Font by Mehr Nastaliq Web
Sufinama

सूर की सामाजिक सोच, डॉक्टर रमेश चन्द्र सिंह

सूरदास : विविध संदर्भों में

सूर की सामाजिक सोच, डॉक्टर रमेश चन्द्र सिंह

सूरदास : विविध संदर्भों में

MORE BYसूरदास : विविध संदर्भों में

    सूर की सामाजिक सोच क्या थी? क्या वह सोच आज के भारतीय समाज के लिए भी प्रासंगिक है? फिर आज का हमारा समाज पहले की तरह दुनिया से अलग-थलग अस्तित्व तो रखता नहीं, इसलिए प्रश्न यह भी है कि क्या सूर का मनुष्यमात्र को स्वीकार्य हो सकता है।

    पर दिक्कत यह है कि सूर के विचारों को उनकी कविता से पूरी तरह अलगाया नहीं जा सकता। अनुभूति के रस में घुल कर वे सूर की भाव-प्रतिमाओं में इस तरह विलीन हो गये हैं कि उनकी कोई अलग सत्ता दीखती ही नहीं। पर यह सूर की कविता का दोष नहीं, उसकी उत्कृष्टता का प्रमाण है। सुप्रसिद्ध फ्रांसीसी कवि पॉल वेलरी इसे श्रेष्ठ काव्य का एक प्रमुख लक्षण मानता है। उसका कहना है कि जिस तरह फल में उसका पोषक तत्व छिपा रहता है, उसी तरह श्रेष्ठ कविता में विचारों की स्थिति होती है। फल के पोषक तत्व को हम देख नहीं पाते, हमें केवल उसके स्वाद का अनुभव होता है। इसी तरह श्रेष्ठ काव्य में विचार निहित रहते हैं, पर प्रतीति हमें महज आनन्द की होती है। सूर काव्य में भी विचार अनुभूति में इस कदर ढल गये हैं कि भाव-समीकरणों के रूप में भी वे हमें नहीं मिलते।

    तब, सूर की सामाजिक सोच तक पहुँचने का रास्ता क्या है? सच पूछा जाये तो सीधा रास्ता एक भी नहीं। सूर के दार्शनिक दृष्टिकोण को समझने के लिए समीक्षकों ने अक्सर पुष्टिमार्ग की ओर से चलकर सूर-काव्य पर विचार किया है। उनके सामाजिक सोच के उद्घाटन के लिए भी हमारे पास क्या पुष्टिमार्ग के अतिरिक्त कोई दूसरी राह नहीं है? पर सोचने की बात यह है कि सूर का क्या अपना विचार कुछ भी नहीं था? क्या यह सच नहीं कि वल्लभाचार्य से मिलने के पहले सूर महात्मा के रूप में प्रतिष्ठा पा चुके थे? हमें यह मानने में आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि सूर जैसे अन्तर्दृष्टिसम्पन्न महात्मा के पास जीवन और जगत् के सम्बन्ध में कुछ अपने विचार निश्चय ही रहे होंगे। समाज और व्यक्ति के अन्तःसम्बन्धों पर उनकी निजी दृष्टि भी होगी। तभी तो अनेक सम्प्रदायों के रहते हुए भी सूर ने पुष्टिमार्ग का ही वरण किया। पर सूर के निजी सोच को हम पायें कैसे? एक तो सूर-काव्य में विचारों की सत्ता ही खोयी हुई है, दूसरे उनके अपने विचारों को पुष्टिमार्ग की साम्प्रदायिक धारणाओं से तोड़ कर अलग कर लेना क्या सम्भव हैं।

