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अयोध्या की राबिया-ए-ज़मन – हज़रत सय्यदा बड़ी बुआ

सय्यद रिज़्वानुल्लाह वाहिदी

अयोध्या की राबिया-ए-ज़मन – हज़रत सय्यदा बड़ी बुआ

सय्यद रिज़्वानुल्लाह वाहिदी

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    हिन्दुस्तान यूँ तो हमेशा सूफ़ियों और दरवेशों का अ’ज़ीम मरकज़ रहा है।इन हज़रात-ए-बा-सफ़ा ने यहाँ रहने वालों को हमेशा अपने फ़ुयूज़-ओ-बरकात से नवाज़ा है और ता-क़यामत नवाज़ते रहेंगें।

    इन्हीं बा-सफ़ा सूफ़ियों में हज़रत बीबी क़ताना उ’र्फ़ बड़ी बुआ साहिबा रहमतुल्लाहि अ’लैहा का नाम सर-ए-फ़िहरिस्त आता है।

    आप अपने वक़्त की मशहूर आ’बिदा, ज़ाहिदा ख़ातून थीं।आपको अल्लाह तआ’ला ने अपने फ़ज़्ल-ए-बे-कराँ से ख़ूब नवाज़ा था और रूहानियत का अ’ज़ीम मर्तबा अ’ता फ़रमाया था। उस वक़्त के बड़े-बड़े उ’लमा-ओ-सुलहा आपकी अज़्मत-ओ-बुज़ुर्गी का एहतिराम करते थे। आप अपने ज़ाहिरी-ओ-बातिनी कमालात, रियाज़त,फ़ैज़-रसानी और जूद-ओ-सख़ा में दूर-दूर तक मशहूर थीं।आप दुनिया-ए-तारीख़-ए-तसव्वुफ़ की उन ख़ास ख़्वातीन औलिया में शामिल हैं, जिन्हें मक़ाम-ए-राबिया अ’ता हुआ है। या’नी कि आप अपने वक़्त की राबिया हैं।

    तआ’रुफ़ः–

    आपका नाम हज़रत सय्यदा बीबी क़ताना उ’र्फ़ बड़ी बुआ’ साहिबा है। आपके वालिद का नाम अल मुई’द सय्यद यहया यूसूफ़ अल-गीलानी है। आपके भाई का नाम हज़रत ख़्वाजा सय्यद नसीरुद्दीन महमूद रौशन चराग़ देहलवी है।

    आपके जद्द-ए-मोहतरम का हिन्दुस्तान वारिद होनाः-

    सातवीं सदी हिजरी में आपके दादा हज़रत अबू नस्र शैख़ सय्यद अ’ब्दुल लतीफ़ रशीदुद्दीन अल-गीलानी यज़्दी रहमतुल्लाह अ’लैह यज़्द से निशापुर, लाहौर, देहली होते हुए अयोध्या तशरीफ़ लाए। हिन्दुस्तान में दाख़िल होने के बा’द उन्हों ने पहले लाहैर में क़ियाम किया।वहाँ उनके एक बेटे हज़रत सय्यद यहया यूसुफ़ अल-गीलानी का तवल्लुद हुआ।

    कुछ वक़्त लाहौर में गुज़ारने के बा’द आपने अयोध्या का रुख़ किया।

    आप सहीहुन-नसब सादात थे और इ’ल्म-ओ-फ़ज़्ल में यगाना थे। इसलिए ख़ानवादे को अयोध्या में बड़ी इ’ज़्ज़त-ओ-अज़्मत-ओ-हर दिल-अ’ज़ीज़ हासिल हो गई।

    आपके दादा हज़रत अ’ब्दुल लतीफ़ रशीदुद्दीन अल-गीलानी का मज़ार गोरिस्तान बड़ी बुआ अयोध्या में वाक़े’ है।

    नसबः-

    हज़रत बीबी क़ताना उ’र्फ़ बड़ी बुआ बिन्त हज़रत सय्यद यहया यूसुफ़ अल-गीलानी बिन सय्यद अ’ब्दुल लतीफ़ रशीदुद्दीन अल-गीलानी बिन अबुल-आ’ला शैख़ सय्यद अ’ब्दुल्लाह (अमीनुद्दीन) अल-गीलानी बिन अबू मोहम्मद शैख़ सय्यद अब्दुर्रहीम (हसन मोहम्मद) अल गीलानी बिन अबू मंसूर शैख़ सय्यद अ’ब्दुस्सलाम अल-गीलानी बिन हज़रत शैख़ सय्यद सैफ़ुद्दीन अ’ब्दुल वहाब अल- गिलानी बिन हुज़ूर ग़ौस-ए-आ’ज़म रज़ियल्लाहु अ’न्हु।

    हज़रत का आबाई सिलसिला-ए-तरीक़त क़ादरिया था,जो आपके अज्दाद का सिलसिला है,जो नस्लन बा’-द नस्लिन मुंतक़िल होता हुआ आप तक आया।

    हज़रत सय्यद यहया यूसुफ़ अल-गीलानी-

    आपकी विलादत शहर-ए-लाहौर में हुई थी।लाहौर से मुंतक़िल होकर आप अपने वालिद के हमराह अयोध्या तशरीफ़ लाए थे।

