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होंट से जब साग़र लगता है

आस रहबर कलकतवी

होंट से जब साग़र लगता है

आस रहबर कलकतवी

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    होंट से जब साग़र लगता है

    नाम-ए-'इश्क़ से डर लगता है

    जाती है दानिश-मंदी

    प्यार में जब ख़ंजर लगता है

    जो भी वफ़ा के नग़्मे गाए

    वो मुझे ग़ारत-गर लगता है

    सर से उठे जो बाप का साया

    फिर बेटा बे-पर लगता है

    रंज-ओ-अलम अपने ही दें तो

    दिल ग़म का दफ़्तर लगता है

    सोने के पिंजरे से बेहतर

    मुझ को मेरा घर लगता है

    ढाए ज़ुल्म-ओ-सितम मुफ़्लिस पर

    उस का दिल पत्थर लगता है

    नक़्श-ए-क़दम मुर्शिद के चल कर

    इंसाँ बाला-तर लगता है

    दिल ले लेता है दिल दे कर

    यूँ वो सौदागर लगता है

    उस में नहीं कोई ईफ़ाई

    क्यूँ ये मुझे अक्सर लगता है

    अंदाज़-ए-सुख़न 'रहबर' से सीखो

    वो शा'इर बरतर लगता है

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