सूर की लोकमंगल-भावना, डॉक्टर भगवती प्रसाद सिंह
सूर की लोकमंगल-भावना, डॉक्टर भगवती प्रसाद सिंह
सूरदास : विविध संदर्भों में
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सूरदास कृष्ण की लोकरंजक लीलाओं के चिन्तन तथा गान में निरन्तर मग्न रहने वाले भावसिद्ध भक्त थे। उन्होंने उपास्य के जिस स्वरूप को अपनी साधना का आधार बनाया था, वह बाल तथा किशोरावस्था की ब्रजलीलाओं तक ही सीमित था। यह दूसरी बात है कि भागवत के आधार पर कृष्ण-लीला-गान की प्रतिज्ञा का निर्वाह करने के लिए शुकदेवजी के आदर्श पर सूरसागर में उन्होंने उनकी लोकलीला से सम्बद्ध अन्य चरितों को भी स्थान दिया, किन्तु ऐसे प्रसंगों में उनकी वृत्ति गहराई से रमती नहीं दिखायी देती।
सूर ने कृष्ण के किशोरलीला-वर्णन-प्रसंग में राधा तथा गोपियों के साथ उनके उन्मुक्त हास-विलास का जैसा चित्रण किया है, वह अनेक स्थलों पर मर्यादा की सीमा लाँघता प्रतीत होता है। कहीं-कहीं तो वे इनके अंकन में इतने विभोर हो गये हैं कि उन्हें इस बात का ध्यान ही नहीं रहा है कि पढ़ने-सुनने वालों पर उसका क्या प्रभाव पड़ेगा। वस्तुतः वे क्षण भक्त सूरदास के महाभाव में ऐकान्तिक भक्ति की परम गूढ़ स्थिति के हैं जिनमें साधक-साध्य से अद्वैतता स्थापित कर लेता है। इस ध्येयाकार वृत्ति में संसार का भान नहीं रहता, सत्-असत्, श्लील-अश्लील, विधि-निषेध की दुनिया पीछे छूट जाती हैं। माधुर्यरस के भोक्ता वीतराग ईसाई, सूफी तथा निर्गुण-सगुणमार्गी वैष्णव भक्त कवियों की रचनाओं में इसके उदाहरण भरे पड़े हैं- भक्तों ने इसे ‘दिव्य-श्रृंगार’ अथवा ‘उज्जवल-रस’ की संज्ञा दी है। सूर इष्टदेव की रासलीला की अनिर्वचनीयता का गान करते थकना नहीं जानते। इस प्रकार की भाव-भक्ति से सम्पन्न भक्तों को वे लीला बिहारी का नित्य परिकर मानते हैं।
राधाकान्त द्वारा ब्रज-निकुंजों में की गयी यह रासलीला ही उनका ध्येय तथा गैय है, यहीं उनकी जीवनव्यापी साधना का फल है और इसी का जन्मजन्मान्तर में अनन्यभाव से चिन्तन-मनन उनका अभीष्ट है। भागवत का रासपंचाध्यायी प्रसंग इसी रस-मग्न अवस्था का प्रसाद है- “पिवत भागवतं रस-मालयं मुहुरहो रसिका भुवि भावुकाः” में भक्तों को उसी के निरन्तर पान का उपदेश दिया गया है। रसिक भक्त बिहारी ने उसी का प्रशस्तिगान करते हुए कहा है-
गिरि ते ऊँचे रसिक मन बूड़े जहाँ हजार।
वहै सदा पसु नरन को, प्रेम पयोधि पगार।।
कहने का तात्पर्य यह कि सूर के कतिपय श्रृंगारी पदों-को लोकमर्यादा-विरोधी घोषित करने के पूर्व उनकी भक्ति-भावना तथा साधनात्मक स्थिति पर सहानुभूति तथा विवेकपूर्वक विचार करना न्यायसंगत होगा। व्यक्तिगत साधना की दृष्टि से भक्त द्वारा प्राप्त की जाने वाली यही चरम स्थिति है और व्यष्टि-मंगल की यही शास्त्रसम्मत तथा लोकसमादृत प्रेरणाभूमि है।
