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सूर की कविता का आकर्षण, डॉक्टर प्रभाकर माचवे

सूरदास : विविध संदर्भों में

सूर की कविता का आकर्षण, डॉक्टर प्रभाकर माचवे

सूरदास : विविध संदर्भों में

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    सूरदास के समय में और आज के समय में पाँच सौ वर्षों का व्यवधान है। उनकी देश-काल-परिस्थिति में और आज उनकी कविता पढ़ने-सुनने वाले भारतीय या भारतेतर देशवासी व्यक्तियों की देश-काल-परिस्थिति में कितना अन्तर है! फिर भी वह क्या बात है जो उनके पदों का आकर्षण अक्षुण्ण बनाये हुए है?

    व्यक्तिगत बात करूँ, तो आठवीं में, दरबार हाई स्कूल, रतलाम में, मैं पढ़ता था। उसे आज अड़तालीस साल से ऊपर हो गये। तब पंडित लेखराजजी से पद पढ़े और ब्रज-भाषा के प्रति आकर्षण पैदा हुआ। बाद में नाद-माधुर्य से विद्यापति, फिर भाषा-प्रेम से चण्डीदास और थोड़ी समझ आने पर जयदेव पढ़ा। वैष्णव भक्ति-साहित्य अनेक भाषाओं में पढ़ा। भागवत के आधार पर कृष्ण की लीलाएँ- वही यशोदा का वात्सल्य और राधा का कान्ताभाव- कितने-कितने रूपों में, चित्रों में, गीतों, आख्यानों में, नृत्यों में, नाटकों में बराबर सुनता, पढ़ता, गुनता रहा, पर “जनम अवधि हम रूप निहारिनु, नयन तिरपित भेल” वाला हाल है। फिर भी “आँखें नहीं भरी”।

    भक्ति-कविता के इस आकर्षण के मूल में क्या है? अष्टछाप के कवि विभिन्न जातियों और वर्गो के थे। परमानन्ददास कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे तो कृष्णदास शूद्र, कुम्भनदास किसान थे और प्रधान कीर्तनकार होते हुए भी वे बराबर खेती करके अपने परिवार का भरण-पोषण करते थे। “सूरसाद की जाति क्या थी, यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता”, ऐसा सूर- विशेषज्ञ डॉ. ब्रजेश्वर वर्मा कहते हैं। कुछ लोग उन्हें सारस्वत ब्राह्मण और कुछ ब्रह्मभट्ट सिद्ध करने का यत्न करते थे, पर वे अपनी जाति के विषय में पूर्ण उदासीन थे। चतुर्भुजदास कुम्भनदास के पुत्र थे और उन्हीं का पेशा करते थे। गोविन्ददास सनाढ्य थे, पर उनके जीवन के बारे में बहुत कम उल्लेख मिलता है। “चौरासी वैष्णवन की वार्ता” और “दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता” से इनके जीवन और दैनिक कार्यक्रम के बारे में रोचक जानकारी मिलती है।

    वल्लभाचार्य ने प्रेम-भक्ति का प्रचार किया। उसीके साथ-साथ भगवान के माहात्म्य के ज्ञान और ध्यान की बात कही। तत्वदीप-निबन्ध में उन्होंने कहा-

