Font by Mehr Nastaliq Web
Sufinama

भ्रमर-गीतः गाँव बनाम नगर, डॉक्टर युगेश्वर

सूरदास : विविध संदर्भों में

भ्रमर-गीतः गाँव बनाम नगर, डॉक्टर युगेश्वर

सूरदास : विविध संदर्भों में

MORE BYसूरदास : विविध संदर्भों में

    नागर सिंधु सभ्यता के बावजूद भारतीय नगरी नहीं ग्रामीण है। पूरा भारतीय साहित्य गाँव उन्मुख हैं। रामकी जवानी के 14 वर्ष गाँव नहीं, जेगल में बीते। भरत नंदि गाँव में रहे। कृष्ण का असली चरित गोकुल गाँ का है। लव-कुश, शंकुतला, सभी गाँव या अरण्य में पले। भारतीय साहित्य नगर की अपेक्षा गाँव को महत्व देता है। श्रीमद्भागवत और सूरदास के प्रसिद्ध भ्रमर-गीत में भी गाँव सभ्यता मुख्य है। गाँव आज भी नगरीकरण का महत्वपूर्ण विकल्प हैं। भक्ति का दर्शन गाँवाला है। इसीलिए सूर आदि गोकुल-कृष्ण के भक्त हैं। मथुरा और द्वारिका के कृष्ण के प्रति उनमें आकर्षण नहीं है। भ्रमर-गीत के माध्यम से सूर ने इसी तथ्य को उजागर किया है।

