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अब और क्या तलब करें अपनी ज़बाँ से हम

बहज़ाद लखनवी

अब और क्या तलब करें अपनी ज़बाँ से हम

बहज़ाद लखनवी

MORE BYबहज़ाद लखनवी

    अब और क्या तलब करें अपनी ज़बाँ से हम

    सब कुछ तो पा चुके हैं तिरे आस्ताँ से हम

    घबरा के कह दिया निगह-ए-इंतिज़ार ने

    अब तक कह सके थे जो अपनी ज़बाँ से हम

    बे-दिल से बे-ख़याल से बे-ए'तिबार से

    खेला किए फ़ज़ा-ए-बहार-ओ-ख़िज़ां से हम

    आग़ाज़-ए-’इश्क़ ये है कि अंजाम-ए-शौक़ है

    कुछ बद-गुमाँ से वो हैं तो कुछ बद-गुमाँ से हम

    सद शुक्र फिर क़फ़स में बहलने लगा है दिल

    मानूस हो चले हैं ग़म-ए-आशियाँ से हम

    रूदाद-ए-ज़िंदगी में जो है ज़िक्र-ए-बे-ख़ुदी

    ये वो जगह है भूल गए हैं जहाँ से हम

    'बहज़ाद' ज़ौक़-ओ-शौक़ के क़ुर्बान जाइए

    लिपटे हुए हैं दामन-ए-पीर-ए-मुग़ाँ से हम

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