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सूरदास का वात्सल्य-निरूपण, डॉ. जितेन्द्रनाथ पाठक

सूरदास : विविध संदर्भों में

सूरदास का वात्सल्य-निरूपण, डॉ. जितेन्द्रनाथ पाठक

सूरदास : विविध संदर्भों में

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    मध्यकालीन हिन्दी साहित्य में सूरदास का स्थान सर्वोच्च माना गया है। यदि गृहीत भाव-क्षेत्र में अतलस्पर्शिता कविता की वास्तविकता सिद्धि और उसकी श्रेष्ठता का परिचायक हो, तो सूरदास की सर्वोच्चता स्वयं प्रमाणित है। मध्यकालीन वैष्णव कविता के मापक पृष्ठाधार पर जयदेव, चण्डीदास, विद्यापति आदि अनेक दीप्तिमान नक्षत्र है लेकिन सूर इन सबसे विशिष्ट और इन सबसे प्रोज्ज्वल हैं। उनकी प्रतिभा की उच्चता इस बात में नहीं है कि वे एक सम्प्रदाय विशेष के पक्ष-पोषक कवि थे, बल्कि इस तथ्य में है कि उन्होंने उस साम्प्रदायिक घेरे में रहकर भी श्रृंगार और वात्सल्य तथा काव्य और भक्ति की जिस सार्वभौमिकता और एकता का साक्षात्कार किया, वह उस युग में विरल थी। भक्ति के जिस ललित पक्ष को कवि ने अपना उपजीव्य बनाया, वह लोक-भाषा की सहज माधुरी और संगीत की स्वर-माधुरी से संयुक्त होकर सबके लिए मुग्धकर हो उठी। प्रस्तुत निबन्ध में सूर के वात्सल्य वर्णन का विवेचन उद्दिष्ट है जिसने अपने सामर्थ्य के बल पर ‘वात्सल्य-रस की अवतारणा करा ली और शिशु तथा बाल-जीवन की मोहक नगण्यताओं को अमर काव्याभिव्यक्तियों का स्वरूप दे दिया।

    सूर की प्रतिभा को ठीक ठीक समझने के लिए उनकी परम्परा का विचार भी उचित होगा। परंपरा किसे कहते है और सूर के सन्दर्भ में परम्परा से हमारा क्या अभिप्राय है? परम्परा का अर्थ सामान्यतः अतीत और कभी-कभी रूढ़ि से लगाया जाता है, लेकिन परम्परा का वास्तविक अर्थ है अविच्छिन्न श्रृंखला और आनुपूर्व्य। इलियट ने परम्परा को समीचीन अभिप्राय प्रदान किया है। वह परम्परा को एक ऐसे विकासमान अर्थ में लेता है जिससे जीर्ण प्राचीन ध्वस्त होता रहता है और प्राणवान नवीन प्रस्फुटित होता रहता है। वह मानता है कि शक्तिशाली और अनावश्यक से वास्तविक और मनोवेगात्मक को भ्रांत ढंग से मिलाना अथवा परम्परा को अचल करके मानना तथा उसे तमाम परिवर्तनों का शत्रु बताना परम्परा को ठीक समझने के मार्ग में बाधक हैं। सूर के संदर्भ में परम्परा का अर्थ उनके पूर्व से चली आती हुई उनके द्वारा गृहीत कविता के रूप और शिल्प की वह परम्परा है जिसके सर्वोत्तम को उन्होंने अंगीकार किया है और अपनी प्रतिभा से पुराने अभिप्रायों को अभिनव अर्थ एवं नई उद्भावनाएं प्रदान की हैं। इसे ही प्रतिभा कहते हैं। प्रतिभा के विषय में प्राचीन शास्त्रकार प्रायः एकमत हैं। पंडितराज जगन्नाथ प्रतिभा को ही मुख्य काव्य-हेतु मानते हैं। हेमचन्द्र ने व्युत्पत्ति और अभ्यास को उसका संस्कार करने वाला माना है। प्रतिभा के विषय में अभिनव गुप्त ने लिखा कि वह एक ऐसी प्रज्ञा है जो अपूर्व वस्तु के निर्माण में सक्षम हैं “प्रतिभा अपूर्वनिर्माणक्षमा प्रज्ञा।” अभिनव गुप्त के गुरुवर भट्टतौत द्वारा की गयी प्रतिभा की व्याख्या सबसे अधिक प्रचलित है- “प्रतिभा उस प्रज्ञा को कहते हैं जो नई स्फुरणाओं के सर्जन में सक्षम हो।” नवनवोन्मेषशालिनी प्रतिभा को अनादि प्राक्तन संस्कारों से भी जोड़ा गया है- “अनादिप्राक्तनसंस्कारप्रतिभानमयः।” निश्चित रूप से सूरदास ने किन्हीं प्राक्तन संस्कारों से ही मंडित होकर अपूर्व निर्माण क्षमा प्रज्ञा से भागवत महापुराण द्वारा वर्णित कथा भाग को अपने सम्प्रदाय गत विश्वासों के परिवेश में केवल पुनः उद्भावित किया, बल्कि शत-शत नवीन स्थितियों की अवतारणा और उनकी मर्मस्पर्शी व्यंजना के द्वारा हिन्दी कविता में एक अस्पृष्ट काव्य-शिखर की स्थापना की।