    माहात्म्यज्ञानपूर्वस्तु सुद्वढ़ः सर्वतोअधिकः।

    स्नेहो भक्तिरितिप्रोक्तस्तया मुक्तिर्नचान्यथा।।

    श्रवण-कीर्तनादि नवधा भक्ति का अन्तिम सोपान है आत्म-निवेदन। वही पुष्टि-मार्ग का पहला कदम है। भगवान के प्रति उत्कट प्रेम दृढ़ होना चाहिये। वियोग से यह प्रम द्विगुणित होता है। श्री कृष्ण-मिलन की आकांक्षा इतनी प्रबल होती है कि संसार की अन्य वस्तुओं से अनासक्ति आप से आप हो जाती है। पुष्टि-मार्ग में इस राग-विनाश की स्थिति कहते हैं। ‘नारद-भक्ति-सूत्र’ में एकादश आसक्तियाँ वर्णित हैं—गुणमाहात्म्यासक्ति, रूपासक्ति, पूजासक्ति, स्मरणसक्ति, दास्यासक्ति, सख्यासंक्ति, कान्तासक्ति, वात्सल्यसक्ति, आत्मनिवेदनासक्ति, तन्मयतासक्ति, परमविरहासक्ति। ये आसक्तियाँ विकासक्रम के अनुसार हैं। आसक्ति के अनुसार विकास की तीसरी स्थिति व्यसन कहलाती है। इसी की ‘निरोध’ या आत्म-विस्मृति भी कहते हैं। प्रेम-भक्ति की यही अन्तिम सर्वश्रेष्ठ परिणति है। इसी को “सा त्वस्मिन् परमप्रेमरूपा अमृतस्वरूपा च” कहा है।

    शाण्डिल्य- भक्तिसूत्र में इसी को ‘परानुरक्तिरीश्वरे’ कहा गया है। प्रेम के अनेक भाव हैं। भक्ति भी अनेक भावों से की जा सकती है। भागवत में कहा गया है—

    कामं क्रोधं भयं स्नेहमैक्यं सौहृदमेव च।

    नित्यं हरौ विदधतो यान्ति तन्मयतां हि ते।।

    सूरदास ने भी भागवत के आधार पर कहा-

    काम क्रोध में नेह सुहृदयता कोई विधि करै कोई।

    धरै ध्यान हरि को जो हठ करि सूर सो हरि सों होई।।

    वल्लाभाचार्य की ‘सुबोधिनी’ टीका में कहा गया कि काम स्त्री-भाव में, क्रोध शत्रु-भाव में, भय वधिक-भाव में, स्नेह सम्बन्धियों के भाव में, ऐक्य ज्ञान-अवस्था में और सौहार्द्र् सख्य-बाव में होता है। किसी भी भाव से भजन करने से वह भाव भगवन्मय हो जाता है।

    यह सब दार्शनिक पीठिका इसलिए आवश्यक है कि सूरदास के पदों में वात्सल्य (यशोदा, बाल-लीला) और सख्य तथा कान्ताभाव (राधा, गोपी, रास, निकुंजलीला) बहुत अधिक है। कविता का भी सम्बन्ध इसी प्रकार की आसक्ति से है। पहले सालोक्य, फिर सामीप्य, फिर सारूप्य और अन्त में सायुज्म भक्त की सीढ़ियाँ है। प्रेमी भी पहले देखता है- यानी दृक्प्रत्यय इसकी पहली अवस्था है। रूपासक्ति अन्धे सूरदास का बहुत बड़ा मनोवैज्ञानिक विषय है। डॉ. सत्येंद्र ने ‘सूरदास के नेत्रवर्णन’ लेख में निम्न पद उद्धृत किये हैं-

