सूर का वात्सल्य-चित्रण, डॉक्टर सोम शेखर सोम
सूर का वात्सल्य-चित्रण, डॉक्टर सोम शेखर सोम
सूरदास : विविध संदर्भों में
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सूरदास का वात्सल्य-चित्रण केवल भारतीय साहित्य में ही नहीं, समस्त विश्व–साहित्य में अनुपमेय है। सूरदास ने अपनी मधु पर कोमल भावनाओं को वात्सलता से सींच कर वात्सल्य को रसता प्रदान की है। डॉ. हरवंशलाल शर्मा के शब्दों में “यदि मनोवैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाये तो वात्सल्य-भक्ति अन्य सब प्रकार की भक्तियों से उच्च प्रतीत होगी, क्योंकि वात्सल्य-भाव में किसी प्रकार के स्वार्थ की गन्ध तक नहीं होती। अतएव इसे हम निष्काम भक्त का पोषक कह सकते हैं।” सूर ने माता का शुद्ध एवं पवित्र हृदय पाया था। उनमें ममतामयी माता तथा वात्सल्यमय पिता की आत्मा थी। इसीलिए वे यशोदा के मातृ-हृदय में पैठ कर उसकी भाव-तरंगों को स्वरों में बाँध सके।
श्रृंगार, करुण, वीभत्स, रौद्र, वीर, हास्य, भयानक, अद्भुत और शान्त, इन नौ रसों की भाँति वात्सल्य रस भी अपना अलग तथा विशेष अस्तित्व रखता है। पहले वात्सल्य रस की स्वतन्त्र सत्ता नहीं थी। उसे श्रृंगार का एक अंग माना जाता था। कारण यह था कि श्रृंगार का स्थायी भाव ‘रति’ दोनों में समान है, मात्र आलम्बन-भेद है। परन्तु बाद के साहित्याचार्यों ने वात्सल्य-रस की पृथक् सत्ता स्थापित कर उसे महत्व प्रदान किया। आचार्य विनय मोहन शर्मा के मत से “वात्सल्य का आलम्बन पुत्र ही नहीं, पुत्री भी हो सकती है, यद्यपि पुत्र के प्रति ही वात्सल्य भाव की साहित्य में अधिक अभिव्यक्ति हुई है। पुत्र-पुत्री आश्रय के हों या किसी के भी हों, ज्यों ही वे आश्रय के हृदय के साथ वात्सल्य-भाव में एकाकार हो जाते हैं, आलम्बन बन जाते हैं।” एक ही बात में यह स्वीकार किया जा सकता है कि किसी बालक व बालिका की बाल-क्रीड़ाओं का रसपाक वात्सल्य रस के अंतर्गत होता है। इस तरह वात्सल्य के भी दो भेद हैं- संयोग वात्सल्य और वियोग वात्सल्य।
सूरदास संयोग वात्सल्य तथा वियोग-वात्सल्य के सिद्धहस्त कवि थे। उन्होंने कृष्ण की बाल-लीलाओं को बड़ी सूक्ष्म दृष्टि से देखा था। इनके बाल-लीलाओं से सम्बन्धित पदों को पढ़ने से ऐसा प्रतीत होता है कि वे कृष्ण की छाया बनकर कृष्ण के पीछे-पीछे रहा करते थे। इसलिए कृष्ण की बाल-क्रीड़ाओं का चित्रोपम शैली में सहज स्वाभाविक वर्णन करना उनके लिए संभव हो सका।
सूर ने कृष्ण का रूप बड़ी सूक्ष्म दृष्टि से आँका है। सखी कहती है-
सखी री, सुन्दरता कौ रंग।
छिन-छिन माँह परति छबि औरे, कमल नैन के अंग।