    सूर परम्परा के जीवंत तत्वों से सशक्त रूप में सम्बद्ध थे। केवल भागवत की विषय वस्तु का दाय उन्होंने स्वीकार किया बल्कि ब्रजभाषा, साहित्यिक सौष्ठव और गीतिकाव्य परम्परा से भी वे उपकृत हुए और इन परम्पराओं को भली प्रकार विकसित करके उन्होंने उस ऋण को उतार दिया। परम्परा की प्रक्रिया ही कुछ ऐसी है कि अतीत का ऋण-शोधन अतीत के अनुसार अन्धानुग्रहण से होकर अतीत के क्षयिष्णु तत्वों के प्रति विद्रोह करके भविष्य के लिए पुनर्गठित अतीत अथवा समृद्धतर परम्परा के योगदान द्वारा होता है।

    सूर का वक्तव्य-परिप्रेक्ष्य

    सूर की प्रतिभा का प्रवाह देखने का प्रकृत क्षेत्र उनका भावपक्ष है जिसमें सूर की मौलिकता और गृहीत भाव के गहन स्तरों तक पहुँचने की अद्वितीय क्षमता का परिचय मिलता है। भक्ति की वृहत्तर भूमिका, मृण्मुख को चिन्मुख करने की प्रक्रिया में रागतत्व की सम्पूर्ण सुरक्षा सुरकाव्य में तीन स्तरों पर प्रतिफलित हुई है। आचार्य शुक्ल के शब्दों में ‘रतिभाव के तीनों प्रबल रूप भगवद्विषयक रति, वात्सल्य और दाम्पत्य रति-सूर ने लिए हैं। इस दृष्टि से विभाग करने से विनय के जितने पद हैं, वे भगवद्विषयक रति के अन्तर्गत आएँगे, बाल-लीला के पद वात्सल्य के अन्तर्गत और गोपियों के प्रेम-सम्बन्धी पद दाम्पत्य रति के अन्तर्गत होंगे।’ अन्यत्र आचार्य शुक्ल कहते हैं ‘श्रद्धा या महत्व बुद्धि को पुष्ट करने के लिए कृष्ण की शक्ति या लौकिक महत्व को प्रतिष्ठा में आग्रह दिखाने के कारण ही सूर की उपासना सख्य भाव कही कही जाती है।’ दोनों कथनों में थोड़ा-सा अन्तर्विरोध यह देखा जा सकता है कि आचार्य शुक्ल ने रतिभाव के जिन तीनों प्रबल रूपों की स्थिति सूर के काव्य में मानी है, उसमें सख्य भाव या सख्य रति की चर्चा नहीं की है जबकि उन्होंने ही उनकी उपासना को सख्य भाव की उपासना कहा है।

    वात्सल्य रस का विपुल-पुष्कल वर्णन महाकवि सूर ने सूरसागर में किया है। वात्सल्य वर्णन की काव्योपलब्धियों और श्रेष्ठता विधायक उपादानों का विवेचन आगे किया गया है।