इस सम्बन्ध में ध्यान देने की बात यह है कि सूर माधुर्य-भक्ति-धारा में बहते हुए भी परकीया-प्रेम के लोक विरोधी स्वरूप से अवगत थे। इसलिए अन्य समकालीन कृष्ण भक्तों की भाँति उन्होंने राधा को परकीया रूप में चित्रित न कर उनका विधिपूर्वक कृष्ण से विवाह कराया और इस प्रकार उनके स्वकीयात्व की प्रतिष्ठा की। गोपियों को परकीयात्व के लांछन से मुक्त करने के लिए उन्हें परमार्थिक रूप में वेदकी ऋचाएँ बताकर ही वे सन्तुष्ट नहीं हुए, उन्होंने कृष्ण के द्वारा उनके साथ रचाई गई लीला को एक ऐसी रहस्यपूर्ण घटना के रूप में अंकित किया जिसकी उनके कुटुम्बियों को भनक भी न मिली। लोकमर्यादा की रक्षा का यह अपूर्व उपक्रम था। इस व्यष्टि-मंगल के साथ ही उनकी समष्टि अथवा लोकमंगल-भावना पर भी विचार कर लेना समीचीन होगा।
विनय के पदों में सूर ने आराध्यदेवी करुणाशीलता, शरणागतवत्सलता, आर्तक्षकता आदि लोक-मंगलकारी गुणों का मुक्तकंठ से गान किया है। वहाँ कृष्ण के गोपिकावल्लभ रूप को भुलाकर उनके लोकरक्षक तथा लोकशिक्षिक स्वरूप को अधिक महत्व दिया गया है। जगन्नियंता भगवान का यही लोकपालक रूप सूर के लिए उनकी शरण में आने का प्रेरक बना। आराध्य श्रीनाथ के सारंगधर स्वरूप को महत्व देने के पीछे सूर की लोकहित-कामना की प्रेरणा स्पष्ट झलकती है। दशावतार-वन्दना के प्रसंग में भगवान् के वेदोद्धारक मत्स्य रूप का स्तवन करते हुए प्रकारान्तर से लोकमर्यादा-स्थापना में उनके द्वारा किये गये प्रयासों का अभिनन्दन किया गया है। मर्यादा पुरुषोत्तम राम के चरित में लोक मंगल-विधायक तत्वों की प्रचुरता देखकर सूर ने अनेक स्थलों पर उनके द्वारा लोकपीड़क राक्षसों के संहार की दिशा में किये गये वीर-दर्पपूर्ण कार्यों का भावपूर्ण चित्रांकन किया है। कृष्णावतार-लीला का वर्णन करते हुए भी उनकी दृष्टि से लोकपालक भगवान् का यह स्वरूप ओझल नहीं हुआ है। कंस द्वारा कृष्ण को मारने के निमित्त भेजे गये अधासुर, बकासुर, शकटासुर, पूतना, केशी आदि नृशंस असुरों का वध, ब्रज को भस्समात् करने वाले दावानल का पान, इन्द्र-कोप-प्रसूत भीषण सूर की जन सामान्य के प्रति प्रगाढ़ सहानुभूति लक्षित होती है।
लोक-जीवन की मुख्य धुरी समाज की परम्परया प्रतिष्ठित मर्यादा है। उसकी रक्षा से ही स्वस्थ सामाजिक आदर्शों की सृष्टि एवं पालन होता है। सूर इस तथ्य से पूर्णतया अवगत थे। इसलिए रास-लीला-वर्णन में, जो कृष्णचरित का सर्वाधिक आलोच्य प्रसंग रहा है, वे इसके कुशलता पूर्वक निर्वाह की ओर सतत सचेष्ट तथा सावधान दिखायी देते हैं। गोपियों को वेद-विहित आचार-पालन का उपदेश कितने स्पष्ट शब्दों में दिया गया है। इसके उत्तर में सूर ने गोपिकाओं के मुख से जो कुछ कहलाया है, वह गीता के “सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज” के सर्वथा अनुकूल हैं। आगे चलकर तो सारे-प्रसंग को दार्शनिक पुट देकर प्रतीत में परिणत कर दिया गया है। इससे यह स्पष्ट है कि सूर ने ब्रजांगनाओं के साथ कृष्ण की जिस रासलीला या निकुंज केलि का वर्णन किया है, वह पुरुष-प्रकृति की शाश्वत लीला का ही प्रतिरूप है- सामान्य नायक-नायिका की उन्मुक्त विलास-क्रीड़ा नहीं। रागात्मिका भक्ति के सिद्धान्त के प्रतिपादक होते हुए भी सूर ने इस बात का बराबर ध्यान रखा कि सामान्य वैषयिक वृत्ति के जीव उनके शब्दों का मनमानी अर्थ लगाकर सामाजिक मर्यादा का उल्लंघन न करने लगें। कृष्ण-गोपी-तत्व की प्रतीकात्मक व्याख्या तथा वेदमार्ग-प्रतिपादन की योजना इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए की गयी प्रतीत होती है।