    मन कैं भेद नैन गए माई।

    मन तैं ये अति ढीठ भए।

    नैन भए हरि ही के।

    नैना ऐसे हैं बिसवासी।

    नैना भए प्रगट ही चेरे।

    मेरे नैना ये अति ढीठ।

    हौं तौ ता दिन कजरा देहौं।

    अँखियाँ हरि दरसन की भूखीं।

    अँखियाँ हरि दरसन की भूखीं।

    नैननि उहै रूप जौ देखौं।

    वे लिखते हैं, “गोपी और उसके नयनों के आचार का यही मर्म है। जिस संघर्ष ने आचार की सुन्दरता प्रकट की है, वह नयनों के सौंदर्य को निखारता है। कृष्ण का पूर्वरूप सूरदास ने अवश्य रखा है, किन्तु नयों का, उन नयनों का चित्र नहीं, चरित्रांकन किया गया है। कुछ भी परिचय नहीं, फिर भी वे खंजन, मीन, कमल, मृग के-से हैं, अथवा कैसे हैं, यह कुछ विदित नहीं। होंगे ऐसे ही! किन्तु उनका अंतरंग सौंदर्य हमारे सामने अपने अपरिवर्तनीय ढंग से उपस्थित है। तृष्णा, अतृप्ति, दाहक हूक, चिरंतन गति और अबाध पीड़ा में जो सौंदर्य है, वह इन नयनों में है। जिसे नयनों का-सा हृदय मिल जाये, वह क्या हो जाये!” (सूर साहित्य सन्दर्भ, पृष्ठ 462-463)

    प्रेम की पहली शर्त है दर्शन और उससे उत्पन्न आकर्षण। इन्द्रिय-संवेद्य सालोक्य में से सामीप्य की, सख्य की भावना जागती है। ‘भ्रमर-गीत’ उस भावना की उत्कटता का सर्वोतम प्रतीक है। दर्शन से स्पर्शन की ओर, सालोक्य से सामीप्य की ओर यह विकास प्रेम की दूसरी स्थिति है।

    कृष्ण की लीला-सहचरी अनन्य प्रियतमा राधा चैतन्य के गौड़ीय सम्प्रदाय में प्रचलित कान्तारति और गोपीभाव की महत्ता से, समकालीन राधावल्लभी और हरिदासी वैष्णव सम्प्रदायों से वल्लभाचार्य के बाद पुष्टिमार्ग में आयी। वल्लभाचार्य ने राधा को मान्यता नहीं दी थी। पर उनके दूसरे पुत्र विट्ठलनाथ ने श्रीनाथजी की सेवा के मण्डान में राधा को ब्रह्मोत्सवों के रूप में सम्मिलित किया। श्री कृष्ण के जन्मोत्सव की तरह राधा का जन्मोत्सव भी मनाया जाने लगा। कौन थी यह राधा? वेद में तो राधा धन, अन्न और नक्षत्र का नाम है। पुराणों में कहीं राधा नहीं। भागवतपुराण में कृष्ण को खोजते-खोजते, कृष्ण के चरण चिन्हों के साथ-साथ एक युवती के पदचिन्ह देखती हैं-

    अनयाअअराधितो नूनं भगवान् हरिरीश्वरः।

    यन्नो विहाय गोविन्दः प्रीतो यामनयद् रहः।।

    ‘आराघित’ शब्द से ही विद्वानों ने राधा की व्युत्पत्ति बताई है। प्रेम और भक्ति में केवल आकर्षण ही काफी नहीं होता। उसमें आराधना भी आवश्यक है। तभी आकर्षण दर्शन स्पर्शन से परे रस-वर्षण तक पहुँचता है।

    राधा का स्पष्ट उल्लेख ब्रह्मवैवर्तपुराण में है। श्री कृष्ण ने राधा को अर्धांश और मूल प्रकृति कहा है। राधा को कृष्ण की पूरक शक्ति कहा है। सूरदास के पदों में-

    राधा तू अति हीं है भोरी।

    झूठहिं लोग उड़ावत घर-घर हम जान्यौ अब तौ री।।

    आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कहा है- “सूर का संयोग-वर्णन एक क्षणिक घटना नहीं है, प्रेम-संगीतमय जीवन की एक गहरी चलती धारा है, जिसमें अवगाहन करने वाले को दिव्य माधुर्य के अतिरिक्त और कहीं कुछ नहीं दिखलाई पड़ता।”

    कृष्ण का रथ चल पड़ता है- राधा के पाँव आगे नहीं पड़ना चाहते। नेत्र पीछे ही देखते रहते हैं। अब ब्रज लौटकर क्या होगा? मन तो रथ के साथ चला गया। राधा की बेबसी है- वह पवन तो नहीं बन सकीं, धूल भी नहीं बन सकी जो रथ के साथ जाती-