    भ्रमर-गीत में क्या है? गोपियों का, राधा, नंद-यशोदा का प्रेम-विरह-निवेदन? निर्गुण-निराकर योग का खंडन? उद्धव योग-मार्ग का उपदेश? विद्वानों के एक समूह का विश्वास है कि सूर और नन्ददास द्वारा रचित भ्रमर-गीत में योग और निर्गुण के विरोध की अधिकता का कारण तात्कालिक है। विशेषकर यह कबीर, दादू आदि पिछड़ी जाति के संतों की निर्गुण बानियों के विरोध में आया है। यह संभव हैं। फिर भी यह विरोध कबीर के निर्गुण मार्ग को ही ध्यान में रखकर है, यह कहना कठिन है। एक तो यह कि कबीर का मार्ग योग की अपेक्षा निर्गुन और सहज साधना का है। दूसरा यह कि सूर ने तो स्पष्ट ही गीता के ज्ञानमार्ग का विरोध किया है- “समुझत नाहिं ज्ञान गीता को, मृदु मुसकानि अरे।” सूर के ज्ञान-विरोधी पदों की अपेक्षा योग-विरोधी पद अधिक हैं। तुलसी भी तप पर जोर देते हैं। निरगुनिया सहजो बाई का जोर योग और ज्ञान की अपेक्षा भक्ति पर है- “जोगी पावै जोग सूँ, ग्यानी लहै विचार, सहजो पावै भक्ति सूँ, जोग प्रेम आधार।” इतना ही नहीं, इनसे कुछ भिन्न भी है। सर्वप्रथम भागवत को लें। यहाँ भी उद्धव कृष्ण के निर्गुण रूप का संदेश देते हैं। स्वाभाविक था। सगुण को तो गोपियाँ भज ही रही थीं। उद्धव की दृष्टि में कृष्ण सब भक्तों के हृदय में इस प्रकार विराजमान हैं जिस प्रकार लकड़ी के भीतर अग्नि। यहाँ उद्धव कृष्ण के निर्गुण रूप का संदेश हेते हैं। स्वाभाविक था। सगुण को तो गोपियाँ भज ही रही थीं। उद्धव की दृष्टि में कृष्ण सब भक्तों के हृदय में इस प्रकार विराजमान हैं जिस प्रकार लकड़ी के भीतर अग्नि। यहाँ उद्धव भक्ति का निषेध नहीं करते। हाँ, संबंधों का निषेध अवश्य करते हैं। उनके कोई माता है, पिता है, भार्या है और सुतादि ही हैं। उनके कोई अपना और पराया है। देह है, जन्म। सूरदास, नंददास, रत्नाकर आदि कवियों ने उद्धव को निर्गुण और योग-मार्ग का प्रतिनिधि बना दिया। गोपियाँ उसका खंडन करने लगीं। कुछ अध्येताओं ने इस खंडन-मंडन पर इतना अधिक बल दिया कि वह प्रमुख हो गया। शेष छूट गया, विशेषकर ऐसी चीज छूट गयी जो संपूर्ण कृष्म-काव्य के मूल में है। कृष्ण नागर और गँवार दोनों है। गो-पालक अहीर और कंस को मारने के बाद वाले नागर है। वृन्दावन गाँव है। मथुरा नागर। वृन्दावन, बरसाना और गोकुल में गोप, गोसुत, गोपियाँ, राधा, ग्वालबाल और नन्द-यशोदा है। मथुरा में यह सब कहाँ है? वृन्दावन में मित्र-समूह हैं, मथुरा में व्यक्ति-मित्र। राजा के मित्र गिने-चुने व्यक्ति ही हो सकते हैं। राजा की फुर्सत और राजकाज की गुरुता तथा गोपनीयता की दृष्टि से भी यह ठीक है। राज-दरबार में मित्र की अपेक्षा मंत्री अधिक होते हैं। उद्धव सखा मंत्री-से हैं, वरना जहाँ सारी दुनिया कृष्ण के सगुण रूप को भज रही है, वे निर्गुण में क्यों जाते? वृन्दावन में नदी है, पहाड़ है, वन हैं, तमाल और कदंब वृक्ष हैं, गोचारण और वंशीवट है, दूध, दधि, मक्खन, गुंजों की माला, वैजयंती की, माला, आनन्द-उत्सव, नृत्य और क्रीड़ा है, चोरी और सीनाजोरी है, कृष्ण का बचपन और कैशोर्य है। पूरा वृन्दावन एक परिवार है। कृष्ण किसी के घर जा सकते हैं, कहीं कुछ खा सकते हैं, सबसे प्रेम, हँसी और क्रीड़ा कर सकते हैं। सहजता और सरलता है। गाँव की सादगी और गँवार का भोलापन है। प्रेम वैधता के स्थान पर निश्छलता है। कृष्ण का वेश भी क्या है? पीताम्बर, मोर-मुकुट, मुरली का वादन, त्रिभंगी मुद्रा। मथुरा में यह सब नहीं हो सकता। राजा को राजा की तरह, रहना होगा। राज्य शान से चलता है। प्रदर्शन से टिकता है। व्यस्तता राजा की अनिवार्यता है। मथुरा में कृष्ण के माता पिता नहीं है (वे उन्हें भूले रहते हैं)। प्रेयसि भी गिनी चुनी हैं। राजा सबसे प्रेम नहीं कर सकता, सब जगह नहीं जा सकता, फिर ऐसा राजा जो गाँव से आया है, गँवार से नागरिक हुआ है, अहीर से क्षत्रिय हुआ है। कोई असभ्य कह दे। गोपियों ने कह ही दिया- ‘अंत अहीर बेचारो।’ मथुरा वृन्दावन से भिन्न है। वह नगर है, राजधानी है, धूल नहीं सोने की है। रावण की लंका भी सोने की थी। संकर्षण-सहित कृष्ण ने अपराह्न में मथुरापुरी देखने के लिए गोपालोंसहित नगर में प्रवेश किया। वहाँ कृष्ण ने देखा नगर में ऊँचे-ऊँचे द्वार स्पटिक मणि के बने हुए हैं। उनमें बड़े-बड़े सोने के किवाड़े लगे हैं। उत्सव के कारण सब ओर बन्दनवारै लगी हैं। नगर के सब ओर खाई खुदी हैं। सुवर्णमय चौराहा है। ...........वैदूर्य, वज्र, निर्मल नीलमणि, विद्रुम, मोती, हीरे आदि से जड़े हुए वलभी अर्थात् झाप, वेदी झरोखे, फर्श आदि जगमगा रहे हैं (भागवत 10।41-19, 20, 21, 22)। नागरीदास इस मथुरा के बारे में कहते हैं। कहते क्या हैं, ब्रज और मथुरा का भेद बताते हैं, गाँव और शहर को अलगाते है। राजधानी में प्रेम नहीं, नियम है। निर्गुण की कथा राजनीति का प्रबन्ध है। पाठ है-

