भ्रमरगीत में सूर की रस-साधना का मूल रहस्य, डॉक्टर गोवर्धन नाथ शुक्ल
भ्रमरगीत में सूर की रस-साधना का मूल रहस्य, डॉक्टर गोवर्धन नाथ शुक्ल
सूरदास : विविध संदर्भों में
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सूरसागर का मूल स्रोत महर्षि व्यास की समाधि-भाषा श्रीमद्भागवत ग्रंथ रहा है। काव्यवस्तु के लिए सूर जहाँ श्रीमद्भागवत महापुराण के ऋणी है, वहाँ अपनी कल्पना की उर्वरता ‘सागर’ में जो सबसे अधिक बढ़ा-चढ़ाकर लिखा है, उसका क्या रहस्य हो सकता है। यह गम्भीरता से विचारने की बात है। गोपी-उद्धव-संवाद भागवत के दशम स्कंन्ध के पूर्वार्द्ध में 47 वें अध्याय में है। 46वें अध्याय में उद्धव कृष्ण के द्वारा प्रेषित किये जाने पर ब्रज में आते हैं और नंद यशोदा को सान्त्वना देते हैं। यह अध्याय केवल 49 श्लोकों का है। 47वें अध्याय में उद्धव गोपियों से मिलते हैं। इस अध्याय में कुल 69 श्लोक हैं, जिनमें 12 से 21 तक, दस श्लोकों में गोपियों की विरहदशा, 23 से 28 तक, छह श्लोकों में उद्धव की सान्त्वना, 29 से 37 तक, नौ श्लोकों में भगवान् श्रीकृष्ण का संदेश और 39 से 52 तक, चौदह श्लोकों में गोपियों की कृष्णलीला-स्मरण-जन्य मानसिक दशा का वर्णन है। शेष श्लोक शुकोक्तिवाले हैं। तात्पर्य यह है कि सूर ने जिस रसमय करुण विप्रलंभ को लेकर शतशत पदों की रचना की है, वह मूल में भागवत के अनुसार 14 श्लोकों का है जिसको लेकर सूर की उर्वर कल्पना ने रसराज श्रृंगार के विप्रलम्भ-पक्ष को परिपुष्ट बनाकर उसे संयोग से अधिक महत्व और स्थायित्व प्रदान किया है।
इस समस्या के समाधान के दो पहलू हैं- (1) साहित्यिक एवं (2) साम्प्रदायिक। साहित्किय दृष्टिकोणवाले श्रृंगार को रसराज मानकर विप्रलम्भ के महत्व को प्रतिपादित करते हुए उसको सहृदयों के लिए अधिक ग्राह्य, अधिक वांछनीय मानते हैं, और इसलिए सूर के विप्रलम्भ-प्रसंग को अधिक महत्व देना उचित और समीचीन समझते हैं। इसके साथ-साथ वे सूर में शांकर-अद्वैतवाद, हठयोग तथा अन्य मतवादों एवं धर्म-साधनाओं का खण्डन एवं सामयिक प्रभाव मानते हैं। साहित्यिकों के मत में इस खण्डनात्मक प्रवृत्ति के कारण ही सूर का भ्रमरगीत-प्रसंग अधिक विशाल और विस्तृत हो गया है। परन्तु वस्तुतः ये समाधान अपूर्ण और एकांगी हैं। सूर जैसे महाप्रभु वल्लभ के मूर्द्धन्य शिष्य और परम सेवक केवल रसराज श्रृंगार के विप्रलम्भ-पक्ष की पुष्टि में इतना आयास न करते और न ही इतना विस्तार करते। न उन्हें अन्य मत-मतान्तरों के खण्डन-मण्डन से प्रयोजन था। वस्तुतः सूर के भ्रमरगीत के विस्तार में उनकी साम्प्रदायिक दृष्टि ही प्रमुख कारण है। पुष्टिमार्ग मूलतः विप्रयोगात्मक है। पुष्टिमार्ग के प्रवर्तक आचार्य वल्लभ को मूर्तिमान भगवद्-विरहानलावतार माना गया है। उन्हें वैश्वानरावतार अथवा साक्षात् वैश्वानर कहकर उनकी भूतल-स्थिति का प्रयोजन शुद्ध विरहानुभूति के लिए ही बताया गया है।