यशोदा अपने कृष्ण के रूप-रंग को देखकर कभी संतृप्त होती ही नहीं। बालक जैसा भी हो, माँ को वह सूर्य और चन्द्र के समान सुन्दर लगता है। “कहाँ लौं बरनौं सुन्दरताई”- यशोदा अपने पुत्र के सौन्दर्य का वर्णन करते थकती ही नहीं। श्रीकृष्ण किलकारी मारते हुए घुटनों के बल चल रहे हैं। नंदजी के मणिजटित सोने के आँगन में श्रीकृष्ण अपने मुख की परछाँई देखकर उसे पकड़ने को दौड़ते हैं। सूर ने इस दृश्य का बड़े ही चित्ताकर्षक एवं मार्मिक ढंग से चित्र खींचा है-
किलकत कान्ह घुटुरुवनि आवत।
मनिमय कनक नंद कैं आँगन बिंब पकरिवै धावत।।
कबहुँ निरखि हरि आपु छाँह कौं कर सौं पकरन चाहत।
किलकि हँसत राजत द्वै दँतियाँ पुनि-पुनि तिहि अवगाहत।
बालदसा-सुख निरखि जशोदा पुनि-पुनि नंद बुलावति।
अँचरा तर लैं ढाँकि सूर के प्रभु कौं दूध पियावति।।
इस पद की अन्तिम पंक्तियों में कवि सूर ने माता के हृदय की वत्सलतामयी उमंग का बड़ा ही मनोवैज्ञानिक चित्र प्रस्तुत किया है। बाललीला के सुख को देखकर यशोदा बार-बार नंद को बुलाती हैं और स्वयं मातृ-भाव से भरकर श्रीकृष्ण को आँचल से ढक दूध पिलाने लगती हैं।
यशोदा कृष्ण को पालने में झुला रही हैं। प्यार से पुचकारती हैं और जो मन में आता हैं, वह गाती हैं। सूर के शब्दों में,
जसोदा हरि पालने झुलावै।
हलरावै दुलराइ मल्हावै जोइ सोइ कछु गावै।।
मेरे लाल कौं आउ निंदरिया काहैं न आनि सुवावै।
तू काहैं नहिं बेगिहिं आवै तोकौं कान्ह बुलावै।।
कबहुँ पलक हरि मूँदि लेत हैं कबहुँ अधर फरकावै।
सोवत जानि मौन ह्वै कै रहि करि करि सैन बतावै।
इहि अंतर अकुलाइ उठे हरि जसुमति मधुरै गावै।।
जो सुख ‘सूर’ अमर मुनि दुरलभ, सो नँद भामिनि पावै।।
नंदभामिनी यशोदा का मातृत्व सार्थक है। कारण, जो सुख देवताओं तथा मुनियों के लिए भी दुर्लभ है, वह सुख यशोदा माता को सहज लभ्य है।
यशोदा कृष्ण को चलना सिखा रही है। जब कृष्ण डगमगाते हुए पैरों से चलने की चेष्टा करते है, तो वे उनके हाथों में अपना हाथ पकड़ा देती हैं-
सिखवत चलन जसोदा मैया।
अरवराइ कर पानि गहावत डगमगाइ धरनी धरै पैया।।
कबहुँक सुन्दर बदन बिलोकति उर आनँद भरि लेति बलैया।
कबहुँक बलकौं टेरि बुलावति इहि आँगन खेलौ दोउ भैया।।
हर माता पिता को उस दिन अत्यानन्द मिलता है जिस दिन उनका बच्चा ‘माँ’, ‘बाबा’ कह कर पुकारने लगता है। मोहन भी अब इतने बड़े हो गये हैं कि वे माँ को ‘माँ’ कहकर पुकारने लगे हैं। उसी तरह अपने पिता नंद जी को ‘बाबा’ और अपने बड़े भाई बलराम को ‘भैया’ कहने लगे हैं। वे बाहर निकल जाते हैं, तो यशोदा ऊँचे चढ़कर जोर-जोर से पुकारती हैं- कहीं दूर मत जाना, किसी की गाय मार देगी-
कहन लागे मोहन भैया भैया।