    ऊधौ, तुम जानत प्रेम।

    बसौ मथुरा राजधानी, तहाँ व्यापक नेम।

    कथा निरगुन-ग्यान सूको राजनीति प्रबन्ध।

    मथुरा में कृष्ण की भेंट जिस स्त्री से हुई वह कुब्जा थी। हम आजकी कथा पढ़ रहे हैं। कुब्जा माने कुंठा। उस नारी में कुंठा थी। दरबारी नारी कुंठित होती है। राजा कुंठिता को पसन्द करता है। कंस के अत्याचार ने उसे कुंठित बना दिया था। दरबारी स्त्री में गँवई की मुक्तता और स्वच्छंदता नहीं। गाँव की प्रकृति मुक्त है। दरबार में महल का घेरा ऊँचा है, ठोस है। कौन लाँघ सकता है? यहाँ नारी-जीवन में विविधता नहीं है। कृष्ण के संपर्क से उसका कूबड़ दूर हो गया। किन्तु कृष्ण का रास छूट गया, बंशी गुम हो गयी, दही का मटका फूट गया, मोरपंख का मुकुट सुवर्ण-रत्नों में बदल गया। यहाँ धातु का ठोसत्व है, पंखों और वैजयंती की कोमलता नहीं। दुंदुभी और नगाड़ों और नगाड़ों का घनत्व है, वंशी की मृदुता नहीं। मेवा, मिष्टान्न और नाना पकवान हैं, किन्तु माखन की चिकनता और मिसरी की मिठास नहीं है। सब कुछ औपचारिक है। सारे संबंधों में नियमों की दीवार है। कृष्ण का मन ऊबा होगा। मथुरा कृष्ण का प्रवास था। कृष्ण को अपना बचपन याद आया। आदमी कहीं चला जाये, कितना ही बड़ा क्यों हो जाये, उसका गाँव, उसके गाँव लोग, बालसखा उसे और भी याद आते हैं। ‘अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है।’ कृष्ण के इस मन को आचार्य शुक्ल ने समझा था। उनकी दृष्टि से वृन्दावन के प्रति कृष्ण का प्रेम साहचर्यजन्य था। यह हेतु-ज्ञान-शून्य था। शुक्ल जी कहते हैं— “हम किसी किसान को उसकी झोपड़ी से हटाकर किसी दूर देश में ले जाकर राजभवन में टिका दें, तो वह उस झोपड़ी के छप्पर पर चढ़ी कुम्हड़े की बेल का, सामने के नीम के पेड़ का, द्वार पर बँधे चौपायों का ध्यान करके आँसू बहायेगा।” कृष्ण के आँसू बहने लगे। उन्होंने वृष्णियों के सर्वश्रेष्ठ मंत्री, अपने प्रिय सखा उद्धव से कहा- ‘तुम ब्रज जाओ।’ उद्धव ब्रज गये। वह ब्रज कैसा था? वह ब्रज पुष्पवती गौओं के लिए आपस में लड़नेवाले मतवाले साड़ों से शब्दायमान था। गौएँ अपने थनों के भार से भारान्वित होते हुए भी अपने-अपने बछड़ों पर दौड़ती थीं- उनके आलिंगन के लिए उनकी ओर आती थीं। इधर-उधर दौड़ते हुए सफेद गायों के बछड़ों से शोभित ब्रज गोदोहन के शब्दों से झंकरित, वंशी-ध्वनि से प्लावित है। भारत के किसी भी गाँव की गोधूलि का यह चित्र है। नगर में, राजधानी में यह नहीं है। कृष्ण का मन व्याकुल हो रहा है-