विरहानुभूति स्वयं अग्निरूप है, अतः आचार्य का वैश्वानरावतार कहा जाना उचित ही है। मूर्तिमान भगवद्-विरहानलावतार आचार्य का पुष्टिमार्गीय ब्रह्म-सम्बन्ध का दीक्षामंत्र भी यही भाव रखता है कि ‘सहस्रों परिवत्सर बीत गए हैं, यह जीव अपने भगवान् से पृथक् होकर भटक रहा है। उसका भगवद्-विप्रयोगजन्य आनंद तिरोहित हो गया है। वह देहेन्द्रियादि का भाव भगवच्चरणों में विनियोग करता हुआ, उन्हीं का दास है।’ पुष्टिमार्ग का यह प्राणभूत दीक्षांमत्र है। इस विप्रयोगात्मक मंत्र की दीक्षा स्वयं महाप्रभु वल्लभ को गोकुल में ठकुरानी घाट पर पुष्टिमार्ग के अनन्य आराध्य श्रीनाथजी से मिली थी। और मंत्र की दीक्षा बाद में उन्होंने अपने शिष्य दामोदरदास हरसानी को दो और फिर तो उन्होंने अगणित जीवों को पुष्टिपथ में दीक्षित करके इस विप्रयोगात्मक अद्भुत भक्ति-मार्ग का पथिक बनाया, क्योंकि आचार्य स्वयं भगवद्-विरहानलावतार हैं।
यहाँ उक्त घटना के उल्लेख का प्रयोजन केवल यही है कि महाप्रभु और सूरदास के जीवन में बहुत-सा अन्तरंग साम्य है। इसको समझ लेने पर उनके कविकर्म का रहस्य स्वयमेव सुस्पष्ट हो जाता है।
शाश्वत सुख की प्राप्ति और क्लेश-निवारण निखिल धर्मसम्प्रदायों का लक्ष्य है। साथ ही सभी बाद एवं सिद्धान्त मानव-मन के निरोध पर बल देते हैं। आचार्य ने सुखानुभूति और मन के निरोध का उपाय विरहानुभव में ही बताया है। अपने निरोध-लक्षण-ग्रंथ में वे कहते हैं- ‘उद्धव के ब्रज आगमन पर वृन्दावन, गोकुल में जो सुमहान् उत्सव हुआ था, क्या वैसा आनन्द मेरे मन में कभी होगा!’
सूर के भ्रमरगीत-प्रसंग के विस्तार के मूल में आचार्य वल्लभ की यही भावना है। इसी का भाष्य सूर का भ्रमरगीत है। श्रृंगार के विप्रलम्भ पक्ष की मार्मिक अनुभूति का साक्षात्कार जैसा सूर ने किया है, वैसा विश्व-साहित्य का कोई अन्य कवि शायद ही कर सका हो।
विरहानुभूति अत्यन्त कष्टप्रद है और भगवान् जब कृपालु होते हैं, तभी इस कष्ट को देते हैं, अन्यथा नहीं। विरह की पीड़ा के दान के लिए पुष्टिमार्ग में ती स्रोत हैं- (1) स्वयं भगवान्, (2) यमुना एवं (3) आचार्य वल्लभ। अतः इस दृष्टि से तीनों ही सजातीय हैं। सम्प्रदाय के एक आचार्य श्रीद्वारकेश जी कहते हैं-
भगवान् विरहं दत्वा भाववृद्धि करोति वै।
तथैव यमुनास्वामिस्मारणात् स्वीयदर्शनात्।।
अस्मदाचार्य्यास्तु ब्रह्मसम्बन्ध कारणात्।
तापक्लेश प्रदानेन निजानां भाववर्द्धकाः।।
भाव-पुष्टि विरह से होती है। अतः इस भाव-वृद्धि को भगवान् विरह के द्वारा श्रीयमुनास्वामी (कृष्ण) का स्मरण कराकर और अपना दर्शन देकर, तथा आचार्य ब्रह्म-सम्बन्ध कराकर हृदस्थ भाव की वृद्धि करते हैं। इसी विरह-पीड़ा की याचना आचार्य ने अपने निरोधलक्षण ग्रन्थ में की है-
यच्च दुःखं यशोदायाः नन्दादीनां च गोकुले।
गोपिकानां तु यद्दुःखं स्यान्मम क्वचित्।।