    ऐसे में मेरा एक विनम्र सुझाव है। जब सीधा रास्ता उपलब्ध है तो क्यों हम सूर-सागर में चोर-दरवाज़े से प्रवेश करें! ‘चोर दरवाज़े’ से मेरा आशय उन आख्यानक प्रसंगों से है, जो सूरसागर के नितान्त हल्के अंश माने जाते हैं। काव्य की दृष्टि से ये इतने हल्के पड़ते हैं कि कहा जा सकता है कि सूर यहाँ सूर नहीं है। इन आख्यानक प्रसंगों में अधिकांश ऐसे हैं जिन्हें श्रीमद्भागवत से तद्वत उठा कर रख दिया गया है। इनमें सूर की कल्पना का उन्मेष मिलता है, उनकी भाषा का लालित्य। बड़े बेमन से इनकी रचना की गयी है सिर्फ आज्ञापालन के लिए या परम्परा के निर्वाह के लिए। पर इन प्रसंगों में ही कतिपय स्थल ऐसे भी हैं, जहाँ परंपरा-पालन के दायित्व से मुक्त हो भागवत का आधार छोड़कर सूर ने नये आख्यानों की योजना की है, या फिर भागवत से लिये गये आख्यानों में नया अर्थ भरा है। इन स्थलों पर ही सूर के समाज-चिन्तन की मोटी-मोटी रेखाएँ उभर आयी हैं। या यों कहें, कृष्ण के व्यक्तित्व का सामाजिक पक्ष उद्घाटित हुआ है। आख्यान कई हैं, पर मैं केवल तीन ले रहा हूं। इनसे केवल एक संकेत मिलता है कि सूर की सामाजिक सोच क्या थी!

    पहला आख्यान श्रीधर ब्राह्मण का है। पूतना का वध हो चुका था। कंस दुश्चिन्ता में पड़ा हुआ था कि अब वह क्या करें। नन्दसुत को मारने की कौन सी विधि अपनाये? गोकुल किसे भेजे? तभी उसका सेवक ब्राह्मण श्रीधर उपस्थित हुआ और उसने कृष्ण की हत्या करने का बीड़ा उठाया। कंस ने उसे तत्काल गोकुल भेजा। श्रीधर ब्राह्मण होने के कारण यशोदा ने उसे आदर के साथ घर में बिठाया और उसके भोजन का इन्तजाम करने में व्यस्त हो गयीं। स्वच्छ जल लाने के लिए कृष्ण को सूने घर में अकेल छोड़ कर वे यमुना गयीं। इधर अच्छा मौका देखकर श्रीधर कृष्ण को मारने के लिए आगे बढ़ा। कृष्ण उसकी नीयत जानकर सोचने लगे कि ब्राह्मण को मारना तो उचित नहीं, तब क्यों इसका अंग-भंग कर दिया जाय! ज्यों ही श्रीधर उनके निकट आया, उन्होंने श्रीधर की गर्दन चाँप कर उसकी जीभ मरोड़ डाली। इतना ही नहीं, बर्तन फोड़कर चारों तरफ दही ढरका दिया और उसके मुख पर कुछ दही पोच दिया। उसके बाद पालने पर आकर, लेटकर उन्होंने रोना शुरू कर दिया। इसी समय यशोदा गयीं। इस दृश्य को देखकर क्रुद्ध होकर उन्होंने श्रीधर से पूछा कि उसने ऐसा क्या किया कि कृष्ण इतना रो रहे हैं! पर ब्राह्मण के मुख में जीभ हो तब तो कुछ कहे। अत्यन्त तिरस्कृत करके वह घर से निकाल दिया गया।

    यह आख्यान भागवत में नहीं मिलता। काफी खोज के बाद भी शोधकर्ताओं ने इस आख्यान को किसी अन्य पूर्ववर्ती ग्रन्थ में अब तक नहीं पाया है। इसलिए यह मानना अनुचित नहीं कि सूर की यह नितान्त मौलिक योजना है। पर इसका आशय क्या है? ऊपर-ऊपर से ऐसा लगता है मानो सूर वर्ण-व्यवस्था के समर्थक हैं। सामाजिक जीवन में वे ब्राह्मण के श्रेष्ठत्व को स्वीकार करते हैं। ‘बाँभन मारैं नहीं भलाई’- कृष्ण के इस सोच का अन्य अर्थ हो भी क्या सकता है। लेकिन, गोजाति के प्राणी भी ब्राह्मण से कम पूज्य नहीं होते। पर सूर ने वत्सासुर का वध अपने कृष्ण से कराया, फिर बाँभन का क्यों नहीं? जवाब में कोई कह सकता है कि वत्सासुर असुर था, पर श्रीधर असुर नहीं था। लेकिन था तो वह ‘करम-कसाई’, परम भागवत-विरोधी, फिर भी सूर को उसका वध वांछनीय नहीं लगा क्यों?