    ऊधौ, मोहिं ब्रज बिसरत नाहीं।

    हंस सुता की सुन्दर कगरी अरु कुंजनि की छाहीं।।

    वै सुरभी वै वच्छ दोहनी खरिक दुहावन जाहीं।

    ग्वालवाल मिलि करत कुलाहल नाचत गहि गहि वाहीं।।

    यह मथुरा कंचन की नागरी मनि मुक्ताहल जाहीं।

    जबहि सुरति आवति वा सुख की जिय उमगत तन नाहीं।।

    शहर में एक प्रकार की ऊब हैं। सम्पूर्ण कृष्ण-काव्य ग्राम्य-काव्य है। वह शहर और ठाठ के विरुद्ध कुंजों और साधारणता का काव्य है। शायद कोई कवि हो जो मथुरा की कल्पना करता हो। मथुरा में कृष्ण राजा हैं। राजा भक्त का उपास्य नहीं हो सकता। अन्य धर्म-परिवार में पैदा हुए रसखानि कृष्ण के राजा रूप पर फिदा नहीं होते। वृन्दावनी कृष्ण उनके मुख्य आकर्षण हैं- “मानुष हौं तो बहै रसखानि बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन।” पूरा कृष्ण-काव्य नगर और राजधानी-सभ्यता विरोधी है, केन्द्रीकरण, नगरीकरण के विरुद्ध गाँव और गोचारण का समर्थक हैं। बाद में कृष्ण गाँव को भूल गए। राजधानी का व्यक्ति गाँव और ग्रामवासियों को भूल ही जाता है।

    उद्धव नगरी सभ्यता, दरबारी संस्कृति का उपदेश देते हैं। दरबारी संस्कृति में निर्गुण के लिए बहुत गुंजाइश है। निर्गुण एक ओर आदमी को अतीन्द्रिय दुनिया में ले जाता है, गम्भीर बनाता है, दूसरी ओऱ उसे वायवी बनाता है, प्रपंचों और वस्तु-स्थिति से भगाता है। गोपियों के सगुन में अपने आस पास के प्रति प्रेम है, मित्र और स्वजन से प्यार है। यह देशी का पर्याय है। राजा कृष्ण उससे भागे हैं। उनके दरबारी उनको सामान्य जन से, अपने गाँव-घर की निष्ठा से अलग करना चाहते हैं। इसलिए वे निर्गुण का उपदेश देते हैं। निर्गुण देशी का विरोधी हैं। गोपियाँ पूछती हैं- ‘निर्गुन कौन देस को वासी?’ उद्धव द्वारा निर्गुण और योग का उपदेश एक ढोंग है, षड्यंत्र है, प्रेम की साकारता के स्थान पर व्यक्तिगत साधना का भटकाव है। इस योग में नारी के लिए स्थान नहीं है। योग समूह की साधना नहीं हो सकता। निर्गुण निराकार सामान्य जन की पकड़ के बाहर है। इसमें दरबारी व्यक्ति-जैसी सिद्धि चाहिये। गोपियों ने उद्धव के निर्गुण योग को ठुकरा दिया, क्योंकि इस निर्गुण में देशी और साधारणता के विरोध का षड्यंत्र था। निर्गुण निराकार देश की बात नहीं करता, सुजलाँ-सुफलाँ के लिए निर्गुण में गुंजाइश नहीं है।

    क्या उद्धव ने ग्राम्य संस्कृति का विरोध किया था? नगर संस्कृति, दरबारी जीवन का समर्थन किया था? नहीं। चालाक उद्धव इनके बारे में मौन हैं। केवल यह बताते हैं कि कृष्ण अब राज-काज में लग गये हैं। उनके कारण मथुरा नगर के लोग सुखी हैं (नगर लोग सुखी बसत हैं, भये सुरनि के काज)। स्वयम् कृष्ण ने गोकुल-जीवन के प्रति गम्भीर ममता व्यक्त की थी। किन्तु चतुर गोपियाँ समझती हैं। वे समझती हैं, कृष्ण राजा हो गये हैं, अब हमें भूल रहे हैं, कुछ बहका रहे हैं, अब गोकुल की चीजें देखकर कृष्ण को कुछ-कुछ शर्म आती हैं, वे लजाते हैं-