    आपकी दो औलादें तव्वलुद हुईं-

    (1) हज़रत बड़ी बुआ साहिबा

    (2) हज़रत ख़्वाजा नसीरुद्दीन चराग़ देहलवी

    आप अपने वालिद और भाई के हमराह पश्मीना की तिजारत करते थे, जिसमें आपको बहुत फ़रोग़ हासिल हुआ और आपकी हवेली में बहुत से ग़ुलाम भी थे।

    आपका विसाल ग़ालिबन 1285/86 ई’स्वी में हुआ।उस वक़्त आपके साहिबज़ादे ख़्वाजा नसीरुद्दीन महमूद की उ’म्र 9 बरस की थी।

    साहिब-ए-तज़्किरा-ए-मशाएख़-ए-बालापुर फ़रमाते हैं:

    हज़रत बड़ी बी साहिबा का अ’क़्द हज़रत यहया महमूद के फ़रज़ंद हज़रत अबुल फ़ज़्ल अ’ब्दुर्रहमान अल-गीलानी से हुआ। जिन से हज़रत ख़्वाजा कमालुद्दीन अ’ल्लामा चिश्ती और ख़्वाजा ज़ैनुद्दीन अ’ली तवल्लुद हुए।

    अभी ये हज़रत कमसिन ही थे कि हज़रत अ’ब्दुर्रहमान का इन्तिक़ल हो गया। ख़ैरुल-मजालिस में है कि अपने भांजों की परवरिश हज़रत नसीरुद्दीन चराग़ देहलवी ने की थी।साहिब-ए-सियरुल-आ’रिफ़ीन फ़रमाते हैं कि हज़रत नसीरुद्दीन महमूद की एक ही बहन थी जो उनसे बड़ी थी और ज़ैनुद्दीन अ’ली और कमालुद्दीन अ’ल्लामा उन्हीं के फ़रज़ंद हैं।

    कुछ किताबों में हज़रत की एक छोटी बहन का भी तज़्किरा मिलता है जिन्हें बीबी लहरी के नाम से जाना जाता था। उनका इंतिक़ाल कम-सिनी ही में हो गया था।

    हज़रत चराग़ देहली का अवध आनाः-

    हज़रत ख़्वाजा नसीरुद्दीन चराग़ देहली अपने पीर-ओ-मुर्शिद हज़रत ख़्वाजा महबूब-ए-इलाही से इजाज़त लेकर अक्सर दिल्ली से अवध अपनी हमशीरा से मिलने आया करते थे।

    शहर-ए-कोतवाल का वाक़िआ’-

    जब हज़रत बड़ी बी. साहिबा की बुज़ुर्गियत का डंका बज रहा था, तो आपकी शोहरत से बहुत से लोग ख़ास तौर से कुछ उ’लेमा आप से हसद-ओ-बुग़्ज़ करने लगे। ये लोग अक्सर आपको और आपके ख़ानवादे को अज़िय्यत देने की चाल चला करते थे।

    इसी दौरान अयेध्या शहर में एक कोतवाल आया।उसने हज़रत की शोहरत सुन कर आपसे निकाह की इजाज़त माँगी।आपने मन्अ’ कर दिया। उसने फ़िर कोशिश की।आपने अपनी ख़ादिमा को भेजकर फ़रमाया कि उससे पूछो कि उसे ऐसी कौन सी कशिश नज़र आई जिस पर वो इतना बज़िद है।उसने जवाब कहलवाया कि उसने सुना है कि आपकी आँखें बहुत ख़ूबसूरत हैं।

    इतना सुनना था कि हज़रत ने अपनी दोनों आँखें एक पत्ते पर निकाल कर रख दी और ख़ादिमा के हाथ इस पैग़ाम के साथ भिजवा दिया कि “तुझे जो पसंद है वो हाज़िर है, मगर याद रखना कि अब अवध (मौजूदा अयोध्या) में कोई आ’लिम होगा कोई ज़ालिम”।

    बद-दु’आ का असरः- इस वाक़िए’ से पहले अयोध्या की हर गली में उ’लमा और सूफ़िया का हुजूम होता था, मगर इसके बा’द हालात बदलते गए।हज़रत की बद-दुआ’ का असर ये हुआ कि पूरा का पूरा शहर वीरान हो गया।

    यतीम-ख़ाना:

    दरगाह बड़ी बुआ से मुत्तसिल एक बहुत वसीअ’ इ’मारत है जिसे यतीम-ख़ाना के नाम से जाना जाता है। इस में मस्जिद और मदरसा भी है।