    मेरा ख्याल है कि इस आख्यान का एक दूसरा निष्कर्ष भी निकलता है जो पहले निष्कर्ष से कहीं अधिक संगत है! हमें मालूम है कि मध्य युग तक ब्राह्मण इस देश के बुद्धिजीवी के रूप में स्वीकृत रहा है। श्रीधर को यदि हम इस बुद्धिजीवी का प्रतीक मानें, तो कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। फिर जिह्वा का पर्याय वाणी है, जो ज्ञान-विज्ञान की प्रकाशिका होती है। यह वाणी जब स्वार्थ-सिद्धि का साधन बन जाती है तब अपनी सारी पवित्रता खो बैठती हैं। ब्राह्मण ज्ञान का अधिकारी नहीं रह जाता। अन्यायी व्यवस्था का पोषक बन कर उसका ज्ञान अपने अस्तित्व की सार्थकता भी गँवा बैठता है। मेरी समझ से सूर ने इस आख्यान द्वारा इस तथ्य को ही संकेतित किया है। फिर सूर ने श्रीधर का वध नहीं करवाया पर मृत्यु दंड़ से भी कठोर दंड क्या उसे नहीं दिलवाया! श्रीधर की जीभ मरोड़ दी गयी, अपमानित हो घर से उसे बहिष्कृत होना पड़ा और कंस के यहाँ भी उसको पुनः जगह नहीं ही मिली होगी।

    दूसरा आख्यान महाराने के पाण्डे का है। यह आख्यान भी भागवत में नहीं मिलता। महाराने के पाण्डे, कृष्ण-जन्म का समाचार सुन कर एक दिन ब्रज आये। यशोदा ने बड़ी श्रद्धा से उनके चरण धोकर घर में बिठाया। शुद्धता के साथ उनके लिए रसोई बनाने के लिए यशोदा ने अपना घर लिपवाया और गाय दुहवाकर दूध, घी आदि सामग्री पाण्डे के समक्ष रख दी। पाण्डे प्रेम से खीर बनाकर और रसोई परोस कर भगवान का ध्यान करने लगे। पर आँख खोलकर देखा तो उनकी परोसी हुई थाली में कृष्ण खा रहे हैं। यशोदा ने यह देखा, अपने बेटे के व्यवहार से अत्यन्त लज्जित होकर पाण्डे से क्षमा माँगी और रसोई की सारी सामग्री एकत्र कर पुनः पाण्डे को दी। पर इस बार भी कृष्ण ने बनी बनायी रसोई जूठी कर दी। इस पर यशोदा ने कृष्ण को खूब डाँटा और कहा कि वह क्यों पंडितजी को बार-बार चिढ़ा रहा है। वे अपने ठाकुर को भोग लगाते हैं, पर क्यों वह हर बार रसोई जूठी कर डालता? कृष्ण का उत्तर था- ‘क्या करूँ माँ! तू मुझे क्यों दोष देती हैं? देखती नहीं यह पाण्डे अनेक प्रकार से मेरा ध्यान कर रहा है। आँखें बन्द कर, हाथ जोड़कर, मेरा ही नाम तो बार-बार ले रहा है। कृष्ण की इन बातों को सुनकर पांडे को अपनी भूल का अहसास हुआ। क्या भूल थी पांडे की?

    भूल यह थी कि महाराने के पाण्डे बच्चों को जाति-पाँति के भेद-भाव से ऊपर नहीं समझा। इस बात को भी नहीं समझा कि बच्चें निर्दोष और निर्मल चित्तवाले होते हैं। वे ईश्वर के रूप हैं। इसलिए इस प्रत्यक्ष ईश्वर को विस्मृत कर जो व्यक्ति ईश्वर को जाति-पाँति और आचार-सम्बन्धी शुद्धताओं में ढूँढ़ता चलता है, उससे बड़ा मुर्ख और कोई नहीं। जिस समाज में बच्चों के प्रति स्नेह और आदर नहीं होता, वह समाज धर्म का ढोंग चाहे जितना कर ले, है वह निहायत पतित और गिरा हुआ। इस जीवित प्रत्यक्ष देवत्व को उपेक्षित करने वाला व्यक्ति धार्मिक नहीं हो सकता। महाराने के पाण्डे की कथा, जाति-पाँति के संस्कारों पर सूर की एक मीठी पर अत्यन्त मार्मिक टिप्पणी है।

