राष्ट्रीय जीवन में सूरदास, श्री शान्ता कुमार
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सूरदास : विविध संदर्भों में
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भारतीय लोक-संस्कृति और परम्परा को एक ऊँची पीठिका पर आसीन करने में संतप्रवर सूरदास और उसके द्वारा रचित काव्य-साहित्य का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। उन्होंने द्वापर के नायक श्री कृष्ण भगवान की बाल-लीलाओं का समसामयिक लोक-आस्था के अनुरूप चित्रण किया और भगवान को एक ऐसे लोकनायक के रूप में प्रस्तुत किया जो सांसारिक के रूप में उन सभी मानवीय गुणों से परिपूर्ण थे जो साधारण जीवधारी में होते हैं। भगवान को लौकिक रूप में प्रस्तुत कर सूरदास ने हमारे समाज को एक नयी आस्था और अवधारणा दी है।
जिस युग में उनका जन्म हुआ, वह भारतीय संस्कृति की पराजय का युग था- शौर्य से मिस्तेज, धर्म से च्युत और आध्यात्मिकता से विमुख। हर्षवर्धन (647 (647 ई.) का शासन नष्ट होने के बाद उत्तर भारत की राजनीतिक अवस्था विश्रृंखला हो गयी थी। झूठी मर्यादा और इन्द्रिय-लोलुपता के वशीभूत भारतीय सामन्त शताब्दियों तक आपस में लड़ते रहे। उनकी सीमित दृष्टि और असंगठन के कारण महमूद गजनवी और मुहम्मद गोरी के आक्रमण हुए और फलतः देश को दासता के दिन देखने पड़े। विदेशी शक्तियाँ देश के एक कोने से दूसरे कोने तक अपना दमनचक्र चलाती रहीं। सत्ता, प्रशासन, वाणिज्य आदि सभी क्षेत्रों में उनका आधिपत्य था। देश पूरी तरह टूट चुका था।
ऐसे अन्धकारमय युग में सूरदास का उदय हुआ। रामानन्द, वल्भ, चैतन्य, कबीर, दादू, मीराबाई, तुलसीदास, नरसी मेहता और तुकाराम जैसे सन्तों की वाणियाँ गूँजीं और पूरे का पूरा जनमानस उस धारा की ओर उन्मुख हुआ। भक्तियुग सांस्कृतिक एवं धार्मिक पुनर्निर्माण का युग था और एक समय इन सन्तों का इतना बोलबाला था कि मुसलमान शासक भी इनके आगे झुकते थे। इनकी वाणी में ओज था और इनके पीछे जन-आस्था की प्रबल शक्ति थी।
भक्ति-आन्दोलन में सूर, कबीर और तुलसीदास का स्वर अधिक मुखर था। सूर के काव्य में उपदेश की शुष्कता न होने के कारण वे न केवल ब्रज-क्षेत्र में, बल्कि पूर्व से पश्चिम तक पूरे उत्तर और मध्य भारत में लोकप्रिय हुए। उनके द्वारा रचे गये भ्रमर-गीत और सहस्रो पदों के लालित्य ने समूचे सामाजिक परिप्रेक्ष्य के दृष्टिकोण को ही बदल दिया। कृष्ण के सौम्य और मानवी रूप का प्रभाव लोगों के आचार-व्यवहार पर पड़ा। जन-समुदाय ने, जो गुलाम-परस्त शासकों के आत्याचारों से तंग आ चुका था, अपनी रक्षा-हेतु एक नये मनो-विश्व का निर्माण किया और यह मनो-विश्व था आस्था का, आध्यात्मिक बोध और प्राचीन भारतीय परम्परा के प्रति पुनः समर्पणशील होने का।
भक्ति की यह लहर दक्षिण से आयी थी और उत्तर भारत में उनकी अधिक आवश्यकता थी, क्योंकि यवनों द्वारा हमारी संस्कृति को नष्ट करने के निरन्तर प्रयास हो रहे थे। इसने पूर्व समाज में ऐसी स्थिति कभी नहीं आयी थी। अनेक अक्रान्ता जातियाँ भारत में आयीं और यहीं की धरती में रच-बस गयीं। यह दो विरोधी जातियों के संघर्ष का काल था। लेकिन मुसलमानों में ही एक सहिष्णु सम्प्रदाय सूफ़ियों का भी था जिसने भारतीय संस्कृति और लोक-आस्था को अपनी साधना और दर्शन का आधार बनाया।
