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हुस्न की ज़िद से ग़मों को जावेदाँ करना पड़ा

बहज़ाद लखनवी

हुस्न की ज़िद से ग़मों को जावेदाँ करना पड़ा

बहज़ाद लखनवी

MORE BYबहज़ाद लखनवी

    हुस्न की ज़िद से ग़मों को जावेदाँ करना पड़ा

    अपने 'आलम को बहार-ए-बे-ख़िज़ाँ करना पड़ा

    मय-कदे में एहतिराम-ए-मय-कशाँ करना पड़ा

    दिल जहाँ झूमा था इक सज्दा वहाँ करना पड़ा

    तेरी ख़ातिर ये निगाह-ए-दिल-सिताँ करना पड़ा

    ख़ार ग़ुंचों को बहारों को ख़िज़ाँ करना पड़ा

    अपनी हद से बढ़ चला जब कुछ नियाज़-ए-बंदगी

    एक सज्दा बे-क़ियाम-ए-आस्ताँ करना पड़ा

    उन का अंदाज़-ए-तख़ातुब के तसद्दुक़ जाइए

    अपने अश्कों को भी ज़ेब-ए-दास्ताँ करना पड़ा

    जब गुल-ओ-बुलबुल में कुछ थोड़ी सी चश्मक हो चली

    पत्ता-पत्ता को चमन के हम-ज़बाँ करना पड़ा

    मेरी ख़ामोशी को जब तर्ज़-ए-कलाम आने लगा

    उन की महफ़िल में ज़बाँ को बे-ज़बाँ करना पड़ा

    फ़स्ल-ए-गुल में ये ख़याल आता है अक्सर बार-बार

    अपने ही दामन को ख़ुद क्यूँ धज्जियाँ करना पड़ा

    'इश्क़ का ए'जाज़ 'बहज़ाद' मुज़्तर क्या कहूँ

    बेशतर मुझ को ज़मीं का आसमाँ करना पड़ा

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