भक्ति-क्षेत्र में लोकमंगल की भावना की स्थापना एवं रक्षा के साथ ही सूर की अन्तःदृष्टि समाज की तत्कालीन स्थिति की ओर भी गयी थी। अतः एकांत साधना में मग्न रहते हुए भी एक सजग सांस्कृतिक प्रहरी के रूप में अपने चतुर्दिक् व्याप्त लोकजीवन की व्याधियों को पहचानकर उसके निदान तथा उपचार का उन्होंने यथासम्भव प्रयास किया था। ‘भ्रमरगीत’ की रचना उसी का प्रतिफल है।
बारहवीं शताब्दी के आस-पास वज्रयानी और सहजयानी बौद्ध सिद्धों तथा योगिनी कौलमत के अनुयायी शाक्त-साधकों के प्रभाव से, गोरखनाथ द्वारा प्रवर्तित सदाचार मूलक नाथपन्थ के अनुयायी योगी तांत्रिक एवं रसायन पद्धतियों के प्रचारक बनकर भोगपरक जीवन व्यतीत करने लगे थे। यद्यपि इस स्थिति में भी हठयोग अथवा कायायोग उनकी साधना का मूलाधार था, किंतु उसके द्वारा अर्जित शक्ति एवं प्रभाव का उपयोग वे वासना तृप्ति के साधन जुटाने में करते थे। स्त्री, जिसे तांत्रिक बौद्ध साधकों ने मुद्रा और शैव-शाक्तों ने योगिनी की संज्ञा प्रदान की थी, अध्यात्म-साधना का मुख्य अंग मानी जाती थी। इस योग-साधना का उद्देश्य अलौकिक शक्ति प्राप्त करना होता था। उनके चमत्कारों से आतंकित तथा अभिभूत भोली-भाली जनता अपना सर्वस्व अर्पित करने को बाध्य हो जाती थी। हिन्दी के संतमतानुयायी ज्ञानमार्गी कवियों को निर्गुण निराकार ब्रह्म की उपासना नाथपन्थी साधकों से रिक्त के रूप में प्राप्त हुई थी। परम्परागत वैष्णव धर्म, तीर्थाटन, मूर्तिपूजा, भाव-प्रधान भक्ति-साधना आदि का उग्र मिलती-जुलती थीं- बहुत से योगी इस्लाम में दीक्षित भी हो गये थे। मध्यकालीन सूफी दरवेशों, फरीकों तथा नाथपन्थी योगियों के वैचारिक आदान-प्रदान के अनेक सन्दर्भ शेख फरीद, ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया तथा सैयद अशरफ जहाँगीर के जीवन-वृत्तों में मिलते हैं। भटिंडा के बाबारतन तथा किछौछा (फैजाबाद) के दरपननाथ और कमाल जोगी के धर्म-परिवर्तन के वृत्तान्त उपपत्ति के समर्थन में प्रस्तुत किये जा सकते हैं। इससे तत्कालीन हिन्दू समाज के आध्यात्मिक चिन्तन तथा धार्मिक जीवन में नाथपन्थियों द्वारा उत्पन्न अव्यवस्था एवं दिशाहीनता के वातावरण का अनुमान लगाया जा सकता है। उत्तरी भारत में स्वामी रामानन्द के प्रभाव से उद्भूत नवीन धार्मिक चेतना के प्रकाश में वैष्णव भक्तों ने योगियों और विद्वेष, दम्भ तथा अलगाव को प्रोत्साहित करने वाली प्रवृत्तियों को लक्षित किया। गोस्वामी तुलसीदास ने अपनी कृत्तियों में उनका खुलकर विरोध किया। इन कलजुगी सिद्धों और जोगियों द्वारा प्रवंचित जनता की स्थिति की चर्चा अनेक स्थलों पर गोस्वामीजी ने की है। ज्ञानमार्गी तथा प्रेममार्गी सन्तों की नवीन काव्य-विधाओं में अभिव्यक्त परम्परागत भागवतधर्म-विरोधी विचारधारा पर उनके व्यंग्यपूर्ण प्रहार बहुत ही सटीक है। अलख जगाने वाले योगियों के आचरण के प्रति एकाध स्थलों पर तो उनकी उग्रता साधुजनोचित सहिष्णुता को तिलांजलि देती हुई दिखायी देती हैं।
सूर ने इस चुनौती का उत्तर सीधे न देकर एक मनोरंजक माध्यम ढूँढ़ निकाला, और वह था भ्रमरगीत-प्रसंग। इसमें अपने दिल का सारा गुबार उन्होंने उद्धव-गोपी-संवाद के बहाने निकाला। भ्रमर नाथपन्थी योगी अथवा ज्ञानमार्गी निर्गुणिया सन्त का प्रतिनिधि बनाया गया और गोपियाँ श्रद्धालु सगुणोपासक भक्त की पक्षधर बनीं। उद्धव द्वारा दिये गये उपदेश में नाथपन्थी दर्शन ही नहीं, साधना भी पूरी तरह समाविष्ट है। इतना ही नहीं, गोपियों के प्रत्युत्तर में गोरखपन्थी साधकों के बाने का भी विवरण विशद रूप में मिलता है।