पिता नंद सों बाबा अरु हलधर सों भैया भैया।।
ऊँचे चढ़ि चढ़ि कहति जसोदा लै-लै नाम कन्हैया।
दूरि कहूँ जिनि जाहु लला रे मारैगी काहू की गैया।।
बच्चे दूध से भागते हैं, तो माँ कोई लालच देकर उन्हें दूध पीने के लिए राजी करती है। यशोदा भी यही करती है। कृष्ण को शोक है- उनकी वेणी जल्दी से बढ़ जाये। यशोदा कहती है- बढ़ जायेगी, बलदेव की वेणी जैसी लम्बी-मोटी हो जायेगी, पर दूध पियोगे तब। लेकिन चोटी तो बढ़ती नहीं। कृष्ण शिकायत करते हैं-
मैया कबहिं बढ़ैगी चोटी।
किती बार मोहिं दूध पियत भई यह अजहूँ है छोटी।
तू जो कहति बल की बेनी ज्यौं ह्वैहै लाँबी मोटी।
काढ़त गुहत न्हवावत पोंछत नागिन सी भुइँ लोटी।।
इस पद में कृष्ण अपनी प्यारी माता यशोदा से जो तर्क करते हैं, वह कितना मधुर और संगत है।
अक्सर परिवार में यह देखा जाता है कि बच्चों को चिढ़ाने के लिए यह कह देते हैं कि उसे मोल लिया है। वह इस परिवार का लड़का नहीं है। वह लावारिस है। उसके माँ-बाप का कोई पता-वता नहीं, आदि। इसी तरह बलराम कृष्ण को काफी चिढ़ाते हैं। इसकी शिकायत कृष्ण अपनी माता यशोदा जी से स्वाभाविक क्षोभ के साथ करते हैं-
मैया मोहिं दाऊ बहुत खिझायौ।
मोसौं कहत मोल कौ लीनो तोहि जसुमति कब जायौ।।
कहा करौं इहि रिस के मारैं खेलन हौं नहिं जात।
पुनि पुनि कहत कौन है माता को है तेरौ तात।।
गोरे नंद जसोदा गोरी तू कत स्यामल गात।
चुटकी दै दै ग्वाल नचावत हँसत सबै मुसकात।।
तू मोही कौं मारन सीखी दाउहिं कबहुँ न खीझै।
मोहन मुख रिस की ये बातैं जसुमति सुनि-सुनि रीझै।।
तब माता यशोदा को गाय की सौगन्ध खाकर यह कहना पड़ता है कि -
सुनहु कान्ह, बलभद्र चबाई जनमत ही कौ धूत।
सूर स्याम मोहिं गोधन की सौं हौं माता तू पूत।।
इन पंक्तियों में बालोचित क्रोध तथा मातृ-हृदय का मनोज्ञ चित्रण किया गया है। इतनी स्वाभाविकता अन्यत्र दुर्लभ है।
कृष्ण की दधि-माखन-चोरी का प्रसंग अत्यन्त मनोरम है। एक बार ऐसा होता है कि माखन-चोरी की शिकायत यशोदा के पास दर्ज हो जाती है। वे कृष्ण को पकड़कर दण्ड देना चाहती है। हाथ में साँटी है। इस पर श्रीकृष्ण माता से कहते हैं-
मैया! मैं नहिं माखन खायौ।
ख्याल परे ये सखा सबै मिलि मेरे मुख लपटायौ।।
देखि तुहीं सींके पर भाजन ऊँचे धरि लटकायौ।
तुहीं निरखि नान्हें कर अपने मैं कैसे करि पायौ।।
मुख दधि पोंछि बुद्धि इक कीन्हीं दोना पीठि दुरायौ।
डारि साँटि मुसकाइ जसोदा सुत कौ कंठ लगायौ।।
ऐसी कौन माता है जो शिशु की इस अबोध चतुरता पर न्यौछावर न हो जाये। यशोदा साँटी डाल देती हैं, कृष्ण को गले लगा लेती हैं।
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