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Sufinama

पुस्तक: परिचय

سلطان محمد تغلق نے جس وقت دار السلطنت دہلی کو اجاڑ کر دیوگری کو اپنا دار الحکومت قرار دیا اس وقت اس نے ایک حکم نامہ جاری کیا کہ دہلی ے تمام انسان و جانور کو دہلی چھوڑ کر دیوگری لیکر جایا جائے اس وقت دہلی کی سرزمین پر متعدد صوفیہ کرام سرگرم عبادت تھے جن میں معروف نام مولانا کمال الدین سامانہ سید زین العبدین داؤد ، یوسف حسینی ، امیس حسن سجزی ، خواجہ برہان الدین غریب انہیں لوگوں میں ایک نوجوان تھا جس کو خواجہ رکن الدین کے نام جانا گیا۔ تعلیم مکمل کرنے کے بعد وہ خواجہ برہان الدین غریب کے حلقہ ارادت میں آگئے اور ان کو دیکھتے ہوئے ان کے شناساؤں کی ایک بڑی تعداد بھی ان کے ساتھ بیعت ہو گئی۔ انہوں نے مختلف کتب تحریر کیں جن میں سے ایک شمائل اتقیا بھی ہے۔ اس کتاب میں صوفیہ کے شمائل کا ذکر کیا گیا ہے۔

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लेखक: परिचय

ख़्वाजा रुकनुद्दीन इ’श्क़ सिलसिला-ए-अबुल-उ’लाइया से मुनासिबत रखते थे। सिलसिला-ए-अबुल-उ’लाइया दर अस्ल सिलसिला-ए-नक़्शबंदिया के उसूल और ता’लीम का मुख़्तसर निसाब है और इस सिलसिला में इ’श्क़-ओ-तौहीद की ता’लीम लाज़िमी है। ख़्वाजा रुकनुद्दीन का नाम मिर्ज़ा लक़ब, उ’र्फ़ गसीटा और तख़ल्लुस इ’श्क़ था। ख़्वाजा रुकनुद्दीन इ’श्क़ के नाना ख़्वाजा शाह मुहम्मद फ़रहाद देहलवी हज़रत सय्यदना अमीर अबुल-उ’ला के मुरीद-ओ-ख़लीफ़ा हज़रत सय्यद दोस्त मुहम्मद बुर्हानपुरी के मुरीद-ओ-ख़लीफ़ा थे।आपकी विलादत देहली में 1127 हिज्री मुवाफ़िक़ 1715 ई’स्वी में हुई।वालिद का नाम शैख़ मुहम्मद करीम इब्न-ए-शैख़ तुफ़ैल था। इब्तिदाई ता’लीम सिलसिला के मुताबिक़ रुहानी और दीनी हुई। दुर्रानी के हमला ने देहली को तबाह-ओ-बर्बाद कर दिया था| इसी हर्ज-ओ-मर्ज के बीच लोग देहली को ख़ैरबाद कहने पर मजबूर हुए। इसी बाइ’स ख़्वाजा रुकनुद्दीन इ’श्क़ भी मुर्शिदाबाद चले गए और नवाब मीर क़ासिम के यहाँ हज़ार सवार की अफ़सरी के मन्सब पर फ़ाइज़ हुए। फ़ौजी मुलाज़मत उनको पसंद न आई और अ’ज़ीमाबाद (पटना) तशरीफ़ ले गए। वहाँ मख़दूम मुनइ’म-ए-पाक की मज्लिस में जाने लगे|चूँकि बचपन से उनको अपने नाना के मुरीद-ओ-ख़लीफ़ा मौलाना बुर्हानुद्दीन ख़ुदानुमा से बैअ’त करने की ख़्वाहिश थी लिहाज़ा ख़ालिसपुर मुत्तसिल लखनऊ गए और मौलाना बुर्हानुद्दीन ख़ुदानुमा से बैअ’त हुए। शरफ़-ए-बैअ’त हासिल कर के दुबारा अ’ज़ीमाबाद वापस चले आए।अ’ज़ीमाबाद इस क़द्र उनको पसंद आया कि इस शहर को मुस्तक़िल मस्कन बनाया। आपको मख़दूम मुनइ’म-ए-पाक से भी इजाज़त और इस्तिर्शाद हासिल था। रुश्द-ओ-हिदायत के लिए ख़्वाजा इ’श्क़ ने तकिया पर एक ख़ानक़ाह की बुनियाद डाली और ये तकिया इ’श्क़ के नाम से मशहूर हुआ जिसे अब बारगाह-ए- हज़रत-ए-इ’श्क़ कहा जाता है। आपका विसाल 8 जमादीउल अव्वल 1203 हिज्री मुवाफ़िक़ 1788 ई’स्वी में तकिया-ए-इ’श्क़ में हुआ और उसी ख़ानक़ाह की महबूब ख़ाक आख़िरी आराम-गाह बनी। ग़ुलाम हुसैन शोरिश भी ख़्वाजा इ’श्क़ के बड़े मो’तक़िद और तर्बियत-याफ़्ता थे। ख़्वाजा इ’श्क़ ही के ईमा पर अपना मशहूर तज़्किरा "तज़्किरा-ए-शोरिश-ए-लिखा है जिसमें ख़्वाजा रुकनुद्दीन इ’श्क़ के हालात और इन्तिख़ाब-ए-कलाम पर बहस की है| इ’श्क़ के रुश्द-ओ-हिदायत का दाएरा अगर वसीअ’ है तो उनके फ़न्नी-ओ-लिसानी असरात का सिलसिला भी कुछ महदूद नहीं है। मिर्ज़ा मुहम्मद अ’ली फ़िद्वी जैसे जय्यिद शाइ’र उनके शागिर्द-ए-रशीद रहे हैं। उनकी तसानीफ़ में सात सौ सफ़हात पर मुश्तमिल एक उर्दू का कुल्लियात मौजूद है।एक दीवान फ़ारसी का और चंद क़लमी रिसाले जो तसव्वुफ़ पर लिखे गए हैं, ख़्वाजा इ’श्क़ की याद-गार हैं। उनमें से एक रिसाला “अमवाजुल-बहार” भी है

 


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