तुलसी और सूर, दोनों की दृष्टि में यह काया योग-प्रधान निवृत्तिपरक साधना जन-साधारण के लिए, विशेष रूप से स्त्रियों के लिए तो पूर्णतया अनाचरणीय थी। इसे वे भावयोग-पुरस्सर सगुण भक्तिमार्ग के विकास में सर्वाधिक बाधक मानते थे। तुलसी द्वारा की गयी पंथाइयों की आलोचना का मुख्य कारण उनकी परम्परा विरोधी प्रवृत्ति ही थी। यही कारण था कि सूर ने भी निर्गुण पंथ को प्रकृत भारतीय भक्ति-साधना का कंटक घोषित कर त्याज्य ठहराया। सूर का यह ‘राजपन्थ’ तुलसी के ‘राजडगर’ का ही पर्याय है और ‘पन्थ’ न होकर वह उस परम्परया प्रतिष्ठित सगुण-भक्ति मार्ग का त्रोधक हैं जिस पर कोई भी साधक आँख में पट्टी बाँधकर बेखटके किसी भी समय यात्रा कर सकता था।
इस प्रकार अध्यात्म-साधना के क्षेत्र में लोकहित-रक्षा में सतत सचेष्ट रहने के साथ ही सूर ने समकालीन राजनीतिक तथा सामाजिक व्यवस्था द्वारा उत्पन्न स्थिति को भी निकट से देखा-परखा था। सूर-सागर के द्वादश स्कन्ध में मुगल शासकों के अत्याचार, कृषकों से जबर्दस्ती अनाज की वसूली, राजकर्मचारियों में व्याप्त घूसखोरी, अपराधियों को छोड़कर बेगुनाह लोगों को फँसाने के षड्यन्त्र, समाज के सभी वर्गों में बढ़ती हुई भोगलिप्सा आदि विषयक उल्लेखों में उनके करुणाविगलित संवेदनशील मानस का प्रतिबिम्ब देखा जा सकता है।
सूर का ध्यान आकृष्ट करने वाली एक और बात थी समकालीन समाज में बढ़ती हुई विषमता अथवा छोड़े-बड़े की भावना, जिसका मूलाधार थी हजारों वर्षों से बद्धमूल जातिप्रथा अथवा वर्ण-व्यवस्था। बाह्य चक्षु-हीन होते हुए भी उन्होंने अपने चतुर्दिक् व्याप्त इसके कुप्रभावों का साक्षात्कार किया था। विशेष रूप से विजेता मुसलमानों में प्रतिष्ठित जातीय एकता तथा सामाजिक भ्रातृभाव ने हिन्दू समाज के उक्त दोष को और उजागर कर दिया था, जिससे धर्म-परिवर्तन को खुला प्रोत्साहन मिल रहा था। वैष्णवाचार्यों ने इस संक्रामक रोग के शमनार्थ ही “वैष्णवाः पंचमों वर्णाः” की घोषणा कर जाति तथा वर्ग के आधार पर व्यक्ति का मूल्यांकन न कर उसके निजी वैशिष्ट्यकों महत्व देने की शिक्षा दी थी। सूर ने इस सुधारवादी प्रवृत्तिका स्वागत किया था।
अतः सन्त मतानुसार उनकी मान्यता थी कि जाति और वर्ग के कृत्रिम घेरे मानव मस्तिष्क की सृष्टि हैं। भक्तवत्सल भगवान् की दृष्टि में जन्म अथवा आर्थिक स्थिति के अनुसार कोई ऊँच-नीच या छोटा-बड़ा नहीं है, स्वजन होने से सभी समान है। सारांश यह है कि मुस्लिम विजय के पश्चात् उत्पन्न सांस्कृतिक संघर्ष के युग में समाज के परम्पागत नैतिक मूल्यों की रक्षा के लिए सूर ने विघटनकारी बाह्य तथा अन्तः तत्वों का अपनी सीमा तथा स्वरूप के अनुसार दृढ़तापूर्वक प्रतिरोध किया था।
साम्प्रदायिक आस्था से बँधे, मानसिक रूझान से विवश और शारीरिक स्थिति से लाचार प्रज्ञाचक्षु कवि से लोकदर्शन और लोकमंगल-साधना की इससे अधिक और क्या अपेक्षा की जा सकती है?
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