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ये बज़्म-ए-’इश्क़-ए-हक़ है हैराँ शुद अस्त मा रा

आकिफ़ हुसैन शाहवली

ये बज़्म-ए-’इश्क़-ए-हक़ है हैराँ शुद अस्त मा रा

आकिफ़ हुसैन शाहवली

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    ये बज़्म-ए-’इश्क़-ए-हक़ है हैराँ शुद अस्त मा रा

    हर ज़र्रा दीदः-ए-नूर अफ़्शाँ शुद अस्त मा रा

    हर मौज बहर-ए-फुर्क़त तूफ़ाँ शुद अस्त मा रा

    हर अश्क सोज़-ए-दिल में मर्जां शुद अस्त मा रा

    हर नक़्श-ए-काइनात अब बे-रंग-ओ-बे सफ़ा है

    बस जल्वा-ए-जमाली 'उन्वाँ शुद अस्त मा रा

    सज्दे में गिर पड़े हम नज़्ज़ारा-ए-हरम पर

    पत्थर भी ख़ाक हो कर दरबाँ शुद अस्त मा रा

    हर साँस में तजल्ली हर ज़ख़्म में तबस्सुम

    दश्त-ए-जुनूँ भी जैसे बुस्ताँ शुद अस्त मा रा

    मय-ख़ाना-ए-हक़ीक़त में जो सबूह पी है

    इक क़त्रा जाम-ए-वहदत तूफ़ाँ शुद अस्त मा रा

    अब चाह-ए-नीलगूँ में उम्मीद की क़बा क्या

    ज़ंजीर भी शिकस्ता ज़िंदाँ शुद अस्त मा रा

    दिल के ख़राब ख़ाने में शमएँ' जल उठी हैं

    वीरानियाँ भी रंगीं ऐवाँ शुद अस्त मा रा

    हर रहगुज़र पे पाया ख़ुश्बू तिरी वफ़ा की

    अब सँग भी मचल कर गुल-दाँ शुद अस्त मा रा

    हर दाग़-ए-दिल के बदले इक ज़ख़्म-ए-नौ मिला है

    अब ख़ून-ए-दिल भी आख़िर दरमाँ शुद अस्त मा रा

    ‘नौशा’ जुनूँ की मंज़िल दुश्वार कब रही है

    हर ख़ार राह-ए-उल्फ़त बुस्ताँ शुद अस्त मा रा

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