    वात्सल्य-चित्रण

    वात्सल्य को रस के रूप में व्यावहारिक दृष्टि से प्रतिष्ठित करने का कार्य महाकवि सूरदास के ही द्वारा सम्भव हुआ। इनसे पूर्व के भारतीय साहित्य में वात्सल्य भाव का चित्रण उतनी पूर्णता के साथ कहीं नहीं मिलता। बाद के साहित्य में भी यह इस पूर्णता के साथ कहीं प्राप्त होता है, इस बात में बहुश्रुत पण्डितों को संदेह है। आचार्य शुक्ल ने इसी बात को निर्मुक्त भाव से स्वीकार करते हुए कहा है- “बाल-चेष्टा के स्वाभाविक मनोहर चित्रों का इतना बड़ा भंडार और कहीं नहीं है, जितना बड़ा सूरसागर में है।”

    1- कृष्ण का शैशव उनके वास्तविक विकास के धरातल पर चित्रित हुआ है। परिणामतः शिशु-जीवन के सूक्ष्मातिसूक्ष्म पक्षों पर सूर की दृष्टि गई है और ये सभी पक्ष अत्यन्त जीवन्त, सहज और स्वाभाविक बनकर आये हैं। इसे आलम्बन पक्ष का चित्रण भी कह सकते हैं।

    कृष्ण के शैशव का यह विकास दो स्तरों पर होता हैं-

    क- बाह्य शारीरिक विकास (रूपांकन)।

    ख- आन्तरिक अर्थात् स्वभावगत विकास (मनोवैज्ञानिक निरूपण)।

    वस्तुतः इन दोनों को ही पृथक्-पृथक् नहीं देखा जा सकता, क्योंकि वय-विकास वह मूलभित्ति है जिस पर शारीरिक और स्वभावगत विकास की आधारशिला रखी जाती है।

    2- शास्त्रीय दृष्टि से कृष्ण वात्सल्य रस के आलम्बन हैं और नन्द तथा यशोदा आश्रय हैं। सूर के वात्सल्य-वर्णन की विशिष्टता यह है कि वे आलम्बन –मात्र के चित्रण को पर्याप्त नहीं मानते। उनकी लीलाओं या उनमें घटित होने वाले वय-विकासजन्य परिवर्तनों की, अपनी समस्त उल्लिखित अन्तरगत के साथ, यशोदाजी प्रायः साक्षी है। साक्षी कहना शायद समीचीन हो, इसलिए उन्हें भागी कहना चाहिए। उनका यह भागीत्व इसलिए और भी बढ़ जाता है कि वे इन शुभ परिवर्तनों के और भी द्रुतगतिक होने तथा कृष्ण के शीघ्र ही बड़े और समर्थ होने की कल्पना करती चलती हैं। जब यह सुख उनके अन्तःकरण में समाता नहीं, तो वे नंद राजा को भी बुलाना नहीं भूलतीं। अथाह है वह सुखानुभव और असीम है वह वात्सल्य। यह आश्रय पक्ष का चित्रण कहा जायेगा।

    3- इस विकास-सूचना के उपकरण केवल श्रीकृष्ण के परिवर्तन-संकेत मात्र नहीं है। श्रीकृष्ण के चतुर्दिक का परिवेश भी इसमें पूरी तरह योगदान करता है। शास्त्रीय दृष्टि से यह उद्दीपन का एक अंश है और उसे उद्दीपन विभाव-पक्ष का चित्रण कह सकते हैं।

    4- वात्सल्य में भी संयोग और वियोग की द्विधात्मक स्थितियों का आनयन करके सूरदास एक ही अनुभूति के सुखात्मक और दुखात्मक दोनों पक्षों का एकांत मार्मिक चित्रण करते हैं।

    5- यदि अध्ययन किया जाये तो सूर के वात्सल्य वर्णन का एक पृथक्, मनोवैज्ञानिक धरातल भी मिल सकता है। प्रायः नगण्य सी समझी जाने वाली आयु दशा का इतना विपुल, सूक्ष्म, अन्तर्बाह्य स्थितियों से पूर्ण मर्मस्पर्शी चित्रण करना उनकी प्रतिभा, अन्तर्दृष्टि, सूक्ष्मान्वीक्षण, गहरी सहृदयता और उद्भावनाशीलता का प्रतीक है।