विदेशी संस्कृति से बचाव के लिये भारत में उस समय दो विभिन्न शक्तियाँ कार्य कर रही थीं- एक निर्गुण और दूसरी सगुण। निर्गुण धारा ने जहाँ जातिवाद और धर्माडंबर के विरुद्ध अपना अभियान छेड़ा, वहां सगुण धारा ने पुरानी आस्था को पुनः प्रज्वलित किया। तुलसीदास राम के और सूरदास कृष्ण के चरित्रांकन से लोकमानव को आलोकित कर गये।
सूरदास यद्यपि अपनी साधना के अन्तर्गत पुराने शास्त्रों को मान्यता देते हैं, लेकिन उनके काव्य में अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णुता का भाव है। उनके पदों में कहीं भी विरोध की ध्वनि नहीं है। वास्तव में सूर का काव्य लालित्य, वात्सल्य और प्रेम का काव्य है। सूर के समय नाथों और सिद्धों द्वारा प्रवर्तित मत पतनगामी हो रहा था। उनकी अटपटी भाषा और आसन, ध्यान आदि जनसाधारण के उपयोग की वस्तु नहीं थे। पूरे का पूरा योग-दर्शन अन्धविश्वास के कुचक्र में फँस गया था। सूरदास ने ‘भ्रमर-गीत’ में लक्षण और व्यंजना का आवरण डाल कर गोपियों के मुख से बड़ी ही शिष्ट भाषा में नाथों के ‘निर्गुण’ मत पर कटाक्ष किये हैं। उदाहरणार्थ सूरसागर की ये पंक्तियाँ लीजिये-
आये हैं कहियत ब्रज ऊधौ, ब्रज जुवतिन लै जोग।
आसन, ध्यान, नैन मूँदे सखि, कैसे कटै वियोग।।
ऊधो को कृष्ण ने भेजा है गोपिकाओं को समझाने कि वे श्री कृष्ण को उनके सूक्ष्म रूप में ही मानें। लेकिन गोपियाँ प्रभु के ‘निर्गुण’ स्वरूप से सन्तुष्ट नहीं है और ऊधो से कहती है कि इस असहनीय वियोग को योग आदि से दूर नहीं किया जा सकता है।
सूरदास ने श्रद्धा और भक्ति को लोकधर्म और युगधर्म के उपादान के रूप में माना है। यही तत्व उनके काव्य में भी अनायास ही प्रतिपादित हुआ है। उनका कवि और उनका भक्त जीवन की यथार्थताओं के अधिक निकट है। यही कारण है कि उनके पद आज तक ग्रामजनों का कण्ठहार बने हुए हैं। उनमें संगीत है और है मानवीय सहजता, जो बड़े ही परोक्ष ढंग से उदात्त मूल्यों को संकेतित करती है। सूर के भ्रमर-गीत ने मुसलमान कवि रसखान को इतना प्रभावित किया कि वह कृष्ण का भक्त बन गया और उनके सम्मान में उसने अनेक पदों की रचना की।
सूरदास ने अपने पदों में मनुष्य-जीवन का पूरा चित्र खींचा है और मनुष्य की विफलता का कारण भजन का अभाव बताया है। भक्ति के अच्छे प्रभाव में उनके श्रृंगार के पद भी अश्लीलता का आभास नहीं देते। डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में “उन्होंने भजन के पारस पत्थर से स्पर्श करके विलासितारूप कुधातु को सोना बना दिया है।”
सूर महान थे, क्योंकि उनकी रचना महान है। उनके सम्बन्ध में यह दोहा तो अति प्रसिद्ध है—
सूर सूर, तुलसी ससी, उडुगन केसवदास।
अब के कवि खद्योत सम, जहँ तहँ करत प्रकास।।
इससे कवि के रूप में सूर की महानता सिद्ध होती है।
राष्ट्र को एक नया मोड़ देने में सूर-साहित्य का विशेष योगदान है। उनके भक्ति-साहित्य ने समाज को प्रभावित करनेवाले तात्कालिक कुठाराघातों से बचा कर जन-मानस को नया राष्ट्रीय चिन्तन प्रदान किया।
आज भी उनका साहित्य एक महान् राष्ट्रीय धरोहर है। भक्तिरस में प्रवीण संत कवि सूरदास राष्ट्रीय संस्कृति के महान् संरक्षक रहे, इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता।
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