    पवन भई पताका अंबर, भईं रथ के अंग।

    धूरि भईं चरन लपटातीं, जातीं उहँ लौं संग।।

    कृष्ण के विरह में रात-रात भर जागती, कृष्ण का चित्र बनाती वृषभानु-कुमारी मलीन हो गई है। संयोग-काल के श्रम-जल से भीगी साड़ी को धुलवाती भी नहीं, और

    अध मुख रहति अनत नर्हि चितवति, ज्यौं गथ हारे थकित जुवारी।

    छूटे चिकुर बदन कुम्हिलाने, ज्यौं नलिनी हिमकर की मारी।।

    सूरदास का यह श्रृंगार-वर्णन अद्भुत है। यशोदा ने राधा से कहा- बार-बार तू यहाँ मत आ। उत्तर में वह क्या कहती है-

    मैं कह करौं, सुतहिं नहिं बरजति, घर मैं मोहिं बुलावै।।

    मोसौं कहत तोर्हि बिनु देखैं, रहत मेरौ प्रान।

    छोह लगति मोकौं सुनि बानी, महरि तुम्हारी आन।।

    सूर के राधा विषयक पद “सुनहु सखी राधा सरि को है,” और अन्य पद इस बात के साक्ष्य है कि सूर ने इंद्रियपरक श्रृंगार और प्रेम का उन्नयन करके उन्हें इन्द्रियातीत बना दिया। यही सूरदास की कविता के चिरन्तन आकर्षण का रहस्य है।

    मनुष्य सदा शरीर में रहकर शरीर से परे होना चाहता है। रवीन्द्रनाथ ने लिखा-

    मोह मोर मुक्तिरूपे उठिवे ज्वलिया,

    प्रेम मोर भक्तिरूपे उठिवे फलिया।

    यही “प्रेम और भगति को जनम जनमरो नातो” मीराबाई में तालावेली पैदा करता था। यही गोपियाँ द्वारा यमुना और मुरली से ईर्ष्या करवाता था। इसी पर मुग्ध नामदेव ने छह सौ वर्ष पहले लिखा- “जमुना काली, गगरी काली, गले में की मणिमाला भी काली। रात भी काली, कृष्ण भी काला, पानी भरन जानेवाली भी काली है माई।‘’

    इसी ‘कृष्णिमा’ (सेंघोर के ‘नेग्रिटे’ का सुनीति बाबू द्वारा अनुवाद) ने श्यामा नयनाभिरामा को विद्यापति से “साँवरि तोरा लागी विकल मुरारि” कहलवाया। यही सूर की कृष्ण, रवीन्द्रनाथ की ‘श्यामला’ बनी। यही सुमित्रानन्दन पन्त की रंगिणी कहलाई। एक परम्परा है, जो आकर्षण को बराबर बनाये रखती है।

    स्याम सुख-रासि, रस-रासि भारी।

    रूप की रासि, गुन-रासि, जीवन-रासि, थकित भई निरखि नव तरुन नारी।

    सील की रासि, जस-रासि, आनँद-रासि, नील-नव-जलद-छबि बरन-कारी।

    ‘राधा निरखि भूली अंग’, ‘राधे, तेरौ बदन विराजत नीकौ’, ‘राधा हरि कै गर्व गहीली’, ‘चितैबो छाँड़ि दै री राधा’, ‘दुहि दीन्ही राधा की गाइ’- कितने पद गिनायें! सूरदास के सौंदर्य-वर्णन की यह विशेषता उनकी कविता के आकर्षण का आधार है।

    दर्शन, स्पर्शन, रस-वर्णन, सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य जैसे प्रेम में, वैसे भक्ति में, वैसे ही काव्यास्वाद में। इन तीनों अवस्थाओं में सूरदास का कोई जोड़ नहीं! ‘किधौं सूर की सर लग्यौ’ ‘किधौं सूर कौ पद लग्यौ’ बन गया।

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