    आलम्बन पक्ष का चित्रणः शिशु कृष्ण का अन्तर्बाह्य विकास

    सूरसागर में कृष्ण जन्म की आनन्द बधाई के बाद बाल-लीला का क्रम शुरू होता है। सामान्यतः हम जिस बचपन को घटनाशून्य मानते हैं, अपने गम्भीरतर जीवनचर्या और श्रेष्ठतर ज्ञानानुधावन के सामने शिशु की जिस क्रीड़ा को घड़ी भर के विनोद और परिवर्तन का साधन मान कर उसे छोड़ देते हैं, उस बाल-जीवन की क्रम-प्राप्त स्थितियों का इतना विस्तृत पद-कोष सूर की अद्वितीय उपलब्धि कही जा सकती है। शिशु श्रीकृष्ण की ‘कबहुँ पलक हरि मूँदि लेत हैं, कबहुँ अधर फरकावै’ तथा स्वप्नगति के ‘उभय पलक पर’ आने, हाथ और पाँव का अँगूठा मुँह में लेने तथा ‘स्वास उदर उससित यों मानो छीर सिंधु छबि पावै’ की स्थितियों से लेकर, पालना झूलने, स्तनपान करने, यशोदा की गोद में खेलने, नाम-करण, अन्नप्राशन, दँतुलियों के आने, पीठ के बल उलटने, पालने की लकड़ी की ओठ को पकड़ कर उठने का प्रयत्न करने, बैठने, घुटनों के बल चलने, खड़े होने, डगमगा कर चलने, देहरी तक पहुँच कर लौट-लौट आने, मथानी की आवाज के साथ नाचने का प्रयत्न करने, दूध पीने का हठ करने और चोटी बढ़ने के प्रलोभन पर दूध पीने, चोटी बढ़ने पर इसके लिए तथा अपने बड़े होने की बात पूछने, बालोचित मनस्विता में अपने-आप गाने और अपने ही प्रतिबिम्ब को नवनीत खिलाने का प्रयत्न करने, स्नान करने के लिए रोने और हठ करने, माता के द्वारा चंद्रमा दिखाए जाने पर चंद्रमा माँगने का आत्यंतिक हठ करने, खेलने के लिए पड़ोस तक निकल जाने, व्यालू के लिए माता के बुलाए जाने, खाते-खाते जम्हाई लेने लगने, जगाए जाने पर उठने, आँख-मुदौवल का खेल खेलने, मिट्टी खाने, माखन चोरी के लिए तरह-तरह की बालोचित युक्तियाँ निकालने, ब्रज की गोप-बधुओं की शिकायत पर बँधने और पिटने, मना करने पर भी मानने, गोदोहन ही कला सिखाने के लिए प्रार्थना करने आदि-आदि सहज, आनुक्रमिक, विकास-सूचक लीलाओं की शताधिक पदों में वर्णित मनोरम चित्र-मंजूषा सूरसागर में सुरक्षित है। सूर नवम सर्ग तक कतिपय पौराणिक विवरणों में उलझे हुए हैं जिनमें स्पष्ट ही उनकी वृत्ति रमती हुई नहीं दिखलाई पड़ती, लेकिन दशम सर्ग में आकर उनकी प्रतिभा जैसे अपना मनचाहा क्षेत्र पा गई हो और वे विमुक्त होकर बाल-लीला का गान आरम्भ कर देते हैं। ऊपर जिन-जिन स्थितियों का उल्लेख किया गया है, कई-कई पदों तक चले हैं। उदाहरण के लिए पालना पौढ़ने, चन्द्र खिलौना के लिए हठ करने, माखन-चोरी करने आदि के प्रसंग में कवि ने बाल-स्वभाव के अंकन में जैसी सजगता मार्मिकता दिखाई है, वैसी अन्यत्र दुर्लभ है। आवृत्ति काव्य में दोष के रूप में मानी गई है, लेकिन यहाँ एक ही बात तत्काल दूसरे पद में पढ़कर भी पाठक ऊबता नहीं। इसका कारण यह है कि लेखक जिन स्थितियों को जिस तन्मयता के स्तर पर पकड़ता है वह प्रत्येक पद में कुछ ऐसी अभिनव रमणीयता भर देती है कि प्रत्येक पद किसी और भी वैसे ही पद की आकांक्षा छोड़ देता है। जैसा कि हम पीछे कह आए हैं कि इंगित करने के लिए तो शिशु श्रीकृष्ण का बाह्य विकास और अन्तर विकास हो सकता है, पर जहाँ तक चित्रण का प्रश्न है इनके पृथक् होने का प्रश्न ही नहीं उठता। कृष्ण का बाल-जीवन अत्यन्त सजीव, स्वाभाविक, सूक्ष्म, विवरणपूर्ण, अद्वितीय रूप में चित्रित हुआ हैं। आचार्य शुक्ल जैसे पारदर्शी आलोचक के अनुसार ‘शैशव से लेकर कौमार्य अवस्था तक के क्रम से लगे हुए जाने कितने चित्र मौजूद हैं। उनमें केवल बाहरी रूपों और चेष्टाओं का ही विस्तृत और सूक्ष्म वर्णन नहीं है, कवि ने बालकों की अन्तःप्रकृति में भी पूरा प्रवेश किया है और अनेक बाल्य-भावों की सुन्दर स्वाभाविक व्यंजना की है।’ कतिपय उदाहरण हैं-