    सुनियत मुरली देखि लजात।

    दूरिहिं तैं सिंहासन बैठे सीस नाइ मुसकात।।

    मोर पच्छ कौ व्यजन विलोकत बहरावत कहि बात।

    जौ कहुँ सुनत हमारी चरचा चालत हीं चपि जात।

    सुरभी लिखत चित्र की रेखा, सोचै हू सकुचात।

    मुरली देखकर लजाते हैं। मुरली गाँव और गोचारण की उन्मुक्तता की प्रतीक है। सिंहासन बैठा राजा मुरली नहीं बजाता। मुरली तो प्रेमी कृष्ण बजाते हैं। मुरली बजाकर प्रेमिकाओं को बुलाते हैं। मुरली ग्वारिनों को आकर्षित करता है। नाम संकेत रहता है। राजा की मर्यादा में बँधे कृष्ण ऐसा कैसे कर सकते हैं? विशिष्ट (इलियट) की संस्कृति ग्राम-संस्कृति से बिलकुल भिन्न होती हैं। मोर-पंख मथुरा की राजधानी में भी हैं। किन्तु यहाँ पंखे के रूप में प्रयुक्त है। वृन्दावन में वह मुकुट था। किसी आदिवासी-प्रधान का मुकुट हो। मथुरा का मुकुट सोने का होगा। हीरे मोती जड़ा। जड़ाऊ। राजा को गाय से क्या मतलब। दूध पहुँचाने के लिए असंख्य नौकर-चाकर हैं। किन्तु सबसे महत्वपूर्ण है कृष्ण की मनःस्थिति! कोई सामान्य आदमी राजा हो गया। गाँव की गरीबी से उठकर नगर की घोर सम्पन्नता मिल गयी। अब उसे पुरानी बातों को याद कर लज्जा आती हैं। नागर सभ्यता असाधारणता को महत्व देती है। साधारणता का तिरस्कार करती है। कृष्ण गाँव का तिरस्कार नहीं करते। किन्तु डरते हैं। विशिष्टों के बीच रहते हैं। सावधान हैं। कोई उनकी पूर्वस्थिति को जान जाये। लोगों को मालूम हो कि राजा गोपालक है, तो तिरस्कार करेंगे। इसलिए कृष्ण चित्र की गाय देख कर भी संकुचित होते हैं। कोई जाने न। कहाँ तब और कहाँ अब! गरीब और पिछड़ा शासन में जाकर अपनी पूर्व स्थिति को बुरी तरह से नकारने की कोशिश करता है। अपने को विशिष्ट के अधिक निकट समझने लगता है। अपने को उन्हीं से जोड़ने में गौरव समझता है। अपने पिछड़े भाइयों से कतराता है, परहेज करता है। कृष्ण गोपी, ग्वाल, गाय, मोरपंखा, मुरली, सबसे कतराते हैं।

    किन्तु गोपियाँ कब माननेवाली थीं। कह दिया “सूरदास जो ब्रजहि बिसारयौ दूध दही कत खात।” नगर संस्कृति तो द्वैध भाववाली होती है- “मुख औरे अंतरगति औरे पतिया लिखि पठवत जुबनाइ।”

    गाँव के लोग सीधा सोचते हैं। सरल मन, सरल वचन। जो सोचते हैं, वही कहते हैं, वही करते हैं। उनके पास छिपाने के लिए क्या है? सब खुला है। वातावरण खुला है। आचऱण और व्यवहार खुला है। सब प्राकृत है। नागर सभ्यता के भीतर-बाहर में अन्तर हैं। प्रदर्शन मुख्य है। हर चीज के पीछे विशिष्टता की ट्रेनिंग हैं। बोलना कम, छिपाना अधिक। दिखाना अधिक, होना कम। चमक और प्रदर्शन मुख्य ठोसत्व अल्प। सब कुछ दीवारों और पर्दों में बन्द है। प्रत्येक बात सोद्देश्य है। प्रेम भी उन्मुक्त नहीं। बात करेंगे प्रेम की, काम करेंगे विरोधी। गोपियों ने कृष्ण की इस स्थिति को पहचाना। कृष्ण द्वारा गोकुल आने की बात धोखा है। वे अब गोकुल नहीं आयेंगे। वे अपने पत्रों में प्राकृत मनःस्थिति नहीं व्यक्त करते। बनावटी चिट्ठी लिखते हैं, जिसमें प्रेम की ताजगी नहीं है। दरबारी औपचारिकता और कलाबाजी हैं। कृष्ण के प्रतिनिधि उद्धव वृद्धि से समझाते हैं। गोपियाँ भावना से काम लेती है।