सूर ने विप्रलम्भ-तत्व को सम्प्रदाय की इसी भावना के अनुसार अपनाया है। उद्धव के ब्रज में आने पर नन्द यशोदा की हृदय-स्थिति, गोपिकाओं के दुःख और उनकी भाव-वृद्धि को सूर ने अपनी अन्धी आँखों से खूब देखा और उनकी उर्वर कल्पना-शक्ति उन्हें मुक्त आकाश में ले उड़ी। सूर के प्रसिद्ध पद ‘देखियत कालिन्दी अति कारी’ में ‘स्वीयदर्शनात्’ और ‘स्वामिस्मारणात्’ की भावना कूट-कूट कर भरी है। सम्प्रदाय की इस भावना को समझ लेने पर ‘देखियत कालिन्दी’ वाले पद की महत्ता स्वयमेव स्पष्ट हो जाती है। गोपियों के विरह-हठ और योग के तिरस्कार के मूल में आचार्य के ब्रह्म-सम्बन्ध के सिद्धान्त का स्वीकार और अनन्यता तथा समर्पण का पोषण निहित है। इन साम्प्रदायिक सिद्धान्तों से अभिभूत सूर का भावप्रवाह इतना उद्दाम और वेगवान हो गया कि शतशत पद अनायास ही भावसिन्धु से प्रवहमान हो चले। अब देखना यह है कि उनकी इस विप्रलम्भ की रस-साधना में जो अन्यवाद खण्डनात्मक प्रवृत्ति है, उसका भी कहीं साम्प्रदायिक समाधान है या नहीं। सर्वोत्तम स्तोत्र इसका सम्पूर्ण समाधान देता है। सूर के भ्रमरगीत में सगुण-साकार-भक्ति-भावना तथा अन्य मतवादों का निराकरण, ये ही दो तत्व है। ये दोनों तत्व भी सूर ने आचार्य वल्लक्ष के व्यक्तित्व से पाये। सर्वोत्तम स्तोत्र में आचार्य वल्लक्ष का स्वरूप और सिद्धान्त स्पष्ट है। उसे समझ लेने पर पुष्टिमार्ग का स्वरूप और सिद्धान्त सुस्पष्ट हो जाता है। सूर पर वल्लभ के व्यक्तित्व की गहरी छाप है। अतः वल्लभ के व्यक्तित्व को समझ लेने पर सूर का स्वरूप और सिद्धान्त का यतकिंचित संकेत किया जाता है।
सर्वोत्तम स्तोत्र में आचार्य वल्लभ को साकार ब्रह्मवाद का स्थापक, वेदभाष्यकर्ता, मायावाद (शांकर मत) का निराकर्ता, सर्ववाद का निरासकर्ता कहा गया है। सूर के भ्रमरगीत में साकार ब्रह्मवाद की सुदृढ़ स्थापना तथा मायावाद का खण्डन स्पष्ट है। इसी प्रकार आचार्य श्रीमद्भागवत-रूप-पीयूष-समुद्र के समर्थ मन्थनकर्ता हैं, सूर ने भी श्रीमद्भागवत के इस स्वरूप-प्रसंग का मन्थन कर नवनीतरूप सगुण भक्ति का अकाट्य प्रतिपादन किया है। भागवत-सागर का सार भक्तिभाव है, उसका भी सारभूत स्त्रीभाव, कांताभाव अथवा माधुर्यभाव है। सूर का प्रतिपाद्य विषय भी मधुरा-भक्ति अथवा चरम कांताभक्ति है। सूर ने भ्रमरगीत में लोकलाज को तिलांजलि देकर केवल कृष्ण-प्रेम को ही एकमात्र लक्ष्य बतलाया है। सर्वोत्तम स्तोत्र में आचार्य को ‘एकमात्र विरहानुभवार्थ’ तथा ‘सर्वत्याग का उपदेशक’ कहा है। सूर के भ्रमरगीत में विरहानुभव, सर्वस्वत्याग का प्रतिपादन, भक्ति के लिए कर्ममार्ग का स्वीकार है। तात्पर्य इतना ही है कि आचार्य का जो स्वरूप सर्वोत्तम स्तोत्र में प्रतिपादित है, वही सूर के भ्रमरगीत में भी प्रतिपादित है। सूर की रस-साधना के मूल में आचार्य के स्वरूप पर जमी हुई दृष्टि है। पुष्टिसम्प्रदाय की विरहभावना ही उनके विस्तृत विप्रलम्भ की मूल कहानी है।
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