    जसोदा हरि पालने झुलावै।

    हलरावै दुलराइ मल्हावै जोइ सोइ कछु गावै।

    कर पग गहि अँगुठा मुख मेलत।

    हरि किलकत जसुदा की कनिया।

    सुतमुख देखि जसोदा फूली।

    हरषित देखि दूध की दँतियाँ प्रेम मगन तनु की सुधि भूली।

    सोभित कर नवनीत लिए।

    घुटुरुन चलत रेनु तन मंडित मुख दधि लेप किए।

    किलकित कान्ह घुटुरुवन आवत।

    मनिमय कनक नन्द कै आँगन निज प्रतिबिम्ब पकरिवे धावत।

    सिखवत चलन जसोदा मैया।

    अरवराइ कर पानि गहावत, डगमगाइ धरनी धरै पैया।

    मथत मथानी टेकि खरयो।

    कजरी को पय पियहु लला तेरी चोटी बाढ़ै।

    मैया कबहिं बढ़ैगी चोटी।

    आश्रय-पक्ष का चित्रणः यशोदादि के भावों का अकन

    आलम्बन और आश्रय के सम्बंध का निरूपण करते हुए एक स्थान पर आचार्य शुक्ल ने कहा है- “जिस प्रकार ज्ञान की चरम सीमा ज्ञाता और ज्ञेय की एकता है, उसी प्रकार प्रेमभाव की चरम सीमा आश्रय और आलम्बन की एकता है।” पहले ही कहा जा चुका है कि वात्सल्य का चित्रण वात्सल्य रति के अन्तर्गत आता है। वात्सल्य रति की विशेषता वस्तुतः सूर द्वारा ही प्रतिपादित हुई और वात्सल्य अपनी परिशुद्ध, निर्मल प्रेम परकता के ही कारण एक प्रकार की रति भावना या प्रेमभावना से सम्बद्ध होते हुए भी पृथक् रस के रूप में प्रतिष्ठित हुआ। सूर द्वारा वर्णित वात्सल्य रस के आलम्बन तो कृष्ण हैं, पर आश्रय यशोदा, नँद और अन्य गोपिकादि हैं। सामान्य पारिवारिक जीवन में भी शिशु की समूची आनंद-क्रीड़ा का मूल्य तभी है जब वह माता के क्रोड़, उसके वक्ष और उसके अंचल के स्नेह से सत्कृत होकर सामने आए। श्रीकृष्ण का शिशु भी यशोदा की हजार-हजार स्नेहोच्छल लालसापूर्ण मंगलेच्छाओं और आशीर्वचनों के बीच बढ़ता, फलता-फूलता है। सूर की चित्रण-प्रक्रिया पर जब हम दृष्टि डालते हैं तो प्रतीत होता है कि श्रीकृष्ण की प्रत्येक नई लीला, नया परिवर्तन, यशोदा और नंद की किन्हीं प्रतीक्षापूर्ण मंगल कामनाओं के उत्तर जैसा है। और जब ये घटित होते हैं तो यशोदा का स्वगतभाव, आनन्दोल्लास देखते ही बनता है। आनंद एक सामाजिक भाव भी है। उपलब्धियों को उपलब्धिवान और भी अधिक सार्वजनिक रूप देना चाहता है। यशोदा अपने प्रायः हर आनंद में नन्द को भी सम्मिलित करना चाहती है। यशोदा की प्रतीक्षापूर्ण मंगल-कामनाओं की अनेक प्रवाहपूर्ण अभिव्यक्तियों में से एक हैं-