    गोकुल में गोपियों और कृष्ण का प्रेम गहरा था। गोपियाँ उद्धव से पूछती हैं- क्यों उद्धव, अपनी पुर-स्त्रियों के बीच कृष्ण कभी हमारी भी याद करते हैं? कृष्ण ने शत्रु को मार दिया। उसका राज्य लिया। राजकन्याओं से विवाह कर लिया और अपने सुहृदों को भी पा लिया। इसलिए कृष्म हम जंगली स्त्रियों को भूल गये? राजा होने से कृष्ण में नया भेद बढ़ गया (कहा जौ राजा जाइ भयौ। हमकौं कहत और की औरै, पायौ भेव नयौ।) नंददास की गोपी की दृष्टि में कृष्ण राज्य पाकर इतरा गये हैं- “काहू कहै अहो स्याम! कह इतराइ गये हो। मथुरा को अधिकार पाइ महराज भये हो।” महराज कहने में ध्वनि है कि गोपालक कृष्ण राजा से बढ़कर महराजा हो गए हैं। छोटे आदमी को बड़ा पद मिल गया है।

    गोपियों को लगता है कि राजा कृष्ण अब ग्वालों के गाँव में आने में लज्जा का अनुभव करते हैं-

    हम अहीर अबला ब्रजवासी, वै जदुपति जदुराई।

    कहा भयो जु भए जदुनंदन अब वह पदवी पाई।

    सकुचन आवत घोष बसत की तजि ब्रज गये पराई।

    यही नहीं, अब कृष्ण गाँव में बसेंगे ही नहीं- शहर का व्यक्ति गाँव नहीं बसना चाहता। कृष्ण शहरी की नयी पहचान पा गये हैं। अब देहाती रूप में अपने को नहीं पहचनवाना चाहते-

    अब हरि क्यौं बसे गोकुल गवई।

    बसत नगर नागर लोगनि मैं, नइ पहिचानि भई।।

    राजनीति के कारण कृष्ण गोपियों को भूल रहे है- “राजनीति की रीति सुनौं हो, चरत वारिचर खेत।”

    गोपियों का निवेदन उस स्त्री की विरह-व्यंजना है जिसका पति उसे छोड़ परदेश चला गया है। वे पथिक से संदेशा देती कहती हैं-

    ऊधौ पा लागति हौं कहियौ, स्यामहिं इतनी बात।

    इतनी दूर बसत क्यों बिसरे, अपने जननी तात।।

    रत्नाकर ने भी अपने उद्धव शतक में उद्धव को ज्ञान का प्रतिनिधि माना है। किन्तु वृन्दावन और गोपियों के प्रभाव के सामने वह गौण हो गया है। उद्धव ज्यों ही वृन्दावन के कछार में आये, उनकी ज्ञान गठरी सरक गयी।

    गाँव का प्रभाव है। ज्ञानी उद्धव प्रकृति की शोभा और सरलता में ज्ञान भूल गए। भावना में वह गए। भक्ति में स्नात हो गए।

    कृष्ण-काव्य में ग्राम्य जीवन की उद्दामता, खुलापन और चंचलता है। भ्रमर-गीत में नगर जीवन के विरुद्ध भावावेश हैं। भ्रमर गीतों में गाँव का पलड़ा भारी हैं, क्योंकि गोपियाँ बीस है। सत्यनारायण कविरत्न की यशोदा की दृष्टि साफ हैं। कृष्ण परदेश गये हैं, गाँव छोड़कर राजधानी गये है, पुरुषार्थ दिखाने। अब कृष्ण को लौटना चाहिये। गाँव के सभी जीव उनका इंतजार कर रहे हैं। कालिदास की शंकुलता वन से राजभावन जा रही थी। मृगछौने उदास थे। जिस पेड़ों, लताओं को कुंभ कलश से सींचा था, उन्हें प्यार करती है। वे उदास थे। ग्राम्य और वन-जीवन का अनोखापन है सहज प्रेम। सहजानंद। कोई औपचारिकता नहीं। कविरत्न के यहाँ कृष्ण के बिना पलास उदास हैं, अशोक को शोक हो गया है। बौरे रसाल दुखी हैं। सभी जड़ दुखित होकर मलिन हो गये हैं। माता यशोदा की परेशानी है- यहाँ वृन्दावन में मिसरी मिला नया उत्तम किस्म का मख्न है। भला शहर में ऐसी ताजी चीज कहाँ मिलेगी। सुबह-सुबह उन्हें लगता है कि शहर में कृष्ण भूखे रह जाते होंगे- “भूखो रहत होइ कहूँ मेरो माखन चोर।”