    तीसरा आख्यान यज्ञ-पत्नियों का है। यह आख्यान श्रीमद्भागवत में आया जरूर है, पर सूर ने इसमें अपना अर्थ भरा है। एक दिन वन में गाय चराते-चराते कृष्ण के सखा गोप-बालकों को भूख लगी। निकट ही ब्राह्मणों का एक यज्ञ हो रहा था। कृष्ण ने ग्वालों से कहा कि वहाँ जाकर वे भोजन की याचना करें। ग्वाले गये, पर ब्राह्मणों ने भोजन देने से साफ इंकार कर दिया। कहा कि जिस रसोई को उन्होंने यज्ञ के लिए तैयार किया है, उसे वे ग्वालों को पहले कैसे खिला दें। पहले खाने का हक तो ब्राह्मणों को है। ग्वाले लौट आये। तब कृष्ण ने समझा बुझा कर उन्हें पुनः यह कहकर भेजा कि इस बार वे भोजन ब्राह्मणों से नहीं, उनकी पत्नियों से माँगें। ब्राह्मण-पत्नियाँ उनकी भक्त हैं, वे अवश्य भोजन दे देंगी। सचमुच ही स्त्रियों ने इसे अपना भाग्य माना और उन्होंने केवल ग्वालों को तरह तरह के पकवान दिये बल्कि कृष्ण के लिए व्यंजनों के थाल सजा कर चल पड़ी। कई ब्राह्मण-पुरुषों ने अपनी पत्नियों को रोका, पर कृष्ण के प्रेम में वे इतनी बावली थीं कि जाति-पाँति और घर के सारे बन्धन उनके लिए तुच्छ थे।

    इस कथा का आशय भी स्पष्ट है। सूर इसके द्वारा बस इतना ही कहना चाहते हैं कि वह ज्ञान किस काम का, जो कर्मकांड में इतना उलझ जाये कि सामान्य मनुष्य की भूख और पीड़ा के प्रति भी उसमें संवेदना रहे। यज्ञ-पत्नियाँ अनपढ़ थीं। शास्त्र का अभ्यास उन्होंने नहीं किया था। पर भाव-संबलित होने के कारण उन्हें इस बात का ज्ञान था कि भूखों की सेवा ही भगवान की सेवा है। भागवत में रतिदेव की कथा आयी है। वहाँ भी भक्त का सबसे बड़ा गुण सेवा-भाव ही माना गया है। इस बल पर ही यज्ञ-पत्नियों ने भगवान का सन्निध्य प्राप्त किया। और उनके पास था भी क्या! श्रीमद्भागवत में यज्ञपत्नियों की कथा की समाप्ति यज्ञ पुरुषों के इस कथन से होती है-

    अहोपश्चय नारीणामति कृष्णे जगद्गुरौ।

    दुरन्तभावं योअविन्ध्यन्मृत्युपाशान् गृहाभिधाम्।।

    नासां द्विजाति संस्कारो निवासो गुरावपि।

    तपो नात्ममीमांसा शौच क्रियाः शुभाः।

    अथापि हयुतमश्लोके कृष्णे योगेश्वररेश्वरे।

    भक्तिर्दृढ़ा चास्माकं संस्कारादिमतामपि।। 10।23।41-43

    स्त्रियों के पास तप का बल था, पवित्र और शुभ संस्कार और कोई अच्छा कर्म। शूद्र से बेहतर हैसियत मध्ययुग में स्त्रियों की नहीं थी। पर मात्र मानवीय संवेदन के बल पर इन्होंने परम पुरुषोत्तम को पा लिया।

    सूरसागर में आख्यान और भी है। गोवर्द्धन-धारण का प्रसंग है, काली-दमन की कथा है, विभिन्न असुरों के संहार की कथाएँ भी हैं। पर इनकी चर्चा व्यापक रूप से हो चुकी है, इसलिए हम इनका उल्लेख नहीं करना चाहते। पर उपर्युक्त तीन आख्यानों के आधार पर ही यदि हम सूर के समाज-चिन्तन का स्वरूप निर्मित करें, तो वह कुछ यों होगा-