    मरो नान्हरिया गोपाल हो, वेगि बड़ो किन होहि।

    इहि मुख मधुर वचन हो, कब जननि कहोगे मोहि।।

    यह लालसा अधिक दिन-दिन प्रति कबहूँ ईस करै।

    मो देखत कबहूँ हँसि माधौ पगु द्वै धरनि धरै।।

    हलधर सहित फिरैं जब आँगन चरन सबद सुनि पाऊँ।

    छिन छिन छुधित जानि पय कारन हौं हठि निकट बुलाऊँ।।

    यहाँ पर यशोदा उन लाखों माताओं में से एक हैं जो अपने शिशु के विकास की बात सोचती हुई थकती नहीं। गोपाल के पीछे ‘नान्हरिया’ विशेषण तथा ‘मो देखत’ वाक्य-खंड भावुक चित्त को विमुग्ध करने की असाधारण क्षमता रखते हैं।

    पुनः श्रीकृष्ण में घटित एक परिवर्तन के प्रति यशोदा का स्वगतभाव और आनन्दोल्लास देखिये-

    महरि मुदित दुलराइ कै मुख चूँबन लागी।

    चिरुजीवौ मेरो लाडिलो मैं भई सभागी।।

    इस उल्लास को अपने तक ही कैसे समेट कर रखा जाए, यशोदा जी नंद को बुलाती है। एक ही उपलब्धि दूसके की भी बन जाती है। देखिए-

    सुत मुख देखि जसोदा फूली।

    हरषित देखि दूध की दँतियाँ प्रेम मगन तनु की सुधि भूली।।

    बाहिर ते तब नंद बुलाए देखौ धौं सुन्दर सुखदाई।

    नंद में ही वात्सल्य कम क्यों हो! वे भी अपनी उपलब्धि को अपने तक ही क्यों रखे। देखिए-

    हरषे नंद टेरत महरि।

    आई सुत मुख देखि आतुर डारि दै दधि टहरि।।

    संक्षेपतः यह जानना चाहिए कि श्रीकृष्ण की अधिकांश बाल-क्रीड़ाओं के चित्रण में कृष्ण की लीला के साथ-साथ यशोदा का अंतःकरण अवश्य ही लिपटा हुआ होता है। नंद भी अनेक बार उद्रिक्त हुए दिखलायी पड़ते हैं। यशोदा के अधिक सामने आने का कारण यह है कि वे माता हैं और माताएँ पिता की अपेक्षा शिशु के जीवन के अविकल विकास की साक्षी होती हैं। इसका कारण यह भी है कि माताओं के अन्तःकरण के वात्सल्य का यह एक पक्ष हैं। श्रीकृष्ण के वियोग में इसका दूसरा पटोद्घाटन होता है।

    उद्दीपन-पक्ष का चित्रणः परिवेश और प्रतिक्रियाएँ

    उद्दीपन के अन्तर्गत आलम्बन की चेष्टाएँ आती हैं। आलम्बन की चेष्टाओं के अन्तर्गत आलम्बन की अपने परिवेश के प्रति प्रतिक्रियाएँ आती हैं। शिशु श्रीकृष्ण की ऐसी कुछ प्रतिक्रियाएँ उदाहरण के लिए प्रस्तुत की जा सकती है। यशोदा रोते हुए श्रीकृष्ण को चुप कराने के लिए चन्द्रमा को दिखाती है। तत्काल इसकी प्रतिक्रिया श्रीकृष्ण में होती हैं और बालोचित ढंग से सम्भवता और असम्भवता का विचार छोड़ कर वे उसे माँग ही तो बैठते हैं- “लागी भूख चन्द्र मैं खैहौं देहु-देहु रिस करि विरुझावत।” और यह क्रम अनेक पदों में चलता रहता है। यशोदा जल के पात्र में चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब को दिखाकर श्रीकृष्ण को संतुष्ट करना चाहती है। लेकिन श्रीकृष्ण उसमें भी चन्द्रमा को हाथ डालकर खोजने लगते हैं। इस प्रकार अपने परिवेश के प्रति बालोचित स्वभाव के अनुसार श्रीकृष्ण की प्रतिक्रियाएँ वात्सल्य-रस के पुष्टि-परिपाक में अत्यन्त सहायक हैं।