    बंदरों का सफ़ायाः–

    मुस्लिम यतीम-ख़ाना के क़ाएम होने के कुछ अ’र्से बा’द तक यतीम-ख़ाने के आस पास बंदरों का आना जाना लगा रहता था।इन बंदरों ने यतीम-ख़ाने में रहने वाले लोगों और पढ़ने वाले बच्चों को बहुत तंग कर दिया था।वो कभी किताबें तो कभी उनके सामान लेकर भाग जाते थे और नुक़सान पहुँचाते थे। बच्चों और मुंतजीमीन इस से बेहद परेशान थे। इन लोगों ने हुज़ूर बड़ी बी साहिबा की दरगाह पर हाज़िरी देकर इस परेशानी से निकलने के लिए इल्तिजाएं की। दरगाह पर हाज़िरी के चौबीस घंटे के अंदर अंदर बंदरों ने इस पूरे इ’लाक़े को ख़ाली कर दिया। उस दिन से आज तक कोई बंदर इस इ’लाक़े में नहीं आता और अगर भी गया तो शाम होने से पहले ये इ’लाक़ा छोड़ देता है।

    चाह-ए-सेहतः–

    1940 तक एक कुआँ मुस्लिम यतीम-ख़ाना की इमारत के शिमाली जानिब कोने पर मौजूद था जो अ’वाम-ओ-ख़्वास में चाह-ए-सेहत के नाम से मशहूर था।लोगों का अ’क़ीदा था कि हज़रत बड़ी बुआ रहमतुल्लाहि अ’लैहा की बरकत से इस कुएँ के पानी में शिफ़ाई’ तासीर है।लोग अक्सर ला-इ’लाज अमराज़ के मरीज़ों और आसेब-ज़दा लोगों को इस कुँए का पानी पिलाने के लिए ले जाते थे और उनको शिफ़ा हासिल होती थी।

    बा’द ज़माने में जाने किन लोगों के मशवरे पर इस कुँए को पटवा दिया गया और इसके फ़ुयूज़-ओ-बरकात से लोगों के महरूम कर दिया गया।

    इस कुँए की पुख़्ता ईंटों की गोलाई का निशान चंद सालों तक मौजूद था जो अपनी अ’ज़्मत-ए-रफ़्ता का इज़्हार कर रहा था।

    एक संत की अ’क़ीदतः-

    गोकुल भवन, अयोध्या के महंत श्री मंगल दास जी हज़रत बड़ी बी साहिबा के बड़े भक्त थे और अक्सर दरगाह शरीफ़ पर हाज़िरी देते थे।

    1977 में श्री मंगल दास जी ने दरगाह की चहारदिवारी के प्लास्टर और फ़र्श की नए सिरे से मरम्मत कराई।

    दरागाह शरीफ़ की मरम्मत

    साहिब-ए-असरार-ए-हक़ीक़त फ़रमाते हैं कि सन 1858 ई’स्वी के आस पास जनाब वाजिद अ’ली ख़ान साहिब नाज़िम-ए-सुल्तानपुर ने अपने मुर्शिद हज़रत हाफ़िज़ मुहर्रम अ’ली साहिब ख़ैराबादी की हिदायत और ताकीद के मुताबिक़ दरगाह की मरम्मत कराई थी। इसके बा’द फ़ैज़बाद के एक सौदागर शैख़ रमज़ान अ’ली ने भी मरम्मत कराई थी।

    सन 1977 में गोकुल भवन अयोध्या के महंत श्री मंगल दास जी ने दरगाह की चहार दिवारी का प्लास्टर और फ़र्श की नए सिरे से मरम्मत कराई।

    चंद साल पहले हज्जन गुलशन ख़्वाजा-सरा ने दरगाह शरीफ़ के सामने एक बर-आमदे की छत ढ़ाल दी है और इसे लोहे की जाली से पैक करा दिया है।

    हज़रत बड़ी बुआ का सालाना उ’र्सः-

    15 सफ़र को दरगाह शरीफ़ के ख़ादिमान और इ’लाक़े के लोगों की तरफ़ से उ’र्स का इं’इक़ाद होता है।

    16 सफ़र को हर साल दरगाह हज़रत अ’ब्दुर्रहमान शहीद फ़तह गंज की जानिब से बड़ी शान-ओ-शोक़त से सालाना नज़्र-ओ-नियाज़ का एहतिमाम किया जाता है।

    मौलाना अनवार नई’मी जलालपुरी (प्रिंसपल दारुल उ’लूम बहार शाह, फ़ैज़ाबाद) और उनके अहबाब हर साल ई’दुल-अज़हा के बा’द आने वाली जुमे’रात को ह़ज़रत बड़ी बुआ का सालाना उ’र्स करते हैं।

    दरगाह बड़ी बी साहिबा, अयोध्या की रौशन तारीख़ का जीता जागता सुबूत और अयोध्या के सर्व-धर्म सद्भाव का शानदार नमूना है।आपके दर पर हर धर्म, वर्ग, पंथ के लोग आते हैं और फ़ुयूज़-ओ-बरकात से नवाज़े जाते हैं।

    किताबियातः-

    1. ख़ैरुल-मजालिस

    2. असरार-ए-हक़ीक़त

    3. ख़ानदान-ए-बड़ी बुआ- मौलाना अनवार (नई’मी)

    4. सियरुल-आ’रिफ़ीन

    5. तज़्किरा-ए-मशाएख़-ए-बालापुर

    6. ख़ानदानी बयाज़ सय्यद रिज़वानुल्लाह वाहिदी, सिकंदरपुर, बलिया (यू.पी)

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