    सचमुच सारा शहर भूखा है। प्रेम का भूखा। स्वादु का भूखा। तृप्ति और ताजगी का भूखा। यहाँ मक्खन बहुत हैं। किन्तु मिलावटी और बासी।

    किन्तु यह भी सच है कि कृष्ण अब गाँव नहीं लौटेंगे। अब वे राजधानी पर राजधानी बसायेंगे। मथुरा तक गाँव के इस वीर को कभी हार नहीं खानी पड़ी थी। उन्होंने जाने कितनों का दमन किया। गोपियों की, माता यशोदा की भावनाएँ उनके साथ थीं-

    जहँ जहँ जाहु राज तुम करह लेहु कोटि सिर भार।

    यह असीस हम देति सूर सुनु न्हात खसै जनि वार।

    यह आशीर्वाद कितना उदात्त है। प्रेम में स्वार्थ नहीं परमार्थ हैं। गाँव का आधार स्वार्थ नहीं, सहयोग है। राजधानी में प्रत्येक व्यक्ति स्वार्थ का साथी है। दरबार दरकारवालों का है। दरकार के बिना सरकार को कौन पूछता है?

    मथुरा के कृष्ण गोपियों को याद कर अपने को ताजा करते थे। उनमें नयी आशा का संचार होता था। गाँव का वही पहलवान नगर की रमणियों में फेंसकर कमजोर हो गया। द्वारिका के मार्ग में उसे पराजय भोगनी पड़ी। शहर का स्वास्थ्य नकली है, बनावटी। कृष्ण की उन्मुक्त शक्ति खत्म हुई। कूट शक्ति बढ़ती गयी।

    शहर और राजधानी में आदमी बदल जाता है। कृष्ण काले हो गये। तो क्या वृन्दावन के कृष्ण गोरे थे? नहीं। अब उनका हृदय काला हो गया है। अक्रूर भी काले थे। उद्धव भी काले हैं। भ्रमर भी काला है। “वह मथुरा काजर की ओबरी, जे आवैं ते कारे।”

    काजलता मथुरा की है। यहाँ यशोदानन्दन जैसा सयाना भी काला हो गया। आज भी गोपियों को आशा है कभी हमारे कान्ह काजल-कोठरी (मथुरा) से मुक्त होंगे। वे इन्तजार कर रही हैं। कब लौटेंगे कृष्ण अपने गाँव की ओर? राजा बदलते हैं। राजधानियाँ बदलती है। किन्तु गाँव आज भी गाँव है। कंस गाँव के नेता को मार देना चाहता है। हलधर का भैया उसका दुश्मन है।

    बालक कृष्ण गाँव हैं। राजा कृष्ण नगर, राजधानी। कृष्ण कंस को मारकर कंस नहीं बने, किन्तु राजा बन गये। अक्रूर ने गाँव को धोखा दिया था। उद्धव गाँव को ठगने आये थे- “सूर मूर अक्रूर लै गयो ब्याज निवेरत ऊधो।”

    राजा गाँव से ब्याज लेता है, टैक्स वसूलता है, किन्तु गाँव को भूल जाता है। गाँव का नेता नगर में खो जाता है। गाँव के प्रति मोह रखकर भी शहरी हो जाता है। मथुरा के कृष्ण शहरी और राजकीय हो गये। भक्तिकाल के बाद रीतिकाल काव्य मथुरा का काव्य है, राजधानी की जड़ता का काव्य है, अलंकरण और सजावट का काव्य है। कृष्ण का गाँव आज भी प्रतीक्षा कर रहा है। कृष्ण ने कंस को मारने की तैयारी गाँव में की थी। किन्तु कृष्ण पिछड़ापन दूर करने पुनः गाँव नहीं गए। गोपियाँ रोती रहीं। राधा विरह में जलती रही। नंद-यशोदा की आँखें भीगती रहीं।

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY
    बोलिए