    वात्सल्य की द्विधा-स्थितियों का चित्रण

    इन द्विधा स्थितियों के अन्तर्गत संयोग-वात्सल्य और वियोग-वात्सल्य दोनों आते हैं। संयोग-वात्सल्य के अन्तर्गत यशोदा-नंद की भावनाओं की एक झलक पीछे दी जा चुकी है। यहाँ वियोग-वात्सल्य की चर्चा की जाएगी। जिस पुत्र के रहते मातृ-रहस्य एक अक्षय स्नेह की स्रोतस्विनी बनकर उमड़ता रहता है, जिस पुत्र के सुख-दुःख को लेकर ही माता का सुख-दुख जाना-पहचाना जाता है, जिस पुत्र के व्यक्तित्व से माता-पिता का व्यक्तित्व और गुण-धर्म परिभाषित किया जाता है, उस पुत्र के अभाव में कितनी तीव्र वेदना होती होगी, उसकी थोड़ी सी झलक भर यहाँ दिखाई जा सकती हैं-

    जसुदा कान्ह कान्ह कै बूझै।

    फूटि गई तुम्हारी चारौं, कैसे मारग सूझै।।

    इत जौ जरो जात बिनु देखैं अब तुम दीन्हौं फूकि।

    यह छतिया मेरे कान्ह कुँवर बिनु, फटि भई द्वै टूकि।।

    नंद भी यशोदा के प्रति अपना क्षोभ व्यक्त करते हैं-

    तंब तू मारिबोई करति।

    रिसनि आगे कहै जो आवत, अब लै भाँड़े भरति।।

    रोस कै कर दाँवरी लै फिरति घर-घर धरति।

    कठिन हिय करि तब जो बाँध्यौ, अब बृथा करि मरति।।

    आचार्य शुक्ल ने इसमें ‘वियोग जन्य झुँझलाहट’ देखी है। इसी सन्दर्भ में यशोदा कहती हैं-

    नन्द! ब्रज लीजै ठोंकि बजाय।

    देहु विदा मिलि जाहिं मधुपुरी जहँ गोकुल के राय।।

    शुक्लजी इस मनोदशा-चित्रण पर अत्यन्त मुग्ध थे और इसमें अवसरोचित ‘खिझलाहट’ की अभिव्यक्ति मानते थे। अन्यत्र लोगों के समझाने के बावजूद यशोदा की अन्तर्दशा यह है-

    यद्यपि मन समुझावत लोग।

    सूल होत नवनीत देखि मेरे मोहन को मुख जोग।।

    प्रात काल उठि माखन रोटी को बिनु माँगे दैहै।

    को मेरे वा कान्ह कुँवर की छिनु-छिनु अंक में लैहै।।

    देवकी को कहलाया गया संदेश तो दीनता की चरम परिणति हैं-

    संदेसो देवकी सौं कहियौ।

    हौं तो धाय तिहारै सुत की, मया करति ही रहियौ।

    तुम तो टेव जानतीहि ह्वैहौ, तऊ मोहिं कहि आवै।।

    संचारियों का चित्रणः बालमनोविश्लेषण

    यह सूर के काव्योत्कर्ष का विशिष्ट क्षेत्र है। आचार्य शुक्ल पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने सूर में परम्परागत रूप से निरूपित संचारियों के अतिरिक्त कई संचारियों को अथवा भावना-सरणियों को सूर में ढूँढ़ने की कोशिश की है और घोषित किया है कि “वात्सल्य और श्रृंगार के क्षेत्रों का जितना अधिक उद्घाटन सूर ने अपनी बन्द आँखों से किया, उतना किसी और कवि ने नहीं। इस क्षेत्र का कोना-कोना वे झाँक आये। उक्त दोनों रसों के प्रवर्तक रति भाव के भीतर की जितनी मानसिक वृत्तियों और दशाओं का अनुभव और प्रत्यक्षीकरण सूर कर सके उतना कोई और नहीं।”

