात।।

    परन्तु जब उद्धव ब्रज से लौटे तो उनका पूर्णतः हृदय-परिवर्तन हो चुका था। उनका ज्ञान गर्व चूर हो गया था, प्रेम के महत्व को वे पहचान गये थे और निर्गुण को भूल कर सगुण के भक्त बन गये थे। लौटकर कृष्ण से उन्होंने कहा था-

    अब अति चकितवंत मन मेरौ।

    आयौ हो निर्गुन उपदेसन, भयौ सगुन कौ चेरौ।।

    छः मास ब्रज में रहकर प्रेम-भक्ति का जो स्वरूप उन्होंने देखा था, उसके आगे उन्हें अपने ज्ञानयोग की बात फीकी लगने लगी थी-

    देह गेह सनेह अर्पन कमललोचन ध्यान।

    सूर उनकौ प्रेम देखैं फीकौ लागत ज्ञान।।

    उद्धव पर ब्रज-प्रवास का कितना गहन प्रभाव पड़ा था, इसका प्रमाण उनकी यह आपबीती है जो लौटकर उन्होंने कृष्ण को सुनाई-

    बातैं सुनहु तो स्याम सुनाऊँ।

    जुवतिनि सौं कहि कथा जोग की, क्यौं इतो दुख पाऊँ।।

    हौं पचि एक कहौं निरगुन की, ताहू मैं अटकाऊँ।

    वै उमड़ैं वारिधि के जल ज्यौं, क्यौं हूँ थाह पाऊँ।।

    कौन कौन कौ उत्तर दीजै, तातैं भज्यौ अगाऊँ।

    वै मेरे सिर पटिया पारैं कंथा काहि उढ़ाऊँ।।

    एक आँधरी, हिय की फूटी, दौरत पहिरि खराऊँ।

    सूर सकल षट दरसन वै हौं बारहखड़ी पढ़ाऊँ।।

    यह कहकर कि जिस सम्पूर्ण ब्रज ने तुम्हारे प्रेम में ही षड्दर्शन का सार प्राप्त कर लिया था, उसे ज्ञानयोग की शिक्षा देने का मेरा प्रयास बारहखड़ी पढ़ाने जैसा मूर्खतापूर्ण कार्य था, सूर ने निर्गुण पर सगुण को सम्पूर्ण विजय की दुन्दुभी बजा दी है। इस प्रकार उद्धव की पराजय को जितने प्रभावशाली ढंग से सूर ने प्रस्तुत किया है, उतने ही प्रभावपूर्ण ढंग से सगुण का मण्डन और निर्गुण का खण्डन भी हो गया है। निर्गुण ब्रह्मोपासना तथा योग और ज्ञान के मार्ग को इतने कौशल से उन्होंने अनुपयुक्त ठहराया है कि उनकी कला पर आश्चर्य होता है। यह सब इसलिए है कि उनके व्यंग्य-विनोद, हास-परिहास कटूक्तियाँ-उपालम्भ आदि जिस प्रेमातिरेक से उद्भुत हैं, उसमें संदेह नहीं किया जा सकता। सूर की यह सफलता अभूतपूर्व थी। तुलसी ने भी सगुण के प्रति श्रद्धा-विश्वास का भाव उत्पन्न करने में सफलता पाई थी, परन्तु उस विश्वास और श्रद्धा को प्रेम का सरस आधार सूर ही प्रदान कर सके थे। यही वह आधार था जिसने संकट के उस काल में भी जीवन के प्रति ललक जाग्रत रखी। सम्पूर्ण सूर-साहित्य ने व्यापक स्तर पर जो कार्य किया था, भ्रमरगीत प्रसंग ने दर्शन के सीमित क्षेत्र में उसी को पूर्ण तल्लीनता से सम्पादित किया। इस प्रकार सूर का भ्रमरगीत प्रसंग एक गहन आध्यात्मिक आवश्यकता की ऐसी सरस साहित्यिक पूर्ति है जिसकी तुलना विश्व साहित्य में कहीं उपलब्ध नहीं।

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