    (1) सूर मनुष्य के सहज धर्म में आस्था रखते थे। उन्हें वह धर्म स्वीकार नहीं था जो मनुष्य की उपेक्षा करके, उसकी भूख, प्यार और पीड़ा को तुच्छ समझकर किसी अदृश्य लोक के ईश्वर की उपासना करता हो। सूर के लिए मनुष्य ही ईश्वर है। हर बालक में उन्हें ईश्वरत्व दिखायी पड़ा है।

    इसीलिए सूर ने कृष्ण को अपना आराध्य बनाया था। कृष्ण एक ऐसे देवता की कहानी है जो हमेशा मनुष्य बनने की कोशिश करता रहा है। लोहिया ने लिखा है- ‘कृष्ण ने इन्द्र को हराया, बास लेनेवाले देवों को भगाया, खानेवाले देवों को प्रतिष्ठित किया, हाड़, खून और मांस वाले मनुष्य को देव बनाया, जनगण में भावना जागृत की कि देव को आसमान में मत खोजो, खोजो यहाँ, अपने बीच, पृथ्वी पर। पृथ्वीवाला देव खाता है, प्यार करता है, मिलकर रक्षा करता है।’ सूर को कृष्ण शायद इसीलिए प्रिय थे। महाराने के पाण्डे की कथा हो या यज्ञ-पत्नियों की या फिर गोवर्द्धन-धारण की, इन सब कथाओं द्वारा सूर ने मनुष्य की सहज प्रवृत्तियों में ही देवत्व को उद्घाटित किया है।

    इस मानव-धर्म का ही उद्घोष आज के युग में स्वामी विवेकानन्द और महात्मा गांधी ने किया है। स्वामी विवेकानन्द ने तो स्पष्ट कहा- ‘मैं उस धर्म में आस्था नहीं रखता जो स्वर्ग में तो परम आनन्द प्रदान करता हो, पर इस संसार में मुझे एक रोटी भी नहीं दे सकता।’ बाइबिल की एक उक्ति है कि ‘अगर तुम अपने भाई से प्रेम नहीं कर सकते, जिसे तुमने देखा है, तब तुम उस भगवान से कैसे प्रेम कर सकते हो, जिसे तुमने कभी नहीं देखा।’ इसी बात को स्वामी विवेकानन्द ने भी कहा है। उनके शब्दों में ही रखूँ- If you cannot see God in the human face, how can you see Him in the clouds or in images made of dull dead matter or in more fictitious stories of your bran. (अगर तुम भगवान को मनुष्य के चेहरों में नहीं देख पाते, तो कैसे तुम उसे बादलों में निर्जीव पदार्थों से बनी हुई प्रतिमाओं में, या फिर अपनी कल्पित कथाओं में देख सकोगे?) महात्मा गांधी के दरिद्रनारायण की कल्पना भी क्या इस मानव-धर्म पर ही आधारित नहीं है।

    (2) सूर ने यह भी माना है कि ज्ञान को कंस का नहीं, कृष्ण का सेवक होना चाहिए। जो ज्ञान कंस का सेवक होगा, उसके अस्तित्व की कोई सार्थकता नहीं है। आइन्सटीन की पीड़ा यही थी कि आज वैज्ञानिकों ने अपनी विद्या को लोक-कल्याण के विधान में लगाकर राजनीति की सत्ता की भूख को तुष्ट करने में लगाया है। इसलिए उनकी विद्या मनुष्य के लिए घातक हो उठी है। रूस के सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक शाखारोव के संघर्ष का प्रमुख मुद्दा भी यही है कि बुद्धिजीवियों को विवेकशील आचरण की स्वतंत्रता मिलनी चाहिए। एक स्वस्थ और लोकतांत्रिक समाज के लिए यह आवश्यक है कि ज्ञान न्याय का पक्षधर बने। पर दुनिया के प्रायः सभी देशों में व्यवस्था की यह कोशिश रहती है कि वह महज उसका सेवक बनकर रहे, कंस का आनुगत्य स्वीकार करे।