    वास्तविकता यही है कि सूर के जीवन, ग्रन्थादि, भागवतादि के प्रभाव, सम्प्रदाय-परिचयादि पर जितना विचार हुआ उतना यदि वात्सल्य के क्षेत्र में वर्णित अश्रुतपूर्व भावखंडों को एक क्रम में विश्लिष्ट करके विवेचन को वैज्ञानिक रूप देने का प्रयास हुआ होता तो अधिक अच्छा होता। यह विश्वास साधार है कि सूर ने ऐसी-ऐसी भावस्थितियों की आयोजना की है जिन्हें साहित्य-शास्त्रियों ने अभी नाम तक नहीं दिया है। इस स्वीकृति में भी यही बात स्पष्ट हुई है। सूर के वात्सल्य-चित्रण में शास्त्र-स्थिति-सम्पादन-मात्र नहीं हुआ है। कवि ने अनेक सहकारी भावों की व्यंजना से पुष्ट करके इस भाव को अत्यन्त विशद षटभूमि प्रदान की है। यदि कृष्ण थोड़ी देर के लिए भी आँखों से दूर हो जाते हैं, तो उनके दर्शन की तीव्र आकांक्षा और तीव्र उत्सुकता सूर के अनेक पदों की मूल प्रेरणा बन जाती है। इतने गुणवंत बालक की उपलब्धि पर माँ अनेक बार अपने सौभाग्य को सराहती हैं। इस वृत्ति को गर्व कह सकते हैं। श्रीकृष्ण के द्रुतगति से बढ़ने, फलने-फूलने की मंगलेच्छा स्वाभाविक रूप से अभिलाषा के अन्तर्गत आती है। श्री कृष्ण को स्नान कराने, व्यालू कराने, सुलाने आदि नाना दैनिक परिचर्याओं में यशोदा और रोहिणी का उत्साह एकांत रम्य है। चोटी बढ़ने के पीछे बलराम की वेणी के बढ़ने तथा ऐसे ही अनेक सखाओं की शिकायत के पीछे प्रायः स्पर्द्धा का भाव दिखाई पड़ता है। चन्द्रमा को पाने के लिए उनका हठ भी उनकी बालोचित मानस्विता का उत्तम उदाहरण है। आगे चलकर कृष्ण माखन चोरी की योजना बनाते हैं और कई बार पकड़े जाते हैं। कई बार गोपिकाएँ शिकायत लेकर आती हैं। कभी-कभी तो बात बनाकर छल और कौतुक से मुक्त हो जाते हैं। लेकिन सप्रणाम पकड़े जाने पर वे अमर्ष से युक्त हो जाते हैं। उन्हें श्रीकृष्ण को दण्ड देने के लिए बाध्य होना पड़ता है। गोप-बधुएँ फिर श्रीकृष्ण को मुक्त कराने आती हैं। उस समय यशोदा में भाव साकर्य का अद्भुत रूप उस्थित होता है-

    जाहु चलो अपने-अपने घर।

    तुमहीं सब मिलि ढीठ करायौ अब आई बंधन छोरन बर।।

    मोहिं आपने बाबा की सौं कान्है अब पत्याऊँ।।

    भवन जाहु अपने-अपने सब लागति हौं मैं पाऊँ।

    मोकौ जिनि बरजै जुवती कोउ देखौ हरि के ख्याल।

    सूर स्याम सों कहति जसोदा बड़े नन्द के लाल।।

    वस्तुतः कभी-कभी घटना-परिस्थितियाँ ऐसा मोड़ लेती हैं कि हम अविश्लेषण मनोवैज्ञानिक वृत्तियों का द्वंद्व-सौन्दर्य हृदयगम करते हैं। इस पद में क्रोध का बड़ा ही जटिल रूप दिखलाई पड़ता है। यशोदा में कृष्ण के प्रति तो क्रोध है ही, शिकायत करने वाली गोपिकाओं के प्रति भी कम क्रोध नहीं है। क्रोध की कटुता और प्यार की तीव्रता की यह दोहरी अनुभूति इस पद की शक्ति का स्त्रोत है। ग्लानि और भर्त्सना के रूप भी इस पद में देखे जा सकते हैं। ऐसे ही पदों के कारण सूरदास को महाकवि के रूप में स्वीकृति मिली है।

    जनम सूर कवि सूर, अग-जग लख्यौ समाखि लौं।

    भए सबै कबि कूर, लखि-रवि-कबि-मति अति अकथ।।

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