    (3) सूर कबीर की तरह तीखे शब्दों में वर्ण-व्यवस्था पर चोट नहीं करते। पर तुलसी के समान वर्ण-व्यवस्था के पक्षधर भी नहीं हैं। सूरसागर में ऐसे अनेक स्थल हैं जहाँ वर्ण पर आधारित तत्कालीन सामाजिक जीवन का उन्होंने वर्णन किया है। पर्वो, त्यौहारों और सामाजिक अनुष्ठानों के चित्रण में वस्तुवादी दृष्टि अपनाते हुए उन्होंने वर्ण-व्यवस्था पर आधारित समाज के विविध पक्षों को उभारा है। पर सूर ने वर्ण-व्यवस्था के समर्थन में कुछ भी नहीं लिखा। वर्ण-विषमता का उल्लेख जहाँ भी सूर ने किया है, या तो सामाजिक जीवन के चित्रण के लिए या फिर कटूक्तियों के रूप में। कुब्जा को लेकर गोपियाँ कृष्ण पर व्यंग्य करते हुए कहती हैं-

    कंस बध्यौ कुबिजा कौं काज।

    और नारि हरि कौं मिली कहुँ, कहा गँवाई लाज।।

    जैसैं काग हंस की संगति, लहसुन संग कपूर।

    जैसैं कंचन काँच बराबरि, गेरू काम सिंदूर।।

    भोजन साथ सूद्र ब्राह्मण के, तैसौ उनको साथ।

    या फिर-

    खेलत मैं को काकौ गुसैयाँ।

    हरि हारे, जीते श्रीदामा बरबस हीं कत करत रिसैयाँ।

    जाति-पाँति हमतैं बड़ नाहीं, नाहीं बसत तुम्हारी छैयाँ।।

    इस तरह की अनेक उक्तियाँ सूर-सागर में मिल जायँगी। पर इनस में महज उस काल की सामाजिक स्थिति का परिचय मिलता है, यह नहीं लगता कि सूर इस व्यवस्था के समर्थक है। सच तो यह है कि जिन तीन आख्यानों का मैंने उल्लेख किया है, वे तीनों ही ब्राह्मणों से ताल्लुख रखते हैं। और इन तीनों आख्यानों के द्वारा उन्होंने ब्राह्मणवाद का प्रत्याख्यान कराया है। लेकिन ब्राह्मण-विरोध और ब्राह्मणवाद का विरोध इन दोनों को मैं एक नहीं मानता, कुछ उसी तरह जिस तरह कि हम वणिक्-वृत्ति का विरोध तो करते हैं, पर वणिकों का नहीं। कबीर और सूर दोनों ही ब्राह्मणवाद के कट्टर विरोधी थे। ब्राह्मणवाद का मतलब है, शुद्धता के नाम पर चलने वाला मिथ्या आचार, कर्मकाण्डी ज्ञान और जाति-संस्कार से उद्भूत अहंकार। इसका विरोध सूर और कबीर दोनों ने किया है। पर यह एक विडम्बना है कि कबीर के समाज-चिन्नत को जितना उभारा गया है उतनी ही उपेक्षा सूर के समाज-चिन्तन की की गयी है। शायद इसलिए कि सूर में कबीर की ओजस्विता नहीं हैं, पर सूर इसकी पूर्ति अपनी तरल संवेदना से करते हैं। इस तरह दोनों महाकवियों ने सहज मनुष्य को ही अपनी कविता का विषय बनाया और एक ऐसे समाज की कल्पना की जो जाति-पाँति और धार्मिक कर्मकाण्ड के पूर्वाग्रहों से मुक्त हो।

    आधुनिक और मध्युग की मूल मानवीय प्रवृत्तियों में कोई विशेष अन्तर आया हो, ऐसा मुझे नहीं लगता। अन्तर है तो इतना कि धर्म का स्थान अब राजनीति ने ले लिया है और राजनीति के टोने-टोटके और कर्मकाण्डी व्यापार इस कदर फैल गये है कि मनुष्य इनके बीहड़ जाल में खो गया है। हमारे बीच एक नये किस्म का ब्राह्मणवाद फैल रहा है। इससे यदि मुक्ति नहीं मिली, तो भौतिक उन्नति चाहे जितनी हो जाये, हमारा सांस्कृतिक विकास नहीं हो सकता। इस बिन्दु पर ही सूर का समाज-चिन्तन हमारे लिए ही नहीं, सारी मानव-जाति के लिए अपनी अर्थवत्ता रखता है। आज भी हमारे बीच श्रीधर, महाराने के पाण्डे और यज्ञपुरुषों की कमी नहीं है। ऐतिहासिक सन्दर्भ की भिन्नता के कारण इनका रूप भले ही बदल गया है, पर हैं ये हमारे ही बीच।

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY
    बोलिए